text
stringlengths 60
141k
|
---|
पीडीए या पर्सनल डिजिटल असिस्टंट एक ऐसा छोटा कंप्यूटर है जिसे आप डिजिटल डायरी की तरह जेब में कहीं भी ले जा सकते हैं। यह एक साधारण कंप्यूटर की तरह ही काम करता है लेकिन आप इसे मोबाइल फ़ोन की तरह या फिर इंटरनेट पर जाने के भी इस्तेमाल कर सकते हैं। पीडीए में लिखने के लिए एक विशेष पेन्सिल का इस्तेमाल होता है। इसके ज़रिए आप ठीक वैसे ही लिख सकते हैं जैसे की स्कूल में कॉपी में लिखा करते थे। वैसे कई पीडीए में कीबोर्ड पर टाइप करने की सुविधा भी होती है। अब बाज़ार में ऐसे पीडीए भी मिलने लगे हैं जो आपकी आवाज़ पहचान कर उसे शब्दों में उतार सकते हैं। लेकिन ये सुविधा अभी बहुत कम भाषाओं में ही उपलब्ध है |
कम्प्यूटर वायरस या कम्प्यूटर विषाणु एक कंप्यूटर प्रोग्राम (कंप्यूटर प्रोग्राम) है जो अपनी अनुलिपि कर सकता है और उपयोगकर्ता की अनुमति के बिना एक कंप्यूटर को संक्रमित कर सकता है और उपयोगकर्ता को इसका पता भी नहीं चलता है। विभिन्न प्रकार के मैलवेयर (मालवारे) और एडवेयर (अद्वारे) प्रोग्राम्स के सन्दर्भ में भी "वायरस" शब्द का उपयोग सामान्य रूप से होता है, हालाँकि यह कभी-कभी ग़लती से भी होता है। मूल वायरस अनुलिपियों में परिवर्तन कर सकता है, या अनुलिपियाँ ख़ुद अपने आप में परिवर्तन कर सकती हैं, जैसा कि एक रूपांतरित वायरस (मेटामॉर्फीक वाइरस) में होता है। एक वायरस एक कंप्यूटर से दूसरे कंप्यूटर में तभी फ़ैल सकता है जब इसका होस्ट एक असंक्रमित कंप्यूटर में लाया जाता है, उदाहरण के लिए एक उपयोगकर्ता के द्वारा इसे एक नेटवर्क या इन्टरनेट पर भेजने से, या इसे हटाये जाने योग्य माध्यम जैसे फ्लॉपी डिस्क (फ्लोपी डिस्क), चड (चड), या उसब ड्राइव (उसब ड्राइव) पर लाने से. इसी के साथ वायरस एक ऐसे संचिका तंत्र या जाल संचिका प्रमाली (नेटवर्क फाइले सिस्टम) पर संक्रमित संचिकाओं के द्वारा दूसरे कम्पूटरों पर फ़ैल सकता है जो दूसरे कम्प्यूटरों पर भी खुल सकती हों.कभी कभी कंप्यूटर का कीड़ा (कंप्यूटर वर्म) और ट्रोजन होर्सेस (ट्रोजन हार्सस) के लिए भी भ्रम पूर्वक वायरस शब्द का उपयोग किया जाता है। एक कीडा अन्य कम्प्यूटरों में ख़ुद फैला सकता है इसे पोषी के एक भाग्य के रूप में स्थानांतरित होने की जरुरत नहीं होती है और एक ट्रोजन होर्स एक ऐसी फाईल है जो हानिरहित प्रतीत होती है। कीडे और ट्रोजन होर्स एक कम्यूटर सिस्टम के आंकडों, कार्यात्मक प्रदर्शन, या कार्य निष्पादन के दौरान नेटवर्किंग को नुकसान पहुंचा सकते हैं। सामान्य तौर पर, एक कीड़ा वास्तव में सिस्टम के हार्डवेयर या सॉफ्टवेयर को नुकसान नहीं पहुंचाता, जबकि कम से कम सिद्धांत रूप में, एक ट्रोजन पेलोड, निष्पादन के दोरान किसी भी प्रकार का नुकसान पहुँचने में सक्षम होता है। जब प्रोग्राम नहीं चल रहा है तब कुछ भी नहीं दिखाई देता है लेकिन जैसे ही संक्रमित कोड चलता है, ट्रोजन होर्स प्रवेश कर जाता है। यही कारण है कि लोगों के लिए वायरस और अन्य मैलवेयर को खोजना बहुत ही कठिन होता है और इसीलिए उन्हें स्पायवेयर प्रोग्राम और पंजीकरण प्रक्रिया का उपयोग करना पड़ता है।
आजकल अधिकांश व्यक्तिगत कंप्यूटर इंटरनेट और लोकर एरिया नेटवर्क से जुड़े हैं और लोकल एरिया नेटवर्क (लोकल एरिया नेटवर्क), दूषित कोड को फैलाने की प्रक्रिया को सुविधाजनक बनाता है। आज का वायरस नेटवर्क सेवाओ का भी लाभ उठा सकता है जैसे वर्ल्ड वाइड वेब, ई मेल, त्वरित संदेश (इंस्टेंट मेसेजिंग) और संचिका साझा (फाइले शरिंग) प्रणालियां वायरसों और कीडों को फैलने में मदद करती हैं। इसके अलावा, कुछ स्रोत एक वैकल्पिक शब्दावली का उपयोग करते हैं, जिसमें एक वायरस स्व-अनुलिपि करने वाले मैलवेयर (मालवारे) का एक रूप होता है।
कुछ मेलवेयर, विनाशकारी प्रोग्रामों, संचिकाओं को डिलीट करने, या हार्ड डिस्क की पुनः फ़ॉर्मेटिंग करने के द्वारा कंप्यूटर को क्षति पहुचाने के लिए प्रोग्राम किए जाते हैं। अन्य मैलवेयर प्रोग्राम किसी क्षति के लिए नहीं बनाये जाते हैं, लेकिन साधारण रूप से अपने आप को अनुलिपित कर लेते हैं औए शायद कोई टेक्स्ट, वीडियो, या ऑडियो संदेश के द्वारा अपनी उपस्थिति को दर्शाते हैं। यहाँ तक की ये कम अशुभ मैलवेयर प्रोग्राम भी [उपयोगकर्ता (कम्प्यूटिंग)|कंप्यूटर उपयोगकर्ता] (कंप्यूटर उसर) के लिए समस्याएँ उत्पन्न कर सकते हैं।.वे आमतौर पर वैध कार्यक्रमों के द्वारा प्रयोग की जाने वाली कम्प्यूटर की स्मृति (कंप्यूटर मेमोरी) को अपने नियंत्रण में ले लेते हैं। इसके परिणामस्वरूप, वे अक्सर अनियमित व्यवहार का कारण होते हैं और सिस्टम को नुकसान पहुंचाते हैं। इसके अतिरिक्त, बहुत से मैलवेयर बग (ब्ग) से ग्रस्त होते हैं, और ये बग सिस्टम को नुक्सान पंहुचा सकते हैं या डाटा क्षति (डाटा लॉस) का कारण हो सकते हैं। कई सीआईडी प्रोग्राम ऐसे प्रोग्राम हैं जो उपयोगकर्ता द्वारा डाउनलोड किए गए हैं और हर बार पॉप अप किए जाते हैं। इसके परिणाम स्वरुप कंप्यूटर की गति बहुत कम हो जाती है लेकिन इसे ढूंढ़ना और समस्या को रोकना बहुत ही कठिन होता है।
सबसे पहला वायरस क्रीपर था जो अरपानेट (अर्पनेट), पर खोजा गया, जो १९७० के दशक की शुरुआत में इंटरनेट से पहले आया था।यह टेनेक्स (टेनेक्स) ऑपरेटिंग सिस्टम के द्वारा फैला और यह कंप्यूटर को नियंत्रित और संक्रमित करने के लिए किसी भी जुड़े मॉडम का उपयोग कर सकता था। यह संदेश प्रदर्शित कर सकता है कि "मैं क्रीपर हूँ; अगर पकड़ सकते हो तो मुझे पकडो". यह अफवाह थी कि रीपर प्रोग्राम, जो इसके कुछ ही समय बाद प्रकट होता है और क्रीपर की प्रतियाँ बनाता है और उन्हें हटा देता है, इसे संभवतया क्रीपर के निर्माता के द्वारा खेद पत्र में लिखा गया है।
एक आम धारणा है कि एक प्रोग्राम जो "रोथर ज (रोतेर ज)"कहलाता था वह "इन दी वाइल्ड " प्रकट होने वाला पहला कंप्यूटर वायरस था यह एक कंप्यूटर के बाहर या प्रयोगशाला में बनाया गया, लेकिन यह दावा ग़लत था। अन्य हाल ही के वायरसों के लिए जाने-माने कंप्यूटर वायरसों और कीडों की समय रेखा (टिमलिन ऑफ नोटेबल कंप्यूटर वाइरुसेस एंड वर्मस) देखें.लेकिन यह " घर में " कम्प्यूटरों को संक्रमित करने वाला पहला वायरस था। १९८२ में रिचर्ड स्क्रेंता (रिचर्ड स्क्रेंटा), के द्वारा लिखा गया, इसने ख़ुद को एप्पल डोस (आपोल डोस) ३.३ ऑपरेटिंग सिस्टम के साथ जोड़ लिया और फ्लॉपी डिस्क (फ्लोपी डिस्क) के द्वारा फैला.मूलतः यह वायरस एक हाई स्कूल के छात्र के द्वारा निर्मित एक मजाक था और इसे एक खेल के रूप में फ्लॉपी डिस्क पर डाल दिया गया। इसके ५० वें उपयोग पर एल्क क्लानर (एल्क क्लानर) वायरस सक्रिय हो गया, जिसने कंप्यूटर को संक्रमित किया और यह एक छोटी कविता को प्रर्दशित करता था " एल्क क्लानर:थे प्रोग्राम वित आ पर्सनालिटी".
इन दी वाइल्ड पहला पीसी वायरस एक बूट क्षेत्र का वायरस था जो (च) ब्रेन ((च)ब्रेन) कहलाता था, इसे फारूक अल्वी ब्रदर्स (फ़रूक अल्वी ब्रआयर्स) के द्वारा १९८६ में बनाया गया, तथा लाहौर, पाकिस्तान के बाहर संचालित किया गया। इन्होने इस कथित वायरस को उनके द्वारा बनाये गए सोफ्टवेयर की प्रतियों कि चोरी रोकने के लिए बनाया.यद्यपि, विश्लेषकों ने दावा किया कि अशर वायरस जो, ब्रेन की एक प्रजाति है, संभवतः वायरस के अन्दर कोड के आधार पर इसे पूर्व दिनांकित करता है।
इससे पहले की कंप्यूटर नेटवर्क व्यापक होते अधिकांश वायरस हटाये जाने योग्य मध्यम (रिमोवेबल मीडिया), विशेष रूप से फ्लॉपी डिस्क (फ्लोपी डिस्क) पर फैल गए। शुरुआती दिनों में निजी कंप्यूटर (पर्सनल कंप्यूटर), के कई उपयोगकर्ताओं के बीच नियमित रूप से जानकारी और प्रोग्रामों का विनिमय फ्लोपियों के द्वारा होता था। कई वायरस इन डिस्कों पर उपस्थित संक्रमित प्रोग्रामों से फैले, जबकि कुछ ने अपने आप को डिस्क के बूट क्षेत्र (बूट सेक्टर) में इंस्टाल कर लिया, इससे यह सुनिश्चित हो गया की जब उपयोगकर्ता कंप्यूटर को डिस्क से बूट करेगा तो यह अनजाने में ही चल जाएगा.उस समय के पी सी पहले फ्लोपी से बूट करने का प्रयास करते थे, यदि कोई फ्लोपी ड्राइव में रह गई है। जब तक फ्लोपी का उपयोग कम नहीं हो गया तब तक यह सर्वाधिक सफल संक्रमण रणनीति थी, इन थे वाइल्ड बूट क्षेत्र के वायरसों को बनाना सबसे आसान था।
पारंपरिक कंप्यूटर वायरस १९८० के दशक में उभरे, ऐसा निजी कंप्यूटर का उपयोग बढ़ने के कारण हुआ और इसके परिणाम स्वरुप ब्ब्स (ब्ब्स) और मॉडेम (मोडम) का उपयोग, तथा सॉफ्टवेयर का आदान-प्रदान बढ़ गया।बुलेटिन बोर्ड (बुलेटीं बोर्ड) सॉफ्टवेयर के आदान प्रदान ने प्रत्यक्ष रूप से ट्रोजन होर्स प्रोग्राम्स को फैलाया और वायरस लोकप्रिय व्यावसायिक सॉफ्टवेयर को संक्रमित करने के लिए बनाये जाते थे।शेयरवेयर (शर्वारे) और बूटलेग (बूटलीग) ब्ब्स के वायरस के लिए आम वाहक (वेक्टर्स) थे।होबिस्ट्स के "पाइरेट सीन" में जो खुदरा सॉफ्टवेयर (रिटेल सोफ्त्वरे), की अवैध प्रतियों का व्य[पार कर रहे थे, व्यापारी आधुनिक अनुप्रयोगों और खेलों को जल्दी प्राप्त करना चाहते थे क्योंकि ये आसानी से वायरसों का लक्ष्य बनाये जा सकते थे।
१९९० के दशक के मध्य के बाद से, मैक्रो वायरस (मैक्रो वाइरस) आम हो गए .इनमें से अधिकांश वायरस माइक्रोसोफ्ट प्रोग्राम जैसे वर्ड (वर्ड) औरएक्सेल (एक्सेल) के लिए पटकथा भाषाओं में लिखे जाते हैं। ये वायरस दस्तावेज़ और स्प्रेडशीट को संक्रमित करते हुए माइक्रोसॉफ्ट ऑफिस में फ़ैल जाते हैं। चूंकि वर्ड और एक्सेल मैक ओस (मैक ओस) के लिए भी उपलब्ध थे, इसलिए इनमें से अधिकांश वायरस मसिंतोष कंप्यूटर (मसिंतोष कंप्यूटर्स) पर भी फ़ैल सकते थे। इनमें से अधिकांश वायरसों में संक्रमित ई मेल भेजने की क्षमता नहीं थी। जो वायरस ईमेल के माध्यम से फ़ैल सकते थे उन्होंने माइक्रोसॉफ्ट आउटलुक (माइक्रोसॉफ्ट आउटलूक) कॉम (कॉम) इंटरफेस का फायदा उठाया.
मैक्रो वायरस ने सॉफ्टवेयर का पता लगाने में अद्वितीय समस्या उत्पन्न कर दी.उदाहरण के लिए, माइक्रोसॉफ्ट वर्ड के कुछ संस्करणों ने मेक्रोस को अतिरिक्त रिक्त लाइनॉन के साथ अनुलिपित होने की इजाजत दे दी.वायरस समान रूप से व्यवहार करता था लेकिन इसे एक नए वायरस के रूप में पहचानने की भूल की जा रही थी। एक अन्य उदाहरण में, यदि दो मेक्रो वायरस एक दस्तावेज को एक साथ संक्रमित करते हैं और इन दोनों का संयोजन अपने आप को अनुलिपित कर सकता है, तो यह इन दोनों से "अलग" रूप में प्रकट होता है और एक वायरस होता है जो अपने " अभिभावकों " से अलग होता है।
एक वायरस एक संक्रमित मशीन पर सभी सम्पर्कों को त्वरित संदेश (इंस्टेंट मेसान) के रूप में एक वेब पता (वेब एड्डरेस) लिंक भेज सकता है। यदि प्राप्तकर्ता, यह सोचता है कि लिंक एक मित्र (एक विश्वसनीय स्रोत) से है, वह वेब साईट पर लिंक का अनुसरण करता है, साईट पर उपस्थित वायरस इस नए कंप्यूटर को संक्रमित करने में समर्थ हो सकता है और अपना प्रसार करने लगता है।
वायरस परिवार की सबसे नई प्रजाति है क्रोस साईट पटकथा वायरस.यह वायरस अनुसंधान से उभरा और २००५ में इसका अकादमिक रूप से प्रदर्शन हुआ।यह वायरस क्रोस साईट पटकथा (क्रॉस-सायट स्कृप्टिंग) का उपयोग करके प्रसारित होता है। २००५ के बाद से इन थे वाइल्ड, क्रोस साईट पटकथा वायरसों के बहुत से उदहारण रहे हैं, सबसे उल्लेखनीय प्रभावित साईटें हैं माइस्पेस (मैस्पेस) और याहू.
संक्रमण की रणनीतियां
अपने आप की अनुलिपि करने के लिए, एक वायरस को कोड का निष्पादन करने की तथा स्मृति पर लिखने की अनुमति होनी चाहिए इस कारण से, कई वायरस अपने आप को निष्पादन योग्य फाईलों से संलग्न कर लेते हैं जो उचित प्रोग्राम का हिस्सा हो सकता है। यदि एक उपयोग कर्ता एक संक्रमित प्रोग्राम को शुरू करने की कोशिश करता है तो, ऐसा हो सकता है की पहले वायरस का कोड निष्पादित हो. वाइरसों को दो प्रकार में विभाजित किया जा सकता है, उनके व्यवहार के आधार पर और उनके निष्पादन के आधार पर.अनिवासी वायरस तुंरत अन्य पोशियों को खोजते हैं जिन्हें संक्रमित किया जा सकता है, इन लक्ष्यों को संक्रमित करते हैं और अंततः नियंत्रण को अनुप्रयोग प्रोग्राम (आप्लिकेशन प्रोग्राम) पर स्थानांतरित कर देते हैं जिसे उन्होंने संक्रमित किया है। निवासी वायरस पोशी की तलाश नहीं करते हैं जब वे शुरू होते हैं। इसके बजाय, एक निवासी वायरस अपने आप को निष्पादन पर स्मृति में लोड कर लेता है और नियंत्रण को पोषी प्रोग्राम पर स्थानांतरित कर देता है। वायरस पृष्ठ भूमि में सक्रिय रहता है और नए पोषियों को संक्रमित करता है जब इन फाईलों को अन्य प्रोग्रामों या ख़ुद ऑपरेटिंग सिस्टम के द्वारा एक्सेस किया जाता है।
ऐसा माना जाता है कि अनिवासी वायरस एक खोजक मॉड्यूल और एक प्रतिकृति मॉड्यूल से युक्त होता है। खोजक मॉड्यूल संक्रमण हेतु नई फाईलें खोजने के लिए उत्तरदायी होता है। हर नई निष्पादन योग्य फाईल के लिए खोजक मॉड्यूल आक्रमण कर देता है, यह फाईल को संक्रमित करने के लिए अनुलिपि मॉड्यूल को बुलाता है।
निवासी वायरस में एक अनुलिपि मॉड्यूल होता है जो एक अनिवासी वायरस के द्वारा नियोजित अनुलिपि मॉड्यूल के समान होता है। यद्यपि यह मोड्यूल खोजक मोड्यूल के द्वारा नहीं बुलाया जाता है। इसके बजाय, वायरस अनुलिपि मोड्यूल को स्मृति में लोड करता है जब इसका निष्पादन होता है और यह सुनिश्चित कर लेता है कि हर बार जब ऑपरेटिंग सिस्टम एक निश्चित आपरेशन का प्रदर्शन करता है तो इस मॉड्यूल का निष्पादन होता है। उदाहरण के लिए, हर बार जब ऑपरेटिंग सिस्टम एक संचिका को निष्पादित करता है, अनुलिपि मोड्यूल को बुलाया जा सकता है। इस मामले में, वायरस कंप्यूटर पर निष्पादित होने वाले प्रत्येक उपयुक्त प्रोग्राम को संक्रमित कर देता है।
कभी कभी निवासी वायरस को आगे दो श्रेणियों में उपविभाजित किया जाता है एक तीव्र संक्रामक और दूसरे धीमें संक्रामक.तीव्र संक्रामक को इस प्रकार से बनाया गया है कि जितनी अधिक संचिकाओं को हो सके संक्रमित कर सके. उदाहरण के लिए, एक तीव्र संक्रामक अक्सेस हो सकने वाली हर सम्भव पोषी संचिका को संक्रमित करता है। यह एक वायरस रोधी सॉफ्ट वेयर के लिए एक विशेष समस्या है, चूँकि एक वायरस स्केनर हर सम्भव पोषी संचिका को अक्सेस कर लेगा जब यह सिस्टम का व्यापक स्केन करता है। यदि वायरस स्केनर इस बात का ध्यान नहीं रख पाता कि ऐसा एक वायरस स्मृति में उपस्थित है, वायरस स्केनर पर पीछे से वार करता है और इस प्रकार से स्केन हो रही सभी संचिकाओं को संक्रमित कर देता है। तीव्र संक्रामक अपने प्रसार के लिए तीव्र संक्रमण दर पर भरोसा करते हैं। इस विधि का नुकसान यह है कि कई संचिकाओं को संक्रमित करने से पता लगाने की संभावना अधिक हो जाती है, क्यों कि वायरस कम्पूटर को धीमा कर देता है या कई संदिग्ध क्रियाओं को करता है जो वायरस विरोधी सॉफ़्टवेयर के द्वारा देखी जा सकती हैं। दूसरी और धीमे संक्रामक, इस प्रकार से बनाये जाते हैं कि वे पोषी को अन-आवृत रूप से संक्रमित करते हैं। उदाहरण के लिए, कुछ धीमे संक्रामक संचिकाओं को केवल तभी संक्रमित करते हैं जब उनको कॉपी किया जा रहा है। धीमे संक्रामक कि सीमित क्रिया कि वजह से उनका पता लगाना आसान नहीं होता है: वे कंप्यूटर को बहुत अधिक धीमा नहीं करते हैं, पर बार-बार वायरस विरोधी सॉफ्ट वेयर को झटका देते हैं जिसे प्रोग्रामों के संदिग्ध व्यवहार के द्वारा पहचाना जा सकता है। धीमे संक्रामक बहुत अधिक सफल प्रतीत नहीं होते हैं,
वाहक और पोषी
वायरसों ने भिन्न प्रकार के प्रसार माध्यमों या पोषियों को लक्ष्य बनाया है। यह सूची ख़त्म नहीं हो सकती है:
अनुप्रयोग विशिष्ट स्क्रिप्ट संचिकाएँ (जैसे टेलिक्स (टेलिक्स)- लिपियाँ)
क्रोस साईट पटकथा (क्रॉस-सायट स्कृप्टिंग) वेब अनुप्रयोगों में कमजोरियां
मनमानी कंप्यूटर संचिकाएँ. एक दोहन योग्य बफर अतिप्रवाह (बाफर ओवरफ्लो), प्रारूप स्ट्रिंग (फोरमत स्ट्रिंग), रेस की स्थिति (रेस कोंडिशन) या अन्य प्रोग्राम में दोहन योग्य एक बग जो संचिका को पढता है इसके भीतर छुपे हुए कोड के निष्पादन पर हमला कर सकता है। इस प्रकार के अधिकांश बग कंप्यूटर वास्तुकला (कंप्यूटर अर्किटेक्चर) में दोहन के लिए अधिक जटिल बनाये जा सकते हैं इसमें सुरक्षा लक्षण जैसे एक निष्पादित निष्क्रिय बिट (एसेकूट डिसएबल बित) और / या लेआउट रैंडोमिज़शन होते हैं।
पफ्स, जैसे हत्मल, दुर्भावनापूर्ण कोड से सम्बंधित हो सकता है।
कुछ वायरस लेखकों ने जो लिखा है उसका कोई महत्त्व नहीं है।एक्से विस्तार के अंत परपंग (उदाहरण के लिए), उम्मीद है कि उपयोगकर्ता विश्वस्त फाईल के प्रकार पर रुक जाएगा, वह इस बात पर ध्यान नहीं देगा की कंप्यूटर अंतिम प्रकार की संचिका के साथ प्रारंभ होगा.(कई ऑपरेटिंग सिस्टम ज्ञात संचिका प्रकार के विस्तार को बाई डिफॉल्ट छुपा लेते हैं, इसलिए उदाहरण के लिए एक संचिका का नाम जो ".पंग.एक्से" पर ख़त्म होता है,".पंग" पर ख़त्म होता हुआ प्रर्दशित किया जाएगा.) ट्रोजन हार्स (कम्प्यूटिंग) (ट्रोजन हॉर्स (कंप्युटिंग)) देखें
पता लगाने से बचने के लिए विधियां
उपयोगकर्ता के द्वारा पता लगाने से बचने के लिए, कुछ वाईरस विभिन्न प्रकार के छल करते हैं। कुछ पुराने वायरस, विशेष रूप से म्स - डोस मंच पर, यह सुनिश्चित कर लेते हैं कि जब संचिका को वायरस के द्वारा संक्रमित किया जाता है तो पोषी संचिका के " अंतिम बार संशोधित " होने की दिनांक बनी रहती है। यद्यपि यह दृष्टिकोण वायरस विरोधी सॉफ़्टवेयर को मुर्ख नहीं बनता है, विशेष रूप से वो जो संचिका परिवर्तन पर चक्रीय अतिरेक की जाँच (सायकलीक रेडुन्डैनकी चेक) कि दिनांकों को बनाये रखता है।
कुछ वायरस अपने आकार को बढाये बिना और संचिकाओं को क्षति पहुचाये बिना संचिकाओं को संक्रमित कर सकते हैं। वे ऐसा निष्पादन योग्य संचिकाओं के अप्रयुक्त क्षेत्रों में अधिलेखन के द्वारा करते हैं। ये केविटी वायरस कहलाता है। उदाहरण के लिए की सीह वायरस (सीह वाइरस), या चेरनोबिल वायरस (चेर्नोबल वाइरस), पोर्टेबल निष्पादन योग्य (पोर्टेबल एसेकुटेबल) संचिकाओं को संक्रमित करता है। क्योंकि उन संचिकाओं में कई खाली स्थान थे, वायरस जो १ कब (कब) लंबाई का था, संचिका के आकर में नहीं जुड़ा.
कुछ वायरस वायरस विरोधी सॉफ्टवेयर के कार्य को ख़त्म करके अपने आप को प्रकट नहीं होने देते हैं, इससे पहले कि वह उसका पता लगा ले.
क्योंकि कंप्यूटर और ऑपरेटिंग सिस्टम अधिक विकसित और जटिल हो रहे हैं, छुपाने कि पुरानी तकनीकों को नवीनीकृत करने या प्रतिस्थापित करने कि आवशयकता है। एक कंप्यूटर को वायरस से सुरक्षित रखने कि मांग यह हो सकती है कि संचिका तंत्र हर प्रकार के संचिका एक्सेस के लिए विस्तृत और स्पष्ट अनुमति की और पलायन कर जाए.
बैट संचिकाओं और अन्य अवांछनीय पोषियों को टालना
एक वायरस के लिए आगे फैलने के लिए पोषियों को संक्रमित करने कि जरुरत होती है। कुछ मामलों में, एक पोषी को संक्रमित करना एक खराब विचार हो सकता है उदाहरण के लिए, कई वायरस विरोधी प्रोग्राम अपने कोड की अखंडता की जांच करते हैं। इसलिए ऐसे प्रोग्रामों का संक्रमण इस सम्भावना को बढ़ाएगा कि इस वायरस का पता चल गया है। इस कारण से, कुछ वायरस उन प्रोग्रामों को संक्रमित नहीं करते हैं जो वायरस विरोधी सॉफ़्टवेयर का हिस्सा है। एक अन्य प्रकार का पोषी जिससे वायरस कभी कभी बचने कि कोशिश करता है वह है बैट संचिकाएँ.बैट संचिकाएँ (या गोट संचिकाएँ) वे संचिकाएँ हैं जो कि विशेष रूप से वायरस विरोधी सॉफ़्टवेयर या ख़ुद वायरस विरोधी पेशेवरों के द्वारा एक वायरस के द्वारा संक्रमित होने के लिए बनाई गई हैं। इन संचिकाओं को भिन्न कारणों से बनाया जा सकता है, ये सभी वायरस का पता लगाने से सम्बंधित हैं।
वायरस विरोधी पेशेवर बैट संचिकाओं का उपयोग एक वायरस के नमूने लेने के लिए कर सकते हैं। (अर्थात एक ऐसे प्रोग्राम संचिका कि कॉपी जो वायरस के द्वारा संक्रमित है।) एक छोटी संक्रमित बैट संचिका का संग्रहण और विनिमय अधिक प्रायोगिक है, बजाय एक बड़े अनुप्रयोग प्रोग्राम के जो वायरस के द्वारा संक्रमित है।
वायरस विरोधी पेशेवर बैट संचिकाओं का उपयोग वायरस के व्यवहार का अध्ययन करने के लिए और जांच विधियों के मूल्यांकन के लिए करते हैं। यह विशेष रूप से उपयोगी है जब वायरस बहुरूपी (पोलीमॉर्फीक) हो. इस मामले में, वायरस बड़ी संख्या में बैट संचिकाओं को संक्रमित कर सकता है। संक्रमित संचिकाओं को उपयोग यह पता लगाने के लिए किया जाता है कि एक वायरस स्केनर वायरस के सभी संस्करणों का पता लगता है या नहीं.
कुछ वायरस विरोधी सॉफ़्टवेयर ऐसी बैट संचिकाओं पर जाते हैं जो नियमित रूप से एक्सेस होती हैं। जब ये संचिकाएँ संशोधित की जाती हैं, वायरस विरोधी सॉफ़्टवेयर चेतावनी देता है कि शायद एक वायरस सिस्टम पर सक्रिय है।
चूँकि बैट संचिकाओं का उपयोग वायरस का पता लगाने में या जांच को सम्भव बनने में किया जाता है, वायरस के द्वारा संक्रमण नहीं होने का लाभ उठाया जा सकता है। आम तौर पर वाइरस आम तौर पर ऐसा वाइरस प्रोग्रामों से बच कर ऐसा करते हैं, जैसे छोटी प्रोग्राम संचिकाएँ या प्रोग्राम जिनमें ' कूड़ा निर्देश ' के विशिष्ट प्रतिरूप हों.
बैटिंग को मुश्किल बनाने के लिए एक संबंधित रणनीति है विरल संक्रमण.कभी कभी, विरल संक्रामक एक पोषी संचिका को संक्रमित नहीं करते हैं जो अन्य स्थितियों में संक्रमण के लिए उपयुक्त उम्मीदवार हो सकता है। उदाहरण के लिए, एक वायरस यादृच्छिक आधार पर तय कर सकता है कि एक संचिका को संक्रमित करना है या नहीं, या एक वायरस सप्ताह के विशेष दिनों में ही पोषी संचिकाओं को संक्रमित कर सकता है।
कुछ वायरस ऑपरेटिंग सिस्टम से अनुरोध करके वायरस विरोधी सॉफ़्टवेयर को धोखा देने कि कोशिश करते हैं। वायरस विरोधी सॉफ़्टवेयर संचिका को पढने का अनुरोध करता है और यह अनुरोध ओस के बजाय वायरस को जाता है, इस प्रकार से एक वायरस अपने आप को छुपा लेता है। अब वायरस विरोधी सॉफ़्टवेयर की संचिका के असंक्रमित संस्करण पर लोट जाता है, जिससे कि ऐसा प्रतीत होता है कि संचिका " स्वच्छ " है। आधुनिक वायरस विरोधी सॉफ़्टवेयर के पास वायरस की चोरी का पता लगाने के लिए कई तकनीकें हैं। चोरी को रोकने की केवल एक विश्वसनीय विधि है एक ऐसे माध्यम से बूट करना जो स्वच्छ हो.
अधिकांश वायरस विरोधी प्रोग्राम साधारण प्रोग्रामों के भीतर वायरस प्रतिरूप खोजने कि कोशिश करते हैं इसे तथाकथित वायरस के हस्ताक्षर कहा जाता है। हस्ताक्षर एक लाक्षणिक बाईट प्रतिरूप है, जो एक विशेष वायरस या वायरस परिवार का एक भाग है। यदि एक वायरस स्केनर एक संचिका में ऐसा प्रतिरूप खोज लेता है, यह उपयोगकर्ता को सूचित कर देता है कि संचिका संक्रमित है। उपयोगकर्ता फिर इस संचिका को नष्ट कर सकते हैं, या (कुछ मामलों में) संक्रमित संचिका को " शुद्ध " या " ठीक "कर सकते हैं। कुछ वायरस ऐसी तकनीकों का उपयोग करते हैं कि जो हस्ताक्षर के द्वारा इसका पता लगाने को मुश्किल ही नहीं बल्कि असंभव बना देता है। ये वायरस प्रत्येक संक्रमण पर अपना कोड बदल लेते हैं। अर्थात प्रत्येक संक्रमित संचिका में वायरस की एक अलग प्रजाति होती है।
एक चार कुंजी के साथ एन्क्रिप्शन.
वायरस के कूटलेखन के लिए एक और अधिक उन्नत विधि है सरल एन्क्रिप्शन (एंक्रिप्शन) का उपयोग.इस मामले में, वायरस एक छोटे से डेक्रिप्टिंग मॉड्यूल और वायरस के कोड कि एक एन्क्रिप्टेड कॉपी से युक्त होता है। यदि प्रत्येक संक्रमित संचिका के लिए वायरस एक अलग कुंजी से एन्क्रिप्टेड है, तो वायरस का केवल एक भाग स्थिर बना रहता है वह है डेक्रिप्टिंग मॉड्यूल, जो (उदाहरण के लिए) के अंत से संलग्न होगा.इस मामले में, एक वायरस स्कैनर हस्ताक्षर का उपयोग करके सीधे वायरस का पता नहीं लगा सकता, लेकिन यह फ़िर भी डीक्रिप्टिंग मॉड्यूल का पता लगा सकता है, जो संभव वायरस की अभी भी अप्रत्यक्ष जांच कर सकता है। चूंकि ये संक्रमित पोषी पर संग्रहित कुंजिया होंगी, वास्तव में अन्तिम वायरस को विकोड करना पूरी तरह से सम्भव है, लेकिन इसकी शायद जरुरत नहीं है, चूँकि स्वयं संशोधित कोड इतना दुर्लभ है कि इसके कारण से वायरस स्केनर कम से कम संदिग्ध संचिका को अंकित कर सकता है।
एक पुराने लेकिन कम्पैक्ट, एन्क्रिप्शन में एक स्थिर वायरस कि प्रत्येक बाईट ज़ोरिंग (ज़ोरिंग) शामिल है, ताकि ऑपरेशन का दोहरान केवल डिक्रिप्शन के लिए हो.यह संदिग्ध कोड है जो अपने आप को संशोधित करता है, इसलिए कई वायरस परिभाषाओं में एन्क्रिप्शन / डिक्रिप्शन हस्ताक्षर का एक भाग हो सकता है।
बहुरूपी कोड (पोलीमॉर्फीक कोड) पहली तकनीक थी जो वायरस स्केनर के लिए एक गंभीर खतरा बनी. नियमित एन्क्रिप्टेड वायरस की तरह, एक बहुरूपी वायरस अपने एन्क्रिप्टेड कोड के साथ संचिकाओं को संक्रमित करता है, जो एक डिक्रिप्शन मॉड्यूल के द्वारा डिकोड कर दिया जाता है। बहुरूपी वायरस के मामले में, यह डिक्रिप्शन मॉड्यूल भी प्रत्येक संक्रमण पर संशोधित होता है। इसलिए ठीक प्रकार से लिखे गए बहुरूपी वायरस में ऐसे कोई भाग नहीं हैं जो संक्रमणों में समान हों, यह हस्ताक्षर का उपयोग करके इसका पता लगाना मुश्किल बनाता है। वायरस विरोधी सॉफ़्टवेयर एक प्रतिद्वंद्वी का उपयोग करके डेक्रिप्टिंग के द्वारा इसका पता लगा सकता है, या एन्क्रिप्टेड वायरस शरीर के सांख्यिकीय प्रतिरूप विश्लेषण के द्वारा इसका पता लगा सकता है। बहुरूपी कोड को सक्षम करने के लिए, वायरस के पास इसके एन्क्रिप्टेड शरीर में कहीं पर एक बहुरूपी इंजन (इसे उत्परिवर्तन इंजन भी कहा जाता है) होना चाहिए .इस तरह के इंजन कैसे काम करते है इस पर तकनीकी विस्तार के लिए बहुरूपी कोड (पोलीमॉर्फीक कोड) देखें.
कुछ वायरस बहुरूपी कोड को इस प्रकार से काम में लेते हैं कि यह मुख्य रूप से वायरस के उत्परिवर्तन की दर को बाध्य करता है। उदाहरण के लिए, एक वायरस केवल कुछ ही समय में उत्परिवर्तित होने के लिए प्रोग्राम किया जाता है, या इसे इस प्रकार से प्रोग्राम किया जा सकता है कि जब ये कंप्यूटर पर ऐसी संचिका को संक्रमित कर रहा हो जिसमें पहले से वायरस की अनुलिपियाँ हो, तो यह उत्परिवर्तन से बच सके. जिसे धीमे बहुरूपी कोड का उपयोग करने का लाभ यह है कि इससे वायरस विरोधी पेशेवर के लिए वायरस का प्रतिनिधि का नमूना प्राप्त करना मुश्किल हो जाता है, क्योंकि बैट संचिकाएँ जो एक बार चलने में संक्रमित हो जाती हैं, उनमें प्रारूपिक रूप से वायरस का समान नमूना होगा. इसे यह सम्भावना बढ़ जायेगी कि वायरस स्केनर के द्वारा कि गई जांच अविश्वसनीय होगी और यह हो सकता है कि वायरस के कुछ उदाहरण जांच का पता लगाने में सक्षम न हों.
अनुकरण के द्वारा जांच से बचने के लिए कुछ वायरस हर बार जब एक नए निष्पादनयोग्य को संक्रमित करते हैं तब अपने आप को पुनर्लिखित कर लेते हैं। वायरस जो ऐसी तकनीक का उपयोग करते हैं वे रूपांतरित (मेटामॉर्फीक) कहलाते हैं।रूपांतरण (मेटामॉर्फिसम) को संभव बनाने के लिए एक रूपांतरित इंजन की जरूरत होती है। एक रूपांतरित वायरस आमतौर पर बहुत बड़ा और जटिल होता है। उदाहरण के लिए, व३२/सीमीली (व३२/सीमीली) में समूह भाषा कोड की १४००० से अधिक रेख्यें होती हैं, जिनमें से ९०% रूपांतरित इंजन का हिस्सा है।
भेद्यता और मापने के लक्षण
वायरस के लिए ऑपरेटिंग सिस्टम की भेद्यता
जैसे एक आबादी में आनुवंशिक विविधता (जेनेटिक डाइवर्सिटी) के कम होने पर उसमें एक मात्र रोग की सम्भावना कम हो जाती है, समान रूप से एक नेटवर्क पर सॉफ्टवेयर सिस्टम कि विविधता की भी वायरस की विनाशकारी क्षमता को सीमित करती है।
यह १९९० में विशेष विचार का विषय बन गया जब माइक्रोसॉफ्ट ने डेस्कटॉप ऑपरेटिंग सिस्टम और कार्यालय सुइट (ऑफिस सुइट) में बाजार में प्रभुत्व प्राप्त कर लिया। माइक्रोसॉफ्ट सॉफ़्टवेयर के उपयोगकर्ता (विशेषकर नेटवर्किंग सॉफ्टवेयर जैसे माइक्रोसॉफ्ट आउटलुक (माइक्रोसॉफ्ट आउटलूक) और इंटरनेट एक्सप्लोरर (इंटरनेट एक्सप्लोरर)) विशेष रूप से वायरस के प्रसार के लिए कमजोर हैं। माइक्रोसॉफ्ट सॉफ़्टवेयर को वायरस के द्वारा लक्ष्य बनाये जाने का कारण है उनका डेस्कटॉप प्रभुत्व होना और अक्सर कई गलतियों और वायरस लेखकों के लिए छिद्रों कि वजह से इसकी आलोचना की जाती है। समन्वित और गैर एकीकृत माइक्रोसॉफ्ट अनुप्रयोग (जैसे माइक्रोसॉफ्ट ऑफिस) और संचिका प्रणाली के एक्सेस के साथ भाषाओँ कि पटकथाओं के अनुप्रयोग (उदाहरण के लिए दृश्य मूल लिपि (विसुल बेसिक स्क्रिप्ट) (व्ब्स), और नेटवर्किंग लक्षणों के साथ अनुप्रयोग) भी विशेष रूप से जोखिम युक्त हैं।
यद्यपि विंडोस वायरस के लेखकों के लिए, सबसे लोकप्रिय ऑपरेटिंग सिस्टम है, कुछ वायरस दूसरे प्लेटफार्म पर भी मौजूद है। कोई भी ऑपरेटिंग सिस्टम जो चलने के लिए तीसरे पक्ष के प्रोग्राम को अनुमति दे सकता है वह सैद्धांतिक रूप से वायरस को चला सकता है। कुछ ऑपरेटिंग सिस्टम दूसरों के मुकाबले कम सुरक्षित हैं .यूनिक्स आधारित ओस (और न्ट्फ्स को जानने वाले अनुप्रयोग विन्डोज़ न्ट आधारित प्लेटफार्म पर) केवल अपने उपयोग कर्ताओं को ही अपने निर्देशों के अंतर्गत सुरक्षित स्थान के भीतर निष्पादन की अनुमति देते हैं।
इंटरनेट आधारित एक शोध से पता चला कि ऐसे मामले भी थे जब लोगों ने जान-बूझ कर एक वायरस को डाऊनलोड करने के लिए एक विशेष बटन को दबाया.एक सुरक्षा फर्म फ-सेक्यूरे ने एक ६ माह का अभियान गूगल ऐडवर्ड्स (गूगल अद्वॉर्ड्स) पर चलाया जिसने कहा "क्या आपका पी सी वायरस मुक्त है?यह यहाँ संक्रमित प्राप्त करें ! " .इसका परिणाम था ४०९ क्लिक.
२००६ में अपेक्षाकृत कुछ सुरक्षा के तरीके थेजो मैक ओस क्स (मैक ओस क्स) को लक्ष्य बना रहे थे (एक यूनिक्स आधारित संचिका प्रणाली और कर्नेल (कर्नल) के साथ) .
पुराने एप्पल ऑपरेटिंग सिस्टम के लिए वायरस कि एक संख्या जो मैक ओएस क्लासिक के नाम से जानी जाती है, वो अलग अलग स्रोतों में बहुत अलग होती है, एप्पल के साथ कहा जाता है कि केवल चार प्रकार के जाने माने वायरस होते हैं और स्वतंत्र सूत्रों (इंडिपेंडेंट सोर्सेस) के अनुसार ६३ वायरस के रूप हैं। यह कहना सुरक्षित है कि बाजार के कम शेयर कि वजह से मैक को लक्ष्य बनाने की सम्भावना कम होती है और इस प्रकार से एक मैक विशेष वायरस केवल कम्प्यूटरों के एक छोटे अनुपात को ही संक्रमित कर सकता है। (प्रयास को कम वांछनीय बनते हुए) .मेक्स और विंडोस के बीच वायरस का जोखिम मुख्य बिक्री बिन्दु है, एक यह कि आपोल (आपोल) उनके एक मैक प्राप्त करें (गेट आ मैक) विज्ञापन में काम लेता है। इस के अनुसार मेक्स में भी माइक्रोसॉफ्ट विन्डोज़ कि तरह सुरक्षा के मुद्दे होते हैं, यद्यपि किसी ने भी इन थे वाइल्ड सफलता पूर्वक इसका पूर्ण लाभ नहीं उठाया है।
विंडोस और यूनिक्स में समान पटकथा की क्षमता है, लेकिन जब यूनिक्स स्वाभाविक रूप से सामान्य उपयोगकर्ताओं को ऑपरेटिंग सिस्टम वातावरण के लिए परिवर्तन करने के लिए एक्सेस करने से रोकता है, विन्डोज़ की पुरानि प्रतियां जैसे विन्डोज़ ९५ और ९८ ऐसा नहीं करती.१९९७ में, जब एक "ब्लिस (ब्लिस)" नामक वायरस लीनूक्स के लिए जारी किया गया था --प्रमुख वायरस विरोधी विक्रेताओं ने एक चेतावनी जारी की यूनिक्स की तरह (यूनिक्स-लीके) के सिस्टम ठीक विडोस की तरह वायरस का शिकार बन सकते हैं।ब्लिस वायरस को वायरसों का लाक्षणिक माना जा सकता है--यूनिक्स प्रणालियों पर --कीडों के विपरीत.ब्लिस की जरुरत है कि उपयोगकर्ता इसे स्पष्ट रूप से चलाता है (इसलिए यह एक ट्रोजन है) और यह केवल ऐसे प्रोग्रामों को संक्रमित कर सकता है जो उपयोगकर्ता के द्वारा संशोधित किए जा सकते हैं। विन्डोज़ उपयोगकर्ता के विपरीत, अधिकांश यूनिक्स उपयोगकर्ता किसी सॉफ्टवेयर को इन्सटौल करने के अलावा किसी व्यवस्थापक उपयोगकर्ता के रूप में लॉग इन (लोग इन) नहीं करते: यहाँ तक कि यदि एक उपयोगकर्ता वायरस को चलाता है तो भी यह ऑपरेटिंग सिस्टम को नुकसान नहीं कर सकता है। ब्लिस वायरस कभी भी व्यापक नहीं हुआ और मुख्य रूप से अनुसंधान के लिए उत्सुकता का विषय बना रहा.इसके निर्माता ने बाद में यूज़नेट को इसका स्रोत कोड पोस्ट किया, शोधकर्ताओं को यह जानने कि अनुमति दी कि यह कैसे कम करता है।
सॉफ्टवेयर विकास की भूमिका
चूँकि सिस्टम स्रोत का अनाधिकृत उपयोग रोकने के लिए सॉफ्टवेयर को अक्सर सुरक्षा व्यवस्था के साथ डिजाईन किया जाता है, कई वायरस एक सिस्टम या अनुप्रयोग में सॉफ्टवेयर बग (सोफ्त्वरे ब्ग) को फैलने में मदद करते हैं।सॉफ्टवेयर विकास (सोफ्त्वरे डेवलमेंट) रणनीतियां जो बड़ी संख्या में बग का उत्पादन करती हैं, सामान्य रूप से सक्षम दोहन भी उत्पन्न करती है।
वायरस विरोधी सॉफ्टवेयर और अन्य रोकथाम के उपाय.
कई उपयोग कर्ता वायरस विरोधी सॉफ्टवेयर (ऐंटिवायरस सॉफ़्टवेयर, एंटी-वाइरस सोफ्त्वरे) इंस्टाल करते हैं, जो कंप्यूटर डाउनलोड (डावनलोड) के बाद या निष्पादन योग्य के चलने के बाद ज्ञात वायरस का पता लगा लेते हैं या उसे नष्ट कर देते हैं। ऐसे दो सामान्य तरीके हैं जिन्हें एक वायरस विरोधी सॉफ्टवेयर (एंटी-वाइरस सोफ्त्वरे) अनुप्रयोग वायरस की जांच करने के लिए काम में लेता है। वायरस की जांच की पहली और सबसे सामान्य विधि है वायरस के हस्ताक्षर (वाइरस सिग्नेचरे) परिभाषा की सूची का उपयोग.यह कंप्यूटर की स्मृति के अवयवों (अपने राम (राम) और बूट क्षेत्र (बूट सेक्टर)) और स्थायी या अस्थायी ड्राइवों (हार्ड ड्राइव, फ्लॉपी ड्राइव) पर संगृहीत संचिकाओं की जांच के द्वारा, कार्य करता है तथा इन संचिकाओं की तुलना ज्ञात वायरस के "हस्ताक्षर" के डेटाबेस के ख़िलाफ़ की जाती है। जांच की इस विधि का नुक्सान यह है कि उपयोग कर्ता केवल वायरस से सुरक्षित रहता है जो अपनी पिछली परिभाषा का अद्यतन करता रहता है। दूसरी विधि है अनुमानी (ह्यूरिस्टिक) कलन विधि जिसमें सामान्य व्यवहार पर आधारित वायरसों का पता लगाया जाता है। इस विधि में वायरसों का पता लगाने कि क्षमता होती है जिसके लिए अभी भी वायरस विरोधी कंपनियों को हस्ताक्षर बनाना है।
कुछ वायरस विरोधी प्रोग्राम खुली हुई संचिकाओं को स्केन करने में सक्षम होते हैं साथ ही समान तरीके से 'ऑन थे फ्लाय' भेजे गए और प्राप्त किए गए ई-मेल्स को भी स्केन कर सकते हैं। इसे "ऑन-एक्सेस स्कैनिंग"कहते हैं। वायरस विरोधी सोफ्टवेयर पोशी सॉफ्टवेयर कि वायरस को प्रेषित करने की क्षमता को परिवर्तित नहीं करता है। उपयोगकर्ता को पैच (पच) सुरक्षा छिद्र के लिए अपने सोफ्टवेयर नियमित रूप से अद्यतन करने चाहिए.एंटी वायरस सॉफ्टवेयर को भी नियमित रूप से अद्यतन किए जाने की आवश्यकता है ताकि आधुनिक खतरों को रोका जा सके.
कोई भी व्यक्ति भिन्न मिडिया पर डाटा (और आपरेटिंग सिस्टम) के नियमित रूप से बैकअप (बकुप) से वायरस के द्वारा की गई क्षति को कम कर सकता है, इन्हें या तो सिस्टम से असंबद्ध (ज्यादातर समय), रखा जाता है, या अन्य कारणों जैसे भिन्न संचिका प्रणालियों (फाइले सिस्टम) का उपयोग के लिए इसे नहीं खोला जा सकता या केवल रीड-ओनली रखा जाता है। इस तरह, यदि एक वायरस के माध्यम से डाटा खो दिया है, कोई भी बैकअप का उपयोग करके फिर से शुरू कर सकता है। (जो हाल ही में अद्यतन किया गया होना चाहिए.) यदि ऑप्टिकल मीडिया (ऑप्टिकल मीडिया) जैसे सीडी (चड) और डीवीडी (द्व्ड) पर एक बैकअप सत्र बंद हो गया है, यह रेड-ओनली बन जाता है और अब वायरस से संक्रमित नहीं हो सकता है। इसी तरह, बूट योग्य (बूटेबल) पर एक ऑपरेटिंग सिस्टम का उपयोग कंप्यूटर को शुरू करने के लिए किया जा सकता है, यदि स्थापित आपरेटिंग सिस्टम उपयोग हीन हो गया है। अन्य विधि है भिन्न संचिका तंत्रों पर भिन्न आपरेटिंग सिस्टम का उपयोग.एक वायरस की दोनों को प्रभावित करने की सम्भावना नहीं होती है। डेटा बैकअप भी भिन्न संचिका तंत्रों पर डाला जा सकता है। उदाहरण के लिए, लिनक्स को न्ट्फ्स (न्ट्फ्स) विभाजन पर लिखने के लिए विशेष सॉफ़्टवेयर की आवश्यकता होती है, इसलिए यदि कोई सॉफ्टवेयर को इंस्टाल नहीं करता है और एक न्ट्फ्स विभाजन पर एक बैकअप करने के लिए म्स विन्डोज़ के अलग इंस्टालेशन का उपयोग करता है, बैकअप को लाइनक्स के किसी भी वर्जन से सुरक्षित होना चाहिए.इसी तरह, म्स विन्डोज़ संचिका सिस्टम जैसे एक्स्ट३ (एक्स्ट३), को नहीं पढ़ सकता है, इसलिए यदि कोई सामान्यतया म्स विन्डोज़ का उपयोग करता है, एक लिनक्स इंस्टालेशन का उपयोग करते हुए एक एक्स्ट३ विभाजन पर बैकअप बनाया जा सकता है।
एक बार एक कंप्यूटर जब वायरस से समझौता कर लेता है, तो सामान्यतया ऑपरेटिंग सिस्टम को फ़िर से पूरी तरह से इंस्टाल किए बिना समान कंप्यूटर का उपयोग जारी रखना असुरक्षित होता है। लेकिन, कई विकल्प हैं जो कंप्यूटर में वायरस के आने के बाद उपस्थित होते हैं। ये क्रियाएँ वायरस के प्रकार की गंभीरता पर निर्भर करती हैं।
वायरस को हटाना
विंडोज मे (विंडोज मे), विंडोज ज़्प एंड विंडोज विस्ता पर एक सम्भावना है एक औजार जो सिस्टम रिस्टोर (सिस्टम रेस्टोर) के नाम से जाना जाता है जो कि पिछले चेक बिन्दु के लिए रजिस्ट्री और जटिल तंत्र संचिका को रिस्टोर कर के रखता है। अक्सर एक वायरस एक सिस्टम को हेंग कर देता है और एक इसी के बाद से फ़िर से बूट होने पर सिस्टम के रिस्टोर बिन्दु में उसी दिन से समस्या आएगी.पिछले दिनों से रिस्टोर बिन्दु को दिया गया काम करना होता है, अब वायरस संग्रहीत संचिकाओं को संक्रमित नहीं कर पाता है। फिर भी कुछ वायरस, सिस्टम के रिस्टोर को और अन्य महत्वपूर्ण औजारों जैसे टास्क मेनेजर और कमांड प्रोम्प्ट को निष्क्रिय कर देते हैं। एक वायरस जो ऐसा करता है उसका उदहारण है सियादूर.
प्रशासकोण के पास भिन्न कारणों के लिए सीमित उपयोगकर्ताओं से ऐसे औजारों को निष्क्रिय करने के विकल्प उपलब्ध हैं। वायरस ऐसा करने के लिए रजिस्ट्री में संशोधन करता है, केवल उस समय ऐसा नहीं होता है जब प्रशासक कंप्यूटर को नियंत्रित कर रहा हो, यह सब उपयोगकर्ताओं को औजारों को एक्सेस करने से रोकता है। जब एक संक्रमित औजार सक्रिय होता है तो यह एक संदेश देता है "आपके प्रशासक के द्वारा टास्क मेनेजर को अक्षम कर दिया गया है।"यहाँ तक की यदि उपयोगकर्ता जो प्रोग्राम खोलने की कोशिश कर रहा है वह प्रशासक है।
उपयोगकर्ता जो माइक्रोसॉफ्ट ऑपरेटिंग सिस्टम को चला रहा है, एक मुक्त स्केन चलाने के लिए माइक्रोसॉफ्ट की वेबसाइट पर जा सकता है, यदि उनके पास उनका २० अंकों की पंजीकरण संख्या है।
ऑपरेटिंग सिस्टम की पुर्नस्थापना
ऑपरेटिंग सिस्टम को पुनः इंस्टाल करना वायरस हटाने का एक अलग तरीका है। इसमें साधारण रूप से ओस विभाजन की पुनः फोर्मेटिंग और इसके मूल माध्यम से ओस को इंस्टाल करना शामिल है। या एक साफ़ बेकअप छवि के साथ विभाजन की कल्पना (इमेंजिंग) की जा सकती है (उदाहरण के लिए घोस्ट (घोस्ट) या एक्रोनिस (एक्रोनिस) के साथ लिया गया) .
इस विधि का लाभ यह है की यह करने में सरल है, कई वायरस विरोधी स्कैन को चलाने की तुलना में यह तेज होता है और किसी भी मैलवेयर को दूर करने की गारंटी देता है।डानसिड्स में अन्य सभी सॉफ्टवेयर और ऑपरेटिंग सिस्टम का पुनः इंस्टाल करना शामिल है। उपयोगकर्ता डेटा को एक लाइव सीडी (लाइव चड) को बूट करके या हार्ड ड्राइव को किसी दूसरे कंप्यूटर में रखकर और उस कंप्यूटर के ऑपरेटिंग सिस्टम से बूट करके बेक अप किया जा सकता है।
यह भी देखिए
वायरस हुआ २५ साल का और कारोबार १६ अरब अमेरिकी डालर का
अमेरिकी सरकार सर्ट (कंप्यूटर आपातकालीन तैयारी दल) साइट
वीडियो : "सूचना प्रौद्योगिकी की सुरक्षा के बारे में माइक्रोसॉफ्ट सम्मेलन-- मांग पर वीडियो"
अनुच्छेद : "' कंप्यूटर वायरस क्या है"
अनुच्छेद : "कंप्यूटर वायरस कैसे काम करता है"
अनुच्छेद : "पीसी वाइरस का संक्षिप्त इतिहास" (प्रारंभिक) डॉ॰ अनिल सुलैमान के द्वारा
अनुच्छेद : "क्या ' अच्छे ' कंप्यूटर वायरस अभी भी एक खराब विचार है ?"
अनुच्छेद : "आपके ईमेल की वाइरस और अन्य मैलवेयर सुरक्षा"
अनुच्छेद : "अंतरिक्ष में जानकारी के क्षेत्र में एक वायरस" टोनी संपसन के द्वारा
अनुच्छेद : "डॉ॰ आयकॉक के खराब विचार" टोनी संपसन के द्वारा |
द्रविड़ भाषा-परिवार दक्षिण भारत की कई सम्बन्धित भाषाओं का समूह है। इसमें मुख्यतः तमिल, तेलुगु, कन्नड़, मलयालम और तुलू भाषाएँ आती हैं। उत्तर और पूर्व भारत की कुछ भाषाएँ जैसे ब्राहुई, गोंडी, कुड़ुख द्रविड़ भाषा-परिवार से सम्बंधित हैं। ये सभी भाषाएँ अश्लिष्ट-योगात्मक (अग्लूटिनटिंग लैंग्वेएज) हैं और इनमें संस्कृत से कई शब्द भी हैं। इनमें से तमिल सबसे पुरानी है और उसे शास्त्रीय भाषा माना जाता है। इन भाषाओं कि लिपि ब्राह्मी लिपि से ही उत्पन्न हुई है। इन भाषाओं में ट, ण, ळ, ड़ (ड, ठ, ड) आदि ध्वनियाँ बहुत अधिक पायी जाती हैं।
चारों द्रविड़ भाषाओं में तमिल भाषा सबसे प्राचीन है तथा इसमें सबसे पहले साहित्य लेखन आरंभ हुआ इसमें संगम साहित्य के अतिरिक्त शिलाप्पदिकारम, मणिमैखलै तथा जीवक चिंतामणि महत्त्वपूर्ण रचनाएँ हैं।
इन्हें भी देखें
प्राचीनतम द्रविड़ भाषा (प्रोटो-द्रविडियन)
भारत की भाषाएँ |
सैयद सिब्ते रज़ी (अंग्रेजी: सिएड सिब्ते राज़ी, जन्म:७ मार्च १९३९ रायबरेली, उत्तर प्रदेश) भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस पार्टी के एक राजनयिक हैं। वे राज्य सभा के तीन बार सदस्य रहे। बाद में उन्हें झारखंड और असम का राज्यपाल भी बनाया गया।
सिब्ते रज़ी का जन्म उत्तर प्रदेश के जनपद रायबरेली में ७ मार्च १९३९ को हुआ। उनकी माँ का नाम रज़िया बेगम और बाप का नाम सैयद विरासत हुसैन था। उन्होंने हुसेनाबाद हायर सेकेण्डरी स्कूल से दसवीं करने के बाद एक शिया कॉलेज में प्रवेश लिया। वहाँ वे छात्र नेता बन गये। पढाई के साथ-साथ जेबखर्च निकालने के लिये वे दो-दो होटलों के एकाउण्ट्स भी देखते थे। बाद में उन्होंने लखनऊ विश्वविद्यालय से बी०कॉम० किया।
सिब्ते रज़ी ने १९६९ में यू०पी० की यूथ कांग्रेस ज्वाइन कर ली और १९७१ में वे इसके अध्यक्ष बना दिये गये। १९७३ तक वे यूथ काँग्रेस के अध्यक्ष रहे। १९८० से १९८५ तक राज्य सभा सदस्य के अतिरिक्त १९८० से १९८४ तक उत्तर प्रदेश कांग्रेस कमेटी के महासचिव भी रहे। उन्हें कांग्रेस पार्टी द्वारा दूसरी बार १९८८ से १९९२ तक तथा तीसरी बार १९९२ से १९९८ तक राज्य सभा का सदस्य बनाया गया।
मार्च २००५ में, जब वे झारखंड के राज्यपाल थे, उन्होंने सरकार में एनडीए के सदस्यों की संख्या को नज़र अन्दाज़ करते हुए झारखंड मुक्ति मोर्चा के शिबू सोरेन को सरकार बनाने का न्योता देकर विवादास्पद भूमिका निभायी। इसकी शिकायत मिलते ही तत्कालीन राष्ट्रपति ए.पी.जे. अब्दुल कलाम ने हस्तक्षेप किया और सिब्ते रज़ी (राज्यपाल) के निर्णय को उलटते हुए एनडीए के अर्जुन मुंडा को १३ मार्च २००५ को उन्हीं राज्यपाल द्वारा मुख्यमंत्री पद की शपथ दिलायी।
सैयद सिब्ते रज़ी के बारे में जानकारी
झारखण्ड के राज्यपाल
असम के राज्यपाल
भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस |
कोरिया (कोरियाई: या ) एक सभ्यता और पूर्व में एकीकृत राष्ट्र जो वर्तमान में दो राज्यों में विभाजित है। कोरियाई प्रायद्वीप पर स्थित, इसकी सीमाएं पश्चिमोत्तर में चीन, पूर्वोत्तर में रूस और जापान से कोरिया जलसन्धि द्वारा पूर्व में अलग है।
कोरिया १९४८ तक संयुक्त था; उस समय इसे दक्षिण कोरिया और उत्तर कोरिया में विभाजित कर दिया गया। दक्षिण कोरिया, आधिकारिक तौर पर कोरिया गणराज्य, एक पूंजीवादी, लोकतांत्रिक और विकसित देश है, जिसकी संयुक्त राष्ट्र संघ, व्टो, ओक्ड और ग-२० प्रमुख अर्थव्यवस्थाओं में सदस्यता है। उत्तर कोरिया, आधिकारिक तौर पर लोकतांत्रिक जनवादी कोरिया गणराज्य, किम इल-सुंग द्वारा स्थापित एक एकल पार्टी कम्युनिस्ट देश है और सम्प्रति उनके बेटे किम जोंग-इल के दूसरे बेटे किम जोंग-उन द्वारा शासित है। उत्तर कोरिया की वर्तमान में संयुक्त राष्ट्र संघ में सदस्यता है।
पुरातत्व और भाषाई सबूत यह सुझाते हैं कि कोरियाई लोगों की उत्पत्ति दक्षिण-मध्य साइबेरिया के अल्टायाक भाषा बोलने वाले प्रवासियों में हुई थी,[२] जो नवपाषाण युग से कांस्य युग तक लगातार बहाव में प्राचीन कोरिया में बसते गए। [३] २ शताब्दी ई.पू. में, चीनी लेखन प्रणाली (कोरियाई में "हंजा") और ४ शताब्दी ई. में बौद्ध धर्म को अपनाने के कारण कोरिया के तीन साम्राज्यों पर गहरा प्रभाव पड़ा. कोरिया बाद में इन सांस्कृतिक अग्रिमों का एक संशोधित संस्करण पर जापान को पारित कर दिया।
गोरियो राजवंश के बाद से कोरिया एक एकल सरकार द्वारा शासित रहा और गोरियो वंश पर १३वीं शताब्दी में मंगोल हमलों और १६वीं शताब्दी में जोसियो वंश पर जापानी हमलों के बावजूद २०वीं सदी तक इसने राजनैतिक और सांस्कृतिक स्वतंत्रता बनाए रखी. १३77 में, कोरिया ने जिक्जी पेश किया, दुनिया का सबसे पुराना मौजूद दस्तावेज़ जिसे चल धातु प्रकार से मुद्रित किया गया। [११] १५वीं सदी में, कछुए जहाज तैनात किये गए और राजा सेजोंग महान ने कोरियाई वर्णमाला हंगुल प्रख्यापित किया।
जोसियो राजवंश के उत्तरार्द्ध के दौरान, कोरिया की एकान्तवादी नीति ने इसके लिए पश्चिमी उपनाम "साधु साम्राज्य" अर्जित किया। १९वीं सदी के उत्तरार्ध तक यह देश जापान और यूरोप की औपनिवेशिक वृत्ति का लक्ष्य बना। १९10 में कोरिया पर जबरन जापान द्वारा कब्जा कर लिया गया और यह कब्ज़ा, अगस्त १९45 में द्वितीय विश्व युद्ध के अंत तक बना रहा।
१९४५ में, सोवियत संघ और संयुक्त राज्य अमेरिका, कोरिया में जापानी सैनिकों के आत्मसमर्पण और निरस्त्रीकरण पर सहमत हुए; सोवियत संघ ने ३८वें समानांतर के पूर्व में जापानी हथियारों के समर्पण को स्वीकार किया और अमेरिका ने उसके दक्षिण में. मित्र राष्ट्रों की सेना द्वारा यह छोटा निर्णय जल्द ही दो महाशक्तियों द्वारा कोरिया के विभाजन का आधार बन गया, जिसको, कोरियाई आजादी की शर्तों पर सहमत होने में उनकी असमर्थता ने और बढ़ा दिया। शीत युद्ध के इन दो प्रतिद्वंद्वीयों ने इसके बाद अपनी विचारधाराओं से सहानुभूति रखने वाली सरकारों की स्थापना की, जिसने कोरिया के दो राजनीतिक सत्ता के मौजूदा विभाजन को प्रेरित किया: उत्तर कोरिया और दक्षिण कोरिया.
कोरिया, कोरियाई इतिहास के गोरियो काल से लिया गया है जो वापस गोगुरियो के प्राचीन राज्य को निर्दिष्ट करता है। मध्य पूर्व के व्यापारी इसे कौली (चीनी उच्चारण से) बुलाते थे, जिसकी वर्तनी बाद में कोरिया और कोरिया हो गई। अंग्रेजी सन्दर्भों में अब सामान्यतः, उत्तर और दक्षिण कोरिया, दोनों के द्वारा कोरिया प्रयोग किया जाता है। जर्मनिक भाषाओं में एक क का अक्सर इस्तेमाल किया जाता है, जबकि रोमन भाषाओं में एक च पसंद करते हैं।
कोरियाई भाषा में, सम्पूर्ण रूप से कोरिया को दक्षिण कोरिया में हान-गुक के रूप में और उत्तर कोरिया में चोसोन के रूप में निर्दिष्ट करते हैं। दूसरा नाम, रोमन रूप में जोसियन, जोसियन वंश से है और उससे पहले के गोजोसियन से. "द लैंड ऑफ़ द मॉर्निंग काम" (सुबह की शांति का देश), एक अंग्रेजी भाषा से प्राप्त उपनाम है जो आंशिक रूप से जोसियन के लिए हंजा अक्षरों से लिया गया है।
प्रागितिहास और गोजोसियन
उत्तर अमेरिका की कोरियाई अकादमी ने कोरिया में एक स्टोन सिटी स्थल पर लावा में १००,००० ई.पू. के करीब के प्राचीन मानव जीवाश्मों की खोज की। प्रतिदीप्त और उच्च चुंबकीय विश्लेषण से संकेत मिलता है ज्वालामुखी जीवाश्मों के रूप में जल्दी के रूप में ३००.००० ई.पू. से हो सकता है। सर्वश्रेष्ठ संरक्षित कोरियाई बर्तनों १०,००० ई.पू. के आसपास पलियोलीथिक बार वापस चला जाता है और नवपाषाण काल 6००० ई.पू. के आसपास शुरू होती है।
गोजोसियन की स्थापना की किंवदंती, स्वर्ग का एक वंशज, दंगुन का वर्णन करती है जिसने २३३३ ई. पू. में इस राज्य की स्थापना की। [२१] पुरातत्व और समकालीन लिखित रिकॉर्ड से संकेत मिलता है कि यह दीवार युक्त शहरों के एक संघ से एक केंद्रीकृत साम्राज्य में, ७वीं और ४थी शताब्दी ई.पू. के बीच में विकसित हुआ।
मूल राजधानी हो सकता है मंचूरिया-कोरिया की सीमा पर रही हो, लेकिन बाद में उसे आज के प्योंगयांग, उत्तरी कोरिया में स्थानांतरित कर दिया गया। १०८ ई.पू. में, चीनी हान राजवंश ने विमान जोसियन को हराया और लिओनिंग और उत्तरी कोरियाई प्रायद्वीप के क्षेत्र में चार कमान स्थापित किये। ७५ ई.पू., में उनमें से तीन कमान गिर गए, लेकिन लेलांग कमान ३१३ में गोगुरिओ के अधीन होने से पहले तक बाद के चीनी राजवंशों के लिए सांस्कृतिक और आर्थिक आदान प्रदान का एक केन्द्र बन रहा।
आद्य तीन साम्राज्य
आद्य तीन साम्राज्यों की अवधि, जिसे कभी-कभी अनेक राज्यों का काल कहा जाता है, वह आरंभिक भाग है जिसे आमतौर पर तीन साम्राज्यों का काल कहा जाता है, गोजोसियन के पतन के बाद लेकिन गोगुरिओ, बैक्जे और सिला के पूर्ण राज्यों के रूप में विकास से पहले.
यह काल, गोजोसियन के पूर्व राज्य क्षेत्रों से कई राज्यों के उदय का साक्षी बना। बुयिओ, आज के उत्तरी कोरिया और दक्षिणी मंचूरिया में पनपा, २री शताब्दी ब्स से ४९४ तक. इसके अवशेष को गोगुरियो ने ४९४ में समाविष्ट कर लिया और कोरिया के तीन साम्राज्य में से दो, गोगुरियो और बैक्जे, दोनों ने स्वयं को उसका उत्तराधिकारी माना. उत्तरी कोरिया के ओक्जियो और डोंग्ये, अंत में बढ़ते गोगुरियो में समाहित हो गए।
कोरियाई प्रायद्वीप के दक्षिणी भाग में स्थित, सम्हन, तीन राज्यसंघ महन, जिन्हन और बिओनहन को सन्दर्भित करता है। महन सबसे बड़ा था और इसमें ५४ राज्य शामिल थे। बिओनहन और जिन्हन, दोनों ही बारह राज्यों से बने थे, जिससे सम्हन में कुल मिलाकर ७८ राज्य शामिल हुए. ये तीन राज्यसंघ अंततः बैक्जे, सिला और गया में विकसित हुए.
कोरिया के तीन साम्राज्य (गोगुरियो, सिला और बैक्जे) ने साझा काल के दौरान प्रायद्वीप और मंचूरिया के हिस्सों पर प्रभाव जमाया. आर्थिक और सैन्य, दोनों ही रूप से उन्होंने एक दूसरे से होड़ ली।
गोगुरियो ने बुयिओ, ओक्जियो, डोंग्ये और अन्य राज्यों को पूर्व गोजोसियन राज्यक्षेत्र में एकजुट किया। [२५] गोगुरियो सबसे प्रभावशाली शक्ति थी; यह पांचवीं शताब्दी में अपने चरम पर पहुंचा, जब ग्वांगेटो महान और उसके बेटे जन्ग्सु का शासन लगभग सम्पूर्ण मंचूरिया और मंगोलिया के भीतरी हिस्से में विस्तृत हुआ और बैक्जे से सियोल क्षेत्र ले लिया। ग्वांगेटो और जन्ग्सु ने अपने काल के दौरान बैक्जे और सिला को अपने अधीन किया। ७वीं सदी के बाद, गोगुरियो चीन के सुई और तांग राजवंश के साथ निरंतर युद्ध में था।
आधुनिक समय के सिओल के आसपास स्थापित, दक्षिण-पश्चिमी साम्राज्य बैक्जे ने, ४थी सदी में अपनी शक्ति की चरम अवस्था के दौरान प्योंगयांग के आगे तक विस्तार किया। इसने महन के सभी राज्यों को समाविष्ट कर लिया और एक केंद्रीकृत सरकार बनाते हुए पश्चिमी कोरियाई प्रायद्वीप के अधिकांश हिस्से को अधीन कर लिया (ग्योंगी, चुंगचीओंग और जिओला के आधुनिक प्रांतों के साथ-साथ ह्वांगहे और गांगवोन का हिस्सा)। बैक्जे ने अपने क्षेत्र के विस्तार के दौरान चीनी संस्कृति और प्रौद्योगिकी को दक्षिणी राजवंशों के साथ संपर्क के माध्यम से हासिल किया। ऐतिहासिक प्रमाणों से पता चलता है कि जापानी संस्कृति, कला और भाषा, खुद बैक्जे और कोरिया राज्यों से प्रभावित थी। पुरातात्विक खोजों ने कई अनुमानों की पुष्टि की है लेकिन व्यापक जांच को अक्सर जापानी सरकार द्वारा प्रतिबंधित किया गया है और जिसे आम तौर पर सरकार द्वारा नियुक्त समूहों द्वारा संचालित किया जाता है। [२६]
हालांकि बाद के रिकॉर्ड का दावा है कि दक्षिण-पूर्व में सिला, तीन साम्राज्यों में सबसे पुराना था, अब यह माना जाता है कि विकसित होने वाला यह आखिरी साम्राज्य था। २री शताब्दी तक, सिला, आसपास के राज्यों को प्रभावित और कब्जा करते हुए एक बड़े राज्य के रूप में अस्तित्व में रहा। सिला ने प्रभुत्व हासिल करना शुरू किया जब 56२ स में इसने गया संघ पर कब्जा कर लिया। गया संघ, बैक्जे और सिला के बीच स्थित था। कोरिया के तीन साम्राज्य, अक्सर एक दूसरे के साथ युद्ध करते रहते थे और सिला को अक्सर बैक्जे और गोगुरियो के दबाव का सामना करना पड़ा लेकिन कई बार सिला भी प्रायद्वीप पर प्रभुत्व हासिल करने के लिए बैक्जे और गोगुरियो के साथ मिल गया।
६६० में, सिला के मुइओल राजा ने अपनी सेनाओं को बैक्जे पर हमला करने का आदेश दिया। तांग बलों की सहायता से, जनरल किम यू-शिन (गिम यू-सिन), ने बैक्जे पर विजय प्राप्त की। ६६१ में, सिला और तांग ने गोगुरियो पर चढ़ाई की लेकिन पीछे धकेल दिए गए। मुयोल के पुत्र और जनरल किम के भतीजे, राजा मुन्मु ने ६६७ में एक और अभियान शुरू किया और गोगुरियो का अगले वर्ष पतन हुआ।
उत्तर दक्षिण राज्य काल
५वीं, ६वीं और ७वीं सदी में सिला का प्रभुत्व धीरे-धीरे कोरियाई प्रायद्वीप को पार करने लगा। सिला पहले बगल गया महासंघ कब्जा कर लिया। ६६0 तक, सिला ने बैक्जे को और बाद में गोगुरियो को जीतने के लिए, चीन के तांग राजवंश के साथ गठबंधन किया। चीनी सेना को पीछे धकेलने के बाद, सिला ने आंशिक रूप से प्रायद्वीप को एकीकृत किया और एक ऐसी अवधि शुरू हुई जिसे अक्सर एकीकृत सिला कहा जाता है।
उत्तर में, गोगुरियो के पूर्व जनरल डे जोयोंग ने अपने नेतृत्व में गोगुरियो शरणार्थियों के एक समूह को मंचूरिया के जिलिन क्षेत्र में लाया और गोगुरियो के उत्तराधिकारी के रूप में बाल्हे (६९८-९२६) की स्थापना की। अपने चरम पर, बाल्हे की सीमा, उत्तरी मंचूरिया से आधुनिक समय के कोरिया के उत्तरी प्रांतों तक विस्तृत हुई। बाल्हे को ९२६ में खितान द्वारा नष्ट कर दिया गया।
एकीकृत सिला, ९वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में बिखर गया और अशान्तप्रिय बाद के तीन साम्राज्य की अवधि (8९2-९35) के लिए मार्ग प्रशस्त किया। गोरियो ने बाद के तीन साम्राज्यों को एकीकृत किया और बाल्हे शरणार्थियों को समाविष्ट किया।
गोरियो देश ९१८ में स्थापित हुआ और कोरिया के शासक वंश के रूप में इसने सिला की जगह ली। ("गोरियो", "गोगुरियो" का एक लघु रूप है और अंग्रेजी नाम "कोरिया" का स्रोत.) यह वंश १३९२ तक चला.
इस अवधि के दौरान, क़ानून को संहिताबद्ध किया गया और एक सिविल सेवा प्रणाली शुरू की गई। बौद्ध धर्म का उत्कर्ष हुआ और पूरे प्रायद्वीप में इसका प्रसार हुआ। सेलाडोन उद्योग का विकास १२वीं और १३वीं शताब्दी में फला-फूला. ८०,००० लकड़ी के ब्लॉक पर त्रिपिटक कोरिअना का प्रकाशन और १३वीं सदी में दुनिया के प्रथम धातु के चल-मुद्रण प्रकार के प्रिंटिंग-प्रेस का आविष्कार गोरियो सांस्कृतिक उपलब्धियों को प्रमाणित करता है।
उनके वंश पर १२३० के दशक से १२७० के दशक तक मंगोल आक्रमण का खतरा मंडराता रहा, लेकिन यह खानदान १३९२ तक जीवित रहा, चूंकि उन्होंने मंगोलों के साथ एक संधि की थी जिसने उनकी प्रभुसत्ता को बनाए रखा।
१३५० के दशक में, राजा गोंग्मिन एक गोरियो सरकार के पुनर्गठन के लिए स्वतंत्र हुए. गोंग्मिन के समक्ष विभिन्न समस्याएं थीं जिनसे निपटना जरूरी था, जिसमें शामिल था मंगोल समर्थक अभिजात और सैन्य अधिकारियों को हटाना, भूमि के स्वामित्व का सवाल और बौद्ध और कन्फ्यूशियस विद्वानों के बीच बढ़ रही शत्रुता का शमन.
१३९२ में, जनरल यी सिओंग-गे ने मोटे तौर पर एक रक्तहीन तख्तापलट के द्वारा जोसियन राजवंश (१३९२-१९१०) की स्थापना की। उसने पिछले जोसियन के सम्मान में जोसियन राजवंश नाम रखा (गोजोसियन पहला जोसियन है। "गो" जिसका अर्थ है "पुराना", को दोनों के बीच अंतर करने के लिए जोड़ा गया)।
राजा तेजो ने राजधानी को हान्सिओंग स्थानांतरित किया (पूर्व में हान्यांग; आधुनिक सिओल) और ग्योंगबोक्गुंग महल का निर्माण किया। १३९४ में उसने देश के आधिकारिक धर्म के रूप में कन्फ्यूशियनवाद को अपनाया जिसके परिणामस्वरूप बौद्धों की शक्ति और धन का काफी ह्रास हुआ। प्रचलित दर्शन नव कन्फ्यूशीवाद था।
जोसियन ने विज्ञान और संस्कृति में उन्नति देखी. राजा सिजोंग महान (१४१८-१४५०) ने कोरियाई वर्णमाला प्रख्यापित की। यह अवधि, कई अन्य विभिन्न सांस्कृतिक और प्रौद्योगिकी उन्नतियों और साथ ही साथ सम्पूर्ण प्रायद्वीप पर नव-कन्फ्यूशियनवाद के प्रभुत्व की साक्षी बनी। जोसियन कोरिया की जनसंख्या का लगभग एक तिहाई हिस्सा, अनुमान के अनुसार दास, नोबी, से निर्मित था। [३१]
१५९२ और १५९८ के बीच, जापानी कोरिया पर आक्रमण किया। तोयोतोमी हिदेयोशी ने सेना को आदेश दिया और कोरिया के माध्यम से एशियाई महाद्वीप पर आक्रमण करने की कोशिश की, लेकिन अंततः एक राईटिअस सेना, एडमिरल यी सुन-सिन और मिंग चीन की सहायता द्वारा पीछे धकेल दिया गया। इस युद्ध ने "कछुए जहाज" के साथ एडमिरल यी सुन-सिन के कैरियर की प्रगति देखी. १६२०स और १६३०स में जोसओन मांचू के हमलों का सामना करना पड़ा.
मंचूरियाई हमलों के बाद, जोसियन लगभग २०० वर्षों की अवधि की शांति से गुज़रा. राजा योंग्जो और राजा ज्योंग्जो जोसियन वंश के एक नए पुनर्जागरण का नेतृत्व किया।
हालांकि, जोसियन राजवंश के अंतिम वर्षों के दौरान, कोरिया की पृथकतावादी नीति ने इसे "साधु साम्राज्य" का तमगा दिलवाया, मुख्य रूप से पश्चिम के साम्राज्यवाद के खिलाफ संरक्षण के लिए, जिसके बाद इसे व्यापार खोलने के लिए मजबूर किया गया जो जापानी औपनिवेशिक शासन के युग में परिणत हुआ।
१८७० के दशक की शुरुआत में, जापान ने कोरिया को मांचू किंग राजवंश क्षेत्र के पारंपरिक प्रभाव से बाहर जाने के लिए मजबूर करना शुरू किया। चीन-जापान युद्ध (१८९४-१८९५) के परिणामस्वरूप, क्विंग राजवंश को शिमोनोसेकी संधि, जो क्विंग और जापान के बीच १८९५ में संपन्न हुई थी, के अनुच्छेद १ के अनुसार ऐसी स्थिति को छोड़ना पड़ा, . उसी वर्ष, महारानी म्योंग्सिओंग की जापानी एजेंटों द्वारा हत्या कर दी गई। [३३]
१८९७ में, जोसियन वंश ने कोरियाई साम्राज्य (१८९७-१९१०) की घोषणा की और राजा गोजोंग, सम्राट गोजोंग बन गया। कोरिया में रूस, जापान, फ्रांस और अमेरिका के राजनीतिक अतिक्रमण से प्रभावित हो कर, इस संक्षिप्त अवधि ने सैनिक, अर्थव्यवस्था, भू संपत्ति कानून, शिक्षा प्रणाली और विभिन्न उद्योगों के आंशिक रूप से सफल आधुनिकीकरण को देखा.
१९०४ में, रूस-जापान युद्ध ने रूस को कोरिया के लिए लड़ाई से बाहर धकेल दिया। मंचूरिया में १९०९ में, आन जंग-गियोन ने, कोरिया के रेसिडेंट जनरल, इतो हिरोबुमी की, कोरिया को कब्जे में जाने को मजबूर करने में उनकी भूमिका के लिए, ह्त्या कर दी।
१९१० में, कोरिया को, जिस पर पहले से ही सैन्य कब्जा था, जापान-कोरिया विलय संधि में मजबूरन शामिल होना पड़ा. संधि पर ली वान-योंग ने हस्ताक्षर किया, जिसे सम्राट ने जनरल पावर ऑफ़ अटार्नी दी। हालांकि, कहा जाता है कि यी ताए-जिन के अनुसार, सम्राट ने वास्तव में संधि का अनुमोदन नहीं किया था। [३६] इस संधि पर दबाव, सेना की धमकी और रिश्वत के तहत हस्ताक्षर किये जाने के कारण, एक लंबा विवाद होता रहा है कि क्या यह कानूनी थी या गैरकानूनी।
कोरियाई क्रूर जापानी व्यवसाय के प्रतिरोध अहिंसक मार्च १९१९, जहां ७,००० प्रदर्शनकारियों जापानी पुलिस और सेना द्वारा मारे गए थे मूवमेंट १ में प्रकट. कोरियाई मुक्ति आंदोलन, पड़ोस के मंचूरिया और साइबेरिया में भी फैल गया।
१९३९ में पांच लाख से अधिक कोरियाई को अनिवार्य श्रमिक बनाया गया,[४५] और दसों हज़ार पुरुषों को जापान की सेना में मजबूरन शामिल किया गया। [४६] लगभग २००.००० लड़कियों और महिलाओं, ज्यादातर चीन और कोरिया से, यौन गुलामी में जापानी सेना के लिए मजबूर किया। १९९३ में, जापान के मुख्य कैबिनेट सचिव योहे कोनो ने इन महिलाओं द्वारा भयानक अन्याय का सामना करने को स्वीकार किया, जिन्हें "आरामदायक महिलाएं" का मंगलभाषी नाम दिया गया था।[५०][५२]
जापानी औपनिवेशिक शासन के दौरान, कोरियाई राष्ट्रीय पहचान को मिटाने के प्रयास में कोरियाई भाषा को दबा दिया गया। कोरियाई लोगों को जापानी कुलनाम, सोशी-कैमे [५४] के रूप में ज्ञात, कुलनाम लेने पर मजबूर किया गया। [५४] पारंपरिक कोरियाई संस्कृति को भारी नुकसान हुआ, चूंकि कई कोरियाई सांस्कृतिक कलाकृतियों को नष्ट कर दिया गया[५६] या जापान ले जाया गया। [५८] आज भी, जापानी संग्रहालयों या निजी संग्रहों में बहुमूल्य कोरियाई कलाकृतियों को अक्सर पाया जा सकता है। [५९] दक्षिण कोरिया की सरकार ने एक जांच ७५,३११ सांस्कृतिक संपत्ति है कि कोरिया, जापान में ३४,३६९ से १७,८०३ और संयुक्त राज्य अमेरिका में ले जाया गया की पहचान की। तथापि, विशेषज्ञों का अनुमान है कि १००,००० से अधिक कलाकृतियां वास्तव में जापान में हैं। [६०][६१] जापानी अधिकारियों ने कोरियाई सांस्कृतिक संपत्ति को वापस करने पर विचार किया, लेकिन आज तक[६२] यह नहीं हुआ। [६३] कोरिया और जापान अभी तक लिआनकोर्ट रॉक्स, कोरियाई प्रायद्वीप के पूर्व में स्थित एक छोटा द्वीप, के स्वामित्व पर विवाद करते हैं। [६५]
जापानी औपनिवेशिक काल के दौरान जापानी साम्राज्य के विदेशी राज्य क्षेत्रों में एक उच्च स्तर पर उत्प्रवास हुआ, कोरिया सहित. [६७] द्वितीय विश्व युद्ध के अंत तक, कोरिया में करीब ८५०,००० से अधिक जापानी बस गए। [६९] द्वितीय विश्व युद्ध के बाद, इन विदेशी जापानियों में से अधिकांश, वापस जापान चले गए।
१९४५ में जापान के समर्पण के साथ, संयुक्त राष्ट्रसंघ ने एक न्यास प्रशासन की योजना विकसित की, जिसके तहत सोवियत संघ ३८वें समानांतर के प्रायद्वीप उत्तर का प्रशासन और संयुक्त राज्य अमेरिका दक्षिण का प्रशासन संचालित करने लगा। शीत युद्ध की राजनीति १९४८ में दो पृथक सरकारों, उत्तर कोरिया और दक्षिण कोरिया की स्थापना में परिणत हुई।
जून १९५० में उत्तरी कोरिया ने सोवियत टैंकों और हथियारों के प्रयोग से दक्षिण पर हमला कर दिया। कोरियाई युद्ध (१९५०-१९५३) के दौरान लाखों नागरिक मारे गए और पूरे देश में चल रहे इस तीन साल के युद्ध ने प्रभावी ढंग से अधिकांश शहरों को नष्ट कर दिया। [७१] लगभग १२५,००० पोज (युद्धबंदी) को गिरफ़्तार किया गया और अमेरिका और दक्षिण कोरिया द्वारा गिओजेडो पर (दक्षिण में एक द्वीप) रखा गया। [७२] युद्ध, लगभग सैन्य सीमांकन रेखा पर युद्धविराम समझौते से समाप्त हुआ।
कोरिया का विभाजन
द्वितीय विश्व युद्ध के परिणामस्वरूप, कोरिया ३८ समांतर पर विभाजित हो गया, जिसके अंतर्गत उत्तरी हिस्सा, सोवियत कब्जे में और दक्षिण, मित्र राष्ट्रों के अन्य देशों के अधीन गया। नतीजतन, लोकतांत्रिक जनवादी कोरिया गणराज्य, एक सोवियत शैली का समाजवादी शासन, उत्तर में स्थापित किया गया, जबकि एक पश्चिमी शैली का गणतंत्र, कोरिया गणराज्य दक्षिण में स्थापित किया गया।[७६] कोरियाई युद्ध तब छिड़ गया, जब सोवियत समर्थित उत्तर कोरिया ने दक्षिण कोरिया पर आक्रमण कर दिया, हालांकि, नतीजे के तौर पर किसी भी पक्ष को कुछ ख़ास क्षेत्र हासिल नहीं हुआ। कोरियाई प्रायद्वीप, विभाजित रहा, कोरियाई सैन्य रहित क्षेत्र दोनों राज्यों के बीच वास्तविक सीमा है।
उत्तर कोरिया का अकाल १९९५ में शुरू हुआ और १९९७ में अपने चरम पर पहुंचा। उत्तर कोरिया के सार्वजनिक सुरक्षा मंत्रालय की एक रिपोर्ट के मुताबिक, उत्तर के बारे में २५ लाख में अपने नुकसान के लिए ३ मिलियन अनुमान १९९५ से मार्च १९९८ के लिए।
कोरिया, उत्तर-पूर्व एशिया में कोरियाई प्रायद्वीप पर स्थित है। पश्चिमोत्तर में अम्नोक नदी (यालू नदी) कोरिया को चीन से अलग करती है और उत्तर-पूर्व में दुमन नदी (तुमन नदी), कोरिया को चीन और रूस से अलग करती है। पीला सागर पश्चिम में है, पूर्वी चीन सागर दक्षिण में है और पूर्व सागर (जापान सागर) कोरिया के पूर्व में है।[८१] उल्लेखनीय द्वीप में शामिल हैं जेजू द्वीप (जेजुड़ो), उल्युंग द्वीप (उल्युंगडो) और लियनकोर्ट रॉक्स (डोक्डो)।
प्रायद्वीप के दक्षिणी और पश्चिमी हिस्सों में अच्छी तरह से विकसित मैदान हैं, जबकि पूर्वी और उत्तरी भाग पहाड़ युक्त हैं। कोरिया में पेक्टू पर्वत या पेक्टुसन (२७४४ मीटर) सर्वोच्च पर्वत है, जिसके बराबर चीन की सीमा चलती है। पेक्टुसन का दक्षिणी विस्तार एक उच्च भूमि है जिसे गैमा हाइट्स कहते हैं। यह उच्च भूमि मुख्य रूप से सिनोज़ोइक ओरोजेनी के दौरान ऊपर उठी थी और आंशिक रूप से ज्वालामुखी तत्वों से आच्छादित है। गैमा गोवोन के दक्षिण में प्रायद्वीप के पूर्वी तट के साथ लगातार ऊंचे पहाड़ स्थित हैं। इस पर्वत श्रेणी का नाम बैकडूडैगन है। कुछ महत्वपूर्ण पर्वतों में शामिल हैं पर्वत सोबैक या सोबैक्सन (१,४३९ मीटर), पर्वत कुमगांग या कुम्गांगसन (१,६३८ मीटर), पर्वत सिओराक या सिओराक्सन (१,७०८ मीटर), पर्वत तेबैक या तेबैक्सन (१,५६७ मीटर) और माउंट जीरी या जिरिसन (१,9१5 मीटर)। यहां कई कम ऊंचे, माध्यमिक पर्वत श्रृंखला हैं जिनकी दिशा बैकडूडेगन से लगभग लम्बवत है। वे मेसोज़ोइक ओरोजेनी के विवर्तनिक पंक्ति पर विकसित हुए हैं और उनकी दिशा मूल रूप से उत्तर-पश्चिमी है।
मुख्य भूमि पर सबसे प्राचीन पहाड़ों के विपरीत, कोरिया में कई महत्वपूर्ण द्वीप सेनोज़ोइक ओरोजेनी में ज्वालामुखी गतिविधि द्वारा निर्मित हुए थे। दक्षिणी तट पर स्थित जेजू द्वीप, एक विशाल ज्वालामुखी द्वीप है जिसका मुख्य पर्वत पर्वत हल्ला या हल्लासन (१९५० मी), दक्षिण कोरिया में सबसे ऊंचा है। उल्योंग द्वीप, पूर्व सागर (जापान सागर) में एक ज्वालामुखी द्वीप है, जिसकी संरचना जेजू से अधिक फेल्सिक है। ज्वालामुखी द्वीप अपेक्षाकृत नवीन होते हैं और पश्चिम की ओर होते हैं।
चूंकि पहाड़ी क्षेत्र, प्रायद्वीप के ज्यादातर पूर्वी भाग पर हैं, मुख्य नदियां पश्चिम की ओर बहती हैं। दो अपवाद हैं, दक्षिणवर्ती नाकडोंग नदी (नाकडोंगांग) और सिओम्जिन नदी (सिओमजिनगांग)। पश्चिम की ओर बहनेवाली महत्वपूर्ण नदियों में शामिल है अमनोक नदी (यालू), चोंगचोन नदी (चोंगचोनगांग), तेदोंग नदी (तेदोंगगांग), हान नदी (हन्गांग), गियम नदी (गियमगांग) और योंगसन नदी (योंग्संगांग)। इन नदियों के बाढ़ के मैदान विशाल हैं और गीले चावल की खेती के लिए एक आदर्श वातावरण प्रदान करते हैं।
कोरिया की दक्षिणी और पश्चिमी तटरेखा एक अच्छी तरह से विकसित रिया तटरेखा बनाती है, जिसे दादोहे-जिन के रूप में जाना जाता है। इसकी घुमावदार तटरेखा शांत समुद्र प्रदान करती है और परिणामस्वरूप प्राप्त होने वाला शांत वातावरण, सुरक्षित नौपरिवहन, मत्स्य-ग्रहण और समुद्री शैवाल की खेती की अनुमति देता है। जटिल समुद्र तट के अलावा, कोरियाई प्रायद्वीप के पश्चिमी तट पर अति उच्च ज्वारीय आयाम हैं (इनचान में, पश्चिमी तट के मध्य के आसपास)। यह ९ मीटर तक की उंचाई प्राप्त कर सकता है)। विशाल ज्वारीय फ्लैट, दक्षिण और पश्चिमी तटरेखा पर विकसित किये जा रहे हैं।
कोरियाई लोगों की संयुक्त जनसंख्या करीब ७३ मीलियन है (उत्तर कोरिया: २३ मीलियन, दक्षिण कोरिया: ५० मीलियन) है। कोरिया, मुख्यतः एक उच्च समरूपी जातीय समूह से, कोरियाई लोग, जो कोरियाई भाषा बोलते हैं, आबाद है। [८४] कोरिया में रहने वाले विदेशियों की संख्या भी २०वीं सदी के उत्तरार्ध के बाद से तेजी से बढ़ी है, विशेष रूप से दक्षिण कोरिया में, जहां वर्तमान में दस लाख से अधिक विदेशी हते हैं। [८५] ऐसा अनुमान है कि पुराने चीनी समुदाय के केवल २६,७०० अब दक्षिण कोरिया में रहते हैं। [८७] हालांकि, हाल के वर्षों में, मुख्य भूमि चीन से आप्रवास बढ़ा; है चीनी राष्ट्रीयता की ६२४,९९४ लोगों को जातीय कोरियाई मूल के ४४३,५६६ सहित दक्षिण कोरिया, में आकर बसा है। जातीय चीनियों और जापानियों के छोटे समुदाय भी उत्तर कोरिया में पाए जाते हैं। [९१]
कोरियाई, उत्तर और दक्षिण कोरिया, दोनों की आधिकारिक भाषा है और (मंदारिन के साथ) यान्बियन स्वायत्त प्रीफेक्चर के चीन के मंचूरिया क्षेत्र में. दुनिया भर में, कोरियाई भाषा के ८० मीलियन बोलने वाले हैं। दक्षिण कोरिया में बोलने वाले करीब ५० मीलियन हैं जबकि उत्तर कोरिया में लगभग २३ मीलियन हैं। कोरियाई भाषी लोगों के अन्य बड़े समूह संयुक्त राज्य अमेरिका (करीब ०.९ मीलियन भाषी), चीन (लगभग १.८ मीलियन भाषी), पूर्व सोवियत संघ (लगभग 3५०,००० भाषी), जापान (लगभग 7००,०००), कनाडा (१००,०००), मलेशिया (7०,०००) और ऑस्ट्रेलिया (१५०,०००) पाए जाते हैं। ऐसा अनुमान है कि, दुनिया भर में लगभग 7००,००० लोग बिखरे हुए हैं जो नौकरी की आवश्यकताओं (उदाहरण के लिए, कोरियाई संपर्कों वाले सेल्सविक्रेता या व्यवसायी), कोरिआई से विवाह या कोरियाई भाषा में पूर्ण रुचि की वजह से कोरियन भाषा बोलने में सक्षम हैं।
कोरियाई लोगों का वंश वर्गीकरण विवादित है। कुछ भाषाविद् इसे अल्टेक भाषा परिवार में रखते हैं; दूसरों के विचार से यह एक पृथक भाषा है। कोरियाई भाषा, अपने आकृति विज्ञान में अभिश्लेषी है और अपने वाक्यविन्यास में सोव है। जापानी और वियतनामी की तरह कोरियाई भाषा ने भी आनुवंशिक रूप से असंबंधित चीनी से काफी शब्दावली ली है या चीनी मॉडल पर शब्दावली निर्मित कर ली।
आधुनिक कोरियाई भाषा, लगभग अनन्य रूप से हंगुल लिपि में लिखी जाती है, जिसका आविष्कार १५वीं सदी में किया गया था। जबकि हो सकता है हंगुल प्रतीकमय लगे, यह वास्तव में एक ध्वनिग्रामिक वर्णमाला है जो शब्दांश ब्लाक में आयोजित है। प्रत्येक ब्लॉक २४ हंगुल पत्र (जमो) के कम से कम दो होते हैं: कम से कम १४ ध्वनि से हर एक को एस एस १० और स्वर ऐतिहासिक रूप से, वर्णमाला में कई अतिरिक्त अक्षर थे (देखें अप्रचलित जमो)। अक्षरों की ध्वनि प्रक्रिया के अनुसार विवरण के लिए, कोरियाई स्वर-शास्त्र देखें. हंजा (चीनी अक्षर) और लैटिन वर्णमालाएं, कभी-कभी हंगुल पाठ में शामिल की जाती है, विशेष रूप से दक्षिण कोरिया में.
संस्कृति और कला
प्राचीन चीनी ग्रंथों में, कोरिया के लिए 'के रूप में नदियों और सिल्क पर कढ़ाई पर्वत निर्दिष्ट है, और' पूर्वी राष्ट्र की मर्यादा" ७वीं और ८वीं शताब्दी के दौरान, सिल्क रोड कोरिया को अरब से जोड़ता था। ८45 में, अरब व्यापारियों ने लिखा, "चीन के पार एक देश है जहां सोना प्रचुरता में है और जिसका नाम सिला है। मुसलमान, जो वहां गए, देश से सम्मोहित हो गए और वहां बसने के इच्छुक हो कर वहां से जाने के सभी विचार को त्याग दिया.[१०३] "
कोरियाई उत्सव अक्सर जीवंत रंगों को प्रदर्शित करते हैं, जिसके लिए मंगोलियाई प्रभाव को जिम्मेदार ठहराया गया है: गहरा लाल, पीला और हरा रंग अक्सर पारंपरिक कोरियाई रूपांकनों को चिह्नित करता है। [१०५] ये चमकीले रंग, कभी-कभी पारंपरिक पोशाक में देखे जाते हैं जिसे हनबोक कहते हैं।
कोरियाई संस्कृति की एक विशेषता उसकी उम्र की गणना प्रणाली है। जब कोई पैदा होता है तो उसे एक वर्ष की उम्र का माना जाता है और उसकी उम्र, उसके जन्मदिन की सालगिरह के बजाय हर नए साल के दिन बढ़ती है। इस प्रकार, ३१ दिसम्बर को जन्मे शिशु, अपनी पैदाइशी के अगले दिन दो वर्ष की आयु के हो जाएंगे. तदनुसार, एक कोरियाई व्यक्ति की घोषित उम्र, पश्चिमी परंपरा में व्यक्त उसकी उम्र से एक या दो वर्ष ज्यादा हो जाएगी.
जोसियन राजवंश के अंत से पहले लिखे कोरियाई साहित्य को "शास्त्रीय" या "पारंपरिक" कहा जाता है। चीनी अक्षरों (हंजा) में लिखा साहित्य, उसी समय स्थापित हुआ जब चीनी वर्णमाला प्रायद्वीप पर पहुंची. कोरियाई विद्वान, कोरियाई विचारों और उस समय के अनुभवों को दर्शाते हुए, २ शताब्दी ईसा पूर्व से ही कोरियाई शास्त्रीय शैली में कविता लिख रहे थे। कोरियाई शास्त्रीय साहित्य की जड़ें, प्रायद्वीप के पारंपरिक लोक विश्वासों और लोक कथाओं में है, जो कन्फ्यूशियनवाद, बौद्ध धर्म और ताओवाद से गहरे रूप से प्रभावित है।
आधुनिक साहित्य को अक्सर हंगुल के विकास के साथ जोड़ा जाता है, जिसने अभिजात वर्ग से लेकर आम जनता और महिलाओं में साक्षरता के प्रसार में मदद की। हंगुल, तथापि, केवल १९वीं सदी के उत्तरार्ध में कोरियाई साहित्य में एक प्रमुख स्थान पर पहुंची, जिससे कोरियाई साहित्य में महत्वपूर्ण वृद्धि हुई। सिन्सोसिओल उदाहरण के लिए, हंगुल में लिखित उपन्यास हैं।
कोरियाई युद्ध ने युद्ध के घावों और अराजकता के इर्द-गिर्द केंद्रित साहित्य के विकास को प्रेरित किया। दक्षिण कोरिया का युद्ध-पूर्व का अधिकांश साहित्य, आम लोगों के दैनिक जीवन और राष्ट्रीय दर्द के साथ उनके संघर्ष की चर्चा करता है। पारंपरिक कोरियाई मूल्य प्रणाली का पतन उस समय का एक अन्य आम विषय था।
बौद्ध धर्म, ताओवाद और कोरियाई शमनवाद के योगदान के साथ-साथ कन्फ्यूशियाई परंपरा ने कोरियाई सोच को प्रभावित किया है। २०वीं शताब्दी के मध्य के बाद से, तथापि, दक्षिण कोरिया में ईसाइयत ने बौद्ध धर्म के साथ प्रतिस्पर्धा की है जबकि उत्तर कोरिया में धार्मिक प्रथाओं को दबा दिया गया। कोरियाई इतिहास और संस्कृति, जुदाई की परवाह किए बिना पूरे; कोरियाई शमनवाद, महायान बौद्ध धर्म, कन्फ्यूशीवाद और ताओवाद की पारंपरिक मान्यताओं के प्रभाव कोरियाई लोगों के रूप में भी उनकी संस्कृति का एक महत्वपूर्ण पहलू की एक अंतर्निहित धर्म रहा है, इन सभी परंपराओं सैकड़ों वर्षों से शांतिपूर्ण सहअस्तित्व है। या साम्यवाद से दबाव दक्षिण में ईसाई मिशनरी रूपांतरणों से मजबूत पश्चिमीकरण के बावजूद उत्तर में जुचे सरकार एस.
दक्षिण कोरियाई सरकार द्वारा संकलित २००५ के आंकड़ों के मुताबिक, लगभग ४६% नागरिकों ने किसी विशेष धर्म का पालन न करने को स्वीकार किया। ईसाई जनसंख्या का २९.२% हैं (जिनमें प्रोटेस्टैंट- १८.३% और १०.९% कैथोलिक हैं) और बौद्ध २२.८% हैं.
कोरियाई, छात्रवृत्ति को महत्व देते थे और चीनी शिक्षा और शास्त्रीय ग्रंथों के अध्ययन को पुरस्कृत किया जाता था; यांगबान लड़के हंजा में उच्च शिक्षित थे। सिला में, बोन रैंक प्रणाली, एक व्यक्ति की सामाजिक स्थिति को परिभाषित करती थी और एक ऐसी ही समान प्रणाली जोसियन राजवंश के अंत तक बनी रही। इसके अतिरिक्त, ग्वागियो सिविल सेवा परीक्षा ने ऊर्ध्वगामी गतिशीलता का रास्ता प्रदान किया।
दक्षिण कोरिया में इस्लाम का, करीब १००,००० विदेशी कर्मचारियों के अलावा, लगभग ४५,००० देशी मुस्लिमों द्वारा अनुगमन किया जाता है। [१२२]
कोरियाई पाकशैली शायद किमची के लिए सबसे अच्छी तरह से जानी जाती है जिसमें सब्जियों के संरक्षण की एक विशिष्ट किण्वन प्रक्रिया का उपयोग किया जाता है, सबसे अधिक फूलगोभी के लिए। गोचुजांग (लाल कागज का बना पारंपरिक कोरियाई सॉस) भी आमतौर पर इस्तेमाल किया जाता है, अक्सर मिर्च पाउडर के रूप में, जिससे यहां की पाकशैली को मसालेदार होने का तमगा प्राप्त हुआ।
बुलगोगी (भुना हुआ मसालेदार मांस, आमतौर पर गोमांस), गाल्बी (मसालेदार ग्रील्ड छोटी पसलियां) और सेमगिओप्सल (सूअर का पेट) लोकप्रिय मांस स्नैक्स हैं। भोजन के साथ आमतौर पर एक सूप या दमपुख्त होता है, जैसे गाल्बीटांग (दमपुख्त पसलियां) के रूप में स्टू, के साथ) कर रहे हैं और ज्जिगाए (किण्वित सेम पेस्ट स्टू डोनजंग)। सारणी के केंद्र बंचन बुलाया साइदेडिशेज के एक साझा संग्रह से भर जाता है। यह भी आमतौर पर सोजू, एक लोकप्रिय कोरियाई शराबी चावल से बनी शराब के साथ है।
अन्य लोकप्रिय व्यंजन बीबिम्बाप जो शाब्दिक अर्थ है "मिश्रित चावल" (मांस, सब्जियों के साथ मिश्रित चावल और काली मिर्च पेस्ट) और नेंग्मीऑन (ठंड नूडल्स) शामिल हैं।
इसके अलावा, नूडल तत्काल बुलाया रामायेन लोकप्रिय है। कोरियाई भी (खोमचेवाले) पोजंगमाचास से भोजन का आनंद एक मछली केक, टेओक्बोकी जहां एक मसालेदार गोचुजंग सॉस के साथ (चावल का केक और मछली केक खरीद सकते हैं) और विद्रूप, मीठे आलू, मिर्च, आलू, सलाद पत्ता सहित तला हुआ भोजन और फलियों से बना दही और ग्रीन बीन सुअर आंत में भरवां अंकुरित सॉसेज, व्यापक रूप से खाया है।
आधुनिक कोरियाई स्कूल प्रणाली को प्राथमिक विद्यालय, मध्य विद्यालय में ३ साल में ६ साल के होते हैं और हाई स्कूल में ३ साल. छात्रों को प्राथमिक और माध्यमिक स्कूल में जाने वाले हैं और है कि शिक्षा के लिए एक छोटी सी "स्कूल ऑपरेशन सहायता शुल्क" कि स्कूल को स्कूल से अलग बुलाया शुल्क के अलावा, भुगतान नहीं है। (शिक्षकों के करों से भुगतान) अंतरराष्ट्रीय विद्यार्थी मूल्यांकन, ओईसीडी द्वारा समन्वित, के लिए कार्यक्रम वर्तमान में रैंक दक्षिण कोरिया ३ के रूप में विज्ञान की शिक्षा दुनिया में सबसे अच्छा, काफी जा रहा है ओईसीडी औसत से अधिक है।
कोरिया भी गणित और साहित्य और १ पर समस्या को सुलझाने में २ रैंक. हालांकि दक्षिण कोरिया के छात्रों अक्सर अंतरराष्ट्रीय तुलनात्मक परीक्षणों पर उच्च रैंक, शिक्षा प्रणाली कभी कभी निष्क्रिय सीखने और मेमोरिसशन पर जोर देने के लिए आलोचना की है। कोरियाई शिक्षा प्रणाली को और अधिक कठोर है और सबसे पश्चिमी समाजों से संरचित. इसके अलावा उच्च लागत और गैर पर निर्भरता स्कूल निजी संस्थान (हकवों []) प्रमुख सामाजिक समस्या के रूप में की आलोचना की है। एक बार छात्रों को विश्वविद्यालय में प्रवेश बहरहाल, स्थिति को स्पष्ट रूप से उलट है।
विज्ञान और प्रौद्योगिकी
विज्ञान के कोरिया के इतिहास और प्रौद्योगिकी के सबसे प्रसिद्ध कलाकृतियों में से एक चेड़म्सओंगडाई ( है, एक ९.४-मीटर ऊंचे 63४ में निर्मित वेधशाला.
जल्द से जल्द वुडब्लॉक मुद्रण के कोरियाई उदाहरण के जीवित ज्ञात मुगुजियोंग्गवांग महान सूत्र धारणी है। यह है ७५०-७५१ ई. में कोरिया में छपा है, जो यदि सही करना, क्या माना जाता है कि यह पुराने सूत्र डायमंड से. गोरियो रेशम उच्च पश्चिम के द्वारा माना हालांकि चीनी रेशम के रूप में के रूप में बेशकीमती नहीं था और कोरियाई नीली हरी सेलाडों के साथ बनाया बर्तनों उच्चतम गुणवत्ता की थी और उसके बाद की मांग भी अरब व्यापारियों द्वारा. गोरियो एक पूंजी है कि व्यापारियों द्वारा से अक्सर था के साथ एक हलचल अर्थव्यवस्था था सब मालूम दुनिया भर में.
जोसओन अवधि के दौरान जियाबैकसेओन (कछुए जहाज) का आविष्कार किया है जो एक लकड़ी डेक और कांटे के साथ लोहे के द्वारा कवर किया, थे और साथ ही अन्य ऐसी (, बिग्य्योक्जींचेलो के ) और हवाचा.
कोरियाई वर्णमाला हंगुल भी महान सेजोंग द्वारा इस समय के दौरान का आविष्कार किया गया था।
इन्हें भी देखें
उत्तरी कोरिया के साथ शांति समझौता
प्रसिद्ध कोरियाई लोगों को
अंतर कोरियाई शिखर सम्मेलन
कोरिया के शासकों की सूची
उत्तर कोरिया की राष्ट्रीय खजाने
क्युमिंग, ब्रुस. सूर्य, नोर्टॉन, १९९७ में कोरिया प्लेस. आई एस बी एन ०-३९३-३१६७३-४
किम, एट अल. कोरिया की महिला: १९४५ के लिए एक प्राचीन काल से इतिहास, यूहा स्त्राी यूनिवर्सिटी प्रेस, १९७६. इसब्न ८९-७३००-११६-७.
एशियाई जानकारी वेबसाइट
है पार्क एसोसिएट्स
चुन, तुक चू. "प्रशांत समुदाय में कोरिया. सामाजिक शिक्षा ५२ (१९८८ मार्च), १८२. ३६८ १७७ एज.
क्युमिंग, ब्रुस. दो कोरियाई देशों. न्यू यॉर्क: संघ की विदेश नीति, १९८४.
एशियाई अध्ययन पर ध्यान दें. विशेष अंक: "कोरिया: एक अध्यापक गाइड". नंबर १, १986 पतन.
सैनिक-वुक शिन / माइकल रॉबिन्सन (एड.)। कोरिया, कैम्ब्रिज, मास में औपनिवेशिक आधुनिकता [उआ]: हार्वर्ड विश्वविद्यालय, एशिया केन्द्र, हार्वर्ड यूनिव द्वारा वितरित की। १९९९ प्रेस. आई एस बी एन ०-६७४-४६८५३-८.
जो, व्ज और कोए, हा पारंपरिक कोरिया: एक सांस्कृतिक इतिहास, सिओल: हॉलीम, १९९७.
जंगन, ए के विभाजित कोरिया: विकास की राजनीति, हार्वर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस, १९७५.
ली की-बैक. कोरिया का एक नया इतिहास. कैम्ब्रिज: उत्तर प्रदेश हार्वर्ड, १९८४.
ली गाया-समर्थन. "कला और कोरिया के साहित्यिक". सामाजिक अध्ययन ७९ (जुलाई, अगस्त १९८८): १५३-६०. ३७६ ८९४ एज.
तए-जिन, वाई "मजबूर ग्रेट हान साम्राज्य "के जापान के विलय के लिए अग्रणी संधियां के कोरियाई यूनेस्को, वोल के लिए राष्ट्रीय आयोग में गैरकानूनी था। ३६, ४, नहीं, १९९६.
डेनिस उपभोग के लिए परंपरा से हार्ट,: एक पूंजीवादी संस्कृति के दक्षिण कोरिया में निर्माण. सोल: जिमूंदंग पब., २००३.
ग्लूस्टरशायर रेजिमेंट और इम्जिन नदी के युद्ध, कोरियाई युद्ध
ओईसीडी स्वास्थ्य आँकड़े २००९ के लिए जानकारी देते ध्यान दें: कैसे क्या कोरिया की तुलना: ऑपरेशन के लिए आर्थिक सहयोग और विकास संगठन. २००९.
एशिया में विवादित प्रदेशों |
गोविन्द शंकर कुरुप या जी शंकर कुरुप (५ जून १९०१-२ फरवरी १९७८) मलयालम भाषा के प्रसिद्ध कवि हैं। उनका जन्म केरल के एक गाँव नायतोट्ट में हुआ था। ३ साल की उम्र से उनकी शिक्षा आरंभ हुई। ८ वर्ष तक की आयु में वे 'अमर कोश' 'सिद्धरुपम' 'श्रीरामोदन्तम' आदि ग्रन्थ कंठस्थ कर चुके थे और रघुवंश महाकाव्य के कई श्लोक पढ चुके थे। ११ वर्ष की आयु में महाकवि कुंजिकुट्टन के गाँव आगमन पर वे कविता की ओर उन्मुख हुये। तिरुविल्वमला में अध्यापन कार्य करते हुये अँग्रेजी भाषा तथा साहित्य का अध्यन किया। अँग्रेजी साहित्य इनको गीति के आलोक की ओर ले गया। उनकी प्रसिद्ध रचना ओटक्कुष़ल
अर्थात बाँसुरी भारत सरकार द्वारा दिए जाने वाले साहित्य के सर्वोच्च पुरस्कार ज्ञानपीठ द्वारा सम्मानित हुई।
इनके द्वारा रचित एक कवितासंग्रह विश्वदर्शनम् के लिये उन्हें सन् १९६३ में साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया।
नायतोट्ट के सरलजीवी वातावरण में गोविन्द शंकर कुरुप का जन्म शंकर वारियर के घर में हुआ। उनकी माता का नाम लक्ष्मीकुट्टी अम्मा था। बचपन में ही पिता का देहांत हो जाने के कारण उनका लालन-पालन मामा ने किया। उनके मामा ज्योतिषी और पंडित थे जिसके कारण संस्कृत पढ़ने में उनकी सहज रुचि रही और उन्हें संस्कृत काव्य परंपरा के सुदृढ़ संस्कार मिले। आगे की पढ़ाई के लिए वे पेरुमपावूर के मिडिल स्कूल में पढ़ने गए। सातवीं कक्षा के बाद वे मूवाट्टुपुपा मलयालम हाई स्कूल में पढ़ने आए। यहाँ के दो अध्यापकों श्री आर.सी. शर्मा और श्री एस.एन. नायर का उनके ऊपर गहरा प्रभाव पड़ा। उन्होंने कोचीन राज्य की पंडित परीक्षा पास की, बांग्ला और मलयालम के साहित्य का अध्ययन किया। उनकी पहली कविता 'आत्मपोषिणी' नामक मासिक पत्रिका में प्रकाशित हुई और जल्दी ही उनका पहला कविता संग्रह 'साहित्य कौतुमकम' प्रकाशित हुआ। इस समय वे तिरुविल्वामला हाई स्कूल में अध्यापक हो गए। १९२१ से १९२५ तक श्री शंकर कुरुप तिरुविल्वामला रहे। १९२५ में वे चालाकुटि हाई स्कूल आ गए। इसी वर्ष साहित्य कौतुकम का दूसरा भाग प्रकाशित हुआ। उनकी प्रतिभा और प्रसिद्धि चारों ओर फैलने लगी थी। १९३१ में नाले (आगामी कल) शीर्षक कविता से वे जन-जन में पहचाने गए। १९३७ से १९५६ तक वे महाराजा कॉलेज एर्णाकुलम में प्राध्यापक के पद पर कार्य करते रहे। प्राध्यापकी से अवकाश लेने के बाद वे आकाशवाणी के सलाहकार बने। १९६५ में ज्ञानपीठ के बाद उन्हें १९६७ में सोवियतलैंड नेहरू पुरस्कार प्राप्त हुआ। गोविंद शंकर कुरुप को साहित्य एवं शिक्षा के क्षेत्र में सन १९६८ में भारत सरकार ने पद्म भूषण से सम्मानित किया था, तथा उसी वर्ष राष्ट्रपति ने उन्हें राज्य सभा का सदस्य भी मनोनीत किया जिस पर वे १९६८ से १९७२ तक बने रहे। १९७८ में उनकी मृत्यु के समय केरल में राजकीय अवकाश की घोषणा की गई।
कविता संग्रह - साहित्य कौतुकम् - चार खंड (१९२३-१९२९), सूर्यकांति (१९३२), नवातिथि (१९३५), पूजा पुष्पमा (१९४४), निमिषम् (१९४५), चेंकतिरुकल् मुत्तुकल् (१९४५), वनगायकन् (१९४७), इतलुकल् (१९४८), ओटक्कुष़ल्(१९५०), पथिकंटे पाट्टु (१९५१), अंतर्दाह (१९५५), वेल्लिल्प्परवकल् (१९५५), विश्वदर्शनम् (१९६०), जीवन संगीतम् (१९६४), मून्नरुवियुम् ओरु पुष़युम् (१९६४), पाथेयम् (१९६१), जीयुहे तेरंजेटुत्त कवितकल् (१९७२), मधुरम् सौम्यम् दीप्तम्, वेलिच्चत्तिंटे दूतम्, सान्ध्यरागम्।
निबंध संग्रह - गद्योपहारम् (१९४०), लेखमाल (१९४३), राक्कुयिलुकल्, मुत्तुम् चिप्पियुम (१९५९), जी. युटे नोटबुक, जी युटे गद्य लेखनंगल्।
नाटक - इरुट्टिनु मुन्पु (१९३५), सान्ध्य (१९४४), आगस्ट १५ (१९५६)।
बाल साहित्य - इलम् चंचुकल् (१९५४), ओलप्पीप्पि (१९४४), राधाराणि, जीयुटे बालकवितकाल्।
आत्मकथा - ओम्मर्युटे ओलंगलिल् (दो खंड)
अनुवाद - अनुवादों में से तीन बांग्ला में से हैं, दो संस्कृत से, एक अंग्रेज़ी के माध्यम से फ़ारसी कृति का और एक इसी माध्यम से दो फ़्रेंच कृतियों के। बांग्ला कृतियाँ हैं- गीतांजलि, एकोत्तरशती, टागोर। संस्कृत की कृतियाँ हैं- मध्यम व्यायोग और मेघदूत, फारसी की रुबाइयात ए उमर ख़ैयाम और फ़्रेंच कृतियों के अंग्रेजी नाम हैं- द ओल्ड मैन हू डज़ नॉट वांट टु डाय, तथा द चाइल्ड व्हिच डज़ नॉट वॉन्ट टु बी बॉर्न।
संस्कृत साहित्य में गहन रुचि थी शंकर कुरूप की (प्रभासाक्षी)
१९६८ पद्म भूषण
हिन्दी विकि डीवीडी परियोजना
१९०१ में जन्मे लोग
१९७८ में निधन
साहित्य अकादमी द्वारा पुरस्कृत मलयालम भाषा के साहित्यकार |
अमरीका में बसे ३८,५२,२९३ भारतीय अमेरिकी भारत और अमेरिका के मध्य मजबूत कड़ी हैं। सैन फ़्रांसिस्को-लॉस एंजेलिस, न्यूयॉर्क-न्यू जर्सी, शिकागो, डैट्रायट, ह्यूस्टन, एटलांटा, मायामी-आरलैण्डो-टैम्पा और वाशिंगटन डी. सी. के बड़े क्षेत्र में उनकी उल्लेखनीय उपस्थिति है। १९६० और १९७० के दशकों में अमेरिका आए पहले भारतीयों में डॉक्टर, वैज्ञानिक और इंजीनियर (अभियान्त्रक) जैसे पेशों के लोग थे पर हाल ही में बहुत से अन्य पेशों के लोग भी आने लगे हैं। भारतीय-अमेरिकियों ने बहुत सी संस्थाएँ और संगठन बनाये हुए हैं जो मुख्य रूप से भाषा के आधार पर और कुछ एक व्यवसाय के आधार पर बनाये गये हैं। सम्पन्नता बढ़ने से, खासकर सूचना तकनीक और बायोटेक्नोलॉजी क्षेत्रों में, यह समुदाय राजनीति के क्षेत्र में भी लगातार सक्रीय भूमिका निभा रहे हैं। भारतीय-अमेरिकी समुदाय की बढ़ती हुई राजनीतिक चेतना और प्रभाव का एक महत्वपूर्ण परिणाम कांग्रेशनल कॉकस ऑन इंडिया एंड इंडियन अमेरिकन्स के रूप में सामने आया है। निचले सदन में इस कॉकस के सदस्यों की संख्या १३० है और सदन में यह किसी एक देश से सम्बन्धित सबसे बड़ा गुट है। इस गुट और भारतीय-अमेरिकी समुदाय दोनों की भूमिका महत्वपूर्ण है और उनकी कोशिश है कि दुनिया के दो सबसे बड़े लोकतान्त्रिक देश अतीत को भुला दें और अपनी नीतियों और हितों में मजबूत तालमेल बनायें।
न्यूयॉर्क महानगर में भारतीय-अमेरिकियों की सबसे बड़ी आबादी निवास करती है। |
फुमी जाति चीन की बहुत कम जन संख्या वाली जातियों में से एक है, अब उस की कुल जन संख्या मात्र तीस हजार है, जो दक्षिण पश्चिम चीन के युन्नान प्रांत के उत्तरी पहाड़ी क्षेत्र में स्थित पाई व फुमी जातीय स्वायत्त काऊंटी में रहती है। फुमी जाति के पूर्वज चीन के उत्तर पश्चिम भाग में घास मैदान में रहते थे और घुमंतू पशुपालन का जीवन बिताते थे। करीब १३ वीं शताब्दी में वे स्थानांतरित हो कर आज के आबाद स्थल आ कर बस गए। बीते सात सौ सालों में फुमी जाति के लोग युन्नान प्रांत के नानपिंग क्षेत्र की फुमी काऊंटी में रहते हुए अपनी जाति की अलग पहचान बनाए रखे हुए हैं, उन के जातीय संगीत, भाषा, संस्कृति व रीति रिवाज में स्पष्ट विशेषता पायी जाती है।
फुमी जाति के विशेष ढंग के वाद्ययंत्र बांसुरी से बजायी गई धुन बहुलॉत सुरीली है, फुमी जाति के युवा येन ल्येनचुन को अपना जातीय वाद्य बजाना बहुत पसंद है। येन ल्येनचुन का जन्म युन्नान प्रांत के फुमी जाति बहुल स्थान में हुआ था, पर विश्वविद्यालय से स्नातक होने के बाद वह पेइचिंग में बस गए, उस के दिल में अपने गांव तथा अपनी जाति की संस्कृति के प्रति गाढ़ा लगाव है और उसे फुमी का संगीत बहुत पसंद भी है। उस की बांसुरी धुन से घने पहाड़ी जंगल में आबाद फुमी गांव की याद आती है।
फुमी जाति के लोग अपनी जाति से बहुत प्यार करते हैं, उन के जीवन में ढेर सारी प्राचीन मान्यताएं और प्रथाएं सुरक्षित हैं। युवा लोग बुजुर्ग पीढ़ी से एतिहासिक कहानी सुनने के उत्सुक हैं, जब कि बुजुर्ग लोग भी वाचन गायन के रूप में फुमी जाति के उत्तर से दक्षिण में स्थानांतरित होने का इतिहास बताना पसंद करते हैं। इन कहानियों से फुमी जाति के पूर्वजों की मेहनत तथा बुद्धिमता जाहिर होती है।
अपने पूर्वजों के लम्बे रास्ते के स्थानांतरण की याद में फुमी महिलाओं के बहु तहों वाले स्कर्ट के बीचोंबीच लाल रंग की धागे से एक घूमादार रेखा कसीदा की जाती है, यह घूमादार रेखा फुमी के पूर्वजों के स्थानांतरण का प्रतीक है। फुमी लोगों की मान्यता के अनुसार उन की मृत्यु के बाद वे इसी रास्ते से अपना अंतिम पड़ाव पहुंच जाते हैं।
फुमी जाति के लोग मानते हैं कि मृत्यु के बाद उन की आत्मा अपनी जन्म भूमि वापस लौटती है, इसलिए वे अंतिम संस्कार के आयोजन में भी पूर्वजों की समृत्ति में रस्म जोड़ देते हैं। फुमी जाति के लोगों के अंतिम संस्कार में बकरी का मार्ग दर्शन नामक रस्म होता है, इस के अनुसार पुजारी मृतक को उस के पूर्वजों के नाम और उत्तरी भाग में लौटने का रास्ता बताता है, मृतक को रास्ता दिखाने के लिए एक बकरी भी लाता है। रस्म के दौरान पुजारी यह मंत्र जपाता रहता है कि तुरंत तैयार हो, यह सफेद बालों वाला बकरी तुझे रास्ता दिखाएगा, तुम हमारे पूर्वजों की जन्म भूमि --उत्तरी भाग लौट जाओ।
फुमी जाति में अपनी जाति की विशेषता बनाए रखने के लिए अनेक रीति रिवाज प्रचलित होते हैं। मसलन् घुमंतू जाति की संतान होने के नाते फुमी जाति के बच्चे १३ साल की उम्र में ही व्यस्क माने जाते हैं, इस के लिए व्यस्क रस्म आयोजित होता है। श्री येन ल्येनचुन ने अपने व्यस्क रस्म की याद करते हुए कहाः
व्यस्क रस्म फुमी जाति के बच्चों का एक अहम उत्सव है, यह इस का प्रतीक है कि बच्चे अब परवान चढ़ गए हैं। व्यस्क रस्म के आयोजन के समय परिवार के सभी लोग अग्नि कुंड के सामने इक्ट्ठे हो जाते हैं, अग्नि कुंड के आगे देव स्तंभ खड़ा किया गया है, व्यस्क रस्म लेने वाले बच्चे का पांव अनाज से भरी बौरे पर दबा हुआ है, इस का अर्थ है कि उस का भावी जीवन खुशहाल होगा। रस्म के दौरान बच्चा हाथों में चौकू और चांदी की सिक्का पकड़ता है और बच्ची कंगन, रेशम और टाट के कपड़े हाथ में लेती है। यह उन की मेहनत और कार्यकुशलता का परिचायक होता है।
व्यस्क रस्म के बाद फुमी जाति के युवक युवती सामुहित उत्पादन श्रम तथा विभिन्न सामाजिक कार्यवाहियों में भाग लेने लगते हैं और उन्हें प्यार मुहब्बत करने तथा शादी ब्याह करने की हैसियत भी प्राप्त हुई है। फुमी जाति में स्वतंत्र प्रेम विवाह की प्रथा चलती है। जाति में दुल्हन छीनने की प्रथा अब भी फुमी लोग बहुल क्षेत्रों में चलती है। |
बेंगलुरु (बंगलुरू), जिसका पूर्व नाम बंगलोर, बंगलौर या बैंगलोर (बंगलोर) भी अनाधिकारिक रूप से प्रचलित हैं, भारत के कर्नाटक राज्य की राजधानी है और भारत का तीसरा सबसे बड़ा नगर और पाँचवा सबसे बड़ा महानगरीय क्षेत्र है। बेंगलुरु नगर की जनसंख्या ८४ लाख है और इसके महानगरीय क्षेत्र की जनसंख्या ८९ लाख है। दक्षिण भारत में दक्कन के पठार पर ९०० मीटर की औसत ऊँचाई पर स्थित यह नगर अपने साल भर के सुहाने मौसम के लिए जाना जाता है, और लोकसंस्कृति में "भारत का उद्यान नगर" का उपनाम रखता है। भारत के महानगरों में इसकी ऊँचाई सर्वाधिक है। देश की अग्रणी सूचना प्रौद्योगिकी (इट) निर्यातक के रूप में अपनी भूमिका के कारण बेंगलुरु को व्यापक रूप से भारत की सिलिकॉन वैली या भारत की आईटी राजधानी के रूप में माना जाता है।
वर्ष २००६ में बेंगलुरु के स्थानीय निकाय बृहत बेंगलुरु महानगर पालिके (बी॰ बी॰ एम॰ पी॰) ने एक प्रस्ताव के माध्यम से शहर के नाम की अंग्रेज़ी भाषा की वर्तनी को बैंगलोर (बंगलोर) से बेंगलुरु (बंगलुरू) में परिवर्तित करने का निवेदन राज्य सरकार को भेजा। राज्य और केंद्रीय सरकार की स्वीकृति मिलने के बाद यह बदलाव १ नवंबर 20१4 से प्रभावी हो गया है।
ऐसा माना जाता है कि १००४ ई॰ तक यह गंग वंश का भाग था। फिर इस पर १०१५ ई॰ से १११६ ई॰ तक चोल शासकों ने राज्य किया। इसके बाद होयसल राजवंश का अधिकार रहा। १३५७ ई॰ में यह विजयनगर में जुड़ गया। फिर शाहजी भोसले ने इस पर राज्य किया। सन् १६९८ में मुगल शासक औरंगज़ेब ने इसे चिक्काराजा वोडयार को दे दिया। १७५९ ई॰ में हैदर अली ने इस पर अधिकार किया। टीपू सुल्तान ने इस पर १७९९ ई॰ तक राज्य किया। इसके बाद इसकी बागडोर अंग्रेजों के हाथ में चली गयी। और अब यह स्वतंत्र भारत के एक राज्य की राजधानी है।
पुराणों में इस स्थान को कल्याणपुरी या कल्याण नगर के नाम से जाना जाता था। कालांतर में इसका नाम बेंगलुरु हुआ। ब्रिटिश राज के आगमन के पश्चात बेंगलुरु को औपनिवेशिक नाम "बैंगलोर" मिला। बेगुर के पास मिले एक शिलालेख से ऐसा प्रतीत होता है कि यह जिला १००४ ई॰ तक, गंग राजवंश का एक भाग था। इसे बेंगा-वलोरू के नाम से जाना जाता था, जिसका अर्थ प्राचीन कन्नड़ में "रखवालों का नगर" होता है। सन् १०१५ से १११६ तक तमिल नाडु के चोल शासकों ने यहाँ राज किया जिसके बाद इसकी सत्ता होयसल राजवंश के हाथ चली गई।
ऐसा माना जाता है कि आधुनिक बेंगलुरु की स्थापना सन् १५३७ में विजयनगर साम्राज्य के दौरान हुई थी। नादप्रभु केम्पेगौड़ा को बेंगलुरु का निर्माता माना जाता है। विजयनगर के शासक अच्युतराय के आज्ञा से मुखिया केम्पेगौड़ा जी ने बेंगलूर में किला का निर्माण कराया था, केम्पेगौड़ा ने अपनी राजधानी येलाहंका से बेंगलुरु कर ली, यही इस नगर का नीव साबित हुआ।
विजयनगर साम्राज्य के पतन के बाद बेंगलुरु के सत्ता की बागडोर कई बार बदली। मराठा सेनापति शाहजी भोसले के अघिकार में कुछ समय तक रहने के बाद इस पर मुग़लों ने राज किया। बाद में जब सन् १६८९ में मुगल शासक औरंगज़ेब ने इसे चिक्काराजा वोडयार को दे दिया तो यह नगर मैसूर साम्राज्य का हिस्सा हो गया। कृष्णराजा वोडयार के देहान्त के बाद मैसूर के सेनापति हैदर अली ने इस पर सन् १७५९ में अधिकार कर लिया। इसके बाद हैदर-अली के पुत्र टीपू सुल्तान, जिसे लोग शेर-ए-मैसूर के नाम से जानते हैं, ने यहाँ १७९९ तक राज किया जिसके बाद यह अंग्रेजों के अघिकार में चला गया। यह राज्य सन् १७९९ में चौथे मैसूर युद्ध में टीपू की मौत के बाद ही अंग्रेजों के हाथ लग सका। मैसूर का शासकीय नियंत्रण महाराजा के ही हाथ में छोड़ दिया गया, केवल छावनी क्षेत्र (कैंटॉनमेंट) अंग्रेजों के अधीन रहा। ब्रिटिश शासनकाल में यह नगर मद्रास प्रेसिडेंसी के तहत था। मैसूर की राजधानी सन् १८३१ में मैसूर शहर से बदल कर बेंगलुरु कर दी गई।
१५३७ में विजयनगर साम्राज्य के सामन्त केंपेगौड़ा प्रथम ने इस क्षेत्र में पहले क़िले का निर्माण किया था। इसे आज बेंगलुरु शहर की नींव माना जाता है। समय के साथ यह क्षेत्र मराठों, अंग्रेज़ों और आखिर में मैसूर के राज्य का हिस्सा बना। अंग्रेज़ों के प्रभाव में मैसूर राज्य की राजधानी मैसूर शहर से बेंगलुरु में स्थानांतरित हो गई, और ब्रिटिश रेज़िडेंट ने बेंगलुरु से शासन चलाना शुरू कर दिया। बाद में मैसूर का शाही वाडेयार परिवार भी बेंगलुरु से ही शासन चलाता रहा। सन् १९५७ में भारत की आज़ादी के बाद मैसूर राज्य का भारत संघ में विलय हो गया, और बेंगलुरु सन् १९५६ में नवगठित कर्नाटक राज्य की राजधानी बन गया।सन् १९४९ में बेंगलुरु छावनी और बेंगलुरु नगर, जिनका विकास अलग अलग इकाइयों के तौर पर हुआ था, का विलय करके नगरपालिका का पुनर्गठन किया गया।
संयुक्त राष्ट्र मानव विकास सूचकांक सन् २००१ के मुताबिक विश्व के शीर्ष प्रौद्योगिकी केंद्रों में ऑस्टिन (यूएसए), सैन फ़्रान्सिस्को (यूएसए) और ताइपेई (ताइवान) के साथ बेंगलुरु को चौथे स्थान पर जगह मिली है। सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रम (प्सू) और कपड़ा उद्योगों ने शुरू में बेंगलुरु की अर्थव्यवस्था को चलाई, लेकिन पिछले दशक में फोकस हाई-टेक्नोलॉजी सर्विस उद्योगों पर स्थानांतरित हो गया है। बेंगलुरु की ४७.२ बिलियन अमेरिकी डॉलर की अर्थव्यवस्था भारत में इसे एक प्रमुख आर्थिक केंद्र बनाती है। विदेशी प्रत्यक्ष निवेश (एफडीआई) के रूप में ३.७ बिलियन अमेरिकी डॉलर के निवेश ने बेंगलुरु को भारत तीसरा सबसे ज्यादा एफडीआई आकर्षित करने वाले शहर बना दिया। बेंगलुरु में 10३ से अधिक केंद्रीय और राज्य अनुसंधान और विकास संस्थान, भारतीय विज्ञान संस्थान (विश्व स्तर पर सर्वश्रेष्ठ विश्वविद्यालयों में से एक), भारतीय राष्ट्रीय विधि विश्वविद्यालय, ४५ अभियांत्रिकी महाविद्यालय, विश्व स्तर की स्वास्थ्य देखभाल सुविधाएं, चिकित्सा महाविद्यालय और शोध संस्थान, बेंगलुरु को शिक्षा और अनुसंधान के लिए एक बहुत ही महत्वपूर्ण शहर बनाते हैं।
भारत की दूसरी और तीसरी सबसे बड़ी सॉफ्टवेयर कम्पनियों का मुख्यालय इलेक्ट्रॉनिक सिटी में है। बेंगलुरु भारत के सूचना प्रौद्योगिकी निर्यातों का अग्रणी स्रोत रहा है, और इसी कारण से इसे 'भारत का सिलिकॉन वैली' कहा जाता है। सन् २०१५ में, बेंगलुरु ने भारत के कुल आईटी निर्यात में ४५ बिलियन अमेरिकी डॉलर या ३७ प्रतिशत का योगदान दिया। सन् २०१७ तक, बेंगलुरु में आईटी व्यवसाय, भारत में लगभग ४.३६ मिलियन कर्मचारियों में से, आईटी और आईटी-सक्षम सेवा क्षेत्रों में लगभग १.५ मिलियन कर्मचारी कार्यरत हैं। भारत के प्रमुख तकनीकी संगठन इसरो, इंफ़ोसिस और विप्रो का मुख्यालय यहीं है। बेंगलुरु भारत का दूसरा सबसे तेज़ी से विकसित हो रहा मुख्य महानगर है। बेंगलुरु कन्नड़ फिल्म उद्योग का केंद्र है। एक उभरते हुए महानगर के तौर पर बेंगलुरु के सामने प्रदूषण, यातायात और अन्य सामाजिक-आर्थिक चुनौतियां हैं। $८३ अरब के घरेलू उत्पाद के साथ बेंगलुरु भारत का चौथा सबसे बड़ा नगर है।
१२.९७ डिग्री उत्तरी अक्षांश और ७७.५६ डिग्री पूर्वी देशांतर पर स्थित इस नगर का भूखंड मुख्यतः पठारी है। यह मैसूर का पठार के लगभग बीच में ९२० मीटर की औसत ऊँचाई पर अवस्थित है। बेंगलुरु जिले के उत्तर-पूर्व में कोलार जिला (सोने की खानों के लिये प्रसिद्ध), उत्तर-पश्चिम में तुमकुरु जिला, दक्षिण-पश्चिम में मांडया जिला, दक्षिण में चामराजनगर जिला तथा दक्षिण-पूर्व में तमिल नाडु राज्य है।
एक अनुमान के अनुसार बेंगलुरु में ५१% से अधिक लोग भारत के विभिन्न हिस्सों से आ कर बसे हैं। अपने सुहाने मौसम के कारण इसे भारत का उद्यान नगर भी कहते हैं। प्रकाश का पर्व दीपावली यहाँ बहुत धूमधाम से मनाई जाती है। दशहरा, जो मैसूर का पहचान बन गया है, भी काफी प्रसिद्ध है। अन्य लोकप्रिय उत्सवों में गणेश चतुर्थी, उगादि, संक्रांति, ईद-उल-फितर, क्रिसमस शामिल हैं। कन्नड़ फिल्म उद्योग का केंद्र बेंगलुरु, सालाना औसतन ८० कन्नड़ फिल्म का निर्माण करता है है। कन्नड़ फिल्मों की लोकप्रियता ने एक नई जनभाषा बेंगलुरु-की-कन्नड़ को जन्म दिया है जो अन्य भाषाओं से प्रेरित है और युवा संस्कृति का समर्थक है। व्यंजनों की विविधता से भरपूर इस नगर में उत्तर भारतीय, दक्कनी, चीनी तथा पश्चिमी खाने काफी लोकप्रिय हैं।
दिल्ली और मुंबई के विपरीत बेंगलुरु में समकालीन कला के नमूने १९९० के दशक से पहले विरले ही होते थे। १९९० के दशक में बहुत से कला प्रदर्शन स्थल (आर्ट गलरी) बेंगलुरु में स्थापित हो गए, जैसे सरकार द्वारा समर्थित राष्ट्रीय आधुनिक कला संग्रालय। बेंगलुरु का अन्तर्राष्ट्रीय कला महोत्सव, आर्ट बेंगलुरु, २०१० से चल रहा है, और यह दक्षिण भारत का अकेला कला महोत्सव है।
क्रिकेट यहाँ का सर्वाधिक लोकप्रिय खेल है। बेंगलुरु ने देश को काफी उन्नत खिलाड़ी दिये हैं, जिसमें राहुल द्रविड़, अनिल कुंबले, गुंडप्पा विश्वनाथ, प्रसन्ना, बी॰ एस॰ चंद्रशेखर, वेंकटेश प्रसाद, जावागल श्रीनाथ आदि का नाम लिया जा सकता है। बेंगलुरु में कई क्लब भी हैं, जैसे - बेंगलुरु गोल्फ क्लब, बाउरिंग इंस्टीट्यूट, इक्सक्लुसिव बेंगलुरु क्लब आदि जिनके पूर्व सदस्यों में विंस्टन चर्चिल और मैसूर महाराजा का नाम शामिल है।
ऐसा माना जाता है कि जब केंपेगौड़ा ने १५३७ में बेंगलुरु की स्थापना की। उस समय उसने मिट्टी की चिनाई वाले एक छोटे किले का निर्माण कराया। साथ ही गवीपुरम में उसने गवी गंगाधरेश्वरा मंदिर और बासवा में बसवनगुड़ी मंदिर की स्थापना की। इस किले के अवशेष अभी भी मौजूद हैं जिसका दो शताब्दियों के बाद हैदर अली ने पुनर्निर्माण कराया और टीपू सुल्तान ने उसमें और सुधार कार्य किए। ये स्थल आज भी दर्शनीय है। शहर के मध्य १८६४ में निर्मित कब्बन पार्क और संग्रहालय देखने के योग्य है। १९५८ में निर्मित सचिवालय, गाँधी जी के जीवन से सम्बन्धित गाँधी भवन, टीपू सुल्तान का सुमेर महल, बसवनगुड़ी तथा हरे कृष्ण मंदिर, लाल बाग, बेंगलुरु पैलेस, साईं बाबा का आश्रम, नृत्यग्राम, बनेरघाट अभयारण्य कुछ ऐसे स्थल हैं जहाँ बेंगलुरु की यात्रा करने वाले ज़रूर जाना चाहेंगे।
यह मंदिर भगवान शिव के वाहन नंदी बैल को समर्पित है। प्रत्येक दिन इस मंदिर में काफी संख्या में भक्तों की भीड़ देखी जा सकती है। इस मंदिर में बैठे हुए बैल की प्रतिमा स्थापित है। यह मूर्ति ४.५ मीटर ऊँची और ६ मीटर लम्बी है। बुल मंदिर एनआर कॉलोनी, दक्षिण बेंगलुरु में हैं। मंदिर रॉक नामक एक पार्क के अंदर है। बैल एक पवित्र हिन्दू यक्ष, नंदी के रूप में जाना जाता है। नंदी एक करीबी भक्त और शिव का परिचरक है। नंदी मंदिर विशेष रूप से पवित्र बैल की पूजा के लिए है। "नंदी" शब्द का मतलब संस्कृत में "हर्षित" है। विजयनगर साम्राज्य के शासक द्वारा 1५37 में मंदिर बनाया गया था। नंदी की मूर्ति लम्बाई में बहुत बड़ा है, लगभग 1५ फुट ऊँचाई और २० फीट लम्बाई पर है। कहा जाता है कि यह मंदिर लगभग ५00 साल पहले का निर्माण किया गया है। केंपेगौड़ा के शासक के सपने में नंदी आये और एक मंदिर पहाड़ी पर निर्मित करने का अनुरोध किया। नंदी उत्तर दिशा कि और सामना कर रहा है। एक छोटे से गणेश मंदिर के ऊपर भगवान शिव के लिए एक मंदिर बनाया गया है। किसानों का मानना है कि अगर वे नंदी कि प्रार्थना करते है तो वे एक अच्छी उपज का आनंद ले सक्ते है।बुल टेंपल को दोड़ बसवनगुड़ी मंदिर भी कहा जाता है। यह दक्षिण बेंगलुरु के एनआर कॉलोनी में स्थित है। इस मंदिर का मुख्य देवता नंदी है। हिन्दू पौराणिक कथाओं के अनुसार नंदी शिव का न सिर्फ बहुत बड़ा भक्त था, बल्कि उनका सवारी भी था। इस मंदिर को 1५37 में विजयनगर साम्राज्य के शासक केंपेगौड़ा ने बनवाया था। नंदी की प्रतिमा 1५ फीट ऊंची और २० फीट लंबी है और इसे ग्रेनाइट के सिर्फ एक चट्टा के जरिए बनाया गया है।
बुल टेंपल को द्रविड शैली में बनाया गया है और ऐसा माना जाता है कि विश्वभारती नदी प्रतिमा के पैर से निकलती है। पौराणिक कथा के अनुसार यह मंदिर एक बैल को शांत करने के लिए बनवाया गया था, जो कि मूंगफली के खेत में चरने के लिए चला गया था, जहां पर आज मंदिर बना हुआ है। इस कहानी की स्मृति में आज भी मंदिर के पास एक मूंगफली के मेले का आयोजन किया जाता है। नवंबर-दिसंबर में लगने वाला यह मेला उस समय आयोजित किया जाता है, जब मूंगफली की पैदावार होती है। यह समय बुल टेंपल घूमने के लिए सबसे अच्छा रहता है।
दोद्दा गणेश मंदिर बुल टेंपल के पास ही स्थित है। बसवनगुड़ी मंदिर तक पहुंचने में परेशानी नहीं होती है। बेंगलुरु मंदिर के लिए ढेरों बसें मिलती हैं।
यह मूर्ति ६५ मीटर ऊँची है। इस मूर्ति में भगवान शिव पदमासन की अवस्था में विराजमान है। इस मूर्ति की पृष्ठभूमि में कैलाश पर्वत, भगवान शिव का निवास स्थल तथा प्रवाहित हो रही गंगा नदी है।
इस्कॉन मंदिर (इंटरनेशनल सोसायटी फॉर कृष्ण कॉन्स्शियस्नेस) बेंगलुरु की खूबसूरत इमारतों में से एक है। इस इमारत में कई आधुनिक सुविधाएं जैसे मल्टी-विजन सिनेमा थियेटर, कम्प्यूटर सहायता प्रस्तुतिकरण थियेटर एवं वैदिक पुस्तकालय और उपदेशात्मक पुस्तकालय है। इस मंदिर के सदस्यो व गैर-सदस्यों के लिए यहाँ रहने की भी काफी अच्छी सुविधा उपलब्ध है। अपने विशाल सरंचना के कारण हि इस्कॉन मंदिर बेंगलुरु में बहुत प्रसिद्ध है और इसीलिए बेंगलुरु का सबसे मुख्य पर्यटन स्थान भी है। इस मंदिर में आधुनिक और वास्तुकला का दक्षिण भरतीय मिश्रण परंपरागत रूप से पाया जाता है। मंदिर में अन्य संरचनाएँ - बहु दृष्टि सिनेमा थिएटर और वैदिक पुस्तकालय। मंदिर में ब्राह्मणो और भक्तों के लिए रहने कि सुविधाएँ भी उपलब्ध है।
इस्कॉन मंदिर के बैगंलोर में छ: मंदिर है:-
राधा-कृष्ण मंदिर (मुख्य मंदिर)
निताई गौरंगा मंदिर (चैतन्य महाप्रभु और नित्यानन्दा),
श्रीनिवास गोविंदा (वेंकटेश्वरा)
प्रहलाद-नरसिंह मंदिर एवं
श्रीला प्रभुपादा मंदिर
उत्तर बेंगलुरु के राजाजीनगर में स्थित राधा-कृष्ण का मंदिर दुनिया का सबसे बड़ा इस्कॉन मंदिर है। इस मंदिर का शंकर दयाल शर्मा ने सन् १९९७ में उद्घाटन किया।
टीपू पैलेस व क़िला बेंगलुरु के प्रसिद्व पर्यटन स्थलों में से है। इस महल की वास्तुकला व बनावट मुगल जीवनशैली को दर्शाती है। इसके अलावा यह किला अपने समय के इतिहास को भी दर्शाता है। टीपू महल के निर्माण का आरंभ हैदर अली ने करवाया था। जबकि इस महल को स्वयं टीपू सुल्तान ने पूरा किया था। टीपू सुल्तान का महल मैसूरी शासक टीपू सुल्तान का ग्रीष्मकालीन निवास था। यह बेंगलुरु, भारत में स्थित है। टीपू की मौत के बाद, ब्रिटिश प्रशासन ने सिंहासन को ध्वस्त किया और उसके भागों को टुकड़ा में नीलाम करने का फैसला किया। यह बहुत महंगा था कि एक व्यक्ति पूरे टुकड़ा खरीद नहीं सक्ता है। महल के सामने अंतरिक्ष में एक बगीचेत और लॉन द्वारा बागवानी विभाग, कर्नाटक सरकार है। टीपू सुल्तान का महल पर्यटकों को आकर्षित करता है। यह पूरे राज्य में निर्मित कई खूबसूरत महलों में से एक है।
यह जगह कला प्रेमियों के लिए बिल्कुल उचित है। इस चित्रशाला में लगभग ६०० पेंटिग प्रदर्शित की गई है। यह चित्रशाला पूरे वर्ष खुली रहती है। इसके अलावा, इसमें कई अन्य नाटकीय प्रदर्शनी का संग्रह देख सकते हैं।
यह महल बेंगलुरु के प्रमुख पर्यटन स्थलों में से एक है। इस महल की वास्तुकला तुदौर शैली पर आधारित है। यह महल बेंगलुरु शहर के मध्य में स्थित है। यह महल लगभग ८०० एकड़ में फैला हुआ है। यह महल इंग्लैंड के विंडसर महल की तरह दिखाई देता है। प्रसिद्ध बेंगलुरु महल (राजमहल) बेंगलुरु का सबसे आकर्षक पर्यटन स्थान है। ४५००० वर्ग फीट पर बना यह विशाल पैलेस ११० साल पुराना है। सन् १८८० में इस पैलेस का निर्माण हुआ था और आज यह पुर्व शासकों की महिमा को पकड़ा हुआ है।
इसके निर्माण में तब कुल १ करोड़ रुपये लगे थे। इसके आगे एक सुन्दर उद्यान है जो इसको इतना सुंदर रूप देता है कि वह सपनों और कहानियों के महल कि तरह लगता है।बेंगलुरु पैलेस शहर के बीचों बीच स्थित पैलेस गार्डन में स्थित है। यह सदशिवनगर और जयामहल के बीच में स्थित है। इस महल के निर्माण का काम १862 में श्री गेरेट द्वारा शुरू किया गया था। इसके निर्माण में इस बात की पूरी कोशिश की गई कि यह इंग्लैंड के विंडसर कास्टल की तरह दिखे। १884 में इसे वाडेयार वंश के शासक चमाराजा वाडेयार ने खरीद लिया था।
४५००० वर्ग फीट में बने इस महल के निर्माण में करीब ८२ साल का समय लगा। महल की खूबसूरती देखते ही बनती है। जब आप आगे के गेट से महल में प्रवेश करेंगे तो आप मंत्रमुग्ध हुए बिना नहीं रह सकेंगे। अभी हाल ही में इस महल का नवीनीकरण भी किया गया है। महल के अंदरूनी भाग की डिजाइन में तुदार शैली का वास्तुशिल्प देखने को मिलता है। महल के निचले तल में खुला हुआ प्रांगण है। इसमें ग्रेनाइट के सीट बने हुए हैं, जिसपर नीले रंग के क्रेमिक टाइल्स लेगे हुए हैं। रात के समय इसकी खूबसूरती देखते ही बनती है। वहीं महल के ऊपरी तल पर एक बड़ा सा दरबार हॉल है, जहां से राजा सभा को संबोधित किया करते थे। महल के अंदर के दीवार को ग्रीक, डच और प्रसिद्ध राजा रवि वर्मा के पेंटिंग्स से सजाया गया है, जिससे यह और भी खिल उठता है।
यह जगह बेंगलुरु के प्रमुख पर्यटक स्थलों में से एक है। इसका निर्माण १९५४ ई. में किया गया। इस इमारत की वास्तुकला नियो-द्रविडियन शैली पर आधारित है। वर्तमान समय में यह जगह कर्नाटक राज्य के विधान सभा के रूप में उपयोग किया जाता है। इसके अलावा इमारत का कुछ हिस्सा कर्नाटक सचिवालय के रूप में भी कार्य कर रहा है।
विधान सौधा के शैली में ही और एक इमारत का निर्माण किया गया है, जिसका नाम 'विकास सौधा' रखा गया है। पूरे भारत में यह सबसे बड़ी विधान भवन है। तत्कालीन मुख्यमंत्री एस एम कृष्णा की ओर से शुरू की गई है और, फरवरी २००५ में उद्घाटन किया गया। यह डॉ॰ आंबेडकर रोड, सेशाद्रिपुरम में स्थित है। विधान सौधा के सामने कर्नाटक उच्च न्यायालय है। २००१ में भारतीय संसद पर हमले के बाद, विधान सौधा की सुरक्षा के बारे में चिंता कि जा रही थी। सभी पक्षों के फुटपाथ पर एक मजबूत १० फुट ऊंची इस्पात बाड़ लगाने का फैसला किया गया। विधान सौधा के तीन मुख्य फर्श है। यह भवन ७०० फुट उत्तर दक्षिण और ३५० फीट पूरब पश्चिम आयताकार है।अगर आप बेंगलुरु जा रहे हैं तो विधान सौदा जरूर जाएं। यह राज्य सचिवालय होने के साथ-साथ ईंट और पत्थर से बना एक उत्कृष्ट निर्माण है। करीब ४६ मीटर ऊँचा यह भवन बेंगलुरु का सबसे ऊँचा भवन है।
इसकी वास्तुशिल्पीय शैली में परंपरागत द्रविड शैली के साथसाथ आधुनिक शैली का भी मिश्रण देखने को मिलता है। ऐसे में यहां जाना आपको निराश नहीं करेगा। शहर के किसी भी स्थान से यहां आसानी से पहुंचा जा सकता है। सार्वजनिक छुट्टी के दिन और रविवार के दिन इसे रंगबिरंगी रोशनी से सजाया जाता है, जिससे यह और भी खूबसूरत हो उठता है। हालांकि विधान सौदा हर दिन शाम ६ से ८.३० बजे तक रोशनी से जगमगाता रहता है। बेंगलुरु सिटी जंक्शन से यह सिर्फ ९ किमी दूर है। कब्बन पार्क के पास स्थित दूर तक फैले हरे-भरे मैदान पर बना विधान सौदा घूमने अवश्य जाना चाहिए।
वर्तमान समय में इस बाग को लाल बाग वनस्पति बगीचा के नाम से जाना जाता है। यह बाग भारत के सबसे खूबसूरत वनस्पतिक बगीचों में से एक है। अठारहवीं शताब्दी में हैदर अली और टीपू सुल्तान ने इसका निर्माण करवाया था। इस बगीचे के अंदर एक खूबसूरत झील है। यह झील १.५ वर्ग किलोमीटर में फैली हुई है। यह झील का नजारा एक छोटे से द्वीप की तरह प्रतीत होता है। जिस कारण यह जगह एक अच्छे पर्यटन स्थल के रूप में भी जाना जाता है। लालबाग बेंगलुरु में उपस्थित वानस्पतिक उद्यान है। साल भर अपने सुंदर, निवोदित लाल खिलते हुए गुलाबों के कारण इसका नाम लालबाग रखा है। इस उद्यान में दुर्लभ प्रजातियों के पौधों को अफगानिस्तान और फ्रांस से लाया जाता है। यहाँ कई सारे स्प्रिंग, कमल तल आदि भी है। एक ग्लास हाउस भी प्रस्तुत है। जहा अब एक स्थायी पुष्प प्रदर्शनी आयोजित किया जाता है। स्वतंत्रता दिवस और गणतंत्र दिवस पर उद्यान को बहुत अच्छी तरह से सजाया जाता है। फुलों से कई तरह के भिन्न-भिन्न चित्र और प्रतिरुप बनाये जाते है। बेंगलुरु के दक्षिण में स्थित लाल बाग एक प्रसिद्ध बॉटनिकल गार्डन है। इस बाग का निर्माण कार्य हैदर अली ने शुरू किया था और बाद में उनके बेटे टीपू सुल्तान ने इसे पूरा किया। करीब २४० एकड़ भूभाग में फैले इस बाग में ट्रॉपिकल पौधों का विशाल संकलन है और यहां वनस्पतियों की १000 से ज्यादा प्रजातियां पाई जाती हैं।
बाग में सिंचाई की व्यवस्था बेहतरीन है और इसे कमल के फूल वाले तालाब, घास के मैदान और फुलवारी के जरिए बेहतरीन तरीके से सजाया गया है। लोगों को वनस्पति के संरक्षण के प्रति जागरुक करने के लिए यहां हर साल फूलों की प्रदर्शनी का आयोजन किया जाता है। लाल बाग हर दिन सुबह ६ बजे से शाम ७ बजे तक खुला रहता है। यह राज्य पथ परिवहन की बस और टूरिस्ट बस के जरिए अच्छे से जुड़ा हुआ है। वर्तमान में लाल बाग को बागबानी निदेशायल द्वारा सहयोग किया जा रहा है। हलांकि इसे 185६ में ही सरकारी बॉटनिकल गार्डन घोषित कर दिया गया था। लण्डन के क्रिस्टल पैलेसे से प्रभावित होकर बाग के अंदर एक ग्लास पैलेस भी बनाया गया है, जहां हर साल फूलों की प्रदर्शनी का आयोजन किया जाता है। लाल बाग की चट्टानें करीब ३००० साल पुरानी है और इसे धरती का सबसे पुराना चट्टान माना जाता है। भेंट के तौर पर गार्डन के बीच में एचएमटी द्वारा एक इलेक्ट्रॉनिक फ्लावर क्लॉक बनवाया गया है। इस गार्डन ही हरियाली के बीच में घूमते-घूमते कब आप इंसान से ज्यादा प्रकृति से प्रेम करने लग जाएंगे, आपको पता भी नहीं चलेगा।
कई एकड़ क्षेत्र में फैले लॉन, दूर तक फैली हरियाली, सैंकड़ों वर्ष पुराने पेड़, सुंदर झीलें, कमल के तालाब, गुलाबों की क्यारियाँ, दुर्लभ समशीतोष्ण और शीतोष्ण पौधे, सजावटी फूल पर्यटकों को अपनी ओर आकर्षित करते हैं। यहाँ प्रकृति मनुष्य के साथ साक्षात्कार करती है। यह स्थान बंगलौर के सुंदरतम स्थानों में से एक है जिसे लाल बाग बॉटनिकल गार्डन, या लाल बाग वनस्पति उद्यान कहते हैं। यह २४० एकड़ क्षेत्र में फैला हुआ है। १७६० में इसकी नींव हैदर अली ने रखी और टीपू सुल्तान ने इसका विकास किया। बेंगलुरु शहर में आने वाले पर्यटक इस पार्क को देख कर बेंगलुरु शहर को 'गार्डन सिटी' कह कर पुकारते है। पार्क के माध्यम से कई सड़कों विभिन्न स्थानों को चलाते हैं। कब्बन पार्क १८७० में बनाया गया था। पार्क ५:००-८:०० के समय छोड़कर हर समय खुला है। पार्क में 6००0 पौधों के साथ 6८ किस्मों और ९६ प्रजातियों के आसपास पौधों है। सजावटी और फूल के पेड़ है। कब्बन पार्क बेंगलुरु में गाँधी नगर के पास स्थित है। परी फव्वारे और एक अगस्त बैंडस्टैंड भी है। आम, अशोक, पाइन, इमली, गुलमोहर, बाँस, जैसे वृक्षों यहाँ पाये जाते है। रोज गार्डन पब्लिक लाइब्रेरी के प्रवेश के बिल्कुल विपरीत है।
हजरत तवक्कल मस्तान दरगाह
यह दरगाह सूफी संत तवक्कल मस्तान की है। इस दरगाह में मुस्लिम व गैर-मुस्लिम दोनों ही श्रद्धालु आते हैं।
गाँधी भवन कुमार कुरूपा मार्ग पर स्थित है। यह भवन महात्मा गाँधी के जीवन की याद में बनवाया गया है। इस भवन में गाँधी जी के बचपन से लेकर उनके जीवन के अंतिम दिनों को चित्रों के द्वारा दर्शाया गया है। इसके अलावा यहाँ स्वयं गाँधी जी द्वारा लिखे गए पत्रों की प्रतिकृति का संग्रह, उनके खड़ाऊँ, पानी पीने के लिए मिट्टी के बर्तन आदि स्थित है।
चौड़िया स्मारक सभागार
इस हॉल का निर्माण वायलिन के आकार में किया गया है। कर्नाटक के प्रसिद्ध सांरगी आचार्य टी॰ चौड़िया की मृत्यु के बाद इस जगह का नाम उनके नाम पर रखा गया। विभिन्न उद्देश्यों से बने इस वातानुकूलित हॉल में विशेष रूप से परम्परागत कार्यक्रमों का आयोजन किया जाता है। यह जगह गायत्री देवी पार्क एक्सटेंशन पर स्थित है। ऐसा माना जाता है कि यह इमारत पूरे विश्व में संगीत वाद्य के आकार में बना पहला इमारत है।
गवी गंगादरश्रवरा मंदिर
यह मंदिर बसवनगुड़ी के समीप स्थित है। यह मंदिर अपनी वास्तुकला के लिए भी विशेष रूप से जाना जाता है। यह मंदिर बेंगलुरु के पुराने मंदिरों में से एक है। इस मंदिर का निर्माण केंपेगौड़ा ने करवाया था। यह मंदिर भगवान शिव और माता पार्वती को समर्पित है। इस मंदिर में एक प्राकृतिक गुफा है। मकर सक्रांति के दिन काफी संख्या में भक्तगण यहाँ एकत्रित होते हैं।
नेहरू तारामंडल (नेहरू प्लेनेटेरियम), भारत में पाँच ग्रहो का नाम है। भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के नाम पर रखा गया है। ये मुंबई, नई दिल्ली, पुणे और बंगलौर में स्थित हैं। बेंगलुरू में जवाहरलाल नेहरू प्लैनेटेरियम १९८९ में बंगलौर नगर निगम द्वारा स्थापित किया गया था। आकाशगंगाओं का विशाल रंग चित्र इस तारामंडल के प्रदर्शनी हॉल में दिखाई देता है। साइंस सेंटर और एक विज्ञान पार्क यहाँ है। यह पता चलता है कि यह ना केवल पढ़ाने के लिए प्रयोग किया जाता है बल्कि खगोल विज्ञान के लिये भी प्रयोग किया जाता है।
विश्वेश्वरैया औद्योगिक ऐवं प्रौद्योगिकीय संग्रहालय
कस्तुरबा रोड पर स्थित यह संग्रहालय सर. एम. विश्वेश्वरैया को श्रद्धांजलि देते हुए उनके नाम से बनाया गया है। इसके परिसर में एक हवाई जहाज और एक भाप इजंन का प्रदर्शन किया गया है। संग्रहालय का सबसे प्रमुख आकर्षण मोबाइल विज्ञान प्रदर्शन है, जो पूरे शहर में साल भर होता है। प्रस्तुत संग्रहालय में इलेक्ट्रानिक्स मोटर शक्ति और उपयोग कर्ता और धातु के गुणो के बारे में भी प्रदर्शन किया गया है। सेमिनार प्रदर्शन और वैज्ञानिक विषयो पर फिल्म शो का भी आयोजन किया गया है। संग्रहालय की विशेषताएँ- इजंन हाल, इलेक्ट्रानिक प्रौद्योगिकि वीथिका, किंबे कागज धातु वीथिका, लोकप्रीय विज्ञान वीथिका और बाल विज्ञान वीथिका।
बन्नरघट्टा जैविक उद्यान
यह पार्क शहर से २२ किलोमीटर की दूरू पर स्थित है। यहाँ पर विभिन्न प्रकार के जानवरों, चिड़ियों को एक उपयुक्त वातावरण में रखा है। यहां सफारी की सेवा बहुत ही रोमाचंक है, जहां लोगों को जगंल में यात्रा करवाई जाती है।
बेंगलुरु में दूसरे अन्य आकर्षण
इनोवेटिव फिल्म सिटी वंडरला से २ किमी दूर बेंगलुरु-मैसूर राज्य राजमार्ग-१७ पर स्थित है। यहां बच्चे और बड़े बराबर संख्या में आते हैं। अपने परिवार और दोस्तों के साथ यहाँ पूरा दिन बिताना आपको अच्छा अनुभव दिलाएगा। बेंगलुरु से सड़क मार्ग के जरिए फ़िल्म सिटी आसानी से पहुंचा जा सकता है और यह पर्यटकों के लिए सुबह १० बजे से शाम ६.३० बजे तक खुला रहता है। फ़िल्म सिटी के अंदर कुछ गिने चुने मनोरंजन के लिए प्रति व्यक्ति २99 रुपए अदा करना होता है। वहीं अगर आप फिल्म सिटी के सारे मनोरंजन का आनंद लेना चाहते हैं, तो इसके लिए आपको ४९९ रुपए चुकाने होंगे। फ़िल्म सिटी के मुख्य आकर्षण में इनोवेटिव स्टूडियो, म्यूजियम, ४डी थियेटर, टाड्लर डेन, लुइस तसौद वैक्स म्यूजियम और थीम बेस्ड रेस्टोरेंट शामिल है। वन्नाडो सिटी में खासतौर पर बच्चों के लिए बनाया गया है। इतना ही नहीं यहाँ के डायनासोर वर्ल्ड में आप डायनासोर की प्रतिमूर्ति को देख कर रोमांचित हुए बिना नहीं रह सकेंगे। भुतहा महल देखना भी आपके लिए एक यादगार अनुभव साबित होगा। वहीं मिनीअचर सिटी में आप विश्व के कुछ अजूबे और प्रमुख स्थानों की प्रतिमूर्ति देख सकते हैं। इसके अलावा यहां के थीम आधारित रेस्टोरेंट में भोजन करना भी लंबे समय तक आपको याद रहेगा।
बेंगलुरु अन्तर्राष्ट्रीय विमानक्षेत्र सबसे नजदीकी एयरपोर्ट है जो बेंगलुरु सेंट्रल रेलवे स्टेशन से करीब ३० किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। कई प्रमुख शहरों जैसे कोलकाता, मुंबई, दिल्ली, हैदराबाद, चैन्नई, अहमदाबाद, गोवा, कोच्चि, मंगलूरु, पुणे और तिरूवंतपुरम से यहाँ के लिए नियमित रूप से उड़ानें भरी जाती है। अंतर्राष्ट्रीय उड़ानें भी इसी एयरपोर्ट से निकलती हैं। बेंगलुरु अंतर्राष्ट्रीय विमानक्षेत्र शहर के बीच से करीब ४० किमी दूर स्थित है। यह भारत का चौथा सबसे व्यस्त एयरपोर्ट है। साथ ही यह किंगफिशर एयरलाइन का गढ़ भी है। यहाँ १० घरेलू और २१ अंतर्राष्ट्रीय वायु-मार्ग की सुविधा है। इससे बेंगलुरु शेष भारत और विश्व से अच्छे से जुड़ा हुआ है। बेंगलुरु का बेंगलुरु अंतर्राष्ट्रीय विमानक्षेत्र देश का तीसरा व्यस्ततम एयरपोर्ट है। घरेलू तथा अंतर्राष्ट्रीय उड़ानों में प्रयुक्त यह हवाईपट्टी, एशिया, मध्य-पूर्व तथा यूरोप के लिये सेवाएँ देती है।
इसके निर्माण की शुरुआत २००८ में हुई थी और यह जर्मन कंपनी सीमेंस और कर्नाटक सरकार का ज्वाइंट सेक्टर वेंचर था। चूंकि यह रेलवे स्टेशन और बस टर्मिनल से नजदीक है, इसलिए एयरपोर्ट तक रेलवे लाइन बिछाने की योजना बनाई जा रही है। वहीं राष्ट्रीय राजमार्ग से यहां पहुचनें के लिए सिक्स लेन हाइवे पहले ही बनाया जा चुका है।
यह एयरपोर्ट ७१००० वर्ग मीटर में बना है और पैसेंजर टर्मिनल पूरी तरह से वातानुकूलित है। इसके चार तल्ला भवन में अंतरराष्ट्रीय और घरेलू पैसेंजर रुक सकते हैं। इस एयरपोर्ट की एक और खास बात यह है कि हज यात्रियों के लिए यहां एक अलग टर्मिनल है। करीब १५०० वर्ग मीटर के इस टर्मिनल में ६०० यात्री एक साथ समा सकते हैं। शहर से एयरपोर्ट पहुंचने के लिए आप टैक्सी का सहारा ले सकते हैं।
बेंगलुरु में दो प्रमुख रेलवे स्टेशन है:- क्रांतिवीर संगोली रायण्णा रेलवे स्टेशन और यशवंतपुर जंक्शन रेलवे स्टेशन। यह स्टेशने भारत के कई प्रमुख शहरों से जुड़े हुए है। देश के कई शहरों से नियमित रूप से एक्सप्रेस रेल बेंगलुरु के लिए चलती है। बेंगलुरु में त्वरित यातायात सेवा भी है, जिसे बेंगलुरु मेट्रो या नम्मा मेट्रो कहा जाता है।
बेंगलुरु में काफी संख्या में बस टर्मिनल है। जो कि रेलवे स्टेशन के समीप ही है। बीएमटीसी के किराये देश में सबसे ज्यादा माना जाता है। पहले चरण में एक किलोमीटर ४ रुपए है, दूरी बढ़ने के साथ - रू १ /प्रति किलोमीटर हो जता है। बीएमटीसी का मुख्य आकर्षण ६० पर प्रदान की दैनिक पास है।
बेंगलुरु में शॉपिंग का अपना ही एक अलग मजा है। यहाँ आपको कांचीपुरम सिल्क या सावोरस्की क्रिस्टल आसानी से मिल सकता है। बेंगलुरु विशेष रूप से मॉलों के लिए प्रसिद्ध है। यहाँ स्थित मॉल भारत के कुछ खूबसूरत और बड़े मॉल में से एक है। कमर्शियल स्ट्रीट बेंगलुरु से सबसे व्यस्त और भीड़-भाड़ वाले शॉपिंग की जगहों में से है। यहाँ आपको जूते, ज्वैलरी, स्टेशनरी, ट्रैवल किट और स्पोाट्स वस्तुएं आसानी से मिल जाएगी। ब्रिटिश काल के दौरान के दक्षिण परेड को आज एम॰ जी॰ रोड के नाम से जाना जाता है। यहाँ आपको शॉपिंग के लिए इलेक्ट्रॉनिक उपकरण, किताबें और मैगजीन, सिल्क साड़ी, कपड़े, प्राचीन और फोटोकारी की जुड़ी विशेष चीजें मिल सकती है। एम॰ जी॰ रोड के काफी नजदीक ही ब्रिगेड रोड है यह जगह इलेक्ट्रॉनिक उपकरण जैसे टेलीविजन, फ्रिज, म्यूजिक सिस्टम, कम्प्यूटर और वाशिंग मशीन आदि के लिए प्रसिद्ध है।
इन्हें भी देखें
केम्पे गौडा प्रथम
भारत के शहर
बेंगलुरु की सैर (जागरण यात्रा)
कर्नाटक के शहर
बंगलोर नगर ज़िले के नगर
बंगलोर ग्रामीण ज़िले के नगर
भारत के महानगर |
समुद्री तूफ़ान - को जापानी भाषा में सुनामी (, अथवा ) बोलते हैं, यानी बन्दरगाह के निकट की लहर। दरअसल ये बहुत लम्बी - यानी सैकड़ों किलोमीटर चौड़ाई वाली होती हैं, यानी कि लहरों के निचले हिस्सों के बीच का फ़ासला सैकड़ों किलोमीटर का होता है। पर जब ये तट के पास आती हैं, तो लहरों का निचला हिस्सा ज़मीन को छूने लगता है,- इनकी गति कम हो जाती है और ऊँचाई बढ़ जाती है। ऐसी स्थिति में जब ये तट से टक्कर मारती हैं तो तबाही होती है। गति ४२० किलोमीटर प्रति घण्टा तक और ऊँचाई १० से १८ मीटर तक यानी खारे पानी की चलती दीवार।
अक्सर समुद्री भूकम्पों की वजह से ये तूफ़ान पैदा होते हैं। प्रशान्त महासागर में बहुत आम हैं, पर बंगाल की खाड़ी, हिन्द महासागर व अरब सागर में नहीं। इसीलिए शायद भारतीय भाषाओं में इनके लिए विशिष्ट नाम नहीं है।
समुद्र के भीतर अचानक जब बड़ी तेज़ हलचल होने लगती है तो उसमें तूफान उठता है जिससे ऐसी लंबी और बहुत ऊंची लहरों का रेला उठना शुरू हो जाता है जो ज़बरदस्त आवेग के साथ आगे बढ़ता है, इन्हीं लहरों के रेले को सूनामी कहते हैं। दरअसल सूनामी जापानी शब्द है जो सू और नामी से मिल कर बना है सू का अर्थ है समुद्र तट औऱ नामी का अर्थ है लहरें। पहले सूनामी को समुद्र में उठने वाले ज्वार के रूप में भी लिया जाता रहा है लेकिन ऐसा नहीं है। दरअसल समुद्र में लहरें चाँद सूरज और ग्रहों के गुरुत्वाकर्षण के प्रभाव से उठती हैं लेकिन सूनामी लहरें इन आम लहरों से अलग होती हैं।
सूनामी लहरों के पीछे वैसे तो कई कारण होते हैं लेकिन सबसे ज्यादा असरदार कारण है भूकंप. इसके अलावा ज़मीन धंसने, ज्वालामुखी फटने, किसी तरह का विस्फोट होने और कभी-कभी उल्कापात के असर से भी सूनामी लहरें उठती हैं।
जब कभी भीषण भूकंप की वजह से समुद्र की ऊपरी परत अचानक खिसक कर आगे बढ़ जाती है तो समुद्र अपनी समांतर स्थिति में ऊपर की तरफ बढ़ने लगता है। जो लहरें उस वक़्त बनती हैं वो सूनामी लहरें होती हैं। इसका एक उदाहरण ये हो सकता है कि धरती की ऊपरी परत फ़ुटबॉल की परतों की तरह आपस में जुड़ी हुई है या कहें कि एक अंडे की तरह से है जिसमें दरारें हों। पहले सूनामी को समुद्र में उठने वाले ज्वार के रूप में भी लिया जाता रहा है लेकिन ऐसा नहीं है। दरअसल समुद्र में लहरे चाँद सूरज और ग्रहों के गुरुत्वाकर्षण के प्रभाव से उठती हैं लेकिन सूनामी लहरें इन आम लहरों से अलग होती हैं।
जैसे अंडे का खोल सख़्त होता है लेकिन उसके भीतर का पदार्थ लिजलिजा और गीला होता है। भूकंप के असर से ये दरारें चौड़ी होकर अंदर के पदार्थ में इतनी हलचल पैदा करती हैं कि वो तेज़ी से ऊपर की तरफ का रूख़ कर लेता है। धरती की परतें भी जब किसी भी असर से चौड़ी होती हैं तो वो खिसकती हैं जिसके कारण महाद्वीप बनते हैं। तो इस तरह ये सूनामी लहरें बनती हैं। लेकिन ये भी ज़रूरी नहीं कि हर भूकंप से सूनामी लहरें बने। इसके लिए भूकंप का केंद्र समुद्र के अंदर या उसके आसपास होना ज़रूरी है।
तट आगमन पर प्रभाव
जब ये सुनामी लहरें किसी भी महाद्वीप की उस परत के उथले पानी तक पहुँचती हैं जहाँ से वो दूसरे महाद्वीप से जुड़ा है और जो कि एक दरार के रूप में देखा जा सकता है। वहाँ सूनामी लहर की तेज़ी कम हो जाती है। वो इसलिए क्यों कि उस जगह दूसरा महाद्वीप भी जुड़ रहा है और वहां धरती की जुड़ी हुई परत की वजह से दरार जैसी जो जगह होती है वो पानी को अपने अंदर रास्ता देती है। लेकिन उसके बाद भीतर के पानी के साथ मिल कर जब सूनामी किनारे की तरफ़ बढ़ती है तो उसमे इतनी तेज़ी होती है कि वो ३० मीटर तक ऊपर उठ सकती है और उसके रास्ते में चाहे पेड़, जंगल या इमारतें कुछ भी आएँ- सबका सफ़ाया कर सकती है।
सूनामी लहरें समुद्री तट पर भीषण तरीके से हमला करती हैं और जान-माल का बुरी तरह नुक़सान कर सकती है। इनकी भविष्यवाणी करना मुश्किल है। जिस तरह वैज्ञानिक भूकंप के बारे में भविष्य वाणी नहीं कर सकते वैसे ही सूनामी के बारे में भी अंदाज़ा नहीं लगा सकते।
लेकिन सूनामी के अब तक के रिकॉर्ड को देखकर और महाद्वीपों की स्थिति को देखकर वैज्ञानिक कुछ अंदाज़ा लगा सकते हैं। धरती की जो प्लेट्स या परतें जहाँ-जहाँ मिलती है वहाँ के आसपास के समुद्र में सूनामी का ख़तरा ज़्यादा होता है।
जैसे आस्ट्रेलियाई परत और यूरेशियाई परत जहाँ मिलती हैं वहाँ स्थित है सुमात्रा जो कि दूसरी तरफ फिलीपीनी परत से जुड़ा हुआ है। सूनामी लहरों का कहर वहाँ भयंकर रूप में देखा जा रहा है।
इन्हें भी देखें
२००४ हिंद महासागर में भूकंप और सुनामी
सुनामी सुनामी के बारे में जानकारी एवं बचाव के उपाय
सुनामी और विज्ञान
मौसम संबंधित विपदायें |
वेलिंग्टन न्यूज़ीलैंड की राजधानी है। वेलिंगटन को इस देश का दूसरा सबसे बड़ा नगरीय क्षेत्र माना जाता है। लगभग १८ लाख की जनसंख्या वाले इस नगर की स्थापना १८३९ ईसवी में हुई थी और १८६५ ईसवी में इसे यहां का राजधानी घोषित किया गया। पर्यटन की दृष्टि से यहां वेलिंगटन म्यूजियम, सिटी गैलरी, फैंक किटस पार्क, माउन्ट विक्टोरिया, माउन्ट कोकोउ, मैसी मेमोरियल, कारोरी वाइल्डलाइफ सैंचुरी, लीमर्स आर्क, पार्लियामेंट बिल्डिंग, नेशनल लाईब्रेरी, टर्नबुल हाउस, सेन्ट्रल लाईब्रेरी, बोटेनिक गार्डेन जैसे जगहों को घूमा जा सकता है।
वेलिगंटन को पृथ्वी की अंतिम दक्षिणतम राजधानी कहते हैं।
वेलिंग्टन न्यूज़ीलैंड के उत्तर द्वीप के दक्षिणी छोर पर स्थित है और कुक जलसन्धि पर तटस्थ है। इसके उत्तर में समुद्र के किनारे कापीती तट के बालूतट (बीच) फैले हुए हैं। पूर्व में रिमुताका पहाड़ियों की शृंखला इसे वाइरारापा के मैदान से अलग करती है। वेलिंग्टन पूरे विश्व की दक्षिणतम राष्ट्रीय राजधानी है।वेलिंग्टन / वेट्टी / (माओरी: ते व्हानंगुई-ए-तारा) राजधानी और दूसरे न्यूजीलैंड के सबसे अधिक आबादी वाला शहरी क्षेत्र है, जिसमें ४०५,००० निवासियों का स्थान है। [३] यह कुक स्ट्रेट और रिमूटका रेंज के बीच उत्तर द्वीप के दक्षिण-पश्चिमी टिप पर है। वेलिंगटन दक्षिणी उत्तरी द्वीप का प्रमुख जनसंख्या केंद्र है और वेलिंग्टन क्षेत्र का प्रशासनिक केंद्र है, जिसमें कपिटी तट और वैरापापा भी शामिल हैं। यह दुनिया का सबसे ऊंचा शहर है, जिसमें २६ किमी / घंटे की औसत हवा की गति है, [४] और एक सार्वभौमिक राज्य की दुनिया की दक्षिणी सबसे बड़ी राजधानी है। [५]
वेलिंगटन शहरी क्षेत्र में चार स्थानीय प्राधिकरण शामिल हैं: कुक स्ट्रेट और वेलिंग्टन हार्बर के बीच प्रायद्वीप पर वेलिंगटन सिटी, केंद्रीय व्यवसाय जिले और आधे आबादी शामिल है; उत्तर में पोरीरुआ हार्बर पर पोरीरुआ अपने बड़े माओरी और प्रशांत द्वीप समुदायों के लिए उल्लेखनीय है; लोअर हट और ऊपरी हिट उत्तरपूर्व में बड़े पैमाने पर उपनगरीय इलाके हैं, जिसे हट वैली के नाम से जाना जाता है।
देश के भौगोलिक केंद्र के पास स्थित वेलिंगटन को व्यापार के लिए अच्छी तरह से रखा गया था। १८३ ९ में न्यूजीलैंड आने वाले ब्रिटिश आप्रवासियों के लिए सबसे पहले योजनाबद्ध निपटान के रूप में चुना गया था। इस निपटारे का नाम आर्थर वेलेस्ले, वेलिंगटन के पहले ड्यूक और वॉटरलू की लड़ाई के विजेता के सम्मान में रखा गया था।
१८६५ से देश की राजधानी होने के नाते, न्यूजीलैंड सरकार और संसद, सर्वोच्च न्यायालय और अधिकांश नागरिक सेवा शहर में स्थित हैं। ऑकलैंड से बहुत छोटे होने के बावजूद, वेलिंगटन को न्यूजीलैंड की सांस्कृतिक राजधानी के रूप में भी जाना जाता है यह शहर राष्ट्रीय अभिलेखागार, नेशनल लाइब्रेरी, न्यूजीलैंड ते पेपा टोंगरेवा का संग्रहालय, कई थियेटर और दो विश्वविद्यालयों का घर है। वास्तुशिल्प स्थलों में सरकारी भवन शामिल हैं- दुनिया में सबसे बड़ी लकड़ी की इमारतों में से एक-साथ-साथ इकोलिन बीहाइव भी। वेलिंगटन कई कलात्मक और सांस्कृतिक संगठनों की मेजबानी करता है, जिनमें न्यूजीलैंड सिम्फनी ऑर्केस्ट्रा और रॉयल न्यूजीलैंड बैले शामिल हैं। यह एक जीवंत शहरी संस्कृति है, जिसमें कई कैफे, रेस्तरां और प्रदर्शन स्थान हैं। दुनिया के सबसे ज़्यादा रहने योग्य शहरों में से एक, २०१४ मर्सर क्वालिटी ऑफ़ लिविंग सर्वे ने वेलिंगटन को दुनिया में १२ वीं का स्थान दिया। [६]
वेलिंग्टन की अर्थव्यवस्था मुख्य रूप से वित्त आधारित, व्यापार सेवाओं और सरकार पर जोर देने के साथ सेवा-आधारित है। यह न्यूजीलैंड की फिल्म और विशेष प्रभाव उद्योगों का केंद्र है, और सूचना प्रौद्योगिकी और नवीनता के लिए तेजी से एक केंद्र है। [७] वेलिंगटन न्यूजीलैंड के मुख्य बंदरगाहों में से एक के रूप में शुमार है और दोनों घरेलू और अंतरराष्ट्रीय नौवहन पर काम करता है। शहर वेलिंग्टन अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे से परोसा जाता है, देश में तीसरा सबसे व्यस्त हवाई अड्डा। वेलिंगटन के परिवहन नेटवर्क में ट्रेन और बस लाइन शामिल होती है जो कि कपिटी तट और वैरापाप तक पहुंचती हैं, और घाटियों को शहर को दक्षिण द्वीप से जोड़ते हैं।
न्यूज़ीलैण्ड के आबाद स्थान
ओशिआनिया में राजधानियाँ |
लालू प्रसाद यादव (जन्म: ११ जून १९४८) भारत के बिहार राज्य के राजनेता व राष्ट्रीय जनता दल (राजद) के अध्यक्ष हैं। वे १९९० से १९९७ तक बिहार के मुख्यमंत्री रहे। बाद में उन्हें २००४ से २००९ तक केंद्र की संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) सरकार में रेल मन्त्री का कार्यभार सौंपा गया। जबकि वे १५वीं लोक सभा में सारण (बिहार) से सांसद थे उन्हें बिहार के बहुचर्चित चारा घोटाला मामले में रांची स्थित केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई) की अदालत ने पांच साल कारावास की सजा सुनाई थी। इस सजा के लिए उन्हें बिरसा मुण्डा केन्द्रीय कारागार रांची में रखा गया था। केन्द्रीय अन्वेषण ब्यूरो के विशेष
न्यायालय ने अपना फैसला सुरक्षित रखा जबकि उन पर कथित चारा घोटाले में भ्रष्टाचार का गम्भीर आरोप सिद्ध हो चुका था। ३ अक्टूबर 201३ को न्यायालय ने उन्हें पाँच साल की कैद और पच्चीस लाख रुपये के जुर्माने की सजा दी। दो महीने तक जेल में रहने के बाद 1३ दिसम्बर को लालू प्रसाद को सुप्रीम कोर्ट से बेल मिली।
यादव और जनता दल यूनाइटेड नेता जगदीश शर्मा को घोटाला मामले में दोषी करार दिये जाने के बाद लोक सभा से अयोग्य ठहराया गया। इसके बाद राँची जेल में सजा भुगत रहे लालू प्रसाद यादव की लोक सभा की सदस्यता समाप्त कर दी गयी। चुनाव के नये नियमों के अनुसार लालू प्रसाद अब ११ साल तक लोक सभा चुनाव नहीं लड़ पायेंगे। लोक सभा के महासचिव ने यादव को सदन की सदस्यता के अयोग्य ठहराये जाने की अधिसूचना जारी कर दी। इस अधिसूचना के बाद संसद की सदस्यता गँवाने वाले लालू प्रसाद यादव भारतीय इतिहास में लोक सभा के पहले सांसद हो गये हैं।
जीवन एवं राजनीतिक सफर
बिहार के गोपालगंज में एक यादव परिवार में जन्मे यादव ने राजनीति की शुरूआत जयप्रकाश नारायण के जेपी आन्दोलन से की जब वे एक छात्र नेता थे और उस समय के राजनेता सत्येन्द्र नारायण सिन्हा के काफी करीबी रहे थे। १९७७ में आपातकाल के पश्चात् हुए। लोक सभा चुनाव में लालू यादव जीते और पहली बार २९ साल की उम्र में लोकसभा पहुँचे। १९८० से १९८९ तक वे दो बार विधानसभा के सदस्य रहे और विपक्ष के नेता पद पर भी रहे।
छात्र राजनीति और प्रारंभिक कैरियर
प्रसाद ने १९७० में पटना यूनिवर्सिटी स्टूडेंट्स यूनियन (पुसू) के महासचिव के रूप में छात्र राजनीति में प्रवेश किया और १९७३ में अपने अध्यक्ष बने। १९७४ में, उन्होंने बिहार आंदोलन, जयप्रकाश नारायण (जेपी) की अगुवाई वाली छात्र आंदोलन में अनुसूचित जाति व जनजाति तथा पिछड़े वर्ग के हक व अधिकार के लिए शामिल हो गए। पुसू ने बिहार छात्र संघर्ष समिति का गठन किया था, जिसने लालू प्रसाद को अध्यक्ष के रूप में आंदोलन दिया था। आंदोलन के दौरान प्रसाद जनवादी पार्टी के वरिष्ठ नेता के करीब आए और १९७७ में लोकसभा चुनाव में छपरा से जनता पार्टी के उम्मीदवार के रूप में नामित हुए, बिहार राज्य के तत्कालीन अध्यक्ष जनता पार्टी और बिहार के नेता सत्येंद्र नारायण सिन्हा ने उनके लिए प्रचार किया।। जनता पार्टी ने भारत गणराज्य के इतिहास में पहली गैर-कांग्रेस सरकार बनाई और २९ साल की उम्र में, वह उस समय भारतीय संसद के सबसे युवा सदस्यों में से एक बन गए।
निरंतर लड़ने और वैचारिक मतभेदों के कारण जनता पार्टी सरकार गिर गई और १९८० में संसद को फिर से चुनाव में भंग कर दिया गया। वह जय प्रकाश नारायण की विचारधारा और प्रथाओं और भारत में समाजवादी आंदोलन के एक पिता, राज से प्रेरित था। नारायण। उन्होंने मोरारजी देसाई के साथ अलग-अलग तरीके से हिस्सा लिया और जनता पार्टी-एस के नेतृत्व में लोकभाऊ राज नारायण के नेतृत्व में शामिल हुए जो जनता पार्टी-एस के अध्यक्ष थे और बाद में अध्यक्ष बने। प्रसाद १९८० में फिर से हार गए। हालांकि उन्होंने सफलतापूर्वक १९८० में बिहार विधानसभा चुनाव लड़ा और बिहार विधान सभा के सदस्य बने। इस अवधि के दौरान यादव ने पदानुक्रम में वृद्धि की और उन्हें दूसरे दल के नेताओं में से एक माना जाता था। १९८५ में वह बिहार विधानसभा के लिए फिर से निर्वाचित हुए थे। पूर्व मुख्यमंत्री कर्पूरी ठाकुर की मृत्यु के बाद, प्रसाद १९८९ में विपक्षी बिहार विधानसभा के नेता बन गए। उसी वर्ष, वह वी.पी. सिंह सरकार के तहत लोक सभा के लिए भी चुने गए थे।
१९९० तक, प्रसाद ने राज्य की ११.७% आबादी के साथ यादव के सबसे बड़े जातियों का प्रतिनिधित्व किया, जो खुद को निम्न जाति के नेता के रूप में स्थापित करता है। दूसरी तरफ बिहार में मुसलमान परंपरागत रूप से कांग्रेस (आई) वोट बैंक के रूप में कार्यरत थे, लेकिन १९८९ के भागलपुर हिंसा के बाद उन्होंने प्रसाद के प्रति अपनी वफादारी बदल दी। १० वर्षों की अवधि में, वह बिहार राज्य की राजनीति में एक ताकतवर बल बन गया, जो कि मुस्लिम और यादव मतदाताओं में उनकी लोकप्रियता के लिए जाना जाता है।
बिहार के मुख्यमंत्री
१९९० में वे बिहार के मुख्यमंत्री बने एवं १९९५ में भी भारी बहुमत से विजयी रहे। २३ सितंबर १९९० को, प्रसाद ने राम रथ यात्रा के दौरान समस्तीपुर में लालकृष्ण आडवाणी को गिरफ्तार किया, और खुद को एक धर्मनिरपेक्ष नेता के रूप में प्रस्तुत किया। १९९० के दशक में आर्थिक मोर्चे पर विश्व बैंक ने अपने कार्य के लिए अपनी पार्टी की सराहना की। १९९३ में, प्रसाद ने एक अंग्रेजी भाषा की नीति अपनायी और स्कूल के पाठ्यक्रम में एक भाषा के रूप में अंग्रेजी के पुन: परिचय के लिए प्रेरित किया।
लालू यादव के जनाधार में एमवाई (मी) यानी मुस्लिम और यादव फैक्टर का बड़ा योगदान है और उन्होंने इससे कभी इन्कार भी नहीं किया है।
राष्ट्रीय जनता दल
लालू प्रसाद यादव मुख्यतः राजनीतिक और आर्थिक विषयों पर लेखों के अलावा विभिन्न आन्दोलनकारियों की जीवनियाँ पढ़ने का शौक रखते हैं। वे बिहार क्रिकेट एसोसिएशन के अध्यक्ष भी हैं। लालू यादव ने एक फिल्म में भी काम किया जिसका नाम उनके नाम पर ही है।
जुलाई, १९९७ में लालू यादव ने जनता दल से अलग होकर राष्ट्रीय जनता दल के नाम से नयी पार्टी बना ली। गिरफ्तारी तय हो जाने के बाद लालू ने मुख्यमन्त्री पद से इस्तीफा दे दिया और अपनी पत्नी राबड़ी देवी को बिहार का मुख्यमन्त्री बनाने का फैसला किया। जब राबड़ी के विश्वास मत हासिल करने में समस्या आयी तो कांग्रेस और झारखण्ड मुक्ति मोर्चा ने उनको समर्थन दे दिया।
१९९८ में केन्द्र में अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में सरकार बनी। दो साल बाद विधानसभा का चुनाव हुआ तो राजद अल्पमत में आ गई। सात दिनों के लिये नीतीश कुमार की सरकार बनी परन्तु वह चल नहीं पायी। एक बार फ़िर राबड़ी देवी मुख्यमन्त्री बनीं। कांग्रेस के २२ विधायक उनकी सरकार में मन्त्री बने। २००४ के लोकसभा चुनाव में लालू प्रसाद एक बार फिर "किंग मेकर" की भूमिका में आये और रेलमन्त्री बने। यादव के कार्यकाल में ही दशकों से घाटे में चल रही रेल सेवा फिर से फायदे में आई। भारत के सभी प्रमुख प्रबन्धन संस्थानों के साथ-साथ दुनिया भर के बिजनेस स्कूलों में लालू यादव के कुशल प्रबन्धन से हुआ भारतीय रेलवे का कायाकल्प एक शोध का विषय बन गया। लेकिन अगले ही साल २००५ में बिहार विधानसभा चुनाव में राजद सरकार हार गई और २००९ के लोकसभा चुनाव में उनकी पार्टी के केवल चार सांसद ही जीत सके। इसका अंजाम यह हुआ कि लालू को केन्द्र सरकार में जगह नहीं मिली। समय-समय पर लालू को बचाने वाली कांग्रेस भी इस बार उन्हें नहीं बचा नहीं पायी। दागी जन प्रतिनिधियों को बचाने वाला अध्यादेश खटाई में पड़ गया और इस तरह लालू का राजनीतिक भविष्य अधर में लटक गया।
लालू का अन्दाज
देश भर में लालू प्रसाद यादव की एक छवि हास्य नेता की भी है। इनकी लोकप्रियता उनके बिहारी उच्चारण और अनोखे अंदाज के भाषण को लेकर भी है। बिहार की सड़कों को हेमा मालिनी के गालों की तरह बनाने का वादा हो या रेलवे में कुल्हड़ की शुरुआत, लालू यादव हमेशा ही सुर्खियों में रहे। टीवी हो या इन्टरनेट, लालू यादव के लतीफों का दौर भी खूब चला।
१९९७ में जब केन्द्रीय अन्वेषण ब्यूरो (सीबीआई) ने उनके खिलाफ चारा घोटाला मामले में आरोप-पत्र दाखिल किया तो यादव को मुख्यमन्त्री पद से हटना पड़ा। अपनी पत्नी राबड़ी देवी को सत्ता सौंपकर वे राष्ट्रीय जनता दल के अध्यक्ष बन गये और अपरोक्ष रूप से सत्ता की कमान अपने हाथ में रखी। चारा घोटाला मामले में लालू यादव को जेल भी जाना पड़ा और वे कई महीने तक जेल में रहे भी।
लगभग सत्रह साल तक चले इस ऐतिहासिक मुकदमे में सीबीआई की स्पेशल कोर्ट के न्यायाधीश प्रवास कुमार सिंह ने लालू प्रसाद यादव को वीडियो कान्फ्रेन्सिंग के जरिये ३ अक्टूबर 201३ को पाँच साल की कैद व पच्चीस लाख रुपये के जुर्माने की सजा सुनाई।
यादव और जदयू नेता जगदीश शर्मा को घोटाला मामले में दोषी करार दिये जाने के बाद लोक सभा से अयोग्य ठहराया गया। इसके कारण राँची जेल में सजा भुगत रहे लालू प्रसाद यादव को लोक सभा की सदस्यता भी गँवानी पड़ी। भारतीय चुनाव आयोग के नये नियमों के अनुसार लालू प्रसाद अब ११ साल (५ साल जेल और रिहाई के बाद के ६ साल) तक लोक सभा चुनाव नहीं लड़ सकेंगे। भारतीय उच्चतम न्यायालय ने चारा घोटाला में दोषी सांसदों को संसद की सदस्यता से अयोग्य ठहराये जाने से बचाने वाले प्रावधान को भी निरस्त कर दिया था। लोक सभा के महासचिव एस॰ बालशेखर ने यादव और शर्मा को सदन की सदस्यता के अयोग्य ठहराये जाने की अधिसूचना जारी कर दी। लोक सभा द्वारा जारी इस अधिसूचना के बाद संसद की सदस्यता गँवाने वाले लालू प्रसाद यादव भारतीय इतिहास में लोक सभा के पहले सांसद बने जबकि जनता दल यूनाइटेड के एक अन्य नेता जगदीश शर्मा दूसरे, जिन्हें १० साल के लिये अयोग्य ठहराया गया।
लालू प्रसाद यादव को फ़रवरी २०२२ में डोरंडा कोषागार से जुड़े चारा घोटाले में पांच साल की सजा सुनाई . स्पेशल कोर्ट के जज एसके शशि ने यह फैसला सुनाया. उनपर ६० लाख रुपये का जुर्माना भी लगाया |
घोटाले की समयरेखा
१९९० के दशक में हुए चारा घोटाला मामले में राजद प्रमुख लालू यादव और जगन्नाथ मिश्रा को दोषी करार देने के बाद उनके राजनीतिक कैरियर पर सवालिया निशान लग गया। लालू पर पशुओं के चारे के नाम पर चाईबासा ट्रेज़री से ६७.७० करोड़ रुपए निकालने का आरोप था। पूरा घटनाक्रम इस प्रकार है:
२७ जनवरी १९९६: पशुओं के चारा घोटाले के रूप में सरकारी खजाने से करोड़ों रुपये की लूट सामने आयी। चाईबासा ट्रेजरी से इसके लियेगलत तरीके से ३७.६ करोड़ रुपए निकाले गये थे।
११ मार्च १९९६: पटना उच्च न्यायालय ने चारा घोटाले की जाँच के लिये सीबीआई को निर्देश दिये।
१९ मार्च १९96: उच्चतम न्यायालय ने उच्च न्यायालय के आदेश की पुष्टि करते हुए हाईकोर्ट की बैंच को निगरानी करने को कहा।
२७ जुलाई १९९७: सीबीआई ने मामले में राजद सुप्रीमो पर फंदा कसा।
३० जुलाई १९९७: लालू प्रसाद ने सीबीआई अदालत के समक्ष समर्पण किया।
१९ अगस्त १९98: लालू प्रसाद और राबड़ी देवी की आय से अधिक की सम्पत्ति का मामला दर्ज कराया गया।
४ अप्रैल २०००: लालू प्रसाद यादव के खिलाफ आरोप पत्र दर्ज हुआ और राबड़ी देवी को सह-आरोपी बनाया गया।
५ अप्रैल २०००: लालू प्रसाद और राबड़ी देवी का समर्पण, राबड़ी देवी को मिली जमानत।
९ जून २०००: अदालत में लालू प्रसाद के खिलाफ आरोप तय किये।
अक्टूबर २००१: सुप्रीम कोर्ट ने झारखण्ड के अलग राज्य बनने के बाद मामले को नये राज्य में ट्रांसफर कर दिया। इसके बाद लालू ने झारखण्ड में आत्मसमर्पण किया।
१८ दिसम्बर २००६: लालू प्रसाद और राबड़ी देवी को आय से अधिक सम्पत्ति के मामले में क्लीन चिट दी।
२००० से २०१२ तक: मामले में करीब ३५० लोगों की गवाही हुई। इस दौरान मामले के कई गवाहों की भी मौत हो गयी।
१७ मई २०१२: सीबीआई की विशेष अदालत में लालू यादव पर इस मामले में कुछ नये आरोप तय किये। इसमें दिसम्बर १९९५ और जनवरी १९९६ के बीच दुमका कोषागार से ३.1३ करोड़ रुपये की धोखाधड़ी पूर्ण निकासी भी शामिल है।
१७ सितम्बर २०१३: चारा घोटाला मामले में रांची की विशेष अदालत ने फैसला सुरक्षित रखा।
३० सितम्बर २०१३: चारा घोटाला मामले में राजद प्रमुख लालू प्रसाद यादव दोषी करार।
६ जनवरी २०१८: को स्पेशल सीबीआई कोर्ट ने लालू प्रसाद को चारा घोटाला मामले में साढ़े तीन साल की सजा और पांच लाख रुपये जुर्माने की सजा सुनाई।
२४ जनवरी २०१८ : न्यायालय ने तीसरे मामले में निर्णय सुनाया। लालू यादव को ५ वर्ष का कारावास और १० लाख के अर्थदण्ड की सजा सुनायी गयी। इस प्रकार इन तीन निर्णयों में कुल मिलाकर साढ़े तेरह वर्ष का कारावास की सजा तय हुई है।
आलोचनाएं और विवाद
भाजपा के खिलाफ आरोप
५ अगस्त २००४ को यादव ने दावा किया कि एल.के. आडवाणी, जो वरिष्ठ भाजपा नेता और विपक्ष के नेता थे, मुहम्मद अली जिन्ना को मारने की साजिश में आरोपी थे और उन्हें एक 'अंतरराष्ट्रीय फरार' कहा।
२८ सितंबर २००४ को, यादव ने तत्कालीन केंद्रीय ग्रामीण मंत्री वेंकैया नायडू को आंध्र प्रदेश में सूखा राहत वितरण समूह में ५५,००० टन गेहूं बेची थी। उन्होंने कहा, "सीबीआई की जांच सच जानने के लिए की जाएगी।"
भ्रषाचार, भाई-भतीजावाद और वंशवाद
यादव उन पहले विख्यात राजनेताओं में से एक हैं, जिन्हें चारा घोटाले में गिरफ्तार होने पर संसदीय सीट गंवानी पड़ी, क्योंकि उच्चतम न्यायालय ने सजायाफ्ता विधायकों को उनके पदों पर बने रहने पर रोक लगा दी थी। मुख्यमंत्री के रूप में उनके कार्यकाल के दौरान, बिहार की कानून और व्यवस्था सबसे निचले स्तर पर थी, अपहरण बढ़ रहा था और निजी सेनाएँ पनप रही थीं। शिल्पी-गौतम मर्डर केस और उनकी बेटी रागिनी यादव के दोस्त, अभिषेक मिश्रा की रहस्यमय परिस्थितियों में हुई मौत में भी विपक्ष द्वारा उनकी आलोचना की गई थी। इन दोनों केस में इनके पत्नी के सगे भाई साधु यादव पर आरोप लगा । उनके खिलाफ कई चल रही भ्रष्टाचार के बावजूद, वह और उनकी पत्नी रबड़ी देवी ने बिहार राज्य को १५ साल तक शासन किया, एक ऐसा अवधि जिसके दौरान राज्य के हर आर्थिक और सामाजिक रैंकिंग भारत के अन्य राज्यों की तुलना में निम्न स्तर पर गई।
परिवार के सदस्यों के खिलाफ कर चोरी के आरोप
आई-टी विभाग ने १२ जून के बीच सांसद मीसा भारती को बेनामी के
१ जून १973 को यादव ने राबड़ी देवी से अपने माता-पिता द्वारा व्यवस्थित एक पारंपरिक शादी की। यादव नौ बच्चों, दो बेटे और सात बेटियों का पिता हैं।
तेज प्रताप यादव, बड़े बेटे , बिहार राज्य सरकार में पूर्व स्वास्थ्य मंत्री
तेजस्वी यादव, छोटे बेटे, पूर्व क्रिकेटर, बिहार के वर्तमान उपमुख्यमंत्री
मीसा भारती , सबसे बड़ी बेटी ने एक सॉफ्टवेयर इंजीनियर शैलेश कुमार से शादी कर ली
रोहिणी आचार्य, दूसरी बेटी, राव समरेश सिंह, एसआरसी दिल्ली से एक अमेरिका स्थित वाणिज्य स्नातक, औरंगाबाद जिले के दाउदनगर निवासी राव रणविजय सिंह के बेटे से मई २००२ में शादी कर ली
चंदा सिंह, तीसरी बेटी, विक्रम सिंह से शादी कर ली, और २००६ में इंडियन एयरलाइंस के साथ पायलट
रागिनी यादव, चौथी बेटी, राहुल यादव से शादी, जितेंद्र यादव के बेटे, गाजियाबाद से सांसद विधायक, जो अब कांग्रेस पार्टी के सदस्य हैं
हेमा यादव, पांचवीं बेटी, विनीत यादव से शादी की, एक राजनीतिक परिवार के वंशज
धननु (उर्फ अनुष्का राव), छठे बेटी, चिरंजीव राव, कांग्रेस के राव अजय सिंह यादव, हरियाणा सरकार में कुछ समय ऊर्जा मंत्री के बेटे से शादी की
राजलक्ष्मी सिंह, सबसे छोटी बेटी, मैनपुरी और मुलायम सिंह यादव के भव्य भतीजे से तेज प्रताप सिंह यादव, सांसद से शादी की
लालू प्रसाद ने गोपालगंज टू रायसीना रोड नाम से अपनी आत्मकथा लिखी है।
संकर्षण ठाकुर अपने जीवन के आधार पर एक पुस्तक के लेखक हैं, द मेकिंग ऑफ लालू यादव, बिहार की अनमाकिंग; बाद में किताब को अद्यतन और पिकाडोइंडिया द्वारा "सुब्बलर साहिब: बिहार और मेकिंग ऑफ लालू यादव" के तहत पुनर्मुद्रित किया गया
राष्ट्रीय जनता दल की आधिकारिक वेबसाइट
२५ साल पहले लालू और आडवाणी ("राम के नाम" से एक अंश)
जानें, कैसे समाजवादी चाल से करोड़ों के मालिक बन बैठे लालू यादव एंड संस
१९४८ में जन्मे लोग
बिहार के मुख्यमंत्री
भारत के रेल मंत्री |
मुल्कराज आनंद भारत में अंग्रेज़ी साहित्य के क्षेत्र के प्रख्यात लेखक थे। मुल्कराज आनंद का जन्म १२ दिसम्बर १९०५ को पेशावर में हुआ था जो अब पाकिस्तान में है। उन्होंने यूनिवर्सिटी ऑफ़ लंदन तथा केंब्रिज विश्वविद्यालय में पढ़ाई कर पीएचडी की उपाधि हासिल की. साहित्य जगत में उनका नाम हुआ उनके उपन्यास अनटचेबल्स से जिसमें उन्होंने भारत में अछूत समस्या का बेबाक चित्रण किया। उनके महत्वपूर्ण उपन्यास हैं,
टू लीव्स एंड अ बड
अक्रॉस द ब्लैक वाटर्स
द सोर्ड एंड द सिकल
द डेथ ऑफ ए हीरो (१९६४), कश्मीरी स्वतंत्रता सेनानी के जीवन पर आधारित
भारत में रचा गया उनका प्रमुख उपन्यास था द प्राइवेट लाइफ़ ऑफ़ ऐन इंडियन प्रिंस.
९९ वर्ष की आयु में सन २००४ में उनका निधन हुआ।
मुल्कराज आनंद को साहित्य एवं शिक्षा के क्षेत्र में भारत सरकार द्वारा सन १९६७ में पद्म भूषण से सम्मानित किया गया था। ये महाराष्ट्र राज्य से हैं।
१९६७ पद्म भूषण
१९०५ में जन्मे लोग
२००४ में निधन
साहित्य अकादमी फ़ैलोशिप से सम्मानित
साहित्य और शिक्षा में पद्म भूषण के प्राप्तकर्ता |
हिन्दू धर्म में विभिन्न देवताओं के अवतार की मान्यता है। प्रायः विष्णु के दस अवतार माने गये हैं जिन्हें दशावतार कहते हैं। इसी तरह शिव और अन्य देवी-देवताओं के भी कई अवतार माने गये हैं।
विष्णु के दस अवतार
भगवान विष्णु हिन्दू त्रिदेवों (तीन महा देवताओं) में से एक हैं। निर्माण की योजना के अनुसार, वे ब्रह्माण्ड के निर्माण के बाद, उसके विघटन तक उसका संरक्षण करते हैं। भगवान विष्णु के दस अवतारों को संयुक्त रूप से 'दशावतार' कहा जाता है।
जब मानव अन्याय और अधर्म के दलदल में खो जाता है, तब भगवान विष्णु उसे सही रास्ता दिखाने हेतु अवतार ग्रहण करते हैं।
श्रीमद्भगवद्गीता में श्रीकृष्ण के द्वारा कहा गया है :
यदा यदा ही धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युथानम् अधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्॥
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्।
धर्मसंस्थापनार्थाय संभवामि युगे-युगे॥
अर्थात् जब-जब धर्म की हानि और अधर्म का उत्थान हो जाता है, तब-तब सज्जनों के परित्राण और दुष्टों के विनाश के लिए मैं विभिन्न युगों में (माया का आश्रय लेकर) उत्पन्न होता हूँ।
भगवान विष्णु के दस अवतार हैं :
पहले तीन अवतार, अर्थात् मत्स्य, कूर्म और वराह प्रथम महायुग में अवतीर्ण हुए। पहला महायुग सत्य युग या कृत युग है। नरसिंह, वामन, परशुराम और राम दूसरे अर्थात् त्रेतायुग में अवतरित हुए।
कृष्ण और वेंकटेश्वर द्वापर युग में अवतरित हुए। इस समय चल रहा युग कलियुग है और भागवत पुराण की भविष्यवाणी के आधार पर इस युग के अंत में कल्कि अवतार होगा। इससे अन्याय और अनाचार का अंत होगा तथा न्याय का शासन होगा जिससे सत्य युग की फिर से स्थापना होगी।
हिन्दू धर्म-ग्रन्थों में सामान्यतः दशावतार की उपर्युक्त सूची स्वीकृत है, लेकिन विभिन्न ग्रन्थों में कुछ अंतर भी हैं।
उदाहरण के लिए, कुछ धार्मिक समूहों की मान्यता के अनुसार कृष्ण ही परमात्मा हैं और दशावतार कृष्ण के ही दस अवतार हैं; अतः उनकी सूची में कृष्ण नहीं बल्कि उनके स्थान पर बलराम होते हैं। कुछ लोग बलराम को एक अवतार मानते हैं, बुद्ध को नहीं। सामान्यतः बलराम को आदिशेष (विष्णु के विश्राम के आधार) का अवतार माना जाता है।
दशावतार के बारे में अन्य विचारों में, कुछ लोग अवतारों के क्रम को युक्तिसंगत बनाने की कोशिश में, उन्हें विकासवादी डार्विन के सिद्धान्त से जोड़ते हैं। इस विचार के अनुसार अवतार जलचर से भूमिवास की ओर बढ़ते क्रम में हैं; फिर आधे जानवर से विकसित मानव तक विकास का क्रम चलते गया है। इस प्रकार दशावतार क्रमिक विकास का प्रतीक या रूपक की तरह है | भगवान कल्कि के जन्म के बारे में बताया गया है कि उनके जन्म के पश्चात पृथ्वी से अन्याय का नाश हो जाएगा |
इन्हें भी देखें
दशावतार में निहित है मानव जाति के विकास की रूपरेखा (नवभारत टाइम्स)
दशावतार... या फिर पृथ्वी पर जीव की प्रगति का क्रम? |
चन्द्रगुप्त से निम्नलिखित राजाओं या ग्रंथों का बोध होता है-
चंद्रगुप्त मौर्य - मौर्य वंश का राजा (३२२ईसा पूर्व२९३ ईसा पूर्व)
चन्द्रगुप्त प्रथम - गुप्तवंश का राजा (३२०ई - ३३५ ई)
चन्द्रगुप्त द्वितीय - इन्हें 'चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य' भी कहते हैं (३७५ ई - ४१४ ई)
चन्द्रगुप्त (नाटक) - जयशंकर प्रसाद द्वारा रचित हिन्दी नाटक |
यह लेख विश्व के देशों में शहरों की सूचियाँ के संग मिला देना चाहिये, उसके हिंदी अनुवाद के उपरांत।
यह देश के अनुसार शहरों की सूचियों की सूची है। |
न्यूज़ीलैंड प्रशान्त महासागर में ऑस्ट्रेलिया के पास स्थित देश है। ये दो बड़े द्वीपों से बना है।
न्यूज़ीलैंड (माओरी भाषा में: आऔतैआरौआ) दक्षिण पश्चिमि प्रशांत महासागर में दो बड़े द्वीप और अन्य कई छोटे द्वीपों से बना एक देश है।
न्यूज़ीलैंड के ४० लाख लोगों में से लगभग तीस लाख लोग उत्तरी द्वीप में रहते हैं और दस लाख लोग दक्षिणी द्वीप में। यह द्वीप दुनिया के सबसे बडे द्वीपों में गिने जाते हैं। अन्य द्वीपों में बहुत कम लोग रहतें हैं और वे बहुत छोटे हैं। इनमें मुख्य है:
स्टिवोट द्वीप (दक्षिण द्वीप के दक्षिण में स्थित), तीसरा सबसे बड़ा द्वीप, जनसन्ख्या ४००
मुख्य लेख: न्यूजीलैंड का इतिहास
न्यूजीलैंड में सरकार एकात्मक संसदीय संवैधानिक राजतंत्र प्रणाली के अधीन है व् इस देश की सरकार महारानी एलिजाबेथ द्वितीय द्वारा शासित है, लेकिन इस देश में चुनाव होते है व् न्यूजीलैंड को चुनाव के द्वारा अपना प्राइम मिनिस्टर चुनने का अधिकार है.
दक्षिण पश्चिमी प्रशांत महासागर में स्थित एक खूबसूरत द्वीप देश है, जोकि प्रशांत महासागर में ऑस्ट्रेलिया के पूर्व में स्थित है. इस द्वीप की भौगोलिक स्थिति बेहद लाजवाब है व इसके दक्षिण में नई कैलेडोनिया, टोंगा और फिजी देश स्थित हैं।
न्यूजीलैंड कई द्वीपों के समूह से बना देश है, जिसमें उत्तर और दक्षिण द्वीप सबसे बड़े और सबसे अधिक आबादी वाले द्वीप शामिल है, साथ ही इसके इस द्वीप का वातावरण व सुहावना मौसम विश्व भर के सैलानियों को अपनी और आकर्षित करता है।
न्यूजीलैंड से जुड़ी २२ जानकारियां |
नागार्जुन (३० जून १९११- ५ नवम्बर १९९८) हिन्दी और मैथिली के अप्रतिम लेखक और कवि थे। अनेक भाषाओं के ज्ञाता तथा प्रगतिशील विचारधारा के साहित्यकार नागार्जुन ने हिन्दी के अतिरिक्त मैथिली संस्कृत एवं बाङ्ला में मौलिक रचनाएँ भी कीं तथा संस्कृत, मैथिली एवं बाङ्ला से अनुवाद कार्य भी किया। साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित नागार्जुन ने मैथिली में यात्री उपनाम से लिखा तथा यह उपनाम उनके मूल नाम वैद्यनाथ मिश्र के साथ मिलकर एकमेक हो गया।
नागार्जुन का जन्म १९११ ई० की ज्येष्ठ पूर्णिमा को वर्तमान मधुबनी जिले के सतलखा में हुआ था। यह उन का ननिहाल था। उनका पैतृक गाँव वर्तमान दरभंगा जिले का तरौनी था। इनके पिता का नाम गोकुल मिश्र और माता का नाम उमा देवी था। नागार्जुन के बचपन का नाम 'ठक्कन मिसर' था।
गोकुल मिश्र और उमा देवी को लगातार चार संताने हुईं और असमय ही वे सब चल बसीं। संतान न जीने के कारण गोकुल मिश्र अति निराशापूर्ण जीवन में रह रहे थे। अशिक्षित ब्राह्मण गोकुल मिश्र ईश्वर के प्रति आस्थावान तो स्वाभाविक रूप से थे ही पर उन दिनों अपने आराध्य देव शंकर भगवान की पूजा ज्यादा ही करने लगे थे। वैद्यनाथ धाम (देवघर) जाकर बाबा वैद्यनाथ की उन्होंने यथाशक्ति उपासना की और वहाँ से लौटने के बाद घर में पूजा-पाठ में भी समय लगाने लगे। "फिर जो पाँचवीं संतान हुई तो मन में यह आशंका भी पनपी कि चार संतानों की तरह यह भी कुछ समय में ठगकर चल बसेगा। अतः इसे 'ठक्कन' कहा जाने लगा। काफी दिनों के बाद इस ठक्कन का नामकरण हुआ और बाबा वैद्यनाथ की कृपा-प्रसाद मानकर इस बालक का नाम वैद्यनाथ मिश्र रखा गया।"
गोकुल मिश्र की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं रह गयी थी। वे काम-धाम कुछ करते नहीं थे। सारी जमीन बटाई पर दे रखी थी और जब उपज कम हो जाने से कठिनाइयाँ उत्पन्न हुईं तो उन्हें जमीन बेचने का चस्का लग गया। जमीन बेचकर कई प्रकार की गलत आदतें पाल रखी थीं। जीवन के अंतिम समय में गोकुल मिश्र अपने उत्तराधिकारी (वैद्यनाथ मिश्र) के लिए मात्र तीन कट्ठा उपजाऊ भूमि और प्रायः उतनी ही वास-भूमि छोड़ गये, वह भी सूद-भरना लगाकर। बहुत बाद में नागार्जुन दंपति ने उसे छुड़ाया।
ऐसी पारिवारिक स्थिति में बालक वैद्यनाथ मिश्र पलने-बढ़ने लगे। छह वर्ष की आयु में ही उनकी माता का देहांत हो गया। इनके पिता (गोकुल मिश्र) अपने एक मात्र मातृहीन पुत्र को कंधे पर बैठाकर अपने संबंधियों के यहाँ, इस गाँव--उस गाँव आया-जाया करते थे। इस प्रकार बचपन में ही इन्हें पिता की लाचारी के कारण घूमने की आदत पड़ गयी और बड़े होकर यह घूमना उनके जीवन का स्वाभाविक अंग बन गया। "घुमक्कड़ी का अणु जो बाल्यकाल में ही शरीर के अंदर प्रवेश पा गया, वह रचना-धर्म की तरह ही विकसित और पुष्ट होता गया।"
वैद्यनाथ मिश्र की आरंभिक शिक्षा उक्त पारिवारिक स्थिति में लघु सिद्धांत कौमुदी और अमरकोश के सहारे आरंभ हुई। उस जमाने में मिथिलांचल के धनी अपने यहां निर्धन मेधावी छात्रों को प्रश्रय दिया करते थे। इस उम्र में बालक वैद्यनाथ ने मिथिलांचल के कई गांवों को देख लिया। बाद में विधिवत संस्कृत की पढ़ाई बनारस जाकर शुरू की। वहीं उन पर आर्य समाज का प्रभाव पड़ा और फिर बौद्ध दर्शन की ओर झुकाव हुआ। उन दिनों राजनीति में सुभाष चंद्र बोस उनके प्रिय थे। बौद्ध के रूप में उन्होंने राहुल सांकृत्यायन को अग्रज माना। बनारस से निकलकर कोलकाता और फिर दक्षिण भारत घूमते हुए लंका के विख्यात 'विद्यालंकार परिवेण' में जाकर बौद्ध धर्म की दीक्षा ली। राहुल और नागार्जुन 'गुरु भाई' हैं। लंका की उस विख्यात बौद्धिक शिक्षण संस्था में रहते हुए मात्र बौद्ध दर्शन का अध्ययन ही नहीं हुआ बल्कि विश्व राजनीति की ओर रुचि जगी और भारत में चल रहे स्वतंत्रता आंदोलन की ओर सजग नजर भी बनी रही। १९३८ ई० के मध्य में वे लंका से वापस लौट आये। फिर आरंभ हुआ उनका घुमक्कड़ जीवन। साहित्यिक रचनाओं के साथ-साथ नागार्जुन राजनीतिक आंदोलनों में भी प्रत्यक्षतः भाग लेते रहे। स्वामी सहजानंद से प्रभावित होकर उन्होंने बिहार के किसान आंदोलन में भाग लिया और मार खाने के अतिरिक्त जेल की सजा भी भुगती। चंपारण के किसान आंदोलन में भी उन्होंने भाग लिया। वस्तुतः वे रचनात्मक के साथ-साथ सक्रिय प्रतिरोध में विश्वास रखते थे। १९७४ के अप्रैल में जेपी आंदोलन में भाग लेते हुए उन्होंने कहा था "सत्ता प्रतिष्ठान की दुर्नीतियों के विरोध में एक जनयुद्ध चल रहा है, जिसमें मेरी हिस्सेदारी सिर्फ वाणी की ही नहीं, कर्म की हो, इसीलिए मैं आज अनशन पर हूँ, कल जेल भी जा सकता हूँ।" और सचमुच इस आंदोलन के सिलसिले में आपात् स्थिति से पूर्व ही इन्हें गिरफ्तार कर लिया गया और फिर काफी समय जेल में रहना पड़ा।
१९४८ ई० में पहली बार नागार्जुन पर दमा का हमला हुआ और फिर कभी ठीक से इलाज न कराने के कारण आजीवन वे समय-समय पर इससे पीड़ित होते रहे। दो पुत्रियों एवं चार पुत्रों से भरे-पूरे परिवार वाले नागार्जुन कभी गार्हस्थ्य धर्म ठीक से नहीं निभा पाये और इस भरे-पूरे परिवार के पास अचल संपत्ति के रूप में विरासत में मिली वही तीन कट्ठा उपजाऊ तथा प्रायः उतनी ही वास-भूमि रह गयी।
लेखन-कार्य एवं प्रकाशन
नागार्जुन का असली नाम वैद्यनाथ मिश्र था परंतु हिन्दी साहित्य में उन्होंने नागार्जुन तथा मैथिली में यात्री उपनाम से रचनाएँ कीं। काशी में रहते हुए उन्होंने 'वैदेह' उपनाम से भी कविताएँ लिखी थीं। सन् १९३६ में सिंहल में 'विद्यालंकार परिवेण' में ही 'नागार्जुन' नाम ग्रहण किया। आरंभ में उनकी हिन्दी कविताएँ भी 'यात्री' के नाम से ही छपी थीं। वस्तुतः कुछ मित्रों के आग्रह पर १९४१ ईस्वी के बाद उन्होंने हिन्दी में नागार्जुन के अलावा किसी नाम से न लिखने का निर्णय लिया था।
नागार्जुन की पहली प्रकाशित रचना एक मैथिली कविता थी जो १९२९ ई० में लहेरियासराय, दरभंगा से प्रकाशित 'मिथिला' नामक पत्रिका में छपी थी। उनकी पहली हिन्दी रचना 'राम के प्रति' नामक कविता थी जो १९३४ ई० में लाहौर से निकलने वाले साप्ताहिक 'विश्वबन्धु' में छपी थी।
नागार्जुन लगभग अड़सठ वर्ष (सन् १९२९ से १९९७) तक रचनाकर्म से जुड़े रहे। कविता, उपन्यास, कहानी, संस्मरण, यात्रा-वृत्तांत, निबन्ध, बाल-साहित्य -- सभी विधाओं में उन्होंने कलम चलायी। मैथिली एवं संस्कृत के अतिरिक्त बाङ्ला से भी वे जुड़े रहे। बाङ्ला भाषा और साहित्य से नागार्जुन का लगाव शुरू से ही रहा। काशी में रहते हुए उन्होंने अपने छात्र जीवन में बाङ्ला साहित्य को मूल बाङ्ला में पढ़ना शुरू किया। मौलिक रुप से बाङ्ला लिखना फरवरी १९७८ ई० में शुरू किया और सितंबर १९७९ ई० तक लगभग ५० कविताएँ लिखी जा चुकी थीं। कुछ रचनाएँ बँगला की पत्र-पत्रिकाओं में भी छपीं। कुछ हिंदी की लघु पत्रिकाओं में लिप्यंतरण और अनुवाद सहित प्रकाशित हुईं। मौलिक रचना के अतिरिक्त उन्होंने संस्कृत, मैथिली और बाङ्ला से अनुवाद कार्य भी किया। कालिदास उनके सर्वाधिक प्रिय कवि थे और 'मेघदूत' प्रिय पुस्तक। मेघदूत का मुक्तछंद में अनुवाद उन्होंने १९५३ ई० में किया था। जयदेव के 'गीत गोविंद' का भावानुवाद वे १९४८ ई० में ही कर चुके थे। वस्तुतः १९४४ और १९५४ ई० के बीच नागार्जुन ने अनुवाद का काफी काम किया। बाङ्ला उपन्यासकार शरतचंद्र के कई उपन्यासों और कथाओं का हिंदी अनुवाद छपा भी। कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी के उपन्यास 'पृथ्वीवल्लभ' का गुजराती से हिंदी में अनुवाद १९४५ ई० में किया था। १९६५ ई० में उन्होंने विद्यापति के सौ गीतों का भावानुवाद किया था। बाद में विद्यापति के और गीतों का भी उन्होंने अनुवाद किया। इसके अतिरिक्त उन्होंने विद्यापति की 'पुरुष-परीक्षा' (संस्कृत) की तेरह कहानियों का भी भावानुवाद किया था जो 'विद्यापति की कहानियाँ' नाम से १९६४ ई० में प्रकाशित हुई थी।
सतरंगे पंखों वाली -१९५९
प्यासी पथराई आँखें -१९६२
तालाब की मछलियाँ -१९७४
तुमने कहा था -१९८०
खिचड़ी विप्लव देखा हमने -१९८०
हजार-हजार बाँहों वाली -१९८१
पुरानी जूतियों का कोरस -१९८३
ऐसे भी हम क्या! ऐसे भी तुम क्या!! -१९८५/१९८५
आखिर ऐसा क्या कह दिया मैंने -१९८६/१९८६
इस गुब्बारे की छाया में -१९९०/१९९०
भूल जाओ पुराने सपने -१९९४
अपने खेत में -१९९७
१५. हरिजन गाथा ७ मई 19७७
हिमालय की बेटियाँ
रतिनाथ की चाची -१९४८
नयी पौध -१९५३
बाबा बटेसरनाथ -१९५४
वरुण के बेटे -१९५६-५७
कुंभीपाक -१९६० (१९७२ में 'चम्पा' नाम से भी प्रकाशित)
हीरक जयन्ती -१९६२ (१९७९ में 'अभिनन्दन' नाम से भी प्रकाशित)
जमनिया का बाबा -१९६८ (इसी वर्ष 'इमरतिया' नाम से भी प्रकाशित)
गरीबदास -१९९० (१९७९ में लिखित)
एक व्यक्ति: एक युग -१९६३
आसमान में चन्दा तैरे -१९८२
अन्नहीनम् क्रियाहीनम् -१९८३
कथा मंजरी भाग-१ -१९५८
कथा मंजरी भाग-२ -१९४८
मर्यादा पुरुषोत्तम राम -१९५५ (बाद में 'भगवान राम' के नाम से तथा अब 'मर्यादा पुरुषोत्तम' के नाम से प्रकाशित)
विद्यापति की कहानियाँ -१९६४
चित्रा (कविता-संग्रह) -१९४९
पत्रहीन नग्न गाछ (") -१९६७
पका है यह कटहल (") -१९९५ ('चित्रा' एवं 'पत्रहीन नग्न गाछ' की सभी कविताओं के साथ ५२ असंकलित मैथिली कविताएँ हिंदी पद्यानुवाद सहित)
पारो (उपन्यास) -१९४६
नवतुरिया (") -१९५४
मैं मिलिट्री का बूढ़ा घोड़ा -१९९७ (देवनागरी लिप्यंतर के साथ हिंदी पद्यानुवाद)
संचयन एवं समग्र-
नागार्जुन रचना संचयन - सं०-राजेश जोशी (साहित्य अकादेमी, नयी दिल्ली से)
नागार्जुन : चुनी हुई रचनाएँ -तीन खण्ड (वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली से)
नागार्जुन रचनावली -२००३, सात खण्डों में, सं० शोभाकांत (राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली से)
नागार्जुन पर केंद्रित विशिष्ट साहित्य
नागार्जुन का रचना-संसार - विजय बहादुर सिंह (प्रथम संस्करण-१९८२, संभावना प्रकाशन, हापुड़ से; पुनर्प्रकाशन-२००९, वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली से)
नागार्जुन की कविता - अजय तिवारी, (संशोधित संस्करण-२००५) वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली से)
नागार्जुन का कवि-कर्म - खगेंद्र ठाकुर (प्रथम संस्करण-२०१३, प्रकाशन विभाग, भारत सरकार, नयी दिल्ली से)
जनकवि हूँ मैं - संपादक- रामकुमार कृषक (प्रथम संस्करण-२०१२ {'अलाव' के नागार्जुन जन्मशती विशेषांक का संशोधित पुस्तकीय रूप}, इंद्रप्रस्थ प्रकाशन, नयी दिल्ली से)
नागार्जुन : अंतरंग और सृजन-कर्म - संपादक- मुरली मनोहर प्रसाद सिंह, चंचल चौहान {'नया पथ' के नागार्जुन जन्मशती विशेषांक का संशोधित पुस्तकीय रूप}, (लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद से)
आलोचना सहस्राब्दी अंक ४३ (अक्टूबर-दिसंबर २०११), संपादक- अरुण कमल
तुमि चिर सारथि यात्री नागार्जुन आख्यान तारानंद वियोगी (मैथिली से अनुवाद-केदार कानन, अविनाश) (पहले 'पहल' पुस्तिका के रूप में फिर अंतिका प्रकाशन, दिल्ली से)
युगों का यात्री नागार्जुन की जीवनी तारानंद वियोगी (रज़ा पुस्तकमाला के तहत राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली से प्रकाशित)
साहित्य अकादमी पुरस्कार -१९६९ (मैथिली में, 'पत्र हीन नग्न गाछ' के लिए)
भारत भारती सम्मान (उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान, लखनऊ द्वारा)
मैथिलीशरण गुप्त सम्मान (मध्य प्रदेश सरकार द्वारा)
राजेन्द्र शिखर सम्मान -१९९४ (बिहार सरकार द्वारा)
साहित्य अकादमी की सर्वोच्च फेलोशिप से सम्मानित
राहुल सांकृत्यायन सम्मान पश्चिम बंगाल सरकार सेे हिन्दी अकादमी पुरस्कार
नागार्जुन के काव्य में अब तक की पूरी भारतीय काव्य-परंपरा ही जीवंत रूप में उपस्थित देखी जा सकती है। उनका कवि-व्यक्तित्व कालिदास और विद्यापति जैसे कई कालजयी कवियों के रचना-संसार के गहन अवगाहन, बौद्ध एवं मार्क्सवाद जैसे बहुजनोन्मुख दर्शन के व्यावहारिक अनुगमन तथा सबसे बढ़कर अपने समय और परिवेश की समस्याओं, चिन्ताओं एवं संघर्षों से प्रत्यक्ष जुड़ा़व
तथा लोकसंस्कृति एवं लोकहृदय की गहरी पहचान से निर्मित है। उनका यात्रीपन भारतीय मानस एवं विषय-वस्तु को समग्र और सच्चे रूप में समझने का साधन रहा है। मैथिली, हिन्दी और संस्कृत के अलावा पालि, प्राकृत, बांग्ला, सिंहली, तिब्बती आदि अनेकानेक भाषाओं का ज्ञान भी उनके लिए इसी उद्देश्य में सहायक रहा है। उनका गतिशील, सक्रिय और प्रतिबद्ध सुदीर्घ जीवन उनके काव्य में जीवंत रूप से प्रतिध्वनित-प्रतिबिंबित है। नागार्जुन सही अर्थों में भारतीय मिट्टी से बने आधुनिकतम कवि हैं। उन्होंने आज़ादी के पहले और बाद में भी कई बड़े जनांदोलनों में भाग लिया था। १९३९ से १९४२ के बीच बिहार में किसानो के एक प्रदर्शन का नेतृत्व करने की वजह से जेल में रहे। आज़ादी के बाद लम्बे समय तक वो पत्रकारिता से भी जुड़े रहे। जन संघर्ष में अडिग आस्था, जनता से गहरा लगाव और एक न्यायपूर्ण समाज का सपना, ये तीन गुण नागार्जुन के व्यक्तित्व में ही नहीं, उनके साहित्य में भी घुले-मिले हैं। निराला के बाद नागार्जुन अकेले ऐसे कवि हैं, जिन्होंने इतने छंद, इतने ढंग, इतनी शैलियाँ और इतने काव्य रूपों का इस्तेमाल किया है। पारंपरिक काव्य रूपों को नए कथ्य के साथ इस्तेमाल करने और नए काव्य कौशलों को संभव करनेवाले वे अद्वितीय कवि हैं। उनके कुछ काव्य शिल्पों में ताक-झाँक करना हमारे लिए मूल्यवान हो सकता है। उनकी अभिव्यक्ति का ढंग तिर्यक भी है, बेहद ठेठ और सीधा भी। अपनी तिर्यकता में वे जितने बेजोड़ हैं, अपनी वाग्मिता में वे उतने ही विलक्षण हैं। काव्य रूपों को इस्तेमाल करने में उनमें किसी प्रकार की कोई अंतर्बाधा नहीं है। उनकी कविता में एक प्रमुख शैली स्वगत में मुक्त बातचीत की शैली है। नागार्जुन की ही कविता से पद उधार लें तो कह सकते हैं-स्वागत शोक में बीज निहित हैं विश्व व्यथा के। भाषा पर बाबा का गज़ब अधिकार है। देसी बोली के ठेठ शब्दों से लेकर संस्कृतनिष्ठ शास्त्रीय पदावली तक उनकी भाषा के अनेकों स्तर हैं। उन्होंने तो हिन्दी के अलावा मैथिली, बांग्ला और संस्कृत में अलग से बहुत लिखा है। जैसा पहले भाव-बोध के संदर्भ में कहा गया, वैसे ही भाषा की दृष्टि से भी यह कहा जा सकता है कि बाबा की कविताओं में कबीर से लेकर धूमिल तक की पूरी हिन्दी काव्य-परंपरा एक साथ जीवंत है। बाबा ने छंद से भी परहेज नहीं किया, बल्कि उसका अपनी कविताओं में क्रांतिकारी ढंग से इस्तेमाल करके दिखा दिया। बाबा की कविताओं की लोकप्रियता का एक आधार उनके द्वारा किया गया छंदों का सधा हुआ चमत्कारिक प्रयोग भी है।
समकालीन प्रमुख हिंदी साहित्यकार उदय प्रकाश के अनुसार "यह जोर देकर कहने की ज़रूरत है कि बाबा नागार्जुन बीसवीं सदी की हिंदी कविता के सिर्फ 'भदेस' और मात्र विद्रोही मिजाज के कवि ही नहीं, वे हिंदी जाति के सबसे अद्वितीय मौलिक बौद्धिक कवि थे। वे सिर्फ 'एजिट पोएट' नहीं, पारंपरिक भारतीय काव्य परंपरा के विरल 'अभिजात' और 'एलीट पोएट' भी थे।" उदय प्रकाश ने बाबा नागार्जुन के व्यक्तित्व-निर्माण एवं कृतित्व की व्यापक महत्ता को एक साथ संकेतित करते हुए एक ही महावाक्य में लिखा है कि "खुद ही विचार करिये, जिस कवि ने बौद्ध दर्शन और मार्क्सवाद का गहन अध्ययन किया हो, राहुल सांकृत्यायन और आनंद कौसल्यायन जैसी प्रचंड मेधाओं का साथी रहा हो, जिसने प्राचीन भारतीय चिंतन परंपरा का ज्ञान पालि, प्राकृत, अपभ्रंश और संस्कृत जैसी भाषाओं में महारत हासिल करके प्राप्त किया हो, जिस कवि ने हिंदी, मैथिली, बंगला और संस्कृत में लगभग एक जैसा वाग्वैदग्ध्य अर्जित किया हो, अपनी मूल प्रज्ञा और संज्ञान में जो तुलसी और कबीर की महान संत परंपरा के निकटस्थ हो, जिस रचनाकार ने 'बलचनमा' और 'वरुण के बेटे' जैसे उपन्यासों के द्वारा हिंदी में आंचलिक उपन्यास लेखन की नींव रखी हो जिसके चलते हिंदी कथा साहित्य को रेणु जैसी ऐतिहासिक प्रतिभा प्राप्त हुई हो, जिस कवि ने अपने आक्रांत निजी जीवन ही नहीं बल्कि अपने समूचे दिक् और काल की, राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय घटनाक्रमों और व्यक्तित्व पर अपनी निर्भ्रांत कलम चलाई हो, (संस्कृत में) बीसवीं सदी के किसी आधुनिक राजनीतिक व्यक्तित्व (लेनिन) पर समूचा खण्डकाव्य रच डाला हो, जिसके हैंडलूम के सस्ते झोले में मेघदूतम् और 'एकाॅनमिक पाॅलिटिकल वीकली' एक साथ रखे मिलते हों, जिसकी अंग्रेजी भी किसी समकालीन हिंदी कवि या आलोचक से बेहतर ही रही हो, जिसने रजनी पाम दत्त, नेहरू, बर्तोल्त ब्रेख्ट, निराला, लूशुन से लेकर विनोबा, मोरारजी, जेपी, लोहिया, केन्याता, एलिजाबेथ, आइजन हावर आदि पर स्मरणीय और अत्यंत लोकप्रिय कविताएं लिखी हों -- ... बीसवीं सदी की हिंदी कविता का प्रतिनिधि बौद्धिक कवि वह है...।"
इन्हें भी देखें
नागार्जुन (प्राचीन दार्शनिक)
नागार्जुन की रचनाएँ कविता कोश में
नागार्जुन की कविताएँ अनुभूति में
नागार्जुन रचनावली: उपन्यास (गूगल पुस्तक ; लेखक - नागार्जुन)
हिन्दी विकि डीवीडी परियोजना
१९११ में जन्मे लोग
१९९८ में निधन
साहित्य अकादमी फ़ैलोशिप से सम्मानित |
बीरबल साहनी (नवंबर, १८९१ - १० अप्रैल, १९४९) अंतरराष्ट्रीय ख्याति के पुरावनस्पति वैज्ञानिक थे।
बीरबल साहनी का जन्म नवंबर, १८९१ को पश्चिमी पंजाब (पाकिस्तान) के शाहपुर जिले के भेड़ा नामक एक छोटे से व्यापारिक नगर में हुआ था, जो अब पाकिस्तान में है। इनके पिता रुचि राम साहनी रसायन के प्राध्यापक थे। उनका परिवार वहां डेरा इस्माइल खान से स्थानांतरित हो कर बस गया था।
प्रोफेसर रुचि राम साहनी ने उच्च शिक्षा के लिए अपने पांचों पुत्रों को इंग्लैंड भेजा तथा स्वयं भी वहां गए। वे मैनचेस्टर गए और वहां कैम्ब्रिज के प्रोफेसर अर्नेस्ट रदरफोर्ड तथा कोपेनहेगन के नाइल्सबोर के साथ रेडियोसक्रियता पर अन्वेषण कार्य किया। प्रथम महायुद्ध आरंभ होने के समय वे जर्मनी में थे और लड़ाई छिड़ने के केवल एक दिन पहले किसी तरह सीमा पार कर सुरक्षित स्थान पर पहुंचने में सफल हुए। वास्तव में उनके पुत्र बीरबल साहनी की वैज्ञानिक जिज्ञासा की प्रवृत्ति और चारित्रिक गठन का अधिकांश श्रेय उन्हीं की पहल एवं प्रेरणा, उत्साहवर्धन तथा दृढ़ता, परिश्रम औरईमानदारी को है। इनकी पुष्टि इस बात से होती है कि प्रोफेसर बीरबल साहनी अपने अनुसंधान कार्य में कभी हार नहीं मानते थे, बल्कि कठिन से कठिन समस्या का समाधान ढूंढ़ने के लिए सदैव तत्पर रहते थे। इस प्रकार, जीवन को एक बड़ी चुनौती के रूप में मानना चाहिए, यही उनके कुटुंब का आदर्श वाक्य बन गया था।
इनको १९१९ ई. में लन्दन विश्वविद्यालय से और १९२९ ई. में केंब्रिज विश्वविद्यालय से डी.एस-सी. की उपाधि मिली थी। भारत लौट आने पर ये पहले बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में वनस्पति विज्ञान के प्राध्यापक नियुक्त हुए। १९३९ ई. में ये रॉयल सोसायटी ऑव लन्दन के सदस्य (एफ.आर.एस.) चुने गए और कई वर्षों तक सायंस कांग्रेस और नेशनल ऐकेडेमी ऑव सायंसेज़ के अध्यक्ष रहे। इनके अनुसंधान जीवाश्म (फॉसिल) पौधों पर सबसे अधिक हैं। इन्होंने एक फॉसिल 'पेंटोज़ाइली' की खोज की, जो राजमहल पहाड़ियों में मिला था। इसका दूसरा नमूना अभी तक कहीं नहीं मिला है। हिंदू विश्वविद्यालय से डा. साहनी लाहौर विश्वविद्यालय गए, जहाँ से लखनऊ में आकर इन्होंने २० वर्ष तक अध्यापन और अन्वेषण कार्य किया।
ये अनेक विदेशी वैज्ञानिक संस्थाओं के सदस्य थे। लखनऊ में डा. साहनी ने पैलिओबोटैनिक इंस्टिट्यूट की स्थापना की, जिसका उद्घाटन पं. जवाहरलाल ने १९४९ ई. के अप्रैल में किया था। पैलिओबोटैनिक इंस्टिट्यूट के उद्घाटन के बाद शीघ्र ही साहनी महोदय की मृत्यु हो गई। इन्होंने वनस्पति विज्ञान पर पुस्तकें लिखी हैं और इनके अनेक प्रबंध संसार के भिन्न भिन्न वैज्ञानिक जर्नलों में प्रकाशित हुए हैं। डा. साहनी केवल वैज्ञानिक ही नहीं थे, वरन् चित्रकला और संगीत के भी प्रेमी थे। भारतीय विज्ञान कांग्रेस ने इनके सम्मान में 'बीरबल साहनी पदक' की स्थापना की है, जो भारत के सर्वश्रेष्ठ वनस्पति वैज्ञानिक को दिया जाता है। इनके छात्रों ने अनेक नए पौधों का नाम साहनी के नाम पर रखकर इनके नाम को अमर बनाए रखने का प्रयत्न किया है।
इन्हें भी देखें
रुचि राम साहनी
बीरबल साहनी पुरावनस्पतिविज्ञान संस्थान
लखनऊ स्थित बीरबल साहनी पुरावनस्पतिविज्ञान संस्थान
भारत के प्रथम जुरासिक वैज्ञानिक बीरबल साहनी
१८९१ में जन्मे लोग
पंजाब के लोग
१९४९ में निधन |
ओड़िशा, () भारत के पूर्वी तट पर स्थित एक राज्य है। ओड़िशा उत्तर में झारखंड, उत्तर पूर्व में पश्चिम बंगाल दक्षिण में आंध्र प्रदेश और पश्चिम में छत्तीसगढ़ से घिरा है तथा पूर्व में बंगाल की खाड़ी है। यह उसी प्राचीन राज्य कलिंग का आधुनिक नाम है जिसपर २६१ ईसा पूर्व में मौर्य सम्राट अशोक ने आक्रमण किया था और युद्ध में हुये भयानक रक्तपात से व्यथित हो अंतत: बौद्ध धर्म अंगीकार किया था। आधुनिक ओड़िशा राज्य की स्थापना १ अप्रैल १936 को कटक के कनिका पैलेस में भारत के एक राज्य के रूप में हुई थी और इस नये राज्य के अधिकांश नागरिक ओड़िआ भाषी थे। राज्य में १ अप्रैल को उत्कल दिवस (ओड़िशा दिवस) के रूप में मनाया जाता है।
क्षेत्रफल के अनुसार ओड़िशा भारत का नौवां और जनसंख्या के हिसाब से ग्यारहवां सबसे बड़ा राज्य है। ओड़िआ भाषा राज्य की अधिकारिक और सबसे अधिक बोली जाने वाली भाषा है। भाषाई सर्वेक्षण के अनुसार ओड़िशा की ९३.३३% जनसंख्या ओड़िआ भाषी है। पाराद्वीप को छोड़कर राज्य की अपेक्षाकृत सपाट तटरेखा (लगभग ४८० किमी लंबी) के कारण अच्छे बंदरगाहों का अभाव है। संकीर्ण और अपेक्षाकृत समतल तटीय पट्टी जिसमें महानदी का डेल्टा क्षेत्र शामिल है, राज्य की अधिकांश जनसंख्या का घर है। भौगोलिक लिहाज़ से इसके उत्तर में छोटानागपुर का पठार है जो अपेक्षाकृत कम उपजाऊ है लेकिन दक्षिण में महानदी, ब्राह्मणी, सालंदी और बैतरणी नदियों का उपजाऊ मैदान है। यह पूरा क्षेत्र मुख्य रूप से चावल उत्पादक क्षेत्र है। राज्य के आंतरिक भाग और कम आबादी वाले पहाड़ी क्षेत्र हैं। १६७२ मीटर ऊँचा देवमाली, राज्य का सबसे ऊँचा स्थान है।
ओड़िशा में तीव्र चक्रवात आते रहते हैं और सबसे तीव्र चक्रवात उष्णकटिबंधीय चक्रवात ०५बी, १ अक्टूबर १999 को आया था, जिसके कारण जानमाल का गंभीर नुक़सान हुआ और लगभग १0000 लोग मृत्यु का शिकार बन गए।
ओड़िशा के संबलपुर के पास स्थित हीराकुंड बांध विश्व का सबसे लंबा मिट्टी का बांध है। ओड़िशा में कई लोकप्रिय पर्यटक स्थल स्थित हैं जिनमें, पुरी, कोणार्क और भुवनेश्वर सबसे प्रमुख हैं और जिन्हें पूर्वी भारत का सुनहरा त्रिकोण पुकारा जाता है। पुरी के जगन्नाथ मंदिर जिसकी रथयात्रा विश्व प्रसिद्ध है और कोणार्क के सूर्य मंदिर को देखने प्रतिवर्ष लाखों पर्यटक आते हैं। ब्रह्मपुर के पास जौगदा में स्थित अशोक का प्रसिद्ध शिलालेख और कटक का बारबाटी किला भारत के पुरातात्विक इतिहास में महत्वपूर्ण हैं।
राज्य के नाम की उत्पत्ति
ओड़िशा नाम की उत्पत्ति संस्कृत के ओड्र विषय या ओड्र देश से हुई है। ओडवंश के राजा ओड्र ने इसे बसाया पाली और संस्कृत दोनों भाषाओं के साहित्य में ओड्र लोगों का उल्लेख क्रमशः ओद्दाक और ओड्र: के रूप में किया गया है। प्लिनी और टोलेमी जैसे यूनानी लेखकों ने ओड्र लोगों का वर्णन ओरेटस (ओरेट्स) कह कर किया है। महाभारत में ओड्रओं का उल्लेख पौन्द्र, उत्कल, मेकल, कलिंग और आंध्र के साथ हुआ है जबकि मनु के अनुसार ओड्र लोग पौन्द्रक, यवन, शक, परद, पल्ल्व, चिन, कीरत और खरस से संबंधित हैं। प्लिनी के प्राकृतिक इतिहास में ओरेटस लोग उस भूमि पर वास करते हैं जहां मलेउस पर्वत (माल्यूस) खड़ा है। यहां यूनानी शब्द ओरेटस संभवत: संस्कृत के ओड्र का यूनानी संस्करण है जबकि, मलेउस पर्वत पाललहडा के समीप स्थित मलयगिरि है। प्लिनी ने मलेउस पर्वत के साथ मोन्देस और शरीस लोगों को भी जोड़ा है जो संभवत: ओड़िशा के पहाड़ी क्षेत्रों में वास करने वाले मुंडा और सवर लोग हैं।
ओड़िशा के अन्य नाम
रामायण में राम की माता कौशल्या, कोशल के राजा की पुत्री हैं। महाभारत में पाण्डवों ने एक वर्ष का अज्ञातवास राजा विराट के यहाँ रहकर बिताया था जो 'मत्स्य' देश के राजा थे।
भारत के पूर्वी तट पर बसे ओड़िशा राज्य कि राजधानी भुवनेश्वर है। यह शहर अपने उत्कृष्ट मन्दिरों के लिये विख्यात है। यहाँ की जनसंख्या लगभग ४२ मिलियन है जिसका ४० प्रतिशत अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति का है। ओड़िशा का विकास दर अन्य राज्यों की तुलना में बिल्कुल खराब हालत में है। १९९० में ओड़िशा का विकास दर ४.३% था जबकि औसत विकास दर ६.७% है। मगर पिछले दो दसंधियों में ओडिशा ने विभिन्न प्राकृतिक विपदाओं के वाबजूद अनेकांश में प्रगति
की हे । स्वास्थ्य,शिल्प और प्राकृतिक
विपदाओं से जूझने मे अनेकांश में प्रगति की हे । पूर्वी भारत में ओडिशा का विकास,
सच्ची में तारीफ के काबिल हे । ओड़िशा के कषि क्षेत्र का विकास में योगदान ३२ फीसदी है। ओडिशा का विकास बहुत तेजी से हो रहा है पूर्वी भारत में सबसे तेजी से विकास करता हुआ राज्य है यह छग झारखंड बिहार पं बंगाल से आगे है
ओड़िशा की राजधानी भुवनेश्वर है जो की ओड़िशा के पूर्व राजधानी कटक से सिर्फ २९ किमी दूर है। भुवनेश्वर भारत के अत्याधुनिक शहरों में से है जिसकी वर्तमान में जनसंख्या करीब ९ लाख है, भुवनेश्वर और कटक दोनों शहरों को मिलाकर ओड़िशा का युग्म शहर भी कहा जाता है। इन दोनों शहरों को मिलाकर कुल १४ लाख आबादी है जो एक महानगर जैसे शहर का निर्माण करती है इसलिए इन दोनों शहरो का विकास तेजी से हो रहा है इन दोनेां शहरो में सन २०२० तक मेट्रो रेल चलाये जाने की योजना है हिंदुओं के चार धामों में से एक पुरी ६० किमी के दूरता पर बंगाल की खाडी के किनारे अवस्थित है। यह शहर हिंदु देवता श्री जगन्नाथ, उनके मंदिर एवं वार्षिक रथयात्रा के लिए सुप्रसिद्ध है।
ओड़िशा का उत्तरी व पश्चिमी अंश छोटानागपुर पठार के अंतर्गत आता है। तटवर्ती इलाका जो की बंगाल की खाडी से सटा है महानदी, ब्राह्मणी, बैतरणी आदि प्रमुख नदीयों से सिंचता है। यह इलाका अत्यंत उपजाऊ है और यहां पर सघन रूप से चावल की खेती की जाती है।
ओड़िशा का तकरीबन ३२% भूभाग जंगलों से ढंका है पर जनसंख्या विस्फोर्ण के बाद जंगल तेजी से सिकुड रहे हैं। ओड़िशा में वन्यजीव संरक्षण के लिए कई अभयारण्य हैं। इनमें से सिमिलिपाल जातीय उद्यान प्रमुख है। कई एकड जमीन पर फैला हुआ यह उद्यान हालांकि व्याघ्र प्रकल्प के अंतर्गत आता है पर यहां पर हाथी व अन्यान्य वन्यजीवों का निवास भी है।
ओड़िशा के ह्रदों में चिलिका और अंशुपा प्रधान हैं। महानदी के दक्षिण में तटवर्ती इलाके में अवस्थित चिलिका पुरे एसिया महादेश का सबसे बडा ह्रद है। ओड़िशा का सबसे बडा मधुर जल ह्रद अंशुपा कटक के समीपवर्ती आठगढ में अवस्थित है।
ओड़िशा सर्वोच्च पर्वत शिखर देवमाली (देओमाली) है जिसकि ऊंचाई १६७२ मी. है। दक्षिण ओड़िशा के कोरापुट जिला में अवस्थित यह शिखर पूर्वघाट का भी उच्चतम शिखर है।
इतिहास और संस्कृति
ओड़िआ यहां की मुख्य भाषा है। यह राज्य सम्राट अशोक के साथ हुआ कळिंग युद्ध का साक्षी है
ओड़िशा पर तीसरी सदी ईसा पूर्व से राज करने वाले कुछ वंश इस प्रकार हैं:-
विग्रह एवं मुदगल वंश,
सोम वंश केशरि,
गंग वंश गजपति,
सूर्य वंश गजपति।
ओड़िशा की अर्थव्यवस्था में कृषि की महत्त्वपूर्ण भूमिका है। ओड़िशा की लगभग ८० प्रतिशत जनसंख्या कृषि कार्य में लगी है, हालांकि यहाँ की अधिकांश भूमि अनुपजाऊ या एक से अधिक वार्षिक फ़सल के लिए अनुपयुक्त है। ओड़िशा में लगभग ४० लाख खेत हैं, जिनका औसत आकार १.५ हेक्टेयर है, लेकिन प्रति व्यक्ति कृषि क्षेत्र ०.२ हेक्टेयर से भी कम है। राज्य के कुल क्षेत्रफल के लगभग 4५ प्रतिशत भाग में खेत है। इसके ८० प्रतिशत भाग में चावल उगाया जाता है। अन्य महत्त्वपूर्ण फ़सलें तिलहन, दलहन, जूट, गन्ना और नारियल है।
और मानसूनी वर्षा के समय व मात्रा में विविधता होने के कारण यहाँ उपज कम होती है
चूंकि बहुत से ग्रामीण लगातार साल भर रोज़गार नहीं प्राप्त कर पाते, इसलिए कृषि- कार्य में लगे बहुत से परिवार गैर कृषि कार्यों में भी संलग्न है। जनसंख्या वृद्धि के कारण प्रति व्यक्ति कृषि भूमि की उपलब्धता कम होती जा रही है। भू- अधिगृहण पर सीमा लगाने के प्रयास अधिकांशत: सफल नहीं रहे। हालांकि राज्य द्वारा अधिगृहीत कुछ भूमि स्वैच्छिक तौर पर भूतपूर्व काश्तकारों को दे दी गई है।
चावल ओडिशा की मुख्य फ़सल है। २००४ - २००५ में ६५.३७ लाख मी. टन चावल का उत्पादन हुआ। गन्ने की खेती भी किसान करते हैं। उच्च फ़सल उत्पादन प्रौद्योगिकी, समन्वित पोषक प्रबंधन और कीट प्रबंधन को अपनाकर कृषि का विस्तार किया जा रहा है। अलग-अलग फलों की १२.५ लाख और काजू की १० लाख तथा सब्जियों की २.५ लाख कलमें किसानों में वितरित की गई हैं। राज्य में प्याज की फ़सल को बढावा देने के लिए अच्छी किस्म की प्याज के ३०० क्विंटल बीज बांटे गए हैं जिनसे ७,५00 एकड ज़मीन प्याज उगायी जाएगी। राष्ट्रीय बागवानी मिशन के अंतर्गत गुलाब, गुलदाऊदी और गेंदे के फूलों की २,6२५ प्रदर्शनियाँ की गईं। किसानों को धान का न्यूनतम समर्थन मूल्य दिलाने के लिए ओडिशा राज्य नागरिक आपूर्ति निगम लि. (पी ए सी), मार्कफेड, नाफेड आदि एजेंसियों के द्वारा २0 लाख मी. टन चावल ख़रीदने का लक्ष्य बनाया है। सूखे की आशंका से ग्रस्त क्षेत्रों में लघु जलाशय लिए १३ लाख हेक्टेयर क्षेत्र में २,4१३ लघु जलाशय विकसित करने का लक्ष्य है।
सिंचाई और बिजली
बडी, मंझोली और छोटी परियोजनाओं और जल दोहन परियोजनाओं से सिचांई क्षमता को बढाने का प्रयास किया गया है-
वर्ष २००४ - २००५ तक २,६९६ लाख हेक्टेयर भूमि की सिंचाई की व्यवस्था पूर्ण की जा चुकी है।
२००५-०६ के सत्र में १२,६८५ हेक्टेयर सिंचाई की छह सिंचाई परियोजनाओं को चिह्नित किया गया है जिसमें से चार योजनाएं लक्ष्य प्राप्त कर चुकी हैं।
२००५ - २००६ में ओडिशा लिफ्ट सिंचाई निगम ने 'बीजू कृषक विकास योजना' के अंतर्गत ५०० लिफ्ट सिंचाई पाइंट बनाये हैं और १,२०० हेक्टेयर की सिंचाई क्षमता प्राप्त की है।
२००४ - २००५ में राज्य में बिजली की कुल उत्पादन क्षमता ४,8४5.3४ मेगावाट थी तथा कुल स्रोतों से प्राप्त बिजली क्षमता १,९९५.८२ मेगावाट थी।
मार्च २००५ तक राज्य के कुल ४६,९८९ गांवों में से ३७,७४४ गांवों में बिजली पहुँचा दी गई है।
उद्योग प्रोत्साहन एवं निवेश निगम लि., औद्योगिक विकास निगम लिमिटेड और ओडिशा राज्य इलेक्ट्रॉनिक्स विकास निगम ये तीन प्रमुख एजेंसियां राज्य के उद्योगों को आर्थिक सहायता प्रदान करती है। इस्पात, एल्यूमीनियम, तेलशोधन, उर्वरक आदि विशाल उद्योग लग रहे हैं। राज्य सरकार लघु, ग्रामीण और कुटीर उद्योगों को प्रोत्साहित करने के लिए छूट देकर वित्तीय मदद दे रही है। २००४ - २००५ वर्ष में ८३,०७५ लघु उद्योग इकाई स्थापित की गयी।
औद्योगिक विकास करने के लिए रोजगार के अवसर और आर्थिक विकास दर को बढाने के लिए ओडिशा उद्योग (सुविधा) अधिनियम, २००४ को लागू किया है जिससे निवेश प्रस्तावों के कम समय में निबटारा और निरीक्षण कार्य हो सके। निवेश को सही दिशा में प्रयोग करने के लिए ढांचागत सुविधा में सुधार को प्राथमिकता दी गई है। सूचना प्रौद्योगिकी में ढांचागत विकास करने के लिए भुवनेश्वर में एक निर्यात संवर्द्धन औद्योगिक पार्क स्थापित किया गया है। राज्य में लघु और मध्यम उद्योगों को बढाने के लिए २००५ - २००६ में २,२55 लघु उद्योग स्थापित किए गये, इन योजनाओं में 1२3.२3 करोड़ रुपये का निवेश किया गया और लगभग १०,३०८ व्यक्तियों को काम मिला।
श्रमिकों और उनके परिवार के सदस्यों को सरकारी अस्पतालों में स्वास्थ्य सुविधाएं दी गई हैं। उद्योगों में लगे बाल मजदूरों को मुक्त किया गया और औपचारिक शिक्षा और व्यावसायिक प्रशिक्षण के लिए राष्ट्रीय बाल श्रमिक परियोजना के अंतर्गत प्रवेश दिया गया। राज्य भर में १८ ज़िलों में १८ बालश्रमिक परियोजनाएं क्रियान्वित हैं। लगभग ३३,८४३ बाल श्रमिकों को राष्ट्रीय बाल श्रमिक परियोजना द्वारा संचालित स्कूलों में प्रवेश दिलाया गया है और ६४,८८५ बाल श्रमिकों को स्कूली शिक्षा के माध्यम से मुख्यधारा में जोडने का प्रयास किया गया। श्रमिकों को दिया जाने वाला न्यूनतम वेतन बढाया गया।
ओडिशा के औद्योगिक संसाधन उल्लेखनीय हैं। क्रोमाइट, मैंगनीज़ अयस्क और डोलोमाइट के उत्पादन में ओडिशा भारत के सभी राज्यों से आगे है। यह उच्च गुणवत्ता के लौह- अयस्क के उत्पादन में भी अग्रणी है। ढेंकानाल के भीतरी ज़िले में स्थित महत्त्वपूर्ण तालचर की खानों से प्राप्त कोयला राज्य के प्रगलन व उर्वरक उत्पादन के लिए ऊर्जा उपलब्ध कराता है। स्टील, अलौह प्रगलन और उर्वरक उद्योग राज्य के भीतर भागों में केंद्रित हैं, जबकि अधिकांश ढलाईघर, रेल कार्यशालाएँ, काँच निर्माण और काग़ज़ की मिलें कटक के आसपास महानदी के डेल्टा के निकट स्थित है। जिसका उपयोग उपमहाद्वीप की सर्वाधिक महत्त्वाकांक्षी बहुउद्देशीय परियोजना, हीराकुड बाँध व माछकुड जलविद्युत परियोजना द्वारा किया जा रहा है। ये दोनों बहुत सी अन्य छोटी इकाइयों के साथ समूचे निचले बेसिन को बाढ़ नियंत्रण, सिंचाई और बिजली उपलब्ध कराते है।
बड़े उद्योग मुख्यत: खनिज आधारित हैं, जिनमें राउरकेला स्थित इस्पात व उर्वरक संयंत्र, जोडो व रायगड़ा में लौह मैंगनीज़ संयत्र, राज गांगपुर व बेलपहाड़ में अपवर्तक उत्पादन कर रहे कारख़ाने, चौद्वार (नया नाम टांगी चौद्वार) में रेफ्रिजरेटर निर्माण संयंत्र और राजगांगपुर में एक सीमेंट कारख़ाना शामिल हैं। रायगड़ा व चौद्वार में चीनी व काग़ज़ की तथा ब्रजराजनगर में काग़ज़ की बड़ी मिलें हैं; अन्य उद्योगों में वस्त्र, कांच ऐलुमिनियम धातुपिंड व केबल और भारी मशीन उपकरण शामिल हैं।
सूचना प्रौद्योगिक में राज्य में संतोष जनक प्रगति हो रही है। भुवनेश्वर की इन्फोसिटी में विकास केंद्र खोलने का प्रयास चल रहा है। ओडिशा सरकार और नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ गवर्नेंस तथा नेशनल इन्फार्मेटिक्स सेंटर ने संयुक्त रूप एक पारदर्शी और कुशल प्रणाली शुरू की है। राज्य मुख्यालय को ज़िला मुख्यालयों, सब डिवीजन मुख्यालयों, ब्लाक मुख्यालयों से जोडने के लिए ई-गवर्नेंस पर आधारित क्षेत्र नेटवर्क से जोडा जा रहा है। उड़िया भाषा को कंप्यूटर में लाने के लिए भारतीय भाषाओं के लिए प्रौद्योगिकी विकास कार्यक्रम के अंतर्गत उडिया भाषा का पैकेज तैयार किया जा रहा है।
मत्स्य पालन और पशु संसाधन विकास
राज्य की कृषि नीति में आधुनिक वैज्ञानिक तकनीकी का प्रयोग करते हुए, दूध, मछली और मांस उत्पादन के विकास को विशेष रूप से विकसित करने का प्रयास करके कुल दुग्ध उत्पादन ३६ लाख लीटर प्रतिदिन अर्थात ३ लाख लीटर से अधिक तक पहुँचा दिया गया है। डेयरी उत्पादन के विकास के लिए ओडिशा दुग्ध फेडरेशनमें राज्य के सभी ३0 ज़िलों को सम्मिलित गया है। फेडरेशन ने दुग्ध संरक्षण को बढ़ाकर २.७० लाख लीटर प्रतिदिन तक कर दिया है। स्टैप कार्यक्रम के तहत फेडरेशन द्वारा १७ ज़िलों में महिला डेयरी परियोजना चल रही है। राज्य में 8३7 महिला डेयरी सहकारी समितियां हैं, जिनमें ६०,२87 महिलाएं कार्यरत हैं।
ओड़िशा की समृद्ध कलात्मक विरासत है और इसने भारतीय कला एवं वास्तुशिल्प के सर्वश्रेष्ठ उदाहरणों का सृजन किया है। भित्तिचित्रों पत्थर व लकड़ी पर नक़्क़ाशी देव चित्र (पट्ट चित्रकला के नाम से विख्यात) और ताड़पत्रों पर चित्रकारी के माध्यम से कलात्मक परंपराएं आज भी कायम हैं। हस्तशिल्प कलाकार चांदी में बेहद महीन जाली की कटाई की अलंकृत शिल्प कला के लिए विख्यात हैं।
जनजातीय इलाकों में कई प्रकार के लोकनृत्य है। मादल व बांसुरी का संगीत गांवो में आम है। ओडिशा का शास्त्रीय नृत्य ओड़िशी ७०० वर्षों से भी अधिक समय से अस्तित्व में है। मूलत: यह ईश्वर के लिए किया जाने वाला मंदिर नृत्य था। नृत्य के प्रकार, गति, मुद्राएं और भाव-भंगिमाएं बड़े मंदिरों की दीवारों पर, विशेषकर कोणार्क में शिल्प व उभरी हुई नक़्क़ासी के रूप में अंकित हैं, इस नृत्य के आधुनिक प्रवर्तकों ने इसे राज्य के बाहर भी लोकप्रिय बनाया है। मयूरभंज और सरायकेला प्रदेशों का छऊ नृत्य (मुखौटे पहने कलाकारों द्वारा किया जाने वाला नृत्य) ओडिशा की संस्कृति की एक अन्य धरोहर है। १९५२ में कटक में कला विकास केंद्र की स्थापना की गई, जिसमें नृत्य व संगीत के प्रोत्साहन के लिए एक छह वर्षीय अवधि का शिक्षण पाठयक्रम है। नेशनल म्यूजिक एसोसिएशन (राष्ट्रीय संगीत समिति) भी इस उद्देश्य के लिए है। कटक में अन्य प्रसिद्ध नृत्य व संगीत केन्द्र है: उत्कल संगीत समाज, उत्कल स्मृति कला मंडप और मुक्ति कला मंदिर।
ओड़िशा के अनेक अपने पारंपरिक त्योहार हैं। इसका एक अनोखा त्योहार अक्टूबर या नवंबर (तिथि हिंदू पंचांग के अनुसार तय की जाती है) में मनाया जाने वाला बोइता बंदना (नौकाओं की पूजा) अनुष्ठा है। पूर्णिमा से पहले लगातार पांच दिनों तक लोग नदी किनारों या समुद्र तटों पर एकत्र होते हैं और छोटे-छोटे नौका रूप तैराते हैं। जो इसका प्रतीक है कि वे भी अपने पूर्वजों की तरह सुदूर स्थानों (मलेशिया, इंडोनेशिया) की यात्रा पर निकलेंगे। पुरी में जगन्नाथ (ब्रह्मांड का स्वामी) मंदिर है, जो भारत के सर्वाधिक प्रसिद्ध मंदिरों में से एक है। यहाँ होने वाली वार्षिक रथयात्रा लाखों लोगों को आकृष्ट करती है। यहाँ से कुछ ही किलोमीटर की दूरी पर भगवान सूर्य के रथ के आकार में बना कोणार्क मंदिर है। यह मंदिर मध्यकालीन उड़िया संस्कृति के उत्कृष्ट उदाहरणों में से एक है।
१९४७ के बाद शैक्षणिक संस्थानों में उल्लेखनीय वृद्धि हुई है।
यहाँ पाँच विश्वविद्यालय (और कई संबद्ध महाविद्यालय) हैं, जिनमें उत्कल विश्वविद्यालय और उड़ीसा कृषि एवं प्रोद्योगिकी विश्वविद्यालय सबसे बड़े व विख्यात हैं।
उत्कल विश्वविद्यालय, वाणी विहार, भुवनेश्वर
फ़कीर मोहन विश्वविद्यालय, व्यास विहार, बालेश्वर
ब्रह्मपुर विश्वविद्यालय, भंज विहार, ब्रह्मपुर
ओड़िशा युनिवर्सिटी आफ़ एग्रीकल्चर ऐंड टेक्नालजी, भुवनेश्वर
संबलपुर विश्वविद्यालय, ज्योति विहार, संबलपुर
श्री जगन्नाथ संस्कृत विश्वविद्यालय, पुरी
बिजू पटनायक युनिवर्सिटी आफ़ टेक्नालजी, राउरकेला -->
आई.जी.आई.टी., सारंग (उत्कल विश्वविद्यालय के अधीन)
श्री रामचन्द्र भंज मेडिकाल कॉलेज, कटक
महाराजा कृष्णचन्द्र गजपति देव मेडिकाल कॉलेज, ब्रह्मपुर
वीर सुरेन्द्र साए मेडिकाल कॉलेज, बुर्ला, सम्बलपुर
अनन्त त्रिपाठी आयुर्वेदिक कॉलेज, बलांगिर
ब्रह्मपुर सरकारी आयुर्वेदिक महाबिद्यालय, ब्रह्मपुर
सरकारी आयुर्वेदिक महाबिद्यालय, पुरी
गोपालबन्धु आयुर्वेदिक महाबिद्यालय, पुरी
सरकारी आयुर्वेद महाबिद्यालय, बलांगिर
के.ए.टि.ए. आयुर्वेदिक महाबिद्यालय, गंजाम
नृसिंहनाथ सरकारी आयुर्वेदिक महाबिद्यालय, पाइकमाल, सम्बलपुर
एस्.एस्.एन्. आयुर्वेद महाबिद्यालय एवं गवेषणा प्रतिष्ठान, नृसिंहनाथ
इन संस्थानों की उपस्थिति के बावजूद उड़ीसा की जनसंख्या का एक छोटा सा भाग ही विश्वविद्यालय स्तर तक शिक्षित है और राज्य की साक्षरता दर (६३.६१ प्रतिशत) राष्ट्रीय औसत (६५.३८ प्रतिशत) से कम है।
१९४७ से पहले ओडिशा में संचार सुविधाएं अविकसित थीं, लेकिन इसमें से रजवाड़ों के विलय और खनिज संसाधनों की खोज से अच्छी सड़कों के संजाल की आवश्यकता महसूस की गई। अधिकांश प्रमुख नदियों पर पुल निर्माण जैसे बड़े विनिर्माण कार्यक्रम ओडिशा सरकार द्वारा शुरू किए गए। महानदी के मुहाने पर पारादीप में सभी मौसमों के लिए उपयुक्त, गहरे बंदरगाह का निर्माण किया गया है। यह बंदरगाह राज्य के निर्यात, विशेषकर कोयले के निर्यात का केंद्र बन गया है।
राज्य में विकास दर बढाने के लिए परिवहन की अनेक योजनाओं को क्रियान्वित किया जा रहा है-
२००४ - ०५ तक राज्य में सडकों की कुल लंबाई २,३७,३३२ कि॰मी॰ थी। इसमें राष्ट्रीय राजमार्गों की कुल लंबाई ३,५९५ कि॰मी॰, एक्सप्रेस राजमार्गों की कुल लंबाई २9 किलोमीटर, राजकीय राजमार्गों की कुल लंबाई ५,१0२ कि॰मी॰ ज़िला मुख्य सड़कों की कुल लंबाई ३,१८९ कि॰मी॰, अन्य ज़िला सड़कों की कुल लंबाई ६,३३4 कि॰मी॰ और ग्रामीण सड़कों की कुल लंबाई २7,८८२ कि॰मी॰ है। पंचायत समिति सड़कों की कुल लंबाई १,३9,94२ कि॰मी॰ और ८८ कि॰मी॰ ग्रिडको सड़कें हैं।
३१ मार्च २००४ तक राज्य में २,२87 किलोमीटर लंबी बडी रेल लाइनें और ९१ किलोमीटर छोटी लाइनें थी।
भुवनेश्वर में हवाई अड्डे का आधुनिकीकरण का कार्य हो चुका है अभी यह अंतर्राष्टत्र्ीय हवाई अडडा है यहाँ से दिल्ली, कोलकाता, चेन्नई, नागपुर हैदराबाद सहित विदेशों के लिए सीधी उड़ानें हैं। इस समय राज्य भर में १३ हवाई पट्टियां और १६ हेलीपैड की व्यवस्था है।
पारादीप राज्य का एक मात्र मुख्य बंदरगाह है। गोपालपुर को पूरे साल काम करने वाले बंदरगाह के रूप में विकसित करने का कार्य प्रगति पर है।
राज्य के आर्थिक विकास में पर्यटन के महत्त्व को समझते हुए मीडिया प्रबंधन एजेंसियों और पर्व प्रबंधकों को प्रचार एवं प्रसार का कार्य दिया गया है। ओडिशा को विभिन्न महत्त्वपूर्ण पर्यटन परिजनाओं - धौली में शांति पार्क, ललितगिरि, उदयगिरि तथा लांगुडी के बौद्ध स्थलों को ढांचागत विकास और पिपिली में पर्यटन विकास का काम किया जाएगा। (पुरी) भुवनेश्वर का एकाग्र उत्सव, कोणार्क का कोणार्क पर्व के मेलों और त्योहारों के विकास के लिए प्रयास किया जा रहा है।
ओडिशा पर्यटन विभाग ने बैंकाक, मास्को, लंदन, कुआलालंपुर, कोच्चि, कोलकाता, रायपुर आदि के भ्रमण व्यापार के आयोजनों में भाग लिया। पर्यटन क्षेत्र में निजी क्षेत्र की भागीदारी को प्रोत्साहन देने के लिए ३७३ मार्गदर्शकों (गाइडों) को प्रशिक्षण दिया गया।
सूर्य मंदिर, कोणार्क
राज्य की राजधानी भुवनेश्वर लिंगराज मन्दिर के लिए प्रसिद्ध है।
पुरी का जगन्नाथ मन्दिर
सुंदर पुरी तट
राज्य के अन्य प्रसिद्ध पर्यटन केंद्र हैं कोणार्क, नंदनकानन, चिल्का झील, धौली बौद्ध मंदिर, उदयगिरि-खंडगिरि की प्राचीन गुफाएं, रत्नगिरि, ललितगिरि और उदयगिरि के बौद्ध भित्तिचित्र और गुफाएं, सप्तसज्या का मनोरम पहाडी दृश्य, सिमिलिपाल राष्ट्रीय उद्यान तथा बाघ परियोजना, हीराकुंड बांध, दुदुमा जलप्रपात, उषाकोठी वन्य जीव अभयारण्य, गोपानपुर समुद्री तट, हरिशंकर, नृसिंहनाथ, तारातारिणी, तप्तापानी, भितरकणिका, भीमकुंड कपिलाश आदि स्थान प्रसिद्ध हैं।
मालवा का राजा इन्द्रद्युम्न ने पुरातनकाल में जगन्नाथ मंदिर बनवाने के निमित्त विंध्या से बड़ा-बड़ा पत्थर मंगवाया। शंखनाभि मण्डल के ऊपर मंदिर बनाया गया। यहाँ मालवा का राजा इन्द्रद्युम्न ने रामकृष्णपुर नाम का एक गाँव बसाए थे। मंदिर बन जाने के बाद राजा इन्द्रद्युम्न मंदिर में प्राण प्रति
ष्ठा कराने के लिए ब्रह्मा जी के पास गये थे। ब्रह्माजी को लाने में उनके अनेक वर्ष बीत गये| इस बीच मंदिर बालु रेत से धक चुका था। बाद में राजा गालमाधव मंदिर को बालु रेत प्राप्त किया और वर्णित साक्ष के आधार पर कि इस मंदिर को राजा इन्द्रद्युम्न ने निर्माण करवाया है यकीन किया।
श्री लिंगराज मन्दिर
श्री लिंगराज मंदिर प्राचीन कला स्थापत्य से परिपूर्ण यह मंदिर भुवनेश्वर में अवस्थित है। यहां पर्यटकों की वर्ष भर भीड़ लगी रहती है। यहाँ इस पीठ के प्रलयंकारी श्री शिव अधिष्ठाता हैं। इस मंदिर के तीन दरवाजा उत्तर ,दक्षिण ,और पूर्व में है। पूर्व की तरफ ३४ फिट की ऊंचाई के दरवाजे के दोनों तरफ सिंह के मूर्ती स्थापित हैं इस द्वार को प्रवेश द्वार खा जाता है। मंदिर चार भागों में विभक्त है प्रथम-देउल(मुख्य मंदिर )द्वितीय -जगमोहन (भक्तोंका बैठकखाना ) तृतीय-नाट मंदिर (नृत्य मंडप )चतुर्थ-भोगमण्डप ( यहां भोग चढ़ाया जाता है ) मंदिर की ऊचाई १५९ फिट चौड़ाई४६५ फिट लम्बाई ५२० फिट में और क्षेत्रफल में ४.५ एकड़ जमीन पर यह मंदिर अवस्थित है। इस मंदिर में शिव वाहन बृषभ औरविष्णु वाहन गरुण को स्थापित किया गया है जो शैवाजीव और बैष्णवजीव का निर्देशन स्वरूप है। यहां महा प्रसाद पाया जाता है।
कोणार्क का सूर्य मंदिर
भारत के तीर्थ स्थलों में एक क्षेत्र अर्क क्षेत्र हैं कोणार्क। यह प्रमुख दर्शनीय स्थल में से एक स्थल है। इस क्षेत्र को पद्मक्षेत्र, मैत्रेयवन के नाम से जाना जाता हैं। मैत्रेय ऋषि के तपोवल से यह स्थान पवित्र हो गया अतएव इसका नाम मैत्रेयवन नाम से प्रसिद्ध हुआ। सूर्यदेव यहां का अधिष्ठाता देवता हैं। सूर्यदेव यहां अर्कासुर नामक राक्षस का वध किया था जिस कारण इस क्षेत्र का नाम अर्क क्षेत्र हो गया। मैत्रेय वन में सूर्य पूजा करने से अनेक बीमारियां दूर हो जाती हैं और पापक्षय हो जाता हैं। ऐसा कपिल संहिता में मिलता हैं।
पद्म क्षेत्र चन्द्रभागा के किनारे शाम्ब को जो पिता के शाप से शापित होकर कुष्टरोग से ग्रसित हो गया था उसे नारद जी की आज्ञा पालन करने के कारण रोग से छुटकारा मिला। पुराण में वर्णित हैं। यहां शुकमुनि तपोवल से योगचारी पुरुष हुए। सूर्य विग्रह कतिपय कारणों से हटाकर पुरी श्री मंदिर में स्थापित किया गया हैं जहां प्रतिष्ठा उपरान्त अब पूजा अर्चना होती हैं।
२००१ की जनगणना के अनुसार ओडिशा में हिन्दू ९४.३५%, ईसाई २.४४%, इस्लाम २.०७% और अन्य धर्म (मुख्यतः बौद्ध) १.१४% है।
जगन्नाथ मन्दिर, पुरी
भगवान जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा का यह मंदिर पुरी में स्थित है और यह हिन्दू धर्म के चार धाम में एक माना जाता है। हर वर्ष होने वाली रथ यात्रा में दूर दूर से श्रृद्धालू भाग लेते हैं।
भारत के प्रमुख तीर्थ धाम में जगन्नाथ धाम पूर्व दिशा में विराजमान है। इस धाम को पुरुषोत्तम धाम भी कहा जाता है।
यहां अवतारी विष्णु हमेशा अवस्थान करते हैं ,जो स्कन्द पुराण में उल्लेख है। पुराण शास्त्र के अनुसार यह स्थान भगवान
विष्णु का भोगभूमि अथवा श्वेतद्वीप है। इस क्षेत्र को शंख क्षेत्र नाम से जाना जाता है, यह शंख जैसा आकार का क्षेत्र है। यह
मात्र भारत ही नहीं विश्व में प्रसिद्ध सर्वोत्तम क्षेत्र है। जो भारत में उड़ीसा प्रांत में अवस्थित है।
सूर्य मंदिर, कोणार्क
ओड़िशा के जिले
ओड़िशा का शासन भार संप्रति बीजु जनता दल के हाथ में है। दल के सभापति तथा राज्य के मुख्यमत्री का स्थान स्वर्गत बीजु पटनायक के सुपुत्र श्री नवीन पटनायक हैं।
महिंद्रा सत्यम एवं टाटा कंसल्टेंसी सर्विसेज (टी सी एस)
इन्हें भी देखें
ओड़िशा का इतिहास
ओड़िशा के लोकसभा सदस्य
ओड़िशा के जिले
भारत के राज्य |
इराक़ मध्य-पूर्व एशिया में स्थित एक जनतांत्रिक देश है जहाँ के लोग मुख्यतः मुस्लिम हैं। इसके दक्षिण में सउदी अरब और कुवैत, पश्चिम में जोर्डन और सीरिया, उत्तर में तुर्की और पूर्व में ईरान (कुर्दिस्तान प्रांत (ईरान)) अवस्थित है। दक्षिण पश्चिम की दिशा में यह फ़ारस की खाड़ी से भी जुड़ा है। दजला नदी और फरात इसकी दो प्रमुख नदियाँ हैं जो इसके इतिहास को ५००० वर्ष पीछे ले जाती हैं। इसके दोआबे में ही मेसोपोटामिया की सभ्यता का उदय हुआ था।
इराक़ के इतिहास में असीरिया के पतन के बाद विदेशी शक्तियों का प्रभुत्व रहा है। ईसापूर्व छठी सदी के बाद से फ़ारसी शासन में रहने के बाद (सातवीं सदी तक) इसपर अरबों का प्रभुत्व बना। अरब शासन के समय यहाँ इस्लाम धर्म आया और बगदाद अब्बासी खिलाफत की राजधानी रहा। तेरहवीं सदी में मंगोल आक्रमण से बगदाद का पतन हो गया और उसके बाद की अराजकता के वर्षों बाद तुर्कों (उस्मानी साम्राज्य) का प्रभुत्व यहाँ पर बन गया २००३ से दिसम्बर २०११ तक अमेरिका के नेतृत्व में नैटो की सेना की यहाँ उपस्थिति बनी हुई थी जिसके बाद से यहाँ एक जनतांत्रिक सरकार का शासन है।
राजधानी बगदाद के अलावा करबला, बसरा, किर्कुक तथा नजफ़ अन्य प्रमुख शहर हैं। यहाँ की मुख्य बोलचाल की भाषा अरबी और कुर्दी भाषा है और दोनों को सांवैधानिक दर्जा मिला है।
इराक़ के इतिहास का आरंभ बेबीलोनिया और उसी क्षेत्र में आरंभ हुए कई अन्य सभ्यताओं से होता है। लगभग ५००० ईसापूर्व से सुमेरिया की सभ्यता इस क्षेत्र में फल-फूल रही थी। इसके बाद बेबीलोनिया, असीरिया तथा अक्कद के राज्य आए। इस समय की सभ्यता को पश्चिमी देश एक महान सभ्यता के रूप में देखते हैं। इसका मुख्य कारण यह है कि लेखन का विकास सर्वप्रथम यहीं हुआ। इसके अलावा विज्ञान, गणित तथा कुछ अन्य विषयो का सबसे आरंभिक प्रमाण भी यहीं मिलता है। इसका दूसरा प्रमुख कारण ये हैं कि मेसोपोटामिया (आधुनिक दजला-फरात नदियों की घाटी का क्षेत्र) को प्राचीन ईसाई और यहूदी कथाओं में कई पूर्वजों का निवास स्थान या कर्मस्थली माना गया है। आरंभ के यूरोपीय इतिहासकारों ने बाईबल के मुताबिक इतिहास की शुरुआत ४४०० ईसापूर्व माना था। इस कारण बेबीलोन (जिसे बाबिली सभ्यता भी कहा जाता था) तथा अन्य सभ्यताओं को दुनिया की सबसे पुरानी सभ्यता माना गया। हँलांकि वैज्ञानिक विधियों से इसकी संतोषजनक पुष्टि होती है, इस बात को बाद के यूरोपीय इतिहासकारों ने मानने से मना कर दिया कि यहीं से इंसान की उत्पत्ति हुई थी। इस स्थल को यहूदियों तथा इसाईयों के (और इस कारण इस्लाम के कुछ) धर्मगुरुओं (पैग़म्बरों तथा मसीहों) का मूल-स्थल मानने पर अधिकांश इतिहासकार सहमत हैं।
फ़ारस के हख़ामनी (एकेमेनिड) शासकों की शक्ति का उदय ईसा के छठी सदी पूर्व हो रहा था। उन्होंने मीदियों तथा बाद के असीरियाइयों को हरा कर आधुनिक इराक़ पर कब्जा कर लिया। सिकन्दर ने ३३० इसापूर्व में फ़ारस के शाह दारा तृतीय को कई युद्धों में हरा कर फ़ारसी साम्राज्य का अन्त कर दिया। इसके बाद इराकी भूभाग पर यवनों तथा बाद में रोमनों का आंशिक प्रभाव रहा। रोमनों की शक्ति जब अपने चरम पर थी (१३० इस्वी) तब ये फ़ारस के पार्थियनों के सासन में थी। इसके बाद तीसरा सदी के आरंभ में सासानियों ने पार्थियनों को हराकर इराक़ के क्षेत्र पर अपना कब्जा बना लिया। इसके बाद से सातवीं सदी तक मुख्य रूप से यह पारसी सासानियों के शासन में ही रही। पश्चिमी पड़ोसी सीरिया से रोमनों ने युद्ध जारी रखा और इस बीच ईसाई धर्म का भी प्रचार हुआ।
इसके बाद जब अरबों का प्रभुत्व बढ़ा (६३० इस्वी) तब यह अरबों के शासन में आ गया। फ़ारस पर भी अरबों का प्रभुत्व हो गया और ७६२ में बग़दाद इस्लामी अब्बासी ख़िलाफ़त की राजधानी बनी। यह क्षेत्र इस्लाम के केन्द्र बन गया। बगदाद में इस्लाम के विद्वानों ने पुस्तकालयों का निर्माण करवाया। इस्लाम का प्रसार हो रहा था और बगदाद का महत्त्व बढ़ता जा रहा था। सभी इस्लामिक प्रदेश, स्पेन से लेकर मध्य एशिया तक, बग़दाद को किसी न किसी रूप में कर देते थे। पर धीरे-धीरे इस्लामिक राज्य स्वायत्त होते गए।
१२५८ में मंगोलों ने बग़दाद पर कब्जा कर लिया। उन्होंने भयंकर नरसंहार किया और पुस्तकालयों को जला दिया। कोई ९०,००० लोग मारे गए और कई इतिहासकार मानते हैं कि इस युद्ध के बाद ही इराक़ के इस हिस्से में खेती का नाश हो गया और जनसंख्या में भारी कमी आ गई। इसके बाद इराक़ पर सन् १४०१ में तैमूर लंग का आक्रमण भी हुआ जिसमें भी कई लोग मारे गए। पंद्रहवीं सदी में इस्तांबुल के उस्मानी (औटोमन) तुर्क तथा अन्या स्थानीय पक्षों के बीच इराक़ के लिए संघर्ष होता रहा।
उस्मानी तुर्कों (ऑटोमन) ने सोलहवीं सदी के अन्त में बग़दाद पर अधिकार किया। इसके बाद फ़ारस के सफ़वी वंश तथा तुर्कों के बीच बग़दाद तथा इराक़ के अन्य हिस्सों के लिए संघर्ष होता रहा। १५०८-३३ कथा १६२२-३८ के काल के अलावा तुर्क अधिक शक्तिशाली निकले। इसी समय नज्द से बेदू आप्रवासियों की संख्या भी बहुत बढ़ी। ईरान के ओर से बाद में, अठारहवीं सदी में, नादिर शाह ने कई बार तुर्कों के खिलाफ़ हमला बोला पर वो भी महत्वपूर्ण शहरों पर कब्जा करने में नाकामयाब रहा। मामलुकों के जॉर्जियाई प्रांतपालों का शासन इराक़ पर बना रहा और उन्होंने स्थानीय विद्रोहों को दबाने में सफलता प्राप्त की। सन् १८३१ में उस्मानी तुर्कों ने मामलुकों पर नियंत्रण पाने में सफलता हासिल की।
प्रथम विश्वयुद्ध में तुर्की, जर्मनी के साथ था और इस तरह इराक़ ब्रिटेन का विरोधी। सन् १९१६-१७ में ब्रिटिश सेना ने, जिसमें भारतीय टुकड़ी भी थी, आरंभिक हारों के बाद बग़दाद पर कब्जा कर लिया। युद्ध में मिली जीत के बाद ब्रिटेन और फ्रांस के बीच पश्चिम एशिया पर शासन के बंटवारे के लिए समझौता हुआ जिसके तहत ब्रिटेन ने इराक़ पर कब्जा बनाए रखा। युद्ध के बाद दिल्ली में बनाए गए इंडिया गेट में भारतीय सैनिकों के मेसोपोटामिया में उपस्थित होने का ज़िक्र मिलता है।
सन् १९३२ में ब्रिटेन ने इराक़ को स्वतंत्र घोषित किया लेकिन इराक़ी मामलों में ब्रितानी हस्तक्षेप बना रहा। १९५८ में हुए एक सैनिक तख्तापलट के कारण यहाँ एक गणतांत्रिक सरकार बनी पर १९६८ में समाजवादी अरब आंदोलन ने इसका अंत कर दिया। इस आंदोलन के प्रमुख नेता रही बाथ पार्टी। इस पार्टी का सिद्धांत देश को दुनिया के नक्शे पर लाना और आधुनिक अरबी इस्लामिक राष्ट्र बनाना था।
सद्दाम हुसैन का स्थान आधुनिक इराक़ी इतिहास में बहुत प्रमुखता से लिया जाता है। उसने बाथ पार्टी के सहारे अपना राजनैतिक सफ़र शुरु किया। उसने पहले तो इराक को एक आधुनिक राष्ट्र बनाने का प्रयत्न किया पर बाद में उसने कुर्दों तथा अन्य लोगों के खिलाफ़ हिंसा भी करवाई। १९७९ में पड़ोसी ईरान में एक इस्लामिक जनतांत्रिक सरकार बनी जो राजशाही के खिलाफ़ विद्रोह के परिणाम स्वरूप बनी थी। यह नई ईरानी शासन व्यवस्था बाथ पार्टी के नए शासक सद्दाम हुसैन के लिए सहज नहीं थी - कयोंकि ईरान में अब शिया शासकों के हाथ सत्ता थी और इराक़ में भी शिया बहुमत (६० %) में थे। सद्दाम और उसकी पार्टी सुन्नी समर्थक थी। अपने सत्ता के तख़्तापलट की साजिश का कारण बताकर सद्दाम ने ईरान के साथ १९८० में एक युद्ध घोषित कर दिया जो ८ सालों तक चला और इसका अंत अनिर्णीत रहा। इसके बाद देश खाड़ी युद्ध में भी उलझा रहा। बाद में अमेरिकी नेतृत्व में नाटो की सेनाओं के २००३ में इराक़ पर चढ़ाई करने के बाद इसे ग़िरफ़्तार कर लिया गया और एक मुकदमे में सद्दाम हुसैन को फ़ांसी की सज़ा मिली। दिसंबर २०११ में आखिरी नैटो सेनाएं देश से कूच कर गईं और इस तरह ८ सालों की विदेशी सैन्य उपस्थिति का अंत हुआ। अभी वहाँ नूरी अल मलिकी के नेतृत्व वाली सरकार है जो शिया बहुल है।
इराक के १८ प्रशासनिक प्रान्त हैं। इन्हें अरबी में मुहाफ़धा और कुर्दी में पारिज़गा कहते हैं। इनका विवरण इस प्रकार है -
<ली>सला अल दीन
<ली> नजफ़ या अन्नजफ़
<ली>अत तमीम (किरकुक)
इनमे से आख़िरी के तीन इराक़ी कुर्दिस्तान में आते हैं जिसका एक अलग प्रशासन है।
यह भी देखिए
इराक का इतिहास
इराक़ के प्रान्त
एशिया के देश
अरब लीग के देश
अरबी-भाषी देश व क्षेत्र |
स्वामी चिन्मयानन्द (८ मई १९१६ - ३ अगस्त 199३) हिन्दू धर्म और संस्कृति के मूलभूत सिद्धान्त वेदान्त दर्शन के एक महान प्रवक्ता थे। उन्होंने सारे भारत में भ्रमण करते हुए देखा कि देश में धर्म संबंधी अनेक भ्रांतियां फैली हैं। उनका निवारण कर शुद्ध धर्म की स्थापना करने के लिए उन्होंने गीता ज्ञान-यज्ञ प्रारम्भ किया और 195३ ई में चिन्मय मिशन की स्थापना की।
स्वामी जी के प्रवचन बड़े ही तर्कसंगत और प्रेरणादायी होते थे। उनको सुनने के लिए हजारों लोग आने लगे। उन्होंने सैकड़ों संन्यासी और ब्रह्मचारी प्रशिक्षित किये। हजारों स्वाध्याय मंडल स्थापित किये। बहुत से सामाजिक सेवा के कार्य प्रारम्भ किये, जैसे विद्यालय, अस्पताल आदि। स्वामी जी ने उपनिषद्, गीता और आदि शंकराचार्य के ३५ से अधिक ग्रंथों पर व्याख्यायें लिखीं। गीता पर लिखा उनका भाष्य सर्वोत्तम माना जाता है।
स्वामी चिन्मयानन्द जी का जन्म ८ मई १९१६ को दक्षिण भारत के केरल प्रान्त में एक संभ्रांत परिवार में हुआ था। उनके बचपन का नाम बालकृष्ण था। उनके पिता न्याय विभाग में एक न्यायाधीश थे। उनकी प्रारम्भिक शिक्षा पाँच वर्ष की आयु में स्थानीय विद्यालय श्री राम वर्मा ब्याज स्कूल में हुई। उनकी मुख्य भाषा अंग्रेजी थी उनकी बुद्धि तीव्र थी और पढ़ने मे होशियार थे। उनकी गिनती आदर्श छात्रों मे थी।
स्कूल की पढ़ाई के बाद बालन ने महाराजा कालेज में प्रवेश लिया। वहाँ भी उनकी पढ़ाई सफलतापूर्वक चली। उस समय एक गरीब बालक शंकर नारायण उनका मित्र बना। वे कालेज में विज्ञान के छात्र थे। जीव विज्ञान, वनस्पति विज्ञान और रसायन शास्त्र उनके विषय थे। यहाँ इण्टर पास कर लेने पर उनके पिता का स्थानान्तरण त्रिचूर के लिए हो गया यहाँ उन्होंने विज्ञान के विषय छोड़ कर कला के विषय ले लिये। इस पढ़ाई में भी उनका अधिक मन नहीं लग रहा था। पिता ने उनके लिए ट्यूशन भी लगाया, किन्तु वह भी कारगर नहीं हुआ। यद्यपि वहाँ से उन्होंने बी. ए पास कर लिया। किन्तु मद्रास विश्व विद्यालय नें उन्हें एम. ए में प्रवेश नहीं दिया। इसलिए उन्हें लखनऊ विश्व विद्यालय जाना पड़ा।
लखनऊ विश्वविद्यालय में बालकृष्ण को एम. ए करने की तथा साथ ही एल. एल.बी की परीक्षा पास करने की स्वीकृति मिल गयी। वहाँ उन्होंने सन १९४० में प्रवेश लिया। अंग्रेजी साहित्य पढ़ने में उन्होंने अपनी रुचि पाई। उसी को पढ़ने में उनका अधिक समय जाता था।
लखनऊ विश्वविद्यालय की पढ़ाई समाप्त करने के बाद बालकृष्ण ने पत्रकारिता का कार्य प्रारम्भ किया। उनके लेख मि. ट्रैम्प के छद्म नाम से प्रकाशित हुए। इन लेखों मे समाज के गरीब और उपेक्षित व्यक्तियों का चित्रण था। एक तरह से ये उस समय के सरकार और धनी पुरुषों का उपहास था।
सन् १९४८ में बालकृष्ण ऋषिकेश पहुँचे। वे देखना चाहते थे कि भारत के सन्त महात्मा कितने उपयोगी अनुपयोगी है। वहाँ पहुंचने पर उन्हें स्वामी शिवानन्द की जानकारी हुई। वे दक्षिण के रहने वाले थे और उनकी भाषा अंग्रेजी थी। इस कारण बालकृष्ण उनके ही आश्रम में जा पहुँचे। वहाँ वे स्वामी जी की स्वीकृति से अन्य आश्रमवासियों के साथ रहने लगे। यद्यपि वे उस समय किसी धार्मिक कृत्य में विश्वास नही रखते थे, किन्तु श्रद्धालु पुरुष की भांति आश्रमवासियों का अनुकरण करते हुए रहने लगे। वे प्रात: काल गंगा जी में स्नान करते, सायंकाल प्रार्थना में सम्मिलित होते और आश्रम के काम भी करते।
इसी समय वे स्वामी शिवानन्द जी से प्रभावित हुए और उनसे संन्यास की दीक्षा ले ली। अब उनका नाम स्वामी चिन्मयानन्द हो गया। वे अपने गुरु से मार्ग - दर्शन पुस्तकालय की एक - एक पुस्तक लेकर अध्ययन करने लगे। दिन भर पढ़ने के लिए पर्याप्त समय रहता। उन दिनों आश्रम में बिजली नहीं थी। इसलिए रात के समय पढ़ने की सुविधा नही थी। स्वामी जी उस समय दिन भर पढ़े हुए विषयों का चिन्तन करते थे। कुछ दिनों बाद उनका अध्ययन गहन हो गया और वे बड़े गम्भीर चिन्तन में व्यस्त रहने लगे।
उनकी यह स्थिति देखकर स्वामी शिवानन्द जी ने उन्हें स्वामी तपोवन जी के पास उपनिषदों का अध्ययन करने के लिए भेज दिया। उन दिनों स्वामी तपोवन महाराज उत्तरकाशी में वाश करते थे। उनके पास रहकर लगभग ८ वर्ष उन्होंने वेदान्त अध्ययन किया। तपोवन जी को कोई जल्दी नहीं थी। वे एक घण्टे नित्य पढ़ाते थे। शेष समय शिष्य मनन - चिन्तन में व्यतीत करता था। यह अध्ययन बौद्धिक तो था ही, किन्तु व्यावहारिक भी था। स्वामी जी को अपनी गुरु के शिक्षा अनुसार संयमी, विरक्त और शान्त रहने का अभ्यास करना होता था। इसके परिणामस्वरूप, स्वामी जी का स्वभाव बिल्कुल बदल गया। जीवन और जगत् के प्रति उनकी धारणा बदल गई।
स्वामी चिन्मयानन्द जी ने अपना भौतिक शरीर ३ अगस्त 199३ ई. को अमेरिका के सेन डियागो नगर में त्याग दिया।
अध्ययन समाप्त करने के बाद स्वामी जी के मन मे लोक सेवा करने का विचार प्रबल होने लगा। तपोवन जी से स्वीकृति पाकर वे दक्षिण भारत की ओर चले और पूना पहुँचे। वहाँ उन्होंने अपना प्रथम ज्ञान यज्ञ किया। यह एक प्रकार का नया प्रयोग था। प्रारम्भ में श्रोताओं की संख्या चार या छह ही था। वह धीरे धीरे बढ़ने लगी। लगभग एक महीने के ज्ञान यज्ञ के बाद वे मद्रास चले गये और वहाँ दूसरा ज्ञान यज्ञ प्रारम्भ किया। इन यज्ञों में स्वामी जी स्वयं प्रचार करते थे और स्वयं यज्ञ करते थे। कुछ समय बाद ही उनके सहायक तैयार हुए और फिर उसने एक संस्था का रूप ले लिया। धीरे - धीरे उनके प्रवचनों की माँग बढ़ने लगी। स्वामी जी ने भी ज्ञान - यज्ञ का समय एक महीने से घटाकर पंद्रह दिन या फिर और फिर दस दिन या सात दिन कर दिया।
पहले ये ज्ञान-यज्ञ भारत के बड़े शहरों में हुए, फिर छोटे शहरों में। कुछ समय बाद स्वामी जी विदेश भी जाने लगे.अब इन यज्ञों की इतनी अधिक माँग हुई कि उसे एक व्यक्ति द्वारा पूरा करना असम्भव हो गया। इसलिए स्वामी जी ने बम्बई सान्दीपनी की स्थापना की और ब्रह्मचारियों को प्रशिक्षित करना प्रारम्भ किया। दो तिन वर्ष पढ़ने के बाद ब्रह्मचारी छोटे यज्ञ करने लगे, स्वाध्याय मंडल चलाने लगे और अनेक प्रकार के सेवा कार्य करने लगे।
इस समय देश में १७५ केन्द्र और विदेशों में लगभग ४० केन्द्र कार्य कर रहे है। इन केन्द्रों पर लगभग १५० स्वामी एवं ब्रह्मचारी कार्य में लगे है। यह संख्या हर वर्ष बढ़ रही है।
इन्हें भी देखें
स्वामी चिन्मयानन्द एक विलक्षण व्यक्ति (रांची एक्सप्रेस)
हिन्दू आध्यात्मिक नेता
१९१६ में जन्मे लोग |
पणजी (पणजी) भारत के गोवा राज्य की राजधानी और उत्तर गोवा ज़िले का मुख्यालय है। प्रशासनिक रूप से यह तिस्वाड़ी तालुका में स्थित है। पणजी मांडवी नदी के ज्वारनदीमुख पर बसा हुआ है। पणजी वास्को द गामा और मडगाँव के बाद गोवा का सबसे बड़ तीसरा शहर है।
पणजी मांडोवी नदी के बाएँ किनारे पर एक छोटे और आकर्षक शहर है। यह लैटिन शैली में निर्मित है और इसमें लाल छत वाले मकान, आधुनिक घर, अच्छी तरह से रखे उद्यान, मूर्तियाँ दिखती हैं। सड़को के किनारे गुलमोहर, अकेशिया और अन्य पेड़ हैं। मुख्य चौराहे, बारोक शैली की वास्तुकला, पहाड़ों पर लगी सीढ़ियाँ, उपलिका (कोबलस्टोन) से बनी सड़कें और गिरजे पणजी को एक पुर्तगाली माहौल देते हैं।
पणजी का अर्थ है, "वह भूमि जहाँ बाढ़ कभी नहीं होती"। आरम्भ में पुर्तगाली नाम "पांजीम" था, जिसे अंग्रेज़ी में पंजिम कहा जाता था। १९६० के दशक के बाद इसकी "पणजी" के रूप में वर्तनी की गई। स्थानीय कोंकणी भाषा में इसे पोणजिम (पोन्न्जिम) कहा जाता है।
सन् १८४३ तक यह एक छोटा सा गाँव था। उस समय गोवा और पुर्तगाली भारत की राजधानी उस स्थान पर थी जो आज पुराना गोवा कहलाता है। पुराने गोवा में प्लेग के प्रकोप से बहुत तबाही मची और १८४३ में उपनिवेशी सरकार को उसे छोड़ना पड़ा। तब पणजी राजधानी बना। सन् १९६१ में गोवा मुक्ति संग्राम के अंतर्गत भारत ने ऑपरेशन विजय नामक सैन्य हस्तक्षेप में गोवा से पुर्तगाली सरकार को हटा दिया और उसे फिर भारत में विलय कर लिया। १९६१ से १९८७ तक पणजी गोवा, दमन और दीव नामक केन्द्रशासित प्रदेश की राजधानी रहा। १९८७ में गोवा को राज्य का दर्जा दिया गया और तक से पणजी उस राज्य की राजधानी है। एक नई विधानसभा परिसर का मार्च २००० में मांडवी नदी के पार आल्तो पोरवोरिम में उद्घाटन किया गया।
२०११ की भारत की जनगणना के अनुसार पणजी की कुल आबादी ११४,४०५ थी, जिसमें से ५२% पुरुष और ४८% स्त्रियाँ थी। कुल साक्षरता दर ९०.९% था - पुरुषों का ९4.६% और स्त्रियों का 8६.९%। आबादी का ९.६% अंश ७ वर्ष से कम के बच्चे थे।
पणजी का मौसम गर्मी में गरम और जाड़ों में अच्छा है। गर्मियों में मार्च से मई तक तापमान ३२ सेल्सियस और सर्दियों में नवम्बर से फरवरी तक ३१ सेल्सियस से २३ सेल्सियस के बीच रहता है। जून से सितम्बर में मॉनसून के दौरान भारी वर्षा और तेज़ हवाएँ चलती हैं। वार्षिक औसत वर्षण २,9३२ मिलिमीटर (११५.४३ इंच) होती है।
शहर के बीच में प्रासा दा इग्रेजा नामक चौक है, जिसमें नगर उद्यान है और पुर्तगाली बारोक शैली का गिरजा है, जिसका निर्माण मूल रूप से १५४१ में हुआ था। अन्य पर्यटक आकर्षणों में पुनर्निर्मित सोलहवी शताब्दी का आदिलशाही महल, , इंस्टिट्यूट मेनेज़ेस ब्रगान्ज़ा, सेंट सेबैस्टेन का गिरजा और फोन्टेन्हास क्षेत्र है (जिसे लैटिन क्वारटर भी कहा जाता है)। समीप ही सागर से सटा मिरामर बालूतट (बीच) है। २१ अगस्त २०११ तक यहाँ डोन बोस्को ओरेटरी में जॉन बोस्को नामक ईसाई पादरी की अस्तियाँ रखी जाती थी। दादा वैद्य मार्ग पर महालक्ष्मी मन्दिर है, जिसका आदर सभी धर्मों के स्थानीय निवासी करते हैं और जो नगर का एक मुख्य आकर्षण है।
फरवरी में यहाँ कार्निवाल मनाया जाता है, जिसमें एक भव्य परेड सड़कों पर निकाली जाती है। उसके बाद शिग्मो (होली) का पर्व आता है। दिवाली की रात से पहले नरकासुर परेड भी भव्य होती है।
इन्हें भी देखें
उत्तर गोवा ज़िला
उत्तर गोवा ज़िला
गोवा के नगर
उत्तर गोवा ज़िले के नगर
उत्तर गोवा ज़िले में पर्यटन आकर्षण
भारत के तटीय वासस्थान
भारत में बंदरगाह नगर |
जामनगर (जामनगर) भारत के गुजरात राज्य के जामनगर ज़िले में स्थित एक ऐतिहासिक नगर है। यह ज़िले का मुख्यालय है और एक महत्वपूर्ण औद्योगिक केन्द्र है। जामनगर अरब सागर से लगा कच्छ की खाड़ी के दक्षिण में स्थित है।
जामनगर का निर्माण जामसाहेब ने १५४० में करवाया था। अब यह गुजरात के जामनगर ज़िले का प्रशासनिक मुख्यालय है।
यातायात और परिवहन
जमनगर शहर सड़क, रेल और वायुमार्ग से जुड़ा हुआ है।
उद्योग और व्यापार
सीमेंट, मिट्टी के बर्तन, वस्त्र और नमक यहाँ के प्रमुख औद्योगिक उत्पाद हैं। यह शहर बांधनी कला, जरी की कढ़ाई और धातुकर्म के लिए प्रसिद्ध है। जामनगर रिफ़ाइनरी भारत और विश्व की सबसे बड़ी तेल रिफ़ाइनरी है। यहाँ प्रति दिन १.२४ मिलियन बैरल तय्यार होता है। इसका स्वामित्व रिलायंस इंड्स्ट्रीज़ के पास है। ब्रासपार्ट उद्योग।
यहाँ के शैक्षणिक संस्थानों में दोषी कालीदास आर्ट ऐंड साइंस कॉलेज, गवर्नमेंट डेंटल कॉलेज, एम. पी. शाह मेडिकल कॉलेज, एम. पी. कॉमर्स कॉलेज और वी. एम. मेहता कॉलेज ऑफ़ कॉमर्स ऐंड आर्ट्स शामिल हैं। यहाँ गुजरात आयुर्वेद विश्वविद्यालय भी स्थित है। जामनगर में देश का एकमात्र आयुर्वेदिक महाविद्यालय अपनी टाई एण्ड डाई (बन्धानी) कला के लिए भी प्रसिद्ध है।
पर्यटन की दृष्टि से जामनगर में लकोटा संग्रहालय, डॉ॰ अम्बेडकर उद्यान, काली मंदिर, जैन मंदिर, श्री कृष्ण प्रणामी संप्रदायका मूल स्थान श्री ५ नवतनपुरी धाम-खीजडा मंदिर, श्री स्वामी नारायण मंदिर, माणिक भाई मुक्ति धाम, शाही महल, प्रताप विलास आदि दर्शनीय हैं। जामनगर के बीचोंबीच एक सुंदर झील है, साथ ही दो भव्य प्राचीन इमारतें कोठा बैस्टिऑन और लखौटा स्थित हैं, जहाँ सिर्फ पत्थर के पुल द्वारा ही पहुँचा जा सकता है। कई ऐतिहासिक मंदिरों और महलों के साथ-साथ शहर में आधुनिक कारख़ाने, अस्तपताल और आवासीय क्षेत्र भी हैं। जामनगर में ही देश का प्रथम व विश्व का द्वितीय सोलर चिकित्सालय सोलेरियम है। महाराज रणजीतसिंह द्वारा स्थापित इस अस्पताल में सूर्य की किरणों के द्वारा उपचार किया जाता है।
२००१ की जनगणना के अनुसार इस शहर की जनसंख्या ४,४7,73४ है।
इन्हें भी देखें
गुजरात के शहर
जामनगर ज़िले के नगर |
सिक्किम ( (या, सिखिम) भारत के पूर्वोत्तर भाग में स्थित एक पर्वतीय राज्य है। अंगूठे के आकार का यह राज्य पश्चिम में नेपाल, उत्तर तथा पूर्व में चीनी तिब्बत स्वायत्त क्षेत्र तथा दक्षिण-पूर्व में भूटान से लगा हुआ है। भारत का पश्चिम बंगाल(बङ्गाल) राज्य इसके दक्षिण में है। अंग्रेजी, गोर्खा खस भाषा, लेप्चा, भूटिया, लिम्बू तथा हिंदी आधिकारिक भाषाएँ हैं। हिन्दू तथा बज्रयान बौद्ध धर्म सिक्किम के प्रमुख धर्म हैं। गंगटोक(गङ्गटोक) राजधानी तथा सबसे बड़ा शहर है।
सिक्किम नाम ग्याल राजतन्त्र द्वारा शासित एक स्वतन्त्र राज्य था, परन्तु प्रशासनिक समस्यायों के चलते तथा भारत में विलय और जनमत के कारण १९७५ में एक जनमत-संग्रह(सङ्ग्रह) के साथ भारत में इसका विलय हो गया। उसी जनमत संग्रह(सङ्ग्रह) के पश्चात राजतन्त्र का अन्त तथा भारतीय संविधान की नियम-प्रणाली के ढाँचें में प्रजातन्त्र का उदय हुआ।
सिक्किम की जनसंख्या भारत के राज्यों में न्यूनतम तथा क्षेत्रफल गोआ के पश्चात न्यूनतम है। अपने छोटे आकार के बावजूद सिक्किम भौगोलिक दृष्टि से काफी विविधतापूर्ण है। कञ्चनजञ्गा जो कि दुनिया की तीसरी सबसे ऊँची चोटी है, सिक्किम के उत्तरी पश्चिमी भाग में नेपाल की सीमा पर है और इस पर्वत चोटी को प्रदेश के कई भागो से आसानी से देखा जा सकता है। साफ सुथरा होना, प्राकृतिक सुन्दरता पुची एवम् राजनीतिक स्थिरता आदि विशेषताओं के कारण सिक्किम भारत में पर्यटन का प्रमुख केन्द्र है। सिक्किम में एक बार आए आपका रोम रोम रोमांचित हो जायेगा
नाम का मूल
बौद्ध भिक्षु गुरु रिन्पोचे (पद्मसंभव) का ८वीं सदी में सिक्किम दौरा यहाँ से सम्बन्धित सबसे प्राचीन विवरण है। अभिलेखित है कि उन्होंने बौद्ध धर्म का प्रचार किया, सिक्किम को आशीष दिया तथा कुछ सदियों पश्चात आने वाले राज्य की भविष्यवाणी की। मान्यता के अनुसार १४वीं सदी में ख्ये बुम्सा, पूर्वी तिब्बत में खाम के मिन्यक महल के एक राजकुमार को एक रात दैवीय दृष्टि के अनुसार दक्षिण की ओर जाने का आदेश मिला। इनके ही वंशजों ने सिक्किम में राजतन्त्र की स्थापना की। १६४२ ईस्वी में ख्ये के पाँचवें वंशज फुन्त्सोंग नामग्याल को तीन बौद्ध भिक्षु, जो उत्तर, पूर्व तथा दक्षिण से आये थे, द्वारा युक्सोम में सिक्किम का प्रथम चोग्याल (राजा) घोषित किया गया। इस प्रकार सिक्किम में राजतन्त्र का आरम्भ हुआ।
फुन्त्सोंग नामग्याल के पुत्र, तेन्सुंग नामग्याल ने उनके पश्चात १६७० में कार्य-भार संभाला। तेन्सुंग ने राजधानी को युक्सोम से रबदेन्त्से स्थानान्तरित कर दिया। सन १७०० में भूटान में चोग्याल की अर्ध-बहन, जिसे राज-गद्दी से वंचित कर दिया गया था, द्वारा सिक्किम पर आक्रमण हुआ। तिब्बतियों की सहयता से चोग्याल को राज-गद्दी पुनः सौंप दी गयी। १७१७ तथा १७३३ के बीच सिक्किम को नेपाल तथा भूटान के अनेक आक्रमणों का सामना करना पड़ा जिसके कारण रबदेन्त्से का अन्तत:पतन हो गया।
१७९१ में चीन ने सिक्किम की मदद के लिये और तिब्बत को गोरखा से बचाने के लिये अपनी सेना भेज दी थी। नेपाल की हार के पश्चात, सिक्किम किंग वंश का भाग बन गया। पड़ोसी देश भारत में ब्रतानी राज आने के बाद सिक्किम ने अपने प्रमुख दुश्मन नेपाल के विरुद्ध उससे हाथ मिला लिया। नेपाल ने सिक्किम पर आक्रमण किया एवं तराई समेत काफी सारे क्षेत्रों पर कब्जा कर लिया। इसकी वज़ह से ईस्ट इंडिया कम्पनी ने नेपाल पर चढ़ाई की जिसका परिणाम १८१४ का गोरखा युद्ध रहा।
सिक्किम और नेपाल के बीच हुई सुगौली संधि तथा सिक्किम और ब्रतानवी भारत के बीच हुई तितालिया संधि के द्वारा नेपाल द्वारा अधिकृत सिक्किमी क्षेत्र सिक्किम को वर्ष १८१७ में लौटा दिया गया। यद्यपि, अंग्रेजों द्वारा मोरांग प्रदेश में कर लागू करने के कारण सिक्किम और अंग्रेजी शासन के बीच संबंधों में कड़वाहट आ गयी। वर्ष १८४९ में दो अंग्रेज़ अफसर, सर जोसेफ डाल्टन और डाक्टर अर्चिबाल्ड कैम्पबेल, जिसमें उत्तरवर्ती (डाक्टर अर्चिबाल्ड) सिक्किम और ब्रिटिश सरकार के बीच संबंधों के लिए जिम्मेदार था, बिना अनुमति अथवा सूचना के सिक्किम के पर्वतों में जा पहुंचे। इन दोनों अफसरों को सिक्किम सरकार द्वारा बंधी बना लिया गया। नाराज ब्रिटिश शासन ने इस हिमालयी राज्य पर चढाई कर दी और इसे १८३५ में भारत के साथ मिला लिया। इस चढाई के परिणाम वश चोग्याल ब्रिटिश गवर्नर के अधीन एक कठपुतली राजा बन कर रह गया।
१९४७ में एक लोकप्रिय मत द्वारा सिक्किम का भारत में विलय को अस्वीकार कर दिया गया और तत्कालीन भारतीय प्रधान मंत्री जवाहर लाल नेहरू ने सिक्किम को संरक्षित राज्य का दर्जा प्रदान किया। इसके तहत भारत सिक्किम का संरक्षक हुआ। सिक्किम के विदेशी, राजनयिक अथवा सम्पर्क संबन्धी विषयों की ज़िम्मेदारी भारत ने संभाल ली।
सन १९५५ में एक राज्य परिषद् स्थापित की गई जिसके अधीन चोग्याल को एक संवैधानिक सरकार बनाने की अनुमति दी गई। इस दौरान सिक्किम नेशनल काँग्रेस द्वारा पुनः मतदान और नेपालियों को अधिक प्रतिनिधित्व की मांग के चलते राज्य में गडबडी की स्थिति पैदा हो गई। १९७३ में राजभवन के सामने हुए दंगो के कारण भारत सरकार से सिक्किम को संरक्षण प्रदान करने का औपचारिक अनुरोध किया गया। चोग्याल राजवंश सिक्किम में अत्यधिक अलोकप्रिय साबित हो रहा था। सिक्किम पूर्ण रूप से बाहरी दुनिया के लिये बंद था और बाह्य विश्व को सिक्किम के बारे मैं बहुत कम जानकारी थी। यद्यपि अमरीकन आरोहक गंगटोक के कुछ चित्र तथा अन्य कानूनी प्रलेख की तस्करी करने में सफल हुआ। इस प्रकार भारत की कार्यवाही विश्व के दृष्टि में आई। यद्यपि इतिहास लिखा जा चुका था और वास्तविक स्थिति विश्व के तब पता चला जब काजी (प्रधान मंत्री) नें १९७५ में भारतीय संसद को यह अनुरोध किया कि सिक्किम को भारत का एक राज्य स्वीकार कर उसे भारतीय संसद में प्रतिनिधित्व प्रदान किया जाए। अप्रैल १९७५ में भारतीय सेना सिक्किम में प्रविष्ट हुई और राजमहल के पहरेदारों को निःशस्त्र करने के पश्चात गंगटोक को अपने कब्जे में ले लिया। दो दिनों के भीतर सम्पूर्ण सिक्किम राज्य भारत सरकार के नियंत्रण में था। सिक्किम को भारतीय गणराज्य में सम्मिलित्त करने का प्रश्न पर सिक्किम की ९७.५ प्रतिशत जनता ने समर्थन किया। कुछ ही सप्ताह के उपरांत १६ मई १९७५ में सिक्किम औपचारिक रूप से भारतीय गणराज्य का २२ वां प्रदेश बना और सिक्किम में राजशाही का अंत हुआ। सिक्किम सन १६४२ में वजूद में आया, जब फुन्त्सोंग नाम्ग्याल को सिक्किम का पहला चोग्याल(राजा) घोषित किया गया. नामग्याल को तीन बौद्ध भिक्षुओं ने राजा घोषित किया था। इस तरीके से सिक्किम में राजतन्त्र का की शुरुआत हुई. जिसके बाद नाम्ग्याल राजवंश ने ३३३ सालों तक सिक्किम पर राज किया.
१९७५ में बना राज्य
भारत ने १९४७ में स्वाधीनता प्राप्त की। इसके बाद पूरे देश में सरदार वल्लभभाई पटेल के नेतृत्व में अलग-अलग रियासतों का भारत में विलय किया गया। इसी क्रम में ६ अप्रैल, १९७५ की सुबह सिक्किम के चोग्याल को अपने राजमहल के द्वार के बाहर भारतीय सैनिकों के ट्रकों की आवाज़ सुनाई दी।भारतीय सेना ने राजमहल को चारों दिशा से घेर रखा था। सेना ने राजमहल पर उपस्थित २४३ सैनिकों पर तुरंत नियंत्रण प्राप्त किया और सिक्किम की स्वतंत्रता की समाप्ति हो गयी। इसके बाद चोग्याल को उनके महल में ही नज़रबंद कर दिया गया।
इसके बाद सिक्किम में जनमत संग्रह कराया गया।जनमत संग्रह में ९७.५ प्रतिशत लोगों ने भारत के साथ जाने का मत रखा। जिसके बाद सिक्किम को भारत का २२वां राज्य बनाने का ३६वा संविधान संशोधन विधेयक २३ अप्रैल, 1९७५ को लोकसभा में पेश किया गया.श उसी दिन इसे २९९-११ के मत से पास कर दिया गया। वहीं राज्यसभा में यह बिल २६ अप्रैल को पास हुआ और 1५ मई, 1९७५ को जैसे ही राष्ट्रपति फ़ख़रुद्दीन अली अहमद ने इस बिल पर हस्ताक्षर किए, नाम्ग्याल राजवंश का शासन समाप्त हो गया.
वर्ष २००२ में चीन को एक बड़ी लज्जा का सामना तब करना पड़ा जब सत्रहवें कर्मापा उर्ग्यें त्रिन्ले दोरजी, जिन्हें चीनी सरकार एक लामा घोषित कर चुकी थी, एक नाटकीय अंदाज में तिब्बत से भाग कर सिक्किम की रुम्तेक मठ में जा पहुंचे। चीनी अधिकारी इस धर्मसंकट में जा फँसे कि इस बात का विरोध भारत सरकार से कैसे करें। भारत से विरोध करने का अर्थ यह निकलता कि चीनी सरकार ने प्रत्यक्ष रूप से सिक्किम को भारत के अभिन्न अंग के रूप में स्वीकार लिया है।
चीनी सरकार की अभी तक सिक्किम पर औपचारिक स्थिति यह थी कि सिक्किम एक स्वतंत्र राज्य है जिस पर भारत नें अधिक्रमण कर रख्खा है।
चीन ने अंततः सिक्किम को २००३ में भारत के एक राज्य के रूप में स्वीकार किया जिससे भारत-चीन संबंधों में आयी कड़वाहट कुछ कम हुई। बदले में भारत नें तिब्बत को चीन का अभिन्न अंग स्वीकार किया।
भारत और चीन के बीच हुए एक महत्वपूर्ण समझौते के अनुसार चीन ने एक औपचारिक मानचित्र जारी किया जिसमें सिक्किम को स्पष्ट रूप में भारत की सीमा रेखा के भीतर दिखाया गया। इस समझौते पर चीन के प्रधान मंत्री वेन जियाबाओ और भारत के प्रधान मंत्री मनमोहन सिंह ने हस्ताक्षर किया। ६ जुलाई २००६ को हिमालय के नाथुला दर्रे को सीमावर्ती व्यापार के लिए खोल दिया गया जिससे यह संकेत मिलता है कई इस क्षेत्र को लेकर दोनों देशों के बीच सौहार्द का भाव उत्पन्न हुआ है।
अंगूठे के आकार का सिक्किम पूरा पर्वतीय क्षेत्र है। विभिन्न स्थानों की ऊँचाई समुद्री तल से २८० मीटर (९२० फीट) से ८,५८५ मीटर (२८,००० फीट) तक है। कंचनजंगा यहाँ की सबसे ऊंची चोटी है। प्रदेश का अधिकतर भाग खेती। कृषि के लिये अन्युपयुक्त है। इसके बावजूद कुछ ढलान को खेतों में बदल दिया गया है और पहाड़ी पद्धति से खेती की जाती है। बर्फ से निकली कई धारायें मौजूद होने के कारण सिक्किम के दक्षिण और पश्चिम में नदियों की घाटियाँ बन गईं हैं। यह धारायें मिलकर तीस्ता एवं रंगीत बनाती हैं। टीस्ता को सिक्किम की जीवन रेखा भी कहा जाता है और यह सिक्किम के उत्तर से दक्षिण में बहती है। प्रदेश का एक तिहाई भाग घने जंगलों से घिरा है।
हिमालय की ऊँची पर्वत श्रंखलाओं ने सिक्किम को उत्तरी, पूर्वी और पश्चिमी दिशाओं में अर्धचन्द्राकार। अर्धचन्द्र में घेर रखा है। राज्य के अधिक जनसंख्या वाले क्षेत्र अधिकतर राज्य के दक्षिणी भाग मे, हिमालय की कम ऊँचाई वाली श्रंखलाओं में स्थित हैं। राज्य में अट्ठाइस पर्वत चोटियाँ, इक्कीस हिमानी, दो सौ सत्ताईस झीलें। झील (जिनमे चांगु झील, गुरुडोंग्मार झील और खेचियोपल्री झीलें। खेचियोपल्री झीले शामिल हैं), पाँच गर्म पानी के चश्मे। गर्म पानी का चश्मा और सौ से अधिक नदियाँ और नाले हैं। आठ पहाड़ी दर्रे सिक्किम को तिब्बत, भूटान और नेपाल से जोड़ते हैं।
सिक्किम की पहाड़ियाँ मुख्यतः नेस्ती(ग्नेइज़ओस) और अर्द्ध-स्कीस्तीय(हाफ-स्किस्तोज) पत्थरों से बनी हैं, जिस कारण उनकी मिट्टी भूरी मृत्तिका, तथा मुख्यतः उथला और कमज़ोर है। यहाँ की मिटटी खुरदरी तथा लौह जारेय से थोड़ी अम्लीय है। इसमें खनिजी और कार्बनिक पोषकों का अभाव है। इस तरह की मिट्टी सदाबहार और पर्णपाती वनों के योग्य है।
सिक्किम की भूमि का अधिकतर भाग केम्ब्रिया-पूर्व(प्रिकेम्ब्रिअन) चट्टानों से आवृत है जि आयु पहाड़ों से बहुत कम है। पत्थर फ़िलीतियों। फ़िलीत(फिलीट) और स्कीस्त से बने हैं इस कारणवश यहां की ढलान बहुत तीक्ष्ण है वेथरिंग और अपरदन ज़्यादा है।.जो कि बहुत अधिक मात्रा में बारिश का कारण और बहुत अधिक मृदा अपरदन जिससे मृदा के पोषक तत्वों का भारी नुक़सान होता है। इस के परिणाम स्वरूप यहां आये दिन भूस्खलन होते रहते हैं, जो बहुत से छोटे गावों और कस्बों का शहरी इलाकों से संपर्क विछ्छेद कर देते हैं।
गरम पानी के झरने
सिक्किम में गरम पानी के अनेक झरने हैं जो अपनी रोगहर क्षमता के लिये विख्यात हैं। सबसे महत्वपूर्ण गरम पानी के झरने फुरचाचु, युमथांग, बोराँग, रालांग, तरमचु और युमी सामडोंग हैं। इन सभी झरनों में काफी मात्रा में सल्फर पाया जाता है और ये नदी के किनारे स्थित हैं। इन गरम पानी के झरनों का औसत तापमान ५०च (सेल्सियस) तक होता है।
यहाँ का मौसम जहाँ दक्षिण में शीतोष्ण कटिबंधी है तो वहीं टुंड्रा प्रदेश के मौसम की तरह है। यद्यपि सिक्किम के अधिकांश आवासित क्षेत्र में, मौसम समशीतोष्ण (टैंपरेट) रहता है और तापमान कम ही २८सै (८२फै) से ऊपर यां ०सै (३२फै) से नीचे जाता है। सिक्किम में पांच ऋतुएं आती हैं: सर्दी, गर्मी, बसंत और पतझड़ और वर्षा, जो जून और सितंबर के बीच आती है। अधिकतर सिक्किम में औसत तापमान लगभग १८सै (६४फै) रह्ता है। सिक्किम भारत के उन कुछ ही राज्यों में से एक है जिनमे यथाक्रम वर्षा होती है। हिम रेखा लगभग ६००० मीटर (१९६०० फीट) है।
मानसून के महीनों में प्रदेश में भारी वर्षा होती है जिससे काफी संख्या में भूस्खलन होता है। प्रदेश में लगातार बारिश होने का कीर्तिमान ११ दिन का है। प्रदेश के उत्तरी क्षेत्र में शीत ऋतु में तापमान -४० च से भी कम हो जाता है। शीत ऋतु एवं वर्षा ऋतु में कोहरा भी जन जीवन को प्रभावित करता है जिससे परिवहन काफी कठिन हो जाता है।
सिक्किम में चार जनपद हैं। प्रत्येक जनपद (जिले) को केन्द्र अथवा राज्य सरकार द्वारा नियुक्त जिलाधिकारी देखता है। चीन की सीमा से लगे होने के कारण अधिकतर क्षेत्रों में भारतीय सेना का बाहुल्य दिखाई देता है। कई क्षेत्रों में प्रवेश निषेध है और लोगों को घूमने के लिये परमिट लेना पड़ता है। सिक्किम में कुल आठ कस्बे एवं नौ उप-विभाग हैं।
यह चार जिले पूर्व सिक्किम, पश्चिम सिक्किम, उत्तरी सिक्किम एवं दक्षिणी सिक्किम हैं जिनकी राजधानियाँ क्रमश: गंगटोक, गेज़िंग, मंगन एवं नामची हैं। यह चार जिले पुन: विभिन्न उप-विभागों में बाँटे गये हैं। "पकयोंग" पूर्वी जिले का, "सोरेंग" पश्चिमी जिले का, "चुंगथांग" उत्तरी जिले का और "रावोंगला" दक्षिणी जिले का उपविभाग है।
जीव-जन्तु एवं वनस्पति
सिक्किम हिमालय के निचले हिस्से में पारिस्थितिक गर्मस्थान में भारत के तीन पारिस्थितिक क्षेत्रों में से एक बसा हुआ है। यहाँ के जंगलों में विभिन्न प्रकार के जीव जंतु एवं वनस्पतियाँ पाई जाती हैं। अलग अलग ऊँचाई होने की वज़ह से यहाँ ट्रोपिकल, टेम्पेरेट, एल्पाइन और टुन्ड्रा तरह के पौधे भी पाये जाते हैं। इतने छोटे से इलाके में ऐसी भिन्नता कम ही जगहों पर पाई जाती है।
सिक्किम के वनस्पति में उपोष्णकटिबंधीय से अल्पाइन क्षेत्रों से होने वाली प्रजातियों की एक बड़ी शृंखला के साथ रोडोडेंड्रॉन, राज्य पेड़ शामिल है। सिक्किम की निचली ऊँचाई में ऑर्किड, अंजीर, लॉरेल, केला, साल के पेड़ और बांस, जो उप-उष्णकटिबंधीय प्रकार के वातावरण में पनपते हैं। १,५०० मीटर से ऊपर समशीतोष्ण ऊँचाई में, ओक्स, मैपल, बर्च, अल्डर, और मैग्नीओली बड़ी संख्या में बढ़ते हैं। अल्पाइन प्रकार की वनस्पति में जूनिपर, पाइन, एफआईआर, साइप्रस और रोडोडेंड्रॉन शामिल हैं, और आमतौर पर ३,५०० मीटर से ५,००० मीटर की ऊँचाई के बीच पाए जाते हैं। सिक्किम में करीब ५,००० फूल पौधे हैं, ५१५ दुर्लभ ऑर्किड, ६० प्राइम्युलस प्रजातियां, ३6 रोडोडेंड्रॉन प्रजातियां, ११ ओक्स किस्मों, 2३ बांस की किस्में, १6 शंकुधारी प्रजातियां, ३62 प्रकार के फर्न और फर्न सहयोगी, ८ पेड़ के फर्न, और ४२४ औषधीय पौधों है। आर्किड डेंडरोबियम नोबाइल सिक्किम का आधिकारिक फूल है।
जीवों में हिमालयी काला भालू,पहाड़ी तेंदुए, कस्तूरी हिरण, भोरल, हिमालयी ताहर, लाल पांडा, हिमालयी मार्मॉट, सीरो, गोरल, भौंकने वाला हिरण, आम लंगूर, बादलों का तेंदुआ, पत्थरदार बिल्ली, तेंदुए बिल्ली, जंगली कुत्ता, तिब्बती भेड़िया, हॉग बैजर, बिंटूरोंग, जंगल बिल्ली और सिवेट बिल्ली। अल्पाइन ज़ोन में अधिक सामान्यतः पाए जाने वाले जानवरों का मुख्य रूप से उनके दूध, मांस और बोझ उठाने वाले जानवर के रूप में पालन किया जाता है।
वृहत् अर्थव्यवस्थासंबंधी प्रवाह
यह सांख्यिकी एवं कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय द्वारा जारी सिक्किम के सकल घरेलू उत्पाद के प्रवाह की एक झलक है (करोड़ रुपयों में)
२००४ के आँकड़ों के अनुसार सिक्किम का सकल घरेलू उत्पाद $४७८ मिलियन होने का अनुमान लगाया गया है।
सिक्किम एक कृषि प्रधान। कृषि राज्य है और यहाँ सीढ़ीदार खेतों में पारम्परिक पद्धति से कृषि की जाती है। यहाँ के किसान इलाईची, अदरक, संतरा, सेब, चाय और पीनशिफ आदि की खेती करते हैं।चावल राज्य के दक्षिणी इलाकों में सीढ़ीदार खेतों में उगाया जाता है। सम्पूर्ण भारत में इलाईची की सबसे अधिक उपज सिक्किम में होती है। पहाड़ी होने के बावजूद यहाँ पर बहुत औद्योगिक इकाइयां है। ज्यादातर दवा उद्योग । जैसे सन फार्मा। आदि। यहाँ उद्योग तेज़ी से पनप रहे है भारत के कई राज्यो से लोग यहाँ नौकरी के लिए आते है।मद्यनिर्माणशाला, मद्यनिष्कर्षशाला, चर्म-उद्योग तथा घड़ी-उद्योग सिक्किम के मुख्य उद्योग हैं। यह राज्य के दक्षिणी भाग में स्थित हैं- मुख्य रूप से मेल्ली और जोरेथांग नगरों में। राज्य में विकास दर ८.३% है, जो दिल्ली के पश्चात राष्ट्र भर में सर्वाधिक है।
हाल के कुछ वर्षों में सिक्किम की सरकार ने प्रदेश में पर्यटन को बढ़ावा देना प्रारम्भ किया है। सिक्किम में पर्यटन का बहुत संभावना है और इन्हीं का लाभ उठाकर सिक्किम की आय में अप्रत्याशित वृद्धि हुई है। आधारभूत संरचना में सुधार के चलते, यह उपेक्षा की जा रही है पर्यटन राज्य में अर्थव्यवस्था के एक मुख्य आधार के रूप में सामने आयेगा। ऑनलाइन सट्टेबाजी राज्य में एक नए उद्योग के रूप में उभर कर आया है। "प्लेविन" जुआ, जिसे विशेष रूप से तैयार किए गए अंतकों पर खेला जाता है, को राष्ट्र भर में खूब वाणिज्यिक सफलता हासिल हुई है। राज्य में प्रमुख रूप से ताम्बा, डोलोमाइट, चूना पत्थर, ग्रेफ़ाइट, अभ्रक, लोहा और कोयला आदि खनिजों का खनन किया जाता है।
जुलाई ६, २००६ को नाथूला दर्रा, जो सिक्किम को ल्हासा, तिब्बत से जोड़ता है, के खुलने से यह आशा जतायी जा रही है कि इससे सिक्किम की अर्थव्यवस्था को बढ़ावा मिलेगा, भले वे धीरे-धीरे ही देखने को मिलें। यह दर्रा, जो १९६२ में १९६२ भारत-चीन युद्ध। भारत-चीन युद्ध के पश्चात बंद कर दिया गया था, प्राचीन रेशम मार्ग का एक हिस्सा था और ऊन, छाल और मसालों। मसाला के व्यापार में सहायक था।
सिक्किम में कठिन भूक्षेत्र के कारण कोई हवाई अड्डा नहीं था पर अभी एक हवाई अड्डा बन गया है। अथवा रेल स्टेशन नहीं है। समीपतम दूसरा हवाईअड्डा। बागडोगरा हवाई अड्डा है। यह हवाईअड्डा गंगटोक से १२४ कि०मी० दूर है। गंगटोक से बागदोगरा के लिये सिक्किम हेलीकॉप्टर सर्विस द्वारा एक हेलीकॉप्टर सेवा उपलब्ध है जिसकी उड़ान ३० मिनट लम्बी है, दिन में केवल एक बार चलती है और केवल ४ लोगों को ले जा सकती है। गंगटोक हैलीपैड राज्य का एकमात्र असैनिक हैलीपैड है। निकटतम रेल स्टेशन नई जलपाईगुड़ी में है जो सिलीगुड़ी से १६ किलोमीटर। कि०मी० दूर है।
राष्ट्रीय राजमार्ग ३१आ सिलीगुड़ी को गंगटोक से जोड़ता है। यह एक सर्व-ऋतु मार्ग है तथा सिक्किम में रंग्पो पर प्रवेश करने के पश्चात तीस्ता नदी के समानान्तर चलता है। अनेक सार्वजनिक अथवा निजी वाहन हवाई-अड्डे, रेल-स्टेशन तथा सिलिगुड़ी को गंगटोक से जोड़ते हैं। मेल्ली से आने वाले राजमार्ग की एक शाखा पश्चिमी सिक्किम को जोड़ती है। सिक्किम के दक्षिणी और पश्चिमी शहर सिक्किम को उत्तरी पश्चिमी बंगाल के पर्वतीय शहर कलिम्पोंग और दार्जीलिंग से जोड़ते हैं। राज्य के भीतर चौपहिया वाहन लोकप्रिय हैं क्योंकि यह राज्य की चट्टानी चढ़ाइयों को आसानी से पार करने में सक्षम होते हैं। छोटी बसें राज्य के छोटे शहरों को राज्य और जिला मुख्यालयों से जोड़ती हैं।
मानवजातीय रूप से सिक्किम के अधिकतर निवासी नेपाली हैं जिन्होंने प्रदेश में उन्नीसवीं सदी में प्रवेश किया। भूटिया सिक्किम के मूल निवासियों में से एक हैं, जिन्होंने तिब्बत के खाम जिले से चौदवीं सदी में पलायन किया और लेप्चा, जो स्थानीय मान्यतानुसार सुदूर पूर्व से आये माने जाते हैं। प्रदेश के उत्तरी तथा पूर्वी इलाक़ों में तिब्बती बहुतायत में रहते हैं। अन्य राज्यों से आकर सिक्किम में बसने वालों में प्रमुख हैं मारवाड़ी लोग। मारवाड़ी, जो दक्षिण सिक्किम तथा गंगटोक में दुकानें चलाते हैं;बिहारी जो अधिकतर श्रमिक हैं; तथा बंगाली लोग। बंगाली।
हिन्दू धर्म राज्य का प्रमुख धर्म है जिसके अनुयायी राज्य में ६०.९% में हैं। बौद्ध धर्म के अनुयायी २८.१% पर एक बड़ी अल्पसंख्या में हैं। सिक्किम में ईसाई। ईसाइयों की ६.७% आबादी है जिनमे मूल रूप से अधिकतर वे लेपचा हैं जिन्होंने उन्नीसवीं सदी के उत्तरकाल में संयुक्त राजशाही। अंग्रेज़ीधर्मोपदेशकों के प्रचार के बाद ईसाई मत अपनाया। राज्य में कभी साम्प्रदायिक तनाव नहीं रहा। मुसलमानों की १.४% प्रतिशत आबादी के लिए गंगटोक के व्यापारिक क्षेत्र में और मंगन में मस्जिद। मस्जिदें हैं।
नेपाली सिक्किम का प्रमुख भाषा है। सिक्किम में प्रायः अंग्रेज़ी और हिन्दी भी बोली और समझी जाती हैं। यहाँ की अन्य भाषाओं में भूटिया, जोंखा, ग्रोमा, गुरुंग, लेप्चा, लिम्बु, मगर, माझी, मझवार, नेपालभाषा, दनुवार, शेर्पा, सुनवार भाषा। सुनवार, तामाङ, थुलुंग, तिब्बती और याक्खा शामिल हैं।
५,४०,४९३ की जनसंख्या के साथ सिक्किम भारत का न्यूनतम आबादी वाला राज्य है, जिसमें पुरुषों की संख्या २,८८,२१७ है और महिलाओं की संख्या २,५२,२७६ है। सिक्किम में जनसंख्या का घनत्व ७६ मनुष्य प्रतिवर्ग किलोमीटर है पर भारत में न्यूनतम है। विकास दर ३२.९८% है (१९९१-२००१)। लिंगानुपात ८७५ स्त्री प्रति १००० पुरुष है। ५०,००० की आबादी के साथ गंगटोक सिक्किम का एकमात्र महत्तवपूर्ण शहर है। राज्य में शहरी आबादी लगभग ११.०६% है। प्रति व्यक्ति आय ११,३५६ रु० है, जो राष्ट्र के सबसे सर्वाधिक में से एक है।
सिक्किम के नागरिक भारत के सभी मुख्य हिन्दू त्योहारों जैसे दीपावली और दशहरा, मनाते हैं। बौद्ध धर्म के ल्होसार, लूसोंग, सागा दावा, ल्हाबाब ड्युचेन, ड्रुपका टेशी और भूमचू वे त्योहार हैं जो मनाये जाते हैं। लोसर - तिब्बती नव वर्ष लोसर, जो कि मध्य दिसंबर में आता है, के दौरान अधिकतर सरकारी कार्यालय एवं पर्यटक केन्द्र हफ़्ते भर के लिये बंद रहते हैं। गैर-मौसमी पर्यटकों को आकर्षित करने के लिये हाल ही में बड़ा दिन। बड़े दिन को गंगटोक में प्रसारित किया जा रहा है।
पाश्चात्य रॉक संगीत यहाँ प्रायः घरों एवं भोजनालयों में, गैर-शहरी इलाक़ों में भी सुनाई दे जाता है। हिन्दी संगीत ने भी लोगों में अपनी जगह बनाई है। विशुद्ध नेपाली रॉक संगीत, तथा पाश्चात्य संगीत पर नेपाली काव्य भी अत्यंत प्रचलित हैं। फुटबॉल एवं क्रिकेट यहाँ के सबसे लोकप्रिय खेल हैं।
नूडल पर आधारित व्यंजन जैसे थुक्पा, चाउमीन, थान्तुक, फाख्तु, ग्याथुक और वॉनटनसर्वसामान्य हैं। मःम, भाप से पके और सब्जियों से भरे पकौडि़याँ, सूप के साथ परोसा हुआ भैंस का माँस। भैंस अथवा सूअर का माँस। सुअर का माँस लोकप्रिय लघु आहार है। पहाड़ी लोगों के आहार में भैंस, सूअर, इत्यादि के माँस की मात्रा बहुत अधिक होती है। मदिरा पर राज्य उत्पाद शुल्क कम होने के कारण राज्य में बीयर, विस्की, रम और ब्रांडी इत्यादि का सेवन किया जाता है।
सिक्किम में लगभग सभी आवास देहाती हैं जो मुख्यत: कड़े बाँस के ढाँचे पर लचीले बाँस का आवरण डाल कर बनाये जाते हैं। आवास में ऊष्मा का संरक्षण करने के लिए इस पर गाय के गोबर का लेप भी किया जाता है। राज्य के अधिक ऊँचाई वाले क्षेत्रों में अधिकतर लकड़ी के घर बनाये जाते हैं।
राजनीति और सरकार
भारत के अन्य राज्यों के समान, केन्द्रिय सरकार द्वारा निर्वाचित राज्यपाल राज्य शासन का प्रमुख है। उसका निर्वाचन मुख्यतः औपचारिक ही होता है, तथा उसका मुख्य काम मुख्यमंत्री के शपथ-ग्रहण की अध्यक्षता ही होता है। मुख्यमंत्री, जिसके पास वास्तविक प्रशासनिक अधिकार होते हैं, अधिकतर राज्य चुनाव में बहुमत जीतने वाले दल अथवा गठबंधन का प्रमुख होता है। राज्यपाल मुख्यमंत्री के परामर्श पर मंत्रीमण्डल नियुक्त करता है। अधिकतर अन्य राज्यों के समान सिक्किम में भी एकसभायी (एकसदनी? यूनिकमराल) सदन वाली विधान सभा ही है। सिक्किम को भारत की द्विसदनी विधानसभा के दोनों सदनों, राज्य सभा तथा लोक सभा में एक-एक स्थान प्राप्त है। राज्य में कुल ३२ विधानसभा सीटें हैं जिनमें से एक बौद्ध संघ के लिए आरक्षित है। सिक्किम उच्च न्यायालय देश का सबसे छोटा उच्च न्यायालय है।
१९७५ में, राजतंत्र के अंत के उपरांत, कांग्रेस को १९७७ के आम चुनावों में बहुमत प्राप्त हुआ। अस्थिरता के एक दौर के बाद, १९७९ में, सिक्किम संग्राम परिषद पार्टी के नेता नर बहादुर भंडारी के नेतृत्व में एक लोकप्रिय मंत्री परिषद का गठन हुआ। इस के बाद, १९८४ और १९८९ के आम चुनावों में भी भंडारी ही विजयी रहे। १९९४ में सिक्किम डेमोक्रेटिक फ्रन्ट के पवन कुमार चामलिंग राज्य के मुख्यमंत्री बने। १९९९ और २००४ के चुनावों में भी विजय प्राप्त कर, यह पार्टी अभी तक सिक्किम में राज कर रही है। सिक्किम क्रांतिकारी मोर्चा के अध्यक्ष प्रेम सिंह तमांग सिक्किम के नए मुख्यमंत्री बनाए गए। शपथ ग्रहण के तुरंत बाद प्रेम सिंह ने सिक्किम के राज्य कर्मचारियों के लिए सप्ताह में दो दिन(शनिवार व रविवार) छुट्टी की घोषणा की।
सिक्किम की सड़कें बहुधा भूस्खलन तथा पास की धारों द्वारा बाढ़ से क्षतिग्रस्त हो जाती हैं, परन्तु फिर भी सिक्किम की सड़कें अन्य राज्यों की सड़कों की तुलना में बहुत अच्छी हैं। सीमा सड़क संगठन(ब्रो), भारतीय सेना का एक अंग इन सड़कों का रख-रखाव करता है। दक्षिणी सिक्किम तथा रा०रा०-३१अ की सड़कें अच्छी स्थिति में हैं क्योंकि यहाँ भूस्खलन की घटनाएँ कम है। राज्य सरकार १८५७.३५ कि०मी० का वह राजमार्ग जो सी०स०सं० के अन्तर्गत नहीं आता है, का रख-रखाव करती है।
सिक्किम में अनेक जल विद्युत बिजली स्टेशन (केन्द्र) हैं जो नियमित बिजली उपलब्ध कराते हैं, परन्तु संचालन शक्ति अस्थिर है तथा स्थायीकारों (स्तबिलिज़र्स) की आवश्यकता पड़ती है। सिक्किम में प्रतिव्यक्ति बिजली प्रयोग १८२ कह है। ७३.२% घरों में स्वच्छ जल सुविधा उपलब्ध है, तथा अनेक धाराओं के परिणाम स्वरूप राज्य में कभी भी अकाल या पानी की कमी की परिस्थितियाँ उत्पन्न नहीं हुई हैं। टिस्टा नदी पर कई जलविद्युत केन्द्र निर्माणशील हैं तथा उनका पर्यावरण पर प्रभाव एक चिन्ता का विषय है।
दक्षिणी नगरीय क्षेत्रों में अंग्रेजी, नेपाली तथा हिन्दी के दैनिक पत्र हैं। नेपाली समाचार-पत्र स्थानीय रूप से ही छपते हैं परन्तु हिन्दी तथा अंग्रेजी के पत्र सिलिगुड़ी में। सिक्किम में नेपाली भाषा में प्रकाशित समाचार पत्रों की मांग विगत दिनों में बढ़ी हैं। समय दैनिक, हाम्रो प्रजाशक्ति, हिमाली बेला और सांगीला टाइमस् इत्यादि नेपाली समाचार पत्र गंगटोक से प्रकाशित होते हैं जिनमें हाम्रो प्रजाशक्ति राज्य का सबसे बड़ा और लोकप्रिय समाचार पत्र है। अंग्रेजी समाचार पत्रों में सिक्किम नाओ और सिक्किम एक्सप्रेस, हिमालयन मिरर स्थानीय रूप से छपते हैं तथा द स्टेट्समैन तथा द टेलेग्राफ़ सिलिगुड़ी में छापे जाते हैं जबकि द हिन्दू तथा द टाइम्स ऑफ़ इन्डिया कलकत्ता में छपने के एक दिन पश्चात् गंगटोक, जोरेथांग, मेल्ली तथा ग्याल्शिंग पहुँच जाते हैं। सिक्किम हेराल्ड सरकार का आधिकारिक साप्ताहिक प्रकाशन है। हाल-खबर सिक्किम का एकमात्र अंतर्राष्ट्रिय समाचार का मानकीकृत प्रवेशद्वार है। सिक्किम सें २००७-में नेपाली साहित्य का ऑनलाइन पत्रिका टिस्टारंगीत शुरू हुई है जिस का संचालन साहित्य सिर्जना सहकारी समिति लिमिटेड] करती है।
अन्तर्जाल सुविधाएँ जिला मुख्यालयों में तो उपलब्ध हैं परन्तु ब्रॉडबैंड सम्पर्क उपलब्ध नहीं है तथा ग्रामीण क्षेत्रों में अभी अन्तर्जाल सुविधा उपलब्ध नहीं है। थाली विद्युत-ग्राहकों (दिश एन्टिने) द्वारा अधिकतर घरों में उपग्रह दूरदर्शन सरणि (सैटेलाइट टेलीविज़न चैन्नेल्स) उपलब्ध हैं। भारत में प्रसारित सरणियों के अतिरिक्त नेपाली भाषा के सरणि भी प्रसारित किये जाते हैं। सिक्किम केबल, डिश टी० वी०, दूरदर्शन तथा नयुम (नयुमा) मुख्य सेवा प्रदाता हैं। स्थानीय कोष्ठात्मक दूरभाष सेवा प्रदाताओं (सेल्युलर फोन सर्विस प्रोविडर) की अच्छी सुविधाएँ उपलब्ध हैं जिनमें भा०सं०नि०लि० की सुविधा राज्य-विस्तृत है परन्तु रिलायन्स इन्फ़ोकॉम तथा एयरटेल केवल नगरीय क्षेत्रों में है। राष्ट्रिय अखिल भारतीय आकाशवाणी राज्य का एकमात्र आकाशवाणी केन्द्र है।
साक्षरता प्रतिशत दर ६९.६८% है, जो कि पुरुषों में ७६.७३% तथा महिलाओं में ६१.४६% है। सरकारी विद्यालयों की संख्या १५४५ है तथा १८ निजी विद्यालय भी हैं जो कि मुख्यतः नगरों में हैं। उच्च शिक्षा के लिये सिक्किम में लगभग १२ महाविद्यालय तथा अन्य विद्यालय हैं। सिक्किम मणिपाल विश्वविद्यालय आभियान्त्रिकी, चिकित्सा तथा प्रबन्ध के क्षेत्रों में उच्च शिक्षा प्रदान करता है। वह अनेक विषयों में दूरस्थ शिक्षा प्रदान करता है। राज्य-संचालित दो बहुशिल्पकेंद्र, उच्च तकनीकी प्रशिक्षण केन्द्र (एडवांस्ड टेक्निकल ट्रेनिंग सेंटर) तथा संगणक एवं संचार तकनीक केन्द्र (सेंटर फॉर कंप्यूटर एंड कम्युनिकेशन टेक्नोलॉजी) आदि आभियान्त्रिकी की शाखाओं में सनद पाठ्यक्रम चलाते हैं। अट्क बारदांग, सिंगताम तथा कट चिसोपानि,नाम्ची में है। अधिकतर विद्यार्थी उच्च शिक्षा के लिये सिलीगुड़ी अथवा कोलकाता जाते हैं।
बौद्ध धार्मिक शिक्षा के लिए रुमटेक गोम्पा द्वारा संचालित नालन्दा नवविहार एक अच्छा केंद्र है।
सौंदर्य और संस्कृति में दम है! सिक्किम कहां कम है! (प्रभासाक्षी)
फूलों, पक्षियों और पर्वतों वाला सुंदर सिक्किम (प्रभासाक्षी)
सिक्किम के बारे में जानें
सिक्किम... हिमालय में बसा एक छोटा सा स्वर्ग
सिक्किम अर्थात् 'नया घर'
टिस्टारंगीत (सिक्किम की प्रथम आनलाइन साहित्यिक पत्रिका)
एग्रिसनेट (एरीस्नेट) - नेपाली में खेती-किसानी तथा सिक्किम के बारे में सम्पूर्ण जानकारी
सैलानियों में खास पहचान बना रहा है सिक्किम
वीर गोरखा (हिन्दी तथा नेपाली का ब्लॉग)
भारत के राज्य
भारत का पूर्वोत्तर क्षेत्र
भारत के राज्य और केंद्र साशित प्रदेश
एशिया के विवादित क्षेत्र |
निर्मल वर्मा (३ अप्रैल १९२९- २५ अक्तूबर २००५) हिन्दी के आधुनिक कथाकारों में एक मूर्धन्य कथाकार और पत्रकार थे। शिमला में जन्मे निर्मल वर्मा को मूर्तिदेवी पुरस्कार (१९९५), साहित्य अकादमी पुरस्कार (१९८५) उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान पुरस्कार और ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किया जा चुका है। परिंदे से प्रसिद्धि पाने वाले निर्मल वर्मा की कहानियां अभिव्यक्ति और शिल्प की दृष्टि से बेजोड़ समझी जाती हैं। ब्रिटिश भारत सरकार के रक्षा विभाग में एक उच्च पदाधिकारी श्री नंद कुमार वर्मा के घर जन्म लेने वाले आठ भाई बहनों में से पाँचवें निर्मल वर्मा की संवेदनात्मक बुनावट पर हिमाचल की पहाड़ी छायाएँ दूर तक पहचानी जा सकती हैं। हिन्दी कहानी में आधुनिक-बोध लाने वाले कहानीकारों में निर्मल वर्मा का अग्रणी स्थान है। उन्होंने कम लिखा है परंतु जितना लिखा है उतने से ही वे बहुत ख्याति पाने में सफल हुए हैं। उन्होंने कहानी की प्रचलित कला में तो संशोधन किया ही, प्रत्यक्ष यथार्थ को भेदकर उसके भीतर पहुँचने का भी प्रयत्न किया है। हिन्दी के महान साहित्यकारों में से अज्ञेय और निर्मल वर्मा जैसे कुछ ही साहित्यकार ऐसे रहे हैं जिन्होंने अपने प्रत्यक्ष अनुभवों के आधार पर भारतीय और पश्चिम की संस्कृतियों के अन्तर्द्वन्द्व पर गहनता एवं व्यापकता से विचार किया है।
इनका जन्म ३ अप्रैल १९२९ को शिमला में हुआ था। दिल्ली के सेंट स्टीफेंस कालेज से इतिहास में एम ए करने के बाद कुछ दिनों तक उन्होंने अध्यापन किया। इन्हें वर्ष १९५९ से १९७२ तक यूरोप में प्रवास करने का अवसर मिला था और इस दौरान उन्होंने लगभग समूचे यूरोप की यात्रा करके वहाँ की भिन्न-भिन्न संस्कृतियों का नजदीक से परिचय प्राप्त किया था। १९५९ से प्राग (चेकोस्लोवाकिया) के प्राच्य विद्या संस्थान में सात वर्ष तक रहे। उसके बाद लंदन में रहते हुए टाइम्स ऑफ इंडिया के लिये सांस्कृतिक रिपोर्टिंग की। १९७२ में स्वदेश लौटे। १९७७ में आयोवा विश्व विद्यालय (अमरीका) के इंटरनेशनल राइटर्स प्रोग्राम में हिस्सेदारी की। उनकी कहानी माया दर्पण पर फिल्म बनी जिसे १९७३ का सर्वश्रेष्ठ हिन्दी फिल्म का पुरस्कार प्राप्त हुआ। वे इंडियन इंस्टीटयूट ऑफ एडवांस स्टडीज़ (शिमला) के फेलो रहे (१९७३) और मिथक-चेतना पर कार्य किया, निराला सृजनपीठ भोपाल (१९८१-८३) और यशपाल सृजनपीठ (शिमला) के अध्यक्ष रहे (१९८९)। १९८८ में इंगलैंड के प्रकाशक रीडर्स इंटरनेशनल द्वारा उनकी कहानियों का संग्रह द वर्ल्ड एल्सव्हेयर प्रकाशित। इसी समय बीबीसी द्वार उनपर डाक्यूमेंट्री फिल्म प्रसारित हुई थी। फेफड़े की बीमारी से जूझने के बाद ७६ वर्ष की अवस्था में २६ अक्तूबर, २००५ को दिल्ली में उनका निधन हो गया।
अपनी गंभीर, भावपूर्ण और अवसाद से भरी कहानियों के लिए जाने-जाने वाले निर्मल वर्मा को आधुनिक हिंदी कहानी के सबसे प्रतिष्ठित नामों में गिना जाता रहा है, उनके लेखन की शैली सबसे अलग और पूरी तरह निजी थी। निर्मल वर्मा को भारत में साहित्य का शीर्ष सम्मान ज्ञानपीठ १९९९ में दिया गया। 'रात का रिपोर्टर', 'एक चिथड़ा सुख', 'लाल टीन की छत' और 'वे दिन' उनके बहुचर्चित उपन्यास हैं। उनका अंतिम उपन्यास १९९० में प्रकाशित हुआ था--अंतिम अरण्य। उनकी एक सौ से अधिक कहानियाँ कई संग्रहों में प्रकाशित हुई हैं जिनमें 'परिंदे', 'कौवे और काला पानी', 'बीच बहस में', 'जलती झाड़ी' आदि प्रमुख हैं। 'धुंध से उठती धुन' और 'चीड़ों पर चाँदनी' उनके यात्रा वृतांत हैं जिन्होंने लेखन की इस विधा को नए मायने दिए हैं। निर्मल वर्मा को सन २००२ में भारत सरकार द्वारा साहित्य एवं शिक्षा के क्षेत्र में पद्म भूषण से सम्मानित किया गया था।
अपने निधन के समय निर्मल वर्मा भारत सरकार द्वारा औपचारिक रूप से नोबेल पुरस्कार के लिए नामित थे।
वे दिन -१९६४
लाल टीन की छत -१९७४
एक चिथड़ा सुख -१९७९
रात का रिपोर्टर -१९८९
अंतिम अरण्य -२०००
जलती झाड़ी -१९६५
पिछली गर्मियों में -१९६८
बीच बहस में -१९७३
कव्वे और काला पानी -१९८३
सूखा तथा अन्य कहानियाँ -१९९५
यात्रा-संस्मरण एवं डायरी
चीड़ों पर चाँदनी -१९६३
हर बारिश में -१९७०
धुंध से उठती धुन -१९९७
चिड़ो पर चाँदनी १९६४
हर बारिश में १९७०
शब्द और स्मृति -१९७६
कला का जोखिम -१९८१
ढलान से उतरते हुए -१९८५
भारत और यूरोप : प्रतिश्रुति के क्षेत्र -१९९१
इतिहास, स्मृति, आकांक्षा -१९९१
सताब्दी के ढलते वर्षों में १९९५
दूसरे शब्दों में १९९७
आदि, अन्त और आरम्भ -२००१
सर्जना पथ के सहयात्री -२००५
साहित्य का आत्म-सत्य -२००५
मेरी प्रिय कहानियाँ -१९७३
दूसरी दुनिया -१९७८
प्रतिनिधि कहानियाँ -१९८८
शताब्दी के ढलते वर्षों में (प्रतिनिधि निबन्ध) -१९९५
ग्यारह लम्बी कहानियाँ -२०००
तीन एकान्त -१९७६
दूसरे शब्दों में -१९९९
प्रिय राम (अवसानोपरांत प्रकाशित) -२००६
संसार में निर्मल वर्मा (अवसानोपरांत प्रकाशित) -२००६
कुप्रिन की कहानियाँ -१९५५
रोमियो जूलियट और अँधेरा -१९६४
कारेल चापेक की कहानियाँ -१९६६
इतने बड़े धब्बे -१९६६
बाहर और परे -१९६७
आर यू आर -१९७२
एमेके एक गाथा -१९७३
निर्मल वर्मा की कृतियाँ - पुस्तक.ऑर्ग पर
निर्मल वर्मा - गद्यकोश पर
निर्मल का लेखन चित्रमय ही नहीं, चलचित्रमय भी गाँधी। सृजनगाथा। निर्मल वर्मा स्मृति व्याख्यान। १२ मई २००७
'स्वस्थ साहित्य किसी की नक़ल नहीं करता'- निर्मल वर्मा के प्रेमचंद पर विचार (बीबीसी-हिन्दी)
इन्हें भी देखें
साहित्य अकादमी द्वारा पुरस्कृत हिन्दी भाषा के साहित्यकार
हिन्दी विकि डीवीडी परियोजना
मूर्तिदेवी पुरस्कार प्राप्तकर्ता
साहित्य अकादमी फ़ैलोशिप से सम्मानित |
सूर्य अथवा सूरज (प्रतीक: ) सौरमंडल के केन्द्र में स्थित एक तारा जिसके चारों तरफ पृथ्वी और सौरमंडल के अन्य अवयव घूमते हैं। सूर्य हमारे सौर मंडल का सबसे बड़ा पिंड है और उसका व्यास लगभग १३ लाख ९० हज़ार किलोमीटर है जो पृथ्वी से लगभग १०९ गुना अधिक है। ऊर्जा का यह शक्तिशाली भंडार मुख्य रूप से हाइड्रोजन और हीलियम गैसों का एक विशाल गोला है। परमाणु विलय की प्रक्रिया द्वारा सूर्य अपने केंद्र में ऊर्जा पैदा करता है। सूर्य से निकली ऊर्जा का छोटा सा भाग ही पृथ्वी पर पहुँचता है जिसमें से १५ प्रतिशत अंतरिक्ष में परावर्तित हो जाता है, ३० प्रतिशत पानी को भाप बनाने में काम आता है और बहुत सी ऊर्जा पेड़-पौधे समुद्र सोख लेते हैं। इसकी मजबूत गुरुत्वाकर्षण शक्ति विभिन्न कक्षाओं में घूमते हुए पृथ्वी और अन्य ग्रहों को इसकी तरफ खींच कर रखती है।
सूर्य से पृथ्वी की औसत दूरी लगभग १४,९६,००,००० किलोमीटर या ९,२९,६०,००० मील है तथा सूर्य से पृथ्वी पर प्रकाश को आने में ८.३ मिनट का समय लगता है। इसी प्रकाशीय ऊर्जा से प्रकाश-संश्लेषण नामक एक महत्वपूर्ण जैव-रासायनिक अभिक्रिया होती है जो पृथ्वी पर जीवन का आधार है। यह पृथ्वी के जलवायु और मौसम को प्रभावित करता है। सूर्य की सतह का निर्माण हाइड्रोजन, हिलियम, लोहा, निकेल, ऑक्सीजन, सिलिकन, सल्फर, मैग्निसियम, कार्बन, नियोन, कैल्सियम, क्रोमियम तत्वों से हुआ है। इनमें से हाइड्रोजन सूर्य के सतह की मात्रा का ७४ % तथा हिलियम २४ % है।
इस जलते हुए गैसीय पिंड को दूरदर्शी यंत्र से देखने पर इसकी सतह पर छोटे-बड़े धब्बे दिखलाई पड़ते हैं। इन्हें सौर कलंक कहा जाता है। ये कलंक अपने स्थान से सरकते हुए दिखाई पड़ते हैं। इससे वैज्ञानिकों ने निष्कर्ष निकाला है कि सूर्य पूरब से पश्चिम की ओर २७ दिनों में अपने अक्ष पर एक परिक्रमा करता है। जिस प्रकार पृथ्वी और अन्य ग्रह सूरज की परिक्रमा करते हैं उसी प्रकार सूरज भी आकाश गंगा के केन्द्र की परिक्रमा करता है। इसको परिक्रमा करनें में २२ से २५ करोड़ वर्ष लगते हैं, इसे एक निहारिका वर्ष भी कहते हैं। इसके परिक्रमा करने की गति २५१ किलोमीटर प्रति सेकेंड है।
सूर्य एक ग-टाइप मुख्य अनुक्रम तारा है जो सौरमंडल के कुल द्रव्यमान का लगभग ९९.८६% समाविष्ट करता है। करीब नब्बे लाखवें भाग के अनुमानित चपटेपन के साथ, यह करीब-करीब गोलाकार है, इसका मतलब है कि इसका ध्रुवीय व्यास इसके भूमध्यरेखीय व्यास से केवल १० किमी से अलग है। जैसा कि सूर्य प्लाज्मा का बना हैं और ठोस नहीं है, यह अपने ध्रुवों पर की अपेक्षा अपनी भूमध्य रेखा पर ज्यादा तेजी से घूमता है। यह व्यवहार अंतरीय घूर्णन के रूप में जाना जाता है और सूर्य के संवहन एवं कोर से बाहर की ओर अत्यधिक तापमान ढलान के कारण पदार्थ की आवाजाही की वजह से हुआ है। यह सूर्य के वामावर्त कोणीय संवेग के एक बड़े हिस्से का वहन करती है, जैसा क्रांतिवृत्त के उत्तरी ध्रुव से देखा गया और इस प्रकार कोणीय वेग पुनर्वितरित होता है। इस वास्तविक घूर्णन की अवधि भूमध्य रेखा पर लगभग २५.६ दिन और ध्रुवों में ३३.५ दिन की होती है। हालांकि, सूर्य की परिक्रमा के साथ ही पृथ्वी के सापेक्ष हमारी लगातार बदलती स्थिति के कारण इस तारे का अपनी भूमध्य रेखा पर स्पष्ट घूर्णन करीबन २८ दिनों का है। इस धीमी गति के घूर्णन का केन्द्रापसारक प्रभाव सूर्य की भूमध्य रेखा पर के सतही गुरुत्वाकर्षण से १.८ करोड़ गुना कमजोर है। ग्रहों के ज्वारीय प्रभाव भी कमजोर है और सूर्य के आकार को खास प्रभावित नहीं करते है।
सूर्य एक पॉपुलेशन ई या भारी तत्व युक्त सितारा है। सूर्य का यह गठन एक या एक से अधिक नजदीकी सुपरनोवाओं से निकली धनुषाकार तरंगों द्वारा शुरू किया गया हो सकता है। ऐसा तथाकथित पॉपुलेशन ई (भारी तत्व-अभाव) सितारों में इन तत्वों की बहुतायत की अपेक्षा, सौरमंडल में भारी तत्वों की उच्च बहुतायत ने सुझाया है, जैसे कि सोना और यूरेनियम। ये तत्व, किसी सुपरनोवा के दौरान ऊष्माशोषी नाभकीय अभिक्रियाओं द्वारा अथवा किसी दूसरी-पीढ़ी के विराट तारे के भीतर न्यूट्रॉन अवशोषण के माध्यम से रूपांतरण द्वारा, उत्पादित किए गए हो सकने की सर्वाधिक संभावना है।
सूर्य की चट्टानी ग्रहों के माफिक कोई निश्चित सीमा नहीं है। सूर्य के बाहरी हिस्सों में गैसों का घनत्व उसके केंद्र से बढ़ती दूरी के साथ तेजी से गिरता है। बहरहाल, इसकी एक सुपारिभाषित आंतरिक संरचना है जो नीचे वर्णित है। सूर्य की त्रिज्या को इसके केंद्र से लेकर प्रभामंडल के किनारे तक मापा गया है। सूर्य का बाह्य प्रभामंडल दृश्यमान अंतिम परत है। इसके उपर की परते नग्न आंखों को दिखने लायक पर्याप्त प्रकाश उत्सर्जित करने के लिहाज से काफी ठंडी या काफी पतली है। एक पूर्ण सूर्यग्रहण के दौरान, तथापि, जब प्रभामंडल को चंद्रमा द्वारा छिपा लिया गया, इसके चारों ओर सूर्य के कोरोना का आसानी से देखना हो सकता है।
सूर्य का आंतरिक भाग प्रत्यक्ष प्रेक्षणीय नहीं है। सूर्य स्वयं ही विद्युत चुम्बकीय विकिरण के लिए अपारदर्शी है। हालांकि, जिस प्रकार भूकम्प विज्ञान पृथ्वी के आंतरिक गठन को प्रकट करने के लिए भूकंप से उत्पन्न तरंगों का उपयोग करता है, सौर भूकम्प विज्ञान एन का नियम इस तारे की आंतरिक संरचना को मापने और दृष्टिगोचर बनाने के लिए दाब तरंगों ( पराध्वनी) का इस्तेमाल करता है। इसकी गहरी परतों की खोजबीन के लिए कंप्यूटर मॉडलिंग भी सैद्धांतिक औजार के रूप में प्रयुक्त हुए है।
सूर्य का कोर इसके केन्द्र से लेकर सौर त्रिज्या के लगभग २०-२५% तक विस्तारित माना गया है। इसका घनत्व १५० ग्राम/सेमी३ तक (पानी के घनत्व का लगभग १५० गुना) और तापमान १५.७ करोड़ केल्विन के करीब का है। इसके विपरीत, सूर्य की सतह का तापमान लगभग ५,८०० केल्विन है। सोहो मिशन डेटा के हाल के विश्लेषण विकिरण क्षेत्र के बाकी हिस्सों की तुलना में कोर के तेज घूर्णन दर का पक्ष लेते है। सूर्य के अधिकांश जीवन में, ऊर्जा प्प (प्रोटॉन-प्रोटॉन) श्रृंखलाएन कहलाने वाली एक चरणबद्ध श्रृंखला के माध्यम से नाभिकीय संलयन द्वारा उत्पादित हुई है; यह प्रक्रिया हाइड्रोजन को हीलियम में रुपांतरित करती है। सूर्य की उत्पादित ऊर्जा का मात्र ०.८% क्नो चक्र एन से आता है।
सूर्य में कोर अकेला ऐसा क्षेत्र है जो संलयन के माध्यम से तापीय ऊर्जा की एक बड़ी राशि का उत्पादन करता है; ९९% शक्ति सूर्य की त्रिज्या के २४% के भीतर उत्पन्न हुई है, तथा त्रिज्या के ३०% द्वारा संलयन लगभग पूरी तरह से बंद कर दिया गया है। इस तारे का शेष उस उर्जा द्वारा तप्त हुआ है जो कोर से लेकर संवहनी परतों के ठीक बाहर तक विकिरण द्वारा बाहर की ओर स्थानांतरित हुई है। कोर में संलयन द्वारा उत्पादित ऊर्जा को फिर उत्तरोत्तर कई परतों से होकर सौर प्रभामंडल तक यात्रा करनी होती है इसके पहले कि वह सूर्य प्रकाश अथवा कणों की गतिज ऊर्जा के रूप में अंतरिक्ष में पलायन करती है।
कोर में प्रोटॉन-प्रोटॉन श्रृंखला दरेक सेकंड ९.२१०३७ बार पाई जाती है। यह अभिक्रिया चार मुक्त प्रोटॉनों (हाइड्रोजन नाभिक) का प्रयोग करती है, यह हर सेकंड करीब ३.७1०३८ प्रोटॉनों को अल्फा कणों (हीलियम नाभिक) में तब्दील करती है (सूर्य के कुल ~८.९1०5६ मुक्त प्रोटॉनों में से), या लगभग ६.२ १०११ किलो प्रति सेकंड। हाइड्रोजन से हीलियम संलयन के बाद हीलियम ऊर्जा के रूप में संलयित द्रव्यमान का लगभग ०.७% छोड़ती है, सूर्य 4२.६ करोड़ मीट्रिक टन प्रति सेकंड की द्रव्यमान-ऊर्जा रूपांतरण दर पर ऊर्जा छोड़ता है, ३८4.६ योटा वाट (३.८4६ 1०२६ वाट), या ९.1९२ 1०1० टीएनटी मेगाटनएन प्रति सेकंड। राशि ऊर्जा पैदा करने में नष्ट नहीं हुई है, बल्कि यह राशि बराबर की इतनी ही ऊर्जा में तब्दील हुई है तथा ढोकर उत्सर्जित होने के लिए दूर ले जाई गई, जैसा द्रव्यमान-ऊर्जा तुल्यता अवधारणा का वर्णन हुआ है।
कोर में संलयन से शक्ति का उत्पादन सौर केंद्र से दूरी के साथ बदलता रहता है। सूर्य के केंद्र पर, सैद्धांतिक मॉडलों के आकलन में यह तकरीबन २७६.५ वाट/मीटर३ होना है,
सूर्य आज सबसे अधिक स्थिर अवस्था में अपने जीवन के करीबन आधे रास्ते पर है। इसमें कई अरब वर्षों से नाटकीय रूप से कोई बदलाव नहीं हुआ है, और आगामी कई वर्षों तक यूँ ही अपरिवर्तित बना रहेगा। हालांकि, एक स्थिर हाइड्रोजन-दहन काल के पहले का और बाद का तारा बिलकुल अलग होता है।
सूर्य एक विशाल आणविक बादल के हिस्से के ढहने से करीब ४.५७ अरब वर्ष पूर्व गठित हुआ है जो अधिकांशतः हाइड्रोजन और हीलियम का बना है और शायद इन्ही ने कई अन्य तारों को बनाया है। यह आयु तारकीय विकास के कंप्यूटर मॉडलो के प्रयोग और न्यूक्लियोकोस्मोक्रोनोलोजीएन के माध्यम से आकलित हुई है। परिणाम प्राचीनतम सौरमंडल सामग्री की रेडियोमीट्रिक तिथि के अनुरूप है, ४.५६७ अरब वर्ष। प्राचीन उल्कापातों के अध्ययन अल्पजीवी आइसोटोपो के स्थिर नाभिक के निशान दिखाते है, जैसे कि लौह-६०, जो केवल विस्फोटित, अल्पजीवी तारों में निर्मित होता है। यह इंगित करता है कि वह स्थान जहां पर सूर्य बना के नजदीक एक या एक से ज्यादा सुपरनोवा अवश्य पाए जाने चाहिए। किसी नजदीकी सुपरनोवा से निकली आघात तरंग ने आणविक बादल के भीतर की गैसों को संपीडित कर सूर्य के निर्माण को शुरू किया होगा तथा कुछ क्षेत्र अपने स्वयं के गुरुत्वाकर्षण के अधीन ढहने से बने होंगे। जैसे ही बादल का कोई टुकड़ा ढहा कोणीय गति के संरक्षण के कारण यह भी घुमना शुरू हुआ और बढ़ते दबाव के साथ गर्म होने लगा। बहुत बड़ी द्रव्य राशि केंद्र में केंद्रित हुई, जबकि शेष बाहर की ओर चपटकर एक डिस्क में तब्दील हुई जिनसे ग्रह व अन्य सौरमंडलीय निकाय बने। बादल के कोर के भीतर के गुरुत्व व दाब ने अत्यधिक उष्मा उत्पन्न की वैसे ही डिस्क के आसपास से और अधिक गैस जुड़ती गई, अंततः नाभिकीय संलयन को सक्रिय किया। इस प्रकार, सूर्य का जन्म हुआ।
सूर्य अपनी मुख्य अनुक्रम अवस्था से होता हुआ करीब आधी राह पर है, जिसके दरम्यान नाभिकीय संलयन अभिक्रियाओ ने हाइड्रोजन को हीलियम में बदला। हर सेकंड, सूर्य की कोर के भीतर चालीस लाख टन से अधिक पदार्थ ऊर्जा में परिवर्तित हुआ है और न्यूट्रिनो व सौर विकिरण का निर्माण किया है। इस दर पर, सूर्य अब तक करीब १०० पृथ्वी-द्रव्यमान जितना पदार्थ ऊर्जा में परिवर्तित कर चुका है। सूर्य एक मुख्य अनुक्रम तारे के रूप में लगभग १० अरब साल जितना खर्च करेगा।
कोर हाइड्रोजन समापन के बाद
सूर्य के पास एक सुपरनोवा के रूप में विस्फोट के लिए पर्याप्त द्रव्यमान नहीं है। बावजुद यह एक लाल दानव चरण में प्रवेश करेगा। सूर्य का तकरीबन ५.४ अरब साल में एक लाल दानव बनने का पूर्वानुमान है। यह आकलन हुआ है कि सूर्य संभवतः पृथ्वी समेत सौरमंडल के आंतरिक ग्रहों की वर्तमान कक्षाओं को निगल जाने जितना बड़ा हो जाएगा।
इससे पहले कि यह एक लाल दानव बनता है, सूर्य की चमक लगभग दोगुनी हो जाएगी और पृथ्वी शुक्र जितना आज है उससे भी अधिक गर्म हो जाएगी। एक बार कोर हाइड्रोजन समाप्त हुई, सूर्य का उपदानव चरण में विस्तार होगा और करीब आधे अरब वर्षों उपरांत आकार में धीरे धीरे दोगुना जाएगा। उसके बाद यह, आज की तुलना में दो सौ गुना बड़ा तथा दसियों हजार गुना और अधिक चमकदार होने तक, आगामी करीब आधे अरब वर्षों से ज्यादा तक और अधिक तेजी से फैलेगा। यह लाल दानव शाखा का वह चरण है, जहां पर सूर्य करीब एक अरब वर्ष बिता चुका होगा और अपने द्रव्यमान का एक तिहाई के आसपास गंवा चुका होगा।
सूर्य के पास अब केवल कुछ लाख साल बचे है, पर वें बेहद प्रसंगपूर्ण है। प्रथम, कोर हीलियम चौंध में प्रचंडतापूर्वक सुलगता है और सूर्य चमक के ५० गुने के साथ, आज की तुलना में थोड़े कम तापमान के साथ, अपने हाल के आकार से १० गुने के आसपास तक वापस सिकुड़ जाता है।
सौर अंतरिक्ष मिशन
सूर्य के निरीक्षण के लिए रचे गए प्रथम उपग्रह नासा के पायनियर ५, ६, ७, ८ और ९ थे। यह 1९५९ और 1९६८ के बीच प्रक्षेपित हुए थे। इन यानों ने पृथ्वी और सूर्य से समान दूरी की कक्षा में सूर्य परिक्रमा करते हुए सौर वायु और सौर चुंबकीय क्षेत्र का पहला विस्तृत मापन किया। पायनियर ९ विशेष रूप से लंबे अरसे के लिए संचालित हुआ और मई 1९८3 तक डेटा संचारण करता रहा।
१९७० के दशक में, दो अंतरिक्ष यान हेलिओस और स्काईलैब अपोलो टेलीस्कोप माउंट एन ने सौर वायु व सौर कोरोना के महत्वपूर्ण नए डेटा वैज्ञानिकों को प्रदान किए। हेलिओस १ और २ यान अमेरिकी-जर्मनी सहकार्य थे। इसने अंतरिक्ष यान को बुध की कक्षा के भीतर की ओर ले जा रही कक्षा से सौर वायु का अध्ययन किया। १973 में स्कायलैब अंतरिक्ष स्टेशन नासा द्वारा प्रक्षेपित हुआ। इसने अपोलो टेलीस्कोप माउंट कहे जाने वाला एक सौर वेधशाला मॉड्यूल शामिल किया जो कि स्टेशन पर रहने वाले अंतरिक्ष यात्रियों द्वारा संचालित हुआ था। स्काईलैब ने पहली बार सौर संक्रमण क्षेत्र का तथा सौर कोरोना से निकली पराबैंगनी उत्सर्जन का समाधित निरीक्षण किया। खोजों ने कोरोनल मास एजेक्सन के प्रथम प्रेक्षण शामिल किए, जो फिर "कोरोनल ट्रांजीएंस्ट" और फिर कोरोनल होल्स कहलाये, अब घनिष्ठ रूप से सौर वायु के साथ जुड़े होने के लिए जाना जाता है।
१९८० का सोलर मैक्सीमम मिशन नासा द्वारा शुरू किया गया था। यह अंतरिक्ष यान उच्च सौर गतिविधि और सौर चमक के समय के दरम्यान गामा किरणों, एक्स किरणों और सौर ज्वालाओं से निकली पराबैंगनी विकिरण के निरीक्षण के लिए रचा गया था। प्रक्षेपण के बस कुछ ही महीने बाद, हालांकि, किसी इलेक्ट्रॉनिक्स खराबी की वजह से यान जस की तस हालत में चलता रहा और उसने अगले तीन साल इसी निष्क्रिय अवस्था में बिताए। १९८४ में स्पेस शटल चैलेंजर मिशन स्ट-४१च ने उपग्रह को सुधार दिया और कक्षा में फिर से छोड़ने से पहले इसकी इलेक्ट्रॉनिक्स की मरम्मत की। जून १९८९ में पृथ्वी के वायुमंडल में पुनः प्रवेश से पहले सोलर मैक्सीमम मिशन ने मरम्मत पश्चात सौर कोरोना की हजारों छवियों का अधिग्रहण किया।
१९९१ में प्रक्षेपित, जापान के योनकोह (सौर पुंज) उपग्रह ने एक्स-रे तरंग दैर्घ्य पर सौर ज्वालाओ का अवलोकन किया। मिशन डेटा ने वैज्ञानिकों को अनेकों भिन्न प्रकार की लपटों की पहचान करने की अनुमति दी, साथ ही दिखाया कि चरम गतिविधि वाले क्षेत्रों से दूर स्थित कोरोना और अधिक गतिशील व सक्रिय थी जैसा कि पूर्व में माना हुआ था। योनकोह ने एक पूरे सौर चक्र का प्रेक्षण किया लेकिन २००१ में जब एक वलयाकार सूर्यग्रहण हुआ यह आपातोपयोगी दशा में चला गया जिसकी वजह से इसका सूर्य के साथ जुडाव का नुकसान हो गया। यह २००५ में वायुमंडलीय पुनः प्रवेश दौरान नष्ट हुआ था।
आज दिन तक का सबसे महत्वपूर्ण सौर मिशन सोलर एंड हेलिओस्फेरिक ओब्सर्वेटरी रहा है। २ दिसंबर१९९५ को शुरू हुआ यह मिशन यूरोपीय अंतरिक्ष एजेंसी और नासा द्वारा संयुक्त रूप से बनाया गया था। मूल रूप से यह दो-वर्षीय मिशन के लिए नियत हुआ था। मिशन की २01२ तक की विस्तारण मंजूरी अक्टूबर २009 में हुई थी। यह इतना उपयोगी साबित हुआ कि इसका अनुवर्ती मिशन सोलर डायनमिक्स ओब्सर्वेटरी (एसडीओ) फरवरी, २010 में शुरू किया गया था। यह पृथ्वी और सूर्य के बीच लाग्रंगियन बिंदु (जिस पर दोनों ओर का गुरुत्वीय खींचाव बराबर होता है) पर स्थापित हुआ। सोहो ने अपने प्रक्षेपण के बाद से अनेक तरंगदैर्ध्यों पर सूर्य की निरंतर छवि प्रदान की है। प्रत्यक्ष सौर प्रेक्षण के अलावा, सोहो को बड़ी संख्या में धूमकेतुओं की खोज के लिए समर्थ किया गया है, इनमे से अधिकांश सूर्य के निवाले छोटे धूमकेतुएन है जो सूर्य के पास से गुजरते ही भस्म हो जाते है।
इन सभी उपग्रहों ने सूर्य का प्रेक्षण क्रांतिवृत्त के तल से किया है, इसलिए उसके भूमध्यरेखीय क्षेत्रों मात्र के विस्तार में प्रेक्षण किए गए है। यूलिसिस यान सूर्य के ध्रुवीय क्षेत्रों के अध्ययन के लिए १९९० में प्रक्षेपित हुआ था। इसने सर्वप्रथम बृहस्पति की यात्रा की, इससे पहले इसे क्रांतिवृत्त तल के ऊपर की दूर की किसी कक्षा में बृहस्पति के गुरुत्वीय बल के सहारे ले जाया गया था। संयोगवश, यह १९९४ की बृहस्पति के साथ धूमकेतु शूमेकर-लेवी ९ की टक्कर के निरीक्षण के लिए अच्छी जगह स्थापित हुआ था। एक बार यूलिसिस अपनी निर्धारित कक्षा में स्थापित हो गया, इसने उच्च सौर अक्षांशों की सौर वायु और चुंबकीय क्षेत्र शक्ति का निरीक्षण करना शुरू कर दिया और पाया कि उच्च अक्षांशों पर करीब ७५० किमी/सेकंड से आगे बढ़ रही सौर वायु उम्मीद की तुलना में धीमी थी, साथ ही पाया गया कि वहां उच्च अक्षांशों से आई हुई बड़ी चुंबकीय तरंगे थी जो कि बिखरी हुई गांगेय कॉस्मिक किरणे थी।
वर्णमंडल की तात्विक बहुतायतता को स्पेक्ट्रोस्कोपी अध्ययनों से अच्छी तरह जाना गया है, पर सूर्य के अंदरूनी ढांचे की समझ उतनी ही बुरी है। सौर वायु नमूना वापसी मिशन, जेनेसिस, खगोलविदों द्वारा सीधे सौर सामग्री की संरचना को मापने के लिए रचा गया था। जेनेसिस २००४ में पृथ्वी पर लौटा, पर पृथ्वी के वायुमंडल में पुनः प्रवेश पर तैनात करते वक्त पैराशूट के विफल होने से यह अकस्मात् अवतरण से क्षतिग्रस्त हो गया था। गंभीर क्षति के बावजूद, कुछ उपयोगी नमूने अंतरिक्ष यान के नमूना वापसी मॉड्यूल से बरामद किए गए हैं और विश्लेषण के दौर से गुजर रहे हैं।
सोलर टेरेस्ट्रियल रिलेशंस ओब्सर्वेटरी (स्टीरियो) मिशन अक्टूबर २००६ में शुरू हुआ था। दो एक सामान अंतरिक्ष यान कक्षाओं में इस तरीके से प्रक्षेपित किए गए जो उनको (बारी बारी से) कहीं दूर आगे की ओर खींचते और धीरे धीरे पृथ्वी के पीछे गिराते। यह सूर्य और सौर घटना के त्रिविम प्रतिचित्रण करने में समर्थ है, जैसे कि कोरोनल मास एजेक्सनएन।
भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन ने २०१५-१६ तक आदित्य नामक एक १०० किलो के उपग्रह का प्रक्षेपण निर्धारित किया है। सोलर कोरोना की गतिशीलता के अध्ययन के लिए इसका मुख्य साधन एक कोरोनाग्राफएन होगा।
इन्हें भी देखें
हिन्दी विकि डीवीडी परियोजना
जी-प्रकार मुख्य अनुक्रम तारे |
मिज़ोरम भारत का एक उत्तर पूर्वी राज्य है। २००१ में यहाँ की जनसंख्या लगभग ८,९०,००० थी। मिजोरम में साक्षरता का दर भारत में सबसे अधिक ९१.०३% है। यहाँ की राजधानी आईजोल है।
इतिहास और नामोत्पत्ति
मिजोरम एक पर्वतीय प्रदेश है। १९८६ में भारतीय संसद ने भारतीय संविधान के ५३वें संशोधन को अपनाया, जिसने २० फरवरी १९८७ को भारत के २३वें राज्य के रूप में मिजोरम राज्य के निर्माण की अनुमति दी। १९७२ में केंद्रशासित प्रदेश बनने से पहले तक यह असम का एक जिला था। १८९१ में ब्रिटिश अधिकार में जाने के बाद कुछ वर्षो तक उत्तर का लुशाई पर्वतीय क्षेत्र असम के और आधा दक्षिणी भाग बंगाल के अधीन रहा। १८९८ में दोनों को मिलाकर एक ज़िला बना दिया गया जिसका नाम पड़ा-लुशाई हिल्स ज़िला और यह असम के मुख्य आयुक्त के प्रशासन में आ गया। १९७२ में पूर्वोत्तर क्षेत्र पुनर्गठन अधिनियम लागू होने पर मिज़ोरम केंद्रशासित प्रदेश बन गया। भारत सरकार और मिज़ो नेशनल फ़्रंट के बीच १९८६ में हुए ऐतिहासिक समझौते के फलस्वरूप २० फ़रवरी १९८७ को इसे पूर्ण राज्य का दर्जा दिया गया। पूर्व और दक्षिण में म्यांमार और पश्चिम में बंग्लादेश के बीच स्थित होने के कारण भारत के पूर्वोत्तर कोने में मिज़ोरम सामरिक दृष्टि से अत्यधिक महत्वपूर्ण राज्य हैं। मिज़ोरम में प्राकृतिक सौंदर्य बिखरा पड़ा है तथा इस क्षेत्र में प्रकृति की विभि्न छटाएं देखने को मिलती हैं। यह क्षेत्र विभिन्न प्रजातियों के प्राणिमयों तथा वनस्पतियों से संपन्न हैं।
मिज़ो शब्द की उत्पत्ति के बारे में ठीक से ज्ञात नहीं है। मिज़ोरम शब्द का स्थानीय मिज़ो भाषा में अर्थ है, पर्वतनिवासीयों की भूमि। १९वीं शताब्दी में यहां ब्रिटिश मिशनरियों का प्रभाव फैल गया और इस समय तो अधिकांश मिज़ो लोग ईसाई धर्म को ही मानते हैं। मिज़ो भाषा की अपनी कोई लिपि नहीं है। मिशनरियों ने मिज़ो भाषा और औपचारिक शिक्षा के लिए रोमन लिपि को अपनाया। मिज़ोरम में शिक्षा की दर तेजी से बढ़ी हैं। वर्तमान में यह ८८.८ प्रतिशत है, जोकि पूरे देश में केरल के बाद दूसरे स्थान पर है। मिज़ोरम शिक्षा के क्षेत्र में सबसे पहले स्थान पर आने के लिए बड़े प्रयास कर रहा हैं।
भारत में विलय
भारत को आज़ादी मिले करीब दस साल बीत चुके थे। देश में शामिल क़रीब ५०० से ज्यादा रियासतों का भी भारत में विलय करा लिया गया था। लेकिन इन सब के बीच पूर्वोत्तर के कुछ इलाके अभी भी भारत से अलग हो कर एक आज़ाद देश की मांग कर रहे थे और इनमें ही शामिल था एक जिला लुशाई हिल्स यानी आजका मिजोरम। १९५८ - १९६० के बीच का वक़्त था। अंग्रेज़ी सरकार के दौरान असम के लुशाई हिल और बंगाल के दक्षिणी भाग के अधीन रहा अब का मिजोरम बुरे संकट में था। ये संकट कुछ प्राकृतिक थे तो कुछ मानवनिर्मित। प्राकृतिक संकट की शुरुवात उस वक़्त होती हैं जब बांस की झाड़ियों से फूल निकलने लगें, अब आप सोंच रहे होंगे कि मासूम और ख़ूबसूरत से दिखने वाले फूल आखिर कोई मुसीबत कैसे खड़ी कर सकते हैं ?
दरअसल ज्यादा बारिश और पहाड़ी इलाके वाले मिजोरम में मुश्किल से सिर्फ एक ही मौसम की खेती हो पाती है, और इसमें भी फसलों की पैदावार उत्तर भारत की तुलना में बहुत कम होती है। इसलिए यहां रहने वाले लोग अपने पुराने अनाजों को बड़े जतन से संभाल कर रखते हैं ताकि पूरे साल का काम आसानी से चल जाय। लेकिन लगभग ५० साल बाद निकलने वाले बांस के फूलों के आते ही पूरे इलाके में चूहों का राज हो जाता है। बांस के फूल न सिर्फ चूहों का पसंदीदा भोजन होता है बल्कि इसे खाने से उनकी प्रजनन क्षमता भी और तेज़ हो जाती है। इन सब के दौरान देखते देखते ही थोड़े से वक्त में चूहों की एक लम्बी फ़ौज खड़ी हो जाती है। बांस के फूलों के ख़त्म होते ही चूहे धीरे धीरे गांवों और खेतों में लगी फसलों पर भी धावा बोल देते हैं। जिससे दुनिया भर में बांस के जंगलों के लिए मशहूर उत्तर पूर्वी क्षेत्र मिजोरम में मौतम यानी अकाल जैसी समस्या खड़ी हो जाती है। साल १९५८ से १९६० के दौरान भी यही हुआ था। पहले बांसों में फूल आये और फिर फूलों के जाते ही आया अकाल। मिजोरम के जिन जिन इलाकों में मौतम आया वहां खाने तक के लाले पड़ गए। भूख से बेहाल लोगों की मौतें भी होने लगी। तत्कालीन राज्य की असम सरकार से लोगों ने आर्थिक मदद की गुहार लगाई। लेकिन सरकार ने उनकी मांगों को बेबुनियाद बताते हुए अस्वीकार कर दिया। धीरे धीरे हालत बद से बदतर होते चले गए। मिजोरम की जनता के पास अब कोई रास्ता नहीं बचा था। या तो वो वो भूख से मर जाते या फिर सरकार की मदद का इंतज़ार करते करते। सरकार से कोई मदद न मिलता देख स्थानीय लोग अब विद्रोह पर उतारू हो गए। मिजोरम के लोगों को मरता देख आख़िरकार एक वक़्त बाद लोगों ने सरकार के ख़िलाफ़ हथियार उठा ही लिए। मिज़ो नेशनल फेमाईने फ्रंट नाम के संगठन ने इस पूरे विद्रोह की अगुवाई की। जोकि बाद में चलकर मिजोरम की राजनैतिक पार्टी मिज़ो नेशनल फ्रंट के रूप में सामने भी आई। जोरम के विद्रोह में शामिल प्राकृतिक कारण को तो आपने जान लिया लिया। आइये अब थोड़ा सा ज़िक्र मानव निर्मित कारण का भी कर लेते हैं।
दरअसल मिजोरम में फैले अकाल के दौरान ही असम में एक और विवाद चल रहा था। ये विवाद असम में शामिल कुछ सांस्कृतिक और भाषाई रूप से अलग पहचान रखने वाले इलाकों का था। और इन इलाकों में उत्तर पूर्वी मिजोरम भी शामिल था। १९६० में पूरे राज्य में असमी भाषा विधेयक को लागू करने की मांग हो रही थी। इस विधेयक का मतलब था की उस समय के असम में शामिल सभी इलाकों में असमी भाषा को राजभाषा बना दिया जायेगा। जिसे गैर असमी समुदाय के लोग बिलकुल भी मानने को तैयार नहीं थे। बांस के फूलों से शुरू हुई लड़ाई को इस विधेयक ने और भी ज़्यादा मज़बूती दे दी। मिज़ो फ्रंट में अब स्थानीय लोगों ने और बढ़ चढ़ कर हिस्सा लेना शुरू कर दिया। जिससे ये विद्रोह न सिर्फ उग्र हुआ बल्कि धीरे धीरे आतंकवाद का रूप धारण करने लगा। १९६० के दशक में मिज़ो फ्रंट ने चीन और पाकिस्तान जैसे देशों से भी भारत के खिलाफ मदद माँगी। जिसमें पाकिस्तान ने पैसा और गोला बारूद के साथ साथ इसे चलाने का भी इस संगठन के लोगों को प्रशिक्षण दिया। भारत के उत्तर पूर्व मिजोरम में जब ये सब कुछ जब चल रहा था तो उस दौरान भारत अपने दो पडोसी मुल्कों पाकिस्तान और चीन के साथ युद्धों में उलझा हुआ था। जिसके कारण उसका ध्यान इस ओर गया ही नहीं। शुरूआती वक़्त में भारत सरकार की ओर से कोई विशेष कार्रवाई नहीं होने के कारण मिज़ो फ्रंट ने जल्दी ही हिंसक रूप ले लिया। मिज़ो नेशनल फेमाइन फ्रंट का मकसद अब न सिर्फ असम से मिजोरम को अलग कर देने का था बल्कि वो पूरे मिजोरम क्षेत्र को ही भारत से आज़ाद कराना चाहते थे। मिज़ो फ्रंट के अगुवा लालडेंगा ने इसके लिए गुप्त रूप से योजना भी बनाई थी । और इसका नाम रखा था -ऑपरेशन जेरिचो। इस मिशन का मकसद था कि १ मार्च १966 तक पूरे मिज़ोरम को अपने कब्जे में लेकर इसे स्वतंत्र राष्ट्र घोषित कर दिया जाए। और हुआ भी बिलकुल यही। २८ फरवरी की आधी रात को लालडेंगा के नेतृत्व वाली मिज़ो फ्रंट आइजॉल पहुंची। पूरे आइजोल शहर का घेराव करते हुए इस गुट के लोगों ने सारे संपर्क मार्गों को बाधित कर दिया। मिजोरम के बाहरी मदद के लिए बचा एकमात्र रास्ता - सिल्चर सड़क को भी मिज़ो फ्रंट ने क्षतिग्रस्त कर दिया गया था। जिसके कारण स्थानीय पुलिस और असम रायफल्स को भी इलाके से दूर हटना पड़ा। आख़िरकार १ मार्च १966 को म्नफ नेता लालडेंगा अपने मंसूबों में कामयाब हुआ और उसने मिजोरम को भारत से अलग राष्ट्र की घोषणा कर दी। आज़ाद देश घोषित कर देने के बाद पूरे शहर में बुरी तरह से हिंसा फ़ैल गयी। गैर मिजोरम लोगों को मारा गया दुकाने जलाई गयी और उनके घरों में आग लगा दिया गया । ये सब कुछ सिर्फ आइजॉल में ही नहीं हुआ मिजोरम के अन्य इलाक़े भी लालडेंगा के इस कदम का शिकार हुए। मिजोरम के आज़ाद देश घोषित हो जाने के बाद भारत सरकार ने तत्काल प्रभाव से कार्रवाई के आदेश दिए। इस कार्रवाई में सेना के हेलीकाप्टर भेजे गए जोकि अपनी पहली कोशिश में नाकाम रहे।
मिज़ो फ्रंट ने भारत सरकार की ओर से भेजे गए हेलीकॉप्टरों को क्षतिग्रस्त कर दिया। जिसके बाद आख़िरकार मज़बूरन भारत सरकार को स्थिति को काबू में लाने के लिए हवाई फायरिंग करनी पड़ी और तब जाकर इस आतंकवाद कुछ हद तक नियंत्रण मिल सका । मिज़ो फ्रंट पर सेना द्वारा काबू पा लेने के बाद १९६७ में भारत सरकार ने ग्रुपिंग पॉलिसी लागू की जिसके बाद आतंकवादियों का पूरे तरीके से सफाया किया जा सका। १९६८ तक आते आते हालात और बेहतर हो गए जिसके बाद विद्रोहियों ने सरेंडर कर आम लोगों के साथ रहने की इच्छा जताई। २१ जनवरी १९७२ को पहले मिजोरम केंद्र शासित राज्य बना और फिर १९७६ में मिज़ो नेशनल फ्रंट के साथ हुई संधि के मुताबिक २० फरवरी १९८७ को मिजोरम को भारत के २३ वें राज्य का दर्ज़ा प्राप्त हो गया। मिजोरम में अब तक कुल तीन बार मौतम अकाल आ गया चूका है। पहला मौतम - ब्रिटिश शासन काल १९११-१९१२ के बीच, दूसरा - १९५८-१९६० के बीच जिसका अभी हम ज़िक्र कर रहे थे। और तीसरा - २०07 - २०08 के बीच।
भारत की संसद में प्रतिनिधित्व हेतु मिज़ोरम राज्य में केवल एक ही लोकसभा सीट है। मिज़ोरम की विधानसभा में ४० सीटें हैं। सी॰ एल॰ रुआला यहाँ के वर्तमान सांसद हैं। वे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस से संबद्ध हैं।यहां की राजनीति में मिज़ो नेशनल फ्रंट प्रमुख राजनीतिक दल है। जिसके मुखिया जोरमथांगा हैं।
मिज़ोरम में ८ जिले हैं-
मिजोरम के ८० प्रतिशत लोग कृषि कार्यो में लगे हैं। कृषि की मुख्य प्रणाली झूम या स्थानांतरित कृषि हैं। अनुमानित २१ लाख हेक्टेयर भूमि में से ६.३० लाख हेक्टेयर भूमि बागवानी के लिए उपलब्ध है। वर्तमान में ४१२७.६ हेक्टेयर क्षेत्र पर ही विभिन्न फसलों की बागवानी की जा रही है, जो कि अनुमानित संभावित क्षेत्र का मात्र ६.५५ प्रतिशत है। यह दर्शाता है कि मिज़ोरम में बागवानी फसलों के फलने-फूलने की विस्तृत संभावनाएं हैं। बागवानी की मुख्य फसलें फल हैं। इनमें मैडिरियन संतरा, केला, सादे फल, अंगूर, हटकोडा, अनन्नास और पपीता आदि सम्मिलित हैं। इसके अतिरिक्त यहां एंथुरियम, बर्ड ऑफ पेराडाइज, आर्किड, चिरासेथिंमम, गुलाब तथा अन्य कई मौसमी फूलों की खेती होती हैं। मसालों में अदरक, हल्दी, काली मिर्च, मिर्चे (चिडिया की आंख वाली मिर्चे) भी उगाए जाते हैं। यहां के लोग पाम आयल, जड़ी-बूटियों तथा सुगंध वाले पौधों की खेती भी बड़े पैमाने पर करने लगे हैं।
मिज़ोरम में संभावित भूतल सिंचाई क्षेत्र लगभग ७०,००० हेक्टेयर है। इसमें से ४५,००० हेक्टेयर बहाव क्षेत्र में है और २५,००० हेक्टेयर ७० पक्की लघु सिंचाई परियोजनाओं और छः लिफ्ट सिंचाई परियोजनाओं के पूरा होने से प्राप्त किया जा सकता है, जिसमे वर्ष में दो या तीन फसलें ली जा सकती हैं।
संपूर्ण मिज़ोरम अधिसूचित पिछड़ा क्षेत्र है और इसे उद्योगविहीन क्षेत्र के अर्न्तगत वर्गीकृत किया गया है। १९८९ में मिज़ोरम सरकार की औद्योगिक नीति की घोषणा के बाद पिछले दशक में यहां थोड़े से आधुनिक लघु उद्योगों की स्थापाना हुई है। मिज़ोरम उद्योगों को और तेज़ी से बढ़ाने के लिए वर्ष २००० में नई औद्योगिक नीति की घोषणा की गई। इनमें इलेक्ट्रॉनिक तथा सूचना प्रौद्योगिकी, बांस तथा इमारती लकड़ी पर आधारित उत्पाद, खाद्य तथा फलों का प्रसंस्करण, वस्त्र, हथकरघा तथा हस्तशिल्प सम्मिलित हैं।
औद्योगिक नीति में राज्य से बाहर के निवेश को आकर्षित करने के लिए ऐसे सभी बड़े, मध्यम तथा लघु पैमाने के उद्योगों, जिनमें कि स्थानीय लोग भागीदारी हों, की स्थापना के लिए साझे उपक्रम लगाने की अनुमति दी गई है। विद्यमान औद्योगिक संपदाओं के उन्नयन के अतिरि्त संरचनात्मक विकास कार्य जैसे कि लुंआगमुआल, आइज़ोल में औद्योगिक प्रोत्साहन संस्थान (आईआईडीसी), निर्यात प्रोत्साहन औद्योगिक पार्क, लेंगरी, एकीकृत संचनात्मक केद्र (आईआईडीसी), पुकपुई, लुंगत्तेई तथा खाद्य पार्क, छिंगछिप आदि पूर्ण होने वाले है।
चाय की वैज्ञानिक ढंग से खेती आरंभ की गई है। निर्यातोन्मुखी औद्योगिक इकाइयों (ईओयूज) की स्थापना को बढ़ावा देने के लिए एप्परेल प्रशिक्षण तथा डिजाइन केंद्र तथा रत्नों की कटाई तथा पॉलिश करने की इकाइयां लगाने की योजना है। कुटीर उद्योगों में हथकरधा तथा स्तशिल्प को उच्च प्राथमिकता दी जाती है तथा ये दोनो क्षेत्र मिज़ोरम तथा इसके पड़ोसी राज्यों मेघालय तथा नागालैंड में उपभोक्ताओं की मांग को पूरा करने के लिए फल-फूल रहे हैं।
राज्य की शांतिपूर्ण स्थिति, म्यांमार तथा बंग्लादेश की सीमाओं के व्यापार के लिए खुलने तथा भारत के सरकार की पूर्व की ओर देखो नीति के कारण मिज़ोरम अब और अधिक समय तक देश के दूरस्थ होने का राज्य मात्र नहीं बना रहेगा। इन सब बातों से निकट भविष्य में मिज़ोरम में औद्योगिक की गति में भारी तेजी आएगी।
तुईरियाल पनबिजली परियोजना (६० मेगावाट) का निर्माण कार्य प्रगति पर है। कोलोडाइन पनबिजली परियोजना (५०० मेगावाट) का सर्वेक्षण तथा अनवेषण कार्य सी.डब्ल्यू.सी. द्वारा दिंसबर २००५ तक पूरा कर लिया गया है। इस उपक्रम से ५०० मेगावाट बिजली के उत्पादन के अतिरिक्त क्षेत्र में जल परिवहन की सुविधाएं प्राप्त होंगी। मिजोरम सरकार ने इस परियोजना को सर्वोच्च प्राथमिकता दी है। तीन मेगावाट क्षमता की तुईपांगुली तथा काऊतलाबंग राज्य पनबिजली परियोजनाओं को हाल में ही चालू किया गया है जिसने राज्य की पनबिजली उत्पादन क्षमता को १५ मेगावाट कर दिया है। मेशम-ई (३ मेगावाट), सेरलुई बी (१२ मेगावाट) तथा लामसियाल चालू होने की आशा है।
राज्य में सड़कों (सड़क सीमा संगठन तथा राज्य लोक निर्माण विभाग) की कुल लंबाई ५,९८२.२५ किलोमीट है। राज्य में बैराबी में रेलमार्ग स्थापित किया गया है। राज्य की राजधानी आइज़ोल विमान सेवा से जुड़ी है। बेहतर परिवहन सुविधा के लिए सरकार ने विश्व बैंक के अनुदान की सहायता से कुल ३.५ अरब (३५० करोड़) रूपये की लागत से मिज़ोरम राज्य सड़क परियोजना आरंभ की है। प्रधानमंत्री ग्रामीण सड़क योजना के अर्न्तगत मिज़ोरम में ३८४ गांव नव पग
मिज़ो लोग मूलत: किसान हैं। अत: उनकी सारी गतिविधियां तथा त्योहार भी वनों की कटाई करके की जाने वाली झूम खेती से ही जुड़े है। त्योहार के लिए मिज़ो शब्द कुट है। मिज़ो लोगों के विभिन्न त्योहारों में से आजकल केवल तीन मुख्य त्योहार चेराव, मिम कुट और थालफवांगकुट मनाए जाते हैं।
इसके अतिरिक्त यहाँ की अधिसंख्य जनसंख्या ईसाइ है, इसलिए क्रिसमस का त्योहार भी यहाँ मनाया जाता है। यहाँ बौद्ध और हिन्दू समुदायों के लोग भी रहतें है जो अपने-२ त्योहारों को मनाते हैं
समुद्र तल से लगभग ४,००० फुट की उंचाई पर स्थित पर्वतीय नगर आइज़ोल, मिज़ोरम का एक धार्मिक और सांस्कृतिक केंद्र है। म्यांमार की सीमा के निकट चमफाई एक सुंदर पर्यटन स्थल है। तामदिल एक प्राकृतिक झील है जहां मनोहारी वन हैं। यह आइज़ोल से ८० किलोमीटर और पर्यटक स्थल सैतुअल से १० किलोमीटर की दूरी पर है। वानतांग जलप्रपात मिज़ोरम में सबसे ऊंचा और अति सुंदर जलप्रपात है। यह थेनजोल कस्बे से पांच किलोमीटर दूर है। पर्यटन विभाग ने राज्य में सभी बड़े कस्बों में पर्यटक आवास गृह तथा अन्य कस्बों में राजमार्ग रेस्त्रां तथा यात्री सरायों का निर्माण किया है। जोबौक के निकट जिला पार्क में अल्पाइन पिकनिक हट तथा बेरो त्लांग में मनोरंजन केंद्र भी बनाए गए हैं।
क्षेत्रफल: २१,००० वर्ग कि॰मी॰
जनसंख्या: ८९०,००० (२००१)
राजधानी: आईजोल (जनसंख्या १,८२,०००)
मिजोरम सरकार का जालस्थल
भारत के राज्य |
नागपुर भारत के महाराष्ट्र राज्य का तिसरा सबसे बडा शहर है। यह महाराष्ट्र और भारत का एक प्रमुख नगर है और भारत के मध्य में स्थित है। नागपुर को महाराष्ट्र कि उपराजधानी होने का दर्जा प्राप्त है।
नागपुर भारत का १३वां व विश्व का ११४ वां सबसे बड़ा शहर हैं। यह नगर संतरों के लिये काफी मशहूर है। इसलिए इसे लोग संतरों की नगरी भी कहते हैं। हाल ही में इस शहर को देश के सबसे स्वच्छ व सुंदर शहर का इनाम मिला है। नागपुर भारत देश का दूसरे नंबर का ग्रीनेस्ट (हरित शहर) शहर माना जाता है।नागपुर शहर की स्थापना गोंड राजा बख्त बुलंद शाह ने की थी। फिर वह राजा भोसले के उपरान्त मराठा साम्राज्य में शामिल हो गया। १९वीं सदी में अंग्रेज़ी हुकूमत ने उसे मध्य प्रान्त व बेरार की राजधानी बना दिया। आज़ादी के बाद राज्य पुनर्रचना ने नागपुर को महाराष्ट्र की उपराजधानी बना दिया। बाबा साहेब डा.भीमराव अंबेडकर की यह दीक्षा भूमि भी है।नागपुर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और विश्व हिंदू परिषद राष्ट्रवादी संघटनाओ का एक प्रमुख केंद्र है।
नागपुर का नाम नाग नदी से रखा गया है। यह नदी नागपुर के पुराने हिस्से से गुजरती है। नागपुर महानगर पालिका के चिन्ह पर नदी और एक नाग है। नागपुर संत्रों के लिये मशहूर है और उसे संत्रा नगरी भी कहा जाता है ! नागपुर में नाग सांप बहुत पाया जाता था इस कारण से नागपुर का नाम नागपुर रखा गया।
नागपुर शहर की स्थापना देवगड़ (छिंदवाड़ा)के शासक गोंड वंश के राजा बख्त बुलंद शाह ने की थी।यहां आज भी गोंड काल की भव्य इमारत हैं।संतरे की राजधानी के रूप में विख्यात नागपुर महाराष्ट्र का तीसरा सबसे बड़ा शहर है। पर्यटन की दृष्टि से यह महाराष्ट्र के अग्रणी शहरों में शुमार किया जाता है। यहां बने अनेक मंदिर, ऐतिहासिक इमारतें और झील यहां आने वाले सैलानियों के केन्द्र में होते हैं। इस शहर से बहने वाली नाग नदी के कारण इसका नाम नागपुर पड़ा। नागपुर की स्थापना देवगढ़ के गोंड राजा बख्त बुलंद शाह ने १७०३ ई. में की थी। यह शहर १९६० तक मध्य भारत राज्य की राजधानी था। १९६० के बाद यहां की मराठी आबादी को देखते हुए इसे महाराष्ट्र के जिले के रूप में शामिल कर लिया गया। ९८९० वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र में फैले इस जिले में १३ तहसील और १९६९ गांव शामिल हैं।
नागपुर का स्थान २१०६' उत्तर अक्षांश, ७९ ०३' पूर्व रेखांश है।
शहर के पश्चिमी हिस्से में स्थित यह झील १५.४ वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र में फैली हुई है। चारों ओर से खूबसूरत बगीचों से घिरी इस झील में नौकायन का आनंद लिया जा सकता है। झील के संगीतमय फव्वारे इस झील की सुंदरता में चार चांद लगा देते हैं। झील के साथ ही एक बेहद खूबसूरत बगीचा है जिसे नागपुर के सबसे सुंदर स्थलों में शामिल किया जाता है।
सेमीनरी पहाड़ियों के सुरमय वातावरण में भगवान वेंकटेश बालाजी का यह मंदिर बना हुआ है। मंदिर की अद्भुत वास्तुकारी देखने और आध्यात्मिक वातावरण की चाह में उत्तर और दक्षिण भारत से हजारों की तादाद में श्रद्धालुओं का यहां आगमन होता है। मंदिर परिसर में भगवान कार्तिकेय की प्रतिमा भी स्थापित है, जिसे देवताओं की सेना का सेनापति कहा जाता है।
पोद्दारेश्वर राम मंदिर
इस मंदिर का निर्माण राजस्थान के पोद्दार परिवार के श्री जमुनाधर पोद्दार ने १९२३ ई. में करवाया था। मंदिर में भगवान राम और शिव की प्रतिमाएं स्थापित हैं। सफेद संगमरमर और लाल बलुआ पत्थर से बने इस मंदिर में खूबसूरत नक्कासी की गई है। राम नवमी को होने वाली राम जन्मोत्सव शोभायात्रा के दौरान यहां बड़ी संख्या में श्रद्धालु एकत्रित होते हैं।
गोरेवाडा प्राणी संग्रहालय व् जंगल सफारी
यह जंगल सफारी नागपुर के उत्तर में स्थित है !
स्वामी नारायण मन्दिर -
नागपुर शहर के पूर्व में यह स्वामी नारायण भगवान का मन्दिर है ! यह मन्दिर अत्यंत सुंदर तरीके बनाया गया है !
पश्चिमी नागपुर में रामदास पेठ के निकट दीक्षाभूमि स्थित है। भारतरत्न डॉ.बाबासाहेब आंबेडकर जी ने इसी जगह १९५६ मे अपने लाखो अनुयायीयो के समक्ष बौद्ध धम्म की दीक्षा ली थी। हर साल बौद्ध धम्म के अनुयायी लाखो की संख्या मे आकर भेट देते है इसी कारण यह स्थान तीर्थस्थल के तौर पर जाना जाता है। इस स्थान पर एक मेमोरियल भी बना हुआ है। सांची के स्तूप जैसी एक शानदार इमारत का यहां निर्माण किया गया है जिसे बनवाने में ६ करोड़ रूपये खर्च हुए थे। इस इमारत के प्रत्येक खंड में एक साथ ५००० भिक्षु ठहर सकते हैं।
यह नागपुर का एक छोटा-सा गांव है। यहां अनेक प्राचीन और शानदार मंदिर देखे जा सकते हैं। यहां के गणपति मंदिर में भगवान गणेश की एकल शिलाखंड से बनी प्रतिमा स्थापित है। अदासा के समीप ही एक पहाड़ी में तीन लिंगों वाला भगवान शिव को समर्पित मंदिर बना हुआ है। माना जाता है कि इस मंदिर के लिंग अपने आप भूमि से निकले थे।
रामटेक नामक तीर्थ स्थल नागपुर से करीब ५० की मी दुरी पर स्थित है ! स्थान को रामटेक इसलिए कहा जाता है क्योंकि यहां भगवान राम और उनकी पत्नी सीता के पवित्र चरणों का स्पर्श हुआ था। यहां की पहाड़ी के शिखर पर भगवान राम का मंदिर बना हुआ है, जो लगभग ६०० साल पुराना माना जाता है। रामनवमी पर्व यहां बड़े धूमधाम से मनाया जाता है। संस्कृत कवि कालिदास के मेघदूतम में इस स्थान को रामगिरी कहा गया है। इसी स्थान पर उन्होंने मेघदूतम की रचना की थी। पहाड़ी पर कालिदास का समर्पित एक स्मारक भी बना हुआ है। रामटेक पहाड़ी के उत्तर में निचले कर्पुर बावली नामक स्थान है जहा करीब १२०० साल पुराना जीर्ण मन्दिर है ! खिंडसी नामक बड़ा तालाब भी रामटेक के पूर्व में स्थित है ! रामटेक अत्यंत सुंदरा जैन मन्दिर है !
मनसर पुरातात्विक स्थल
यहा प्राचीन वाकाटक साम्राज्य के प्रवरपुर के प्राचीन अवशेष है ! यहाँ प्राचीन शिवलिंग भी है !
नागपुर से ५५ किलोमीटर दूर खेकरानाला में एक खूबसूरत बांध बना हुआ है। यहां के मनोरम और शांत वातावरण में सुकून के कुछ पल गुजारने के लोग आते रहते हैं। खेकरानाला का स्वस्थ और हरा-भरा वातावरण पिकनिक के लिए भी बहुत अनुकूल माना जाता है।
वेनगंगा नदी के बांए तट पर स्थित मरकड एक धार्मिक स्थल के रूप में लोकप्रिय है। संत मार्कडेंय के नाम पर इस जगह का नाम पड़ा। यहां लगभग २४ मंदिरों का समूह है। माना जाता है कि यहां के शिवलिंग की मार्कडेंयने पूजा की थी। यहां के मंदिरों की वास्तुकारी खजुराहो के मंदिरों से मिलती है।
नगरधन एक महत्वपूर्ण प्रागैतिहासिक नगर है। इस नगरधन को प्राचीन नन्दिवर्धन होने की बात कही जाती है ! शैल साम्राज्य के राजा नंदवर्धन को इस नगर का मूल संस्थापक माना जाता है। नगरधन में भोंसलों द्वारा स्थापित एक किला है जिसकी दीवारें ईंटों से बनी हुई हैं। यहां एक वन्यजीव अभयारण्य भी है। यहां जंगली जानवरों को खुले में विचरण करते देखा जा सकता है। गौर यहां का मुख्य आकर्षण है। साथ ही सांभर, हिरन और अन्य बहुत से जीवों को देखा जा सकता है।
नवेगांव बांध को विदर्भ के सबसे लोकप्रिय फॉरेस्ट रिजॉर्ट में शुमार किया जाता है। यहां साहसिक खेलों के अनेक अवसर उपलब्ध हैं। इस बांध को १८वीं शताब्दी की शुरूआत में कोलू पटेल कोहली ने बनवाया था। यहां की पहाड़ियों के बीच एक बेहद खूबसूरत झील भी बनी हुई है। नवेगांव बांध के वाचटॉवर से यहां के वन्यजीवों की गतिविधियां देखी जा सकती हैं। यहां एक डीयर पार्क भी बना हुआ है।
महात्मा गांधी ने १९३३ में सेवाग्राम आश्रम स्थापित किया था। यहां उन्होंने अपने जीवन के १५ वर्ष व्यतीत किए थे। कहा जाता है कि इस स्थान पर महात्मा गांधी समाज सेवा के विविध कार्यक्रम संपन्न करते थे। इसी कारण इसे सेवाग्राम कहा जाता है। यहां के यात्री निवास में लोगों के ठहरने की व्यवस्था है।
यह किला दो पहाड़ियों पर बना है। किले को १८५७ में एक ब्रिटिश अफसर ने बनवाया था। तब से यह किला नागपुर आने वाले सैलानियों को लुभा रहा है।
शिक्षा और वाणिज्य
नागपुर में लगभग १० से भी अधिक अभियांत्रीकी (इंजीनियरिंग) महाविद्यालय है। नागपुर विश्वविद्यालय महाराष्ट्र का एक बहुत बड़ा विश्वविद्यालय है। मेडिकल व् अन्य विषयों की शिक्षा प्राप्त करने के लिए भी नागपुर एक स्थान है !
डॉ॰बाबासाहब अंबेडकर अंतर्राष्ट्रीय विमानक्षेत्र जिसे सोनेगांव एयरपोर्ट भी कहते हैं, यहां का सबसे नजदीकी एयरपोर्ट है जो सिटी सेंटर से ६ किलोमीटर की दूरी पर है। इस घरेलू एयरपोर्ट से देश के कई शहरों के लिए फ्लाइटें हैं।
नागपुर जंक्शन रेलवे स्टेशन राज्य का एक प्रमुख रेलवे जंक्शन है। मुंबई, दिल्ली, कोलकाता, चेन्नई, कोल्हापुर, पुणे, अहमदाबाद, हैदराबाद, वाराणसी, गोरखपुर, भुवनेश्वर, त्रिवेन्द्रम, कोचीन, बंगलुरू, मंगलौर, पटना, इंदौर और सीतामढ़ी आदि शहरों से यहां के लिए सीधी ट्रेनें हैं। यह मध्य रेल का एक बहुत बड़ा और व्यस्त डिविशण (भाग) है।
राष्ट्रीय राजमार्ग ४४, राष्ट्रीय राजमार्ग ४७ और राष्ट्रीय राजमार्ग ५३ नागपुर को देश के प्रमुख शहरों से जोड़ता है। मुंबई, संभलपुर, कोलकाता, वाराणसी और कन्याकुमारी जैसे शहरों से यहां सड़क मार्ग द्वारा पहुंचा जा सकता है। नागपुर में सिटी बस की सेवा भी उपलब्ध है जो शहर में लोगों को शहर में एक जगह से दूसरी जगह तक ले जाता है।
इन्हें भी देखें
महाराष्ट्र के शहर
नागपुर ज़िले के नगर |
भारत की नदियों का देश के आर्थिक एवं सांस्कृतिक विकास में प्राचीनकाल से ही महत्वपूर्ण योगदान रहा है। सिंधु (सिन्धु) तथा गंगा (गङ्गा) नदी की घाटियों में ही विश्व की सर्वाधिक प्राचीन सभ्यताओं - सिंधु (सिन्धु) घाटी तथा आर्य सभ्यता का आर्विभाव हुआ। आज भी देश की सर्वाधिक जनसंख्या एवं कृषि का संकेंद्रण (संकेन्द्रण) नदी घाटी क्षेत्रों में पाया जाता है। प्राचीन काल में व्यापारिक एवं यातायात की सुविधा के कारण देश के अधिकांश नगर नदियों के किनारे ही विकसित हुए थे तथा आज भी देश के लगभग सभी धार्मिक स्थल किसी न किसी नदी से संबद्ध (सम्बद्ध) है।
नदियों के देश कहे जाने वाले भारत में मुख्यतः चार नदी प्रणालियाँ है (अपवाह तंत्र) हैं। उत्तर-पश्चिमी भारत में सिंधु, उत्तर भारत में गंगा, उत्तर-पूर्व भारत में ब्रह्मपुत्र नदी प्रणाली है। प्रायद्वीपीय भारत में नर्मदा कावेरी महानदी आदी नदियाँ विस्तृत नदी प्रणाली का निर्माण करती हैं।
१. सिंधु नदी तंत्र विश्व में सबसे बड़ा नदी तंत्र हैं इसकी द्रोणी द्वारा घेरा गया क्षेत्रफल ११ लाख ६५ हजार वर्ग किलोमीटर है इसमें मुख्य तौर पर सिंधु नदी समेत ६ नदिया हैं जिनमें सबसे प्रमुख सिंधु नदी हैं जिसकी लंबाई २८८० किलोमीटर है बाकी अन्य इसकी सहायक नदियां हैं जिनमें झेलम, चिनाब, रावी, सतलज और व्यास प्रमुख हैं। इन सबको मिलाकर सिंधु घाटी के मैदान के निर्माण होता है
२. गंगा नदी तंत्र की प्रमुख नदी गंगा हैं जो कि भारत में बहने वाली सबसे लम्बी नदी हैं २५२५ किलोमीटर।
इसकी सहायक नदियां इस प्रकार हैं यमुना, सोन, कोसी, गंडक इसके द्वारा घेरा गया क्षेत्रफल लगभग ८,२१,००० वर्ग किलोमीटर है
३. प्रायद्वीपीय नदियां इसमें मुख्य तौर पर गोदावरी, नर्मदा, ताप्ती , कृष्णा और कावेरी प्रमुख हैं इनमें से अधिकतर नदियां अपना जल वर्षा से प्राप्त करती हैं और दक्षिण भारत में बहती है
भारत की नदियों को चार समूहों में वर्गीकृत किया जा सकता है जैसे :-
हिमालय से निकलने वाली नदियाँ
दक्षिण से निकलने वाली नदियाँ
अंतर्देशीय नालों से द्रोणी क्षेत्र की नदियाँ
भारत की प्रमुख नदियों की सूची
इन्हें भी देखें
नदी जोड़ो परियोजना
भारत की नदियाँ
भारत का भूगोल
भारत के स्थलरूप |
अण्डमान और निकोबार द्वीपसमूह भारत का एक केन्द्र शासित प्रदेश है। ये बंगाल की खाड़ी के दक्षिण में हिन्द महासागर में स्थित है। अण्डमान और निकोबार द्वीप समूह लगभग ५७२ छोटे बड़े द्वीपों से मिलकर बना है जिनमें से सिर्फ कुछ ही द्वीपों पर लोग रहते हैं। इसकी राजधानी पोर्ट ब्लेयर है।
भारत का यह केन्द्र शासित प्रदेश हिंद महासागर में स्थित है और भौगोलिक दृष्टि से दक्षिण पूर्व एशिया का हिस्सा है। यह इंडोनेशिया के आचेह के उत्तर में १५० किमी पर स्थित है तथा अंडमान सागर इसे थाईलैंड और म्यांमार से अलग करता है। दो प्रमुख द्वीपसमूहों से मिलकर बने इस द्वीपसमूह को १० उ अक्षांश पृथक करती है, जिसके उत्तर में अंडमान द्वीप समूह और दक्षिण में निकोबार द्वीप समूह स्थित हैं। इस द्वीपसमूह के पूर्व में हिन्द महासागर और पश्चिम में बंगाल की खाड़ी स्थित है।
द्वीपसमूह की राजधानी पोर्ट ब्लेयर एक अंडमानी शहर है।२०११ की भारत की जनगणना के अनुसार यहाँ की जनसंख्या ३७९,९४४ है।जिसमें २०२,३३० (५३.२५%) पुरुष तथा १७७,६१४ (४६.७५%) महिला है। लिेगानुपात प्रति १,००० पुरूषोंं में में ८७८ महिला है।केवल १0% आबादी हीं निकोबार द्वीप में रहती है।पूरे क्षेत्र का कुल भूमि क्षेत्र लगभग ८२४९ किमी या २५08 वर्ग मील है।
अन्य भारतीय भाषाओं में नाम
मराठी : अंदमान आणी निकोबार बेट
अण्डमान शब्द मलय भाषा के शब्द हांदुमन से आया है जो हिन्दू देवता हनुमान के नाम का परिवर्तित रूप है। निकोबार शब्द भी इसी भाषा से लिया गया है जिसका अर्थ होता है नग्न लोगों की भूमि। हिन्द महासागर में बसा निर्मल और शांत अण्डमान पर्यटकों के मन को असीम आनंद की अनुभूति कराता भारत का एक लोकप्रिय द्वीप समूह है। अण्डमान अपने आंचल में मूंगा भित्ति, साफ-स्वच्छ सागर तट, पुरानी स्मृतियों से जुड़े खण्डहर और अनेक प्रकार की दुर्लभ वनस्पतियां संजोए हैं। सुन्दरता में एक से बढ़कर एक यहां कुल ५७२ द्वीप हैं। अण्डमान का लगभग ८६ प्रतिशत क्षेत्रफल जंगलों से ढका हुआ है। समुद्री जीवन, इतिहास और जलक्रीड़ाओं में रूचि रखने वाले पर्यटकों को यह द्वीप बहुत रास आता है।
इस द्वीप पर अंग्रेजों का आधिपत्य था और बाद में दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान जापान द्वारा इस पर अधिकार कर लिया गया। कुछ समय के लिए यह द्वीप नेताजी सुभाषचंद्र बोस की आज़ाद हिन्द फौज के अधीन भी रहा था। बहुत कम लोगों को ही पता होगा कि देश में कहीं भी पहली बार पोर्ट ब्लेयर में ही तिरंगा फहराया गया था। यहां नेताजी सुभाष चन्द्र बोस ने ३० दिसम्बर १९४३ को यूनियन जैक उतार कर तिरंगा झंडा फहराया था। इसलिय अंडमान निकोबार प्रशासन की तरफ से ३० दिसम्बर को हर साल एक भव्य कार्यक्रम मनाने की शुरुआत की गई है। जनरल लोकनाथन भी यहाँ के गवर्नर रहे थे। १९४७ में ब्रिटिश सरकार से मुक्ति के बाद यह भारत का केन्द्र शासित प्रदेश बना।
ब्रिटिश शासन द्वारा इस स्थान का उपयोग स्वाधीनता आंदोलन में दमनकारी नीतियों के तहत क्रांतिकारियों को भारत से अलग रखने के लिये किया जाता था। इसी कारण यह स्थान आंदोलनकारियों के बीच काला पानी के नाम से कुख्यात था। कैद के लिये पोर्ट ब्लेयर में एक अलग कारागार, सेल्यूलर जेल का निर्माण किया गया था जो ब्रिटिश इंडिया के लिये साइबेरिया की समान था।
२६ दिसंबर २००४ को सुनामी लहरों के कहर से इस द्वीप पर ६००० से ज्यादा लोग मारे गये।
अण्डमान व निकोबार द्वीपसमूह में तीन जिले हैं:-
उत्तर और मध्य अण्डमान जिला
दक्षिण अण्डमान जिला
अंग्रेजी सरकार द्वारा भारत के स्वतंत्रता सैनानियों पर किए गए अत्याचारों की मूक गवाह इस जेल की नींव १८९७ में रखी गई थी। इस जेल के अंदर ६९४ कोठरियां हैं। इन कोठरियों को बनाने का उद्देश्य बंदियों के आपसी मेल जोल को रोकना था। आक्टोपस की तरह सात शाखाओं में फैली इस विशाल कारागार के अब केवल तीन अंश बचे हैं। कारागार की दीवारों पर वीर शहीदों के नाम लिखे हैं। यहां एक संग्रहालय भी है जहां उन अस्त्रों को देखा जा सकता है जिनसे स्वतंत्रता सैनानियों पर अत्याचार किए जाते थे।
हरे-भरे वृक्षों से घिरा यह समुद्रतट एक मनोरम स्थान है। यहां समुद्र में डुबकी लगाकर पानी के नीचे की दुनिया का अवलोकन किया जा सकता है। यहां से सूर्यास्त का अद्भुत नजारा काफी आकर्षक प्रतीत होता है। यह बीच अपनी प्राकृतिक खूबसूरती के लिए लोकप्रिय है।
रॉस द्वीप-(वर्तमान नाम- नेताजी सुभाषचन्द्र बोस द्वीप)
यह द्वीप ब्रिटिश वास्तुशिल्प के खंडहरों के लिए प्रसिद्ध है। रॉस द्वीप २०० एकड़ में फैला हुआ है। फीनिक्स उपसागर से नाव के माध्यम से चंद मिनटों में रॉस द्वीप पहुंचा जा सकता है। सुबह के समय यह द्वीप पक्षी प्रेमियों के लिए स्वर्ग के समान है।
८० एकड में फैला पिपोघाट फार्म दुर्लभ प्रजातियों के पेड़-पौधों और जीव- जन्तुओं के लिए जाना जाता है। यहां एशिया का सबसे प्राचीन लकड़ी चिराई की मशीन छातास सा मिल है।
यहां भारत का एकमात्र सक्रिय ज्वालामुखी है। यह द्वीप लगभग ३ किलोमीटर में फैला है। यहां का ज्वालामुखी २८ मई २००५ में फटा था। तब से अब तक इससे लावा निकल रहा है। इट इस लोकेटेड इन नॉर्थ अंडमन.
उत्तरी अंडमान द्वीप में स्थित प्रकृति प्रेमियों को बहुत पसंद आता है। यह स्थान अपने संतरों, चावलों और समुद्री जीवन के लिए प्रसिद्ध है। यहां की सेडल पीक आसपास के द्वीपों से सबसे ऊंचा प्वाइंट है जो ७३२ मीटर ऊंचा है। अंडमान की एकमात्र नदी कलपोंग यहां से बहती है।
यहां किसी जमाने में गुलाम भारत से लाए गए बंदियों को पोर्ट ब्लेयर के पास वाइपर द्वीप पर उतारा जाता था। अब यह द्वीप एक पिकनिक स्थल के रूप में विकसित हो चुका है। यहां के टूटे-फूटे फांसी के फंदे निर्मम अतीत के साक्षी बनकर खड़े हैं।
यहीं पर शेर अली को भी फांसी दी गई थी, जिसने १८७२ में भारत के गवर्नर जनरल लॉर्ड मेयो की हत्या की थी।
सिंक व रेडस्किन द्वीप-
यहां के स्वच्छ निर्मल पानी का सौंदर्य सैलानियों का मन मोह लेता है। इन द्वीपों में कई बार तैरती हुई डाल्फिन मछलियों के झुंड देखे जा सकते हैं। शीशे की तरह साफ पानी के नीचे जलीय पौधे व रंगीन मछलियों को तैरते देखकर पर्यटक अपनी बाहरी दुनिया को अक्सर भूल जाते हैं।
देश की सभी प्रमुख एयरलाइन्स की नियमित उड़ानें पोर्ट ब्लेयर से चेन्नई, कोलकाता, दिल्ली, बंगलूरू , मुम्बई और भुवनेश्वर को जोडती हैं। दिन भर में कुल १८ उडानें हैं। उपराज्यपाल प्रो.जगदीश मुखी के प्रयासों से हवाई किराया भी काफी कम हो गया है।
कोलकाता, चेन्नई और विशाखापट्टनम से जलयान पोर्ट ब्लेयर जाते हैं। जाने में दो-तीन दिन का समय लगता है। पोर्ट ब्लेयर से जहाज छूटने का कोई निश्चित समय नहीं है।
इन्हें भी देखें
अण्डमान और निकोबार की जनजातियाँ
आधिकारिक जालस्थल (नवीन, यूनिकोड हिन्दी में)
आधिकारिक जालस्थल (पुराना, कृतिदेव१० फॉण्ट में)
अण्डमान के बारे में जानकारी
अण्डमान-निकोबार में समृद्ध होती हिन्दी
क्रांतिकारियों की दास्तां बयां करती है यह जगह
शहीदों का महातीर्थ : अण्डमान द्वीप
भारत के केन्द्र शासित प्रदेश
अण्डमान और निकोबार द्वीपसमूह
भारत के द्वीपसमूह
बंगाल की खाड़ी |
विश्वनाथ प्रताप सिंह भारत गणराज्य के १० दसवे क्रम के (७वें व्यक्ति) प्रधानमंत्री थे और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री रह चुके है। उनका शासन एक साल से कम चला, २ दिसम्बर १९८९ से १० नवम्बर १९९० तक। विश्वनाथ प्रताप सिंह (जन्म- २५ जून १९३१, डईया राजघराना, राजा माण्डा (कोरांव के निकट , माण्डा इलाहाबाद) उत्तर प्रदेश; मृत्यु- २७ नवम्बर २००८, दिल्ली)। विश्वनाथ प्रताप सिंह भारत के आठवें प्रधानमंत्री थे। राजीव गांधी सरकार के पतन के कारण प्रधानमंत्री बने विश्वनाथ प्रताप सिंह ने आम चुनाव के माध्यम से २ दिसम्बर १९८९ को यह पद प्राप्त किया था। सिंह प्रधान मंत्री के रूप में भारत की पिछड़ी जातियों में सुधार करने की कोशिश के लिए जाने जाते हैं।
जन्म एवं परिवार
विश्वनाथ प्रताप सिंह का जन्म २५ जून १९३१ उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद ज़िले में एक राजपूत ज़मीनदार परिवार में (मांडा संपत्ति पर शासन किया) हुआ था। इनका जन्म राजा डईया (जो कोरांव मे बेलन नदी के किनारे है ) के घर हुआ था। बाद में इन्हे मांडा के राजा राम गोपाल सिंह ने गोद लिया। इन्हें दो पुत्र रत्नों की प्राप्ति हुई। उन्होंने कोरांव,इलाहाबाद (उत्तर प्रदेश) में गोपाल इंटरमीडिएट कॉलेज की स्थापना की थी।
विश्वनाथ प्रताप सिंह ने इलाहाबाद और पूना विश्वविद्यालय में अध्ययन किया था। वह १९४७-१९४८ में उदय प्रताप कॉलेज, वाराणसी के विद्यार्थी यूनियन के अध्यक्ष रहे। विश्वनाथ प्रताप सिंह इलाहाबाद विश्वविद्यालय की स्टूडेंट यूनियन में उपाध्यक्ष भी थे। १९५७ में उन्होंने भूदान आन्दोलन में सक्रिय भूमिका निभाई थी। सिंह ने अपनी ज़मीनें दान में दे दीं। इसके लिए पारिवारिक विवाद हुआ, जो कि न्यायालय भी जा पहुँचा था। वह इलाहाबाद की अखिल भारतीय कांग्रेस समिति के अधिशासी प्रकोष्ठ के सदस्य भी रहे।
विश्वनाथ प्रताप सिंह को अपने विद्यार्थी जीवन में ही राजनीति से दिलचस्पी हो गई थी। वह समृद्ध परिवार से थे, इस कारण युवाकाल की राजनीति में उन्हें सफलता प्राप्त हुई। उनका सम्बन्ध भारतीय कांग्रेस पार्टी के साथ हो गया। १९६९-१९७१ में वह उत्तर प्रदेश विधानसभा में पहुँचे। उन्होंने उत्तर प्रदेश में मुख्यमंत्री का कार्यभार भी सम्भाला। उनका मुख्यमंत्री कार्यकाल ९ जून 1९80 से २८ जून 1९82 तक ही रहा। इसके पश्चात्त वह 2९ जनवरी 1९83 को केन्द्रीय वाणिज्य मंत्री बने। विश्वनाथ प्रताप सिंह राज्यसभा के भी सदस्य रहे। ३१ दिसम्बर 1९84 को वह भारत के वित्तमंत्री भी बने। भारतीय राजनीति के परिदृश्य में विश्वनाथ प्रताप सिंह उस समय वित्तमंत्री थे जब राजीव गांधी के साथ में उनका टकराव हुआ। विश्वनाथ प्रताप सिंह के पास यह सूचना थी कि कई भारतीयों द्वारा विदेशी बैंकों में अकूत धन जमा करवाया गया है। इस पर वी. पी. सिंह अर्थात् विश्वनाथ प्रताप सिंह ने अमेरिका की एक जासूस संस्था फ़ेयरफ़ैक्स की नियुक्ति कर दी ताकि ऐसे भारतीयों का पता लगाया जा सके। इसी बीच स्वीडन ने १६ अप्रैल 1९87 को यह समाचार प्रसारित किया कि भारत के बोफोर्स कम्पनी की ४१० तोपों का सौदा हुआ था, उसमें ६० करोड़ की राशि कमीशन के तौर पर दी गई थी। जब यह समाचार भारतीय मीडिया तक पहुँचा, यह 'समाचार' संसद में मुद्दा बन कर उभरा। इससे जनता को यह पता चला कि ६० करोड़ की दलाली में राजीव गांधी का हाथ था। बोफोर्स कांड के सुर्खियों में रहते हुए 1९8९ के चुनाव भी आ गए। वी. पी. सिंह और विपक्ष ने इसे चुनावी मुद्दे के रूप में पेश किया। यद्यपि प्राथमिक जाँच-पड़ताल से यह साबित हो गया कि राजीव गांधी के विरुद्ध जो आरोप लगाया गया था वो बिल्कुल ग़लत तो नहीं है, साथ ही ऑडिटर जनरल ने तोपों की विश्वसनीयता को संदेह के घेरे में ला दिया था। भारतीय जनता के मध्य यह बात स्पष्ट हो गई कि बोफार्स तोपें विश्वसनीयन नहीं हैं तो सौदे में दलाली ली गई थी। इससे पर्दाफाश के कारण राजीव गांधी ने वी. पी. सिंह को कांग्रेस से निष्कासित कर दिया। चोरों को सजा तो देनी ही थी, जनता ने राजीव गांधी को अपने किए की सजा दी, और सत्ता से निष्कासित कर दिया। राजीव गांधी के कारण अफ़सरशाही और नौकरशाही भ्रष्ट हो चुकी थी। उच्च स्तर पर भ्रष्टाचार के दावे ने भारत के सभी वर्गों को चौंका दिया। वी. पी. सिंह के खुलासे सत्य साबित हुए।
वी. पी. सिंह ने चुनाव की तिथि घोषित होने के बाद जनसभाओं में दावा किया कि बोफोर्स तोपों की दलाली की रक़म 'लोटस' नामक विदेशी बैंक में जमा कराई है और वह सत्ता में आने के बाद पूरे प्रकरण का ख़ुलासा कर देंगे। कांग्रेस में वित्त एवं रक्षा मंत्रालय सर्वेसर्वा रहा व्यक्ति यह आरोप लगा रहा था, इस कारण लिया कि वी. पी. सिंह के दावों में अवश्य ही सच्चाई होगी। अब यहाँ यह कहने की आवश्यकता नहीं है कि वी. पी. ने जो बताया था वो सच था, राजीव गांधी ने सत्ता में रहते हुए एक दस्यु की भूमिका निभाई, यही बात बोफोर्स सौदे के मामले में भी हुई। इस प्रकार इस चुनाव में वी. पी. सिंह की छवि एक ऐसे राजनीतिज्ञ की बन गई जिसकी ईमानदारी और कर्तव्य निष्ठा पर कोई शक़ नहीं किया जा सकता था। उत्तर प्रदेश के युवाओं ने तो उन्हें अपना नायक मान लिया था। वी. पी. सिंह छात्रों की टोलियों के साथ-साथ रहते थे। वह मोटरसाइकिल पर चुनाव प्रचार करते छात्रों के साथ हो लेते थे। उन्होंने स्वयं को साधारण व्यक्ति प्रदर्शित करने के लिए यथासम्भव कार की सवारी से भी परहेज किया। फलस्वरूप इसका सार्थक प्रभाव देखने को प्राप्त हुआ। वी. पी. सिंह ने एक ओर जनता के बीच अपनी सत्यवादी की छवि बनाई तो दूसरी ओर घोटालेबाज कांग्रेस को तोड़ने का काम भी आरम्भ किया। जो लोग राजीव गांधी से असंतुष्ट थे, उनसे वी. पी. सिंह ने सम्पर्क करना आरम्भ कर दिया। वह चाहते थे कि असंतुष्ट कांग्रेसी राजीव गांधी और कांग्रेस पार्टी से अलग हो जाएँ। उनकी इस मुहिम में पहला नाम था-आरिफ़ मुहम्मद का। आरिफ़ मुहम्मद एक आज़ाद एवं प्रगतिशील विचारों के व्यक्ति थे। इस कारण वह चाहते थे कि इस्लामिक कुरीतियों को समाप्त किया जाना आवश्यक है। आरिफ़ मुहम्मद तथा राजीव गांधी एक-दूसरे के बेहद क़रीब थे लेकिन एक घटना ने उनके बीच गहरी खाई पैदा कर दी। दरअसल हुआ यह कि हैदराबाद में शाहबानो को उसके पति द्वारा तलाक़ देने के बाद मामला अदालत तक जा पहुँचा। अदालत ने मुस्लिम महिला शाहबानो को जीवन निर्वाह भत्ते के योग्य माना। लेकिन मुस्लिम कट्टरपंथी चाहते थे कि 'मुस्लिम पर्सनल लॉ' के आधार पर ही फैसला किया जाए। इस कारण यह विवाद काफ़ी तूल पकड़ चुका था। ऐसी स्थिति में राजीव गांधी ने आरिफ़ मुहम्मद से कहा कि वह एक ज़ोरदार अभियान चलाकर लोगों को समझाएँ कि मुस्लिमों को नया क़ानून मानना चाहिए और 'मुस्लिम व्यक्तिगत क़ानून' पर निर्भर नहीं रहना चाहिए।
वी. पी. सिंह ने विद्याचरण शुक्ल, रामधन तथा सतपाल मलिक और अन्य असंतुष्ट कांग्रेसियों के साथ मिलकर २ अक्टूबर १९८७ को अपना एक पृथक मोर्चा गठित कर लिया। इस मोर्चे में भारतीय जनता पार्टी भी सम्मिलित हो गई। वामदलों ने भी मोर्चे को समर्थन देने की घोषणा कर दी। इस प्रकार सात दलों के मोर्चे का निर्माण ६ अगस्त १९८८ को हुआ और ११ अक्टूबर १९८८ को राष्ट्रीय मोर्चा का विधिवत गठन कर लिया गया।
प्रधानमंत्री के पद पर
१९८९ का लोकसभा चुनाव पूर्ण हुआ। कांग्रेस को भारी क्षति उठानी पड़ी। उसे मात्र १९७ सीटें ही प्राप्त हुईं। विश्वनाथ प्रताप सिंह के राष्ट्रीय मोर्चे को १४६ सीटें मिलीं। भाजपा और वामदलों ने राष्ट्रीय मोर्चे को समर्थन देने का इरादा ज़ाहिर कर दिया। तब भाजपा के पास ८६ सांसद थे और वामदलों के पास ५२ सांसद। इस तरह राष्ट्रीय मोर्चे को २४८ सदस्यों का समर्थन प्राप्त हो गया। वी. पी. सिंह स्वयं को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बता रहे थे। उन्हें लगता था कि राजीव गांधी और कांग्रेस की पराजय उनके कारण ही सम्भव हुई है। लेकिन चन्द्रशेखर और देवीलाल भी प्रधानमंत्री पद की दौड़ में शरीक़ हो गए। ऐसे में यह तय किया गया कि वी. पी. सिंह की प्रधानमंत्री पद पर ताजपोशी होगी और चौधरी देवीलाल को उपप्रधानमंत्री बनाया जाएगा। प्रधानमंत्री बनते ही उन्होंने सिखों के घाव पर मरहम रखने के लिए स्वर्ण मन्दिर की ओर दौड़ लगाई।
विश्वनाथ प्रताप सिंह के ऐतिहासिक निर्णय
व्यक्तिगत तौर पर विश्वनाथ प्रताप सिंह बेहद निर्मल स्वभाव के थे और प्रधानमंत्री के रूप में उनकी छवि एक मजबूत और सामाजिक राजनैतिक दूरदर्शी व्यक्ति की थी। उन्होंने मंडल कमीशन की सिफारिशों को मानकर देश में बहुसंख्यक वंचित समुदायों की नौकरियों में हिस्सेदारी पर मोहर लगा दी। मंडल आयोग की अधिसूचना १३अगस्त १९९० को जारी हुई।मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू करने के खिलाफ अखिल भारतीय आरक्षण विरोधी मोर्चा ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की। इस याचिका पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने यह मामला नौ न्यायाधीशों की पीठ को सौंप दिया। १६ नवम्बर १९९२ को सुप्रीम कोर्ट ने अपने ऐतिहासिक फैसले मे मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू करने के फैसले को सही ठहराया। इसी याचिका की सुनवाई के दौरान कोर्ट ने आरक्षण की अधिकतम सीमा ५०प्रतिशत तक कर दी। सुप्रीम कोर्ट के फैसले के कुछ दिन बाद ही सरकार ने नौकरियों में पिछङे वर्ग को २७ प्रतिशत आरक्षण देने की अधिसूचना जारी कर दी।
२७ नवम्बर २००८ को ७७ वर्ष की अवस्था में वी. पी. सिंह का निधन दिल्ली के अपोलो हॉस्पीटल में हो गया।
इन्हें भी देखें
उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री
भारत के मुख्यमंत्रियों की सूची
भारत के प्रधानमंत्री
भारत के प्रधानमंत्रियों का आधिकारिक जालस्थल (अंग्रेजी में)
वी पी सिंह का जीवन
१९३१ में जन्मे लोग
२००८ में निधन
भारत के प्रधानमंत्री
भारत के वित्त मंत्री
उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री
५वीं लोक सभा के सदस्य
इलाहाबाद विश्वविद्यालय के पूर्व छात्र |
दक्षिण कोरिया (कोरियाई: (देहान मिंगुक), (हंजा)), पूर्वी एशिया में स्थित एक देश है जो कोरियाई प्रायद्वीप के दक्षिणी अर्धभाग को घेरे हुए है। 'शान्त सुबह की भूमि' के रूप में ख्यात इस देश के पश्चिम में चीन, पूर्व में जापान और उत्तर में उत्तर कोरिया स्थित है। देश की राजधानी सियोल दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा महानगरीय क्षेत्र और एक प्रमुख वैश्विक नगर है। यहां की आधिकारिक भाषा कोरियाई है जो हंगुल और हंजा दोनो लिपियों में लिखी जाती है। राष्ट्रीय मुद्रा वॉन है।
उत्तर कोरिया, इस देश की सीमा से लगता एकमात्र देश है, जिसकी दक्षिण कोरिया के साथ २३८ किलिमीटर लम्बी सीमा है। दोनो कोरियाओं की सीमा विश्व की सबसे अधिक सैन्य जमावड़े वाली सीमा है। साथ ही दोनों देशों के बीच एक असैन्य क्षेत्र भी है।
कोरियाई युद्ध की विभीषिका झेल चुका दक्षिण कोरिया वर्तमान में एक विकसित देश है और सकल घरेलू उत्पाद (क्रय शक्ति) के आधार पर विश्व की तेरहवीं और सकल घरेलू उत्पाद (संज्ञात्मक) के आधार पर पन्द्रहवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है।कोरिया मे १५ अंतराष्ट्रीय बिमानस्थल है
और करीब ५०० विश्वविद्यालय है लोग बिदेशो यहा अध्ययन करने आते है। यहा औद्योगिक विकास बहुत हुऐ है और कोरिया मे चीन सहित १५ देशो के लोग रोजगार अनुमति प्रणाली(एप्स) के माध्यम से यहा काम करते है। जिसमे दक्षिण एशिया के ४ देशो नेपाल बांग्लादेश श्रीलंका पाकिस्तान है।
दक्षिण कोरियाई अपने देश को हांगुक कहते हैं, जिसका शाब्दिक अर्थ है "हानों की भूमि" (हंगुल: , हांजा: )। हान एक प्रागएतिहासिक जनजाति का नाम है जो कोरियाई प्रायद्वीप पर रहते थे। ये हान, हान चीनियों से अलग हैं। देश का एक उपनाम है "जोसिओन" जिसका अर्थ है, शान्त सुबह की भूमि।
दाइहान मिन्गुक देश का आधिकारिक नाम है, जिसका अर्थ है कोरिया गणराज्य या शाब्दिक अर्थ है महान हान गणराज्य (; )।
नवपाषाण काल के लोगों का कोरीयाई प्रायद्वीप पर प्रथम प्रवसन तीसरी शताब्दी ईसापूर्व का है। तबसे, यह देश चीन और जापान के बीच अपनी पहचान को बनाए हुए है। कोरिया की संस्कृति एक समृद्ध संस्कृति है जिसकी अपनी अलग पहचान है।
कोरिया का समकालीन विभाजन १९१० में जापान के कोरियाई प्रायद्वीप के अधिग्रहण से आरम्भ हुआ था। १९४५ में द्वितीय विश्व युद्ध की समाप्ति पर, कोरियाई प्रायद्वीप का दो भागों में, उस समय की दो महाशक्तियों सोवियत संघ और संयुक्त राज्य अमेरिका द्वारा विभाजन किया गया। १९४८ में उत्तर और दक्षिण कोरिया स्वतन्त्र हुए और उत्तरी भाग साम्यवादी बना और दक्षिणी भाग अमेरिका द्वारा प्रभावित था। कोरियाई युद्ध जून १९५० से आरम्भ हुआ जिसमें उत्तर का समर्थन चीन और दक्षिण का समर्थन संयुक्त राज्य अमेरिका ने किया। १९५३ में दोनों पक्षों के बीच एक शान्ति समझौते पर हस्ताक्षर किए गए जिससे युद्ध पर विराम लगा। लेकिन आज भी दोनो कोरिया आधिकारिक रूप से युद्धरत हैं क्योंकि अभी तक किसी भी युद्ध समाप्ति पत्र पर हस्ताक्षर नहीं किए गए हैं। १९५३ से ही कोरियाई प्रायद्वीप उत्तर और दक्षिण कोरिया के बीच असैन्य क्षेत्र के रूप में ३८वें समानान्तर पर बँटा हुआ है और इनकी सीमा विश्व की सर्वाधिक सैन्य जमावड़े वाली सीमा है।
युद्ध के बाद, कोरिया गणराज्य में सत्तावादी शासन प्रलाणी उभरी जो स्यंग्मन र्ही और फिर पार्क चुंग-ही के अधीन थी। तानाशाही सरकार होने के बाद भी दक्षिण कोरिया ने आने वाले अगले तीन दशकों में अभूतपूर्व उन्नति की और १९५० में एक अत्यन्त पिछड़े देशों की श्रेणी से निकलकर विकसित देशों की श्रेणी में आ गया। इस अभूतपूर्व उन्नति के कारण ही दक्षिण कोरिया को चार एशियाई चीतों में से एक माना जाता है। तानाशाही सरकार के अधीन १८ मई, १९८० को ग्वांग्जू में हुए लोकतंत्र आंदोलन में मानवाधिकार हनन की बात भी सामने आई।
१९८० में हुए विरोध-प्रदर्शनों के कारण तानाशाही समाप्त हुई और एक लोकतान्त्रिक सरकार स्थापित की गई। किम देइ-जुंग देश के पहले निर्वाचित राष्ट्रपति थे जो जिनके पास वास्तविक लोकतान्त्रिक वैधता थी।
कोरिया गणराज्य, कोरियाई प्रायद्वीप पर दक्षिणी भाग में स्थित है और एशिया की मुख्यभूमि से १,१०० किमी की दूरी पर स्थित है। देश के पश्चिम में पीला सागर, पूर्व में जापान सागर, दक्षिण में कोरिया की खाड़ी, उत्तर में उत्तर कोरिया इसके पड़ोसी हैं। देश का कुल क्षेत्रफल १००,२२२ वर्ग किलोमीटर है।
देश का भूदृश्य अधिकांशतः पहाड़ी है और देश के ३०% भूभाग पर फैला हुआ हैं। तट से दूर इसके ३,००० द्वीप हैं जिनमें से अधिकतर निर्जन हैं और बहुत छोटे हैं। सबसे बड़ा द्वीप जेजू है।
जलवायु, मॉनसूनी है, गर्मिया गर्म और आद्रतायुक्त होती हैं, सर्दिया ठण्डी और शुष्क होती हैं। वार्षिक वर्षा स्थिति सियोल में १,३७० मिलीमीटर से लेकर बूसान में १,४७० मिमी है।
दक्षिण कोरिया में राष्ट्रपति राष्टप्रमुख होता है। वर्तमान राष्ट्रपति ली म्यूंग-बाक हैं जो हन्नारा दल से है और २००७ में वे राष्ट्रपति निर्वाचित हुए थे।
यहाँ की सन्सद एकसदनीय है जिसमें २९९ सीटें हैं। २४३ प्रतिनिधियों का बहुसंख्यक प्रणाली के अन्तर्गत एकल-सीट निर्वाचन-क्षेत्रों से चयन किया जाता है, ४६ का चयन दलीय सूची के आधार पर किया जाता है, जिसमें ५% का अवरोधन है। प्रतिनिधियों का कार्यकाल ४ वर्षों का होता है।
देश में सन्सदीय चुनाव १९८० से आरम्भ हुए थे। १९८८ तक देश में चुनावों पर बहुत से प्रतिबन्ध थे जो राष्ट्रपतियों जैसे पार्क गुंग ही और बाद में चुन दो-ह्वान ने लगाए थे। १९८८ में देश के पहले सन्सदीय चुनाव हुए। २००८ के सन्सदीय चुनावों के परिणाम इस प्रकार हैं:
२००८ की स्थिति तक दक्षिण कोरिया की अर्थव्यवस्था क्रय शक्ति के आधार पर विश्व की ५वीं सबसे बड़ी और संज्ञात्मक आधार पर चौथी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है। प्रति व्यक्ति आय १९६३ में १०० $ से बढ़कर २००५ में २०,००० $ हो गई।
पिछले साठ वर्षों के दौरान दक्षिण कोरिया की अर्थव्यवस्था के प्रमुख क्षेत्रों में चमत्कारी परिवर्तन आया है। दशक १९४० के दौरान देश की अर्थव्यवस्था मुख्यतः कृषि-आधारित और कुछ हलके उद्योगों पर आधारित थी। अगले कुछ दशकों के दौरान अर्थव्यवस्था में हल्के उद्योगों और उपभोक्ता उत्पादों पर बल दिया गया और दशक १९७० और १९८० के दौरान भारी उद्योगों पर बल दिया गया। प्रथम ३० वर्षों के दौरान राष्ट्रपति पार्क चुंग ही ने १९६२ से पंच वर्षीय योजनाएं आरम्भ कीं, जिसके परिणामस्वरूप अर्थव्यवस्था बहुत तेज़ी से आगे बढ़ी और इसका स्वरूप भी बदला। दशक १९६० से १९९० के मध्य हुई अभूतपूर्व उन्नति के कारण दक्षिण कोरिया को ताइवान, सिंगापुर और हांग कांग के साथ-साथ एक एशियाई चीता माना जाता है।
१९६० के बाद से हुई इस उन्नति में दशक १९८० के अन्तिम वर्षों में उतार आने लगा। उस समय तक आर्थिक वृद्धि दर घटकर ६.५% रह गई, जबकि वेतन, जनसंख्या और मुद्रास्फीति में वृद्धि हुई। अन्य विकसित देशों के समान ही दशक १९९० में अर्थव्यवस्था में सेवा क्षेत्र का योगदान बढ़ा और यह क्षेत्र प्रधान बन गया और वर्तमान में जीडीपी में दो-तिहाई योगदान देता है।
दक्षिण कोरिया एक समनस्लीय देश है कोरियाई जनसंख्या का बहुत बड़ा भाग (लगभग ९८%) हैं। इसके अतिरिक्त देश में लगभग १ लाख चीनी भी रहते हैं जो सीधे चीन से न होकर अन्य स्थानों जैसे हांग कांग, मकाउ, जापान, मलेशिया, भारत, फ़िलीपीन्स इत्यादी से होते हुए यहाँ आए हैं।
कोरियाई भाषा यहाँ की आधिकारिक भाषा है जो अल्टिक भाषा परिवार से सम्बन्धित है। कोरियाई लेखन लिपि, हांगुल, का आविष्कार १४४६ में राजा सेजोंग के काल में हुआ था जिसका उद्देश्य अपनी प्रजा में शिक्षा का प्रसार करना था। हुन्मिन जिओंगिउम (, ) की शाही उद्घोषणा में चीनी वर्णों को एक आम व्यक्ति द्वारा सीखना बहुत कठिन माना जाता था, जिसका शाब्दिक अर्थ है "ध्वनियां जो लोगों को सिखाने के लिए उपयुक्त हैं"। कोरियाई लिपि, चीनी लेखन लिपि से भिन्न है क्योंकि यह ध्वन्यात्मक कोरियाई से भिन्न है।
बहुत से मौलिक शब्द कोरियाई में चीनी भाषा से लिए गए और वृद्ध कोरियाई अभी भी हांजा में लिखते हैं, जो चीनी चित्रलिपि और जापानी कांजी के समान है, क्योंकि जापानी शासनकाल के दौरान कोरियाई में बोलना और लिखना प्रतिबन्धित था।
२००० में सरकार ने रोमनीकरण प्रणाली लाने का निर्णय लिया। अंग्रेज़ी अधिकान्श प्राथमिक विद्यालयों में द्वितीय भाषा के रूप में पढ़ाई जाती है। इसके अतितिक्त माध्यमिक विद्यालयों में दो वर्षों तक चीनी, जापानी, फ़्रान्सीसी, जर्मन, या स्पेनी भाषाएं भी पढ़ाई जाती हैं।
ईसाई धर्म और बौद्ध धर्म देश के दो प्रमुख धर्म हैं। ईसाई ४९% (३६% प्रोटेस्टेण्ट और १३% रोमन कैथलिक) और बौद्ध ४७% हैं। यद्यपि केवल ३% जनता ही स्वयं को कन्फ़्यूशियस कहती है लेकिन कोरियाई लोग कन्फ़्यूशियन विश्वासों से बहुत प्रभावित हैं। शेष कोरियाई शामनिज़्म और चिओन्दोग्यो धर्मों का पालन करते हैं।
कोरियाई पारम्परिक संस्कृति दोनों कोरियाओ में समान है, पर १९४५ में विभाजन के बाद से दोनों देशों की समकालीन संस्कृतियां विशिष्ट रूप से विकसित हुई हैं। एतिहासिक रूप से कोरिया की संस्कृति उसके पड़ोसी चीन की संस्कृति के बहुत प्रभावित रही है लेकिन फिर भी अपने विशाल पड़ोसी से अलग संस्कृति का विकास करने में दक्षिण कोरिया सफ़ल रहा है। दक्षिण कोरियाई संस्कृति, खेलकूद और पर्यटन मन्त्रालय पारम्परिक कलाओं और आधुनिक रूपान्तरों को सहायता राशि और शिक्षा प्रदान कर बढ़ावा देता है।
औद्योगीकरण और नगरीकरण के कारण दक्षिण कोरिया में लोगों के रहने के ढंग में बहुत परिवर्तन आया है। बदलते अर्थतन्त्र और जीवन-शैली के कारण बड़े नगरों में जनसंख्या घनत्व बढ़ा है, विशेषकर राजधानी सियोल में, जिससे बहु-पीढ़ीय परिवारों का स्थान लघु परिवारों ने ले लिया है।
कोरियाई कला अधिकतर बौद्ध धर्म और कन्फूसियस से प्रभावित है जो कि यहां कि पारम्परिक चित्रकला, मूर्तिकला और ऐतिहासिक मिट्टी के बर्तनो मे झलकती है। यहां कि मृदभांडो पर कि जाने वाली कलाकृतिया और चीनी मिट्टी कि कला जैसे जोसन काल के 'बैक्जा' और बर्तनो मे कि जाने वाली बोंचेओंग कला, इसके बाद गोरियो के काल को कोरियाई कला का विपुल काल माना जाता है इस काल कि कला विश्व मे कोरिया को एक अलग पहचान दिलाती है। हलाकि यहां कि कला उत्तर कोरिया और चीन से मेल खाती है फिर भी यहां कि कला अपने आप मे एक विशेष पहचान बनती है।
दक्षिण कोरिया कि आधुनिक कला काम उत्भव कोरियाई युद्ध के उपरांत लगभग १९६०-७० के दशक मे होने लगा, जब कोरियाई कलाकार ज्यामितीय संरचनाओं और अमूर्त विषयो पर रूचि रखने लगे। मनुष्य और प्रकृति मे सामंजस्यता इस समय कला के लोकप्रिय विषयो मे मे एक था। १९८० के समय सामाजिक अस्थिरता के कारन यहां कि कला मे सामाजिक मुद्दे भी दिखाई देने लगे।
द. कोरिया कि कला अंतराष्ट्रीय घटनाओ और यहां प्रदर्शित होने वाली घटनाओ जैसे १९८८ काम सिओल ओलिंपिक आदि से द.कोरियाई कला प्रभावित हुई और साथ ही साथ विश्व मे पहचान मिली।
कोरियाई पाक शैली, हांगुक योरि, या हान्सिक, का विकास सदियों के सामाजिक और राजनैतिक परिवर्तनों के दौरान हुआ है। सामग्री और व्यंजन विभिन्न प्रान्तों में भिन्न हैं। ऐसे बहुत से क्षेत्रीय रूप से महत्वपूर्ण व्यंजन हैं जिन्का देश के विभिन्न भागों में प्रसार हुआ है। कोरियाई शाही दरबार ने एक समय सारे क्षेत्रीय विशिष्ट व्यंजनों को शाही परिवार के लिए एकत्रित किया था। शाही परिवार और जनसाधारण कोरियाईयों द्वारा खाया जाने वाला भोजन एक विशिष्ट सांस्कृतिक शिष्टाचार द्वारा विनियमित रहा है।
कोरियाई खानपान मुख्य रूप से चावल, नूडल, तोफ़ू, सब्ज़ियों, मछली और मांस पर आधारित रहा है। पारम्परिक कोरियाई भोजन बहुत से सहायक भोजनों (साइड डिश), के लिए जाना जाता है, जैसे बंचन () जो भाप मे पकाए गए छोटे दानों वाले चावलों के साथ परोसा जाता है। प्रत्येक भोजन बहुत से बंचन के साथ परोसा जाता है, किम्ची, एक किण्वित और बहुधा मसालेदार सब्ज़ी वाला भिजन है जो सभी भोजों के दौरान परोसा जाता है और विख्यात कोरियाई व्यंजनों में से एक है।
शिक्षा को दक्षिण कोरिया में सफ़लता के लिए बहुत महत्वपूर्ण माना जाता है, इसलिए इस मामले में बहुत गलाकाट प्रतिस्पर्धा है। २००६ में अन्तर्राष्ट्रीय विद्यार्थी मूल्यांकन के ओईसीडी कार्यक्रम के परिणाम अनुसार दक्षिण कोरिया समस्या हल करने में प्रथम, गणित में तीसरे और विज्ञान में सातवें स्थान पर था। दक्षिण कोरिया की शिक्षा प्रणाली प्रौद्योगिकीय रूप से अग्रवर्ती है और यह पहला ऐसा देश है जिसने पूरे देश में प्राथमिक और माध्यमिक विद्यालयों के लिए उच्च गति के फ़ाइबर ऑप्टिक इण्टरनेट अभिगमन की सुविधा उपलब्ध कराई है। इस अवसरंचना का उपयोग करके, दक्षिण कोरिया ने विश्व में सर्वप्रथम डिजिटक पुस्तकें विकसित की हैं और जिनका देशभर में प्रत्येक प्राथमिक और माध्यमिक विद्यालय में २०१३ तक निशुल्क वितरण किया गया।
मार्शल आर्ट्स ताक्वाण्डो का जन्म कोरिया में हुआ था। दशक १९५० और १९६० के दौरान, वर्तमान नियमों को मानकीकृत किया गया और ताक्वाण्डो २००० में आधिकारिक ओलम्पिक क्रीड़ा बना। अन्य कोरियैइ मार्शल आर्ट्स में तेइक्केओन, हाप्किडो, तांग सू, कुक सूल वोन, कूम्दो और सूबाक।
कोरिया में फुट्बॉल पारम्परिक रूप से सर्वाधिक देखा जाने वाला खेल है। हाल ही में हुए पोल ये बताते हैं कि ५६.७% दक्षिण कोरियाई खेल प्रशंसक स्वयं को फुट्बॉल प्रशंसक बताते हैं, जबकि बेसबॉल प्रशंसक १९.१% के साथ दूसरे स्थान पर हैं। हालांकि, पोल में यह इंगित नहीं किया गया कि कितने प्रशंसक दोनों खेलों के प्रशंसक हैं।
इन खेलों के अतिरिक्त दक्षिण कोरिया ने १९८६ (सियोल) और २००२ (बुसान) के एशियाई खेलों की मेज़बानी भी की थी। १९८८ में दक्षिण कोरिया में ओलम्पिक खेलों की मेज़बानी की जिसमे दक्षिण कोरिया १२ स्वर्ण, १० रजत और ११ कांस्य पदकों के साथ चौथे स्थान पर रहा था।
अक्टूबर २०१० में, दक्षिण कोरिया ने पहली बार राजधानी सियोल से ४०० किमी दक्षिण में स्थित येओन्गम में कोरियाई अन्तराष्ट्रीय परिपथ में फ़ॉर्मुला वन रेस का भी आयोजन किया था।
दक्षिण कोरिया और नाभिकीय अस्त्र
२००४ में दक्षिण कोरियाई अधिकारियों ने माना कि १९८० में दक्षिण कोरिया ने हथियार्-योग्य प्लूटोनियम प्राप्त करने के लिए परीक्षण किए थे और २००० में यूरेनियम संवर्धन के लिए। हालांकि, सियोल ने, आई॰ए॰ई॰ए को इस बारे में सूचित न करके नाभिकीय अप्रसार सन्धि का घोर उल्लंघन किया था। २६ सितम्बर, २००४ को आई॰ए॰ई॰ए विशेषज्ञों ने दक्षिण कोरिया के संवर्धन कार्यक्रम की जानकारी लेने के लिए देश के नाभिकीय ठिकानों का दौरा किया और यह सुझाया कि दक्षिण कोरिया के यूरेनियम संवर्धन कार्यक्रम का सैन्य पहलू भी है।
यह भी देखिए
कोरियायी भाषा और साहित्य
उत्तरी कोरिया के साथ शांति समझौता
कोरिया गणराज्य का आधिकारिक जालपृष्ठ
कोरिया पर्यटन का आधिकारिक जालपृष्ठ (बहुभाषीय)
आओ कोरियाई सीखें
पूर्वी एशिया के देश
एशिया के देश |
चीन (),आधिकारिक रूप से चीनी जनवादी गणराज्य (), पूर्वी एशिया का एक देश है। यह विश्व का सर्वाधिक जनसंख्या वाला देश है, जिसकी जनसंख्या १.४ अरब से अधिक है, भारत थोड़ा आगे है। चीन पाँच समय क्षेत्रों के बराबर फैला हुआ है और १४ देशों की भूमि से सीमाएँ हैं, विश्व के किसी भी देश से सर्वाधिक, रूस के साथ बन्धा हुआ है। लगभग ९६ लाख वर्ग किमी के क्षेत्रफल के साथ, यह कुल भूमि क्षेत्र के हिसाब से विश्व का तृतीय सबसे बड़ा देश है। देश में २२ प्रान्त, पाँच स्वायत्त क्षेत्र, चार नगर पालिकाएँ और दो विशेष प्रशासनिक क्षेत्र (हॉङ्कॉङ और मकाउ) अन्तर्गत हैं। राष्ट्रीय राजधानी बीजिंग है, और सर्वाधिक जनसंख्या वाला नगर और वित्तीय केन्द्र षंख़ाई है।
आधुनिक चीनी अपनी उत्पत्ति उत्तरी चीन के मैदान में पीली नदी के उपजाऊ बेसिन में सभ्यता के उद्गम स्थल में खोजते हैं २१वीं शताब्दी ईसा पूर्व में अर्ध-पौराणिक शिया राजवंश और अच्छी तरह से प्रमाणित षाङ और झोउ राजवंशों ने वंशानुगत राजशाही, या राजवंशों की सेवा के लिए एक नौकरशाही राजनीतिक प्रणाली विकसित की। इस अवधि के दौरान चीनी लिपि, चीनी उत्कृष्ट साहित्य और सौ विचारधाराएँ उभरे और आने वाली शताब्दियों तक चीन और उसके पड़ोसियों को प्रभावित किया। तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व में, छिन के एकीकरण के युद्धों ने प्रथम चीनी साम्राज्य, अल्पकालिक छिन राजवंश का निर्माण किया। छिन के बाद अधिक स्थिर हान राजवंश (२०६ ईसा पूर्व-२२० सीई) आया, जिसने लगभग दो सहस्राब्दी के लिए एक मॉडल स्थापित किया जिसमें चीनी साम्राज्य विश्व की अग्रणी आर्थिक शक्तियों में से एक था। साम्राज्य का विस्तार हुआ, खण्डित हुआ, और पुन: एकीकृत हुआ; जीत लिया गया और पुनः स्थापित किया गया; विदेशी धर्मों और विचारों को अवशोषित किया; और विश्व-अग्रणी वैज्ञानिक प्रगति की, जैसे चार महान आविष्कार: बारूद, काग़ज़, दिक्सूचक, और मुद्रण। हान के पतन के बाद शताब्दियों की एकता के बाद, सुई (५८१६१८) और थाङ (६१८९०७) राजवंशों ने साम्राज्य को फिर से एकीकृत किया। बहु-जातीय थाङ ने विदेशी व्यापार और संस्कृति का स्वागत किया जो कौशेय मार्ग पर आया और बौद्ध धर्म को चीनी आवश्यकताओं के अनुकूल बनाया। प्रारम्भिक आधुनिक सुङ राजवंश (९६०-१२७९) वृद्धि से नगरी और वाणिज्यिक बन गया। नागरिक विद्वानधिकारियों या साहित्यकारों ने पहले के राजवंशों के सैन्य अभिजात वर्ग को बदलने के लिए परीक्षा प्रणाली और नव-कन्फ़्यूशीवाद के सिद्धान्तों का उपयोग किया। मंगोल आक्रमण ने १२७९ में युऐन राजवंश की स्थापना की, लेकिन मिङ राजवंश (१३६८-१६४४) ने हान चीनी नियंत्रण को फिर से स्थापित किया। मांछु के नेतृत्व वाले छिङ राजवंश ने साम्राज्य के क्षेत्र को लगभग दोगुना कर दिया और एक बहु-जातीय राज्य की स्थापना की जो आधुनिक चीनी राष्ट्र का आधार था, लेकिन १९वीं शताब्दी में विदेशी साम्राज्यवाद को भारी क्षति उठाना पड़ा।
चीन वर्तमान में चीनी साम्यवादी दल द्वारा एकात्मक मार्क्सवादी-लेनिनवादी एक-दलीय समाजवादी गणराज्य के रूप में शासित है। चीन संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद का स्थायी सदस्य है और एशियाई आधारभूत संरचना निवेश बैंक, कौशेय मार्ग कोष, नूतन विकास बैंक, षंख़ाई सहयोग संगठन और क्षेत्रीय व्यापक आर्थिक भागीदारी जैसे कई बहुपक्षीय और क्षेत्रीय सहयोग संगठनों का संस्थापक सदस्य है। यह ब्रिक्स, जी८+५, जी-२०, एशिया - प्रशांत महासागरीय आर्थिक सहयोग और पूर्वी एशिया शिखर सम्मेलन का भी सदस्य है। यह लोकतंत्र, नागरिक स्वातंत्र्य, सरकार की पारदर्शिता, प्रेस की स्वतंत्रता, धर्म स्वातंत्र्य और जातीय अल्पसंख्यकों के मानवाधिकारों के माप में सबसे नीचे है। मानवाधिकार कार्यकर्ताओं और गैर-सरकारी संगठनों द्वारा राजनीतिक दमन, व्यापक अभिवेचन, अपने नागरिकों की व्यापक निगरानी, और विरोध और असन्तोष के हिंसक दमन सहित मानवाधिकारों के हनन के लिए चीनी अधिकारियों की आलोचना की गई है।
विश्व अर्थव्यवस्था का लगभग पंचम भाग बनाते हुए, चीन क्रय-शक्ति समता पर जीडीपी के हिसाब से विश्व की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है, सकल घरेलू उत्पाद के हिसाब से दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है, और दूसरा सबसे धनी देश है। देश सबसे वृद्धि से बढ़ती प्रमुख अर्थव्यवस्थाओं में से एक है और विश्व का सबसे बड़ा निर्माता और निर्यातक है, साथ ही दूसरा सबसे बड़ा आयातक भी है। सैन्य कर्मियों द्वारा विश्व की सबसे बड़ी स्थायी सेना और दूसरा सबसे बड़ा रक्षा बजट वाला चीन एक मान्यता प्राप्त परमाण्वस्त्र वाला देश है। चीन को अपने उच्च स्तर के नवाचार, आर्थिक क्षमता, बढ़ती सैन्य ताकत और अंतर्राष्ट्रीय मामलों में प्रभाव के कारण संभावित महाशक्ति माना जाता है।
चीन में सामान्य रूप से प्रयुक्त होने वाले नाम हैं "झोङ्ह्वा" (/) और "झोंग्वौ" (/), जबकि चीनी मूल के लोगों को आमतौर पर "हान" (/) और "थाङ्" () नाम दिया जाता है। अन्य प्रयुक्त होने वाले नाम हैं हुआश़िया, शेन्झोउ और जिझोउ। चीनी जनवादी गणराज्य () और चीनी गणराज्य () उन दो सम्प्रभू देशों के आधिकारिक नाम है जो पारम्परिक रूप से चीन नाम से जाने जाने वाले क्षेत्र पर अपनी दावेदारी करते हैं। "मुख्यभूमि चीन" उन क्षेत्रों के सन्दर्भ में प्रयुक्त किया जाता है जो क्षेत्र चीनी जनवादी गणराज्य के अधीन हैं और इसमें हांग कांग और मकाउ सम्मिलित नहीं हैं।
विश्व के अन्य भागों में, चीन के लिए बहुत से नाम उपयोग में हैं, जिनमें से अधिकतर "किन" या "जिन" और हान या तान के लिप्यन्तरण हैं। हिन्दी में प्रयुक्त नाम भी इसी लिप्यन्तरण से लिया गया है।
चीन में सबसे अधिक बौद्ध धर्म मानने वाले लोग हैं । मूल चीनी धर्म जैसे ताओ धर्म, कुन्फ़्यूशियसी धर्म के अधिकांश अनुयायी भी बौद्ध धर्म का पालन करते है।
चीन में धर्म जीवन पद्धति है
चीन में धर्म की स्थिति अन्य देशों जैसी नहीं है। भारत में या अन्यत्र किसी को हिन्दू, मुस्लिम, ईसाई, बौद्ध, यहुदी आदि धर्मों का अनुयायी बताया जाता है पर चीन में एेसा नहीं है। चीन में कोई व्यक्ति अपनी पारिवारिक और नैतिक समस्याओं के निराकरण के लिये कन्फ्यूशियानिज्म की शरण में चला जाता है, वही व्यक्ति स्वास्थ्य तथा मनोवैज्ञानिक चिन्ताओं के लिये ताओवाद अपना लेता है, अपने स्वजनों के अन्तिम संस्कार के लिये बौद्ध धर्म की परम्पराएं स्वीकार करता है और अन्य बातों के लिये वह स्थानीय देवी देवताओं की आराधना करता है।
वर्तमान में चीन में सभी धर्मों का अनुसरण किया जाता है। यहां के मुख्य धर्म हैं- बौद्ध, ताओ और अल्पसंख्यक धर्म हैं- इस्लाम व ईसाई। इनके अलावा अति अल्प संख्या में हिन्दू तथा यहुदी धर्मों के अनुयायी भी यहां हैं। आज से ४००० वर्ष पूर्व चीन में लोग भिन्न भिन्न देवताओं की पूजा करते थे जैसे मौसम के देवता या आकाश के देवता और इनसे ऊपर एक अन्य देवता शांग ली। इस जमाने में लोग विश्वास करते थे कि उनके पूर्वज मरने के बाद देवता बन गये इसलिये हर परिवार अपने पूर्वजों को पूजता था। बाद में जाकर लोगों को यह विश्वास होने लगा कि सबसे बड़ा देवता वह है जो तमाम अन्य देवताओं पर शासन करता है। स्वर्ग देवता अर्थात् तीयन ही चीन के सम्राट और साम्राज्ञी तय करता था।
२५०० साल पहले चीनी धर्म में नये विचारों का आगमन हुआ। लाओ जू नामक दार्शनिक ने ताओवाद की स्थापना की जो बहुत लोकप्रिय हुआ। इस धर्म का मुख्य आधार यह था कि लोगों को जबर्दस्ती अपनी इच्छाएं नहीं पूरी करनी चाहिये वरन् समझ और सहकार से जीना चाहिये। यह एक दर्शन भी था और धर्म भी। इसी काल में एक अन्य दार्शनिक कन्फ्यूशियस का उदय हुआ जिनका दर्शन ताओवाद से भिन्न था। इस वाद के अनुसार लोगों को अपने कर्तव्य पूरे करने चाहिये, अपने नेताओं का अनुसरण करना चाहिये तथा अपने देवताओं पर श्रद्धा रखनी चाहिये। इस वाद का मूल मंत्र व्यवस्था थी। इन नये धर्मों के बावजूद लोग अपने प्राचीन धर्मों पर चलते रहे और पूर्वजों को पूजते रहे।
२००० वर्ष पूर्व बौद्ध धर्म का चीन में आगमन हुआ और चीनी जनजीवन में अत्यन्त लोकप्रिय हो गया। बौद्ध धर्म चीन का सर्वाधिक संगठित धर्म है तथा आज समूचे विश्व में सबसे अधिक बौद्ध अनुयायी चीन में ही है। कई चीनी ताओ तथा बौद्ध धर्म दोनों को एक साथ मानते हैं। ईसाई धर्म का आगमन १८६० में पहले अफीम युद्ध के दौरान हुआ। इस्लाम का पदार्पण सन् ६५१ में यहां हुआ।
चीन में धर्म जीवन पद्धति है, यह दर्शन है और आध्यात्म है। चीन की जनवादी सरकार आधिकारिक रूप से नास्तिक है मगर यह अपने नागरिकों को धर्म और उपासना की स्वतंत्रता देती है। लेनिन व माओ के काल में धार्मिक विश्वासों और उनके अनुपालन पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया था। तमाम विहारों, पेगोडा, मस्जिदों और चर्चों को अधार्मिक भवनों में बदल दिया गया था। १९७० के अन्त में जाकर इस नीति को शिथिल किया गया और लोगों को धार्मिक अनुसरण की इजाजत दी जाने लगी। १९९० के बाद से पूरे चीन में बौद्ध तथा ताओ विहारों या मन्दिरों के पुनर्निर्माण का विशाल कार्यक्रम शुरू हुआ। २००७ में चीनी संविधान में एक नई धारा जोड़कर धर्म को नागरिकों के जीवन का महत्वपूर्ण तत्व स्वीकार किया गया।
एक सर्वेक्षण के अनुसार चीन की ५० से ८० प्रतिशत जनसंख्या ६६ कराेड़ से १ अरब तक लोग बौद्ध हैं जबकि ताओ सिर्फ ३० प्रतिशत या ४० करोड़ ही हैं। चूँकि अधिकांश चीनी दोनों धर्मों को मानते हैं इसलिये इन आँकड़ों में दोनों का समावेश हो सकता है। एक अन्य सर्वेक्षण के अनुसार चीन की 9१ प्रतिशत जनसंख्या या १ अरब २५ करोड़ लोग बौद्ध धर्म के अनुयायी है। ईसाई ४ से ५ करोड़ और इस्लाम को मानने वाले २ करोड़ के लगभग हैं अर्थात् डेढ़ प्रतिशत।
बौद्ध धर्म को सरकार का मौन समर्थन प्राप्त है। दो वर्ष पूर्व सरकार ने ही यहां विश्व बौद्ध सम्मेलन का आयोजन किया था। विश्व की सबसे बड़ी बौद्ध प्रतिमा हेनान में सन् २००२ में स्थापित की गई थी। हेनान की प्रतिमा स्प्रिंग टैम्पल बुद्ध ५०२ फीट ऊँची है। दूसरे नम्बर पर म्यानमार की ३६० फीट ऊँची बुद्ध प्रतिमा है जो कुछ वर्ष ही स्थापित की गई थी। जापान की ३२८ फीट ऊँची बौद्ध प्रतिमा १९९५ में स्थापित हुई थी।
चीन की सभ्यता विश्व की प्राचीनतम सभ्यताओं में से एक है। इसका चार हज़ार वर्ष पुराना लिखित इतिहास है। यहां विभिन्न प्रकार के ऐतिहासिक व सांस्कृतिक ग्रन्थ और पुरातन संस्कृति के अवशेष पाए गए हैं। दुनिया के अन्य राष्ट्रों के समान चीनी राष्ट्र भी अपने विकास के दौरान आदिम समाज, दास समाज और सामन्ती समाज के कालों से गुजरा था। ऐतिहासिक विकास के इस लम्बे दौर में, चीनी राष्ट्र की विभिन्न जातियों की परिश्रमी, साहसी और बुद्धिमान जनता ने अपने संयुक्त प्रयासों से एक शानदार और ज्योतिर्मय संस्कृति का सृजन किया, तथा समूची मानवजाति के लिये भारी योगदान भी किया। यह उन गिनी-चुनी सभ्यताओं में से एक है जिन्होंने प्राचीन काल में अपनी स्वतन्त्र लेखन पद्धति का विकास किया। अन्य सभ्यताओं के नाम हैं - [प्राचीन भारत] [सिन्धु घाटी सभ्यता], मेसोपोटामिया की सभ्यता, [मिस्र] और [दक्षिण अमेरिका] की [माया सभ्यता]। चीनी लिपि अब भी चीन, जापान के साथ-साथ आंशिक रूप से कोरिया तथा वियतनाम में प्रयुक्त होती है।
पुरातात्विक साक्ष्यों के आधार पर चीन में मानव बसासत लगभग साढ़े बाईस लाख वर्ष पुराना है।
पहले का चीन
श़िया राजवंश का अस्तित्व एक लोककथा लगता था पर हेनान में पुरातात्विक खुदाई के बाद इसके अस्तित्व की सत्यता सामने आई। प्रथम प्रत्यक्ष राजवंश था - शांग राजवंश, जो पूर्वी चीन में १८वीं से १२वीं सदी इसा पूर्व में पीली नदी के किनारे बस गए। १२वीं सदी ईसा पूर्व में पश्चिम से झाऊ शासकों ने इनपर आक्रमण किया और इनके क्षेत्रों पर अधिकार कर लिया। इन्होंने ५वीं सदी ईसा पूर्व तक राज किया। इसके बाद चीन के छोटे राज्य आपसी संघर्षों में भिड़ गए। २२१ ईसा पूर्व में किन राजाओं ने चीन का प्रथम बार एकीकरण किया। इन्होंने राजा का कार्यालय स्थापित किया और चीनी भाषा का मानकीकरण किया। २२० से २०६ ईसा पूर्व तक हान राजवंश के शासकों ने चीन पर राज किया और चीन की संस्कृति पर अपनी अमिट छाप छोड़ी। यह प्रभाव अब तक विद्यमान है। हानों के पतन के बाद चीन में फिर से अराजकता का दौर गया। सुई राजवंश ने ५८० ईस्वी में चीन का एकीकरण किया जिसके कुछ ही वर्षों बाद (६१४ ई.) इस राजवंश का पतन हो गया।
फिर थांग और सोंग राजवंश के शासन के दौरान चीन की संस्कृति और विज्ञान अपने चरम पर पहुंच गए। सातवीं से बारहवीं सदी तक चीन विश्व का सबसे सुसंस्कृत देश बन गया। १२७१ में मंगोल सरदार कुबलय खां ने युआन राजवंश की स्थापना की जिसने १२७९ तक सोंग वंश को सत्ता से हटाकर अपना अधिपत्य स्थापित किया। एक किसान ने १३६८ में मंगोलों को भगा दिया और मिंग राजवंश की स्थापना की जो १६६४ तक चला। मंचू लोगों के द्वारा स्थापित क्विंग राजवंश ने चीन पर १९११ तक राज किया जो चीन का अन्तिम राजवंश था।
युद्ध कला में मध्य एशियाई देशों से आगे निकल जाने के कारण चीन ने मध्य एशिया पर अपना प्रभुत्व जमा लिया, पर साथ ही साथ वह यूरोपीय शक्तियों के समक्ष क्षीण पड़ने लगा। चीन शेष विश्व के प्रति सतर्क हुआ और उसने यूरोपीय देशों के साथ व्यापार का रास्ता खोल दिया। ब्रिटिश, भारत तथा जापान के साथ हुए युद्धों तथा गृहयुद्धो ने क्विंग राजवंश को कमजोर कर डाला। अंततः १९१२ में चीन में गणतन्त्र की स्थापना हुई।
चीन क्षेत्रफल की दृष्टि से विश्व का तीसरा सबसे बड़ा देश है। इतना विशाल भूभाग होने के कारण, देश के भीतर विविध भूप्रकार और मौसम क्षेत्र पाए जाते हैं। पूर्व में, पीला सागर और पूर्वी चीन सागर से लगते जलोढ़ मैदान हैं। दक्षिण चीन सागर से लगता तटीय क्षेत्र पर्वतीय भूभाग वाला है और दक्षिण चीन क्षेत्र पहाड़ियों और टीलों से सघन है। मध्य पूर्व में नदीमुख-भूमि क्षेत्र (डेल्टा) है जो दो नदियों पीली नदी और यांग्त्ज़े से मिलकर बना है। अन्य प्रमुख नदियाँ हैं पर्ल, मेकॉन्ग, ब्रह्मपुत्र, अमूर, हुआई हे और श़ी जीयांग।
पश्चिम में हिमालय पर्वत श्रृंखला है जो चीन की भारत, भूटान और नेपाल के साथ प्राकृतिक सीमा बनाती है। इसके साथ-साथ पठार और निर्जलीय भूदृश्य भी हैं जैसे तकला-मकन और गोबी मरुस्थल। सूखे और अत्यधिक कृषि के कारण बसन्त की अवधि में धूल भरे तूफ़ान सामान्य हो गए हैं। गोबी मरुस्थल का फैलाव भी इन तूफानों का एक कारण है और इससे उठने वाले तूफान उत्तरपूर्वी चीन, कोरिया और जापान तक को प्रभावित करते हैं।
चीन की जलवायु मुख्य रूप से शुष्क मौसम और अतिवर्षा मॉनसून के प्रभुत्व वाली है, जिसके कारण सर्दियों और गर्मियों के तापमान में अन्तर आता है। सर्दियों में, उच्च अक्षांश क्षेत्रों से आ रही हवाएं ठण्डी और शुष्क होती हैं; जबकि गर्मियों में, निम्न अक्षांशों के समुद्री क्षेत्रों से आने वाली दक्षिणी हवाएं गर्म और आद्र होती हैं। देश के विशाल भूभाग और जटिल स्थलाकृति के कारण चीन के भिन्न-भिन्न क्षेत्रों की जलवायु में बहुत परिवर्तन आता है।
विश्व के सत्रह अत्यधिक-विविध देशों में से एक, चीन विश्व के दो प्रमुख जैवक्षेत्रों में से एक, विवर्णआर्कटिक और हिन्दोमालय में निहित है। विवर्णअर्कटिक अंचल में पाए जाने वाले स्थनपाई हैं घोड़े, ऊँट, टपीर और ज़ेब्रा। हिन्दोमालय क्षेत्र की प्रजातियाँ हैं तेन्दुआ बिल्ली, बम्बू चूहा, ट्रीश्रौ और विभिन्न प्रकार के बन्दर और वानर कुछ प्राकृतिक फैलाव और प्रवास के कारण दोनों क्षेत्रों में अतिच्छादन पाया जाता है और हिरण या मृग, भालू, भेड़िए, सुअर और मूषक सभी विविध मौसमी और भूवैज्ञानिक वातावरणों में पाए जाते हैं। प्रसिद्ध विशाल पाण्डा चांग जियांग के सीमित क्षेत्र में पाया जाता है। लुप्तप्राय प्रजातियों का व्यापार एक सतत समस्या है, हालांकि इस प्रकार की गतिविधियों पर रोक लगाने सम्बन्धी कानून हैं।
चीन में विभिन्न वन प्रकार पाए जाते हैं। दोनों उत्तरपूर्व और उत्तरपश्चिम फैलावों में पर्वतीय और ठण्डे शंकुधारी वन हैं, जो जानवरों की प्रजातियों जैसे मूस और एशियाई काले भालू के अतिरिक्त १२० प्रकार के पक्षियों का घर हैं। नम शंकुवृक्ष वनों में निचले स्थानों पर बाँस की झाड़ियाँ पाई जाती हैं जो जुनिपर और यू के पर्वतीय स्थानों पर बुरुंश के वनों द्वारा प्रतिस्थाप्ति हो जाते हैं। उपोष्णकटिबन्धिय वन, जो मध्य और दक्षिणी चीन में बहुलता से उपलब्ध हैं, १,४६,००० प्रकार की वनस्पतियों का घर हैं। उष्णकटिबन्धिय वर्षावन और मौसमी वर्षावन, जो हालांकि यून्नान और हैनान द्वीप पर सीमित हैं, पर वास्तव में चीन में पाए जाने वाले पौधों और पशुओं की प्रजातियों का एक-चौथाई हैं।
चीन के कुछ प्रासंगिक पर्यावरण नियम हैं: १९७९ का पर्यावरण संरक्षण कानून, जो मोटे तौर पर अमेरिकी कानून पर प्रतिदर्शित है। लेकिन पर्यावरण ह्रास जारी है। यद्यपि नियम बहुत कड़े हैं, पर उनकी आर्थिक विकास के इच्छुक स्थानीय समुदायों द्वारा बहुधा अनदेखी की जाती है। कानून के वारह वर्षों के बाद भी केवल एक चीनी नगर ने अपने जल निर्वहन को साफ़ करने का प्रयास किया है।
चीन अपनी समृद्धि का मूल्य पर्यावरण क्षति के रूप में भी चुका रहा है। अग्रणी चीनी पर्यावरण प्रचारक मा जून ने चेताया है कि जल प्रदूषण चीन के लिए सबसे गम्भीर खतरों में से एक है। जल संसाधन मन्त्रालय के अनुसार, लगभग ३० करोड़ चीनी असुरक्षित पानी पी रहे हैं। यह जल की कमी के संकट को और अधिक दबावी बना देता है, जबकि चीन ६०० में से ४०० नगर जल की कमी से जूझ रहे हैं।
स्वच्छ प्रौद्योगिकी में २००९ में ३४.५ अरब $ के निवेश के साथ, चीन विश्व का अक्षय ऊर्जा प्रौद्योगिकियों में निवेश करने वाला अग्रणी निवेशक है। चीन किसी भी अन्य देश की तुलना में सौर पैनलों और पवन टर्बाइनों का अधिक उत्पादन करता है।
चीन एक बहुत विशालाकार देश है जो पूर्व से पश्चिम में ५,००० किलोमीटर में फैला हुआ है लेकिन फिर भी देश में केवल एक ही समय क्षेत्र है जो यूटीसी से ८ घण्टे आगे हैं। चीन के विशाल आकार को देखते हुए यहाँ कम से कम चार समय क्षेत्र होने चाहिए लेकिन इतने विशालाकर देश में एक ही समय क्षेत्र होने के कारण जब सुदूर पूर्व में शाम के ५ बज रहे होते हैं तब सुदूर पश्चिम में समय दोपहर १ बजे होना चाहिए। लेकिन पूरे देश में एक ही समय क्षेत्र होने के कारण, जिसमें पूर्वी समय क्षेत्र को प्राथमिकता दी जाती है, पश्चिमी क्षेत्र के लोगों को दिनी प्रकाश का कम समय मिल पाता है जिसके कारण देश का पश्चिमी भाग, पूर्वी भाग की तुलना में पिछड़ा है।
चीन में राजनैतिक ढाँचा इस प्रकार है: सबसे ऊपर चीनी साम्यवादी दल और फिर सेना और सरकार। चीन का राष्ट्रप्रमुख राष्ट्रपति होता है, जबकि दल का नेता उसका आम सचिव होता है और चीनी मुक्ति सेना का मुखिया केन्द्रीय सैन्य आयोग का अध्यक्ष होता है। वर्तमान में चीनी जनवादी गणराज्य के राष्ट्रपति शी जिनपिंग हैं, जो हू जिन्ताओ के उत्तराधिकारी हैं। शी जिनपिंग तीनों पदों के प्रमुख भी हैं। तीनों पदों का एक ही मुखिया होने के पीछे कारण है सत्ता संघर्ष को टालना - जैसा पहले हुआ करता था।
राष्ट्रपति के प्राधिकरण अधीन चीन की राज्य परिषद है, जो चीन की सरकार है। सरकार के मुखिया वर्तमान में ली केकियंग हैं, जो परिवर्ती उपमन्त्रियों के मन्त्रीमण्डल के मुखिया हैं, जिसमें वर्तमान में चार सदस्य हैं, इसके अतिरिक्त अन्य बहुत से मन्त्रालय भी उनके अधीन हैं। यद्यपि राष्ट्रपति और राज्य परिषद कार्यकारी सभा बनाते हैं लेकिन चीनी जनवादी गणराज्य की सर्वोच्च सत्ता चीनी जनवादी गणराज्य की जनसभा है, जिसे चीनी सन्सद भी कह सकते हैं जिसमें तीन हज़ार प्रतिनिधि हैं और जो वर्ष में एक बार मिलते हैं।
चीनी जनवादी गणराज्य की कोई स्वतन्त्र न्यायपालिका नहीं है। हालांकि १९७० के उत्तरकाल से मुखयतः महाद्विपीय यूरोपीय न्याय प्रणाली के आधार पर एक प्रभावशाली विधिक प्रणाली विकसित करने का प्रयास किया गया लेकिन न्यायपालिक साम्यवादी दल के अधीन ही है। इस प्रलाणी के दो अपवाद हैं हांग कांग और मकाउ, जहाँ क्रमशः ब्रिटिश और पुर्तगाली न्यायपालिका व्यवस्था है।
चीनी साम्यवादी दल के साथ-साथ, चीन में आठ अन्य राजनैतिक दलों को भी सक्रिय रहने की अनुमति है लेकिन इन दलों को चीनी साम्यवादी दल की मुख्यता को स्वीकृत करना होता है और इनको दीर्घकालिक सहअस्तितव के सिद्धान्त के अनुसार केवल परामर्शदाता की भूमिका ही निभानी होती है।
हांग कांह में और प्रवासी चीनी समुदायो के बहुत से सक्रियतावादी समूहों द्वारा बहुदलीय व्यवस्था के लिए दबाव बनाए जाने के बाद भी साम्यवादी दल इन परिवर्तनों के प्रति सदैव उदासीन बना रहा है। १९८० से स्थानीय क्षेत्रों में चुनाव होते रहें है जिनमें ग्राम मुखिया चुना जाता है। इस प्रकार के चुनाव हाल ही में नगरीय क्षेत्रों में भी विस्तारित किए गए हैं। इसके अतिरिक्त दल के पीपल्स कांग्रेस के लिए भी नगरपालिका और जिला स्तर पर चुनाव हुए हैं। हालांकि नामांकन प्रणाली के कारण, जो आमतौर पर दल के अधीन है, चुनावी व्यवस्था में साम्यवादी दल की मुख्य भूमिका है। हांग कांग और मकाउ में चुनाव तो होते हैं लेकिन विधायिका के एक तिहाई सदस्यों को चुनने के लिए।
चीन की सरकार के नियंत्रण में कुल ३३ प्रशासनिक विभाग हैं और इसके अतिरिक्त यह ताइवान को अपना एक प्रान्त मानता है, पर इसपर उसका नियंत्रण नहीं है।
चीन के कुल २३ प्रान्त हैं। इसके नाम हैं -
अंहुई, फ़ुजियान, गांशु, ग्वांगडोंग, गुईझोउ, हेइनान, हेबेइ, हुनान, जिआंग्शु, ज्यांगशी, जिलिन, लियाओनिंग, किंगहाई, शांक्झी, शांगदोंग, शांक्षी, शिचुआन, ताईवान, युन्नान, झेज़ियांग
भीतरी मंगोलिया, ग्वांग्शि, निंग्स्या, बोड स्वायत्त क्षेत्र, शिंजांग स्वायत्त क्षेत्र, तिब्बत
बीजिंग, शांघाई, चोंगिंग, त्यांजिन
विशेष प्रशासनिक क्षेत्र
तेईस लाख सक्रिय चीनी मुक्ति सेना विश्व की सबसे बड़ी पदवीबल सेना है। चीमुसे के अन्तर्गत थलसेना, नौसेना, वायुसेना और रणनीतिक नाभिकीय बल सम्मिलित हैं। देश का आधिकारिक रक्षा व्यय १३२ अरब अमेरिकी $(८०८.२ अरब युआन, २०१४ के लिए प्रस्तावित) है। २013 में चीन का रक्षा बजट लगभग ११८ अरब डॉलर था, जो २01२ के बजट से १०.७ प्रतिशत अधिक था। तुलनात्मक रूप से देखा जाए तो चीन के सबसे बड़े पड़ोसी भारत का २014 का रक्षा बजट ३६ अरब डॉलर है। हालांकि अमेरिका का दावा है कि चीन अपने वास्तविक सैन्य व्यय को गुप्त रखता है। संराअमेरिका की एक संस्था का अनुमान है कि २008 का आधिकारिक चीनी रक्षा व्यय ७0 अरब अमेरिकी $ था किंतु वास्तविक व्यय १०5 से १५० अरब के बीच में कहीं था।
चीन के पास नाभिकिय अस्त्र और प्रक्षेपण प्रणालियां हैं और इसे एक प्रमुख क्षेत्रीय महाशक्ति और एक उभरती हुई वैश्विक महाशक्ति स्वीकार किया जाता है। चीन संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद का एकमात्र स्थाई सदस्य है जिसके पास सीमित शक्ति प्रक्षेपण क्षमताएं हैं, जिसके कारण यह विदेशी सैन्य सम्बन्ध स्थापित कर रहा है जिसकी स्ट्रिंग ऑफ़ पर्ल्स (सैनिक घेरेबन्दी) से तुलना की गई है।
चीन के विश्व के सभी प्रमुख देशों के साथ राजनयिक सम्बन्ध हैं। स्वीडन ९ मई, १९५० को चीन के साथ राजनयिक सम्बन्ध स्थापित करने वाला पहला पश्चिमी देश बना। १०७१ में, चीजग, चीनी गणराज्य को प्रतिस्थापित करते हुए चीन का प्रतिनिधित्व करते हुए संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद का स्थाई सदस्य और पाँच स्थाई सदस्यों में से एक बना। चीजग गुट निरपेक्ष आन्दोलन का भी अग्रनी और भूतपूर्व सदस्य था और अभी भी स्वयं को विकासशील देशों का पैरवीकार समझता है।
एक-चीन नीति की अपनी व्याख्या के अन्तर्गत, चीजग ने राजनयिक सम्बन्ध स्थापित करने से पूर्व यह शर्त अनिवार्य कर दी है कि वह देश ताइवान के ऊपर उसका प्रभुत्व माने और चीनी गणराज्य की सरकार से कोई भी आधिकारिक सम्बन्ध न रखे; और जब-जब किसी भी देश ने राजनयिक सम्बन्ध बनाने और ताइवान को हथियार बेचने के लक्षण प्रकट किए हैं तब-तब चीन ने बहुत उग्र रूप में उसका विरोध किया है। चीजग, ताइवान की स्वतन्त्रता से समर्थक अधिकारियों, जैसे ली तेंग-हुइ और चेन शुइ-बियान और अन्य अलगाववादी अग्रकों जैसे दलाई लामा और रेनिया कदीर की विदेश यात्रा को भाव देने का भी विरोध किया है।
१९४९ में अपनी स्थापना से १९७८ के उत्तरकाल तक, चीनी जनवादी गणराज्य एक सोवियत-शैली के समान एक केन्द्रीय नियोजित अर्थव्यस्था थी। निजी व्यापार और पूंजीवाद अनुपस्थित थे। देश के एक आधुनिक, औद्योगिक साम्यवादी समाज बनाने के लिए माओत्से तुंग ने प्रगल्भ दीर्घ छलांग की स्थापना की थी। माओ की मृत्यु और सांस्कृतिक क्रान्ति के अन्त के बाद, देंग जियाओपिंग और नए चीनी नेतृत्व में अर्थव्यवस्था में सुधार और एक दलीय शासन के अधीन एक बाज़ार-उन्मुख मिश्रित अर्थव्यवस्था बनाने के लिए सुधार आरम्भ किए। १९७८ से, चीन और जापान के राजनयिक सम्बन्ध सामान्य रहे हैं और चीन ने जापान से सुलभ ऋण लेने का निर्णय लिया। १९७८ से जापान, चीन में प्रथम विदेशी ऋणदाता रहा है। चीन की अर्थव्यवस्था मुख्य रूप से निजी सम्पत्ति के स्वामित्व पर आधारित एक बाज़ार अर्थव्यवस्था के रूप में चित्रित है। कृषि का सामूहीकरण हटा दिया गया और कृषिभूमि का उत्पादकता बढ़ाने के लिए निजीकरण किया गया।
विस्तृत विविधता वाले लघु उद्यमों को प्रोत्साहित किया गया, जबकि सरकार ने मूल्य नियन्त्रण और विदेशी निवेश को बढ़ावा दिया। विदेश व्यापार पर विकास के एक प्रमुख वाहन के समान ध्यान दिया गया, जो विशेष आर्थिक क्षेत्रों (विआक्षे) के निर्माण की ओर उन्मुख हुआ और शेन्ज़ेन (हांगकांग के निकट) में प्रथम और बाद में अन्य चीनी नगरों शहरों में विआक्षे का निर्माण हुआ। राज्य के स्वामित्व वाले अक्षम उद्यमों (रास्वाउ) का पश्चिमी शैली की प्रबन्धन प्रणाली के आधार पर पुनर्गठन किया गया और लाभहीन वाले बन्द कर दिए गए, जिसके कारण बेरोज़गारी में भी वृद्धि हुई।
१९७८ में आर्थिक उदारीकरण प्रारम्भ होने से लेकर अब तक, चीजग की निवेश-और-निर्यात-आधारित अर्थव्यवस्था आकार में ९० गुणा बढ़ गई है और विश्व की प्रमुख अर्थव्यवस्थाओं में सबसे तेज़ी से बढ़ती अर्थव्यवस्था है। संज्ञात्मक सकल घरेलू उत्पाद के आधार पर यह अब दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है जिसकी संज्ञात्मक जीडीपी ३४.०६ खरब यूआन (४.९९ खरब अमेरिकी $) है, यद्यपि इसकी प्रति व्यक्ति आय अभी भी ३,७०० अमेरिकी $ ही है जो चीजग को कम से कम सौ देशों से पीछे रखता है। प्राथमिक, गौण और तृतीयक उद्योगों का २००९ में अर्थव्यवस्था में क्रमशः १०.६%, ४६.८% और ४२.६% योगदान था। क्रय शक्ति के आधार पर भी चीजग ९.०५ खरब $ के साथ विश्व की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है जो प्रति व्यक्ति ६,८०० बैठता है।
चीजग ने पिछले एक दशक में औसतन १०.३% की दर से उन्नति की है जबकि अमेरिका के लिए यह आँकड़ा १.८% है। स्टैण्डर्ड चार्टेड का अनुमान है कि वृद्धि दर अगले दशक के मध्य तक ८% रह जाएगी और २०२७ से २०३० के मध्य ५% तक रहेगी।
नवम्बर २०१० में जापान की सरकार ने कहा कि चीन, जो विश्व का सबसे बड़ा मोबाइल फ़ोन, कम्प्यूटर और वाहन निर्माता है, में उत्पादन में सितम्बर २०१० से आरम्भ तिमाही में जापान को पछाड़ चुका है। चीन की अर्थव्यवस्था ने २००५ में ब्रिटेन और २००७ में जर्मनी की अर्थव्यवस्थाओं को पछाड़ दिया था।
चीजन विश्व का सर्वाधिक पधारा जाने वाला देश है जहाँ २००९ में ५ करोड़ ९ लाख अन्तर्राष्ट्रीय पर्यटक पधारे थे। यह विश्व व्यापार संगठन (विव्यास) का सदस्य है और विश्व की दूसरी सबसे बड़ी व्यापारिक शक्ति है जिसका कुल अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार २.२१ खरब अमेरिकी $ (१.२० खरब निर्यात (#१) और १.०१ खरब आयात (#२)) था। इसका विदेशी मुद्रा भण्डार २.४ खरब $ है जो विश्व में बड़े अन्तर से सर्वाधिक है। चीजग एक अनुमान के अनुसार १.६ खरब $ की अमेरिकी प्रतिभूतियों का स्वामी है। चीजग, ८०१.५ अरब $ के राजकोषीय (ट्रेज़री) बॉण्ड के साथ, संराअमेरिका के सार्वजनिक ऋण का सबसे बड़ा विदेशी धारक है। २००८ में चीजग ने ९२.४ अरब $ का प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (प्रविनि) आकर्षित किया जो विश्व में तीसरा सर्वाधिक था यह और स्वयं चीजग ने भी विदेशो में ५२.२ अरब $ निवेश किए जो विश्व में छठा सर्वाधिक था।
विज्ञान और प्रौद्योगिकी
चीन-सोवियत अलगाव के बाद, चीन ने स्वयं के नाभिकीय हथियार और प्रक्षेपण प्रणालियाँ विकसित करनी आरम्भ की और १९६१ में अपना प्रथम नाभिकीय परिक्षण लोप नुर में किया। इसके पश्चात चीन ने अपना उपग्रह प्रक्षेपण कार्यक्रम भी १९७० में आरम्भ किया और दोंग फांग होंग १ यान अन्तरिक्ष में सफलतापूर्वक प्रक्षेपित किया। इस प्रक्षेपण ने चीन को ऐसा करने वाला पाँचवा राष्ट्र बना दिया।
१९९२ में, शेन्झोउ नामक मानवसहित अन्तरिक्ष कार्यक्रम आरम्भ किया गया। चार मानवरहित परिक्षणों के पश्चात, शेन्झोउ पाँच १५ अक्टूबर, २००३ को लॉंग मार्च टूएफ़ प्रक्षेपण वाहन का उपयोग कर चीनी अन्तरिक्षयात्री यांग लिवेइ सहित प्रक्षेपित किया गया और ऐसा करने वाला चीजग क्रमशः सोवियत संघ और संयुक्त राज्य अमेरिका के बाद विश्व का तीसरा देश बना जिसने घरेलू प्रौद्योगिकी के बलबूते पर मानवसहित अन्तरिक्ष यान भेजा। अक्टूबर २००५ में चीन ने दूसरा मानवसहित अभियान भी पूरा किया जब शेन्झोउ छः दो अन्तरिक्षयात्रियों को लेकर प्रक्षेपित किया गया। २००८ में चीन ने सफलतापूर्वक शेन्झोउ सात अभियान पूरा किया और अन्तरिक्ष-चहलकदमी करने वाला चीन तीसरा देश बना। २००७ में चीन ने चन्द्र गवेषण के लिए चैंग'ई नामक अन्तरिक्षयान भेजा, जिसका नाम चीन की प्राचीन चन्द्रदेवी के नाम पर था, जो चीनी चन्द्र गवेषण कार्यक्रम का भाग था। चीन की भविष्य में अन्तरिक्ष स्टेशन बनाने और मंगल ग्रह पर भी मानवसहित अभियान भेजने की योजना है।
चीन का शोध और विकास व्यय विश्व में दूसरा सर्वाधिक है और २००६ में चीन ने शोध और विकास पर १३६ अरब $ खर्च किए जो २००५ की तुलना में २०% अधिक था। चीनी सरकार नवोन्मेष और वित्तीय और कर प्रणालियों में सुधार करके वृह्द जन जागरुकता के द्वारा शोध और विकास पर निरन्तर बल देती रही है ताकि अत्याधुनिक उद्योगों को प्रोत्साहन दिया जा सके।
२००६ में राष्ट्रपति हू जिन्ताओ ने चीन को विनिर्माण-आधारित अर्थव्यवस्था से नवोन्मेष-आधारित अर्थव्यवस्था बनाने की बात कही और राष्ट्रीय जन कांग्रेस ने शोध निधि के लिए विशाल वृद्धि की। स्टेम सेल अनुसन्धान और जीन थेरेपी, जिसे पश्चिमी देशों में विवादास्पद माना जाता है, पर चीन में न्यून विनियमन है। चीन में अनुमानित ९,२६,००० शोधकर्ता हैं, जो संराअमेरिका के १३ लाख के बाद विश्व में सर्वाधिक है।
चीन बड़ी सक्रियता से अपने सॉफ़्टवेयर, अर्धचालक (सेमीकण्डक्टर) और ऊर्जा उद्योगों, जिनमें अक्षय ऊर्जाएँ जैसे जल, पवन और सौर ऊर्जा, सम्मिलित हैं का भी विकास कर रहा है। कोयला जलाने वाले ऊर्जा संयन्त्रों से निकलने वाले धुएँ को कम करने के लिए, चीन, कंकड़ शय्या नाभिकीय रिएक्टर प्रस्तरण, जो ठण्डे और सुरक्षित हैं, में भी अग्रणी है और हाइड्रोजन अर्थव्यवस्था के लिए भी जिसकी सम्भावना है।
२०१० में चीन ने तियान्हे-१ए विकसित किया, जो विश्व का सबसे तेज़ सूपरकम्प्यूटर है और वर्तमान में तियान्जिन के राष्ट्रीय सूपरकम्प्यूटिंग केन्द्र में रखा हुआ है। इस प्रणाली की तेल गवेषण के लिए भूकम्प-सम्बन्धी आँकड़ो, बायो-मेडिकल कम्प्यूटिंग और अन्तरिक्षयानों के अभिकल्प के लिए प्रयुक्त किए जाने की सम्भावना है। चीन के तियान्हे १ए के अतिरिक्त, चीन के पास नेबुले भी है और यह विश्व के सार्वजनिक रूप से उपलब्ध शीर्ष के दस सूपरकम्प्यूटरों में से एक है।
वर्तमान में चीन में सर्वाधिक सेलफ़ोन प्रयोक्ता हैं और यह संख्या जुलाई २०१० में ८० करोड़ थी। चीन में अन्तरजाल और ब्रॉडबैण्ड उपभोक्ताओं की संख्या भी विश्व में सर्वाधिक है।
चीन टेलीकॉम और चीन यूनिकॉम दो भीमकाय ब्रॉडबैण्ड सेवा प्रदाता हैं, जिनके पास विश्व ब्रॉडबैण्ड उपभोक्ताओं का २०% भाग है, जबकि पश्चातवर्ती दस सबसे बड़े ब्रॉडबैण्ड सेवा प्रदाताओं के पास विश्व के ३९% प्रतिशत उपभोक्ता हैं। चीन टेलीकॉम के पास ५.५ करोड़ ब्रॉडबैण्ड उपभोक्ता हैं और चीन यूनिकॉम जिसके पास ४ करोड़ उपभोक्ता है जबकि तीसरे सबसे बड़े प्रदाता एनटीटी के पास केवल १.८ करोड़ उपभोक्ता हैं। आने वाले वर्षों में इन शीर्ष के दो संचालकों और विश्व के अन्य ब्रॉडबैण्ड सेवा प्रदाताओं के बीच का अन्तर बढ़ता ही जाएगा, क्योंकि जहाँ चीन का ब्रॉडबैण्ड उपभोक्ता बाज़ार फैल रहा है वहीं अन्य आईएसपी पूर्णतः विकसित बाज़ारों में संचालन कर रहे हैं, जहाँ पहले से ही ब्रॉडबैण्ड फैलाव है और उपभोक्ता वृद्धि दर तेज़ी से कम हो रही है।
मुख्यभूमि चीन में १९९० के उत्तरकाल से परिवहन में बहुत तीव्र सुधार हुए हैं। चीन की सरकार का प्रयास है कि पूरे देश को द्रुतगामी मार्गों के तन्त्र द्वारा जोड़ दिया जाए। इस तन्त्र की कुल लम्बाई २००७ के अन्त तक ५३,६०० किमी थी, जो संयुक्त राज्य अमेरिका के बाद विश्व में सर्वाधिक है, जबकि १९८८ में यह लम्बाई कुल १,००० किमी थी।
वर्ष २००९ से चीन विश्व का सबसे बड़ा वाहन निर्माता है और यह प्रतिवर्ष किसी भी अन्य देश की तुलना में अधिक वाहनों का निर्मान कर रहा है।
चीन में वायु परिवहन में भी बहुत सुधार हुए हैं, लेकिन वायुयात्रा अभी भी बहुत से चीनीयों की पहुँच से दूर है। १९७८ से २००५ के दौरान चीन में घरेलू हवाई यात्रियों की संख्या २३ लाख से बढ़कर १३ करोड़ ८० लाख हो हई है। लम्बी दूरी की यात्रा अभी भी रेल और बस परिवहन पर निर्भर है।
चीन के रेल परिवहन में भी बहुत तीव्र सुधार हुए हैं और इस समय चीन का उच्चगति रेल तन्त्र ७,०५० किमी लम्बा है जो विश्व में सर्वाधिक है। चीनी सरकार इस तन्त्र को और बढ़ाने की योजना बना रही है। रेल परिवहन सरकार के अधीन है।
चीन के बड़े नगरों में भूमिगत रेलमार्ग हैं। शंघाई, जिसके पास विश्व के सबसे बड़े मेट्रों मार्गों में से एक है, में विश्व की सबसे तीव्रगामि रेलगाड़ी भी है, जो नगर केन्द्र को पुडोंग अन्तर्राष्ट्रीय हवाईअड्डे से जोड़ती है। यह रेलसेवा पारम्परिक रेलमार्ग पर आधारित न होकर चुम्बकीय शक्ति का उपयोग कर चलती है जिसे मैगलेव कहा जाता है।
जुलाई २०१० की स्थिति तक, चीनी जनवादी गणराज्य की कुल जनसंख्या १,३३,८६,१२,९६८ है। २१% लोग १४ वर्ष या कम के हैं, ७१% १५ से ६४ वर्ष के बीच हैं और ८% ६५ वर्ष या ऊपर हैं। जनसंख्या वृद्धि दर २००६ में ०.६% थी।
चीन १.३ अरब की जनसंख्या को लेकर चीनी सरकार बहुत चिन्तित है और इस पर लगाम लगाने के लिए चीन की सरकार ने कड़ाई से परिवार नियोजन योजना लागू की जिसका मिश्रित परिणाम रहा। सरकार का उद्देश्य, केवल ग्रामीण क्षेत्रों में रह रहे और कुछ नस्त्लीय अल्पसंख्यकों को छोड़कर, प्रति परिवार एक बच्चा है। सरकार का उद्देश्य २१वीं सदी में जनसंख्या वृद्धि को सन्तुलित करना है, हालांकि कुछ अनुमानों के अनुसार २०५० तक चीन की जनसंख्या १.५ अरब तक होगी। इसलिए चीन के परिवार नियोजन मन्त्रालय ने इंगित किया है कि चीन अपनी एक-बच्चा नीति कम से कम २०२० तक जारी रखेगा।
चीजग आधिकारिक रूप से ५६ विभिन्न नस्लीय समूहों को मान्यता देता है, जिसमें सबसे बड़ा समूह हान चीनीयों का है, जो जनसंख्या का लगभग ९२% हैं। अन्य बड़े नस्लीय समूह हैं झुआंग (१.६ करोड़), मांचू (१ करोड़), हुई (९० लाख), मियाओ (८० लाख), उइघिर (७० लाख), यि (७० लाख), तूजिया (५७.५ लाख), मंगोल (५० लाख), तिब्बती (५० लाख), बूयेइ (३० लाख) और कोरियाई (२० लाख)।
मुख्यभूमि चीम में सीमित धार्मिक स्वतन्त्रता प्रदान की जाती है और केवल उन्हीं समुदायों के प्रति सहनशीलता बरती जाती है जो सरकार द्वारा मान्यता प्राप्त हैं। आधिकारिक आँकड़े उपलब्ध न हो पाने के कारण धर्मानुयायीयों की सही संख्या बता पाना कठिन है, लेकिन यह माना जाता है कि पिछले २० वर्षों के दौरान धर्म का उत्थन देखा गया है। १९९८ के एडहियर्ण्ट.कॉम के अनुसार चीन की ५९% जनसंख्या अधार्मिकों की है। इसी दौरान २००७ के एक अन्य सर्वेक्षण के अनुसार चीन में ३० करोड़ (२३%) विश्वासी है जो सरकारी आँकड़े १० करोड़ से अधिक है।
सर्वेक्षणों के पश्चात भी अधिकांश लोग इस बात पर सहमत हैं कि पारम्परिक धर्म जैसे बौद्ध धर्म, ताओ धर्म और चीनी लोक धर्म बहुसंख्यक हैं। विभिन्न स्रोतो के अनुसार चीन मैं बौद्धों की संख्या ६६ करोड़ (~५०%) से १ अरब (~८०%) है जबकि ताओ धर्मियों की संख्या ४० करोड़ या लगभग ३०% है। लेकिन चूंकि एक व्यक्ति एक से अधिक धर्मों का पालन कर सकता है इसलिए चीन में बौद्धों, ताओं और चीनी लोक धर्मियों की सही संख्या बता पाना कठिन है।
चीन में ईसाई धर्म ७वीं सदी में तांग राजवंश के दौरान आया था। इसके पश्चात १३वीं सदी में फ़्रान्सिसकन मिशनरी आए, १६वीं सदी में जीज़ूइट और अन्ततः १९वीं सदी में प्रोटेस्टेण्ट आए और इस दौरान चीन में ईसाई धर्म ने अपनी जड़े सुदृढ़ कीं। अल्पसंख्यक धर्मों में ईसाई धर्म सबसे तेज़ी से फैला (विशेषकर पिछले २०० वर्षों में) और आज चीन में ईसाईयों की संख्या चार करोड़ से साढ़े पाँच करोड़ के बीच है जो लगभग ४% है, जबकि आधिकारिक आँकड़ों के अनुसार चीम में एक करोड़ साठ लाख ईसाई हैं। कुछ अन्य स्रोतो का मानना है कि चीन में १३ करोड़ तक ईसाई हैं।
चीन में इस्लाम धर्म का आगमन ६५१ ईस्वी में हुआ था। मुसलमान चीन में व्यापार करने के लिए आए थे और सोंग राजवंश के दौरान उनका आयात-निर्यात उद्योग पर प्रभुत्व था। वर्तमान में चीन में मुसलमानों की संख्या दो से तीन करोड़ के बीच है जो कुल जनसंख्या का १.५ से २% है। चीन में मुसलमानों पर अत्यधिक तवजुब दी जाती है । वो हमेशा सरकार की नजरों में रहते है । मुसलमानों का नमाज़ अदा करना , मस्जिदों में नमाज पढ़ना स्कक्त मना ही है । इस्लामिक कट्टर वादी होने के कारण हमसे चीनी मुस्लिम , चीनी सैनकों द्वारा नज़र बंद रहता है ।
१९८६ में, चीन ने प्रत्येक बच्चे को नौ वर्ष की अनिवार्य प्रारम्भिक शिक्षा देने का एक दीर्घावधि लक्ष्य निर्धारित किया। २००७ की स्थिति तक, चीन में ३,९६,५६७ प्रारम्भिक विद्यालय, ९४,११६ माध्यमिक विद्यालय और २,२३६ उच्च शिक्षा के संस्थान थे। फरवरी २००६ में सरकार में यह निर्णय लिया कि नौ वर्ष की शिक्षा बिल्कुल निशुल्क उपलब्ध कराई जाएगी, जिसमें पाठ्यपुस्तकें और शुल्क प्रदान किए जाएंगे। चीन में निशुल्क शिक्षा पाठशाला से लेकर माध्यमिक विद्यालय तक होती है जो नौ वर्षों की होती है (आयु ६-१५); नगरी क्षेत्रों में लगभग सभी बच्चे उच्चतर विद्यालय की तीन वर्षों की शिक्षा भी जारी रखते हैं।
२००७ की स्थिति तक, १५ वर्ष से ऊपर के ९३.३% लोग साक्षर हैं। चीन की युवा साक्षरता दर २००० में (आयु १५ से २४) ९८.९% है (पुरुष ९९.२% और महिलाएं ९८.५%) थी। मार्च २००७ में चीन ने यह उद्घोषणा करी कि शिक्षा को राष्ट्रीय "सामरिक प्राथमिकता" बनाया जाएगा। राष्ट्रीय छात्रवृतियों के लिए आवण्टित बजट में अगले तीन वर्षों में तीन गुण की वृद्धि की जाएगी और २२३.५ अरब यूआन (२८.६५ अरब $) का अतिरिक्त फ़ण्ड भी केन्द्रीय सरकार द्वारा अगले पाँच वर्षों में उपलब्ध कराया जाएगा ताकी ग्रामीण क्षेत्रों में अनिवार्य शिक्षा को सुधारा जा सके।
पिछले दशक में, चीन के नगर वार्षिक १०% की दर से फैले। वर्ष १९७८ से २००९ के मध्य चीन में नगरीकरण की दर १७.४% से बढ़कर ४६.८% हो गई है, जो मानव इतिहास में अभूतपूर्व है। लगभग १५ से २० करोड़ प्रवासी कर्मी नगरों में अंशकालिक रूप से कार्यरत हैं जो समय-समय पर अपनी कमाई के साथ ग्रामीण क्षेत्रों में अपने घरों को लैट जाते हैं।
आज, चीनी जनवादी गणराज्य में दर्जनों ऐसे नगर हैं जिनकी स्थाई या दीर्घकालिक नागरिकों की संख्या १० लाख से अधिक है। इन नगरों में तीन वैश्विक नगर बीजिंग, शंघाई और हांगकांग भी सम्मिलित हैं।
नीचे दिए गए आँकड़े २००८ की जनगणना के हैं और इसमें नगर प्रशासनिक सीमा के भीतर के निवासियों की संख्या दी गई है और इसमें केवल स्थाई निवासियों की संख्या सम्मिलित है, क्योंकि प्रवासी निवासियों की सही संख्या आ अनुमान लगाना कठिन है।
चीनी भाषा विश्व की सर्वाधिक बोली जाने वाली भाषा है। दरसल चीन के विभिन्न लोगों द्वारा जो भाषाएँ बोली जाती हैं उन्हें सामूहिक रूप से चीनी भाषा कहा जाता है। चीन की प्रमुख और राष्ट्रव्यापी भाषा चीनी मन्दारिन है जो देश की आधिकारिक भाषा भी है। कुल मिलाकर चीन के ७५% लोग यह भाषा बोलते हैं। इसके अतिरिक्त यह ताइवान और सिंगापुर में भी आधिकारिक भाषा है। हांगकांग और मकाउ में कण्टोनी भाषा आधिकारिक है। इसके अतिरिक्त क्रमशः हांगकांग में अंग्रेज़ी और मकाउ में पुर्तगाली भाषाएँ भी आधिकारिक हैं।
इसके अतिरिक्त चीन में बहुत सी भाषाएँ इसके नस्लीय समूहों द्वारा बोली जाती हैं जिन्हें झोंग्गुओ यूवेन कहा जाता है जिसका शाब्दिक अर्थ है "चीन की बोली और लेखन" जिसमें मुख्यतः छः भाषा परिवारों की भाषाएँ हैं।
पारंपरिक भोजन, मांसाहार जिसमे समुद्री जीव, फास्टफुड सम्मिलित हैं।
चीन की खेलकूद संस्कृति विश्व की सबसे प्राचीन में से एक है। इस बात के भी प्रमाण हैं कि फुट्बॉल चीन में प्राचीन काल में भी खेला जाता था। फुट्बॉल के अतिरिक्त देश में अन्य लोकप्रिय खेल हैं मार्शल आर्ट्स, टेबल टेनिस, बैडमिण्टन, तैराकी, बॉस्केटबॉल और स्नूकर। बोर्ड खेल जैसे वेइकी और श़ीयंगकी (चीनी चैस) और हाल ही में चैस भी आमतौर पर खेले जाते हैं और इनकी प्रतियोगिताएं आयोजित कराई जाती हैं।
शारीरिक चुस्ती पर चीनी संस्कृति में बहुत बल दिया जाता है। प्रातः कालीन व्यायाम एक आम क्रिया है और वृद्ध लोगों को पार्कों में किगोंग और ताइ ची चूआन खेलते हुए या छात्रों को विद्यालय परिसरों में स्ट्रेचिस करते हुए देखा जा सकता है।
युवा लोगों की बॉस्केटबॉल में भी गहन रुचि है, विशेषकर नगरीय क्षेत्रों में जहाँ पर खुले और हरे क्षेत्रों का अभाव है। एनबीए के चीन में बहुत सेयुवा प्रशंसक हैं और याओ मिंग बहुतों के आदर्श हैं।
८ से २४ अगस्त, २००८ के बीच चीन में आयोजित २००८ ग्रीष्मकालीन ओलम्पिक खेलों में चीन सर्वाधिक स्वर्ण जीतकर पदक तालिका में प्रथम स्थान पर रहा।
इन्हें भी देखें
चीन व भारत के राजनीतिक सम्बन्ध
जानें चीन का सच-चीन और भारत में क्या है साझा
चीनी जनवादी गणराज्य की केन्द्रीय जनवादी सरकार
चीन का इतिहास (गूगल पुस्तक)
चीनी जन्वादी गणराज्य - गूगल खोज परिणाम
चीनी जनवादी गणराज्य
एशिया के देश
पूर्वी एशिया के देश |
मंगोल मध्य एशिया और पूर्वी एशिया में रहने वाली एक जाति है, जिसका विश्व इतिहास पर गहरा प्रभाव रहा है। आधुनिक युग में मंगोल लोग मंगोलिया, चीन और रूस में वास करते हैं। विश्व भर में लगभग १ करोड़ मंगोल लोग हैं। शुरु-शुरु में यह जाति अर्गुन नदी के पूर्व के इलाकों में रहा करती थी, बाद में वह वाह्य ख़िन्गन पर्वत शृंखला और अल्ताई पर्वत शृंखला के बीच स्थित मंगोलिया पठार के आर-पार फैल गई। मंगोल जाति के लोग ख़ानाबदोशों का जीवन व्यतीत करते थे और शिकार, तीरंदाजी व घुड़सवारी में बहुत कुशल थे। १२वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में इसके मुखिया तेमुजिन ने तमाम मंगोल कबीलों को एक किया।
मंगोलों का एकीकरण
१२०६ में मंगोल जाति के विभिन्न कबीलों के सरदारों ने तेमुजिन को अपनी जाति का सबसे बड़ा मुखिया चुना और उसे सम्मान में "चंगेज खान"(११६२-१२२७) कहना शुरू किया, १२१५ में उस ने किन राज्य की "मध्यवर्ती राजधानी"चुङतू पर कब्जा कर लिया और ह्वांगहो नदी के उत्तर के विशाल इलाकें को हथिया लिया। १२२७ में चंगेज खान ने पश्चिमी श्या शासन को खत्म कर दिया। पश्चिमी श्या के साथ लड़ाई के दौरान चंगेज खान की बीमारी की वजह से ल्यूफान पर्वत पर मृत्यु हो गई। उस के बाद उस का बेटा ओकताए गद्दी पर बैठा, जिस ने सुङ से मिलकर किन पर हमला किया और १२०६ के शुरू में किन के शासन को खत्म कर दिया। किन राज्य पर कब्जा करने के बाद मंगोल फौजों ने अपनी पूरी शक्ति से सुङ पर हमला किया।
१२६० में कुबलाई ने अपने को महान खान घोषित किया और हान परंपरा का अनुसरण करते हुए १२७१ में अपने शासन को "मंगोल" के स्थान पर य्वान राजवंश (१२७१-१३६८) का नाम दे दिया। कुबलाई खान इतिहास में य्वान राजवंश के प्रथम सम्राट शिचू के नाम से प्रसिद्ध है।
१२७६ में य्वान सेना ने सुङ राजवंश की राजधानी लिनआन पर हमला करके कब्जा कर लिया और सुङ सम्राट व उस की विधवा मां को बन्दी बनाकर उत्तर ले आया गया। दक्षिण सुङ राज्य के प्रधान मंत्री वंन थ्येनश्याङ तथा उच्च अफसरों चाङ शिच्ये और लू श्यूफू ने पहले चाओ श्या और फिर चाओ पिङ को राजगद्दी पर बिठाया, तथा य्वान सेनाओं का प्रतिरोध जारी रखा। लेकिन मंगोलों की जबरदस्त ताकत के सामने उन्हें अन्त में हार खानी पड़ी।
य्वान राजवंश द्वारा चीन के एकीकरण से थाङ राजवंश के अन्तिम काल से चली आई फूट समाप्त हो गई। इस ने एक बहुजातीय एकीकृत देश के रूप में चीन के विकास को बढावा दिया। य्वान राजवंश की शासन व्यवस्था के अन्तर्गत केन्द्रीय सरकार के तीन मुख्य अंग थे--- केन्द्रीय मंत्राल्य, जो सारे देश के प्रशासन के लिए जिम्मेदार था, प्रिवी कोंसिल, जो सारे देश के फौजी मामलों का संचालन करती थी और परिनिरीक्षण मंत्रालय, जो सरकारी अफसरों के आचरण व काम की निगरानी करता था। केन्द्र के नीचे "शिङ शङ"(प्रान्त) थे।
चीन में स्थानीय प्रशासनिक इकाइयों के रूप में प्रान्तों की स्थापना य्वान काल से शुरू हुई और यह व्यवस्था आज तक चली आ रही है। य्वान राजवंश के जमाने से ही तिब्बत औपचारिक रूप से केन्द्रीय सरकार के अधीन चीन की एक प्रशासनिक इकाई बन गया। फङहू द्वीप पर एक निरीक्षक कार्यालय भी कायम किया गया, जो फङहू द्वीपसमूह और थाएवान द्वीप के प्रशासनिक मामलों का संचालन करता था। आज का शिनच्याङ प्रदेश और हेइलुङ नदी के दक्षिण व उत्तर के इलाके य्वान राज्य के अंग थे। य्वान राजवंश ने दक्षिणी चीन सागर द्वीपमाला में भी अपना शासन कायम किया। य्वान राजवंश के शासनकाल में विभिन्न जातियों के बीच सम्पर्क वृद्धि से देश के आर्थिक व सांस्कृतिक विकास को तथा मातृभूमि के एकीकरण को बढावा मिला।
य्वान राजवंश की राजधानी तातू (वर्तमान पेइचिङ) तत्कालीन चीन के आर्थिक व सांस्कृतिक आदान प्रदान का केन्द्र था। वेनिस के यात्री मार्को पोलो ने, जो कभी य्वान राजदरबार का एक अफसर भी रह चुका था, अपने यात्रा वृत्तान्त में लिखा है"य्वान राजवंश की राजधानी तातू के निवासी खुशहाल थे","बाजार तरह तरह के माल से भरे रहते थे। केवल रेशम ही एक हजार गाड़ियों में भरकर रोज वहां पहुंचाया जाता था"।"विदेशों से आया हुआ विभिन्न प्रकार का कीमती माल भी बाजार में खूब मिलता था। दुनिया में शायद ही कोई दूसरा शहर ऐसा हो जो तातू का मुकाबला कर सके।"
इन्हें भी देखें
एशिया की मानव जातियाँ
चीन की जातियाँ |
उत्तर कोरिया, आधिकारिक रूप से कोरिया जनवादी लोकतान्त्रिक गणराज्य (हंगुल: , हांजा: ) पूर्वी एशिया में कोरिया प्रायद्वीप के उत्तर में बसा हुआ देश है। देश की राजधानी और सबसे बड़ा शहर प्योंगयांग है। कोरिया प्रायद्वीप के ३८वें समानांतर पर बनाया गया कोरियाई सैन्यविहीन क्षेत्र उत्तर कोरिया और दक्षिण कोरिया के बीच विभाजन रेखा के रूप में कार्य करता है। अमनोक नदी और तुमेन नदी उत्तर कोरिया और चीन के बीच सीमा का निर्धारण करती है, वहीं धुर उत्तर-पूर्वी छोर पर तुमेन नदी की एक शाखा रूस के साथ सीमा बनाती है।
१९१० में, कोरिया साम्राज्य पर जापान के द्वारा कब्जा कर लिया गया था। १९४५ में द्वितीय विश्व युद्ध के अन्त में जापानी आत्मसमर्पण के बाद, कोरिया को संयुक्त राज्य और सोवियत संघ द्वारा दो क्षेत्रों में विभाजित किया कर दिया गया, जहाँ इसके उत्तरी क्षेत्र पर सोवियत संघ तथा दक्षिण क्षेत्र पर अमेरिका द्वारा कब्जा कर लिया गया। इसके एकीकरण पर बातचीत विफल रही, और १९४८ में, दोनों क्षेत्रों पर अलग-अलग देश और सरकारें: उत्तर में सोशलिस्ट डेमोक्रेटिक पीपुल रिपब्लिक ऑफ़ कोरिया, और दक्षिण में पूँजीवादी गणराज्य कोरिया बन गईं। दोनों देश के बीच एक यूद्ध (१९५०-१९५३) भी लड़ा जा चुका हैं। कोरियाई युद्धविधि समझौते से युद्धविराम तो हुआ, लेकिन दोनों देश के बीच शान्ति समझौते हस्ताक्षर नहीं किए गए।
उत्तर कोरिया आधिकारिक तौर पर स्वयं को आत्मनिर्भर समाजवादी राज्य के रूप में बताता है। और औपचारिक रूप से चुनाव भी किया जाता है। हालाँकि आलोचक इसे अधिनायकवादी तानाशाही का रूप मानते है, क्योंकि यहाँ की सत्ता पर किम इल-सुंग और उसके परिवार के लोगो का अधिपत्य हैं। कई अन्तरराष्ट्रीय संगठनों के अनुसार उत्तर कोरिया में मानवाधिकार उल्लंघन का समकालीन दुनिया में कोई समानान्तर नहीं है। सत्तारूढ़ परिवार के सदस्य की अगुवाई में कोरिया की श्रमिक पार्टी (डब्ल्यूपीके), देश की सत्ता चलती है और दोनों देशों के पुनर्मिलन के लिए डेमोक्रेटिक फ़्रण्ट का नेतृत्व करता है जिसमें सभी राजनीतिक अधिकारियों के सदस्य होने की आवश्यकता होती है।
राष्ट्रीय आत्मनिर्भरता की विचारधारा "जुचे", १९७२ में "मार्क्सवादी-लेनीनवादी के रचनात्मक प्रयोग" के रूप में संविधान में पेश की गई। राज्य के उद्यमों और सामूहिक कृषि के माध्यम से कृषि उत्पादन पर राज्य का स्वामित्व होता हैं। स्वास्थ्य सेवाओं, शिक्षा, आवास और खाद्य उत्पादन जैसी अधिकांश सेवाएँ सब्सिडी वाली या राज्य-वित्त पोषित हैं। १९९४ से १९९८ तक, उत्तर कोरिया में अकाल पड़ा था, जिसके परिणामस्वरूप ०.२४ से ०.४२ मिलियन लोगों की मौत हुई और देश अब भी खाद्य उत्पादन में संघर्ष कर रहा है। उत्तर कोरिया सोंगुन या "सैन्य-पहले" नीति का पालन करता है। १.2१ मिलियन की इसकी सक्रिय सेना, चीन, अमेरिका और भारत के बाद दुनिया में चौथी सबसे बड़ी है। नार्थ कोरिया एक परमाणु हथियार सम्पन्न देश हैं। उत्तर कोरिया अपने आप को एक नास्तिक देश मानता है यहाँ पर कोई आधिकारिक पन्थ भी नहीं है साथ ही सार्वजनिक रूप से पन्थ को एक हासिए पे ही रखा जाता हैं। यहां के तानाशाह किम जोंग उन ने नार्थ कोरिया के डिफेंस मिनिस्टर को अपनी एंटी एयरक्राफ्ट गन से गोली मारी थी क्योंकि किम जोंग उन की एक स्पीच में उनको हल्की सी आंख लग गई थी और किम जोंग उन ने अपने फूफा को देशद्रोह के आरोप में उन्हें फंसाया गया और उन्हें १२० शिकारी कुत्तों के सामने छोड़ दिया क्योंकि किम जोंग उन को लगता था कि उनके फूफा उनसे नॉर्थ कोरिया की सत्ता न छीन ले। किम जोंग उन ने एक अमेरिकन सिटीजन ओटो वार्म्बियर नाम के एक शख्स को सजा सुनाई थी क्योंकि ओटो वार्म्बियर से एक छोटी सी भूल हो गई थी। जब ओटो वार्म्बियर अपने देश
अमेरिका गए तब वहां उनकी मृत्यु हो गई थी।
जापानी आधिपत्य (१९१०-१९४५)
सन् १९०५ में रूसी -जापान युद्ध के बाद जापान द्वारा कब्जा किए जाने के पहले प्रायद्वीप पर कोरियाई साम्राज्य का शासन था। सन् १९४५ में द्वितीय विश्व युद्ध की समाप्ति के बाद यह सोवियत संघ और अमेरिका के कब्जे वाले क्षेत्रों में बाँट दिया गया। उत्तर कोरिया ने संयुक्त राष्ट्र संघ की पर्यवेक्षण में सन् १९४८ में दक्षिण में हुए चुनाव में भाग लेने से इंकार कर दिया, जिसके परिणामस्वरूप दो कब्जे वाले क्षेत्रों में अलग कोरियाई सरकारों का गठन हुआ। उत्तर और दक्षिण कोरिया दोनों ही पूरे प्रायद्वीप पर सम्प्रभुता का दावा किया,सकी परिणति सन् १९५० में कोरियाई युद्ध के रूप में हुई। १९५३ में हुए युद्धविराम के बाद लड़ाई तो खत्म हो गई, लेकिन दोनों देश अभी भी आधिकारिक रूप से युद्धरत हैं, क्योंकि शान्तिसन्धि पर कभी हस्ताक्षर नहीं किए गए। दोनों देशों को सन् १९९१ में संयुक्त राष्ट्र में स्वीकार किया गया। २६ मई २००९ में उत्तर कोरिया ने एकतरफा युद्धविराम वापस ले लिया।
सोवियत आधिपत्य और कोरिया का विभाजन (१९४५१९५०)
१९४५ में जब दूसरा विश्व युद्ध समाप्त हुआ तो, कोरियाई प्रायद्वीप को ३८वीं समानान्तर रेखा से दो क्षेत्रों में विभाजित कर दिया गया, जिसके उत्तरी क्षेत्र में सोवियत संघ का और दक्षिणी हिस्से पर संयुक्त राज्य अमेरिका का कब्जा रहा। विभाजन रेखा हेतु दो अमेरिकी अधिकारियों, डीन रस्क और चार्ल्स बोनेस्टेल को काम सौंपा गया, उन्होंने देश को लगभग आधे-आधे भाग में विभाजित किया था लेकिन राजधानी सियोल को अमेरिकी नियन्त्रण के तहत रखा था। फिर भी, विभाजन तुरन्त सोवियत संघ द्वारा स्वीकार किया गया।
सोवियत जनरल तेरेन्ति शैतकोव ने १९४५ में सोवियत नागरिक प्राधिकरण की स्थापना की सिफारिश की, और उत्तर कोरिया के लिए फरवरी १९४६ में स्थापित अस्थायी पीपल्स कमेटी के अध्यक्ष के रूप में किम इल-सुंग का समर्थन किया। अस्थायी सरकार के दौरान, शैतकोव की मुख्य उपलब्धि, व्यापक भूमि सुधार कार्यक्रम रही जिसने उत्तरी कोरिया की जमींदारी प्रणाली को समाप्त कर दिया। वहाँ के जमींदार और जापानी सहयोगी दक्षिण की और भाग खड़े हुए। शैतकोव ने वहाँ के कई प्रमुख उद्योगों को राष्ट्रीयकृत कर दिया और कोरिया के भविष्य पर बातचीत करने के लिए मॉस्को और सियोल में सोवियत प्रतिनिधिमण्डल का नेतृत्व भी किया। ९ सितम्बर 1९48 में डेमोक्रेटिक पीपल्स रिपब्लिक ऑफ़ कोरिया को स्थापित किया गया। शैतकोव पहले सोवियत राजदूत के रूप में रहे, जबकि किम इल-शुंग को इसका प्रमुख बनया गया।
१९४८ में सोवियत सेना उत्तरी कोरिया से वापस लौट गई और १९४९ में अमेरिकी सेना दक्षिण कोरिया से हट गई। राजदूत शैतकोव को सन्देह था की दक्षिण की कम्युनिस्ट विरोधी सरकार, उत्तर पर आक्रमण करने की योजना बना रही हैं, वही वे समाजवाद के तहत कोरियाई प्रायद्वीप के एकीकरण की किम के लक्ष्य के प्रति सहानुभूति रखते थे। दोनों ने दक्षिण पर पहले हमले करने के लिए जोसेफ स्टालिन को मनाने में सफल रहे, जो आगे चल कर कोरियाई युद्ध के रूप में हुआ।
कोरियाई युद्ध (१९५०-१९५३)
युद्ध के बाद की स्थिति
समाज और संस्कृति
इन्हें भी देखें
एशिया के देश |
करीमनगर (करिमनगर) भारत के तेलंगाना राज्य के करीमनगर ज़िले में स्थित एक नगर है। यह ज़िले का मुख्यालय भी है।
करीमनगर आंध्र प्रदेश राज्य में स्थित एक ऐतिहासिक स्थान और नगर भी है। यहाँ सातवाहन काल के लुहार की उपस्थिति के प्रमाण मिले है। सातवाहनो ने करीमनगर में लौह अयस्कों का उपयोग किया होगा, इसकी जानकारी यहाँ मिली महापाषाण काल के लोहे की खदानों से मिलती है। करीमनगर में ज़मीन के अन्दर बनी ढकी हुई नालियाँ भी मिलती हैं जिनसे गंदा पानी गड्ढ़ों में जाता था।
इन्हें भी देखें
तेलंगाना के नगर
करीमनगर ज़िले के नगर |
छोटा नागपुर पठार पूर्वी भारत में स्थित एक पठार है। झारखंड राज्य का अधिकतर हिस्सा एवं पश्चिम बंगाल, बिहार व छत्तीसगढ़ के कुछ भाग इस पठार में आते हैं। इसके पूर्व में सिन्धु-गंगा का मैदान और दक्षिण में महानदी हैं। इसका कुल क्षेत्रफल ६५,००० वर्ग किमी है।
इस पठार के नाम में 'नागपुर' शायद यहाँ पर प्राचीनकाल में राज करने वाले नागवंशी राजाओं से लिया गया है। राँची से कुछ दूरी पर स्थित 'चुटिया' नामक एक मुण्डा बहुल गाँव है, जिसमें नागवंशियों के एक पुराना दुर्ग के खँडहर मौजूद हैं। इस गाँव के संस्थापक 'चुटिया हाड़ाम' नामक एक मुंडा थे, जिनके नाम पर इसे 'चुटिया नागखंड' कहा जाता था, जो बाद में परिवर्तित होकर 'चुटिया नागपुर' और फिर 'छोटा नागपुर' बना। छोटा नागपुर को 'मुण्डाओं का प्रदेश' भी कहा जाता है।
छोटा नागपुर की पत्थरीली परतों के भूवैज्ञानिक अध्ययन से पता चला है कि इसमें अतिप्राचीन गोंडवाना महाद्वीप की चट्टानें हैं, यानि इस पठार का विकास बहुत ही पुराना है। यह दक्कन पठार का पूर्वोत्तरी खंड था जो दक्कन तख़्ते के साथ-साथ गोंडवाना के खंडित होने पर आज से लगभग १२ करोड़ साल पहले अलग होकर ५ करोड़ वर्षों तक उत्तर दिशा में चलता रहा और फिर यूरेशिया से जा टकराया।
इस पठारी क्षेत्र में कोयला का अकूत भंडार है जिससे दामोदर घाटी में बसे उद्योगों के उर्जा संबंधी आवश्यकतायें पूरी होती हैं। छोटानागपुर का पठार तीन छोटे छोटे पठारों से मिलकर बना है जिनमे राँची का पठार, हजारीबाग का पठार और कोडरमा का पठार शामिल है। राँची पठार सबसे बड़ा पठार है जिसकी औसत ऊँचाई ७०० मीटर है। पूरे छोटानागपुर पठार का क्षेत्रफल लगभग ६५,००० वर्ग किलो मीटर है।
पठार का ज्यादातर हिस्सा घने जंगलों से आच्छादित है जिनमें साल के वृक्षों की प्रमुखता है और इस क्षेत्र में वन क्षेत्र का प्रतिशत देश के अन्य हिस्सों की तुलना में ज्यादा है। बाघ, एशियाई हाथी, चार सींग वाला मृग (टेट्रासेरस क्वाड्रिकोर्निस), काला हिरण (एंटीलोप सर्विकाप्रा), चिंकारा (गज़ेला बेनेटी), जंगली सोनकुत्ता (कुओन अल्पिनस) और स्लॉथ भालू (मेलर्सस उर्सिनस) यहां पाए जाने वाले कुछ जानवर हैं, जबकि पक्षियों में खतरे में पड़े खरमोर (यूपोडोटिस इंडिका), भारतीय ग्रे हॉर्नबिल और अन्य हॉर्नबिल शामिल हैं। इस पठार पर हाथी और बाघ के संरक्षण के लिये बनाये गये कई प्रमुख अभयारण्य स्थित हैं।
पारिस्थितिकी क्षेत्र का लगभग ६ प्रतिशत क्षेत्र संरक्षित क्षेत्रों के भीतर है, जिसमें १९९७ में ६,७२० वर्ग किलोमीटर (२,५९० वर्ग मील) शामिल है। सबसे बड़े पलामू व्याघ्र आरक्षित वन और संजय राष्ट्रीय उद्यान हैं।
भीमबाँध वन्यजीव अभयारण्य, बिहार (६८० वर्ग किमी)
दलमा वन्यजीव अभयारण्य, झारखण्ड (६३० वर्ग किमी)
गौतम बुद्ध वन्यजीव अभयारण्य, बिहार (११० वर्ग किमी)
हज़ारीबाग वन्यजीव अभयारण्य, झारखण्ड (४५० वर्ग किमी)
कोडरमा वन्यजीव अभयारण्य, झारखण्ड (१८० वर्ग किमी)
लावालोंग वन्यजीव अभयारण्य, झारखण्ड (४१० वर्ग किमी)
पलामू व्याघ्र आरक्षित वन, झारखण्ड (१,३३० वर्ग किमी)
रमनाबागान वन्यजीव अभयारण्य, पश्चिम बंगाल (१५० वर्ग किमी)
संजय राष्ट्रीय उद्यान, मध्य प्रदेश (१,०२० वर्ग किमी, जिसका एक हिस्सा नर्मदा घाटी शुष्क पर्णपाती वन क्षेत्र में है)
सेमरसोत वन्यजीव अभयारण्य, छत्तीसगढ़ (४७० वर्ग किमी)
सिमलिपाल राष्ट्रीय अभ्यारण्य, ओडिशा (४२० वर्ग किमी)
सप्तशज्या वन्यजीव अभयारण्य, ओडिशा (२० वर्ग किमी)
तमोर पिंगला वन्यजीव अभयारण्य, छत्तीसगढ़ (६०० वर्ग किमी)
तोपचांची वन्यजीव अभयारण्य, झारखण्ड (४० वर्ग किमी)
छोटा नागपुर पठार अभ्रक, बॉक्साइट, तांबा, चूना पत्थर, लौह अयस्क और कोयला जैसे खनिज संसाधनों का भंडार है। दामोदर घाटी कोयले से समृद्ध है और इसे देश में कोकिंग कोयले का प्रमुख केंद्र माना जाता है। २,८८३ वर्ग किलोमीटर (१,११3 वर्ग मील) में फैले केंद्रीय घाटी में विशाल कोयला भंडार पाए जाते हैं। घाटी में महत्वपूर्ण कोयला क्षेत्र हैं: झरिया, रानीगंज, पश्चिम बोकारो, पूर्वी बोकारो, रामगढ़, दक्षिण कर्णपुरा और उत्तरी कर्णपुरा।
इन्हें भी देखें
सिन्धु-गंगा का मैदान
भारत के पठार |
किंगफिशर रेड, पहले सिम्प्लीफ्लै डेक्कन और उसके पहले एयर डेक्कन के नाम से जाना जाता है। इस्का मुख्यालय मुंबई, भारत में किंगफिशर एयरलाइंस द्वारा चलाए जा रहा एक कम लागत ब्रांड था। उड़ान में पठन सामग्री विशेष रूप से किंगफिशर रेड के लिए मुद्रित, सिने ब्लिट्ज पत्रिका के एक विशेष संस्करण के लिए सीमित था। २८ सितंबर २०११ को किंगफिशर रेड के अध्यक्ष, विजय माल्या ने यह घोषणा की कि कंपनी जल्द ही किंगफिशर रेड के संचालन को रोक रही है क्योंकि कम कीमत के संचालन में से उन्के कारोबार में कोई लाभ नहीं है।
एयर डेक्कन, डेक्कन एविएशन की एक पूर्ण स्वामित्व वाली सहायक कंपनी थी। यह भारत की पहली कम लागत वाहक थी जिसे कैप्टन जी॰आर॰ गोपीनाथ ने शुरू किया था और इसकी पहली उड़ान बंगलौर से हुबली तक २३ अगस्त २००३ को किया गया था। दो हथेलियों वाली लोगो एक उड़ने वाली चिड़िया का दर्शाता देता है और यह आम आदमी की एयरलाइन के रूप में लोकप्रिय था।
किंगफिशर रेड ने कई भारतीय और कुछ अंतरराष्ट्रीय स्थलों के लिए संचालन का ऑपरेशन किया था।
कम लागत कारोबार से बाहर निकलने के बाद एयर डेक्कन के विरासत से मिली हुई एयरबस ए -३२० और एटीआर -७२ विमान के बेड़े को किंगफिशर ने पूरे-किराया वाले संचालन सेवाओं के उपयोग के लिए फिर से विन्यस्त किया।
दुर्घटनाएं और घटनाएं
२४ सितंबर २००३ में एयर डेक्कन का परिचालन एक अशुभ शुरूवात से हुई थी जब हैदराबाद से विजयवाड़ा कि फ्लैट कि उडान से पहले ही हवाई पट्टी पर आग पकड़ने के कारण उड़ान को रद्द किया था। इस फ्लैट में कई गणमान्य व्यक्ति यात्रा कर रहे थे जैसे तबके भाजपा अध्यक्ष एम. वेंकैया नायडू, तबके नागरिक उड्डयन राज्य मंत्री राजीव प्रताप रूडी और तेलुगू देशम पार्टी के नेता के. येर्रन नायडू. इसे एक एटीआर ४२ विमान के उपयोग से संचालित किया गया था। फिर, २९ मार्च २००४ को बंगलौर के लिए गोवा से उडान भरी एक और एयर डेक्कन के केबिन में धुआं भरने के कारण आधे घंटे बाद लौटना पड़ा। यह विमान भी एक एटीआर ४२ था। ११ मार्च २००६ को, कोयंबटूर से बंगलौर को यात्रा करने वाली एक एयर डेक्कन की उड़ान बंगलौर के एचएएल हवाई अड्डे के रनवे पर एक बहुत भारी प्रभाव सेउतरा और रनवे के बाहर फिसल गया। इस विमान में कुल ४४ लोग थे जिस्मे से ४० यात्री और ४ क्रू थे। इस दुर्घट्ना में यात्रियों के जीवन को कोई नुक्सान नहीं हुआ लेकिन विमान जो एक एटीआर ७२ थी, गंभीर रूप से क्षतिग्रस्त हो गई थी।
किंगफिशर रेड की ऑनलाइन बुकिंग की जा सकती है। आराम से पूरी जानकारी, नवीनतम सौदों और छूट और कई और अधिक सुविधाओं को सुनिश्चित रूप से बुकिंग किया जा सकता है।
कनेक्टिविटी और बेड़े सूचना
किंगफिशर रेड उड़ाने भारत में प्रमुख स्थलों के साथ कनेक्ट करता है और मुंबई और बेंगलुरू से बाहर को अधिक्तर सन्चालित होती है। इसके बेड़े में २० से भी अधिक विमान हैं। किंगफिशर रेड के टिकट बुकिंग दिल्ली, मुंबई, चेन्नई, गोवा, बेंगलूर, हैदराबाद और भारत के अन्य महत्वपूर्ण शहरों के लिए सुविधाजनक कनेक्शन द्वारा उपलब्ध है।
भारतीय वायुयान सेवा |
नागपट्टिनम ज़िला भारत के तमिल नाडु राज्य का एक ज़िला है। ज़िले का मुख्यालय नागपट्टिनम है। वर्ष २००४ के अंत में आई सुनामी लहरों के कहर से बंगाल की खाड़ी पर तटवर्ती यह ज़िला सबसे अधिक प्रभावित हुआ था।
इन्हें भी देखें
तमिल नाडु के जिले
तमिलनाडु के जिले |
सीवान() या सिवान() भारत गणराज्य के बिहार प्रान्त में सारन प्रमंडल के अंतर्गत एक शहर है। यह सीवान ज़िले का मुख्यालय है, जो बिहार के पश्चिमोत्तरी छोर पर उत्तर प्रदेश का सीमावर्ती जिला है। सिवान दाहा नदी के किनारे बसा है। इसके उत्तर तथा पूर्व में क्रमश: बिहार का गोपालगंज तथा सारण जिला तथा दक्षिण एवं पश्चिम में क्रमश: उत्तर प्रदेश का देवरिया और बलिया जिला है। भारत के प्रथम राष्ट्रपति डा॰ राजेन्द्र प्रसाद तथा कई अग्रणी स्वतंत्रता सेनानियों की जन्मभूमि एवं कर्मस्थली के लिए सिवान को जाना जाता है।
सिवान का नामकरण मध्यकाल में यहाँ के राजा 'शिव मान' के नाम पर हुआ है। उनके पूर्वज बाबर के यहाँ आने तक शासन कर रहे थे। इसका एक अनुमंडल महाराजगंज है जिसका नाम इस क्षेत्र पर राज कर रहे महाराजा का घर या किला स्थित होने के चलते पड़ा है। इसी जिला के एक सामंत अली बक्श के नाम पर इसे अलीगंज भी पुकारा जाता था।
पाँचवी सदी ईसापूर्व में सिवान की भूमि कोसल महाजनपद का अंग था। कोसल राज्य के उत्तर में नेपाल, दक्षिण में सर्पिका (साईं) नदी, पुरब में गंडक नदी तथा पश्चिम में पांचाल प्रदेश था। इसके अंतर्गत आज के उत्तर प्रदेश का फैजाबाद, गोंडा, बस्ती, गोरखपुर तथा देवरिया जिला के अतिरिक्त बिहार का सारन क्षेत्र (सारन, सिवान एवं गोपालगंज) आता है। आठवीं सदी में यहाँ बनारस के शासकों का आधिपत्य था। १५ वीं सदी में सिकन्दर लोदी ने यहाँ अपना आधिपत्य स्थापित किया। बाबर ने अपने बिहार अभियान के समय सिसवन के नजदीक घाघरा नदी पार की थी। बाद में यह मुगल शासन का हिस्सा हो गया। अकबर के शासनकाल पर लिखे गए आईना-ए-अकबरी के विवरण अनुसार कर संग्रह के लिए बनाए गए ६ सरकारों में सारन वित्तीय क्षेत्र एक था और इसके अंतर्गत वर्तमान बिहार के हिस्से आते थे। १७वीं सदी में व्यापार के उद्देश्य से यहाँ डच आए लेकिन बक्सर युद्ध में विजय के बाद सन १७६५ में अंग्रेजों को यहाँ का दिवानी अधिकार मिल गया। १८२९ में जब पटना को प्रमंडल बनाया गया तब सारन और चंपारण को एक जिला बनाकर साथ रखा गया। १९०८ में तिरहुत प्रमंडल बनने पर सारन को इसके साथ कर इसके अंतर्गत गोपालगंज, सिवान तथा सारन अनुमंडल बनाए गए। १८५७ की क्रांति से लेकर आजादी मिलने तक सिवान के निर्भीक और जुझारु लोगों ने अंग्रेजी सरकार के खिलाफ अपनी लड़ाई लड़ी। १९२० में असहयोग आन्दोलन के समय सिवान के ब्रज किशोर प्रसाद ने पर्दा प्रथा के विरोध में आन्दोलन चलाया था। १९३७ से १९३८ के बीच हिन्दी के मूर्धन्य विद्वान राहुल सांकृत्यायन ने किसान आन्दोलन की नींव सिवान में रखी थी। स्वतंत्रता की लड़ाई में यहाँ के मजहरुल हक़, राजेन्द्र प्रसाद, महेन्द्र प्रसाद,रामदास पाण्डेय फूलेना प्रसाद जैसे महान सेनानियों नें समूचे देश में बिहार का नाम ऊँचा किया है। स्वतंत्रता पश्चात १९८१ में सारन को प्रमंडल का दर्जा मिला। जून १९७० में बिहार में त्रिवेदी एवार्ड लागू होने पर सिवान के क्षेत्रों में परिवर्तन किए गए। सन १८८५ में घाघरा नदी के बहाव स्थिति के अनुसार लगभग १३००० एकड़ भूमि उत्तर प्रदेश को स्थानान्तरित कर दिया गया जबकि ६६०० एकड़ जमीन सिवान को मिला। १९७२ में सिवान को जिला (मंडल) बना दिया गया।सावधान जिले का एक मुख्य प्रखंड गोरयाकोठी है जो केंद्रीय असेम्बली को हिन्दी में संबोधित करने वाले कर्म योगी नारायण बाबु का गृह नगर है ।इस प्रखंड में आने वाले प्रमुख गांव खुलासा,जामो मझवलिया और गोरयाकोठी हैं ।
सिवान ज़िले के कुछ सबसे प्रसिद्ध गाँवों में से अमलोरी गाँव है।
कंधवारा गांव है जो रामाजी चौधरी के नाम से भी जाना जाता है रामा जी चौधरी वह आदमी है ९० के दशक के पहले सिवान में इस आदमी की तूती बोलती थी रामा जी चौधरी तिन साथी हुआ करते थे रामा हेमंत पाल हेमंत और पाल का मर्डर हो गया तो चौधरी ने भी अपराधिक दुनिया से दूरी बना ली कंधवारा का प्राचीन नाम तूफानगंज भी था यह गांव पंडितो की सबसे ज्यादा आबादी वाला गांव है।
बाबा अंबिका पांडे मठिया के सुप्रसिद्ध व्यक्ति हुए है, जो अपने कृत्यों के लिए विख्यात रहे है ।
सिवान जिला उत्तरी गंगा के मैदान में स्थित एक समतल भू-भाग है। जिले का विस्तार २५०५३' से २६० २३' उत्तरी अक्षांस तथा ८४० १' से ८४० ४७' पूर्वी देशांतर के बीच है। नदियों के द्वारा जमा की गयी मिट्टियों की गहराई ५००० फीट तक है। मैदानी भाग का ढाल उत्तर-पश्चिम से दक्षिण-पूर्व की ओर है। निचले मैदान में जलजमाव का कई क्षेत्र है जो चौर कहलाता है। यहाँ से कई छोटी नदी या 'सोता' भी निकलते हैं। मुख्य नदी घाघरा है जिसके किनारे दरारा निर्मित हुआ है। इस खास भौगोलिक बनावट में बालू की मोटी परत पर मृत्रिका और सिल्ट की पतली परत पायी जाती है। सिवान की मिट्टी खादर (नयी जलोढ) एवं बांगर (पुरानी जलोढ) के बीच की है। खादर मिट्टी को यहाँ दोमट तथा बांगर को बलसुंदरी कहा जाता है। बलसुंदरी मिट्टी में कंकर की मात्रा पायी जाती है। कई जगहों पर गंधकयुक्त मिट्टी मिलती है जहाँ से कभी साल्टपीटर निकाला जाता था। अंग्रेजी शासन में यह एक उद्योग हुआ करता था लेकिन अब यह गायब हो चुका है।
नदियाँ: गंडकी एवं घाघरा यहाँ की प्रमुख नदी है। घाघरा नदी जिले की दक्षिणी सीमा पर बहने वाली सदावाही नदी है। इसके अलावे झरही, दाहा, धमती, सिआही, निकारी और सोना जैसी छोटी नदियाँ भी है। झरही और दाहा घाघरा की सहायक है जबकि गंडकी और धमती गंडक में जा मिलती है।
सिवान में उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल के बीच की जलवायु पायी जाती है। मार्च से मई के बीच यहाँ चलने वाली पछुआ पवनों के चलते मौसम शुष्क होता है लेकिन कई बार शाम में चलनेवाली पुरवाई हवा आर्द्रता ले आती है जिससे उत्तर प्रदेश से चलने वाली धूलभरी आँधी को विराम लग जाता है। गर्मियों में तापमान ४० डिग्री सेल्सियस तक पहुँच जाता है और लू का चलना इन दिनों आम है। जाड़ों का मौसम सुहावना होता है किंतु कई बार शीत लहर का प्रकोप कष्टदायी हो जाता है। जुलाई-अगस्त में होनेवाली मॉनसूनी वर्षा के अलावा पश्चिमी अवदाब से जाड़े में भी बारिस का होना सामान्य बात है। औसत वार्षिक वर्षा १२० सेंटीमीटर होती है।
अनुमंडल- सिवान एवं महाराजगंज
प्रखंड- मैरवा, पचरुखी, रघुनाथपुर, आन्दर, गुथनी, महारजगंज, दरौली, सिसवन, दरौंदा, हुसैनगंज, भगवानपुर, हाट, गोरियाकोठी, बरहरिया, हबीबपुर, बसंतपुर, लकरी, नबीगंज, जिरादेई, नौतन, हसनपुर, जमालपुर
इन इलाकों में लंबे समय से भूमिहार, अहीर व राजपूत जाती का दब दबा रहा है। । युद्ध में हिंदू पक्ष की ही जीत हुई थी पर विश्वनाथ राय इस युद्ध में वीरगति को प्राप्त हो गए थे । हिंदुओ में आपसी फूट का फायदा हमेसा से आक्रमणकारी उठाते रहे है । अगर अन्य हिंदु राजाओं ने विश्वनाथ राय की मदद की होती तो इतिहास आज कुछ और होता ।
कृषि एवं उद्योग
यहाँ की फसलों में धान, गेहूँ, ईख (गन्ना), मक्का, अरहर आदि प्रमुख हैं। इसके अलावा इस जिले में कुछ जगहों पर फूलों और सब्जियों की भी खेती रोजगारपरक कृषि के तौर पर की जाती है। कृषि आधारित इस जिले में कुटीर उद्योगों के अलावा गन्ना मिल्स, प्लास्टिक फैक्ट्री, सूत फैक्ट्रियाँ आदि काफी संख्या में थी, जिनमें से अब अधिकांश बंद है। गन्ना मिल बंद है।इस जिले में प्रमुख रूप से तम्बाकू और परवल की खेती व्यवसायिक खेती के रूप में होती है ।इसमें खुलासा गांव मत्स्य पालन के लिये क्षेत्र में विख्यात है ।
जनजीवन एवं संस्कृति
सिवान जिले का अधिकांश जनजीवन कृषि केंद्रित/आधारित है। इसके अलावा यह पूरे पूर्वांचल में अरब देशों की रोजगार के लिए पलायन करने वाले मजदूरों की संख्या में भी संभवतः अव्वल स्थान पर है। अरब देशों से परिजनों द्वारा भेजे गए पैसों से यहाँ के जन-जीवन अपने आर्थिक स्थितियों में जीता है। सिवान में २०वी सदी के मध्य तक भोजपुरी भाषा की लिपी "कैथी()" आधिकारिक कार्यो में भी प्रचलन में थी। परन्तु सरकार द्वारा हिंदी के प्रचार प्रसार व तुष्टिकरण के चलते यह लिपि मृत हो गई।
डा॰ राजेन्द्र प्रसाद- महात्मा गाँधी के सहयोगी, स्वतंत्रता सेनानी एवं भारत के प्रथम राष्ट्रपति
मौलाना मजहरूल हक़- महात्मा गाँधी के सहयोगी, स्वतंत्रता सेनानी एवं हिंदू-मुस्लिम एकता के प्रतीक, सदाकत आश्रम तथा बिहार विद्यापीठ के संस्थापक
खुदा बक्श खान- पांडुलिपि संग्रहकर्ता एवं खुदा बक्श लाईब्रेरी के संस्थापक
फुलेना प्रसाद- स्वतंत्रता सेनानी
ब्रज किशोर प्रसाद- स्वतंत्रता सेनानी एवं पर्दा-प्रथा विरोध आन्दोलन के जन्मदाता
उमाकान्त सिंह- ९ अगस्त १९४२ को बिहार सचिवालय के सामने शहीद हुए क्रांतिकारियों में एक
दारोगा प्रसाद राय- बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री
प्रभावती देवी: १९७१-१९७२ में छात्र आंदोलन के अगुवा रह चुके डा॰ जय प्रकाश नारायण की पत्नी
रामदास पांडेय - भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के एक सेनानी एवम जमींदार थे । राजेन्द्र प्रसाद के मित्र थे । इन्होंने अंग्रेज अफसर (दरोगा) को अपने गांव बेलवार में सरेआम थप्पड़ जड़ दिया। जिसके वजह से कुछ समय के लिए यह गांव अंग्रेजी व्यवस्था से मुक्त हो गयी थी । इन्होंने आजादी के बाद कोई भी लाभ का पद नहीं लिया । इनका नाम रघुनाथपुर प्रखंड के सामने पत्थर पे उल्लेखित है ।
पैगाम अफाकी- मशहूर उर्दू साहित्यकार, मकान, माफिया, दरिंदा जैसी किताबों के रचयिता
नटवर लाल- सिवान के दरौली प्रखंड में बरई बंगरा गाँव में जन्मे मशहूर ठग
" प्राथमिक विद्यालय":- प्राथमिक विद्यालय जमालपुर
"उच्च विद्यालय निखती कलां
"उच्च विद्यालय राजपुर
माध्यमिक विद्यालय- माध्यमिक विद्यालय जमालपुर
उच्च विद्यालय- उच्च विद्यालय अान्दर सिवान
डिग्री महाविद्यालय:- डी ए वी कॉलेज, जेड ए इस्लामिया कॉलेज, दारोगा प्रसाद राय कॉलेज, राजेन्द्र कॉलेज, वी एम इंटर कॉलेज, प्रभावती देवी बालिका महाविद्यालय
व्यवसायिक शिक्षा:- इंजिनियरिंग कॉलेज, आयुर्वेदिक मेडिकल कॉलेज, होमियोपैथिक मेडिकल कॉलेजअ,आई टी आई कालेज
दोन स्तूप (दरौली): दरौली प्रखंड के दोन गाँव में यह एक महत्वपूर्ण बौद्ध स्थल है। दरौली नाम मुगल शासक शाहजहाँ के बेटे दारा शिकोह के नाम पर पड़ा है। ऐसी मान्यता है कि दोन में भगवान बुद्ध का अंतिम संस्कार हुआ था। हिंदू लोग यह मानते हैं कि यहाँ किले का अवशेष महाभारत काल का है, जिसे गुरु द्रोणाचार्य ने बनवाया था। उपलब्ध साक्ष्यों को देखने से इस मान्यता को बल नहीं मिलता। चीनी यात्री ह्वेनसांग ने अपने यात्रा वर्णन में इस स्थान पर एक पुराना स्तूप होने का जिक्र किया है। स्तूप के अवशेष स्थल पर तारा मंदिर बना है, जिसमें नवीं सदी में बनी एक मूर्ति स्थापित है।
अमरपुर: दरौली से ३ किलोमीटर पश्चिम में घाघरा नदी के तट पर स्थित इस गाँव में मुगल शाहजहाँ के शासनकाल (१६२६-१६५८) में यहाँ के नायब अमरसिंह द्वारा एक मस्जिद का निर्माण शुरू कराया गया, जो अधूरा रहा। लाल पत्थरों से बनी अधूरी मस्जिद को यहाँ देखा जा सकता है।
मैरवा धाम: मैरवा प्रखंड में हरि बाबा का स्थान के नाम से प्रचलित झरही नदी के किनारे इस स्थान पर कार्तिक और चैत्र महीने में मेला लगता है। यह ब्रह्म स्थान एक संत की समाधि पर स्थित है। इस स्थान पर डाक बंग्ला के सामने बने चननिया डीह (ऊँची भूमि) पर एक अहिरनी औरत के आश्रम को पूजा जाता है।
महेन्द्रनाथ मंदिर ,मेंहदार: सिसवन प्रखंड में स्थित मेंहदार गाँव के बावन बीघे में बने पोखर के किनारे शिव एवं विश्वकर्मा भगवान का मंदिर बना है। स्थानीय लोगों में इस पोखर को पवित्र माना जाता है। यहाँ शिवरात्रि एवं विश्वकर्मा पूजा (१७ सितंबर) को भारी भीड़ जुटती है।
लकड़ी दरगाह: पटना के मुस्लिम संत शाह अर्जन के दरगाह पर रब्बी-उस-सानी के ११ वें दिन होनेवाले उर्स पर भाड़ी मेला लगता है। इस दरगाह पर लकड़ी का बहुत अच्छी कासीदगरी की गयी है। कहा जाता है कि इस स्थान की शांति के चलते शाह अर्जन बस गए थे और उन्होंने ४० दिनों तक यहाँ चिल्ला किया था।
हसनपुरा: हुसैनीगंज प्रखंड के इस गाँव में अरब से आए चिश्ती सिलसिले के एक मुस्लिम संत मख्दूम सैय्यद हसन चिश्ती आकर बस गए थे। यहाँ उन्होंने खानकाह भी स्थापित किया था।
भिखाबांध: महाराजगंज प्रखंड में इस जगह पर एक विशाल पेड़ के नीचे भैया-बहिनी का मंदिर बना है। कहा जाता है कि १४ वीं सदी में मुगल सेना से लड़ाई में दोनों भाई बहन मारे गए थे।
जिरादेई: सिवान शहर से १३ किमी पश्चिम में देशरत्न डा राजेन्द्र प्रसाद का जन्म स्थान
फरीदपुर: बिहार रत्न मौलाना मजहरूल हक़ का जन्म स्थान
सोहगरा: शिव भगवान का मंदिर है। जहा जाने के लिए गुठनी चौराहा से तेनुआ मोड़ और गाँव नैनिजोर होते हुए सोहगरा मंदिर जाया जाता है। यहाँ शिवरात्रि और सावन में भारी भीड़ जुटती है।
हड़सरः यह दुरौधा रेलवे स्टेशन से दो किलोमीटर अन्दर है। यहां काली मां का मंदिर है। ऐसी मान्यता है कि जो देवी थावे मंदिर में है वह अपने भक्त रहसू भगत की पुकार पर कलकत्ते से चली और कलकत्ता से थावे जाते समय इनका यही अंतिम पडाव था। अब यहां कोई मंदिर नहीं है, पर आस्था गहरी है।
पतार:- राम जी बाबा का मन्दिर है जहाँ पर किसी भी आदमी को सर्प काटता है, तो यहाँ पर आने से सही हो जाता है। ऐसी मान्यता भी है और सच्चाई भी। इसी गाँव में श्री विश्वनाथ पाण्डेय जी के सुपुत्र प्रसिद्ध ज्योतिष आचार्य मुरारी पाण्डेय जी की जान्मस्थली है।
नरहन:- यह सिवान जिला मुख्यालय से ३० किमी० दक्षिण में अवस्थित है। यह हिन्दुओं का प्रसिद्ध तीर्थ स्थान है। कार्तिक पूर्णिमा एवं मकर सक्रान्ति के दिन यहाँ मेले का आयोजन होता है, जिसमें काफी संख्या में श्रद्धालु आते हैं और सरयु नदी के पवित्र जल में स्नान करते हैं। यहाँ आश्विन पूर्णिमा के दिन दुर्गा पूजा के बाद एक भव्य जुलूस का आयोजन होता है, जिसे देखने दूर-दूर से लोग आते हैं। कुछ प्रसिद्ध स्थलों में श्री नाथ जी का महाराज मंदिर, माँ भगवती मंदिर, राम जानकी मंदिर, मां काली मंदिर एवं ठाकुर जी मंदिर है, जो इस गाँव को चारो ओर से घेरे हुए हैं।
""डोभियाँ "":- " यह सीवान जीला के मैरवा दरौली के मुख्य सड़क पर स्थित है।बाबा धर्मागत बरमभ जी का भव्य मंदिर है।यहाँ बहुत दूर-दूर से भक्त आते हैं और अपनी मनोकामनाएं पूर्ण करते हैं। सोमवार अौर शुक्रवार को भक्तों की भीड़ उमड़ पड़ती है। मान्यता है कि बाबा आज भी जीवित है जिन्हें गाँव के लोगों ने बहुत बार देखा भी है। डोभियाँ गाँव बहुत संपन्न है और यह सब बाबा की कृपा से है। मिथिलेश सिहं।
कंधवारा :- मुक्ति धाम मशान माई विदेशी बाबा घाट प्राचीन काल में या जगह जंगलों से घिरा था जिसे कबीर मठ कंधवारा के नाम से भी जाना जाता है
सिवान जिले से वर्तमान में दो राष्ट्रीय राजमार्ग तथा दो राजकीय राजमार्ग गुजरती हैं। राष्ट्रीय राजमार्ग ८५ छपरा से सिवान होते हुए गोपालगंज जाती है। छपरा से शुरू होनेवाली राष्ट्रीय राजमार्ग १०१ जिले को मुहम्मदपुर को जोड़ती है। सिवान जिले में राजकीय राजमार्ग संख्या ४७, ७३ एवं ८९ की कुल लंबाई १२५ किलोमीटर है। सार्वजनिक यातायात मुख्यतः निजी बसों, ऑटोरिक्शा और निजी वाहनों पर आश्रित है। गोपालगंज, छपरा तथा पटना से यहाँ आने के लिए सड़क मार्ग सबसे उपयुक्त है। सिवान जिले की महत्वपूर्ण सड़कों में सिवान-मैरवा-गुठनी (३१५ किलोमीटर), सिवान-छपरा (६५ किलोमीटर), सिवान-सरफरा (३५ किलोमीटर), सिवान-रघुनाथपुर (२७ किलोमीटर), सिवान-सिसवां (३७ किलोमीटर), सिवान-महाराजगंज (१९ किलोमीटर), सिवान-बादली (१७ किलोमीटर), सिवान-मीरगंज (१६ किलोमीटर), भंटापोखर-जिरादेई (५ किलोमीटर), मैरवा- दरौली (१८ किलोमीटर), मैरवा-पुनक (८ किलोमीटर) तथा दरौली, रघुनाथपुर होते हुए गुठनी- छपरा (४५ किलोमीटर) शामिल है।
दिल्ली-हाजीपुर-गुवाहाटी रेलमार्ग पर सिवान एक महत्वपूर्ण जंक्शन है। यह पूर्व मध्य रेलवे के सोनपुर मंडल में पड़ता है। जिले में ४५ किलोमीटर लंबी रेलमार्ग मैरवां, जिरादेई, पचरूखी, दरौंधा होकर गुजरती है। दरौंधा से महाराजगंज के बीच एक लूप-लाईन भी मौजूद है, जिसका विस्तार मसरख तक प्रस्तावित है। सिवान से दिल्ली, मुंबई, अहमदाबाद, अमृतसर, कोलकाता और गुवाहाटी जैसे महत्वपूर्ण शहरों के लिए सीधी ट्रेनें उपलब्ध हैं।
नजदीकी हवाई अड्डा राज्य की राजधानी पटना में है। जयप्रकाश नारायण अंतर्राष्ट्रीय हवाई क्षेत्र से दिल्ली, कोलकाता, राँची आदि शहरों के लिए इंडियन, स्पाइस जेट, किंगफिशर, जेटलाइट, इंडिगो आदि विमानसेवाएँ उपलब्ध हैं। सिवान से छपरा पहुँचकर राष्ट्रीय राजमार्ग १९ द्वारा १४० किलोमीटर दूर पटना हवाई अड्डा जाया जाता है।
सिवान जिले का आधिकारिक बेवजाल
बिहार पर्यटन का आधिकारिक बेवजाल
अंग्रेजी विकिपीडिया पर सिवान जिला
बिहार के शहर
सीवान ज़िले के नगर |
सरकारी विमान सेवा
निजी विमान सेवा
इन्हें भी देखें
भारत के हवाई अड्डे
भारत में उड्डयन |
प्योङ्याङ (, ,अर्थ: शांतिमय भूमि )उत्तर कोरिया की राजधानी और सबसे बड़ा शहर है।
एशिया में राजधानियाँ |
विश्व की कुछ प्रमुख मुद्राएँ निम्नलिखित हैं:-
अफगानी - अफगानिस्तान
बहत - थाईलैंड
बलोबा - पनामा
बिर्र - इथियोपिया
बोलिविर - वेनेजुएला
बोलिवियानो - बोलिविया
चेदी - घाना
कोलोन - कोस्टारीका, अल साल्वाडोर
क्राउन - चेक गणराज्य, डेनमार्क एस्तोनिया, आइसलैंड, नार्वे, स्वीडन
दलासी - जाम्बिया
मेसिडोनियन दीनार - मेसिडोनिया
दीनार - अल्जीरिया, बहरीन, ईराक, जार्डन, कुवैत, ट्यूनिशिया, सर्बिया
दिरहम - मोरक्को, संयुक्त अरब अमीरात
डालर - एंटीगुआ और बारबडोस, आस्ट्रेलिया, बहामा, बेलिजी, बरमुडा, ब्रिटिश वर्जिन आइलैंड, ब्रुनेई, कनाडा, डोमेनिका, फिजी, गुआम, गयाना, हांगकांग, जमैका, लाइबेरिया, नामिबिया, न्यूजीलैंड, सिंगापुर, सूरीनाम, ताईवान, त्रिनिनाद और टुबैगो, अमरीका, जिम्बाबवे
डांग - वियतनाम
द्रामचा - (यूनान/ग्रीस अब युरो)
द्राम - आर्मीनिया
युरोपियन संघ (एक संगठन; हर देश में वैध नहीं.
युरोपिय संघ के सदस्य: आस्ट्रिया, बेल्जियम, फिनलैंड, फ्रांस (प्रशांत क्षेत्रों को छोड़कर अन्य स्थानों पर फ्रैंक), जर्मनी, ग्रीस या यूनान, आयरलैंड, ईटली, लक्जम्बर्ग, नीदरलैंड, पुर्तगाल, स्पेन.
देश जिनमें युरो प्रयोग करने की वैधानिक संधि है: मोनाको, सैन मरीनो, वेटिकन सिटी.
वे क्षेत्र जहाँ सिर्फ़ युरो प्रयोग किये जाते हैं: अंदोरा, मोंटीनिगरो और कोसोवो.
वे मुद्रा जिनका युरो केप वर्दियन एस्क्यूडो,फ्रैंक, कैमरुन फ्रैंक, बल्गेरियाई लेव, एस्तोनिया का क्रोन, लिथुआनिया का लितास, बोस्निया हर्जोगोविना का
फोरिन्त - हंगरी
स्विस फ्रैंक - स्वीटजरलैंड,
गोरदे - हैती
गिल्डर - अरुबा,
किना - पापुआ न्यू गिनी
किप - लाओस
कोरुना - चेक गणराज्य, स्लोवाकिया
क्वाचा - मलावी, जाम्बिया
क्वन्जा - अंगोला
क्यात - म्यानमार
लेत - लातिविया
लारी - जार्जिया
लेक - अल्बानिया
लेम्पीरा - होंदुरास
लेउ - रुउमानिया, मोलदोवा
लेव - बुल्गारिया
लीरा - साईप्रस, माल्टा और तुर्की; (ईटली, सैन मरीनो, वेटिकन सिटी अब युरो)
लितास - लिथुआनिया
मनात - अज़रबाइजान, तुर्कमेनिस्तान
मार्क - (जर्मनी अब युरो)
मार्का - बोस्निया हर्जोगोविना
मारका - (फिनलैंड अब युरो)
नाफ्का - एरिशिया
नाइरा - नाइजीरिया
पेसो - आर्जेन्टीना, चीली, कोलोंबिया, क्यूबा, डोमेनिकन गणराज्य, मेक्सिको, फिलिपिंस, उरुग्वे
पाउंड - साइप्रस, माल्टा, मिश्र, फाल्कन द्वीप, जिब्राल्टर, इंग्लैंड (आयरलैंड अब युरो)
पुला - बोत्सवाना
रैंड - दक्षिण अफ्रीका
रियाल - ईरान, ओमान, यमन
रियेल - कम्बोडिया
रिंगित - मलेशिया
रियाल - कतर, सऊदी अरब
रूबल - बेलारूस, रूस
रूफिया - मालदीव
रुपया - भारत, मारिशस, नेपाल, पाकिस्तान, सेशेल्स, श्रीलंका, इंडोनेशिया
शिलिंग - (आस्ट्रिया अब युरो)
शेकेल - इजरायल,
शिलिंग - कीनिया, सोमालिया, तंजानिया, युगांडा
सोल - पेरू
सोम - किरगिस्तान, उज़बेकिस्तान
टाका - बांग्लादेश
तेंगे - कज़ाकिस्तान
तुगरिक - मंगोलिया
तोलर - स्लोवानिया
वोन - उत्तर कोरिया, दक्षिण कोरिया
येन - जापान |
डॉ॰ अशोक चक्रधर (जन्म ८ फ़रवरी सन् १९५१) हिंदी के विद्वान, कवि एवं लेखक है। हास्य-व्यंग्य के क्षेत्र में अपनी विशिष्ट प्रतिभा के कारण प्रसिद्ध वे कविता की वाचिक परंपरा का विकास करने वाले प्रमुख विद्वानों में से भी एक है। टेलीफ़िल्म लेखक-निर्देशक, वृत्तचित्र लेखक निर्देशक, धारावाहिक लेखक, निर्देशक, अभिनेता, नाटककर्मी, कलाकार तथा मीडिया कर्मी के रूप में निरंतर कार्यरत अशोक चक्रधर जामिया मिलिया इस्लामिया में हिंदी व पत्रकारिता विभाग में प्रोफेसर के पद से सेवा निवृत्त होने के बाद केन्द्रीय हिंदी संस्थान तथा हिन्दी अकादमी, दिल्ली के उपाध्यक्ष पद पर कार्यरत रहे। २०१४ में उन्हें पद्म श्री से सम्मानित किया गया।
अशोक चक्रधर जी का जन्म ८ फ़रवरी, सन १९५१ में खु्र्जा (उत्तर प्रदेश) के अहीरपाड़ा मौहल्ले में हुआ। उनके पिताजी डॉ॰_राधेश्याम_'प्रगल्भ'' अध्यापक, कवि, बाल साहित्यकार और संपादक थे। उन्होंने 'बालमेला' पत्रिका का संपादन भी किया। उनकी माता कुसुम प्रगल्भ गृहिणी थीं। बचपन से ही विद्यालय के सांस्कृतिक कार्यक्रमों में भाग लेने में उनकी रुचि थी। बचपन से ही उन्हें अपने कवि पिता का साहित्यिक मार्गदर्शन मिला और उनके कवि-मित्रों की गोष्ठियों के माध्यम से उन्हें कविता लेखन की अनौपचारिक शिक्षा मिली। सन १९६० में उन्होंने रक्षामंत्री 'कृष्णा मेनन' को अपनी पहली कविता सुनाई।
सन १९६२ में सोहन लाल द्विवेदी की अध्यक्षता में अपने पिता द्वारा आयोजित एक कवि सम्मेलन अशोक चक्रधर ने अपने मंचीय जीवन की पहली कविता पढ़कर पं.सोहनलाल द्विवेदी जी का आशीर्वाद प्राप्त किया। साहित्यिक अभिरुचि के साथ-साथ अपनी पढ़ाई के प्रति भी अशोक चक्रधर काफ़ी सतर्क रहे। सन् १९७० में उन्होंने बी. ए. प्रथम श्रेणी उत्तीर्ण किया। १९६८ में वे मथुरा में आकाशवाणी केन्द्र में ऑडिशंड आर्टिस्ट के रूप में चुने गए। १९७२ में उन्होंने आगरा विश्वविद्यालय से हिंदी में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त की। इसके बाद उन्होंने दिल्ली विश्वविद्यालय में एम. लिट्. में प्रवेश लिया। इसी बीच १९७२ में उन्हें दिल्ली विश्वविद्यालय के सत्यवती कॉलेज में प्रध्यापक पद पर नियुक्त मिल गई। दिल्ली विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में इन दिनों अनेक गुणात्मक परिवर्तन हुए। उनकी पहली पुस्तक मैकमिलन से 'मुक्तिबोध की काव्य प्रक्रिया' १९७५ में प्रकाशित हुई। जोधपुर विश्वविद्यालय ने इस पुस्तक को युवा लेखन द्वारा लिखी गई वर्ष की सर्वश्रेष्ठ पुस्तक का पुरस्कार दिया। १९७५ में उन्होंने जामिया मिल्लिया इस्लामिया में प्राध्यापक के पद पर कार्य प्रारंभ किया, जहाँ वे २००८ तक कार्यरत रहे। उन्होंने प्रौढ़ एवं नवसाक्षरों के लिए विपुल लेखन, नाटक, अनुवाद, कई चर्चित धारावाहिकों, वृत्त चित्रों का लेखन निर्देशन करने के अलावा कंप्यूटर में हिंदी के प्रयोग को लेकर भी महत्वपूर्ण काम किया है।
वे जननाट्य मंच के संस्थापक सदस्य भी हैं। इनका नाटक बंदरिया चली ससुराल नाटक का नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा द्वारा मंचन हो चुका है। इसके निर्देशक श्री राकेश शर्मा तथा रंगमंडल, राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय है। और श्री रंजीत कपूर के नाटक 'आदर्श हिन्दू होटल' एवं 'शॉर्टकट' के लिए गीत लेखन भी इन्होंने किया। अशोक चक्रधर ने हिन्दी के विकास में कम्प्यूटर की भूमिका विषयक शताधिक पावर-पाइंट प्रस्तुतियां की हैं और ये हिन्दी सलाहकार समिति, ऊर्जा मंत्रालय, भारत सरकार तथा हिमाचल कला संस्कृति और भाषा अकादमी, हिमाचल प्रदेश सरकार, शिमला के भूतपूर्व सदस्य रह चुके हैं। वे साहित्यिक, सांस्कृतिक एवं शैक्षिक उद्देश्यों के लिए विश्व भ्रमण करते रहे हैं।
कविता संग्रह- बूढ़े बच्चे, सो तो है, भोले भाले, तमाशा, चुटपुटकुले, हंसो और मर जाओ, देश धन्या पंच कन्या, ए जी सुनिए, इसलिये बौड़म जी इसलिये, खिड़कियाँ, बोल-गप्पे, जाने क्या टपके, चुनी चुनाई, सोची समझी, जो करे सो जोकर, मसलाराम,
फिल्म एवं दूरदर्शन
महत्त्वपूर्ण दूरदर्शन कार्यक्रम- नई सुबह की ओर, रेनबो फैण्टेसी, कृति में चमत्कृत, हिन्दी धागा प्रेम का, अपना उत्सव, भारत महोत्सव।
अभिनय- अशोक चक्रधर ने डीडी-१ के धारावाहिक बोल बसंतो तथा सोनी एंटरटेनमेंट चैनल (भारत) के धारावाहिक छोटी सी आशा में अभिनय किया है।
फिल्म निर्माण- जीत गई छन्नो, मास्टर दीपचंद (प्रौढ़ शिक्षा निदेशालय, भारत सरकार), झूमे बाला झूमे बाली (दिल्ली दूरदर्शन केन्द्र), गुलाबड़ी (दिल्ली महानिदेशालय), हाय मुसद्दी, तीन नजारे (ई टी एंड टी, भारत सरकार) बिटिया (एन एफ डी सी, भारत सरकार)
वृत्तचित्र / लेखन-निर्देशन- विकास की लकीरे (सैण्डिट, नई दिल्ली), पंगु गिरि लंघै, गोरा हट जा (फ़िल्म्स डिवीज़न, भारत सरकार), हर बच्चा हो कक्षा पाँच (दूरदर्शन निदेशालय, भारत सरकार), इस ओर है छतेरा (जामिया मिलिया इस्लामिया)।
धारावाहिक लेखन / प्रस्तुति कहकहे, पर्दा उठता है (दिल्ली दूरदर्शन केन्द्र), वंश (आर.के. फ़िल्म्स, मुम्बई), अलबेला सुरमेला, फुलझड़ी ऐक्सप्रैस (सी. पी. सी. दूरदर्शन केन्द्र, नई दिल्ली), बात इसलिये बताई (एन. डी. टी. वी), पोल टॉप टैन, न्यूजी काउंट डाउन (ज़ी इंडिया), चुनाव चालीसा (सहारा समय), वाह वाह (सब टीवी), चुनाव चकल्लस, बजय व्यंग्य (सहारा राष्ट्रीय), चले आओ चक्रधर चमन में (दूरदर्शन)।
बहू भी बेटी होती है (फ़िल्म्स डिवीज़न, भारत सरकार), जंगल की लय ताल, साड़ियों में लिपटी सदियाँ, साथ-साथ चलें, ये है चारा, ग्रामोदय, ज्ञान का उजाला, वत्सी नाव, रयूमेटिक हृदय होग, घैंघा पाडुराना, एड्रमौंटी टापू, छोटा नागपुर जल और थल, लोकोत्सव, नगर विकास (सैण्डिट, नई दिल्ली)।
अंतर्राष्ट्रीय समारोह सहभागिता
अशोक चक्रधर जी ने साहित्यिक, सांस्कृतिक एवं शैक्षिक उद्देश्यों के लिए अमेरिका, इंग्लैंड, सोवियत संघ, ऑस्ट्रेलिया, मॉरीशस, थाईलैंड, इंडोनेशिया, सिंगापुर, हांगकांग, नेपाल, युनाइटेड अरब अमीरात, जर्मनी, इटली, फिलिस्तीन, इज़राइल, ओमान, ट्रिनिडाड एंड टोबैगो, कनाडा, हॉलैण्ड, सूरीनाम, रूस, केन्या ईस्ट अफ्रीका, उज़्बेकिस्तान, जापान, पाकिस्तान आदि की यात्राएँ की हैं।
पुरस्कार और सम्मान
प्रसिद्ध व्यक्तियों के विचार
इन्हें भी देखें
अशोक चक्रधर की रचनाएँ कविता कोश में
मंच का प्रपंच
अशोक चक्रधर की रचनाएँ अनुभूति में
उनका निजी जालघर
अशोक चक्रधर जी की पुस्तकें देखें
१९५१ में जन्मे लोग
उत्तर प्रदेश के लोग |
हावड़ा (अंग्रेज़ी: हावरा, बांग्ला: ) , भारत के पश्चिम बंगाल राज्य का एक औद्योगिक शहर, पश्चिम बंगाल का दूसरा सबसे बड़ा शहर एवं हावड़ा जिला एवं हावड़ सदर का मुख्यालय है। हुगली नदी के दाहिने तट पर स्थित, यह शहर कलकत्ता, के जुड़वा के रूप में जाना जाता है, जो किसी ज़माने में भारत की अंग्रेज़ी सरकार की राजधानी और भारत एवं विश्व के सबसे प्रभावशाली एवं धनी नगरों में से एक हुआ करता था। रवीन्द्र सेतु, विवेकानन्द सेतु, निवेदिता सेतु एवं विद्यासागर सेतु इसे हुगली नदी के पूर्वी किनारे पर स्थित पश्चिम बंगाल की राजधानी, कोलकाता से जोड़ते हैं। आज भी हावड़, कोलकाता के जुड़वा के रूप में जाना जाता है, समानताएँ होने के बावजूद हावड़ा नगर की भिन्न पहचान है इसकी अधिकांशतः हिन्दी भाषी आबादी, जो कि कोलकाता से इसे थोड़ी अलग पहचान देती है।
समुद्रतल से मात्र १२ मीटर ऊँचा यह शहर रेलमार्ग एवं सड़क मार्गों द्वारा सम्पूर्ण भारत से अच्छी तरह जुड़ा हुआ है। यहाँ का सबसे प्रमुख रेलवे स्टेशन हावड़ा जंक्शन रेलवे स्टेशन है। हावड़ा स्टेशन पूर्व रेलवे तथा दक्षिणपूर्व रेलवे का मुख्यालय है। हावड़ स्टेशन के अलावा हावड़ा नगर क्षेत्र मैं और ६ रेलवे स्टेशन हैं तथा एक और टर्मिनल शालीमार रेलवे टर्मिनल भी स्थित है। राष्ट्रीय राजमार्ग २ एवं राष्ट्रीय राजमार्ग ६ इसे दिल्ली व मुम्बई से जोड़ते हैं। हावड़ा नगर के अन्तर्गत सिबपुर, घुसुरी, लिलुआ, सलखिया तथा रामकृष्णपुर उपनगर सम्मिलित हैं।
हावड़ा का नाम, बंगाली शब्द "हाओर" (बंगला: ) से आया है जो की बंगाली में पानी, कीचड़ और जमे हुए जैविक मलबे के पोखड़ लिए इस्तेमाल होता है। वैज्ञानिक रूप से हाओर एक अवसाद है, जो एक नदी दलदल या झील होता है। इस शब्द का उपयोग बंगाल के पूर्वी हिस्से में ज्यादा हुआ करता था(जो अब बांग्लादेश है)।.
मौजूदा हावड़ा नगर का ज्ञात इतिहास करीब ५०० वर्ष पुराना है। परन्तु हवड़ा जनपद क्षेत्र का इतिहास प्राचीन बंगाली राज्य भुरशुट (बंगाली: ) से जुड़ा है, जो प्राचीन काल से १५वीं शताब्दी तक, हावड़ा जिला और हुगली ज़िला के क्षेत्र पर शासन करती थी। सन १५69-७५ में भारत भ्रमण कर रहे वेनिस के एक भ्रमणकर्ता सेज़र फ़ेडरीची (अंग्रेज़ी: कैसर फ़ेदरिची) ने अपने भारत दौरे की अपनी दैनिकी में १५78 ई में बुट्टोर (बटऔड़) नामक एक जगह का वर्णन किया था। उनके विवरण के अनुसार वह एक ऐसा स्थान था जहाँ बहुत बड़े जहाज भी यात्रा कर सकता थे और वह सम्भवतः एक वाणिज्यिक बन्दरगाह भी था। उनका यह विवरण मौजूदा हावड़ा के बाटोर इलाके का है। बाटोर का उल्लेख १४९५ में बिप्रदास पीपिलई द्वारा लिखि बंगाली कविता मानसमंगल मैं भी है।
सन १७१३ मैं मुग़ल बादशाह औरंगज़ेब के पोते बादशाह फर्रुख़शियार के राजतिलक के मौक़े पर ब्रिटिश ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने मुग़ल दरबार में एक प्रतिनिधिमण्डल भेजा था, जिसका उद्धेश्य हुगली नदी के पूर्व के ३४ और पश्चिम के पाँच गाँव: सलकिया (सैलिका), हरिराह (हरिराह अथवा हावड़ा), कसुंडी (कैउंडिया) बातोर (बत्तर) और रामकृष्णपुर (रामकृष्णोपूर) को मुगलों से खरीदना था। शहंशाह ने केवल पूर्व के ३४ गाँवों पर सन्धि की। कम्पनी के पुराने दस्तावेजों में इन गाँवों का उल्लेख है। आज ये सारे गाँव हावड़ा शहर के क्षेत्र और उपनगर हैं। सन १७२८ हावड़ा के ज्यादातर इलाके "बर्धमान" और "मुहम्मन्द अमीनपुर" जमीनदारी का हिस्सा थे। प्लासी के युद्ध में पराजय के पश्चात, बंगाल के नवाब मीर क़ासिम ने ११ अक्टूबर १७६० में एक सन्धि द्वारा हुगली और हावड़ा के सारे इलाके ब्रिटिश कंपनी को सौंप दिये, तत्पश्चात हावड़ा को बर्धमान ज़िले का हिस्सा बना दिया गया। सन १७८७ में हुगली जनपद को बर्धमान से अलग किया गया और १८४३ में हावड़ा को हुगलीजनपद से अलग कर हावड़ा जिला बनाया गया, जो अब भी कायम है।
सन १८५४ में हावड़ा जंक्शन रेलवे स्टेशन को स्थापित किया गया और उसी के साथ शुरू हुआ हावड़ा नगर का औद्यौगिक विकास, जिसने शहर को कलकत्ता के एक आम से उपनगर को भारतवर्ष का एक महत्वपूर्ण औद्यौगिक केन्द्र बना दिया। धीरे-धीरे हावड़ा के क्षेत्र में कई प्रकार के छोटे, मध्य और भारी प्रौद्यौगिक उद्योग खुल गए। यह विकास दूसरे विश्व युद्ध तक जारी रहा जिसका नतीजा हुआ, नगर का हर दिशा में त्रैलोकिक विस्तार। इस प्रकार के औद्यौगिक विस्फोट का एक पहलू अत्यन्त अप्रवासन और उस से पैदा हुआ नगर का अनियमित विस्तार भी था।
आज हावड़ा अपने उद्योगों, रेलवे टर्मिनस और हावड़ा ब्रिज के लिये जाना जाता है।
हावड़ा नगर पालिका को सन १८६२ से १८९६ , पूरे हावड़ा शहर में स्वक्ष पानी की आपूर्ति के लिये स्थापित किया गया था। इन १९८४. थे कॉर्पोरेशन एरिया इस दीविदेड इंटो फिफ्टी वॉर्ड, ईच ऑफ व्हिच इलेक्ट्स आ काउंसिल्र. यन १८८२-८३ के दौरान, उत्तर हावड़ा के बाली के इलाके को हावड़ा नगर पालिका से अलग कर बाली नगर पालिका का गठन किया गया था। १९८० के हावड़ा नगर निगम अधिनियम के अनुसार, हावड़ा १९८४। निगम का क्षेत्र में पचास वार्डों में विभाजित है। हर वार्ड एक पार्षद का चुनाव करता है। निगम अध्यक्ष (मेयर) के नेतृत्व में और आयुक्त एवं अधिकारियों द्वारा समर्थित नगर निगम परिशद निगम क्षेत्र के प्रशासन के लिए जिम्मेदार है। वर्तमान परिशद तृणमूल काँग्रेस के नेत्रित्व की है। हावड़ा पुलिस आयुक्तालय, शहर में कानून प्रवर्तन के लिए जिम्मेदार है।
हाउड़ा (हाबड़ा) पश्चिमी बंगाल (भारत) का एक जिला है। इसका क्षेत्रफल १४७२ वर्ग किमी है। उत्तर एवं दक्षिण में हुगली तथा मिदनापुर जिले हैं। इसकी पूर्वी तथा पश्चिमी सीमाएँ क्रमश: हुगली एवं रूपनारायन नदियाँ हैं। दामोदर नदी इस जिले के बीचोबीच बहती है। काना दामोदर तथा सरस्वती अन्य नदियाँ हैं। नदियों के बीच नीची दलदली भूमि मिलती है। राजापुर दलदल सबसे विस्तृत है। वर्षा सामान्यत: १४५ सेमी है। धान मुख्य फसल है पर गेहूँ, जौ, मकई तथा जूट भी उपजाए जाते हैं।
शरत चंद्र चटर्जी - उपन्यासकार
महेश चन्द्र न्यायरत्न भट्टाचार्य - सामाजिक कार्यकर्ता, विद्वान
नारायण देबनाथ - कलाकार, हास्य लेखक
मणिशंकर मुखर्जी - लेखक
राबिन मन्डल- कलाकार
तुलसी चक्रवर्ती - अभिनेता
शिशिर भादुड़ी - अभिनेता
रुद्रनिल घोष - अभिनेता
कानन देवी - अभिनेत्री
पूर्णेन्दू पात्री - कलाकार, लेखक और फिल्म निर्माता
महेन्द्रलाल सरकार - डॉक्टर
मनोज तिवारी - क्रिकेटर
श्यामा शॉ - क्रिकेटर
श्रीवत्स गोस्वामी - क्रिकेटर
लक्ष्मी रतन शुक्ला - क्रिकेटर
सुदीप चटर्जी - फुटबॉलर
बिकाश पान्जी - फुटबॉलर
सत्यजीत चटर्जी - फुटबॉलर
सैलेन मन्ना - फुटबॉलर
समर बनर्जी - फुटबॉलर
बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय - उपन्यासकार
इन्हें भी देखें
पश्चिम बंगाल के शहर
हावड़ा ज़िले के नगर |
जेट एयरवेज भारत की सबसे बड़ी निजी विमान सेवा है।
जेट एयरवेज एक प्रमुख विमानन सेवा है जिसका मुख्यालय मुंबई में स्थित है। अगर विस्तार के आधार पर वरीयता क्रम की चर्चा की जाए तो यह एयर इंडिया के बाद दूसरी सबसे बड़ी विमानन सेवा है, परन्तु हमेशा स्पाइस जेट तथा इंडिया गो जैसे प्रतियोगियों से आगे रहती है।
जेट एयरवेज़ की स्थापना सन १९९२ में एक एयर टैक्सी परिचालक के तौर पर हुई थी जिसके बाद से ५ मई १९९३ से इसनें व्यावसायिक परिचालन प्रारंभ किया। उस समय इसके विमान बड़े में ४ बोइंग ७३७-३०० विमान थे। वहीँ मार्च २००४ से इसने चेन्नई से कोलम्बो सेवा की शुरुआत करके अंतर्राष्ट्रीय विमान सेवा की शुरुआत की। इसके उपरांत कंपनी को बॉम्बे स्टॉक एक्सचेंज में सूचीबद्ध किया गया पर इसके ८०% स्टॉक्स का नियंत्रण नरेश जी गोयल के पास रहता है, जैसा की उनका इस कंपनी पर मालिकाना हक भी है।
जेट एयरवेज ५२ घरेलु तथा २१ अंतर्राष्ट्रीय स्थलों के लिए अपनी सेवाएं प्रदान करता है। इस प्रकार से यह एशिया, योरोप, तथा उत्तरी अमेरिका जैसे १९ देशों में कुल ७३ स्थलों से अपनी विमान सेवाएँ प्रदान करता है।
इसका परिचालन मुंबई के छत्रपति शिवाजी अन्तराष्ट्रीय विमान पत्तन से होता है जो की इस विमानन सेवा के लिए एक प्राथमिक स्थान तथा रख रखाव केंद्र की तरह भी काम करता है। इन सब के अतिरिक्त यह भारत में बंगलौर के केम्पेगोव्डा अन्तराष्ट्रीय विमान पत्तन, चेन्नई अन्तराष्ट्रीय विमान पत्तन, दिल्ली के इंदिरा गाँधी अन्तराष्ट्रीय विमान पत्तन, कोलकाता के नेताजी सुभाष चन्द्र बोस अन्तराष्ट्रीय विमान पत्तन तथा पुणे विमान पत्तन से संचालन करता है।
यह १४ अप्रैल २०१० से मुंबई और जोहान्सबर्ग के बीच प्रतिदिन सीधी उड़ान सेवा शुरू करने जा रही है। संदर्भ: शेयर मंथन
अक्टूबर २०१३ के आंकड़ों के अनुसार जेट एयरवेज के बेड़े में निम्नलिखित विमान सम्मिलित हैं जिनकी औसत आयु ५.४ वर्ष है।,
जेट एयरवेज नयी नयी सुविधाओं को बढावा देने के साथ- साथ विलासिता में इजाफा करता रहता है। अभी हाल फ़िलहाल में ही नवीन एरबस ए ३००-२०० तथा बोईंग ७७७-३०० ई आर के आगमन से इसने नयी केबिन का प्रस्तुतीकरण किया है तथा हर क्लास में सीट्स को और अधिक आरामदायक बना दिया है।
पुरूस्कार एवं सम्मान
इसे अनेक पुरूस्कार एवं सम्मान मिले हैं जिनमें से प्रमुख पुरूस्कार निम्नलिखित हैं-
भारत का पॉपुलर डोमेस्टिक एयरलाइन, सैट २००६ पुरुस्कार में
भारत की विमानन सेवा पुरूस्कार वर्ल्ड ट्रेवल अवार्ड्स में, २००६
बेस्ट टेक्निकल डिस्पेच रेलिबिलिटी २००२ में बेबर के द्वारा
इन्हें भी देखें
लिस्ट ऑफ़ एयरलाइन्स इंडिया
लिस्ट ऑफ़ एयरपोर्ट्स इन इंडिया
लिस्ट ऑफ़ कम्पनीज इन इंडिया
ट्रांसपोर्ट इन इंडिया
अँग्रेजी में जेट एयरवेज़ का आधिकारिक जालस्थल
भारतीय वायुयान सेवा |
कोयल (एशियाई) एक पक्षी है।
कोयल झारखंड और बिहार में बहने वाली एक नदी है। |
ऊसर या बंजर (बारेन लैंड) वह भूमि है जिसमें लवणों की अधिकता हो, (विशेषत: सोडियम लवणों की अधिकता हो)। ऐसी भूमि में कुछ नहीं अथवा बहुत कम उत्पादन होता है।
ऊसर बनने के कारण
जल भराव अथवा जल निकास की समुचित व्यवस्था का न होना
वर्षा कम तापमान का अधिक होना
भूमिगत जल का ऊंचा होना
गहरी क्षेत्रों में जल रिसाव होना
वृक्षों की अन्धाधुंध कटाई
भूमि को परती छोड़े रहना
भूमि में आवश्यकता से अधिक रसायनों का प्रयोग करना तथा कभी भी जैविक खाद, कम्पोस्ट खाद, सड़ी गोबर की खाद तथा ढ़ैचा की हरी खाद का प्रयोग न करना
लवणीय जल से सिंचाई करना
ऊसर सुधार की विधि (तकनीकी)
ऊसर सुधार की विधि क्रमबद्ध चरणबद्ध तथा समयबद्ध प्रणाली है इस विधि से भूमि को पूर्ण रूप से ठीक किया जा सकता है।
- बेहतर जल प्रबन्ध एवं जल निकास की समुचित व्यवस्था हेतु सर्वेक्षण।
बोरिंग स्थल का चयन
१.स्थल ऊँचे स्थान पर चुना जाये।
२. जिस सदस्थ के खेत में वोरिंग हो वह बकायादार न हो।
३. एक बोरिंग की दूरी दूसरे से २०० मी० से कम न हो।
-यह कार्य बरसात में या सितम्बर अक्टूबर में जब भूमि नम रहती है तो शुरू कर देनी चाहिए।
-मेड़ के धरातल की चौड़ाई ९० सेमी ऊंचाई ३० सेमी तथा मेड़ की ऊपरी सतह की चौ० ३० सेमी होनी चाहिए।
-मेड़बन्दी करते समय सिंचाई नाली और खेत जल निकास नाली का निर्माण दो खेतों की मेड़ों के बीच कर देना चाहिए।
- भूमि की जुताई वर्षा में या वर्षा के बाद सितम्बर अक्टूबर या फरवरी में करके छोड़ दें जिससे लवण भूमि की सतह पर एकत्र न हो।
-भूमि की जुताई २-३ बार १४-२0 सेमी गहरी की जाये खेत जुताई से पूर्व उसरीले पैच को २ सेमी की सतह खुरपी से खुरचकर बाहर नाले में डाल दें।
-खेत को कम चौड़ी और लम्बी-२ क्यारियों में बाटकर क्यारियों का समतलीकरण करना चाहिए।
-जल निकास नाली की तरफ बहुत हल्का सा ढ़ाल देना चाहिए ताकि खेत का फालतू पानी जल निकास नाली द्वारा बहाया जाये।
-मिट्टी की जांच करा ले आवश्यक ५० प्रतिशत जिप्सम की मात्रा का पता चल पाता हैं।
सिंचाई नाली, जल निकास नाली तथा स्माल स्ट्रक्चर का निर्माण
-खेत की ढाल तथा नलकूप के स्थान को ध्यान में रखते हुए सिंचाई तथा खेत नाली का निर्माण करना चाहिए।
-सिंचाई नाली भूमि की सतह से ऊपर बनाई जाये, जो आधार पर ३० सेमी गहरी तथा शीर्ष पर १२० सेमी हो।
-खेत नाली भूमि की सतह से ३० बनाई जाये, जो आधार पर ३० सेमी गहरी तथा शीर्ष पर ७५-९० सेंमी हो।
यह ५० सेमी गहरी आधार पर ४५ सेमी और शीर्ष पर १४५ सेमी और साइड स्लोप १:१ का होना चाहिए
जिप्सम का प्रयोग एवं लीचिंग
- समतलीकरण करते समय खेत में ५-६ मी चौड़ी और लम्बी क्यारियां बना लें तथा सफेद लवण को २ सेमी की सतह खुरपी से खुरच कर बाहर नाले में डाल दें।
- फिर क्यारियों में हल्का सा पानी लगा दें चार पांच दिन बाद निकाल दें जिससे लवण लीचिंग द्वारा भूमि के नीचे अथवा पानी द्वारा बाहर निकल जायेंगे।
- समतलीकरण का पता लगाने के लिये क्यारियों में हल्का पानी लगा दें। तथा हल्की जुताई करके ठीक प्रकार से समतल कर लें।
क्यारियों में जिप्सम मिलाना
- जिप्सम का प्रयोग करते समय क्यारियां नम हो।
- बोरियों को क्यारियों में समान रूप से फैला दें।
- इसके बाद देशी हल या कल्टीवेटर की सहायता से भूमि की ऊपरी ७-८ सेमी की सतह में जिप्सम मिला दें और फिर हल्का पाटा लगाकर क्यारियों को समतल कर लें।
- क्यारियों में जिप्सम मिलाने के बाद १०-१५ सेमी पानी भर दें और उसे १० दिनों तक लीचिंग क्रिया हेतु छोड़ दें।
- १० दिनों तक क्यारियों में १० सेमी पानी खड़ा रहना चाहिए। यदि खेत में पानी कम हो जाये तो पानी और भर देना चाहिए। इसलिए जरूरी है कि क्यारियों में दूसरे-तीसरे दिन पानी भरते रहें।
- लीचिंग क्रिया हर हालत में ५ जुलाई तक पूरी हो जाये जिससे १० जुलाई तक धान की रोपाई की जा सकें।
लीचिंग के बाद जल निकासी
- १० दिनों बाद खेत का लवणयुक्त पानी खेत नाली द्वारा बाहर निकाल दें।
- लीचिंग के बाद अच्छा पानी लगाकर धान की रोपाई, ५ सेमी पानी भरकर ऊसर रोधी प्रजाति की 3५-४० दिन आयु के पौधे की रोपाई कर दें।
अन्य मृदा सुधारक रसायन
जिप्सम, पायराइट, फास्फोजिप्सम, गन्धक का अम्ल
(ब) कार्बनिक पदार्थ:
प्रेसमड, ऊसर तोड़ खाद, शीरा, धान का पुआव धान की भूसी, बालू जलकुम्भी, कच्चा गोबर और पुआंल गोबर और कम्पोस्ट की खाद, वर्गी कम्पोस्ट, सत्यानाशी खरपतवारी, आदि।
(स) अन्य पदार्थ:
जैविक सुधार (फसल और वृक्षों द्वारा) ढैचा, धान, चुकन्दर, पालक, गन्ना, देशी, बबूल आदि।
इन्हें भी देखें
भूमि का पीएच मान (फ) |
पादप रोगविज्ञान या फायटोपैथोलोजी (प्लांट पेथोलॉजी या फाइटोपैथोलॉजी) शब्द की उत्पत्ति ग्रीक के तीन शब्दों जैसे पादप, रोग व ज्ञान से हुई है, जिसका शाब्दिक अर्थ है "पादप रोगों का ज्ञान (अध्ययन)"। जीव विज्ञान की वह शाखा है, जिसके अन्तर्गत रोगों के लक्ष्णों, कारणों, हेतु की, रोगचक्र, रागों से हानि एवं उनके नियंत्रण का अध्ययन किया जाता हैं।
इसकी सफलता निम्न परिस्थितियों पर निर्भर करती है।
(१)परपोषी का सुग्राही होना,
(२)परजीवी का बीमारी फैलाने की क्षमता रखना।
इस विज्ञान के निम्नलिखित प्रमुख उद्देश्य है:
पादप-रोगों के संबंधित जीवित, अजीवित एवं पर्यावरणीय कारणों का अध्ययन करना ;
रोगजनकों द्वारा रोग विकास की अभिक्रिया का अध्ययन करना ;
पौधों एवं रोगजनकों के मध्य में हुई पारस्परिक क्रियाओं का अध्ययन करना ;
रोगों की नियंत्रण विधियों को विकसित करना जिससे पौधों में उनके द्वारा होने वाली हानि न हो या कम किया जा सके।
पादप रोग विज्ञान एक व्यावहारिक विज्ञान है, जिसके अन्तर्गत पौध रोग के कारक एवं उनके प्रायोगिक समाधान आते है। चूंकि पौधे में रोग कवक, जीवाणु, विषाणु, माइकोप्लाज्मा, सूत्रकृमि, पुष्पधारी आदि के अतिरिक्त अन्य निर्जीव कारणों जैसे जहरीली गैसों आदि से होता है। अत: पादप रोग विज्ञान का संबंध अन्य विज्ञान जैसे कवक विज्ञान, जीवाणु विज्ञान, माइकोप्लाज्मा विज्ञान, सूक्ष्म जीव विज्ञान, सूत्र-कृमि विज्ञान, सस्य दैहिकी, अनुवांशिकी एवं कृषि रसायन विज्ञान से संबंधित है। पृथ्वी पर जब से मनुष्य ने खेती करना आरम्भ किया है, उस समय से ही पादप रोग भी फसलों पर उत्पन्न होते रहे हैं। प्राचीन धर्मग्रन्थों जैसे - वेद एवं बाइबिल आदि में भी पादप रोगों द्वारा होने वाले फसलों के विनाश के अनेक वर्णन मिलते हैं।
पादप रोग का महत्व, उनके द्वारा होने वाली हानियों के कारण बहुत ही ब़ढ़ गया है। रोगों द्वारा हानि खेत से भण्डारण तक अथवा बीज बोने से लेकर फसल काटने के बीच किसी भी समय हो सकती है पौधे के जीवन काल में बीज सड़न, आर्द्रमारी, बालपौध झुलसा, तना सडन, पर्णझुलसा, पर्ण-दाग, पुष्प झुलसा तथा फल सड़न ब्याधियॉ उत्पन्न होती है।
यद्यपि भारत में पादप रोगों द्वारा होने वाली हानि का सही - सही मूल्यांकन नहीं किया गया है। परन्तु अनुसंधान द्वारा कुछ भीषण बीमारियां जैसे धान को झोंका एवं भूरा पर्णदाग, गेहूं का करनाल बंट तथा आलू के पिछेता झुलसा के उग्र विस्तार से संबंधित विभिन्न कारकों को अध्ययन कर पूर्वानुमान माडल विकसित किया गया है।
फसलों के अनेक विनाशकारी रोगों के कारण प्रतिवर्ष फसलों की उपज को प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से अत्याधिक हानि होती है। इन रागों के मुख्य उदाहारण -
गन्ने में का लाल सड़न रोग - उत्तर प्रदेश के पूर्वी भागों तथा बिहार के निकटस्थ क्षेत्रों में,
गन्ने का लाल सड़न या कंड - समस्त भारत में,
आम का चूर्णिल आसिता व गुच्छा शीर्ष रोग
अमरूद का उकठा
मध्य एवं दक्षिणी भारत में सुपारी को महाली अथवा कोलिरोगा रोग,
गेहूं के किटट,
अरहर तथा चने का उकठा,
नेमाटोड से उत्पन्न गेहूं को गेगला या सेहूं रोग
सब्जियों का जडग्रन्थि व मोजेक,
काफी एवं चाय का किटट,
धान का झोंका तथा भूरा पर्णचित्ती रोग,
पटसन का तना विगलन,
केले का गुच्छ शीर्ष रोग,
कपास को शकाणु झुलसा, म्लानि एवं श्यामव्रण इज्यादि हैं।
भंडारित अनाज पर जब विभिन्न प्रकार के कवक आक्रमण करते हैं तो इनके विनष्टीकरण के साथ उनमें कुछ विषैले पदार्थ भी उत्पन्न होते हैं जो मनुष्यों एवं पशुओं उन्माद, लकवा, आमाशय कष्ट इत्यादि रोगों का कारण बनते हैं। पादप रोगों के नियंत्रण पर जो रुपया व्यय किया जाता है वह भी एक प्रकार की हानि ही है और यदि इस रूपये को दूसरे कृषि कार्यों में लगाया जाये तो उत्पादन और भी अधिक बढाया जा सकता है। इसी प्रकार पादप रोगों द्वारा हुये कम उत्पादन के कारण उन पर आधारित कारखाने भी कठिनाई में पड़ जाते हैं जो कृषि में उत्पन्न कच्चे माल जैसे - कपास, तिलहन, गन्ना, जूट इत्यादि पर निर्भर करते है। कच्चे माल में कमी के कारण यातायात उद्योग भी प्रभावित होता है।
वनस्पति स्वास्थ्य शब्दावली
पादप रोग-विज्ञान मे कॅरिअर - डॉ॰ ममता सिंह
खेती में प्रयुक्त कुछ दवाओं के रासायनिक एवं व्यापारिक नाम |
नीम भारतीय मूल का एक पर्ण- पाती वृक्ष है। यह सदियों से समीपवर्ती देशों- पाकिस्तान, बांग्लादेश, नेपाल, म्यानमार (बर्मा), थाईलैंड, इंडोनेशिया, श्रीलंका आदि देशों में पाया जाता रहा है। लेकिन विगत लगभग डेढ़ सौ वर्षों में यह वृक्ष भारतीय उपमहाद्वीप की भौगोलिक सीमा को लांघ कर अफ्रीका, आस्ट्रेलिया, दक्षिण पूर्व एशिया, दक्षिण एवं मध्य अमरीका तथा दक्षिणी प्रशान्त द्वीपसमूह के अनेक उष्ण और उप-उष्ण कटिबन्धीय देशों में भी पहुँच चुका है। इसका वानस्पतिक नाम आज़ादिरचता इंडिका है। नीम का वानस्पतिक नाम इसके संस्कृत भाषा के निंब से व्युत्पन्न है।
नीम एक तेजी से बढ़ने वाला पर्णपाती पेड़ है, जो १५-२० मी (लगभग ५०-६५ फुट) की ऊंचाई तक पहुंच सकता है और कभी-कभी ३५-४० मी (११५-१३१ फुट) तक भी ऊंचा हो सकता है। नीम गंभीर सूखे में इसकी अधिकतर या लगभग सभी पत्तियां झड़ जाती हैं। इसकी शाखाओं का प्रसार व्यापक होता है। तना अपेक्षाकृत सीधा और छोटा होता है और व्यास में १.२ मीटर तक पहुँच सकता है। इसकी छाल कठोर, विदरित (दरारयुक्त) या शल्कीय होती है और इसका रंग सफेद-धूसर या लाल, भूरा भी हो सकता है। रसदारु भूरा-सफेद और अंत:काष्ठ लाल रंग का होता है जो वायु के संपर्क में आने से लाल-भूरे रंग में परिवर्तित हो जाता है। जड़ प्रणाली में एक मजबूत मुख्य मूसला जड़ और अच्छी तरह से विकसित पार्श्व जड़ें शामिल होती हैं।
२०-४० सेमी (८ से १६ इंच) तक लंबी प्रत्यावर्ती पिच्छाकार पत्तियां जिनमें, २० से लेकर ३१ तक गहरे हरे रंग के पत्रक होते हैं जिनकी लंबाई ३-८ सेमी (१ से ३ इंच) तक होती है। अग्रस्त (टर्मिनल) पत्रक प्राय: उनुपस्थित होता है। पर्णवृंत छोटा होता है। कोंपलों (नयी पत्तियाँ) का रंग थोड़ा बैंगनी या लालामी लिये होता है। परिपक्व पत्रकों का आकार आमतौर पर असममितीय होता है और इनके किनारे दंतीय होते हैं।
फूल सफेद और सुगन्धित होते हैं और एक लटकते हुये पुष्पगुच्छ जो लगभग २५ सेमी (१० इंच) तक लंबा होता है में सजे रहते हैं। इसका फल चिकना (अरोमिल) गोलाकार से अंडाकार होता है और इसे निंबोली कहते हैं। फल का छिलका पतला तथा गूदा रेशेदार, सफेद पीले रंग का और स्वाद में कड़वा-मीठा होता है। गूदे की मोटाई ०.३ से ०.५ सेमी तक होती है। गुठली सफेद और कठोर होती है जिसमें एक या कभी-कभी दो से तीन बीज होते हैं जिनका आवरण भूरे रंग का होता है।
नीम के पेड़ों की व्यवसायिक खेती को लाभदायक नहीं माना जाता। मक्का के निकट तीर्थयात्रियों के लिए आश्रय प्रदान करने के लिए लगभग ५०००० नीम के पेड़ लगाए गए हैं।
नीम का पेड़ बहुत हद तक चीनीबेरी के पेड़ के समान दिखता है, जो एक बेहद जहरीला वृक्ष है।
नीम का पेड़ सूखे के प्रतिरोध के लिए विख्यात है। सामान्य रूप से यह उप-शुष्क और कम नमी वाले क्षेत्रों में फलता है जहाँ वार्षिक वर्षा ४०० से १२०० मिमी के बीच होती है। यह उन क्षेत्रों में भी फल सकता है जहाँ वार्षिक वर्षा ४०० मिमी से कम होती है पर उस स्थिति में इसका अस्तित्व भूमिगत जल के स्तर पर निर्भर रहता है। नीम कई अलग-अलग प्रकार की मिट्टी में विकसित हो सकता है, लेकिन इसके लिये गहरी और रेतीली मिट्टी जहाँ पानी का निकास अच्छा हो, सबसे अच्छी रहती है। यह उष्णकटिबंधीय और उपउष्णकटिबंधीय जलवायु में फलने वाला वृक्ष है और यह २२-३२ सेंटीग्रेड के बीच का औसत वार्षिक तापमान सहन कर सकता है। यह बहुत उच्च तापमान को तो बर्दाश्त कर सकता है, पर ४ डिग्री सेल्सियस से नीचे के तापमान में मुरझा जाता है। नीम एक जीवनदायी वृक्ष है विशेषकर तटीय, दक्षिणी जिलों के लिए। यह सूखे से प्रभावित (शुष्क प्रवण) क्षेत्रों के कुछ छाया देने वाले (छायादार) वृक्षों में से एक है। यह एक नाजुक पेड़ नहीं हैं और किसी भी प्रकार के पानी मीठा या खारा में भी जीवित रहता है। तमिलनाडु में यह वृक्ष बहुत आम है और इसको सड़कों के किनारे एक छायादार पेड़ के रूप में उगाया जाता है, इसके अलावा लोग अपने आँगन में भी यह पेड़ उगाते हैं। शिवकाशी (सिवकासी) जैसे बहुत शुष्क क्षेत्रों में, इन पेड़ों को भूमि के बड़े हिस्से में लगाया गया है और इनकी छाया में आतिशबाजी बनाने के कारखाने का काम करते हैं।
नीम एक बहुत ही अच्छी वनस्पति है जो की भारतीय पर्यावरण के अनुकूल है और भारत में बहुतायत में पाया जाता है। आयुर्वेद में नीम को बहुत ही उपयोगी पेड़ माना गया है। इसका स्वाद तो कड़वा होता है लेकिन इसके फायदे अनेक और बहुत प्रभावशाली है।
१- नीम की छाल का लेप सभी प्रकार के चर्म रोगों और घावों के निवारण में सहायक है।
२- नीम की दातुन करने से दांत और मसूड़े स्वस्थ रहते हैं।
३- नीम की पत्तियां चबाने से रक्त शोधन होता है और त्वचा विकार रहित और कांतिवान होती है। हां पत्तियां अवश्य कड़वी होती हैं, लेकिन कुछ पाने के लिये कुछ तो खोना पड़ता है मसलन स्वाद।
४- नीम की पत्तियों को पानी में उबाल उस पानी से नहाने से चर्म विकार दूर होते हैं और ये खासतौर से चेचक के उपचार में सहायक है और उसके विषाणु को फैलने न देने में सहायक है।
५- नींबोली (नीम का छोटा सा फल) और उसकी पत्तियों से निकाले गये तेल से मालिश की जाये तो शरीर के लिये अच्छा रहता है।
६- नीम के द्वारा बनाया गया लेप बालो में लगाने से बाल स्वस्थ रहते हैं और कम झड़ते हैं।
७- नीम की पत्तियों के रस को आंखों में डालने से आंख आने की बीमारी में लाभ मिलता है(नेत्रशोथ या कंजेक्टिवाइटिस)
८- नीम की पत्तियों के रस और शहद को २:१ के अनुपात में पीने से पीलिया में फायदा होता है और इसको कान में डालने से कान के विकारों में भी फायदा होता है।
९- नीम के तेल की ५-१० बूंदों को सोते समय दूध में डालकर पीने से ज़्यादा पसीना आने और जलन होने सम्बन्धी विकारों में बहुत फायदा होता है।
१०- नीम के बीजों के चूर्ण को खाली पेट गुनगुने पानी के साथ लेने से बवासीर में काफ़ी फ़ायदा होता है।
नीम घनवटी नामक आयुर्वेद में औषधि है जो की इसके पेड़ से निकाली जाती है। इसका मुख्य घटक नीमघन सत् होता है। यह मधुमेह में अत्यधिक लाभकारी है। २. इसका प्रयोग शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने के लिए किया जाता है।
यह आयुर्वेद में एक प्रकार की औषधि है जी की नीम (आज़ादिरचता इंडिका) के पेड़ से निकली जाती है।
नीम के पत्ते खाने से मुंह की दुर्गन्ध , दांत दर्द, दांत कुलना, शरीर के अंदर के हनिकारिक बैक्टीरिया, कैंसर की बीमारी, खून साफ करना, जीभ से स्वाद, चरम रोग, आँख न आना, आलस न आना, शरीर में ऊर्जा का बना रहना, कफ-कोल्ड न होना, शरीर की रोग-प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाना जैसे,सेकड़ो-हज़ारो फायदे हमें नीम की पाती खाने से मिलता हैं।
यह मधुमेह में अत्यधिक लाभकारी है। इसका प्रयोग शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने के लिए किया जाता है। यह जीवाणु नाशक, रक्त्शोधक एवं त्वचा विकारों में गुणकारी है। यह बुखार में भी लाभकारी है।
नीम त्वचा के औषधीय कार्यों में उपयोग की जाती है । नीम के उपयोग से त्वचा की चेचक जैसी भयंकर बीमारियाँ नहीं होती तथा इससे रक्त शुद्ध होता है । नीम स्वास्थ्यवर्धक एवं आरोग्यता प्रदान करने वाला है। ये सभी प्रकार की व्याधियों को हरने वाला है, इसे मृत्यु लोक का कुल्पवृक्ष कहा जाता है। चरम रोग में इसका विशेष महत्व है।
भारत में नीम का उपयोग एक औषधि के रूप में किया जाता है, आज के समय में बहुत-सी एलोपैथिक दवाइयाँ नीम की पत्ती व उसकी छल से बनती है । नीम के पेड़ की हर अंग फायदेमंद होता है, बहुत सी बीमारियों का उपचार इससे किया जाता है । भारत में नीम का पेड़ घर में लगाना शुभ माना जाता है ।
नीम स्वाद में कड़वा होता है, लेकिन नीम जितनी कड़वी होती है, उतनी ही फायदे वाली होती है ।
भारत में नीम का उपयोग एक औषधि के रूप में किया जाता है, आज के समय में बहुत सी एलोपैथिक दवाइयां नीम की पत्ती व उसकी छल से बनती है । नीम के पेड़ की हर अंग फायदेमंद होता है, बहुत सी बीमारियों का उपचार इससे किया जाता है । भारत में नीम का पेड़ घर में लगाना शुभ माना जाता है। नीम स्वाद में कड़वा होता है, लेकिन नीम जितनी कड़वी होती है, उतनी ही फायदे वाली होती है । यहां हम आपको नीम के गुण और उसके लाभ के बारे में बता रहे हैं । जिसे आप घर में ही उपयोग कर बहुत बीमारियों का उपचार कर सकते हैं। |
भारत की साहित्य अकादमी भारतीय साहित्य के विकास के लिये सक्रिय कार्य करने वाली राष्ट्रीय संस्था है। इसका गठन १२ मार्च १९५४ को भारत सरकार द्वारा किया गया था। इसका उद्देश्य उच्च साहित्यिक मानदंड स्थापित करना, भारतीय भाषाओं और भारत में होनेवाली साहित्यिक गतिविधियों का पोषण और समन्वय करना है।
भारत सरकार के जिस प्रस्ताव में अकादमी का यह विधान निरूपित किया गया था, उसमें अकादमी की यह परिभाषा दी गई है- भारतीय साहित्य के सक्रिय विकास के लिए कार्य करनेवाली एक राष्ट्रीय संस्था, जिसका उद्देश्य उच्च साहित्यिक मानदंड स्थापित करना, भारतीय भाषाओं में साहित्यिक गतिविधियों को समन्वित करना एवं उनका पोषण करना तथा उनके माध्यम से देश की सांस्कृतिक एकता का उन्नयन करना होगा। हालाँकि अकादेमी की स्थापना सरकार द्वारा की गई है, फिर भी यह एक स्वायत्तशासी संस्था के रूप में कार्य करती है। संस्था पंजीकरण अधिनियम १८६० के अंतर्गत इस संस्था का पंजीकरण ७ जनवरी १९५६ को किया गया।
भारत की स्वतंत्रता के भी काफ़ी पहले से देश की ब्रिटिश सरकार के पास भारत में साहित्य की राष्ट्रीय संस्था की स्थापना का प्रस्ताव विचाराधीन था। १९४४ में, भारत सरकार ने रॉयल एशियाटिक सोसायटी ऑफ़ बंगाल का यह प्रस्ताव सैद्धांतिक रूप से स्वीकार कर लिया था कि सभी क्षेत्रों में सांस्कृतिक गतिविधियों को प्रोत्साहित करने के लिए राष्ट्रीय सांस्कृतिक ट्रस्ट का गठन किया जाना चाहिए। ट्रस्ट के अंतर्गत साहित्य अकादेमी सहित तीन अकादेमियाँ थीं। स्वतंत्रता के पश्चात् भारत की स्वतंत्र सरकार द्वारा प्रस्ताव का अनुसरण करते हुए विस्तृत रूपरेखा तैयार करने के लिए श्रृंखलाबद्ध बैठकें बुलाई गईं। सर्वसम्मति से तीन राष्ट्रीय अकादमियों के गठन का निर्णय हुआ, एक साहित्य के लिए दूसरी दृश्यकला तथा तीसरी नृत्य, नाटक एवं संगीत के लिए।
अकादेमी प्रत्येक वर्ष अपने द्वारा मान्यता प्रदत्त चौबीस भाषाओं में साहित्यिक कृतियों के लिए पुरस्कार प्रदान करती है, साथ ही इन्हीं भाषाओं में परस्पर साहित्यिक अनुवाद के लिए भी पुरस्कार प्रदान किए जाते हैं। ये पुरस्कार साल भर चली संवीक्षा, परिचर्चा और चयन के बाद घोषित किए जाते हैं। अकादेमी उन भाषाओं के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण योगदान करने वालों को 'भाषा सम्मान' से विभूषित करती है, जिन्हें औपचारिक रूप से साहित्य अकादेमी की मान्यता प्राप्त नहीं है।
इन्हें भी देखें
साहित्य अकादमी पुरस्कार
साहित्य अकादमी पुरस्कार हिन्दी
साहित्य अकादमी का जालघर
साहित्य अकादमी के बारे में |
कामसूत्र महर्षि वात्स्यायन द्वारा रचित भारत का एक प्राचीन कामशास्त्र ) ग्रन्थ है। यह विश्व की प्रथम यौन संहिता है जिसमें यौन प्रेम के मनोशारीरिक सिद्धान्तों तथा प्रयोग की विस्तृत व्याख्या एवं विवेचना की गई है। अर्थ के क्षेत्र में जो स्थान कौटिल्य के अर्थशास्त्र का है, काम के क्षेत्र में वही स्थान कामसूत्र का है।
अधिकृत प्रमाण के अभाव में महर्षि वात्स्यायन का काल निर्धारण नहीं हो पाया है। परन्तु अनेक विद्वानों तथा शोधकर्ताओं के अनुसार महर्षि ने अपने विश्वविख्यात ग्रन्थ कामसूत्र की रचना ईसा की तृतीय शताब्दी के मध्य में की होगी। तदनुसार विगत सत्रह शताब्दियों से कामसूत्र का वर्चस्व समस्त संसार में छाया रहा है और आज भी कायम है। संसार की हर भाषा में इस ग्रन्थ का अनुवाद हो चुका है। इसके अनेक भाष्य एवं संस्करण भी प्रकाशित हो चुके हैं, वैसे इस ग्रन्थ के जयमंगला भाष्य को ही प्रामाणिक माना गया है। कोई दो सौ वर्ष पूर्व प्रसिद्ध भाषाविद सर रिचर्ड एफ़ बर्टन (सिर रिचर्ड फ. बर्टॉन) ने जब ब्रिटेन में इसका अंग्रेज़ी अनुवाद करवाया तो चारों ओर तहलका मच गया और इसकी एक-एक प्रति १०० से १५० पौंड तक में बिकी। अरब के विख्यात कामशास्त्र सुगन्धित बाग (पर्फुमेड गार्डन) पर भी इस ग्रन्थ की अमिट छाप है।
महर्षि के कामसूत्र ने न केवल दाम्पत्य जीवन का शृंगार किया है वरन कला, शिल्पकला एवं साहित्य को भी सम्पदित किया है। राजस्थान की दुर्लभ यौन चित्रकारी तथा खजुराहो, कोणार्क आदि की जीवन्त शिल्पकला भी कामसूत्र से अनुप्राणित है। रीतिकालीन कवियों ने कामसूत्र की मनोहारी झाँकियाँ प्रस्तुत की हैं तो गीत गोविन्द के गायक जयदेव ने अपनी लघु पुस्तिका रतिमंजरी में कामसूत्र का सार संक्षेप प्रस्तुत कर अपने काव्य कौशल का अद्भुत परिचय दिया है।
रचना की दृष्टि से कामसूत्र कौटिल्य के 'अर्थशास्त्र' के समान हैचुस्त, गम्भीर, अल्पकाय होने जस्तभी विपुल अर्थ से मण्डित। दोनों की शैली समान ही है सूत्रात्मक। रचना के काल में भले ही अन्तर है, अर्थशास्त्र मौर्यकाल का और कामूसूत्र गुप्तकाल का है।
कामसूत्र-प्रणयन का प्रयोजन
वात्स्यायन ने कामसूत्र में मुख्यतया धर्म, अर्थ और काम की व्याख्या की है। उन्होने धर्म-अर्थ-काम को नमस्कार करते हुए ग्रन्थारम्भ किया है। धर्म, अर्थ और काम को 'त्रयी' कहा जाता है। वात्स्यायन का कहना है कि धर्म परमार्थ का सम्पादन करता है, इसलिए धर्म का बोध कराने वाले शास्त्र का होना आवश्यक है। अर्थसिद्धि के लिए तरह-तरह के उपाय करने पड़ते हैं इसलिए उन उपायों को बताने वाले अर्थशास्त्र की आवश्यकता पड़ती है और सम्भोग के पराधीन होने के कारण स्त्री और पुरुष को उस पराधीनता से बचने के लिए कामशास्त्र के अध्ययन की आवश्यकता पड़ती है।
वात्स्यायन का दावा है कि यह शास्त्र पति-पत्नी के धार्मिक, सामाजिक नियमों का शिक्षक है। जो दम्पति इस शास्त्र के अनुसार दाम्पत्य जीवन व्यतीत करेंगे उनका जीवन काम-दृष्टि से सदा-सर्वदा सुखी रहेगा। पति-पत्नी आजीवन एक दूसरे से सन्तुष्ट रहेंगे। उनके जीवन में एकपत्नीव्रत या पातिव्रत को भंग करने की चेष्टा या भावना कभी पैदा नहीं हो सकती। आचार्य का कहना है कि जिस प्रकार धर्म और अर्थ के लिए शास्त्र की आवश्यकता होती है उसी प्रकार काम के लिए भी शास्त्र की आवश्यकता होने से कामसूत्र की रचना की गई है।
कामसूत्र के बारे में भ्रांतियाँ
(१) कामसूत्र में केवल विभिन्न प्रकार के यौन-आसन (सेक्स पोजिशन्स) का वर्णन है।
कामसूत्र ७ भागों में विभक्त है जिसमें से यौन-मिलन से सम्बन्धित भाग 'संप्रयोगिकम्' एक है। यह सम्पूर्ण ग्रन्थ का केवल २० प्रतिशत ही है जिसमें ६९ यौन आसनों का वर्णन है। इस ग्रन्थ का अधिकांश भाग काम के दर्शन के बारे में है, काम की उत्पत्ति कैसे होती है, कामेच्छा कैसे जागृत रहती है, काम क्यों और कैसे अच्छा या बुरा हो सकता है।
(२) कामसूत्र एक सेक्स-मैनुअल है।
'काम' एक विस्तृत अवधारणा है, न केवल यौन-आनन्द। काम के अन्तर्गत सभी इन्द्रियों और भावनाओं से अनुभव किया जाने वाला आनन्द निहित है। गुलाब का इत्र, अच्छी तरह से बनाया गया खाना, त्वचा पर रेशम का स्पर्श, संगीत, किसी महान गायक की वाणी, वसन्त का आनन्द - सभी काम के अन्तर्गत आते हैं। वात्स्यायन का उद्देश्य स्त्री और पुरुष के बीच के 'सम्पूर्ण' सम्बन्ध की व्याख्या करना था। ऐसा करते हुए वे हमारे सामने गुप्तकाल की दैनन्दिन जीवन के मन्त्रमुग्ध करने वाले प्रसंग, संस्कृति एवं सभ्यता का दर्शन कराते हैं। कामसूत्र के सात भागों में से केवल एक में, और उसके भी दस अध्यायों में से केवल एक अध्याय में, यौन-सम्बन्ध बनाने से सम्बन्धित वर्नन है। (अर्थात ३६ अध्यायों में से केवल १ अध्याय में)
(३) 'कामसूत्र प्रचलन से बाहर (आउटडेटेड) हो चुका है।
यद्यपि कामसूत्र दो-ढाई हजार वर्ष पहले रचा गया था, किन्तु इसमें निहित ज्ञान आज भी उतना ही उपयोगी है। इसका कारण यह है कि भले ही प्रौद्योगिकि ने बहुत उन्नति कर ली है किन्तु मनुष्य अब भी एक दूसरे से मिलते-जुलते हैं, विवाह करते हैं, तथा मनुष्य के यौन व्यहार अब भी वही हैं जो हजारों वर्ष पहले थे।
यह ग्रन्थ सूत्रात्मक है। यह सात अधिकरणों, ३६ अध्यायों तथा ६४ प्रकरणों में विभक्त है। इसमें चित्रित भारतीय सभ्यता के ऊपर गुप्त युग की गहरी छाप है, उस युग का शिष्टसभ्य व्यक्ति 'नागरिक' के नाम से यहाँ दिया गया है। ग्रन्थ के प्रणयन का उद्देश्य लोकयात्रा का निर्वाह है, न कि राग की अभिवद्धि। इस तात्पर्य की सिद्धि के लिए वात्स्यायन ने उग्र समाधि तथा ब्रह्मचर्य का पालन कर इस ग्रन्थ की रचना की
तदेतद् ब्रह्मचर्येण परेण च समाधिना।
विहितं लोकयावर्थं न रागार्थोंऽस्य संविधि:।। (कामसूत्र, सप्तम अधिकरण, श्लोक ५७)
ग्रंथ सात अधिकरणों में विभक्त है जिनमें कुल ३६ अध्याय तथा १२५० श्लोक हैं। इसके सात अधिकरणों के नाम हैं-
१. साधारणम् (भूमिका)
२. संप्रयोगिकम् (यौन मिलन)
३. कन्यासम्प्रयुक्तकम् (पत्नीलाभ)
४. भार्याधिकारिकम् (पत्नी से सम्पर्क)
५. पारदारिकम् (अन्यान्य पत्नी संक्रान्त)
६. वैशिकम् (रक्षिता)
७. औपनिषदिकम् (वशीकरण)
प्रथम अधिकरण (साधारण) में शास्त्र का समुद्देश तथा नागरिक की जीवनयात्रा का रोचक वर्णन है।
द्वितीय अधिकरण (साम्प्रयोगिक) रतिशास्त्र का विस्तृत विवरण प्रस्तुत करता है। पूरे ग्रन्थ में यह सर्वाधिक महत्वशाली खण्ड है जिसके दस अध्यायों में रतिक्रीड़ा, आलिंगन, चुम्बन आदि कामक्रियाओं का व्यापक और विस्तृत प्रतिपादन हे।
तृतीय अधिकरण (कान्यासम्प्रयुक्तक) में कन्या का वरण प्रधान विषय है जिससे संबद्ध विवाह का भी उपादेय वर्णन यहाँ किया गया है।
चतुर्थ अधिकरण (भार्याधिकारिक) में भार्या का कर्तव्य, सपत्नी के साथ उसका व्यवहार तथा राजाओं के अन्त:पुर के विशिष्ट व्यवहार क्रमश: वर्णित हैं।
पंचम अधिकरण (पारदारिक) परदारा को वश में लाने का विशद वर्णन करता है जिसमें दूती के कार्यों का एक सर्वांगपूर्ण चित्र हमें यहाँ उपलब्ध होता है।
षष्ठ अधिकतरण (वैशिक) में वेश्याओं, के आचरण, क्रियाकलाप, धनिकों को वश में करने के हथकण्डे आदि वर्णित हैं।
सप्तम अधिकरण (औपनिषदिक) का विषय वैद्यक शास्त्र से संबद्ध है। यहाँ उन औषधों का वर्णन है जिनका प्रयोग और सेवन करने से शरीर के दोनों वस्तुओं की, शोभा और शक्ति की, विशेष अभिवृद्धि होती है। इस उपायों के वैद्यक शास्त्र में 'बृष्ययोग' कहा गया है।
२.१ प्रमाणकालभावेभ्यो रतअवस्थापनम्
२.७ प्रहणनप्रयोगास् तद्युक्ताश् च सीत्कृतक्रमाः
२.८ पुरुषोपसृप्तानि पुरुषायितं
२.९ औपरिष्टकं नवमो
२.१० रतअरम्भअवसानिकं रतविशेषाः प्रणयकलहश् च
(३) कन्यासंप्रयुक्तकम् ३.१ वरणसंविधानम् संबन्धनिश्चयः च
३.३ बालायाम् उपक्रमाः इंगिताकारसूचनम् च
(४) भार्याधिकारिकम् ४.१ एकचारिणीवृत्तं प्रवासचर्या च
(५) पारदारिकम् ५.१ स्त्रीपुरुषशीलवस्थापनं व्यावर्तनकारणाणि स्त्रीषु सिद्धाः पुरुषा अयत्नसाध्या योषितः
५.२ परिचयकारणान्य् अभियोगा छेच्केद्
५.६ आन्तःपुरिकं दाररक्षितकं
(६) वैशिकम् ६.१ सहायगम्यागम्यचिन्ता गमनकारणं गम्योपावर्तनं
६.३ अर्थागमोपाया विरक्तलिंगानि विरक्तप्रतिपत्तिर् निष्कासनक्रमास्
६.६ अर्थानर्थनुबन्धसंशयविचारा वेश्याविशेषाश् च
(७) औपनिषदिकम् ७.१ सुभगंकरणं वशीकरणं वृष्याश् च योगाः
७.२ नष्टरागप्रत्यानयनं वृद्धिविधयश् चित्राश् च योगा
कामसूत्र का प्रणयन अधिकरण, अध्याय और प्रकरणबद्ध किया गया है। इसमें ७ अधिकरण, ३६ अध्याय, ६४ प्रकरण और १२५० सूत्र ( श्लोक ) हैं। ग्रन्थकार ने ग्रन्थ लिखने से पूर्व जो विषयसूची तैयार की थी उसका नाम उसने 'शास्त्रसंग्रह' रखा है अर्थात् वह संग्रह जिससे यह विषय (कामसूत्र ) शासित हुआ है।
कामसूत्र के प्रथम अधिकरण का नाम साधारण है। शास्त्रसंग्रह, प्रथम अधिकरण के प्रथम अध्याय का प्रथम प्रकरण है। इस अघिकरण में ग्रन्थगत सामान्य विषयों का परिचय है। इस अधिकरण में पाँच अध्याय और प्रकरण हैं। विषय-विवेचन के आधार पर अध्यायों और प्रकरणों के नामकरण किए गए हैं। प्रथम अधिकरण का मुख्य प्रतिपाद्य विषय यही है कि धर्म, अर्थ और काम की प्राप्ति कैसे की जा सकती है। मनुष्य को श्रुति, स्मृति, अर्थविद्या आदि के अध्ययन के साथ कामशास्त्र का अध्ययन अवश्य करना चाहिए। कामसूत्रकार ने सुझाव दिया है कि व्यक्ति को पहले विद्या पढ़नी चाहिए, फिर अर्थोपार्जन करना चाहिए। इसके बाद विवाह करके गार्हस्थ्य जीवन में प्रवेश कर नागरकवृत्त का आचरण करना चाहिए। विवाह से पूर्व किसी दूती या दूत की सहायता से किसी योग्य नायिका से परिचय प्राप्त कर प्रेम सम्बन्ध बढ़ाना चाहिए और फिर उसी से विवाह करना चाहिए। ऐसा करने पर गार्हस्थ्य जीवन, नागरिक जीवन सदैव सुखी और शान्त बना रहता है।
द्वितीय अधिकरण का नाम साम्प्रयोगिक है। 'सम्प्रयोग' को अर्थ सम्भोग होता है। इस अधिकरण में स्त्री-पुरुष के सम्भोग विषय की ही व्याख्या विभिन्न रूप से की गई है, इसलिए इसका नाम 'साम्प्रयोगिक' रखा गया है। इस अधिकरण में दस अध्याय और सत्रह प्रकरण हैं। कामसूत्रकार ने बताया है कि पुरुष अर्थ, धर्म और काम इन तीनों वर्गों को प्राप्त करने के लिए स्त्री को अवश्य प्राप्त करे किन्तु जब तक सम्भोग कला का सम्यक् ज्ञान नहीं होता है तब तक त्रिवर्ग की प्राप्ति समुचित रूप से नहीं हो सकती है और न आनन्द का उपभोग ही किया जा सकता है।
तीसरे अधिकरण का नाम कन्यासम्प्रयुक्तक है । इसमें बताया गया है कि नायक को कैसी कन्या से विवाह करना चाहिए। उससे प्रथम किस प्रकार परिचय प्राप्त कर प्रेम-सम्बन्ध स्थापित किया जाए? किन उपायों से उसे आकृष्ट कर अपनी विश्वासपात्री प्रेमिका बनाया जाए और फिर उससे विवाह किया जाए। इस अधिकरण में पाँच अध्याय और नौ प्रकरण हैं। उल्लिखित नौ प्रकरणों को सुखी दाम्पत्य जीवन की कुञ्जी ही समझना चाहिए। कामसूत्रकार विवाह को धार्मिक बन्धन मानते हुए दो हृदयों का मिलन स्वीकार करते हैं। पहले दो हृदय परस्पर प्रेम और विश्वास प्राप्त कर एकाकार हो जाएँ तब विवाह बन्धन में बँधना चाहिए, यही इस अधिकरण का सारांश है। यह अधिकरण सभी प्रकार की सामाजिक, धार्मिक मर्यादाओं के अन्तर्गत रहते हुए व्यक्ति की स्वतन्त्रता का समर्थन करता है।
चतुर्थ अधिकरण का नाम भार्याधिकारिक है। इसमें दो अध्याय और आठ प्रकरण है। विवाह हो जाने के बाद कन्या 'भार्या' कहलाती है। एकचारिणी और सपत्नी (सौत ) दो प्रकार की भार्या होती है। इन दोनों प्रकार की भार्याओं के प्रति पति के तथा पति के प्रति पत्नी के कर्त्तव्य इस अधिकरण में बताए गए हैं। इस अधिकरण में स्त्रीमनोविज्ञान और समाजविज्ञान को सूक्ष्म अध्ययन निहित है।
पाँचवें अधिकरण का नाम पारदारिक है। इसमें छह अध्याय और दस प्रकरण हैं। परस्त्री और परपुरुष का परस्पर प्रेम किन परिस्थितियों में उत्पन्न होता है, बढ़ता है और विच्छिन्न होता है, किस प्रकार परदारेच्छा पूरी की जा सकती है, और व्यभिचारी से स्त्रियों की रक्षा कैसे हो सकती है, यही इस अधिकरण का मुख्य प्रतिपाद्य विषय है।
छठे अधिकरण का नाम वैशिक है। इसमें छह अध्याय और बारह प्रकरण है। इस अधिकरण में वेश्याओं के चरित्र और उनके समागम उपायों आदि का वर्णन किया गया है। कामसूत्रकार ने वेश्यागमन को एक दुर्व्यसन मानते हुए बताया है कि वेश्यागमन से शरीर और अर्थ दोनों की क्षति होती है।
सातवें अधिकरण को नाम औपनिषदिक है। इसमें दो अध्याय और छह प्रकरण हैं। इस अधिकरण में, नायक-नायिका एक दूसरे को मन्त्र, यन्त्र, तन्त्र, औषधि आदि प्रयोगों से किस प्रकार वशीभूत करें, नष्टरोग को पुनः किस प्रकार उत्पन्न किया जाए, रूप-लावण्य को किस प्रकार बढ़ाया जाए, तथा बाजीकरण प्रयोग आदि मुख्य प्रतिपाद्य विषय है। औपनिषदिक का अर्थ 'टोटका' है।
पाठानुशीलन से प्रतीत होता है कि वर्तमान पुस्तकों में मूल प्रति से भिन्न सूत्रानुक्रम है। अनुमान है कि सबसे पहले नन्दी ने ही ब्रह्मा के प्रवचन से कामशास्त्र को अलग कर उसकी प्रवचन किया। कामशास्त्र के बाद मनुस्मृति और अर्थशास्त्र प्रतिपादित होने का भी अनुमान होता है, क्योंकि मनु और बृहस्पति ने ग्रन्थ का प्रवचन न कर पृथक्करण किया है। इसमें सन्देह नहीं कि इस प्रकार की पृथक्करण-प्रणाली का सूत्रपात प्रवचन काल के बहुत बाद से प्रारम्भ हुआ है। नन्दी द्वारा कहे गए एक हजार अध्यायों के कामशास्त्र को श्वेतकेतु ने संक्षिप्त कर पाँच सौ अध्यायों का संस्करण प्रस्तुत किया। स्पष्ट है कि ब्रह्मा के द्वारा प्रवचन किए गए शास्त्र में से नन्दी ने कामविषयक शास्त्र को एक हजार अध्यायों में विभक्त किया था। उसने अपनी ओर से किसी प्रकार का घटाव-बढ़ाव नहीं किया क्योंकि वह प्रवचन-काल था । प्रवचन-काल की परम्परा थी कि गुरुओं, आचार्यों से जो कुछ पढ़ा या सुना जाता था उसे ज्यों को त्यों शिष्यों
और जिज्ञासुओं के समक्ष प्रस्तुत कर दिया जाता था, अपनी ओर से कोई जोड़-तोड़ नहीं किया जाता था। प्रवचन-काल के अनन्तर शास्त्रों के सम्पादन, संशोधन और संक्षिप्तीकरण का प्रारम्भ होता है। श्वेतकेतु प्रवचन-काल के बाद का प्रतीत होता है क्योंकि उसने नन्दी के कामशास्त्र के एक हजार अध्यायों को संक्षिप्तीकरण और संपादन किया था। बल्कि यह कहना अधिक तर्कसंगत होगा कि श्वेतकेतु के काल से शास्त्र के सम्पादन और संक्षिप्तीकरण की पद्धति प्रचलित हो गई थी और बाभ्रव्य के समय में वह पूर्ण रूप से विकसित हो चुकी थी।
कामसूत्र के ऊपर तीन टीकाएँ प्रसिद्ध हैं-
(१) जयमंगला - प्रणेता का नाम यथार्थत: यशोधर है जिन्होंने वीसलदेव (१243-6१) के राज्यकाल में इसका निर्माण किया।
(२) कन्दर्पचूडामणि - बघेलवंशी राजा रामचन्द्र के पुत्र वीरसिंहदेव रचित पद्यबद्ध टीका (रचनाकाल सं. १६३३; १५७७ ई.)।
(३) कामसूत्रव्याख्या भास्कर नरसिंह नामक काशीस्थ विद्वान् द्वारा १७८८ ई. में निर्मित टीका।
(४) कामराज - रतिसार = मेवाड़ के महाराणा कुंभकर्ण सिंह (कुम्भा) ने इस पर टीका रची।
काम-विषयक अन्य प्राचीन ग्रन्थ
ज्योतिरीश्वर कृत पंचसायक :- मिथिला नरेश हरिसिंहदेव के सभापण्डित कविशेखर ज्योतिरीश्वर ने प्राचीन कामशास्त्रीय ग्रंथों के आधार ग्रहण कर इस ग्रंथ का प्रणयन किया। ३९६ श्लोकों एवं ७ सायकरूप अध्यायों में निबद्ध यह ग्रन्थ आलोचकों में पर्याप्त लोकप्रिय रहा है।
पद्मश्रीज्ञान कृत नागरसर्वस्व :- कलामर्मज्ञ ब्राह्मण विद्वान वासुदेव से संप्रेरित होकर बौद्धभिक्षु पद्मश्रीज्ञान इस ग्रन्थ का प्रणयन किया था। यह ग्रन्थ ३१३ श्लोकों एवं ३८ परिच्छेदों में निबद्ध है। यह ग्रन्थ दामोदर गुप्त के "कुट्टनीमत" का निर्देश करता है और "नाटकलक्षणरत्नकोश" एवं "शार्ंगधरपद्धति" में स्वयंनिर्दिष्ट है। इसलिए इसका समय दशम शती का अंत में स्वीकृत है।
जयदेव कृत रतिमंजरी :- ६० श्लोकों में निबद्ध अपने लघुकाय रूप में निर्मित यह ग्रंथ आलोचकों में पर्याप्त लोकप्रिय रहा है। यह ग्रन्थ डॉ॰ संकर्षण त्रिपाठी द्वारा हिन्दी भाष्य सहित चौखंबा विद्याभवन, वाराणसी से प्रकाशित है।
कोक्कोक कृत रतिरहस्य :- यह ग्रन्थ कामसूत्र के पश्चात दूसरा ख्यातिलब्ध ग्रन्थ है। परम्परा कोक्कोक को कश्मीरी स्वीकारती है। कामसूत्र के सांप्रयोगिक, कन्यासंप्ररुक्तक, भार्याधिकारिक, पारदारिक एवं औपनिषदिक अधिकरणों के आधार पर पारिभद्र के पौत्र तथा तेजोक के पुत्र कोक्कोक द्वारा रचित इस ग्रन्थ ५५५ श्लोकों एवं १५ परिच्छेदों में निबद्ध है। इनके समय के बारे में इतना ही कहा जा सकता है कि कोक्कोक सप्तम से दशम शतक के मध्य हुए थे। यह कृति जनमानस में इतनी प्रसिद्ध हुई सर्वसाधारण कामशास्त्र के पर्याय के रूप में "कोकशास्त्र" नाम प्रख्यात हो गया।
कल्याणमल्ल कृत अनंगरंग:- मुस्लिम शासक लोदीवंशावतंश अहमदखान के पुत्र लाडखान के कुतूहलार्थ भूपमुनि के रूप में प्रसिद्ध कलाविदग्ध कल्याणमल्ल''' ने इस ग्रन्थ का प्रणयन किया था। यह ग्रन्थ ४२० श्लोकों एवं १० स्थलरूप अध्यायों में निबद्ध है।
इन्हें भी देखें
चौसठ कलाएँ - कामसूत्र में वर्णित ६४ कलाएँ
कामसूत्र का सरल हिन्दी अनुवाद
वात्स्यायन कृत कामसूत्र, संस्कृत (देवनागरी) में
कामसूत्र मूल संस्कृत (रोमन लिपि) में
कामसूत्र का अंग्रेजी अनुवाद (पी डी एफ)
वृहद वात्स्यायन कामसूत्र (गूगल पुस्तक)
कामसूत्र वात्स्यायन कृत हिन्दी, संस्कृत (देवनागरी) में
कामसूत्र का अंग्रेजी अनुवाद
नारी कामसूत्र (गूगल पुस्तक ; लेखिका - डॉ विनोद वर्मा)
कामसूत्र का उद्भव
आज भी बरकरार कामसूत्र का सम्मोहन (वेबदुनिया) |
उपार्जित प्रतिरक्षी अपूर्णता सहलक्षण (एड्स) (अंग्रेज़ी:अऐकूर्ड इम्यूनोडेफिशियन्सी सिंड्रोम (एड्स)) मानवीय प्रतिरक्षी अपूर्णता विषाणु (मा॰प्र॰अ॰स॰) (एच॰आई॰वी) संक्रमण के बाद की स्थिति है, जिसमें मानव अपने प्राकृतिक प्रतिरक्षण क्षमता खो देता है। एड्स स्वयं कोई बीमारी नही है, पर एड्स से पीड़ित मानव शरीर संक्रामक बीमारियों, जो कि जीवाणु और विषाणु आदि से होती हैं, के प्रति अपनी प्राकृतिक प्रतिरोधी शक्ति खो बैठता है क्योंकि एच.आई.वी (वह वायरस जिससे कि एड्स होता है) रक्त में उपस्थित प्रतिरोधी पदार्थ लसीका-कोशो पर आक्रमण करता है। एड्स पीड़ित के शरीर में प्रतिरोधक क्षमता के क्रमशः क्षय होने से कोई भी अवसरवादी संक्रमण, यानि आम सर्दी जुकाम से ले कर क्षय रोग जैसे रोग तक सहजता से हो जाते हैं और उनका इलाज करना कठिन हो जाता हैं। एच.आई.वी. संक्रमण को एड्स की स्थिति तक पहुंचने में ८ से १० वर्ष या इससे भी अधिक समय लग सकता है। एच.आई.वी से ग्रस्त व्यक्ति अनेक वर्षों तक बिना किसी विशेष लक्षणों के बिना रह सकते हैं।
एड्स वर्तमान युग की सबसे बड़ी स्वास्थ्य समस्याओं में से एक है यानी कि यह एक महामारी है। एड्स के संक्रमण के तीन मुख्य कारण हैं - असुरक्षित यौन संबंधो, रक्त के आदान-प्रदान तथा माँ से शिशु में संक्रमण द्वारा। राष्ट्रीय उपार्जित प्रतिरक्षी अपूर्णता सहलक्षण नियंत्रण कार्यक्रम और संयुक्त राष्ट्रसंघ उपार्जित प्रतिरक्षी अपूर्णता सहलक्षण] दोनों ही यह मानते हैं कि भारत में ८० से ८५ प्रतिशत संक्रमण असुरक्षित विषमलिंगी/विषमलैंगिक यौन संबंधों से फैल रहा है। माना जाता है कि सबसे पहले इस रोग का विषाणु: एच.आई.वी, अफ्रीका के खास प्राजाति की बंदर में पाया गया और वहीं से ये पूरी दुनिया में फैला। अभी तक इसे लाइलाज माना जाता है लेकिन दुनिया भर में इसका इलाज पर शोधकार्य चल रहे हैं। १९८१ में एड्स की खोज से अब तक इससे लगभग ३० करोड़ लोग जान गंवा बैठे हैं।
एड्स और एच॰आई॰वी॰ में अंतर
एच॰आई॰वी॰ एक अतिसूक्षम रोग विषाणु हैं जिसकी वजह से एड्स हो सकता है। एड्स स्वयं में कोई रोग नहीं है बल्कि एक संलक्षण है। यह मनुष्य की अन्य रोगों से लड़ने की नैसर्गिक प्रतिरोधक क्षमता को घटा देता हैं। प्रतिरोधक क्षमता के क्रमशः क्षय होने से कोई भी अवसरवादी संक्रमण, यानि आम सर्दी जुकाम से ले कर फुफ्फुस प्रदाह, टीबी, क्षय रोग, कर्क रोग जैसे रोग तक सहजता से हो जाते हैं और उनका इलाज करना कठिन हो जाता हैं और मरीज़ की मृत्यु भी हो सकती है। यही कारण है की एड्स परीक्षण महत्वपूर्ण है। सिर्फ एड्स परीक्षण से ही निश्चित रूप से संक्रमण का पता लगाया जा सकता है। एड्स एक तरह का संक्रामक यानी की एक से दुसरे को और दुसरे से तीसरे को होने वाली एक गंभीर बीमारी है।एड्स का पूरा नाम एक्वायर्ड इम्यूलनो डेफिसिएंशी सिंड्रोम/उपार्जित प्रतिरक्षी अपूर्णता सहलक्षण (अऐकूर्ड इम्यून डेफिशियन्सी सिंड्रोम)है और यह एक तरह के विषाणु जिसका नाम हिव (हमन इम्यूनोडेफिशियन्सी वाइरस) है, से फैलती है। अगर किसीको हिव है तो ये जरुरी नहीं की उसको एड्स भी है। हिव वायरस की वजह से एड्स होता है अगर समय रहते वायरस का इलाज़ कर दिया गया तो एड्स होने का खतरा कम हो जाता है।
भारत में एड्स
ब्रिटिश मेडिकल जर्नल में हाल के एक अध्ययन के अनुसार, भारत में लगभग १४-१६ लाख लोग एचआईवी / एड्स से प्रभावित है. हालांकि २००५ में मूल रूप से यह अनुमान लगाया गया था कि भारत में लगभग ५५ लाख एचआईवी / एड्स से संक्रमित हो सकते थे। २००७ में और अधिक सटीक अनुमान भारत में एचआईवी / एड्स से प्रभावित लोगों कि संख्या को २५ लाख के आस-पास दर्शाती है। ये नए आंकड़े विश्व स्वास्थ्य संगठन और यू.एन.एड्स द्वारा समर्थित हैं. संयुक्त राष्ट्र कि २०११ के एड्स रिपोर्ट के अनुसार, पिछले १० वर्षों भारत में नए एचआईवी संक्रमणों की संख्या में ५०% तक की गिरावट आई है.
भारत में एड्स से प्रभावित लोगों की बढ़ती संख्या के संभावित कारण
आम जनता को एड्स के विषय में सही जानकारी न होना
एड्स तथा यौन रोगों के विषयों को कलंकित समझा जाना
शिक्षा में यौन शिक्षण व जागरूकता बढ़ाने वाले पाठ्यक्रम का अभाव
कई धार्मिक संगठनों का गर्भ निरोधक के प्रयोग को अनुचित ठहराना आदि।
एड्स के लक्षण
ई.वी से संक्रमित लोगों में लम्बे समय तक एड्स के कोई लक्षण नहीं दिखते। दीर्घ समय तक (३, ६ महीने या अधिक)
एच.आई.वी भी औषधिक परीक्षा में नहीं उभरते। अक्सर एच.आधिकांशतः एड्स के मरीज़ों को ज़ुकाम या विषाणु बुखार हो जाता है पर इससे एड्स होने की पहचान नहीं होती। एड्स के कुछ प्रारम्भिक लक्षण हैं:
मतली व भोजन से अरुचि
लसीकाओं में सूजन
ध्यान रहे कि ये समस्त लक्षण साधारण बुखार या अन्य सामान्य रोगों के भी हो सकते हैं। अतः एड्स की निश्चित रूप से पहचान केवल और केवल, औषधीय परीक्षण से ही की जा सकती है व की जानी चाहिये।
एचआईवी संक्रमण के तीन मुख्य चरण हैं: तीव्र संक्रमण, नैदानिक विलंबता एवं एड्स.
एचआईवी की प्रारंभिक अवधि जो कि उसके संक्रमण के बाद प्रारंभ होती है उसे तीव्र एच.आई.वी या प्राथमिक एच.आई.वी या तीव्र रेट्रोवायरल सिंड्रोम कहते हैं.कई व्यक्तियों में २ से ४ सप्ताह में इन्फ्लूएंजा जैसी बीमारी या मोनोंयुक्लिओसिस जैसी बीमारी के लक्षण दिखने लगते हैं और कुछ व्यक्तियों में ऐसे कोई विशेष लक्षण नहीं दिखते. ४०% से ९०% मामलों में इस बीमारी के लक्षण दिखने लगते हैं जिसमे सबसे प्रमुख लक्षण बुखार, बड़ी निविदा लिम्फ नोड्स, गले की सूजन, चक्कते, सिर दर्द या मुँह और जननांगों के घाव आदि हैं. चक्कते २०%-५०% मामलों में दिखते हैं. कुछ लोगों में इस स्तर पर अवसरवादी संक्रमण भी विकसित हो जाता है। कुछ लोगों में जठरांत्र कि बीमारियाँ जैसे उल्टी, मिचली या दस्त और कुछ में परिधीय न्यूरोपैथी के स्नायविक लक्षण और जुल्लैन बर्रे सिंड्रोम जैसी बीमारियों के लक्षण दिखते हैं। लक्षण कि अवधि आम तौर पर एक या दो सप्ताह होती है। अपने विशिष्ट लक्षण न दिखने के कारण लोग इन्हें अक्सर एचआईवी का संक्रमण नहीं मानते. कई सामान्य संक्रामक रोगों के लक्षण इस बीमारी में दिखने के कारण अक्सर डॉक्टर और हॉस्पिटल में भी इस बीमारी का गलत निदान कर देते हैं। इसलिए यदि किसी रोगी को बिना किसी वजह के बार बार बुखार आता हो तो उसका एचआईवी परीक्षण करा लिया जाना चाहिए क्योकि या एच.आई.वी. संक्रमण का एक लक्षण हो सकता है.
इस रोग के प्रारंभिक लक्षण के अगले चरण को नैदानिक विलंबता, स्पर्शोन्मुख एचआईवी या पुरानी एचआईवी कहते हैं. उपचार के बिना एचआईवी संक्रमण का दूसरा चरण ३ साल से २० साल तक रह सकता है (औसतन ८ साल). आम तौर पर इस चरान में कुछ या कोई लक्षण नहीं दिखते है जबकि इस चरण के अंत के कई लोगों को बुखार, वजन घटना, गैस्ट्रोइंटेस्टाइनल समस्याएं और मांसपेशियों में दर्द अनुभव होता है. लगभग ५०-७०% लोगों में ३-६ महीने के भीतर लासीका ग्रंथियों (जांघ कि बगल वाली लसीका ग्रंथियों के आलावा) में सूजन या विस्तार भी देखा जाता है. हालाँकि हिव-१ से संक्रमित अधिकतर व्यक्तियों में पता लगाने योग्य एक वायरल लोड होता है लेकिन इलाज के आभाव में वह अंततः बढ़ कर एड्स में बदल जाता है जबकि कुछ मामलो (लगभग ५%) में बिना एंटीरेट्रोवाइरल थेरेपी (एड्स कि चिकित्सा पद्यति) के चड४+ त-कोशिकाएं ५ साल से अधिक शरीर में बनी रहती हैं. जिन व्यक्तियों में इस प्रकार के मामले सामने आते है उन्हें एचआईवी नियंत्रक या लंबी अवधि वृधिविहीन के रूप में वर्गीकृत किया जाता है और जिन व्यक्तियों में बिना रेट्रोवायरल विरोधी चिकित्सा के वायरल लोड कम या नहीं पता लगाने योग्य स्तर तक बना रहता है उन्हें अभिजात वर्ग का नियंत्रक या अभिजात वर्ग का दमन करने वाला कहते हैं.
एड्स को दो प्रकार से परिभाषित किया गया है या तो जब चड४+ टी कोशिकाओं कि संख्या जब २०० कोशिकाएं प्रति ल से कम होती हैं या तो तब जबकि एचआईवी संक्रमण के कारण कोई रोग व्यक्ति के शरीर में उत्पन्न हो जाता है. विशिष्ट उपचार के अभाव में एचआईवी से संक्रमित आधे लोगों के अन्दर दस साल में एड्स विकसित हो जाता है. सबसे आम प्रारंभिक स्थिति जो कि एड्स की उपस्थिति को इंगित करती है वो है न्युमोसाईतिस निमोनिया (४0%), कमजोरी जैसे कि वजन घटना, मांसपेशियों में खिचाव, थकान, भूख में कमी इत्यादि (२०%) और सोफागेल कैंडिडिआसिस (ग्रास नली का संक्रमण) होती है। इसके आलावा आम लक्षण में श्वास नलिका में कई बार संक्रमण होना भी है.
अवसरवादी संक्रमण बैक्टीरिया, वायरस, कवक और परजीवी के कारण हो सकते हैं जो कि आम तौर पर हमारे प्रतिरक्षा प्रणाली द्वारा नियंत्रित हो जाते हैं. भिन्न भिन्न व्यक्तियों में भिन्न भिन्न प्रकार के संक्रमण होते है जो कि इस बात पर निर्भर करता है कि व्यक्ति के आस पास वातावरण में कौन से जीव या संक्रमण आम रूप से पाए जाते है. ये संक्रमण शरीर के हर अंग प्रणाली को प्रभावित कर सकते हैं.
एच.आई.वी. का प्रसार
दुनिया भर में इस समय लगभग चार करोड़ २० लाख लोग एच.आई.वी का शिकार हैं। इनमें से दो तिहाई सहारा से लगे अफ़्रीकी देशों में रहते हैं और उस क्षेत्र में भी जिन देशों में इसका संक्रमण सबसे ज़्यादा है वहाँ हर तीन में से एक वयस्क इसका शिकार है। दुनिया भर में लगभग १४,००० लोगों के प्रतिदिन इसका शिकार होने के साथ ही यह डर बन गया है कि ये बहुत जल्दी ही एशिया को भी पूरी तरह चपेट में ले लेगा। जब तक कारगर इलाज खोजा नहीं जाता, एड्स से बचना ही एड्स का सर्वोत्तम उपचार है।
एच.आई.वी. तीन मुख्य मार्गों से फैलता है
मैथुन या सम्भोग द्वारा (गुदा, योनिक या मौखिक)
शरीर के संक्रमित तरल पदार्थ या ऊतकों द्वारा (रक्त संक्रमण या संक्रमित सुइयों के आदान-प्रदान)
माता से शीशु मे (गर्भावस्था, प्रसव या स्तनपान द्वारा)
मल, नाक स्रावों, लार, थूक, पसीना, आँसू, मूत्र, या उल्टी से एच. आई. वी. संक्रमित होने का खतरा तबतक नहीं होता जबतक कि ये एच. आई. वी संक्रमित रक्त के साथ दूषित न हो.
मैथुन या सम्भोग द्वारा एच. आई. वी. संक्रमण
एचआईवी संक्रमण की सबसे ज्यादा विधा संक्रमित व्यक्ति के साथ यौन संपर्क के माध्यम से है। दुनिया भर में एच. आई. वी. प्रसार के मामलों के सबसे अधिक मामले विषमलैंगिक संपर्क (यानी विपरीत लिंग के लोगों के बीच यौन संपर्क जैसे कि पुरुष एवं स्त्री के बीच) के माध्यम से होते हैं। हालांकि, एच. आई. वी. प्रसार भिन्न भिन्न देशों में भिन्न भिन्न तरीकों से हुआ है। संयुक्त राज्य अमेरिका में २००९ तक, सबसे अधिक एच. आई. वी. प्रसार उन समलैंगिक पुरुषों में हुआ जो कि सभी नए मामलों की ६४% आबादी के बराबर थी.
असुरक्षित विषमलिंगी यौन संबंधो के मालमे में अनुमानतः प्रत्येक यौन सम्बन्ध में एचआईवी संक्रमण का जोखिम कम आय वाले देशों में उच्च आय वाले देशों कि तुलना से चार से दस गुना ज्यादा होता है. कम आय वाले देशों में संक्रमित महिला से पुरुष में संक्रमण का जोखिम ०.३८% है जबकि पुरुषों से महिला में संक्रमण का जोखिम ०.३०% है। उच्चा आय वाले देशो में यही जोखिम महिला से पुरुष में ०.०४% तथा पुरुष से महिला में ०.०८% है। गुदा सम्भोग द्वारा एच. आई. वी. संक्रमण का जोखिम विशेष रूप से ज्यादा होता है जो कि विषमलिंगी तथा समलिंगी दोनों प्रकार के यौन संबंधों में १.४-१.७% तक होता है. मुख मैथुन के द्वारा एच. आई. वी. संक्रमण का खतरा थोडा कम होता है लेकिन खत्म नहीं होता.
शरीर के संक्रमित तरल पदार्थ या ऊतकों द्वारा (रक्त संक्रमण या संक्रमित सुइयों के आदान-प्रदान)
एचआईवी के संक्रमण का दूसरा सबसे बड़ा स्रोत रक्त और रक्त उत्पाद के द्वारा हैं. रक्त के द्वारा संक्रमण नशीली दवाओ के सेवन के दौरान सुइयों के साझा प्रयोग के द्वारा, संक्रमित सुई से चोट लगने पर, दूषित रक्त या रक्त उत्पाद के माध्यम से या उन मेडिकल सुइयों के माध्यम से जो एच. आई. वी. संक्रमित उपकरणों के साथ होते हैं। दवा के इंजेक्शन आपस में बाँट कर लगाने से इसके फ़ैलाने का जोखिम ०.६३-२.४% होता है, जोकि औसतन ०.८% होता है. एचआईवी संक्रमित व्यक्ति के द्वारा इस्तेमाल की हुई सुई के माध्यम से एचआईवी होने का जोखिम ०.३% प्रतिशत होता है (३३३ में १) और श्लेष्मा झिल्ली के खून से संक्रमित होने का जोखिम ०.०९% होता है (१००० में १). संयुक्त राज्य अमेरिका में २००९ में १२% मामले ऐसे लोगों के आए हैं जो कि नसों में नशीली दवाओं का उपयोग करते थे और कुछ क्षेत्रों में नशीली दवाओं का सेवन करने वालों में से ८०% से ज्यादा लोग एचआईवी पोजिटिव मिले.
एच. आई. वी. संक्रमित रक्त का प्रयोग करने से संक्रमण का जोखिम ९३% तक होता है. विकसित देशों में संक्रिमित रक्त से एचआईवी प्रसार का जोखिम बहुत ही कम है (५,००,००० बार में से १ बार से भी कम) क्योकि वह रक्त देने वाले व्यक्ति कि एच. आई. वी. जांच उसका रक्त लेने के पहले कि जाती है. ब्रिटेन में जोखिम औसतन पचास लाख में से १ से भी कम की है. हालांकि, कम आय वाले देशों में रक्त का इस्तेमाल करने के पहले केवल आधे रक्त कि उचित रूप से जाँच होती है (२००८ के रिपोर्ट के अनुसार). यह अनुमान है कि इन क्षेत्रों में १५% एचआईवी संक्रमण का आधार रक्त या रक्त उत्पादों से होता है, जो कि वैश्विक संक्रमण का ५-१०% है. उप सहारा अफ्रीका में एचआईवी के प्रसार में एक महत्वपूर्ण भूमिका असुरक्षित चिकित्सा सुइयां निभाते हैं। २००७ में इस क्षेत्र में संक्रमण (१२-१७%) का कारण असुरक्षित चिकित्सा सुइयां ही थी। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुमान के अनुसार चिकित्सा सुइयों के द्वारा एच. आई. वी. संक्रमण का जोखिम अफ्रीका में १.२% मामलों में होता है. टैटू बनाने या बनवाने, खुरचने से भी सैद्धांतिक रूप संक्रमण का जोखिम बना रहता है लेकिन अभी तक किसी भी ऐसे मामले के पुष्टि नहीं हुई है। मच्छर या अन्य कीड़े कभी एचआईवी संचारित नहीं कर सकते हैं.
माँ से बच्चे में एच. आई. वी. संक्रमण
एचआईवी माँ से बच्चे को गर्भावस्था के दौरान, प्रसव के दौरान और स्तनपान के दौरान प्रेषित हो सकता है. एचआईवी दुनिया भर में फैलने का यह तीसरा सबसे आम कारण है. इलाज के आभाव में जन्म के पहले या जन्म के समय इसके संक्रमण का जोखिम २०% तक होता है और स्तनपान के द्वारा यही जोखिम ३५% तक होता है. वर्ष २००८ तक बच्चो में एचआईवी का संक्रमण ९०% मामलों में माँ के द्वारा हुआ। उचित उपचार होने पर माँ से बच्च्चे को होने वाले संक्रमण को कम कर के यह जोखिम ९०% से १% तक लाया जा सकता है. माँ को गर्भावस्था और प्रसव के दौरान एंटीरेट्रोवाइरल दवा दे कर, वैकल्पिक शल्यक्रिया (आपरेशन) द्वारा प्रसव करके, नवजात शिशु को स्तनपान से न करा के तथा नवजात शिशु को भी एंटीरिट्रोवाइरल औषधियों कि खुराक देकर माँ से बच्चे में एच. आई. वी. का संक्रमण रोका जाता है. हलांकि इनमें से कई उपाय अभी भी विकासशील देशों में नहीं हैं। यदि भोजन चबाने के दौरान संक्रमित रक्त भोजन को दूषित कर देता है तो यह भी एच. आई. वी. संचरण का जोखिम पैदा कर सकता है.
एड्स से बचने के उपाए
अपने जीवनसाथी के प्रति वफादार रहें। एक से अधिक व्यक्ति से यौनसंबंध ना रखें।
यौन संबंध (मैथुन) के समय कंडोम का सदैव प्रयोग करें।
यदि आप एच.आई.वी संक्रमित या एड्स ग्रसित हैं तो अपने जीवनसाथी से इस बात का खुलासा अवश्य करें। बात छुपाये रखनें तथा इसी स्थिती में यौन संबंध जारी रखनें से आपका साथी भी संक्रमित हो सकता है और आपकी संतान पर भी इसका प्रभाव पड़ सकता है।
यदि आप एच.आई.वी संक्रमित या एड्स ग्रसित हैं तो रक्तदान कभी ना करें।
रक्त ग्रहण करने से पहले रक्त का एच.आई.वी परीक्षण कराने पर ज़ोर दें।
यदि आप को एच.आई.वी संक्रमण होने का संदेह हो तो तुरंत अपना एच.आई.वी परीक्षण करा लें। उल्लेखनीय है कि अक्सर एच.आई.वी के कीटाणु, संक्रमण होने के ३ से ६ महीनों बाद भी, एच.आई.वी परीक्षण द्वारा पता नहीं लगाये जा पाते। अतः तीसरे और छठे महीने के बाद एच.आई.वी परीक्षण अवश्य दोहरायें।
यौन संपर्क के दौरान कंडोम का लगातार इस्तेमाल एचआईवी संक्रमण के जोखिम को लगभग ८०% तक कम कर देता है. जब जोड़ी में से एक साथी एचआईवी से संक्रमित है तब कंडोम का लगातार इस्तेमाल करने से असंक्रमित व्यक्ति को एचआईवी संक्रमण होने कि संभावना प्रति वर्ष १% से कम हो जाती है. इन बातों के भी प्रमाण मिले है कि महिलाओं का कंडोम इस्तेमाल करना भी पुरूषों के कंडोम इस्तेमाल करने के सामान सुरक्षा प्रदान करता है. एक अध्ययन के अनुसार अफ्रीकी महिलाओं में सेक्स के तुरंत पहले तेनोफोविर नामक जेल का योनि पर इस्तेमाल करने से एच. आई. वी संक्रमण का जोखिम ४०% तक कम हुआ. जबकि इसके विपरीत स्पेर्मिसईद नोंओक्स्य्नोल ९ (स्पर्मिसाइड नॉनॉक्सीनॉल ९) सक्रमण के जोखिम को बढ़ा देते हैं क्योंकि योनि और गुदा में जलन बढ़ाना इसकी अपनी प्रवृत्ति है. उप सहारा अफ्रीका में सुन्नत विषमलैंगिक पुरुषों में एच.आई.वी संक्रमण के दर को ३८%-६६% मामलों में २४ महीनों तक कम कर देता है. इन अध्यनों के आधार पर वर्ष २००७ में विश्व स्वास्थ्य संगठन और यू.एन.एड्स ने महिला से पुरुष में एचआईवी संक्रमण से बचने का उपाय पुरुष खतना बताया था. यधपि इससे पुरुष से महिला में संक्रमण को रोका जा सकता है यह विवादस्पद है और पुरुष खतना विकसित देशों में कारगर होगा या नहीं एवं समलैंगिक पुरुषों में इसका कोई प्रभाव पड़ेगा या नहीं ये बात अभी अनिर्धारित है. कुछ विशेषज्ञों को डर है कि खतना पुरुषों के बीच असुरक्षा कि कम धारणा यौन जोखिम को बढ़ावा दे सकती है जो कि अपने निवारक प्रभाव को कम कर देती है. जिन महिलाओं का मादा जननांग कट चुका होता है उनमें एचआईवी कि वृद्धि का जोखिम बढ़ जाता है. यौन संयम को बताने वाले कार्यक्रम भी एचआईवी के बढते जोखिम प्रभावित करते नहीं दिखाई देते. स्कूल में व्यापक रूप से यौन शिक्षा देने पर इसके व्यापकता में कमी आ सकती है. युवा लोगों का एक बड़ा समूह एचआईवी / एड्स के बारे में जानकारी होने के बावजूद भी इस प्रथा में संलग्न है कि वह खुद अपने को एचआईवी से संक्रमित होने के जोखिम को ये कम आँकता है.
एड्स इन कारणों से नहीं फैलता
एच.आई.वी संक्रमित या एड्स ग्रसित व्यक्ति से हाथ मिलाने से
एच.आई.वी संक्रमित या एड्स ग्रसित व्यक्ति के साथ रहने से या उनके साथ खाना खाने से।
एक ही बर्तन या रसोई में स्वस्थ और एच.आई.वी संक्रमित या एड्स ग्रसित व्यक्ति के खाना बनाने से।
प्रारंभिक अवस्था में एड्स के लक्षण
तेज़ी से अत्याधिक वजन घटना
लगातार ज्वर या रात के समय अत्यधिक/असाधारण मात्रा में पसीने छूटना
जंघाना, कक्षे और गर्दन में लम्बे समय तक सूजी हुई लसिकायें
एक हफ्ते से अधिक समय तक दस्त होना। लम्बे समय तक गंभीर हैजा।
चमड़ी के नीचे, मुँह, पलकों के नीचे या नाक में लाल, भूरे, गुलाबी या बैंगनी रंग के धब्बे।
एड्स रोग का उपचार
औषधी विज्ञान में एड्स के इलाज पर निरंतर संशोधन जारी हैं। भारत, जापान, अमेरिका, यूरोपीय देश और अन्य देशों में इस के इलाज व इससे बचने के टीकों की खोज जारी है। हालांकी एड्स के मरीज़ों को इससे लड़ने और एड्स होने के बावजूद कुछ समय तक साधारण जीवन जीने में सक्षम हैं परंतु आगे चल कर ये खतरा पैदा कर सकता हैं। एड्स का इलाज के लिए शोध जारी है। हैं। आज यह भारत में एक महामारी का रूप हासिल कर चुका है। भारत में एड्स रोग की चिकित्सा महंगी है, एड्स की दवाईयों की कीमत आम आदमी की आर्थिक पहुँच के परे है। कुछ विरल मरीजों में सही चिकित्सा से १०-१२ वर्ष तक एड्स के साथ जीना संभव पाया गया है, किंतु यह आम बात नही है।
ऐसी दवाईयाँ अब उपलब्ध हैं जिन्हें प्रति उत्त्क्रम-प्रतिलिपि-किण्वक विषाणु चिकित्सा [एंटी रिवर्स ट्रांसकृप्ट एन्जाइम विराल थेरेपी और एंटी-रेट्रोविरल थेरेपी] दवाईयों के नाम से जाना जाता है। सिपला की ट्रायोम्यून जैसी यह दवाईयाँ महँगी हैं, प्रति व्यक्ति सालाना खर्च तकरीबन १५०००० रुपये होता है और ये हर जगह आसानी से भी नहीं मिलती। इनके सेवन से बीमारी थम जाती है पर समाप्त नहीं होती। अगर इन दवाओं को लेना रोक दिया जाये तो बीमारी फ़िर से बढ़ जाती है, इसलिए एक बार बीमारी होने के बाद इन्हें जीवन भर लेना पड़ता है। अगर दवा न ली जायें तो बीमारी के लक्षण बढ़ते जाते हैं और एड्स से ग्रस्त व्यक्तियों की मृत्यु हो जाती है।
एक अच्छी खबर यह है कि सिपला और हेटेरो जैसे प्रमुख भारतीय दवा निर्माता एच.आई.वी पीड़ितों के लिये शीघ्र ही पहली एक में तीन मिश्रित निधिक अंशगोलियाँ बनाने जा रहे हैं जो इलाज आसान बना सकेगा (सिपला इसे वाईराडे के नाम से पुकारेगा)। इन्हें आहार व औषध मंत्रि-मण्डल [फ़्ड़ा] से भी मंजूरी मिल गई है। इन दवाईयों पर प्रति व्यक्ति सालाना खर्च तकरीबन १ लाख रुपये होगा, संबल यही है कि वैश्विक कीमत से यह ८०-८५ प्रतिशत सस्ती होंगी।
एड्स ग्रस्त लोगों के प्रति व्यवहार
एड्स का एक बड़ा दुष्प्रभाव है कि समाज को भी संदेह और भय का रोग लग जाता है। यौन विषयों पर बात करना हमारे समाज में वर्जना का विषय रहा है। निःसंदेह शतुरमुर्ग की नाई इस संवेदनशील मसले पर रेत में सर गाड़े रख अनजान बने रहना कोई हल नहीं है। इस भयावह स्थिति से निपटने का एक महत्वपूर्ण पक्ष सामाजिक बदलाव लाना भी है। एड्स पर प्रस्तावित विधेयक को अगर भारतीय संसद कानून की शक्ल दे सके तो यह भारत ही नहीं विश्व के लिये भी एड्स के खिलाफ छिड़ी जंग में महती सामरिक कदम सिद्ध होगा।
इन्हें भी देखें
मानवीय प्रतिरक्षी अपूर्णता विषाणु
शरीर में एच.आई.वी. कहाँ रहता है?
यौन सम्भोग से संक्रमित इन्फैक्शन एच आई वी और एड्स
[का इतिहास- जानिए कब, कहां और कैसे अस्तित्व में आई यह बीमारी]
शराब का दुरुपयोग (अल्कोहल अबुस्) - उपचार, लक्षण और कारण
एचआईवी क्या होता है |
श्री ज्योतिन्द्र नाथ दीक्षित (१९३६-२००५), जिन्हें जे एन दीक्षित नाम से अधिक जाना जाता है, एक अनुभवी राजनयिक थे जो कि भारत के विदेश सचिव भी रहे। १९७१ में बांग्लादेश बनने के बाद वे वहाँ भारत के पहले उच्चायुक्त थे। वे पाकिस्तान और श्रीलंका में भी भारत के उच्चायुक्त रहे। १९३६ में मद्रास में जन्मे जेएन दीक्षित १९५८ में भारतीय विदेश सेवा में आए और उन्होंने दुनिया के कई देशों में भारत की नुमाइंदगी की। १९९४ में सेवानिवृत होने के बाद से वो लगातार देश-विदेश में पढ़ाने के अलावा अख़बारों में लिखते रहे।
वे हल, मैंचेस्टर, ऑक्सफ़ोर्ड,मेलबर्न, लंदन सहित कई अन्य पश्चिमी विश्वविद्यालयों में भी अकसर लेक्चर देने जाया करते थे। दीक्षित काँग्रेस पार्टी में विदेश मामलों की इकाई के उपाध्यक्ष रहे। २००४ के आमचुनाव से पहले विदेश, सुरक्षा और रक्षा मामलों पर उन्होंने काँग्रेस का एजेंडा या घोषणा-पत्र तैयार करने में अहम भूमिका निभाई थी।
वे २६ मई २००४ से ३ जनवरी २००५ (निधन) तक भारत के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार भी रहे।
भारत के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार
पाकिस्तान में भारत के उच्चायुक्त
श्रीलंका में भारत के उच्चायुक्त
बांग्लादेश में भारत के उच्चायुक्त
भारत के विदेश सचिव
२००५ में निधन
१९३६ में जन्मे लोग |
सियोल दक्षिण कोरिया की राजधानी और सबसे बड़ा महानगर है। यह शहर हान नदी के किनारे बसा है। सियोल की आबादी ९.९ मिलियन लोगों की है, और सियोल कैपिटल एरिया का केंद्र बन जाता है, साथ ही आसपास के इंचियोन महानगर और ग्योंगी प्रांत भी हैं। सियोल टोक्यो, न्यूयॉर्क सिटी और लॉस एंजिल्स के बाद २०१४ में दुनिया की चौथी सबसे बड़ी महानगरीय अर्थव्यवस्था थी। २०१७ में, सियोल में रहने की लागत विश्व स्तर पर ६ वें स्थान पर थी।
दक्षिण कोरिया के शहर
एशिया में राजधानियाँ
एशिया के आबाद स्थान |
कुआला लम्पुर, जिसे संक्षेप में "के एल" भी कहा जाता है, मलेशिया की संघीय राजधानी व सबसे अधिक जनसंख्या वाला नगर है। इस नगर का क्षेत्रफल है तथा २०१२ की अनुमानित जनसँख्या १६ लाख है। वृहत्तर कुआला लम्पुर, जिसे क्लाँग घाटी के नाम से भी जाना जाता है, में आसपास के शहरी समुदाय भी सम्मिलित किए जाते हैं, जिन्हें मिलाकर इस क्षेत्र की कुल अनुमानित जनसँख्या ५७ लाख (२०१० में) है। जनसँख्या व अर्थव्यवस्था के हिसाब से यह इस देश का सर्वाधिक तीव्रगति से वृद्धिरत क्षेत्र है। मलेशिया की ही नई दूसरी राजधानी पुत्रजय भी है।
मलेशिया के आबाद स्थान
एशिया के आबाद स्थान
मलेशिया के राज्य व संघीय क्षेत्र |
काबुल अफगानिस्तान की राजधानी है। काबुल अफगानिस्तान का सबसे बड़ा शहर और राजधानी है। यह अफगानिस्तान का आर्थिक और सांस्कृतिक केंद्र भी है। यह शहर समुद्र तल से १८०० मीटर की ऊंचाई पर स्थित है। काबुल सफेद खो पहाड़ी और काबुल नदी के बीच बसा हुआ है। यह पर्यटन की दृष्टि से मध्य एशिया का एक महत्पपूर्ण केंद्र माना जाता है। यहां कई प्रमुख पर्यटन स्थल हैं। जिसमें अफगान नेशनल म्यूजियम, दारुल अमन पैलेस, बाग-ए-बाबर, ईदगाह मस्जिद, ओमर माइन म्यूजियम यहां के प्रमुख दर्शनीय स्थल है।
इस शहर का इतिहास ३००० वर्ष पुराना है। इस दौरान यहां बाला भुरटा शासक वंशों का शासन रहा। अपने सामरिक के कारण यह हमेशा मध्य एशिया का एक प्रमुख केंद्र बना रहा। ईसा पूर्व ३२३ ईसवी से यहां पर मौर्य वंश के कई शासकों का शासन रहा जो कि १८४ वर्ष तक रहा १५०४ ई. में इस पर बाबर ने कब्ज़ा कर लिया। १५२६ ई. में भारत विजय तक यह बाबर के साम्राज्य के प्रशासन का केंद्र बना रहा। १७७६ ई. में तैमूरा शाह दुर्रानी ने इसे अफगानिस्तान की राजधानी बनाया।
अफगान नेशनल म्यूजियम
इसे काबुल म्यूजियम भी कहा जाता है। यह ऐतिहासिक दो मंजिला इमारत काबुल में स्थित है। इस म्यूजियम को मध्य एशिया का सबसे समृद्ध संग्रहालय माना जाता है। यहां कई सहस्राब्दिक पूर्व के लगभग एक लाख दुलर्भ वस्तुओं का संग्रह है। इस म्यूजियम की स्थापना १९२० ई. में हुई थी। १९७३ ई. में एक डच वास्तुविद को इस संग्रहालय की नई इमारत का डिजाइन तैयार करने के लिए बुलाया गया था। लेकिन राजनीतिक अस्थिरता के कारण यह योजना पूर्ण न हो सकी। १९९६ ई. में तालिबान शासन के दौरान इस म्यूजियम को लूटा गया। इस म्यूजियम को पुन: अपने वास्तविक रूप में लाने के लिए अंर्तराष्ट्रीय समुदाय ने २००३ ई. में ३५०००० अमेरिकी डालर का सहयोग दिया। विदेशी सहायता से बने नए इस संग्रहालय का उदघाटन २९ सितंबर २००४ ई. को किया गया। इस संग्रहालय में कुषाण काल से सम्बन्धित विभिन्न बौद्ध स्मृति चिन्हों का अच्छा संग्रह है। इसके अलावा यहां इस्लाम धर्म के प्रारंभिक काल से संबंद्ध दस्तावेजों का संग्रह भी है।
दारुल अमन पैलेस
यह यूरोपियन शैली में बना हुआ महल है जो काबुल से १० मील की दूरी पर स्थित है। दारुल अमन पैलेस का निर्माण १९२० ई. में सुधारवादी राजा अमानुल्लाह खान ने करवाया था। यह भवन एक पहाड़ी पर बना हुआ है। यहां से पूरी घाटी का सुंदर नजारा दिखा जा सकता है। इस इमारत का निर्माण अफगानिस्तान की संसद के लिए करवाया गया था। लेकिन अमानुल्लाह के शासन से हटने के बाद यह इमारत कई वर्षों तक बिना उपयोग के पड़ी रहा। १९६९ ई. में इस इमारत में आग लग गई। १९७० तथा ८० के दशक में इस इमारत को रक्षा मंत्रालय द्वारा उपयोग किया गया। वर्तमान में इस इमारत का उपयोग नाटो सेनाओं द्वारा किया जा रहा है। अफगानिस्तान की वर्तमान सरकार इस इमारत को नया रूप देकर संसद भवन के रूप में तब्दील करने वाली है।
यह अफगानिस्तान की दूसरी सबसे बड़ी मस्जिद है। इस मस्जिद में एक साथ २० लाख लोग नमाज अदा करते हैं। इस मस्जिद का निर्माण १८९३ ई. के आस-पास यहां के तात्कालीक शासक अब्दुर रहमान खान ने करवाया था। यह काबुल के शहर बराक क्षेत्र में स्थित है। इस मस्जिद का अफगानिस्तान की राजनीति पर व्यापक प्रभाव है।
यह अफगानिस्तान का प्राचीन किला है। इस किले का निर्माण ५वीं शताब्दी ई. पू. के आस-पास हुआ था। बाला हिसार वर्तमान काबुल शहर के दक्षिण में खुह-ए-शेरदरवाज पहाड़ी के पास स्थित है। यह किला मूल रूप से दो भागों में विभक्त था। किले के निचले भाग में बैरक तथा तीन राजकीय भवन थे। जबकि ऊपरी भाग में शस्त्रागार तथा कारागार था। इस कारागार को काला गढा के नाम से जाना जाता था।
काबुल सिटी सेंटर
यह अफगानिस्तान का पहला आधुनिक मॉल है। इसका उदघाटन २००५ ई. को किया गया। यह नौ मंजिला मॉल काबुल के निचले हिस्से में स्थित है।
यह काबुल आने वाले पर्यटकों का सबसे पसंदीदा स्थान है। इसी बाग में प्रथम मुगल बादशाह बाबर की कब्र है। यह बाग कई बगीचों को मिलाकर बनाया गया है। इस बाग की बाहरी दीवार का पुनर्निर्माण २००५ ई. में पुरानी शैली में ही किया गया था। इस दीवार को १९९२-९६ ई. में युद्ध के दौरान क्षति पहुंची थी। यह बाग काबुल के चेचलस्टन क्षेत्र में स्थित है। बाबर की मृत्यु के बाद उन्हें आगरा में दफनाया गया था। लेकिन बाबर की यह इच्छा थी कि उन्हें काबुल में दफनाया जा। इस कारण उनकी इच्छानुसार उन्हें काबुल लाकर इस बाग में दफनाया गया। इसी बाग की प्रेरणा से भारत में मुगल बादशाहों ने कई बागों का निर्माण करवाया।
यह चिड़ियाघर काबुल नदी के तट पर स्थित है। इस चिडियाघर को १९६७ ई. में आम लोगों के लिए खोला गया था। इस चिडियाघर में ११६ जानवर हैं। इन जानवरों की देखभाल के लिए यहां ६० कर्मचारी कार्यरत हैं।
समय: सुबह ६ बजे से शाम ६ बजे तक, प्रतिदिन।
शुल्क: अफगानियों के लिए १० अफगानी मुद्रा तथा विदेशियों के लिए १०0 अफगानी मुद्रा।
ओमर माइन म्यूजियम
यह अपने आप में एक अनोखा म्यूजियम है। इस म्यूजियम में प्रसिद्ध कलाकृतियों या हस्तशिल्पों को नहीं बल्कि विभिन्न प्रकार के बमों को देखा जा सकता है। इस म्यूजियम में पर्यटक उन सभी प्रकार के हथियारों को देख सकते हैं, जिनका उपयोग यहां होने वाले युद्धों में किया गया है। इस म्यूजियम को घूमने के लिए पहले से अनुमति लेनी होती है।
यह गार्डन काबुल में छुट्टियां बिताने के लिए सबसे खूबसूरत स्थल है। यहां लोग अपने मित्रों तथा संबंधियों के साथ छुट्टियां बिताने आते हैं। इस गार्डन का निर्माण १९२७-२८ ई. में बादशाह अमानुल्लाह ने करवाया था।
इसके अलावा हाजी अब्दुल रहमान मस्जिद, पुल-ए किस्ती मस्जिद, ओरघा झील, बाग-ए-जनाना, बाग-ए-बाला आदि भी दर्शनीय है।
अफ़्गानिस्तान के शहर
एशिया में राजधानियाँ |
तेहरान () ईरान ईरान के तेहरान प्रान्त का एक शहर और ईरान की राजधानी है। इस शहर की जनसंख्या वर्ष २००६ की जनगणना के अनुसार ७,७९७,५२० है।
स्थिति : ३५४४' उओ अओ तथा ५१३०' पूओ देओ। यह नगर ईरान देश तथा तेहरान प्रदेश की राजधानी और एक महत्वपूर्ण औद्योगिक, सांस्कृतिक एवं रेल, सड़क तथा वायुमार्गों का केन्द्र है। समुद्रतल से १,१7५ मीटर की ऊँचाई पर कैस्पियन सागर से १0५ किलोमीटर दक्षिण तथा एलबुर्ज पर्वत श्रेणी से १6 किलोमीटर दक्षिण स्थित है। इस नगर से डेमावंड पर्वत नामक सुप्त ज्वालामुखी (५,66५ मीटर) की हिमाच्छादित नुकीली चोटी दिखाई देती है। यहाँ के दर्शनीय भवनों में राजभवन, संग्रहालय, मस्जिदें इत्यादि हैं। राजभवन में वह मयूरसिंहासन है, जो १939 ईओ में नादिरशाह द्वारा दिल्ली से लाया गया था।
कजार वंश के संस्थापक आग़ा मुहम्मद खान ने १७८८ ईओ में इस नगर को अपनी राजधानी बनाया। तत्पश्चात् नगर का विकास तीव्र गति से होता गया। यह उपजाऊ खेतिहर प्रदेश में स्थित है, जहाँ गेहूँ, चुकंदर, फल तथा कपास उत्पादन महत्वपूर्ण है। कपड़ा, सीमेंट, धातु का सामान, रासायनिक पदार्थ, काच, चीनी, दियासलाई, सिगरेट, साबुन इत्यादि के उद्योग मुख्य हैं। यह फारस की खाड़ी तथा कैस्पियन सागर से रेलमार्गों द्वारा जुड़ा है। नगर से ५.६ मिलोमीटर पश्चिम में हराबाद हवाई अड्डा स्थित है, जहाँ से कई विदेशी वायुमार्ग गुज़रते हैं। 193५ ईओ से स्थापित तेहरान विश्वविद्यालय उच्च शिक्षा का केन्द्र है।
ईरान के नगर
एशिया में राजधानियाँ |
ईरान () या ईरान इस्लामिक गणराज्य (, जम्हूरिए इस्लामीए ईरान) पश्चिमी एशिया में स्थित एक देश है। इसे सन १९३५ तक फ़ारस (पर्शिया) नाम से भी जाना जाता है। इसकी राजधानी तेहरान है और यह देश पश्चिम में इराक़ और तुर्की, उत्तर-पश्चिम में अज़रबैजान और आर्मीनिया, उत्तर में कैस्पियन सागर, उत्तर-पूर्व में तुर्कमेनिस्तान, पूर्व में अफ़ग़ानिस्तान और पाकिस्तान और दक्षिण में फ़ारस की खाड़ी और ओमान की खाड़ी से घिरा है। यहाँ का प्रमुख धर्म इस्लाम है तथा यह क्षेत्र शिया बहुल है।
ईरान दुनिया की सबसे पुरानी सभ्यताओं में से एक है। छठी शताब्दी ईसा पूर्व में साइरस महान ने हख़ामनी साम्राज्य की स्थापना की जो इतिहास के सबसे बड़े साम्राज्यों में से एक बना। चौथी शताब्दी ईसा पूर्व में सिकंदर ने इस साम्राज्य को परास्त कर दिया। यूनानी राज के बाद इस पर पहलवी तथा सासानी साम्राज्यों का राज रहा। अरब मुसलमानों ने सातवीं शताब्दी ईस्वी में इस क्षेत्र पर विजय प्राप्त की और इसका इस्लामीकरण किया। आगे चलके यह इस्लामी संस्कृति और शिक्षा का एक प्रमुख केंद्र बन गया। इसकी कला, साहित्य, दर्शन और वास्तुकला इस्लामी स्वर्ण युग के दौरान इस्लामी दुनिया में और उससे आगे फैल गई। तुर्क और मंगोल शासन के बाद पंद्रहवीं शताब्दी में ईरान फिर से एकजुट हुआ। उन्नीसवीं सदी तक इसने अपनी काफ़ी ज़मीन खो दी थी। १९५३ के तख्तापलट ने निरंकुश शासक मोहम्मद रज़ा पहलवी को और ताकतवर बना दिया जिसने दूरगामी सुधारों की एक श्रृंखला शुरू की। इस्लामी क्रांति के बाद ईरान को १९७९ में इस्लामी गणराज्य घोषित किया गया था।
आज, ईरान एक इस्लामी गणराज्य तथा धर्मतंत्र है। ईरानी सरकार मानवाधिकारों और नागरिक स्वतंत्रता के हनन के लिए, विशेष रूप से महिलाओं के लिए, व्यापक आलोचनाओं को आकर्षित करती है। इसे सुन्नी बहुल सउदी अरब और इज़राइल का विरोधी माना जाता है। इसकी सरकार अधिकांश आधुनिक मध्य पूर्वी संघर्षों में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से शामिल रहती है।
तेहरान, इस्फ़हान, तबरेज़, मशहद इत्यादि इसके कुछ प्रमुख शहर हैं। राजधानी तेहरान में देश की १५ प्रतिशत जनता वास करती है। ईरान की अर्थव्यवस्था मुख्यतः तेल और प्राकृतिक गैस निर्यात पर निर्भर है। फ़ारसी यहाँ की मुख्य भाषा है। फ़ारसी लोगों के बाद अज़रबैजानी, कुर्द और लुर यहाँ की सबसे बड़े जातीय समूह हैं।
ईरान का प्राचीन नाम फ़ारस था। इस नाम की उत्पत्ति के पीछे इसके साम्राज्य का इतिहास शामिल है। बाबिल के समय (४०००-७०० ईसा पूर्व) तक पार्स प्रान्त इन साम्राज्यों के अधीन था। जब ५५० ईस्वी में कुरोश ने पार्स की सत्ता स्थापित की तो उसके बाद मिस्र से लेकर आधुनिक अफ़गानिस्तान तक और बुखारा से फ़ारस की खाड़ी तक ये साम्राज्य फैल गया। इस साम्राज्य के तहत मिस्री, अरब, यूनानी, आर्य (ईरान), यहूदी तथा अन्य कई नस्ल के लोग थे। अगर सबों ने नहीं तो कम से कम यूनानियों ने इन्हें, इनकी राजधानी पार्स के नाम पर, पारसी कहना आरम्भ किया। इसी के नाम पर इसे पारसी साम्राज्य कहा जाने लगा। यहाँ का समुदाय प्राचीन काल में हिन्दुओ की तरह सूर्य पूजक था। यहाँ हवन भी हुआ करते थे लेकिन सातवीं सदी में जब इस्लाम धर्म आया तो अरबों का प्रभुत्व ईरानी क्षेत्र पर हो गया। अरबों की वर्णमाला में (प) उच्चारण नहीं होता है। उन्होंने इसे पारस के बदले फ़ारस कहना चालू किया और भाषा पारसी के बदले फ़ारसी बन गई। यह नाम फ़ारसी भाषा के बोलने वालों के लिए प्रयोग किया जाता था।
ईरान (या एरान) शब्द आर्य मूल के लोगों के लिए प्रयुक्त शब्द एर्यनम से आया है, जिसका अर्थ है आर्यों की भूमि। हख़ामनी शासकों के समय भी आर्यम तथा एइरयम शब्दों का प्रयोग हुआ है। ईरानी स्रोतों में यह शब्द सबसे पहले अवेस्ता में मिलता है। अवेस्ता ईरान में आर्यों के आगमन (दूसरी सदी ईसापूर्व) के बाद लिखा गया ग्रंथ माना जाता है। इसमें आर्यों तथा अनार्यों के लिए कई छन्द लिखे हैं और इसकी पंक्तियाँ ऋग्वेद से मेल खाती है। लगभग इसी समय भारत में भी आर्यों का आगमन हुआ था। पहलवी शासकों ने एरान तथा आर्यन दोनों शब्दों का प्रयोग किया है। बाहरी दुनिया के लिए १९३५ तक नाम फ़ारस था। सन् १९३५ में रज़ाशाह पहलवी के नवीनीकरण कार्यक्रमों के तहत देश का नाम बदलकर फ़ारस से ईरान कर दिया गया थ।
भौगोलिक स्थिति और विभाग
ईरान को पारम्परिक रूप से मध्यपूर्व का अंग माना जाता है क्योंकि ऐतिहासिक रूप से यह मध्यपूर्व के अन्य देशों से जुड़ा रहा है। यह अरब सागर के उत्तर तथा कैस्पियन सागर के बीच स्थित है और इसका क्षेत्रफल १६,४८,००० वर्ग किलोमीटर है जो भारत के कुल क्षेत्रफल का लगभग आधा है। इसकी कुल स्थलसीमा ५४४० किलोमीटर है और यह इराक(१४५८ कि॰मी॰), अर्मेनिया(३५), तुर्की(४९९), अज़रबैजान(४३२), अफग़ानिस्तान(९३६) तथा पाकिस्तान (९०६ कि॰मी॰) के बीच स्थित है। कैस्पियन सागर के इसकी सीमा सगभग ७४० किलोमीटर लम्बी है। क्षेत्रफल की दृष्टि से यह विश्व में १८वें नम्बर पर आता है। यहाँ का भूतल मुख्यतः पठारी, पहाड़ी और मरुस्थलीय है। वार्षिक वर्षा २५ सेमी होती है।
समुद्र तल से तुलना करने पर ईरान का सबसे निचला स्थान उत्तर में कैस्पियन सागर का तट आता है जो २८ मीटर की उचाई पर स्थित है जबकि कूह-ए-दमवन्द जो कैस्पियन तट से सिर्फ ७० किलोमीटर दक्षिण में है, सबसे ऊँचा शिखर है। इसकी समुद्रतल से ऊँचाई ५,६१० मीटर है।
ईरान तीस प्रान्तों में बँटा है। इनमें से मुख्य क्षेत्रों का विवरण इस प्रकार है -
सिस्तान और बलुचिस्तान
माना जाता है कि ईरान में पहले पुरापाषाणयुग कालीन लोग रहते थे। यहाँ पर मानव निवास एक लाख साल पुराना हो सकता है। लगभग ५००० ईसापूर्व से खेती आरंभ हो गई थी। मेसोपोटामिया की सभ्यता के स्थल के पूर्व में मानव बस्तियों के होने के प्रमाण मिले हैं। ईरानी लोग (आर्य) लगभग २००० ईसापूर्व के आसपास उत्तर तथा पूरब की दिशा से आए। इन्होंने यहाँ के लोगों के साथ एक मिश्रित संस्कृति की आधारशिला रखी जिससे ईरान को उसकी पहचान मिली। आधिनुक ईरान इसी संस्कृति पर विकसित हुआ। ये यायावर लोग ईरानी भाषा बोलते थे और धीरे धीरे इन्होंने कृषि करना आरंभ किया।
आर्यों का कई शाखाए ईरान (तथा अन्य देशों तथा क्षेत्रों) में आई। इनमें से कुछ मिदि, कुछ पार्थियन, कुछ फारसी, कुछ सोगदी तो कुछ अन्य नामों से जाने गए। मीदी तथा फारसियों का ज़िक्र असीरियाई स्रोतों में ८३६ ईसापूर्व के आसपास मिलता है। लगभग यही समय ज़रथुश्त्र (ज़रदोश्त या ज़ोरोएस्टर के नाम से भी प्रसिद्ध) का काल माना जाता है। हालाँकि कई लोगों तथा ईरानी लोककथाओं के अनुसार ज़रदोश्त बस एक मिथक था कोई वास्तविक आदमी नहीं। पर चाहे जो हो उसी समय के आसपास उसके धर्म का प्रचार उस पूरे प्रदेश में हुआ।
असीरिया के शाह ने लगभग ७२० ईसापूर्व के आसपास इज़रायल पर अधिपत्य जमा लिया। इसी समय कई यहूदियों को वहाँ से हटा कर मीदि प्रदेशों में लाकर बसाया गया। ५३० ईसापूर्व के आसपास बेबीलोन फ़ारसी नियंत्रण में आ गया। उसी समय कई यहूदी वापस इसरायल लौट गए। इस दोरान जो यहूदी मीदी में रहे उनपर जरदोश्त के धर्म का बहुत असर पड़ा और इसके बाद यहूदी धर्म में काफ़ी परिवर्तन आया।
इस समय तक फारस मीदि साम्राज्य का अंग और सहायक रहा था। लेकिन ईसापूर्व ५४९ के आसपास एक फारसी राजकुमार सायरस (आधुनिक फ़ारसी में कुरोश) ने मीदी के राजा के खिलाफ़ विद्रोह कर दिया। उसने मीदी राजा एस्टिएज़ को पदच्युत कर राजधानी एक्बताना (आधुनिक हमादान) पर नियन्त्रण कर लिया। उसने फारस में हखामनी वंश की नींव रखी और मीदिया और फ़ारस के रिश्तों को पलट दिया। अब फ़ारस सत्ता का केन्द्र और मीदिया उसका सहायक बन गया। पर कुरोश यहाँ नहीं रुका। उसने लीडिया, एशिया माइनर (तुर्की) के प्रदेशों पर भी अधिकार कर लिया। उसका साम्राज्य तुर्की के पश्चिमी तट (जहाँ पर उसके दुश्मन ग्रीक थे) से लेकर अफ़गानिस्तान तक फैल गया था। उसके पुत्र कम्बोजिया (केम्बैसेस) ने साम्राज्य को मिस्र तक फैला दिया। इसके बाद कई विद्रोह हुए और फिर दारा प्रथम ने सत्ता पर कब्जा कर लिया। उसने धार्मिक सहिष्णुता का मार्ग अपनाया और यहूदियों को जेरुशलम लौटने और अपना मन्दिर फ़िर से बनाने की इजाज़त दी। यूनानी इतिहासकार हेरोडोटस के अनुसार दारा ने युवाओं का समर्थन प्राप्त करने की पूरी कोशिश की। उसने सायरस या केम्बैसेस की तरह कोई खास सैनिक सफलता तो अर्जित नहीं की पर उसने ५१२ इसापूर्व के आसपास य़ूरोप में अपना सैन्य अभियान चलाया था। डेरियस के काल में कई सुधार हुए, जैसे उसने शाही सिक्का चलाया और शाहंशाह (राजाओं के राजा) की उपाधि धारण की। उसने अपनी प्रजा पर पारसी संस्कृति थोपने का प्रयास नहीं किया जो उसकी सहिष्णुता को दिखाता है। अपने विशालकाय साम्राज्य की महिमा के लिए दारुश ने पर्सेलोलिस (तख़्त-ए-जमशेद) का भी निर्माण करवाया।
उसके बाद पुत्र खशायर्श (क्ज़ेरेक्सेस) शासक बना जिसे उसके ग्रीक अभियानों के लिए जाना जाता है। उसने एथेन्स तथा स्पार्टा के राजा को हराया पर बाद में उसे सलामिस के पास हार का मुँह देखना पड़ा, जिसके बाद उसकी सेना बिखर गई। क्ज़ेरेक्सेस के पुत्र अर्तेक्ज़ेरेक्सेस ने ४६५ ईसा पूर्व में गद्दी सम्हाली। उसके बाद के प्रमुश शासकों में अर्तेक्ज़ेरेक्सेस द्वितीय, अर्तेक्ज़ेरेक्सेस तृतीय और उसके बाद दारा तृतीय का नाम आता है। दारा तृतीय के समय तक (३३६ ईसा पूर्व) फ़ारसी सेना काफ़ी संगठित हो गी थी।
इसी समय मेसीडोनिया में सिकन्दर का प्रभाव बढ़ रहा था। ३३४ ईसापूर्व में सिकन्दर ने एशिया माईनर (तुर्की के तटीय प्रदेश) पर धावा बोल दिया। दारा को भूमध्य सागर के तट पर इसुस में हार का मुँह देखना पड़ा। इसके बाद सिकन्दर ने तीन बार दारा को हराया। सिकन्दर इसापूर्व ३३० में पर्सेपोलिस (तख़्त-ए-जमशेद) आया और उसके फतह के बाद उसने शहर को जला देने का आदेश दिया। सिकन्दर ने ३२६ इस्वी में भारत पर आक्रमण किया और फिर वो वापस लौट गया। ३२३ इसापूर्व के आसपास, बेबीलोन में उसकी मृत्यु हो गई। उसकी मृत्यु के बाद उसके जीते फारसी साम्राज्य को इसके सेनापतियों ने आपस में विभाजित कर लिया।
सिकन्दर के सबसे काबिल सेनापतियों में से एक सेल्युकस का नियन्त्रण मेसोपोटामिया तथा इरानी पठारी क्षेत्रों पर था। लेकिन इसी समय से उत्तर पूर्व में पार्थियों का विद्रोह आरम्भ हो गया था। पार्थियनों ने हखामनी शासकों की भी नाक में दम कर रखा था। मित्राडेट्स ने ईसापूर्व १२३ से ईसापूर्व ८७ तक अपेक्षाकृत स्थायित्व से शासन किया। अगले कुछ सालों तक शासन की बागडोर तो पार्थियनों के हाथ ही रही पर उनका नेतृत्व और समस्त ईरानी क्षेत्रों पर उनकी पकड़ ढीली ही रही।
पर दूसरी सदी के बाद से सासानी लोग, जो प्राचीन हख़ामनी वंश से अपने को जोड़ते थे और उन्हीं प्रदेश (आज का फ़ार्स प्रंत) से आए थे, की शक्ति में उत्तरोत्तर वृद्धि हुई। उन्होंने रोमन साम्राज्य को चुनौती दी और कई सालों तक उनपर आक्रमण करते रहे। सन् २४१ में शापुर ने रोमनों को मिसिको के युद्ध में हराया। २४४ इस्वी तक आर्मेनिया फारसी नियन्त्रण में आ गया। इसके अलावा भी पार्थियनों ने रोमनों को कई जगहों पर परेशान किया। सन् २७३ में शापुर की मृत्यु हो गई। सन् २८३ में रोमनों ने फारसी क्षेत्रों पर फिर से आक्रमण कर दिया। इसके फलस्वरूप आर्मेनिया के दो भाग हो गए - रोमन नियंत्रण वाले और फारसी नियंत्रण वाले। शापुर के पुत्रों को और भी समझौते करने पड़े और कुछ और क्षेत्र रोमनों के नियंत्रण में चले गए। सन् ३१० में शापुर द्वितीय गद्दी पर युवावस्था में बैठा। उसने ३७९ इस्वी तक शासन किया। उसका शासन अपेक्षाकृत शान्त रहा। उसने धार्मिक सहिष्णुता की नीति अपनाई। उसके उत्तराधिकारियों ने वही शान्ति पूर्ण विदेश नीति अपनाई पर उनमें सैन्य सबलता की कमी रही। आर्दशिर द्वितीय, शापुर तृतीय तथा बहराम चतुर्थ सभी संदेहजनक परिस्थितियों में मारे गए। उनके वारिस यज़्देगर्द ने रोमनों के साथ शान्ति बनाए रखा। उसके शासनकाल में रोमनों के साथ सम्बंध इतने शांतिपूर्ण हो गए कि पूर्वी रोमन साम्राज्य के शासक अर्केडियस ने यज़्देगर्द को अपने बेटे का अभिभावक बना दिया। उसके बाद बहरम पंचम शासक बना जो जंगली जानवरों के शिकार का शौकिन था। वो ४३८ इस्वी के आसपास एक जंगली खेल देखते वक्त लापता हो गया, जिसके बाद उसके बारे में कुछ पता नहीं चल सका।
इसके बाद की अराजकता में कावद प्रथम ४८८ इस्वी में शासक बना। इसके बाद खुसरो (५३१-५७९), होरमुज़्द चतुर्थ (५७९-५८९), खुसरो द्वितीय (४९० - ६२७) तथा यज्देगर्द तृतीय का शासन आया। जब यज़्देगर्द ने सत्ता सम्हाली, तब वो केवल ८ साल का था। इसी समय अरब, मुहम्मद साहब के नेतृत्व में काफी शक्तिशाली हो गए थे। सन् ६३४ में उन्होंने ग़ज़ा के निकट बेजेन्टाइनों को एक निर्णायक युद्ध में हरा दिया। फारसी साम्राज्य पर भी उन्होंने आक्रमण किए थे पर वे उतने सफल नहीं रहे थे। सन् ६४१ में उन्होने हमादान के निकट यज़्देगर्द को हरा दिया जिसके बाद वो पूरब की तरफ सहायता याचना के लिए भागा पर उसकी मृत्यु मर्व में सन् ६५१ में उसके ही लोगों द्वारा हुई। इसके बाद अरबों का प्रभुत्व बढ़ता गया। उन्होंने ६५४ में खोरासान पर अधिकार कर लिया और ७०७ इस्वी तक बाल्ख़।
मुहम्मद साहब की मृत्यु के उपरान्त उनके वारिस को ख़लीफा कहा जाता था, जो इस्लाम का प्रमुख माना जाता था। चौथे खलीफा (सुन्नी समुदाय के अनुसार) हज़रत अली (शिया समुदाय इन्हें पहला इमाम मानता है), मुहम्मद साहब के फरीक थे और उनकी पुत्री फ़ातिमा के पति। पर उनके खिलाफत को चुनौती दी गई और विद्रोह भी हुए। सन् ६६१ में अली की हत्या कर उन्हें शहीद कर दिया गया। इसके बाद उम्मयदों का प्रभुत्व इस्लाम पर हो गया। सन् ६८० में करबला में हजरत अली के दूसरे पुत्र इमाम हुसैन ने उम्मयदों के अधर्म की नीति का समर्थन करने से इनकार कर दिया। उन्होंने बयत नहीं की। जिसे तत्कालीन शासक ने बगावत का नाम देते हुए उनको एक युद्ध में कत्ल कर शहीद कर दिया। इसी दिन की याद में शिया मुसलमान गम में मुहर्रम मनाते हैं। इस समय तक इस्लाम दो खेमे में बट गया था - उम्मयदों का खेमा और अली के खेमा। ७४० में उम्मयदों को तुर्कों से मुँह की खानी पड़ी। उसी साल एक फारसी परिवर्तित - अबू मुस्लिम - ने मुहम्मद साहब के वंश के नाम पर उम्मयदों के खिलाफ एक बड़ा जनमानस तैयार किया। उन्होंने सन् ७४९-५० के बीच उम्मयदों को हरा दिया और एक नया खलीफ़ा घोषित किया - अबुल अब्बास। अबुल अब्बास अली और हुसैन का वंशज तो नहीं पर मुहम्मद साहब के एक और फरीक का वंशज था। उससे अबु मुस्लिम की बढ़ती लोकप्रियता देखी नहीं गई और उसको ७५५ इस्वी में फाँसी पर लटका दिया। इस घटना को शिया इस्लाम में एक महत्वपूर्ण दिन माना जाता है क्योंकि एक बार फिर अली के समर्थकों को हाशिये पर ला खड़ा किया गया था। अबुल अब्बास के वंशजों ने कई सदियों तक राज किया। उसका वंश अब्बासी (अब्बासिद) वंश कहलाया और उन्होंने अपनी राजदानी बगदाद में स्थापित की। तेरहवी सदी में मंगोलों के आक्रमण के बाद बगदाद का पतन हो गया और ईरान में फिर से कुछ सालों के लिए राजनैतिक अराजकता छाई रही।
अब्बासिद काल में ईरान की प्रमुख घटनाओं में से एक थी सूफी आन्दोलन का विकास। सूफी वे लोग थे जो धार्मिक कट्टरता के खिलाफ थे और सरल जीवन पसन्द करते थे। इस आन्दोलन ने फ़ारसी भाषा में नामचीन कवियों को जन्म दिया। रुदाकी, फिरदौसी, उमर खय्याम, नासिर-ए-खुसरो, रुमी, इराकी, सादी, हफीज आदि उस काल के प्रसिद्ध कवि हुए। इस काल की फारसी कविता को कई जगहों पर विश्व की सबसे बेहतरीन काव्य कहा गया है। इनमें से कई कवि सूफी विचारदारा से ओतप्रोत थे और अब्बासी शासन के अलावा कईयों को मंगोलों का जुल्म भी सहना पड़ा था।
पन्द्रहवीं सदी में जब मंगोलों की शक्ति क्षीण होने लगी तब ईरान के उत्तर पश्चिम में तुर्क घुड़सवारों से लैश एक सेना का उदय हुआ। इसके मूल के बारे में मतभेद है पर उन्होंने सफावी वंश की स्थापना की। वे सूफी बन गए और आने वाली कई सदियों तक उन्होंने इरानी भूभाग और फ़ारस के प्रभुत्व वाले इलाकों पर राज किया। इस समय सूफी इस्लाम बहुत फला फूला। १७२० के अफगान और पूर्वी विद्रोहों के बाद धीरे-धीरे साफावियों का पतन हो गया। १७२९ में नादिर कोली ने अफ़गानों के प्रभुत्व को कम किया और शाह बन बैठा। वह एक बहुत बड़ा विजेता था और उसने भारत पर भी सन् १७३९ में आक्रमण किया और भारी मात्रा में धन सम्पदा लूटकर वापस आ गया। भारत से हासिल की गई चीजों में कोहिनूर हीरा भी शामिल था। पर उसके बाद क़जार वंश का शासन आया जिसके काल में यूरोपीय प्रभुत्व बढ़ गया। उत्तर से रूस, पश्चिम से फ़्रांस तथा पूरब से ब्रिटेन की निगाहें फारस पर पड़ गईं। सन् १९०५-१९११ में यूरोपीय प्रभाव बढ़ जाने और शाह की निष्क्रियता के खिलाफ एक जनान्दोलन हुआ। ईरान के तेल क्षेत्रों को लेकर तनाव बना रहा। प्रथम विश्वयुद्ध में तुर्की के पराजित होने के बाद ईरान को भी उसका फल भुगतना पड़ा। १९३० और ४० के दशक में रज़ा शाह पहलवी ने सुधारों की पहल की। १९७९ में इस्लामिक क्रान्ति हुई और ईरान एक इस्लामिक गणतन्त्र घोषित कर दिया गया। इसके बाद अयातोल्ला ख़ुमैनी, जिन्हें शाह ने देश निकाला दे दिया था, ईरान के प्रथम राष्ट्रपति बने। इराक़ के साथ युद्ध होने से देश की स्थिति खराब हो गई।
रजा शाह पहलवी ने १९३० के दशक में इरान का आधुनिकीकरण प्रारम्भ किया। पर वो अपने प्रेरणस्रोत तुर्की के कमाल पाशा की तरह सफल नहीं रह सका। उसने शिक्षा के लिए अभूतपूर्व बन्दोबस्त किए तथा सेना को सुगठित किया। उसने ईरान की सम्प्रभुता को बरकरार रखते हुए ब्रिटेन और रूस के सन्तुलित प्रभावों को बनाए रखने की कोशिश की पर द्वितीय विश्वयुद्ध के ठीक पहले जर्मनी के साथ उसके बढ़ते ताल्लुकात से ब्रिटेन और रूस को गम्भीर चिन्ता हुई। दोनों देशों ने रज़ा पहलवी पर दबाब बनाया और बाद में उसे उपने बेटे मोहम्मद रज़ा के पक्ष में गद्दी छोड़नी पड़ी। मोहम्मद रज़ा के प्रधानमन्त्री मोहम्मद मोसद्देक़ को भी इस्तीफ़ा देना पड़ा।
ईरानी इस्लामिक क्रान्ति
बीसवीं सदी के ईरान की सबसे महत्वपूर्ण घटना थी ईरान की इस्लामिक क्रान्ति। शहरों में तेल के पैसों की समृद्धि और गाँवों में गरीबी; सत्तर के दशक का सूखा और शाह द्वारा यूरोपीय तथा बाकी देशों के प्रतिनिधियों को दिए गए भोज जिसमें अकूत पैसा खर्च किया गया था ने ईरान की गरीब जनता को शाह के खिलाफ़ भड़काया। इस्लाम में निहित समानता को अपना नारा बनाकर लोगों ने शाह के शासन का विरोध करना आरम्भ किया। आधुनिकीकरण के पक्षधर शाह को गरीब लोग पश्चिमी देशों का पिट्ठू के रूप में देखने लगे। १९७९ में अभूतपूर्व प्रदर्शन हुए जिसमें हिसंक प्रदर्शनों की संख्या बढ़ती गई। अमेरिकी दूतावास को घेर लिया गया और इसके कर्मचारियों को बन्धक बना लिया गया। शाह के समर्थकों तथा संस्थानों में हिसक झड़पें हुईं और इसके फलस्वरूप १९८९ में फलस्वरूप पहलवी वंश का पतन हो गया और ईरान एक इस्लामिक गणराज्य बना जिसका शीर्ष नेता एक धार्मिक मौलाना होता था। अयातोल्ला खोमैनी को शीर्ष नेता का पद मिला और ईरान ने इस्लामिक में अपनी स्थिति मजबूत की। उनका देहान्त १९८९ में हुआ। इसके बाद से ईरान में विदेशी प्रभुत्व लगभग समाप्त हो गया।
ईरान में भिन्न-भिन्न जाति के लोग रहते हैं। यहाँ ७० प्रतिशत जनता भारोपीय जाति की है और हिन्द-ईरानी भाषाएँ बोलती है। जातिगत आँकड़ो को देखें तो ५४ प्रतिशत फारसी, २४ प्रतिशत अज़री, मज़न्दरानी और गरकी ८ प्रतिशत, कुर्द ७ प्रतिशत, अरबी ३ प्रतिशत, बलोची, लूरी और तुर्कमेन २, प्रतिशत (प्रत्येक) तथा कई अन्य जातिय़ाँ शामिल हैं।
सात करोड़ की जनसंख्या वाला ईरान विश्व में शरणागतों के सबसे बड़े देशों में से एक है, जहाँ इराक़ तथा अफ़गानिस्तान से कई शरणार्थियों ने अपने देशों में चल रहे युद्धों के कारण शरण ले रखी है।
ईरान का प्राचीन नाम पार्स (फ़ारस) था और पार्स के रहने वाले लोग पारसी कहलाए, जो ज़रथुस्त्र के अनुयायी थे और सूर्य व अग्नि पूजक थे। सातवीं शताब्दी में अरबों ने पार्स पर विजय पाई और वहाँ जबरन इस्लाम का प्रसार हुआ। वहां की जनता को जबर से इस्लाम में मिलाया जा रहा था इसलिए जो पारसी इस्लाम अपना गए वो आगे चलकर पारसी कहलाये व उत्पीड़न से बचने के लिए बहुत से पारसी भारत आ गए। वे अपना मूल धर्म (सूर्य पूजन) नहीं छोड़ना चाहते थे| आज भी दक्षिण एशियाई देश भारत में पारसी मन्दिर देखने को मिलते हैं |
इस्लाम में ईरान का एक विशेष स्थान है। सातवीं सदी से पहले यहाँ जरथुस्ट्र धर्म के अलावा कई और धर्मों तथा मतों के अनुयायी थे। अरबों द्वारा ईरान विजय (फ़ारस) के बाद यहाँ शिया इस्लाम का उदय हुआ। आज ईरान के अलावा भारत, दक्षिणी इराक, अफ़गानिस्तान, अजरबैजान तथा पाकिस्तान में भी शिया मुस्लिमों की आबादी निवास करती है। लगभग सम्पूर्ण अरब, मिस्र, तुर्की, उत्तरी तथा पश्चिमी इराक, लेबनॉन को छोड़कर लगभग सम्पूर्ण मध्यपूर्व, अफगानिस्तान, पाकिस्तान, उज्बेकिस्तान, ताज़िकिस्तान तुर्केमेनिस्तान तथा भारतोत्तर पूर्वी एशिया के मुसलमान मुख्यतः सुन्नी हैं।
ईरान की अर्थव्यवस्था तेल और प्राकृतिक गैस से संबंधित उद्योगों तथा कृषि पर आधारित है। सन् २००६ में ईरान के बज़ट का ४५ प्रतिशत तेल तथा प्राकृतिक गैस से मिले रकम से आया और ३१ प्रतिशत करों और चुंगियों से। ईरान के पास क़रीब ७० अरब अमेरिकी डॉलर रिज़र्व में है और इसकी सालाना सकल घरेलू उत्पाद २०६ अरब अमेरिकी डॉलर थी। इसकी वार्षिक विकास दर ६ प्रतिशत है। संयुक्त राष्ट्र के मुताबिक़ ईरान एक अर्ध-विकसित अर्थव्यवस्था है। सेवाक्षेत्र का योगदान सकल घरेलू उत्पाद में सबसे ज्यादा है। देश के रोज़गार में १.८ प्रतिशत रोजगार पर्यटन के क्षेत्र में है। वर्ष २००४ में ईरान में १६,५९,००० पर्यटक आए थे। ईरान का पर्यटन से होने वाली आय वाले देशों की सूची में ८9वाँ स्थान है पर इसका नाम सबसे ज्यादा पर्यटकों की दृष्टि से १0वें स्थान पर आता है।
प्राकृतिक गैसों के रिज़र्व (भंडार) की दृष्टि से ईरान विश्व का सबसे बड़ा देश है। तेल उत्पादक देशों के संगठन ओपेक का दूसरा सबसे बड़ा निर्यातक देश है।ईरान (लिस्टनी/र्न /, भी/र्न /; [ १०] [११] फ़ारसी: इर्न [इन] (के बारे में यह ध्वनि सुनो)), भी रूप में फारस [१२] (प्र /), [१३] ईरान के इस्लामी गणराज्य की आधिकारिक तौर पर जाना जाता (फारसी: जोम्हुरी-तु एस्ल्मी-तु इर्न (के बारे में यह ध्वनि सुनो)), [१४] पश्चिमी एशिया में एक संप्रभु राज्य है। [१५] [१६] यह पश्चिमोत्तर आर्मेनिया, आर्त्सक के वास्तविक स्वतंत्र गणराज्य, अज़रबैजान और एक्स्क्लावे नखचीवान के द्वारा बॉर्डरड है; कैस्पियन सागर से उत्तर करने के लिए; तुर्कमेनिस्तान ने पूर्वोत्तर के लिए; करने के लिए पूर्वी अफगानिस्तान और पाकिस्तान द्वारा; फारस की खाड़ी और ओमान की खाड़ी से दक्षिण करने के लिए; और तुर्की और इराक द्वारा पश्चिम। (मार्च २०१७) के रूप में पर ७९.९२ लाख निवासियों के साथ, ईरान दुनिया के १८-सबसे-अधिक आबादी वाला देश है। [१७] १,६४८,१95 क्म२ (६३६,37२ वर्ग मील), का एक भूमि क्षेत्र शामिल हैं यह दूसरा सबसे बड़ा देश मध्य पूर्व में और १८ वीं दुनिया में सबसे बड़ा है। यह दोनों एक कैस्पियन सागर और हिंद महासागर तट से केवल देश है। मध्य देश की महान जियोस्ट्रटेजिक महत्त्व के यूरेशिया और पश्चिमी एशिया, और होर्मुज के लिए अपनी निकटता में स्थान बनाते। [१८] तेहरान देश की राजधानी और सबसे बड़ा शहर है, साथ ही इसके प्रमुख आर्थिक और सांस्कृतिक केंद्र है।
ईरान है दुनिया की सबसे पुरानी सभ्यताओं, [१९] [२०] ४ सहस्राब्दी ई. पू. में इलामाइट राज्यों के गठन के साथ शुरुआत के एक घर। यह पहले ईरानी मीदि साम्राज्य द्वारा ७ वीं सदी ईसा पूर्व में, [२१] एकीकृत और हख़ामनी साम्राज्य महान सिंधु घाटी करने के लिए, दुनिया के सबसे बड़े साम्राज्य बनने पूर्वी यूरोप से खींच ६ वीं सदी ई. पू., में अभी तक देखा था साइरस द्वारा की स्थापना के दौरान इसकी सबसे बड़ी सीमा तक पहुँच गया था। [२२] ईरानी दायरे के लिए अलेक्जेंडर महान ४ शताब्दी ईसा पूर्व में गिर गया, लेकिन अंतिम ससानी साम्राज्य, जो अगले चार सदियों के लिए एक अग्रणी विश्व शक्ति बन गया के बाद साम्राज्य के रूप में कुछ ही समय बाद रीम्रगेड. [२३] [2४]
अरब मुसलमानों साम्राज्य ७ शताब्दी ईसा में, मोटे तौर पर स्वदेशी धर्मों के पारसी धर्म और इस्लाम के साथ मानी थापन पर विजय प्राप्त की। कला और विज्ञान में कई प्रभावशाली आंकड़े उत्पादन ईरान इस्लामी स्वर्ण युग और उसके बाद, करने के लिए प्रमुख योगदान दिया। दो शताब्दियों के बाद, विभिन्न देशी मुस्लिम राजवंशों की अवधि, जो बाद में तुर्कों और मंगोलों द्वारा विजय प्राप्त थे शुरू कर दिया। १५ वीं सदी में सफाविड के उदय का एक एकीकृत ईरानी राज्य और जो शिया इस्लाम, ईरानी और मुस्लिम इतिहास में एक मोड़ चिह्नित करने के लिए देश के रूपांतरण के बाद राष्ट्रीय पहचान, [४] के रिस्टैबलिशमेंट करने के लिए नेतृत्व किया। [५] [2५] द्वारा १८ वीं सदी, नादिर शाह, के तहत ईरान संक्षेप में क्या यकीनन उस समय सबसे शक्तिशाली साम्राज्य था पास। [२६] १९ वीं सदी में रूसी साम्राज्य के साथ विरोध करता महत्वपूर्ण क्षेत्रीय नुकसान के लिए नेतृत्व किया। [2७] [२८] लोकप्रिय अशांति में संवैधानिक क्रांति १९06, जो एक संवैधानिक राजशाही और देश का पहला विधानमंडल की स्थापना का समापन हुआ। यूनाइटेड किंगडम और संयुक्त राज्य अमेरिका में १९५3, ईरान द्वारा धीरे-धीरे उकसाया एक तख्तापलट के बाद पश्चिमी देशों के साथ बारीकी से गठबंधन बन गया, और तेजी से निरंकुश हो गया। [२९] विदेशी प्रभाव और राजनीतिक दमन एक धर्म द्वारा १९७9 क्रांति, जो संसदीय लोकतंत्र के तत्त्व भी शामिल है जो एक राजनीतिक प्रणाली संचालित और निगरानी की एक इस्लामी गणराज्य, [३०] की स्थापना के बाद के नेतृत्व के खिलाफ असंतोष बढ़ रहा एक निरंकुश 'सर्वोच्च नेता' नियंत्रित होता.
ईरान संयुक्त राष्ट्र, पर्यावरण, नम, ओ, और ओपेक के एक संस्थापक सदस्य है। यह एक प्रमुख क्षेत्रीय और मध्य शक्ति, है और जीवाश्म ईंधन, जो दुनिया का सबसे बड़ा प्राकृतिक गैस की आपूर्ति और चौथा सबसे बड़ा तेल सिद्ध शामिल हैं-के अपने बड़े भंडार सुरक्षित रखता है अंतरराष्ट्रीय ऊर्जा सुरक्षा और विश्व अर्थव्यवस्था में काफी प्रभाव डालती।
देश की समृद्ध सांस्कृतिक विरासत भाग में अपने २१ यूनेस्को विश्व धरोहर, दुनिया में तीसरी सबसे बड़ी संख्या एशिया में और ११ वीं सबसे बड़ी द्वारा परिलक्षित होता है। [३७] ईरान कई जातीय और भाषायी समूहों, सबसे बड़ा होने के नाते फारसियों (६१ प्रतिशत), जिसमें एक बहुसांस्कृतिक देश है एजेरिस (१६ %), कुर्द (१० %), और लुरस (६ %). [ 3६]
सामग्री [छुपाने के]
२.२ शास्त्रीय पुरातनता
२.३ मध्ययुगीन काल
२.४ प्रारंभिक आधुनिक काल
१९४० के दशक के लिए १८०० से २.५
२.६ समकालीन युग
३.३ क्षेत्र, प्रांत और शहर
४ सरकार और राजनीति
४.३ इस्लामी परामर्शक सभा (संसद)
४.५ विदेश संबंध
६ शिक्षा, विज्ञान और प्रौद्योगिकी
७.२ जातीय समूह
८.५ पौराणिक कथाओं
८.९ सिनेमा और एनिमेशन
९ यह भी देखें
१२ ग्रंथ सूची
१३ बाह्य लिंक
मुख्य लेख: ईरान का नाम
शब्द ईरान निकला
यह भी देखिए
"चलते तो अच्छा था" ईरान और आज़रबाईजान के यात्रा संस्मरण - असग़र वजाहत
एशिया के देश |
सिंगपुर, आधिकारिक रूप से सिंगपुर गणराज्य, सामुद्रिक दक्षिण पूर्व एशिया में एक सम्प्रभु द्वीप देश और नगर-राज्य है। यह भूमध्य रेखा के उत्तर में लगभग एक डिग्री अक्षांश (१३७ किलोमीटर) पर स्थित है, मलय प्रायद्वीप के दक्षिणी सिरे से दूर, पश्चिम में मलक्का जलसन्धि, दक्षिण में सिंगपुर जलसन्धि, पूर्व में दक्षिण चीन सागर, और उत्तर में जोहोर जलसन्धि। देश का क्षेत्र एक मुख्य द्वीप, ६३ उपग्रह द्वीपों, और एक बाहरी द्वीपसमूह से बना है। व्यापक भूम्युद्धार परियोजनाओं के परिणामस्वरूप देश की स्वतंत्रता के बाद से इनका संयुक्त क्षेत्र २५% बढ़ गया है। इसका विश्व में तृतीय सबसे अधिक जनसंख्या घनत्व है। बहुसांस्कृतिक आबादी के साथ और राष्ट्र के भीतर प्रमुख जातीय समूहों की सांस्कृतिक पहचान का सम्मान करने की आवश्यकता को पहचानने के साथ, सिंगपुर की चार आधिकारिक भाषाएँ हैं: अंग्रेज़ी, मलय, मन्दारिन और तमिल। अंग्रेजी भाषा सम्पर्क भाषा है और कई सार्वजनिक सेवाएँ केवल अंग्रेज़ी में उपलब्ध हैं। बहुजातीयवाद संविधान में निहित है और शिक्षा, आवास और राजनीति में राष्ट्रीय नीतियों को आकार देना जारी रखता है।
सिंगपुर का इतिहास न्यूनतम एक सहस्राब्दी पहले का है, एक सामुद्रिक जहाजान्तरण रहा है जिसे तेमासेक के रूप में जाना जाता है और बाद में कई सामुद्रिक साम्राज्यों के एक प्रमुख घटक के रूप में जाना जाता है। इसका समकालीन युग १८१९ में शुरू हुआ जब स्टैम्फ़ोर्ड रैफ़ल्स ने सिंगपुर को ब्रिटिश साम्राज्य के एक पण्यालय केन्द्र स्थान के रूप में स्थापित किया। १८६७ में, दक्षिण पूर्व एशिया में उपनिवेशों को पुनर्गठित किया गया और जलसन्धि उपनिवेशों के भागों के रूप में सिंगपुर ब्रिटेन के सीधे नियन्त्रण में आ गया। द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान, १९४२ में जापान द्वारा सिंगपुर पर कब्जा कर लिया गया था, और १९४५ में जापान के आत्मसमर्पण के पश्चात् एक अलग क्राउन कॉलोनी के रूप में ब्रिटिश नियन्त्रण में वापस आ गया। सिंगपुर ने १९५९ में स्व-शासन प्राप्त किया और १९६३ में मलाया के साथ, उत्तर बोर्नियो और सरवाक मलयसिया के नए संघ का भाग बन गया।। वैचारिक मतभेद, विशेष रूप से ली कुआन याउ के नेतृत्व में समतावादी "मलयीय मलयसिया" राजनैतिक विचारधारा के कथित अतिक्रमण ने मलयसिया के अन्य घटक संस्थाओं में - भूमिपुत्र और केतुआनन मेलायू की नीतियों के कथित खर्च पर - अंततः सिंगपुर से निष्कासन का नेतृत्व किया। संघ दो साल बाद; १९६५ में सिंगपुर एक स्वतंत्र सम्प्रभु देश बन गया।
दक्षिण-पूर्व एशिया में, निकोबार द्वीप समूह से लगभग १५०० कि॰मी॰ दूर एक छोटा, सुंदर व विकसित देश सिंगापुर पिछले बीस वर्षों से पर्यटन व व्यापार के एक प्रमुख केंद्र के रूप में उभरा है। आधुनिक सिंगापुर की स्थापना सन् १८१९ में सर स्टेमफ़ोर्ड रेफ़ल्स ने की, जिन्हें ईस्ट इंडिया कंपनी के अधिकारी के रूप में, दिल्ली स्थित तत्कालीन वॉयसराय द्वारा, कंपनी का व्यापार बढ़ाने हेतु सिंगापुर भेजा गया था। आज भी सिंगापुर डॉलर व सेंट के सिक्कों पर आधुनिक नाम सिंगापुर व पुराना नाम सिंगापुरा अंकित रहता है। सन् १९६५ में मलेशिया से अलग होकर नए सिंगापुर राष्ट्र का उदय हुआ। किंवदंती है कि चौदहवीं शताब्दी में सुमात्रा द्वीप का एक हिन्दू राजकुमार जब शिकार हेतु सिंगापुर द्वीप पर गया तो वहाँ जंगल में सिंहों को देखकर उसने उक्त द्वीप का नामकरण सिंगापुरा अर्थात सिंहों का द्वीप कर दिया।
सिंगापुर विश्व की ९वीं तथा एशिया की चौथी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है।
अर्थशास्त्रियों ने सिंगापुर को 'आधुनिक चमत्कार' की संज्ञा दी है। यहाँ के सारे प्राकृतिक संसाधन यहाँ के निवासी ही हैं। यहाँ पानी मलेशिया से, दूध, फल व सब्जियाँ न्यूजीलैंड व ऑस्ट्रेलिया से, दाल, चावल व अन्य दैनिक उपयोग की वस्तुएँ थाईलैंड, इंडोनेशिया आदि से आयात की जाती हैं।
१९७० के दशक से यहाँ के व्यवसाय ने ज़ोर पकड़ना शुरु किया जिसने पूरी दुनिया का ध्यान खींचा। आज मुख्य व्यवसायों में इलेक्ट्रॉनिक, रसायन और सेवाक्षेत्र की कंपनी जैसे होटल, कॉलसेंटर, बैकिंग, आउटसोर्सिंग इत्यादि प्रमुख हैं। यह विदेशी निवेश के लिये काफ़ी आकर्षक रहा है और हाल ही में यहाँ की कंपनियों ने विदेशों में अच्छा निवेश किया है।
सिंगापुर एक लोकतांत्रिक देश है जहाँ पीपल्स एक्शन पार्टी, (संक्षेप में पप) का बोलबाला रहा है। ली कुआन यू इसके सबसे प्रभावशाली नेता थे जो ३१ साल तक सत्ता में रहे (१959-९०)। इस दौरान सिंगापुर ने बहुत व्यावसायिक प्रगति की। सन् २००६ के चुनाव में इसने ८४ में से ८२ सीटें जीतीं। यहाँ की संसद एक सदन वाली है जिसके पास विधान बनाने का हक है, यानि विधायिका है। इसके अलावे यहाँ की सरकार में कार्यकरने वाली कार्यपालिका तथा न्याय मामलों के लिए न्यायपालिका दो अन्य अंग हैं। यहाँ की सरकार व्यवसाय को प्रभावित करती है । वैसे तो यहाँ ४३ पार्टियाँ है पर कुछ मुख्य ये हैं -
सिंगापुर के प्रमुख दर्शनीय स्थलों में यहाँ के तीन संग्रहालय, जूरोंग बर्ड पार्क, रेप्टाइल पार्क, जूलॉजिकल गार्डन, साइंस सेंटर सेंटोसा द्वीप, पार्लियामेंट हाउस, हिन्दू, चीनी व बौद्ध मंदिर तथा चीनी व जापानी बाग देखने लायक हैं। सिंगापुर म्यूजियम में सिंगापुर की आजादी की कहानी आकर्षक थ्री-डी वीडियो शो द्वारा बताई जाती है। इस आजादी की लड़ाई में भारतीयों का भी महत्वपूर्ण योगदान था।
कल्चर म्यूजियम में विभिन्न जातियों के त्योहारों को प्रदर्शित किया गया है, जिनमें दशहरा, दीपावली व इनका महत्व बताया गया है। ६०० प्रजातियों व ८००० से ज्यादापक्षियों के संग्रह के साथ जुरोंग बर्ड पार्क एशिया-प्रशांत क्षेत्र का सबसे बड़ा पक्षी पार्क है। दक्षिणी ध्रुव का कृत्रिम वातावरण बनाकर यहाँ पेंग्विन पक्षी रखे गए हैं। ३० मीटर ऊँचा मानव निर्मित जलप्रपात व ऑल स्टार बर्ड शो जिसमें पक्षी टेलीफोन पर बात करते हैं, अन्य प्रमुख आकर्षण हैं।
रेप्टाइल पार्क में १० फुट लंबे जिंदा मगरमच्छ के मुँह में प्रशिक्षक द्वारा अपना मुँह डालना व कोबरा साँप का चुंबन लेना रोमांचकारी है। जूलॉजिकल गार्डन में एनिमल फीडिंग शो सी. लायन डांस शो आदि दर्शकों का मन मोह लेते हैं।
यह भी देखिए
दक्षिण-पूर्व एशियाई देश
दक्षिण पूर्वी एशियाई राष्ट्रों का संगठन के सदस्य राष्ट्र |
ज्ञानपीठ पुरस्कार भारतीय ज्ञानपीठ न्यास द्वारा भारतीय साहित्य के लिए दिया जाने वाला सर्वोच्च पुरस्कार है। भारत का कोई भी नागरिक जो आठवीं अनुसूची में बताई गई २२ भाषाओं में से किसी भाषा में लिखता हो इस पुरस्कार के योग्य है। पुरस्कार में ग्यारह लाख रुपये की धनराशि, प्रशस्तिपत्र और वाग्देवी की कांस्य प्रतिमा दी जाती है। १९६५ में १ लाख रुपये की पुरस्कार राशि से प्रारंभ हुए इस पुरस्कार को २००५ में ७ लाख रुपए कर दिया गया जो वर्तमान में ग्यारह लाख रुपये हो चुका है। २००५ के लिए चुने गये हिन्दी साहित्यकार कुंवर नारायण पहले व्यक्ति थे जिन्हें ७ लाख रुपए का ज्ञानपीठ पुरस्कार प्राप्त हुआ। प्रथम ज्ञानपीठ पुरस्कार १९६५ में मलयालम लेखक जी शंकर कुरुप को प्रदान किया गया था। उस समय पुरस्कार की धनराशि १ लाख रुपए थी। १९८२ तक यह पुरस्कार लेखक की एकल कृति के लिये दिया जाता था। लेकिन इसके बाद से यह लेखक के भारतीय साहित्य में संपूर्ण योगदान के लिये दिया जाने लगा। अब तक हिन्दी तथा कन्नड़ भाषा के लेखक सबसे अधिक सात बार यह पुरस्कार पा चुके हैं। यह पुरस्कार बांग्ला को ५ बार, मलयालम को ४ बार, उड़िया, उर्दू और गुजराती को तीन-तीन बार, असमिया, मराठी, तेलुगू, पंजाबी और तमिल को दो-दो बार मिल चुका है। प्रख्यात मलयाली कवि अक्कीतम अच्युतन नंबूदिरी को ५५वें ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किया जाएगा। ज्ञानपीठ चयन बोर्ड ने उनका चयन वर्ष २०१९ के ज्ञानपीठ पुरस्कार के लिये किया है।
पुरस्कार का जन्म
२२ मई १९६१ को भारतीय ज्ञानपीठ के संस्थापक श्री साहू शांति प्रसाद जैन के पचासवें जन्म दिवस के अवसर पर उनके परिवार के सदस्यों के मन में यह विचार आया कि साहित्यिक या सांस्कृतिक क्षेत्र में कोई ऐसा महत्वपूर्ण कार्य किया जाए जो राष्ट्रीय गौरव तथा अंतर्राष्ट्रीय प्रतिमान के अनुरूप हो। इसी विचार के अंतर्गत १६ सितंबर १९६१ को भारतीय ज्ञानपीठ की संस्थापक अध्यक्ष श्रीमती रमा जैन ने न्यास की एक गोष्ठी में इस पुरस्कार का प्रस्ताव रखा। २ अप्रैल १९६२ को दिल्ली में भारतीय ज्ञानपीठ और टाइम्स ऑफ़ इंडिया के संयुक्त तत्त्वावधान में देश की सभी भाषाओं के ३०० मूर्धन्य विद्वानों ने एक गोष्ठी में इस विषय पर विचार किया। इस गोष्ठी के दो सत्रों की अध्यक्षता डॉ वी राघवन और श्री भगवती चरण वर्मा ने की और इसका संचालन डॉ॰धर्मवीर भारती ने किया। इस गोष्ठी में काका कालेलकर, हरेकृष्ण मेहताब, निसीम इजेकिल, डॉ॰ सुनीति कुमार चैटर्जी, डॉ॰ मुल्कराज आनंद, सुरेंद्र मोहंती, देवेश दास, सियारामशरण गुप्त, रामधारी सिंह दिनकर, उदयशंकर भट्ट, जगदीशचंद्र माथुर, डॉ॰ नगेन्द्र, डॉ॰ बी.आर.बेंद्रे, जैनेंद्र कुमार, मन्मथनाथ गुप्त, लक्ष्मीचंद्र जैन आदि प्रख्यात विद्वानों ने भाग लिया। इस पुरस्कार के स्वरूप का निर्धारण करने के लिए गोष्ठियाँ होती रहीं और १९६५ में पहले ज्ञानपीठ पुरस्कार का निर्णय लिया गया।
ज्ञानपीठ पुरस्कार विजेताओं की सूची पृष्ठ के दाहिनी ओर देखी जा सकती है। इस पुरस्कार के चयन की प्रक्रिया जटिल है और कई महीनों तक चलती है। प्रक्रिया का आरंभ विभिन्न भाषाओं के साहित्यकारों, अध्यापकों, समालोचकों, प्रबुद्ध पाठकों, विश्वविद्यालयों, साहित्यिक तथा भाषायी संस्थाओं से प्रस्ताव भेजने के साथ होता है। जिस भाषा के साहित्यकार को एक बार पुरस्कार मिल जाता है उस पर अगले तीन वर्ष तक विचार नहीं किया जाता है। हर भाषा की एक ऐसी परामर्श समिति है जिसमें तीन विख्यात साहित्य-समालोचक और विद्वान सदस्य होते हैं। इन समितियों का गठन तीन-तीन वर्ष के लिए होता है। प्राप्त प्रस्ताव संबंधित 'भाषा परामर्श समिति' द्वारा जाँचे जाते हैं। भाषा समितियों पर यह प्रतिबंध नहीं है कि वे अपना विचार विमर्ष प्राप्त प्रस्तावों तक ही सीमित रखें। उन्हें किसी भी लेखक पर विचार करने की स्वतंत्रता है। भारतीय ज्ञानपीठ, परामर्श समिति से यह अपेक्षा रखती है कि संबद्ध भाषा का कोई भी पुरस्कार योग्य साहित्यकार विचार परिधि से बाहर न रह जाए। किसी साहित्यकार पर विचार करते समय भाषा-समिति को उसके संपूर्ण कृतित्व का मूल्यांकन तो करना ही होता है, साथ ही, समसामयिक भारतीय साहित्य की पृष्ठभूमि में भी उसको परखना होता है। अट्ठाइसवें पुरस्कार के नियम में किए गए संशोधन के अनुसार, पुरस्कार वर्ष को छोड़कर पिछले बीस वर्ष की अवधि में प्रकाशित कृतियों के आधार पर लेखक का मूल्यांकन किया जाता है।
भाषा परामर्श समितियों की अनुशंसाएँ प्रवर परिषद के समक्ष प्रस्तुत की जाती हैं। प्रवर परिषद में कम से कम सात और अधिक से अधिक ग्यारह ऐसे सदस्य होते हैं, जिनकी ख्याति और विश्वसनीयता उच्चकोटि की होती है। पहली प्रवर परिषद का गठन भारतीय ज्ञानपीठ के न्यास-मंडल द्वारा किया गया था। इसके बाद इन सदस्यों की नियुक्ति परिषद की संस्तुति पर होती है। प्रत्येक सदस्य का कार्यकाल ३ वर्ष को होता है पर उसको दो बार और बढ़ाया जा सकता है। प्रवर परिषद भाषा परामर्श समितियों की संस्तुतियों का तुलनात्मक मूल्यांकन करती है। प्रवर परिषद के गहन चिंतन और पर्यालोचन के बाद ही पुरस्कार के लिए किसी साहित्यकार का अंतिम चयन होता है। भारतीय ज्ञानपीठ के न्यास मंडल का इसमें कोई हस्तक्षेप नहीं होता।
प्रवर परिषद के सदस्य
वर्तमान प्रवर परिषद के अध्यक्ष डॉ॰ लक्ष्मीमल सिंघवी हैं जो एक सुपरिचित विधिवेत्ता, राजनयिक, चिंतक और लेखक हैं। इससे पूर्व काका कालेलकर, डॉ॰संपूर्णानंद, डॉ॰बी गोपाल रेड्डी, डॉ॰कर्ण सिंह, डॉ॰पी.वी.नरसिंह राव, आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी, डॉ॰आर.के.दासगुप्ता, डॉ॰विनायक कृष्ण गोकाक, डॉ॰ उमाशंकर जोशी, डॉ॰मसूद हुसैन, प्रो॰एम.वी.राज्याध्यक्ष, डॉ॰आदित्यनाथ झा, श्री जगदीशचंद्र माथुर सदृश विद्वान और साहित्यकार इस परिषद के अध्यक्ष या सदस्य रह चुके हैं।
वाग्देवी की कांस्य प्रतिमा
ज्ञानपीठ पुरस्कार में प्रतीक स्वरूप दी जाने वाली वाग्देवी का कांस्य प्रतिमा मूलतः धार, मालवा के सरस्वती मंदिर में स्थित प्रतिमा की अनुकृति है। इस मंदिर की स्थापना विद्याव्यसनी राजा भोज ने १०३५ ईस्वी में की थी। अब यह प्रतिमा ब्रिटिश म्यूज़ियम लंदन में है। भारतीय ज्ञानपीठ ने साहित्य पुरस्कार के प्रतीक के रूप में इसको ग्रहण करते समय शिरोभाग के पार्श्व में प्रभामंडल सम्मिलित किया है। इस प्रभामंडल में तीन रश्मिपुंज हैं जो भारत के प्राचीनतम जैन तोरण द्वार (कंकाली टीला, मथुरा) के रत्नत्रय को निरूपित करते हैं। हाथ में कमंडलु, पुस्तक, कमल और अक्षमाला ज्ञान तथा आध्यात्मिक अंतर्दृष्टि के प्रतीक हैं।
ज्ञानपीठ का आधिकारिक जालस्थल
सम्मानित साहित्यकारों की सूची
हिन्दी विकि डीवीडी परियोजना |
अधिकतर नये शब्द संसाधक इण्डिक समर्थन युक्त हैं, इसलिये हिन्दी में अच्छा कार्य करते हैं। माइक्रोसॉफ्ट ऑफिस हिन्दीकाफी सुविधाजनक हिन्दी शब्द संसाधक (वर्ड प्रोसैसर) है। इसके अतिरिक्त सीडैक का आइलीप, मोड्यूलर इन्फोटैक का श्रीलिपि, देशवेब का अक्षरमाला, बालेन्दु दाधीच का माध्यम (निःशुल्क), वेबदुनिया का टाइप एंड कास्ट, सी-डैक का एच-वर्ड आदि देवनागरी में काम करने के अच्छे साधन हैं।
इन्हें भी देखें
माइक्रोसॉफ्ट ऑफिस हिन्दी २००३
हिन्दी टैक्स्ट एडीटर तथा वर्ड प्रोसैसरों का विवरण
हिन्दी टाइपिंग औजारों की सूची
हिन्दी शब्द संसाधन (आनलाइन पुस्तक)
हिंदी अक्षरमाला (पुस्तक एव जानकारी) |
बगलीहार पनबिजली परियोजना भारत की कश्मीर में चल रही एक महत्वपूर्ण पनबिजली परियोजना है जो अपने विवादों की वजह से चर्चा में रहा है। पाकिस्तान कहता रहा है कि बगलीहार में यह परियोजना शुरू करके भारत पुरानी सिंधु संधि का उल्लंघन कर रहा है और यह बांध बनने से पाकिस्तान को मिलने वाले पानी का प्रवाह बाधित होगा।
भारत का तर्क है कि वह ऐसा कुछ भी नहीं कर रहा है। वह तो सिर्फ पानी का बेहतर इस्तेमाल करना चाहता है। वह पाकिस्तान जाने वाले चेनाब के पानी को बिलकुल भी नहीं रोक रहा है।
जम्मू और कश्मीर में बांध |
कुवैत (अरबी: , दवालात अल-कुवैती) पश्चिम एशिया में स्थित एक संप्रभु अरब अमीरात है, जिसकी सीमा उत्तर में सउदी अरब और उत्तर और पश्चिम में इराक से मिलती है। उत्तर से लेकर दक्षिण तक की अधिकतम दूरी २०० कि॰मी॰ (१२० मील) और पूर्व से लेकर पश्चिम तक की दूरी १७० किमी (११० मील) है। कुवैत एक अरबी शब्द है, जिसका अर्थ है 'पानी के करीब एक महल'। करीबन ३० लक्ष की जनसंख्या वाले इस संवैधानिक राजशाही वाले देश में संसदीय व्यवस्था वाली सरकार है। कुवैत नगर देश की आर्थिक और राजनीतिक राजधानी है। कुवैत में अनेक द्वीप भी शामिल हैं, जिसमें इराक की सीमा से लगा बुमियान सबसे बड़ा है।
१९९० में कुवैत पर इराक ने आक्रमण कर कब्जा जमा लिया था। सात महीने का इराकी कब्जा संयुक्त राज्य अमेरिका नीत सेना द्वारा सीधे आक्रमण के बाद खत्म हुआ था। लौटती हुई इराकी सेना ने करीबन ७५० तेल के कुंओं को खाक में मिला दिया, जो एक बड़ी आर्थिक और पयार्वरण त्रासदी के रूप में परिणीत हुई। युद्ध में कुवैत की आधारभूत संरचना बुरी तरह से क्षतिग्रस्त हुई, जिसे पुनः सुधारना पड़ा।
तेल भंडारण के मामले में कुवैत दुनिया का पांचवां सबसे समृद्ध देश और प्रति व्यक्ति आय के हिसाब से दुनिया का ग्यारहवां सबसे धनी देश है। कुवैत में तेल क्षेत्र की खोज और दोहन की प्रक्रिया १९३० से प्रारंभ हुई। १९६१ में यूनाइटेड किंगडम से स्वतंत्र होने के बाद इस क्षेत्र में अभूतपूर्व वृद्धि दर्ज की गई है। आज देश का करीबन ९५ प्रतिशत निर्यात और ८० प्रतिशत सरकारी राजस्व तेल से बने उत्पाद से होती है।
यह भी देखिए
कुवैत का भूगोल
एशिया के देश
अरब लीग के देश |
पोलैंड (पोलिश: पोलस्का, अंग्रेज़ी: पोलैंड), आधिकारिक तौर पर पोलैंड गणराज्य (र्जेक्ज़्पॉसपोलिता पोलस्का), मध्य यूरोप में एक देश है। पोलैंड का कुल क्षेत्रफल लगभग ३ मिलियन वर्ग किलोमीटर है, (१.२० मिलियन वर्ग मील), जो इसे यूरोप का ९वां सबसे बड़ा देश बना देता है। लगभग ४० मिलियन की आबादी के साथ, यह यूरोपीय संघ का ६ वां सबसे अधिक आबादी वाला देश है। राज्य बाल्टिक सागर से कारपैथी पर्वत तक फैला हुआ है। पोलैंड की राजधानी वारसॉ है। अन्य शहर क्रकाउ, व्रोकला, डांस्क और पॉज़्नान हैं।
पश्चिम में जर्मनी के साथ पोलैंड सीमाएं, दक्षिण में चेक गणराज्य और स्लोवाकिया और पूर्व में लिथुआनिया, यूक्रेन, बेलारूस और रूस के साथ।
पोलैंड की स्थापना ड्यूक मिज़को प्रथम के तहत एक राष्ट्र के रूप में की गई थी, जिसने ९६६ ईस्वी में देश को ईसाई धर्म में परिवर्तित कर दिया था। १०२५ में, पोलैंड के पहले राजा को ताज पहनाया गया था और १५६९ में, पोलैंड ने लिथुआनिया के ग्रैंड डची के साथ एक लंबा सहयोग स्थापित किया, इस प्रकार पोलिश-लिथुआनियन राष्ट्रमंडल की स्थापना की। यह राष्ट्रमंडल उस समय के सबसे बड़े और सबसे शक्तिशाली यूरोपीय देशों में से एक था। यह १७९५ में टूट गया था और पोलैंड ऑस्ट्रिया, रूस और प्रशिया के बीच बांटा गया था। प्रथम विश्व युद्ध के बाद १९१८ में पोलैंड फिर से स्वतंत्र हो गया। द्वितीय विश्व युद्ध १९३९ में शुरू हुआ जब नाजी जर्मनी और सोवियत संघ ने पोलैंड पर हमला किया। पोलिश यहूदियों समेत द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान छह मिलियन से अधिक पोलिश नागरिक मारे गए थे। युद्ध के बाद, पोलैंड "पूर्वी ब्लॉक" में एक कम्युनिस्ट गणराज्य के रूप में उभरा। १९८९ में, कम्युनिस्ट शासन गिर गया, और पोलैंड एक नए राष्ट्र के रूप में उभरा, जिसे संवैधानिक रूप से "तीसरा पोलिश गणराज्य" कहा जाता है।
पोलैंड एक स्वयंशासित स्वतंत्र राष्ट्र है जो कि सोलह अलग-अलग वोइवोदेशिप या राज्यों (पोलिश : वोयेवुद्ज़त्वो) को मिलाकर गठित हुआ है। पोलैंड यूरोपीय संघ, नाटो एवं ओ.ई.सी.डी का सदस्य राष्ट्र है। पोलैंड एक उच्च विकसित देश है जिसमें जीवन की उच्च गुणवत्ता है। यह यूरोप की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में से एक है। पोलैंड में भी एक बहुत समृद्ध इतिहास और वास्तुकला है।
प्रागैतिहासिक काल में यहाँ स्लाव लोग रहते थे। पोलैंड में कांस्य युग लगभग २४०० ईसा पूर्व शुरू हुआ, जबकि आयरन एज लगभग ७५० ईसा पूर्व में उभरा। इस समय के दौरान, लुसियान संस्कृति विशेष रूप से प्रमुख बन गई। पोलैंड में सबसे प्रसिद्ध प्रागैतिहासिक पुरातात्विक खोज लगभग ७०० ईसा पूर्व से लूसियान बिस्कुपिन निपटान (अब एक खुली हवा संग्रहालय के रूप में नवीनीकृत) है। यह मध्य यूरोप में सबसे महत्वपूर्ण खोजों में से एक था। प्राचीन काल के दौरान, कई प्राचीन जातीय समूहों ने ४०० ईसा पूर्व और ५०० ईस्वी के बीच एक युग में पोलैंड के व्यापक क्षेत्रों को पॉप्युलेट किया। इन समूहों को सेल्टिक, सरमाटियन, स्लाव, बाल्टिक और जर्मनिक जनजातियों के रूप में पहचाना जाता है।
आरंभिक मध्यकाल में पौलैंड पर अनेक जनजातियों का आधिपत्य था। पोलैंड का राजनीतिक इतिहास ९६६ ईस्वी में पोलान जनजाति (आज इस जनजाति के राज्य के स्थान पर पोलैंड का मावोपोल्स्का प्रांत है) के ड्यूक मिएश्को प्रथम को ईसाई धर्म में बदलने के साथ शुरू होता है। उन्होंने पोलैंड में शासन करने वाले पहले रॉयल फैमिली, पिएस्ट राजवंश की भी स्थापना की। पिएस्ट राजवंश ने रोमन कैथोलिक धर्म राज्य धर्म बना दिया है। पोलैंड के पहले राजा, बोल्सलाव प्रथम को १०२५ में गिन्ज़हौ शहर में ताज पहनाया गया था। वर्ष ११०९ में, बोलेस्लाव द थर्ड ने जर्मनी के राजा को हराया हेनरी पंचम। ११३८ में, देश बोलेस्लाव के तीसरे बेटों द्वारा विभाजित किया गया था। १२३० के दशक में मंगोल हमलों से पोलैंड भी प्रभावित हुआ था। १२६४ में, कालीज़ा या यहूदी लिबर्टी कालिस (कलिस्ज़) की आम सभा ने पोलैंड में यहूदियों के लिए कई अधिकार प्रस्तुत किए। अगली शताब्दियों में, यहूदियों ने "राष्ट्र के भीतर राष्ट्र" बनाया।
१३२० में, क्षेत्रीय शासकों द्वारा पोलैंड को एकजुट करने के कई असफल प्रयासों के बाद, व्लादिस्लाव ने अपनी सभी शक्तियों को समेकित कर लिया और सिंहासन लिया। व्लादिस्लाव ने अंततः देश को एकजुट किया। व्लादिस्लाव के पुत्र, कासिमीर (१३३३ से १३७० तक) को सबसे बड़े पोलिश राजाओं में से एक माना जाता है, और देश के बुनियादी ढांचे में सुधार के लिए व्यापक मान्यता प्राप्त हुई है। कसिमीर ने यहूदियों की सुरक्षा में भी वृद्धि की, और पोलैंड में यहूदी समझौते को प्रोत्साहित किया। उन्होंने महसूस किया कि देश को शिक्षित लोगों की एक कक्षा की आवश्यकता है जो देश के कानूनों को संहिताबद्ध करेंगे और अदालतों और कार्यालयों का प्रशासन करेंगे। पोलैंड में उच्च शिक्षा संस्थान स्थापित करने के कसिमीर के प्रयासों ने पोप को क्रकाउ विश्वविद्यालय की स्थापना की अनुमति देने के लिए आश्वस्त किया। गोल्ड लिबर्टी कानून कासिम के शासन में बढ़ने लगा, और कुलीन अभिजात वर्ग ने किसानों के खिलाफ अपनी कानूनी स्थिति स्थापित की। १३७० में कासिम की मृत्यु के बाद, कोई वैध पुरुष उत्तराधिकारी नहीं छोड़ा गया था और पिएस्ट राजवंश समाप्त हो गया था। १३ वीं और १४ वीं सदी के दौरान, पोलैंड जर्मन, फ्लेमिश और कुछ हद तक डेनिश और स्कॉटिश प्रवासियों के लिए एक गंतव्य बन गया। आर्मेनियाई भी इस युग के दौरान पोलैंड में बसने लगे। काली मौत, १३47 से १३51 तक यूरोप को प्रभावित करने वाली एक बीमारी ने पोलैंड को बहुत प्रभावित नहीं किया क्योंकि कसीम ने सीमा पर नियंत्रण लिया और जांच की कि देश में कौन प्रवेश कर रहा है। इस प्रकार, राजा ने अपने लोगों को मौत से बचाया।
जगयालॉन वंश १३८०-१५६९ से शासन किया। इस समय एक पोलिश और लिथुआनियाई संस्कृति और सैन्य बाध्यकारी शुरू हुआ। १५ वीं और १६ वीं सदी में, तुर्कों ने दक्षिण से हमला किया। हालांकि, पोलैंड विजयी था और तुर्क हार गए थे। १५६९ में, ल्यूबेल्स्की सम्मेलन ने पोलिश-लिथुआनियाई राष्ट्रमंडल का निर्माण किया, जो उस समय यूरोप के सबसे बड़े देशों में से एक था। पोलैंड के पूर्वी हिस्से में, रूसी-कोसाक विद्रोह और उत्तर से स्वीडिश आक्रमण ने देश को कमजोर कर दिया था। १६83 में, पोलिश किंग जॉन ई सोबस्की ने तुर्क साम्राज्य को हरा दिया और यूरोप के इस्लामी आक्रमण को रोक दिया। १८ वीं शताब्दी में, पोलैंड ने सांस्कृतिक विकास का अनुभव किया। कई खूबसूरत महलों, चर्चों, मकानों और कस्बों का निर्माण किया गया था। इस समय, वारसॉ शहर काफी हद तक बढ़ गया। क्षेत्र में पोलैंड के प्रभुत्व से पड़ोसी देश नाराज थे। प्रशिया (जर्मनी), रूस और ऑस्ट्रिया ने देश पर आक्रमण और विभाजन करने का फैसला किया। पहला विभाजन १७७२ में हुआ, दूसरा १७९१ में और १७९५ में अंतिम। पोलैंड, जो एक बार शक्तिशाली देश था, अब नक्शे से चला गया था।
१८३० और १८६३ में, पोलिश लोगों ने पोलैंड के रूसी हिस्से में रूसी ज़ारशाही के खिलाफ दो विद्रोह शुरू किए। पोलैंड के जर्मन और ऑस्ट्रियाई हिस्सों में कोई विद्रोह नहीं था। प्रथम विश्व युद्ध के बाद, पोलैंड स्वतंत्र हो गया जब जर्मन साम्राज्य, रूसी साम्राज्य और ऑस्ट्रिया हार गए थे। बाद में, पोलिश सेना ने १९२० में वारसॉ के पास रूसी लाल सेना को हराया जब कम्युनिस्टों ने यूरोप लेने की कोशिश की। पोलैंड ने १९१८ और १९३९ के बीच स्थिर समृद्धि का आनंद लिया। कई शहरों में विकास जारी रहा और पोलैंड फिर से एक शक्तिशाली देश था। देश बेहद बहुसांस्कृतिक था। पोलैंड की कुल आबादी का पोलिश लोग केवल ६०% थे। कई जातीय अल्पसंख्यकों में से यहूदी, जर्मन, यूक्रेनियन, लिथुआनियाई, ऑस्ट्रियाई, हंगरी, रूसी, आर्मेनियन और तातार थे। अन्य यूरोपीय राज्यों में दमन की अपेक्षा यहूदियों का पोलिश समाज में स्वागत हुआ फलतः यह राज्य इज़राइल के बाहर कभी यहूदियों का सबसे बड़ा पालक था। द्वितीय विश्व युद्ध से पहले पोलैंड में एक बहुत बड़ी जिप्सी आबादी भी थी।
जर्मन-पोलिश संबंध बहुत तनावपूर्ण और बुरे थे। जर्मनी लगातार धमकी दे रही थी। १९३९ में, हिटलर ने पोलैंड पर आक्रमण करने का आदेश दिया, जिसे सोवियत संघ द्वारा समर्थित किया गया था। इस आक्रमण ने आधिकारिक तौर पर द्वितीय विश्व युद्ध शुरू किया। २ दिन बाद इंग्लैंड और फ्रांस जर्मनी के खिलाफ पोलैंड में शामिल हो गए। चूंकि भारत ब्रिटिश साम्राज्य का हिस्सा था, इसलिए यह युद्ध में भी शामिल हो गया और नाज़ियों के खिलाफ पोलैंड की मदद की। युद्ध पोलैंड को तबाह कर दिया। नाज़ियों ने इसकी आबादी का भेदभाव किया था। यहूदियों के साथ-साथ जिप्सी, समलैंगिक और विकलांग लोगों को ऑशविट्ज़ जैसे एकाग्रता शिविरों में भेजा गया था और हत्या कर दी गई थी। सोवियत संघ ने पोलिश सेना के हजारों अधिकारियों की हत्या कर दी और पोलिश लोगों को पूर्व और पूरे एशिया में सोवियत कार्य शिविरों में निर्वासित कर दिया। युद्ध १९४५ में समाप्त हुआ।
बाद में सोवियत संघ पोलैंड के साथ दोस्त बन गया और एक कम्युनिस्ट सरकार को लागू किया जब स्टालिन ने मध्य और पूर्वी यूरोप पर कब्जा कर लिया। सोवियत संघ ने पोलैंड के खिलाफ अपने अत्याचारों को छुपाया और सुलह चाहते थे। पोलैंड एक स्वतंत्र देश था, लेकिन सोवियत गठबंधन का हिस्सा था। १९८० के दशक में, पोलैंड के लोग सोवियत नियंत्रण से नाराज हो गए और १९८९ में लोकतांत्रिक सरकार का गठन हुआ एवं लेख़ व़ावेंसा गणतंत्र के राष्ट्रपति निर्वाचित हुए और पोलैंड में साम्यवाद का नाश हुआ। पोलैंड ने सोवियत गठबंधन छोड़ने और सोवियत संघ के साथ संबंध तोड़ने का फैसला किया, इस प्रकार १९९१ में सोवियत संघ के पतन में योगदान दिया।
पोलैंड १९८९ से काफी विकसित हुआ है। इसकी अर्थव्यवस्था यूरोप में सबसे बड़ी और सबसे गतिशील में से एक बन गई है। वर्तमान में, यह एक विकसित और उच्च आय वाला देश है। पोलैंड नाटो का हिस्सा है और २००३ में इराक में नाटो ऑपरेशन में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। पोलिश पर्यटन क्षेत्र भी विस्तार कर रहा है। यह जर्मन, चेक, स्वीडिश और यूक्रेनी लोगों के लिए पसंदीदा यात्रा स्थलों में से एक है। अपने लंबे इतिहास के कारण, पोलैंड में कई वास्तुशिल्प चमत्कार हैं।
पौलैंड वेस्ट म जर्मनी से, दक्षिण में चेक गणराज्य और स्लोवाकिया , ईस्ट म बेलारस एंड यूक्रेन उत्तर में लिथुआनिया और रूस के कालिनीग्राड प्रांत से और उत्तर में बाल्टिक सागर से घिरा हुआ है। ओडर-नीस नदियाँ जर्मनी और पोलैंड के बीच की अधिकांश सीमा को अंकित करती हैं।
पोलैंड का भूभाग विभिन्न भौगोलिक क्षेत्रों में बंटा हुआ है। इसके उत्तर-पश्चिमी भाग में बाल्टिक तट अवस्थित है जो कि पोमेरेनिया की खाड़ी से लेकर ग्दायींस्क के खाड़ी तक विस्तृत है। पोलैंड का दक्षिण कापेइथ़ियन पहाड़ियों से आच्छादित है। अधिकांश देश अपने सपाट मैदानों, मीडोज और जंगलों द्वारा विशेषता है। पोलैंड यूरोप में भौगोलिक दृष्टि से सबसे विविध देशों में से एक है।
अंतर्राष्ट्रीय मानकों के आधार पर वन पोलैंड के भूमि क्षेत्र का लगभग ३०.५% कवर करते हैं। इसका कुल प्रतिशत अभी भी बढ़ रहा है।
पोलैंड के क्षेत्र का १% से अधिक २३ पोलिश राष्ट्रीय उद्यान के रूप में संरक्षित है। मासुरिया, पोलिश जुरा और पूर्वी बेस्कीड्स के लिए तीन और राष्ट्रीय उद्यान पेश किए गए हैं। इसके अलावा, उत्तर में तटीय क्षेत्रों के रूप में, मध्य पोलैंड में झीलों और नदियों के साथ आर्द्रभूमि कानूनी रूप से संरक्षित हैं। कई प्रकृति भंडार और अन्य संरक्षित क्षेत्रों के साथ लैंडस्केप पार्क के रूप में नामित १20 से अधिक क्षेत्र हैं।
पोलैंड की बडी नदियों में विस्चुला नदी (पोलिश: विस्तुला, विसा), १,०४७ कि.मि (६७८ मिल); ओडर नदी (पोलिश: ओड़्रा) - जो कि पोलैंड कि पश्चिमी सीमा रेखा का एक हिस्सा है - ८५४ कि॰मी॰ (५३१ मील); इसकी उपनदी, वार्टा, ८०८ कि॰मी॰ (५०२ मील) और बग - विस्तुला की एक उपनदी-७७२ कि॰मी॰ (४८० मील) आदि प्रधान हैं। पोमेरानिया दूसरी छोटी नदियों की भांति विस्तुला और ओडेर भी बाल्टिक समुद्र में पडते हैं। हालांकि पोलैंड की ज्यादातर नदियां बाल्टिक सागर मे गिरती हैं पर कुछेक नदियां जैसे कि डैन्यूब आदि काला सागर में समाहित होती हैं।
पोलैंड की नदियों को पुरा काल से परिवहन कार्य में इस्तेमाल किया जाता रहा है। उदाहरण स्वरूप वाइकिंग लोग उनके मशहूर लांगशिपों में विस्तुला और ओडेर तक का सफर तय करते थे। मध्य युग और आधुनिक युग के प्रारम्भिक कालों में, जिस समय पोलैंड-लिथुआनिया युरोप का प्रमुख खाद्य उत्पादक हुआ करता था, खाद्यशस्य और अन्यान्य कृषिजात द्र्व्यों को विस्तुला से ग्डान्स्क और आगे पूर्वी युरोप को भेजा जाता था जो कि युरोप की खाद्य कडी का एक महत्वपूर्ण अंग था।
पोलैंड की अर्थव्यवस्था एक दशक से अधिक समय तक यूरोप में सबसे तेजी से बढ़ रही है। २०१८ में पोलैंड में १.२ ट्रिलियन डॉलर का जीडीपी था, जो इसे यूरोप में ८ वीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बना रहा था। देश के सबसे सफल निर्यात में मशीनरी, फर्नीचर, खाद्य उत्पाद, कपड़े, जूते और सौंदर्य प्रसाधन शामिल हैं। सबसे बड़ा व्यापारिक भागीदार जर्मनी है। पोलिश बैंकिंग क्षेत्र मध्य और पूर्वी यूरोप में सबसे बड़ा है, जिसमें प्रति १00,००० लोगों की ३२.३ शाखाएं हैं। कई बैंक वित्तीय बाजारों का सबसे बड़ा और सबसे विकसित क्षेत्र हैं। २00७ में पोलिश अर्थव्यवस्था ने चीन की सकल घरेलू उत्पाद की वृद्धि के समान ७% की रिकॉर्ड वृद्धि का अनुभव किया।
पोलैंड में अपने कृषि क्षेत्र में बड़ी संख्या में निजी खेतों हैं, यूरोपीय संघ में भोजन के अग्रणी निर्माता बनने की क्षमता के साथ। स्मोक्ड और ताजा मछली, पोलिश चॉकलेट, डेयरी उत्पाद, मांस और रोटी सबसे अधिक वित्तीय मुनाफे का उत्पादन करती है, खासकर अनुकूल विनिमय दरों के साथ। २०११ में खाद्य निर्यात ६२ बिलियन ज़्लॉटी का अनुमान लगाया गया था, जो २०१० से १७% बढ़ गया था। वॉरसॉ में मध्य यूरोप में सबसे ज्यादा विदेशी निवेश दर है।
पोलैंड में उत्पादित उत्पादों और सामानों में शामिल हैं: इलेक्ट्रॉनिक्स, बसें और ट्राम (सोलरिस, सॉलबस), हेलीकॉप्टर और विमान, ट्रेनें (पेसा), जहाजों, सैन्य उपकरण (रडोम), दवाएं, भोजन (त्यम्बर्क, हॉर्टेक्स, वेडल), कपड़े (रिज़र्व), कांच, बर्तन, रसायन उत्पाद और अन्य। पोलैंड तांबे, चांदी और कोयले के साथ-साथ आलू, सेब और स्ट्रॉबेरी के दुनिया के सबसे बड़े उत्पादकों में से एक है।
२० वीं शताब्दी में पोलैंड दुनिया के सबसे अधिक औद्योगीकृत देशों में से एक था, जिसके परिणामस्वरूप व्यापक वायु प्रदूषण हुआ।
पोलैंड का तकरीबन २८% भूभाग जंगलों से ढंका है। देश की तकरिबन आधी जमीन कृषि के लिए इस्तेमाल की जाती है। पोलैंड के कुल २३ जातीय उद्यान ३,१४५ वर्ग कि॰मी॰ (१,२१४ वर्ग मील) की संरक्षित जमिन को घेरते हैं जो पोलैंड के कुल भूभाग का १% से भी ज्यादा है। इस दृष्टि से पोलैंड समग्र युरोप में अग्रणी है। फिलहाल मासुरिया, काराको-चेस्तोचोवा मालभूमि एवं पूर्वी बेस्किड में टिन और नये उद्यान बनाने का प्लान है।
यूरोप के देश |
अंडमान निकोबार की जनजातियों में शॉम्पनी (लगभग २००) एक विलुप्त होती हुई प्रजाति है। ये मंगोल नस्ल की है जबकि अंडमान और निकोबार की बाक़ी सभी जनजातियाँ नीग्रोईड यानी अफ्रीकियों जैसी हैं।
अण्डमान और निकोबार की जनजातियां |
अण्डमान और निकोबार की जनजातियाँ भारत के अण्डमान और निकोबार द्वीपसमूह की जनजातियों को कहते हैं। यहाँ की प्रमुख जनजातियाँ और उनकी संख्या इस प्रकार है:
निकोबारी - ३०,०००
ओजे - १००
जारवा - २७०
महान अण्डमानी - ४५
शेम्पेन - २००
अण्डमान और निकोबार द्वीपसमूह
अंदमान निकोबार द्वीप समूह में कुल ५७२ छोटे व बड़े द्वीप आते है
अंडमान निकोबार की राजधानी पोर्टब्लेयर है जो की दक्षिणी अंडमान द्वीप पर स्थित है
अंडमान निकोबार के सभी क़ानूनी मामला कोलकता उच्च न्ययालय में देखे जाते ह| |
बाङ्ला भाषा अथवा बांग्ला भाषा या बंगाली भाषा (बाङ्ला लिपि में : / बाङ्ला), बांग्लादेश और भारत के पश्चिम बंगाल और उत्तर-पूर्वी भारत के त्रिपुरा तथा असम राज्यों के कुछ प्रान्तों में बोली जानेवाली एक प्रमुख भाषा है। भाषाई परिवार की दृष्टि से यह हिन्द यूरोपीय भाषा परिवार का सदस्य है। इस परिवार की अन्य प्रमुख भाषाओं में हिन्दी, नेपाली, पंजाबी, गुजराती, असमिया, ओड़िया, मैथिली इत्यादी भाषाएँ हैं। बंगाली बोलने वालों की सँख्या लगभग २३ करोड़ है और यह विश्व की छठी सबसे बड़ी भाषा है। इसके बोलने वाले बांग्लादेश और भारत के अलावा विश्व के बहुत से अन्य देशों में भी फैले हैं।
भारत की अन्य प्रादेशिक भाषाओं की तरह बंगाली भाषा का भी उत्पत्तिकाल सन् १,००० ई. के आस पास माना जा सकता है। अपभ्रंश से या मगध की भाषा से पृथक् रूप ग्रहण करने के बाद से ही उसमें गीतों और पदों की रचना होने लगी थी। जैसे-जैसे वह जनता के भावों और विचारों को अभिव्यक्त करने का साधन बनती गई, उसमें विविध रचनाओं, काव्यग्रंथों तथा दर्शन, धर्म आदि विषय कृतियों का समावेश होता गया, यहाँ तक कि आज भारतीय भाषाओं में उसे यथेष्ट ऊँचा स्थान प्राप्त हो गया है।
बंगाली लिपि नागरी लिपि से कुछ कुछ भिन्न है किन्तु दोनों में बहुत अधिक साम्य भी है। हिंदी की तरह उसमें भी १४ स्वर तथा ३३ व्यंजन हैं। बंगाली में "व" का उच्चारण प्राय: "ब" की तरह (कभी कभी "उ" की तरह या "भ" की तरह) किया जाता है और आत्मा, लक्ष्मी, महाशय आदि शब्द आत्ताँ, लक्खी, मोशाय जैसे उच्चरित होते हैं।
बंगाली साहित्य अत्यन्त समृद्ध है। बांग्ला साहित्य के विस्तृत विवेचन के लिये बंगाली साहित्य देखें।
बाङ्ला की बोलियाँ
बांगला अकादमी (बंगलादेश)
भारतीय भाषा ज्योति बांगला (भारतीय भाषा संस्थान)
बांगला-बांगला और बांगला-अंग्रेज़ी शब्दकोश (शिकागो विश्वविद्यालय)
विश्व की प्रमुख भाषाएं
भारत की भाषाएँ
पश्चिम बंगाल की भाषाएँ
पूर्वी हिन्द-आर्य भाषाएँ |
गिरीश कार्नाड ( १९३८-१० जून २०१९,माथेरान, महाराष्ट्र) भारत के जाने माने समकालीन लेखक, अभिनेता, फ़िल्म निर्देशक और नाटककार थे। कन्नड़ और अंग्रेजी भाषा दोनों में इनकी लेखनी समानाधिकार से चलती थी। १९९८ में ज्ञानपीठ सहित पद्मश्री व पद्मभूषण जैसे कई प्रतिष्ठित पुरस्कारों के विजेता कर्नाड द्वारा रचित तुगलक, हयवदन, तलेदंड (रक्तकल्याण), नागमंडल व ययाति जैसे नाटक अत्यंत लोकप्रिय हुए और भारत की अनेक भाषाओं में इनका अनुवाद व मंचन हुआ है। प्रमुख भारतीय निर्देशकों - इब्राहीम अलकाजी, प्रसन्ना, अरविन्द गौड़ और ब॰ व॰ कारन्त ने इनका अलग- अलग तरीके से प्रभावी व यादगार निर्देशन किया हैं।
एक कोंकणी भाषी परिवार में जन्में कार्नाड ने १९५८ में धारवाड़ स्थित कर्नाटक विश्वविद्यालय से स्नातक उपाधि ली। इसके पश्चात वे एक रोड्स स्कॉलर के रूप में इंग्लैंड चले गए जहां उन्होंने ऑक्सफोर्ड के लिंकॉन तथा मॅगडेलन महाविद्यालयों से दर्शनशास्त्र, राजनीतिशास्त्र तथा अर्थशास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त की। वे शिकागो विश्वविद्यालय के फुलब्राइट महाविद्यालय में विज़िटिंग प्रोफ़ेसर भी रहे।
कार्नाड की प्रसिद्धि एक नाटककार के रूप में ज्यादा है। कन्नड़ भाषा में लिखे उनके नाटकों का अंग्रेजी समेत कई भारतीय भाषाओं में अनुवाद हो चुका है। एक खास बात ये है कि उन्होंने लिखने के लिए ना तो अंग्रेज़ी को चुना, जिस भाषा में उन्होंने एक समय विश्वप्रसिद्ध होने के अरमान संजोए थे और ना ही अपनी मातृभाषा कोंकणी को। जिस समय उन्होंने कन्नड़ में लिखना शुरू किया उस समय कन्नड़ लेखकों पर पश्चिमी साहित्यिक पुनर्जागरण का गहरा प्रभाव था। लेखकों के बीच किसी ऐसी चीज के बारे में लिखने की होड़ थी जो स्थानीय लोगों के लिए बिल्कुल नई थी। इसी समय कार्नाड ने ऐतिहासिक तथा पौराणिक पात्रों से तत्कालीन व्यवस्था को दर्शाने का तरीका अपनाया तथा काफी लोकप्रिय हुए। उनके नाटक ययाति (१९६१, प्रथम नाटक) तथा तुग़लक़ (१९६४) ऐसे ही नाटकों का प्रतिनिधित्व करते हैं। तुगलक से कार्नाड को बहुत प्रसिद्धि मिली और इसका कई भारतीय भाषाओं में अनुवाद हुआ। इसी प्रकार 'तलेदंड' भी काफी लोकप्रिय हुआ। रानावि के पूर्व निर्देशक रामगोपाल बजाज द्वारा इसका हिन्दी अनुवाद रक्त कल्याण नाम से किया गया और रानावि के लिए इब्राहीम अलकाजी और फिर अस्मिता नाटय संस्था द्वारा अरविन्द गौड़ के निर्देशन में १९९५ से २००९ तक १५० से ज्यादा मंचन हुए।
वंशवृक्ष नामक कन्नड़ फ़िल्म से इन्होंने निर्देशन की दुनिया में कदम रखा। इसके बाद इन्होंने कई कन्नड़ तथा हिन्दी फ़िल्मों का निर्देशन तथा अभिनय भी किया।
हिंदी फिल्म उत्सव का निर्देशन इन्होंने किया|
जीवन मुक्त (१९७७) - अमरजीत (पात्र)
इकबाल टाइगर जिंदा है ,एक था टाइगर
गिरीश कर्नाड के प्रमुख नाटकों की सूची हिन्दी अनुवाद एवं हिन्दी अनुवाद की प्रथम प्रस्तुति के विवरण सहित इस प्रकार है:-
ययाति (मूल कन्नड़ १९६१), हिन्दी अनुवाद- बी आर नारायण, राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली से १९७९ में प्रकाशित; प्रथम प्रस्तुति १९८०, संगीत कला मंदिर, कोलकाता; निर्देशक- राजेंद्र कुमार शर्मा।
तुगलक (मूल कन्नड़ १९६४), हिन्दी अनुवाद- बी॰वी॰ कारंत, राधाकृष्ण प्रकाशन १९७७; प्रकाशन-पूर्व प्रथम प्रस्तुति- राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय रंगमंडल, नई दिल्ली, १९६६, निर्देशक- ओम शिवपुरी।
हयवदन (मूल कन्नड़ १९७१), हिन्दी अनुवाद- बी॰वी॰ कारंत, राधाकृष्ण प्रकाशन १९७७; प्रकाशन-पूर्व प्रथम प्रस्तुति- १९७२, देशांतर, नई दिल्ली, निर्देशक- बी॰वी॰ कारंत।
अंजुमल्लिगे (मूल कन्नड़ १९७७)
बलि (मूल कन्नड़ हिन्ननहुंज, रचना- १९६२; संशोधित रूप- १९८०), प्रथम हिन्दी अनुवाद- बी॰वी॰ कारंत, 'आटे का कुक्कुट' नाम से; अप्रकाशित रूप का प्रथम मंचन- १९६६, राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय, निर्देशक- बी॰वी॰ कारंत एवं प्रेमा कारंत; द्वितीय अनुवादक- सत्यदेव दुबे, 'बलि' नाम से, अप्रकाशित रूप का मंचन- १९८५, निर्देशक- सत्यदेव दुबे; प्रकाशित रूप के अनुवादक- राम गोपाल बजाज, राधाकृष्ण प्रकाशन २०१५.
नागमंडल (मूल कन्नड़ १९८८), हिन्दी अनुवाद- बी आर नारायण, भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली १९९१; प्रथम प्रस्तुति- १९९१, अभियान, नई दिल्ली, निर्देशक- राजिन्दर नाथ।
रक्त कल्याण (मूल कन्नड़ तलेदण्ड १९९०), हिन्दी अनुवाद- रामगोपाल बजाज; प्रकाशन-पूर्व प्रथम प्रस्तुति- राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय रंगमंडल १९९३, निर्देशक- इब्राहिम अल्काजी; पुनः संशोधित रूप राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली से सन् १९९४ में प्रकाशित।
अग्नि और बरखा (मूल कन्नड़ अग्नि मत्तु मले १९९४), हिन्दी अनुवाद- रामगोपाल बजाज, राधाकृष्ण प्रकाशन २००१; प्रकाशन-पूर्व प्रथम प्रस्तुति- राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय रंगमंडल, नई दिल्ली १९९६, निर्देशक- प्रसन्ना।
टीपू सुल्तान के ख़्वाब (मूल कन्नड़ टीपू सुल्तान कंडा कनसु), हिन्दी अनुवाद- ज़फ़र मुहीउद्दीन, राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली २०१८; प्रकाशन-पूर्व प्रथम प्रस्तुति जुलाई २०१७, 'कठपुतलियाँ थिएटर ग्रुप', बेंगलुरु, निर्देशक- ज़फर मोहिउद्दीन।
शादी का एल्बम (मूल कन्नड़ मदुवे एल्बम २००६), हिन्दी अनुवाद- पद्मावती राव, राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली २०१७।
बिखरे बिम्ब (मूल कन्नड़ ओडकलु बिम्ब २००६), हिन्दी अनुवाद- पद्मावती राव, एक अन्य नाटक 'पुष्प' सहित बिखरे बिम्ब और पुष्प [दो एकल नाटक] नाम से राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली से सन् २०१७ में प्रकाशित।
पुष्प (मूल कन्नड़ फ्लावर्स २०१२), बिखरे बिम्ब और पुष्प [दो एकल नाटक] में संकलित। हिन्दी अनुवाद- पद्मावती राव।
पुरस्कार तथा उपाधियाँ
साहित्य के लिए
१९७२: संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार ('तुग़लक' के लिए)
कमलादेवी चट्टोपाध्याय पुरस्कार 'हयवदन' के लिए
१९९२: पद्मभूषण तथा कन्नड़ साहित्य परिषद् पुरस्कार
१९९४: साहित्य अकादमी पुरस्कार ('रक्त कल्याण' के लिए)
१९९८: ज्ञानपीठ पुरस्कार (साहित्य में समग्र योगदान के लिए)
सिनेमा के क्षेत्र में
१९८० फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार - सर्वश्रेष्ठ पटकथा - गोधुली (बी.वी. कारंत के साथ)
इसके अतिरिक्त कई राज्य स्तरीय तथा राष्ट्रीय पुरस्कार।
१९३८ में जन्मे लोग
२०१९ में निधन
१९९२ पद्म भूषण
पद्म भूषण सम्मान प्राप्तकर्ता
साहित्य अकादमी द्वारा पुरस्कृत कन्नड़ भाषा के साहित्यकार |
तसलीमा नसरीन (जन्म : २५ अगस्त १९६२) बांग्ला लेखिका एवं भूतपूर्व चिकित्सक हैं जो १९९४ से बांग्लादेश से निर्वासित हैं। १९७० के दशक में एक कवि के रूप में उभरीं तसलीमा १९९० के दशक के आरम्भ में अत्यन्त प्रसिद्ध हो गयीं। वे अपने नारीवादी विचारों से युक्त लेखों तथा उपन्यासों एवं इस्लाम एवं अन्य नारीद्वेषी मजहबों की आलोचना के लिये जानी जाती हैं। उन्होंने १९९० के दशक की शुरुआत में अपने निबंधों और उपन्यासों के कारण वैश्विक ध्यान प्राप्त किया, जो नारीवादी विचारों और आलोचनाओं के साथ था कि वह इस्लाम के सभी "गलत" धर्मों के रूप में क्या करती हैं। वह प्रकाशन, व्याख्यान और प्रचार द्वारा विचारों और मानवाधिकारों की आजादी की वकालत करती है।
तसलीमा का जन्म प्रचलित रूप से २५ अगस्त सन् १९६२ को माना जाता है, परन्तु वास्तव में उनका जन्म ५ सितंबर १९६० ई० (सोमवार) को तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान (अब बांग्लादेश) के मयमनसिंह शहर में हुआ था। उन्होंने मयमनसिंह मेडिकल कॉलेज से १९८६ में चिकित्सा स्नातक की डिग्री प्राप्त करने के बाद सरकारी डॉक्टर के रूप में कार्य आरम्भ किया जिस पर वे १९९४ तक थीं। जब वह स्कूल में थी तभी से कविताएँ लिखना आरम्भ कर दिया था।
बांग्लादेश में उनपर जारी फ़तवे के कारण आजकल वे कोलकाता में निर्वासित जीवन जी रही हैं। हालांकि कोलकाता में मुसलमानों के विरोध के बाद उन्हें कुछ समय के लिये दिल्ली और उसके बाद फिर स्वीडन में भी समय बिताना पड़ा लेकिन इसके बाद जनवरी २०१० में वे भारत लौट आईं। उन्होंने भारत में स्थाई नागरिकता के लिये आवेदन किया है लेकिन भारत सरकार की ओर से उस पर अब तक कोई निर्णय नहीं हो पाया है। यूरोप और अमेरिका में एक दशक से भी अधिक समय रहने के बाद, तस्लीमा २००५ में भारत चले गए, लेकिन २००८ में देश से हटा दिया गया, हालांकि वह दिल्ली में रह रही है, भारत में एक आवासीय परमिट के लिए दीर्घावधि, बहु- २००४ के बाद से प्रवेश या 'एक्स' वीज़ा। उसे स्वीडन की नागरिकता मिली है।
स्त्री के स्वाभिमान और अधिकारों के लिए संघर्ष करते हुए तसलीमा नसरीन ने बहुत कुछ खोया। अपना भरापूर परिवार, दाम्पत्य, नौकरी सब दांव पर लगा दिया। उसकी पराकाष्ठा थी देश निकाला।
नसरीन को रियलिटी शो बिग बॉस ८ में भाग लेने के लिए कलर्स (टीवी चैनल) की तरफ से प्रस्ताव दिया गया है। तसलीमा ने इस शो में भाग लेने से मना कर दिया है।
अपरपक्ष (उच्चारण : ओपोरपोक्ख)
निमंत्रण (उच्चारण : निमोन्त्रोन)
मेरे बचपन के दिन (बाङ्ला : आमार मेयेबेला)
द्विखंडित (बाङ्ला उच्चारण : द्विखंडितो)
वे अंधेरे दिन (बाङ्ला : सेई सोब अंधोकार)
मुझे घर ले चलो
नहीं, कहीं कुछ भी नहीं
निर्बासितो बाहिरे ओन्तोरे
निर्बासितो नारीर कोबिता
खाली खाली लागे
बन्दिनी (उच्चारण : बोन्दिनी)
नष्ट लड़की नष्ट गद्य (बाङ्ला : नोस्टो मेयेर नोस्टो गोद्दो)
छोटे-छोटे दुःख (छोटो च्होटो दुखो कोथा)
औरत का कोई देश नहीं (नारीर कोनो देश नेई)
सम्मान एवं पुरस्कार
अपने उदार तथा स्वतंत्र विचारों के लिये तसलीमा को देश-विदेश में सैकड़ों पुरस्कार एवं सम्मान प्रदान किये गये हैं। इनमें से कुछ ये हैं-
आनन्द साहित्य पुरस्कार, १९९२ एवं २०००।
नाट्यसभा पुरस्कार, बांलादेश, १९९२
यूरोपियन पार्लामेन्ट द्वारा विचार स्वातंत्य के लिये दिया जाने वाला शखारोव पुरस्कार, १९९४
फ्रान्स सरकार द्वारा प्रदत्त मानवाधिकार पुरस्कार, १९९४
फ्रान्स का 'एडिक्ट ऑफ नान्तेस' पुरस्कार, १९९४
स्विडिश इन्टरनेशनल पेन द्वारा प्रदत्त कुर्त टुकोलस्की पुरस्कार, १९९४
संयुक्त राष्ट्र का मानवाधिकार के लिये हेलमैन-ह्यामेट ग्रान्ट सम्मान, १९९४
इन्हें भी देखें
इस्लाम में स्त्री
अयान हिरसी अली
इस्लाम में धर्मत्याग
तसलीमा नसरीन का अपना जालघर
बडे भैया की हसरतों ने बनाया उसे तसलीमा नसरीन !
तसलीमा नसरीन ने कहा, मेरे पास भारत के अलावा कुछ भी नहीं है (जनसत्ता)
बांग्लादेश के साहित्यकार |
मिशेल फूको की राज्य की अवधारणा
राज्य की संस्था लोगों से कैसे अपनी बात मनवाती है इस समझ में सबसे ताजा और विचारोत्तेजक विकास मिशेल फ़ूको ने किया है। पूँजीपति वर्ग राज्य में अपनी सामाजिक सत्ता केवल हिंसा के उपकरणों (सेना, पुलिस आदि) के द्वारा ही स्थापित नहीं करता। वह तरह-तरह के सांस्कृतिक रूपों का इस्तेमाल करके भी अपनी सामाजिक सत्ता की निरंतरता सुनिश्चित करता है। इसलिए राज्य की संरचनाओं को उनके सांस्कृतिक रूपों में समझना भी आवश्यक है। अन्ततः राज्य के पक्ष में सहमति पैदा करने की ज़िम्मेदारी ये सांस्कृतिक संरचनाएँ ही निभाती हैं।
फ़ूको बताते हैं कि आधुनिक समाज में लोगों को नियंत्रित या अनुशासित करने के लिए निगरानी की एक बहुस्तरीय व्यवस्था के अलावा दूसरों द्वारा किये गये निर्णयों को आत्मसात् करने तथा परीक्षा प्रणाली जैसे उपाय अपनाये जाते हैं। फ़ूको जोर देकर कहते हैं कि लोगों पर दृष्टि रखने मात्र से सत्ता का आधा काम पूरा हो जाता है। इसके लिए वे स्टेडियम की व्यवस्था का हवाला देते हैं जिसमें सीटों की व्यवस्था इस तरह की जाती है कि दर्शक किसी कार्यक्रम को आसानी से देख पायें पर साथ ही यह व्यवस्था सत्ता के नियंत्रकों को दर्शकों पर निगाह रखने की सहूलियत भी प्रदान करती है। यहाँ फ़ूको अनुशासन और नियंत्रण की सत्ता का मॉडल चिह्नित करने के लिए राजनीतिक चिंतक जेरेमी बैंथम द्वारा कल्पित जेल पनोप्टिकॉन का उल्लेख भी करते हैं। जिसकी मूल वास्तु-योजना कुछ ऐसी थी कि कोठरियों में बंद कैदी एक दूसरे के लिए तो अदृश्य रहें लेकिन जेल के केंद्रीय टॉवर की निगरानी से बाहर न हो पायें। कैदियों को कभी इस बात का पता नहीं चलता कि उन पर निगाह रखी जा रही है या नहीं पर उनके मस्तिष्क में यह बात बैठ जाती है कि कोई उन पर दृष्टि रखता है। फ़ूको पैनॉप्टिकन के सिद्धांत को एक ऐसे रूपक की तरह देखते हैं जो जेल की चौहद्दी के पार जाकर स्कूलों, कारखानों और अस्पतालों में अनुशासन का आम ढर्रा बन जाता है। हालाँकि बैंथम की यह प्रस्तावित जेल कभी मूर्त रूप नहीं ले पायी लेकिन एक सिद्धांत के रूप में वह आधुनिक समाज की लगभग हर गतिविधि पर काबिजज हो गयी है। आधुनिक समाज में अनुशासन कायम करने वाली व्यवस्थाओं के लिए वह एक ऐसा औजार सिद्ध हुई है जिसने प्राक-आधुनिक काल के राजाओं और हाकिमों को अपदस्थ कर उनकी जगह ख़ुद को स्थापित कर लिया है।
इस क्रम में फ़ूको यह भी दर्शाते हैं कि आधुनिक सत्ता या अनुशासन कायम करने वाली व्यवस्था केवल लोगों की गतिविधियों पर ही नज़र नहीं रखती बल्कि वह लोगों को उनकी अक्षमता दिखाकर भी नियंत्रित करती है। उनके अनुसार आधुनिक सत्ता समझ, प्रतिभा, सामान्य और असामान्य व्यवहार जैसी कोटियों का निर्माण करती है और जब कोई व्यक्ति इसके द्वारा स्थापित कसौटियों या मानकों पर ख़रा नहीं उतरता तो व्यवस्था ऐसे व्यक्ति को कमतर या असामान्य घोषित करने का मौका नहीं चूकती। इस संदर्भ में फ़ूको यह याद दिलाना नहीं भूलते कि आधुनिक समाज की इन अनुशासनकारी संस्थाओं का यह रवैया किसी तरह के प्रतिशोध से नहीं बल्कि सुधार से प्रेरित होता है। जिसका अंतिम लक्ष्य यह होता है कि व्यक्ति समाज की प्रदत्त कसौटियों या मानकों को स्वीकार कर ले। ध्यान दें कि समाज की मान्यताओं के द्वारा अनुशासन कायम करने का यह ढंग न्यायिक दण्ड की उस व्यवस्था से ख़ासा अलग है जिसमें किसी व्यक्ति को केवल इस आधार पर दण्डित किया जाता था कि उसका कृत्य कानून सम्मत है या नहीं। ऐसे किसी फ़ैसले में यह नहीं कहा जाता था कि व्यक्ति सामान्य है या असामान्य। लेकिन आधुनिक समाज शैक्षिक कार्यक्रमों, चिकित्सा के तौर-तरीकों तथा उद्योग व उत्पादों के मामलों में कुछ निश्चित मानक स्थापित करने पर ज़ोर देता है और इन मानकों का वर्चस्व इतना चौतरफ़ा होता है कि व्यक्ति का व्यवहार और व्यक्तित्व उन्हीं के हिसाब से ढलने लगता है। सामान्यतः राज्य को शासन, संगठन या राजनीतिक समुदाय के तौर पर देखा जाता है। माना जाता है कि इतिहास के हर दौर में इसके विविध रूप मौजूद रहे हैं। इसमें होने वाले बदलाव इतिहास के प्रमुख विषय रहे हैं। सिर्फ़ आदिम घुमंतू राजनीतिक समुदायों को राज्य का दर्ज़ा नहीं दिया जाता है। माना जाता है कि इन समुदायों में इस अवधारणा के साथ- साथ उससे जुड़ी सुनिश्चित व्यवस्था का अभाव होता है। असल में राज्य होने के लिए यह आवश्यक है कि समुदाय और भू-क्षेत्र के बीच तकरीबन स्थाई संबंध हो। इस सामान्य तरीके से उपयोग किये जाने पर यह शब्द इस विचार को अभिव्यक्त करता है कि राजनीतिक समुदाय की कुछ ऐसी निश्चित सार्वभौमिक विशेषताएँ होती हैं, जो समय और स्थान (या स्पेस) से परे होती हैं; अर्थात् ग्रीक पोलिस, मध्ययुगीन रेगनम और आधुनिक गणतंत्रों के बीच कुछ सामान्य विशेषता हैं। क्या इस गुण या विशेषता को ज़्यादा संकुचित रूप में परिभषित किया जा सकता है?
यह बात तो स्पष्ट है कि यदि राज्य की कोई परिभाषा इसे शाश्वत और अपरिवर्तनशील वस्तु या संगठन के रूप में पेश करती है, तो ऐसा करके वह इतिहास में बदलाव और विकास की प्रक्रिया की उपेक्षा करती है। इसलिए एक वैध परिभाषा को दूसरे पहलुओं और कार्यों पर ध्यान देना चाहिए। इतिहास यह दिखाता है कि एक सार्वभौमिक परिघटना के रूप में राज्य एक ऐसी गतिविधि या संगठन है, जो मनुष्य पर आवश्यकताओं के रूप में थोपी गयी है। इस तरह की गतिविधि के रूप में इसकी कुछ मुख्य विशेषताएँ इस प्रकार हैं : यह मनुष्यों और उनकी सम्पत्ति के बीच में एक निश्चित संबंध बनाता है; या दूसरे शब्दों में यह मनुष्यों के बीच एकता या समाज का निर्माण करता है। इसलिए राज्य का अस्तित्व विशिष्ट तौर पर एक बुनियादी चीज़ है। दूसरा, यह मनुष्यों के बीच व्यवस्था की शक्ति, या शासन के एक रूप या आदेश और आज्ञा पालन का एक संबंध स्वीकार करता है। तीसरा, राज्य को बनाने और कायम रखने वाली गतिविधि विशिष्ट होती है, जो हमेशा ख़ुद को उन लोगों के ख़िलाफ़ पेश करती है, जो इस समुदाय का भाग नहीं होते हैं।
बहरहाल, राज्य को एक ऐतिहासिक परिघटना के रूप में देखने के बावजूद इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि इस पर होने वाले लेखन में एक दार्शनिक पहलू हमेशा शामिल रहा है। इसके तहत प्रश्न उठता है कि राज्य जिस तरह की व्यवस्था या लोगों के बीच संबंध स्थापित करना चाहता है, उसका आदर्श रूप क्या है? क्या वह आदर्श रूप हासिल कर लिया गया है? क्या शासन का वर्तमान तरीका सही है? क्या समुदाय के बाहरी संबंधों को सही तरीके से संचालित किया जा रहा है? असल में, इस नज़रिये से विचार करने पर राज्य सिर्फ़ मनुष्यों पर थोपी गयी आवश्यकता के रूप में ही सामने नहीं आता है, बल्कि यह मनुष्यों के सामने सही के चुनाव की समस्या के रूप में भी सामने आता है। राज्य में सिर्फ़ अराजकता की जगह एक व्यवस्था स्थापित करने का ही संघर्ष नहीं है। इसकी बजाय, यह एक ऐसी व्यवस्था स्थापित करने का भी संघर्ष है, जो सच्ची, प्रामाणिक और न्यायपूर्ण हो। इसलिए, प्लेटो, अरस्तू, हॉब्स, हीगेल आदि के लेखन को इस सवाल का दार्शनिक उत्तर खोजने की कोशिश के रूप में देखा जा सकता है कि राज्य कैसा होना चाहिए। इन विद्वानों ने राज्य और दूसरे तरह के मानव- संगठनों के बीच अंतर करने की कोशिश की है और इसके साथ ही इन्होंने अपने आदर्श राज्य की परिकल्पना और उसके पक्ष में तर्क भी प्रस्तुत किये हैं।
सार्वभौम ऐतिहासिक परिघटना के रूप में राज्य और एक दार्शनिक अवधारणा के रूप में राज्य को देखने के विचार के साथ राज्य को विशेष रूप से आधुनिक परिघटना मानने के विचार को भी जोड़ने की आवश्यकता है। ऐसे बहुत से इतिहासकार और राजनीतिक सिद्घांतकार हैं, जो यह तर्क देते हैं कि राज्य शब्द का उपयोग युरोप में पुनर्जागरण और धर्म-सुधार के बाद सामने आयी व्यवस्था के लिए किया जाना चाहिए। इनका यह मानना है कि राज्य का सिद्घांत दरअसल इसी विशिष्ट परिघटना से जुड़ा हुआ सिद्घांत है। इसलिए यदि इसका प्रयोग इतिहास के दूसरे दौर में मौजूद संगठनों के लिए किया जाता है, तो इससे इसके अर्थ के बारे में भ्रम बढ़ेगा। एक संगठित व्यवस्था के रूप में राज्य शब्द का उदय भी चौदहवीं सदी के अंत और सत्रहवीं सदी के बीच हुआ। राज्य का अंग्रेज़ी शब्द स्टेट लैटिन शब्द स्टेयर से निकला है, जिसका अर्थ है खड़ा होना। इस तरह यह एक स्थिति के बारे में बताता है। राज्य को एक आधुनिक अवधारणा मानने के पीछे एक मुख्य विचार यह भी है कि आधुनिक राज्य का उभार प्रभुसत्ता की अवधारणा के साथ हुआ। यह एक स्पष्ट आधुनिक मान्यता है कि जो राज्य प्रभुसत्ता-सम्पन्न नहीं है, वह सही अर्थों में राज्य ही नहीं है। प्रभुसत्ता का अर्थ यह है कि राज्य अपने अधिकार में आने वाले भू-क्षेत्र में राजनीतिक प्राधिकार का सर्वोच्च स्रोत है। प्रभुसत्ता के दो पहलू हैं आंतरिक पहलू और बाहरी पहलू। आंतरिक पहलू का अर्थ है कि राज्य की सीमाओं के भीतर राज्य से ऊँचा कोई भी प्राधिकारी नहीं है। राज्य सर्वोच्च है और नागरिक राज्य के ख़िलाफ़ किसी अन्य प्राधिकारी से अपील नहीं कर सकता है। बाहरी प्रभुसत्ता का अर्थ है किसी विशिष्ट राज्य को दूसरे राज्यों द्वारा दी जाने वाली मान्यता। साथ ही, इसमें यह भी स्वीकार किया जाता है कि कोई राज्य अंतर्राष्ट्रीय मामलों में अपने नागरिकों की ओर से बोल सकता है। यह अधिकार अंतर्राष्ट्रीय दायरे में राज्य की स्वायत्तता और प्रभुसत्ता को व्यक्त करता है।
राज्य को एक आधुनिक परिघटना मानने का मतलब यह नहीं है कि इसे एक ऐतिहासिक सत्ता या दार्शनिक विचार के रूप में भी ख़ारिज कर दिया जाये। यह भी नहीं कहा जा सकता है कि आधुनिक राज्य की कोई भी विशेषता इतिहास के पहले के दौर में मौजूद नहीं थी। असल में, आधुनिक दौर के पहले के राज्य और आधुनिक दौर के साथ सामने आये राज्य की कई विशेषताएँ समान हैं। इसी तरह, यह नहीं कहा जा सकता कि एक दार्शनिक विचार के रूप में राज्य आधुनिक राज्य की पूर्ण अवधारणा का प्रतिनिधित्व करता है। असल में दार्शनिक रूप से राज्य की अवधारणा अलग- अलग तरीकों से कल्पित और विवेचित की जाती रही है। मसलन, उदारतावादियों ने राज्यों को एक तटस्थ संस्था के रूप में देखा, लेकिन राज्य की भूमिका के बारे में उदारतावाद के भीतर गम्भीर और विविध चर्चा होती रही है। मार्क्सवाद के भीतर भी राज्य के लेकर वाद-विवाद की समृद्घ परम्परा रही है। इसमें राज्य को पूँजीपति वर्गों का साधन मानने के साथ ही राज्य की सापेक्षिक स्वायत्तता से जुड़ा वाद-विवाद भी शामिल रहा है। अराजकतावादियों ने राज्य को एक अप्राकृतिक सत्ता माने हुए इसे पूरी तरह ख़त्म करने की वकालत की है। मार्क्स-एंगेल्स के लेखन में भी एक ऐसी साम्यवादी स्थिति की कल्पना की गयी है, जिसमें राज्य पूरी तरह ख़त्म हो जायेगा। लेकिन अराजकतावादी ऐसी किसी स्थिति का इंतज़ार करने की बजाय राज्य को जल्द-से-जल्द ख़त्म करना चाहते हैं। इनका मानना है कि राज्य मनुष्य की स्वाभाविक प्रकृति के ख़िलाफ़ हिंसा पर आधारित है। दूसरी ओर, अनुदारतावादी राज्य की तरफ़दारी इसलिए करते हैं ताकि वह कई पीढ़ियों से संचित परम्पराओं और मूल्यों का संरक्षण कर पाये। नारीवादियों के भीतर की विभिन्न धाराओं में राज्य के बारे में अलग-अलग तरह से विचार किया गया है। उदाहरण के तौर पर, उदारतावादी-नारीवाद यह मानता है कि एक संस्था के रूप में राज्य पुरुष वर्चस्व की ओर झुका हुआ है, लेकिन कानून बनाकर राज्य की इस प्रवृत्ति में सुधार किया जा सकता है और इसका उपयोग पुरुष-महिला समानता स्थापित करने के लिए किया जा सकता है। दूसरी ओर, समाजवादी-नारीवाद राज्य के पूँजीवादी चरित्र को महिलाओं की समस्या का मुख्य कारण मानता है। इसकी मान्यता है कि पूँजीवादी राज्य ख़त्म करने से ही स्त्रियों की स्थिति में सुधार हो सकता है। तीसरा, रैडिकल नारीवादी विचार के मुताबिक राज्य पितृसत्ता पर आधारित परिवार और उसके द्वारा आगे बढ़ाये जाने वाले मूल्यों की हिफ़ाज़त का काम करता है। इसलिए पितृसत्ता को पूरी तरह ख़त्म करने के लिए आवश्यक है कि राज्य को भी ख़त्म किया जाए। स्पष्ट तौर पर, राज्य, इसकी प्रकृति और भूमिका के बारे में बहुत विविध और गहन वाद-विवाद है। हाल के दौर में युरोपीय यूनियन जैसी संरचनाओं के उभार के कारण यह तर्क दिया गया है कि राज्य धीरे-धीरे अप्रासंगिक हो रहा है। लेकिन यह तर्क बहुत मज़बूत नहीं है। यह सच है कि युरोपीय यूनियन में शामिल देशों ने एक मज़बूत क्षेत्रीय संगठन को बनाने के लिए अपनी सहमति दी है। फिर भी, वे एक राष्ट्र-राज्य के रूप में अपनी-अपनी पहचान ख़त्म नहीं करना चाहते हैं। दूसरे कई क्षेत्रीय संगठनों ने भी क्षेत्र के देशों के बीच सहयोग बढ़ाया है, लेकिन इस बात की कोई सम्भावना नज़र नहीं आती है कि वे राष्ट्र-राज्य का विकल्प साबित होंगे। समकालीन दुनिया में राज्य एक ऐसी हकीकत है, जिसके ख़त्म होने का कोई आसार नहीं है। वैचारिक रूप से इसका विरोध करने वाले कई विचारधाराओं के अनुयायी व्यावहारिक मौका मिलने पर भी राज्य की संस्था को ख़त्म कर पाने में नाकाम रहे हैं।
इन्हें भी देखें
राज्य की मार्क्सवादी अवधारणा
माइकल फूको (अच्युतानन्द मिश्र)
फूको डॉट इन्फो
इमेक के जालस्थल पर मिशेल फूको के पुरालेख
मिशेल-फूको डॉट कॉम
थियरी डॉट ऑर्ग पर फूको
मिशेल फूको स्टैनफोर्ड एनसाइक्लोपीडिया ऑफ फिलॉसफी०० पर उनके बारे में
संस्मरणात्मक आलेखस्वयं फूको द्वारा लिखित
फ्रेंच एवं अंग्रेजी बिबलियोग्राफी
फूको स्टडीजएक वैश्विक इलेक्ट्रॉनिक पत्रिका
डॉसियरथीमेटिक माइक्रो-जालस्थल श्रृंखला
फ़्रांस के लोग
१९२६ में जन्मे लोग |
इंदिरा गोस्वामी (१४ नवम्बर १९४२ - नवम्बर, २०११) असमिया साहित्य की सशक्त हस्ताक्षर थीं। ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित श्रीमती गोस्वामी असम की चरमपंथी संगठन उल्फा यानि युनाइटेड लिबरेशन फ्रंट ऑफ असम और भारत सरकार के बीच मध्यस्थ की भूमिका निभाने की राजनैतिक पहल करने में अहम भूमिका निभाई। इनके द्वारा रचित एक उपन्यास मामरे धरा तरोवाल अरु दुखन उपन्यास के लिये उन्हें सन् १९८२ में साहित्य अकादमी पुरस्कार (असमिया) से सम्मानित किया गया।
इनका जन्म : १४ नवम्बर १९४३ गुवाहाटी असम में हुआ था और इसी गुवाहाटी में उन्होंने अंतिम सांस ली।
गुवाहाटी विश्वविद्यालय से असमिया में एम ए तथा 'माधव कांदली एवं गोस्वामी तुलसीदास की रामायण का तुलनात्मक अध्ययन' पर पी एच डी।
दिल्ली विश्वविद्यालय के आधुनिक भारतीय भाषा विभाग में प्रोफेसर के पद पर कार्यरत रहीं।
गोस्वामी को उनके मौलिक लेखन के लिए जाना जाता है। उन्होंने सामाजिक कुरीतियों पर काफी लिखा था। उन्होंने भारत में महिला सशक्तीकरण पर जोर दिया था।
१४ नवम्बर १९४२ को जन्मी डॉ॰ गोस्वामी की प्रारंभिक शिक्षा शिलांग में हुई लेकिन बाद में वह गुवाहाटी आ गईं और आगे की पढ़ाई उन्होंने टी सी गर्ल्स हाईस्कूल और काटन काॅलेज एवं गुवाहाटी विश्वविद्यालय से पूरी की। उनकी लेखन प्रतिभा के दर्शन महज २० साल में उस समय ही हो गए जब उनकी कहानियों का पहला संग्रह १९६२ में प्रकाशित हुआ जबकि उनकी शिक्षा का क्रम अभी चल ही रहा था। वह देश के चुनिंदा प्रसिद्ध समकालीन लेखकों में से एक थीं। उन्हें उनके 'दोंतल हातिर उने खोवडा होवडा' ('द मोथ ईटन होवडाह ऑफ ए टस्कर'), 'पेजेज स्टेन्ड विद ब्लड और द मैन फ्रॉम छिन्नमस्ता' उपन्यासों के लिए जाना जाता है।
उनकी व्यक्तिगत ईमानदारी का परिचय उनके आत्मकथात्मक उपन्यास 'द अनफिनिशड आटोबायोग्राफी'में मिलता है। इसमें उन्होंने अपनी जिन्दगी के तमाम संघर्षों पर रोशनी डाली है। यहां तक कि इस किताब में उन्होंने ऐसी घटना का भी जिक्र किया है कि दबाव में आकर उन्होंने आत्महत्या करने जैसा कदम उठाने का प्रयास किया था। तब उन्हें उनके बेपरवाह बचपन और पिता के पत्रों की यादों ने ही जीवन दिया। शायद इसी ईमानदारी तथा आत्मालोचना के बल ने उन्हें असम के अग्रणी लेखकों की पंक्ति में लाकर खड़ा कर दिया।
डॉ॰ गोस्वामी ने माधवन राईसोम आयंगर से १९६६ में विवाह किया था लेकिन विवाह के महज डेढ़ साल बाद कश्मीर में हुई एक सड़क दुर्घटना में माधवन की हुई मौत ने उन्हें तोड़कर रख दिया। इसके बाद वह पूरी तरह से टूट गईं। एक समय तो वह वृंदावन जाने का मन बना लिया था, जिसे हिंदू विधवाओं के लिए एक गंतव्य माना जाता है। उन्हें इस सदमे से उबरने में काफी वक्त लगा। वह इससे बाहर तो आई लेकिन गमजदा होकर। यह तकलीफ उनके लेखन में सहज ही महसूस की जा सकती है।
उन्हें १९८३ में उनके उपन्यास 'मामारे धारा तारवल' के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला। साल १९८८ में उनकी आत्मकथा 'अधलिखा दस्तावेज' प्रकाशित हुई।
वह दिल्ली विश्वविद्यालय में असमिया भाषा विभाग में विभागाध्यक्ष भी रही। उनकी प्रतिष्ठा की चमक के कारण उन्हें सेवानिवृत्ति के बाद मानद प्रोफेसर का दर्जा प्रदान किया। उन्हें डच सरकार का 'प्रिंसिपल प्रिंस क्लाउस लाउरेट' पुरस्कार भी प्रदान किया गया था।
उन्हें साल २००० में साहित्य जगत का सर्वोच्च सम्मान ज्ञानपीठ पुरस्कार मिला और २००८ में प्रिंसीपल प्रिंस क्लॉस लॉरिएट पुरस्कार मिला। उन्हें रामायण साहित्य में विशेषज्ञता के लिए साल १९९९ में मियामी के फ्लोरिडा अंतर्राष्ट्रीय विश्वविद्यालय से अंतर्राष्ट्रीय तुलसी पुरस्कार मिला था। गोस्वामी की किताबों का कई भारतीय व अंग्रेजी भाषाओं में अनुवाद हुआ है।
चेनाबर स्रोत (१९७२)
नीलकण्ठी ब्रज (१९७६)
मामरे धरा तरोवाल आरु दुखन उपन्यास (१९८०)
दँताल हातीर उँये खोवा हाओदा (१९८८)
संस्कार, उदयभानुर चरित्र इत्यादि (१९८९)
ईश्बरी जखमी यात्री इत्यादि (१९९१)
तेज आरु धूलिरे धूसरित पृष्ठा (१९९४)
मामनि रयछम गोस्बामीर उपन्यास समग्र (१९९८)
दाशरथीर खोज (१९९९)
छिन्नमस्तार मानुहटो (२००१)
थेंफाख्री तहचिलदारर तामर तरोवाल (२००६)
चिनाकि मरम (१९६२)
हृदय एक नदीर नाम (१९९०)
मामनि रयछमर स्बनिर्बाचित गल्प (१९९८)
मामनि रयछम गोस्बामीर प्रिय गल्प (१९९८)
आधा लिखा दस्ताबेज (१९८८)
दस्ताबेजर नतुन पृष्ठा (२००७)
महियसी कमला (१९९५)
प्रेमचन्दर चुटिगल्प ((१९७५)
आधा घण्टा समय (१९७८)
जातक कथा (१९९६)
एरि अहा दिनबोर (ड मलया खाउन्दर के साथ, १९९३)
साहित्य अकादमी पुरस्कार १९८३
असम साहित्य सभा पुरस्कार १९८८
भारत निर्माण पुरस्कार १९८९
उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान का सौहार्द पुरस्कार १९९२
कमलकुमारी फाउंडेशन पुरस्कार १९९६
अन्तर्राष्ट्रीय तुलसी पुरस्कार फ्लोरिडा यू एस ए १९९९
इसके अतिरिक्त "दक्षिणी कामरूप की गाथा" पर आधारित हिन्दी टी वी धारावाहिक तथा उक्त उपन्यास पर असमिया में निर्मित फिल्म "अदाज्य" को राष्ट्रीय एवं अन्तराष्ट्रीय ज्यूरी पुरस्कार प्राप्त।
नीलकंठी ब्रज (इंदिरा गोस्वामी ; अनुवाद - दिनेश द्विवेदी)
साहित्यकार इंदिरा गोस्वामी का निधन (रविवार)
'लेखक को मानवता का साथ देना चाहिए' (बीबीसी)
असम के लोग
१९४३ में जन्मे लोग
२०११ में निधन
साहित्य अकादमी द्वारा पुरस्कृत असमिया भाषा के साहित्यकार |
धर्मवीर भारती (२५ दिसंबर, १९२६- ४ सितंबर, १९९७) आधुनिक हिन्दी साहित्य के प्रमुख लेखक, कवि, नाटककार और सामाजिक विचारक थे। वे एक समय की प्रख्यात साप्ताहिक पत्रिका धर्मयुग के प्रधान संपादक भी थे।
डॉ धर्मवीर भारती को १९७२ में पद्मश्री से सम्मानित किया गया। उनका उपन्यास गुनाहों का देवता सदाबहार रचना मानी जाती है। सूरज का सातवां घोड़ा को कहानी कहने का अनुपम प्रयोग माना जाता है, जिस पर श्याम बेनेगल ने इसी नाम की फिल्म बनायी, अंधा युग उनका प्रसिद्ध नाटक है।। इब्राहीम अलकाजी, राम गोपाल बजाज, अरविन्द गौड़, रतन थियम, एम के रैना, मोहन महर्षि और कई अन्य भारतीय रंगमंच निर्देशकों ने इसका मंचन किया है।
धर्मवीर भारती का जन्म २५ दिसंबर १९२६ को इलाहाबाद के अतर सुइया मुहल्ले में एक कायस्थ परिवार में हुआ था। उनके पिता का नाम श्री चिरंजीव लाल वर्मा और माँ का श्रीमती चंदादेवी था। स्कूली शिक्षा डी. ए वी हाई स्कूल में हुई और उच्च शिक्षा इलाहाबाद विश्वविद्यालय में। प्रथम श्रेणी में एम ए करने के बाद डॉ॰ धीरेन्द्र वर्मा के निर्देशन में सिद्ध साहित्य पर शोध-प्रबंध लिखकर उन्होंने पी-एच०डी० प्राप्त की।
घर और स्कूल से प्राप्त आर्यसमाजी संस्कार, इलाहाबाद और विश्वविद्यालय का साहित्यिक वातावरण, देश भर में होने वाली राजनैतिक हलचलें बाल्यावस्था में ही पिता की मृत्यु और उससे उत्पन्न आर्थिक संकट इन सबने उन्हें अतिसंवेदनशील, तर्कशील बना दिया। उन्हें जीवन में दो ही शौक थे : अध्ययन और यात्रा। भारती के साहित्य में उनके विशद अध्ययन और यात्रा-अनुभवोंं का प्रभाव स्पष्ट देखा जा सकता है:
जानने की प्रक्रिया में होने और जीने की प्रक्रिया में जानने वाला मिजाज़ जिन लोगों का है उनमें मैं अपने को पाता हूँ। (ठेले पर हिमालय)
उन्हें आर्यसमाज की चिंतन और तर्कशैली भी प्रभावित करती है और रामायण, महाभारत और श्रीमद्भागवत। प्रसाद और शरत्चन्द्र का साहित्य उन्हें विशेष प्रिय था। आर्थिक विकास के लिए मार्क्स के सिद्धांत उनके आदर्श थे परंतु मार्क्सवादियों की अधीरता और मताग्रहता उन्हें अप्रिय थे। सिद्ध साहित्य उनके शोध का विषय था, उनके सटजिया सिद्धांत से वे विशेष रूप से प्रभावित थे। पश्चिमी साहित्यकारों में शीले और आस्करवाइल्ड उन्हें विशेष प्रिय थे। भारती को फूलों का बेहद शौक था। उनके साहित्य में भी फूलों से संबंधित बिंब प्रचुरमात्रा में मिलते हैं।
आलोचकों में भारती जी को प्रेम और रोमांस का रचनाकार माना है। उनकी कविताओं, कहानियों और उपन्यासों में प्रेम और रोमांस का यह तत्व स्पष्ट रूप से मौजूद है। परंतु उसके साथ-साथ इतिहास और समकालीन स्थितियों पर भी उनकी पैनी दृष्टि रही है जिसके संकेत उनकी कविताओंं, कहानियों, उपन्यासों, नाटकों, आलोचना तथा संपादकीयों में स्पष्ट देखे जा सकते हैं। उनकी कहानियों-उपन्यासों में मध्यवर्गीय जीवन के यथार्थ के चित्रा हैं अंधा युग में स्वातंत्रयोत्तर भारत में आई मूल्यहीनता के प्रति चिंता है। उनका बल पूर्व और पश्चिम के मूल्यों, जीवन-शैली और मानसिकता के संतुलन पर है, वे न तो किसी एक का अंधा विरोध करते हैं न अंधा समर्थन, परंतु क्या स्वीकार करना और क्या त्यागना है इसके लिए व्यक्ति और समाज की प्रगति को ही आधार बनाना होगा-
पश्चिम का अंधानुकरण करने की कोई जरूरत नहीं है, पर पश्चिम के विरोध के नाम पर मध्यकाल में तिरस्कृत मूल्यों को भी अपनाने की जरूरत नहीं है।
उनकी दृष्टि में वर्तमान को सुधारने और भविष्य को सुखमय बनाने के लिए आम जनता के दुःख दर्द को समझने और उसे दूर करने की आवश्यकता है। दुःख तो उन्हें इस बात का है कि आज जनतंत्र में तंत्र शक्तिशाली लोगों के हाथों में चला गया है और जन की ओर किसी का ध्यान ही नहीं है। अपनी रचनाओं के माध्यम से इसी जन की आशाओं, आकांक्षाओं, विवशताओं, कष्टों को अभिव्यक्ति देने का प्रयास उन्होंने किया है।
कार्यक्षेत्र : अध्यापन। १९४८ में 'संगम' सम्पादक श्री इलाचंद्र जोशी में सहकारी संपादक नियुक्त हुए। दो वर्ष वहाँ काम करने के बाद हिन्दुस्तानी अकादमी में अध्यापक नियुक्त हुए। सन् १९६० तक कार्य किया। प्रयाग विश्वविद्यालय में अध्यापन के दौरान 'हिंदी साहित्य कोश' के सम्पादन में सहयोग दिया। निकष' पत्रिका निकाली तथा 'आलोचना' का सम्पादन भी किया। उसके बाद 'धर्मयुग' में प्रधान सम्पादक पद पर बम्बई आ गये।
१९९७ में डॉ॰ भारती ने अवकाश ग्रहण किया। १९९९ में युवा कहानीकार उदय प्रकाश के निर्देशन में साहित्य अकादमी दिल्ली के लिए डॉ॰ भारती पर एक वृत्त चित्र का निर्माण भी हुआ है।
कहानी संग्रह : मुर्दों का गाँव १९४६, स्वर्ग और पृथ्वी १९४९ , चाँद और टूटे हुए लोग १९५५, बंद गली का आखिरी मकान १९६९, साँस की कलम से, समस्त कहानियाँ एक साथ
काव्य रचनाएं : ठंडा लोहा(१९५२), सात गीत वर्ष(१९५९), कनुप्रिया(१९५९) सपना अभी भी(१९९३), आद्यन्त(१९९९),देशांतर(१९६०)
उपन्यास: गुनाहों का देवता १९४९, सूरज का सातवां घोड़ा १९५२, ग्यारह सपनों का देश, प्रारंभ व समापन।
निबंध संग्रह : ठेले पर हिमालय (१९५८ई०),पश्यन्ती (१९६९ई०),कहनी-अनकहनी (१९७० ई०),कुछ चेहरे कुछ चिन्तन (१९९५ई०),शब्दिता (१९७७ई०),मानव मूल्य और साहित्य (१९६०ई०)।
एकांकी व नाटक : नदी प्यासी थी, नीली झील, आवाज़ का नीलाम आदि
पद्य नाटक : अंधा युग १९५४ (महाभारत का युगान्त)
आलोचना : प्रगतिवाद : एक समीक्षा, मानव मूल्य और साहित्य
परिमार्जित खड़ीबोली; मुहावरों, लोकोक्तियों, देशज तथा विदेशी भाषाओं के शब्दों का प्रयोग।
अन्य महत्वपूर्ण तथ्य
'व्यक्ति स्वातंत्र्य' इनकी कविता का केंद्र बिंदु है।
आलोचकों ने इनके प्रारंभिक काव्य संग्रह ठंडा लोहा को कैशोर्य भावुकता का काव्य का है।
भावात्मक, वर्णनात्मक, शब्द चित्रात्मक आलोचनात्मक हास्य व्यंग्यात्मक।
अलंकरण तथा पुरस्कार
१९७२ में पद्मश्री से अलंकृत डा धर्मवीर भारती को अपने जीवन काल में अनेक पुरस्कार प्राप्त हुए जिसमें से प्रमुख हैं
१९८४ हल्दी घाटी श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार
महाराणा मेवाड़ फाउंडेशन १९८८
सर्वश्रेष्ठ नाटककार पुरस्कार संगीत नाटक अकादमी दिल्ली १९८९
भारत भारती पुरस्कार उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान १९८९
महाराष्ट्र गौरव, महाराष्ट्र सरकार १९९४
व्यास सम्मान के के बिड़ला फाउंडेशन
गुनाहों का देवता
धर्मवीर भारती का आधिकारिक जालघर
धर्मवीर भारती ग्रन्थावली, भाग-९ (गूगल पुस्तक ; लेखक - चन्द्रकान्त बंदिवादेकर)
साहित्य विचार और स्मृति (गूगल पुस्तक ; लेखकद्वय - पुष्पा भारती, धर्मवीर भारती)
लेखन पर पाबंदी नामंजूर थी धर्मवीर भारती को (प्रभासाक्षी)
आर्य जगत के सुप्रसिद्घ विद्वान डॉ.धर्मवीर का लघु जीवनचरित
धर्मवीर भारती की कविताएं
परिमल से जुड़े साहित्यकार
इलाहाबाद विश्वविद्यालय के पूर्व छात्र
१९२६ में जन्मे लोग
१९९७ में निधन |
मृदुला गर्ग (जन्म:२५ अक्टूबर, १९३८) कोलकाता में जन्मी, हिंदी की सबसे लोकप्रिय लेखिकाओं में से एक हैं। उपन्यास, कहानी संग्रह, नाटक तथा निबंध संग्रह सब मिलाकर उन्होंने २० से अधिक पुस्तकों की रचना की है। १९६० में अर्थशास्त्र में स्नातकोत्तर उपाधि लेने के बाद उन्होंने ३ साल तक दिल्ली विश्वविद्यालय में अध्यापन भी किया है।
उनके उपन्यासों को अपने कथानक की विविधता और नयेपन के कारण समालोचकों की बड़ी स्वीकृति और सराहना मिली। उनके उपन्यास और कहानियों का अनेक हिंदी भाषाओं तथा जर्मन, चेक, जापानी और अँग्रेजी में अनुवाद हुआ है। वे स्तंभकार रही हैं, पर्यावरण के प्रति सजगता प्रकट करती रही हैं तथा महिलाओं तथा बच्चों के हित में समाज सेवा के काम करती रही हैं। उनका उपन्यास 'चितकोबरा' नारी-पुरुष के संबंधों में शरीर को मन के समांतर खड़ा करने और इस पर एक नारीवाद या पुरुष-प्रधानता विरोधी दृष्टिकोण रखने के लिए काफी चर्चित और विवादास्पद रहा था। उन्होंने इंडिया टुडे के हिन्दी संस्करण में २००३ से २०१० तक 'कटाक्ष' नामक स्तंभ लिखा है जो अपने तीखे व्यंग्य के कारण खूब चर्चा में रहा।
उनके आठ उपन्यास - उसके हिस्से की धूप, वंशज, चित्तकोबरा, अनित्य, 'मैं और मैं', कठगुलाब, 'मिलजुल मन' और 'वसु का कुटुम'; ग्यारह कहानी संग्रह - 'कितनी कैदें', 'टुकड़ा टुकड़ा आदमी', 'डैफ़ोडिल जल रहे हैं', 'ग्लेशियर से', 'उर्फ सैम', 'शहर के नाम', 'चर्चित कहानियाँ', समागम, 'मेरे देश की मिट्टी अहा', 'संगति विसंगति', 'जूते का जोड़ गोभी का तोड़', चार नाटक- 'एक और अजनबी', 'जादू का कालीन', 'तीन कैदें' और 'सामदाम दंड भेद'; तीन निबंध संग्रह - 'रंग ढंग' ,'चुकते नहीं सवाल' तथा 'कृति और कृतिकार', एक यात्रा संस्मरण- 'कुछ अटके कुछ भटके' तथा दो व्यंग्य संग्रह - 'कर लेंगे सब हज़म' तथा 'खेद नहीं है' प्रकाशित हुए हैं।
अनित्य (उपन्यास -१९८०)
उर्फ सैम (कथासंग्रह -१९८६)
उसके हिस्से की धूप (उपन्यास -१९७५)
एक और अजनबी (नाटक -१९७८)
एक यात्रा संस्मरण- कुछ अटके कुछ भटके (ललित लेखसंग्रह)
कठगुलाब (उपन्यास -१९९६)
कर लेंगे सब हज़म (व्यंग्य -२००७)
कितनी कैदें (कथासंग्रह -१९७५)
खेद नहीं है (व्यंग्य -२००९)
ग्लेशियर से (कथासंग्रह -१९८०)
चर्चित कहानियाँ (कथासंग्रह -१९९३)
चित्तकोबरा (उपन्यास -१९७९)
चुकते नहीं सवाल (ललित लेखसंग्रह -१९९९)
छत पर दस्तक (कथासंग्रह -२००६)
जादू का कालीन (नाटक -१९९३)
जूते का जोड़ गोभी का तोड़ (कथासंग्रह -२००६)
टुकड़ा टुकड़ा आदमी (कथासंग्रह -१९७६)
डैफ़ोडिल जल रहे हैं (कथासंग्रह -१९७८)
तीन कैदें (नाटक -१९९६)
दस प्रतिनिधी कहानियाँ (कथासंग्रह -२००७)
मंज़ूर नामंज़ूर (प्रेमकथा -२००७)
मिलजुल मन (उपन्यास -२००९)
मृदुला गर्ग की यादगारी कहानियाँ (कथासंग्रह -२०१०)
मेरे देश की मिट्टी अहा (कथासंग्रह २००१)
मैं और मैं (उपन्यास -१९८४)
रंग ढंग (ललित लेखसंग्रह -१९९५)
वंशज (उपन्यास -१९७६)
शहर के नाम (कथासंग्रह -१९९०)
संगति विसंगति (कथासंग्रह, दो खंड -२००३)
समागम (कथासंग्रह -१९९६)
सामदाम दंड भेद (बालनाटक -२०११)
हिन्दी अकादमी, दिल्ली द्वारा साहित्यकार सम्मान (१९८८)
उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान, लखनऊ द्वारा साहित्य भूषण (१९९९)
ह्यूमन राइट वाच, न्यूयॉर्क द्वारा साहसी लेखन के लिए हेलमैन-हैमेट ग्रान्ट (२००१)
विश्व हिन्दी सम्मेलन, सूरीनाम में साहित्य में जीवनभर के योगदान (लाइफटाइम कॉन्ट्रिब्यूशन) के लिए सम्मानित (२००३)
कृति कठगुलाब के लिए, हिन्दी में उत्कृष्ट लेखन, व्यास सम्मान (२००४)
मध्यप्रदेश साहित्य परिषद द्वारा 'उसके हिस्से की धूप' (उपन्यास) और 'जादू का कालीन (नाटक) के लिए सम्मान (क्रमशः वर्ष १९७५ और १९९३)
मिलजुल मन (उपन्यास) को साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया (२०१३)
उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान, लखनऊ से राम मनोहर लोहिया सम्मान (२०१६)
डी.लिट. "ऑनोरिस कौसा" आईटीएम विश्वविद्यालय, ग्वालियर (२०१६)
शब्दांकन पर पढ़े मिलजुल मन उपन्यास अंश
गद्य कोष पर मृदुला गर्ग
भारतीय साहित्य संग्रह पर मृदुला गर्ग की कृतियां व पुस्तकें
चित्त कोबरा-अभिलाष.ऑर्ग पर
हिन्दी विकि डीवीडी परियोजना
भारतीय महिला साहित्यकार
साहित्य अकादमी द्वारा पुरस्कृत हिन्दी भाषा के साहित्यकार |
गया (गया) भारत के बिहार राज्य के गया ज़िले में स्थित एक नगर है। यह ज़िले का मुख्यालय और बिहार राज्य का दूसरा सबसे बड़ा शहर है। इस क्षेत्र के लोग मगही भाषा बोलते हैं और गया भारत के अतंरराष्ट्रीय पर्यटक स्थलों मे से एक हैं यहाँ पर विदेशी पर्यटकों लाखों की संख्या मे आते हैंइस नगर का हिन्दू, बौद्ध और जैन धर्मों में गहरा ऐतिहासिक महत्व है। शहर का उल्लेख रामायण और महाभारत में मिलता है। गया तीन ओर से छोटी व पथरीली पहाड़ियों से घिरा है, जिनके नाम मंगला-गौरी, श्रृंग स्थान, रामशिला और ब्रह्मयोनि हैं। नगर के पूर्व में फल्गू नदी बहती है।
वैदिक कीकट प्रदेश के धर्मारण्य क्षेत्र मे स्थापित नगरी है गया। वाराणसी की तरह गया की प्रसिद्धि मुख्य रूप से एक धार्मिक नगरी के रूप में है। पितृपक्ष के अवसर पर यहाँ हजारों श्रद्धालु पिंडदान के लिये जुटते हैं। गया सड़क, रेल और वायु मार्ग द्वारा पूरे भारत से जुड़ा है। नवनिर्मित गया अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डा द्वारा यह थाइलैंड से भी सीधे जुड़ा हुआ है। गया से १३ किलोमीटर की दूरी पर बोधगया स्थित है जो बौद्ध तीर्थ स्थल है और यहीं बोधि वृक्ष के नीचे भगवान बुद्ध को ज्ञान की प्राप्ति हुई थी।
गया बिहार के महत्वपूर्ण तीर्थस्थानों में से एक है। यह शहर खासकर हिन्दू तीर्थयात्रियों के लिए काफी प्रसिद्ध है। यहां का विष्णुपद मंदिर पर्यटकों के बीच लोकप्रिय है। पुराणों के अनुसार भगवान विष्णु के पांव के निशान पर इस मंदिर का निर्माण कराया गया है। हिन्दू धर्म में इस मंदिर को अहम स्थान प्राप्त है। गया पितृदान के लिए भी प्रसिद्ध है। कहा जाता है कि यहां फल्गु नदी के तट पर पिंडदान करने से मृत व्यक्ति को बैकुण्ठ की प्राप्ति होती है।
गया, मध्य बिहार का एक महत्वपूर्ण शहर है, जो फल्गु नदी के तट पर स्थित है। यह बोधगया से १३ किलोमीटर उत्तर तथा राजधानी पटना से १०० किलोमीटर दक्षिण में स्थित है। यहां का मौसम मिलाजुला है। गर्मी के दिनों में यहां काफी गर्मी पड़ती है और ठंड के दिनों में औसत सर्दी होती है। मानसून का भी यहां के मौसम पर व्यापक असर होता है। लेकिन वर्षा ऋतु में यहां का दृश्य काफी रोचक होता है।
कहा जाता है कि गयासुर नामक दैत्य का बध करते समय भगवान विष्णु के पद चिह्न यहां पड़े थे जो आज भी विष्णुपद मंदिर में देखे जा सकते है।मुक्तिधाम के रूप में प्रसिद्ध गया (तीर्थ) को केवल गया न कह कर आदरपूर्वक 'गया जी' कहा जाता है।
गया का उल्लेख महाकाव्य रामायण में भी मिलता है। गया मौर्य काल में एक महत्वपूर्ण नगर था। खुदाई के दौरान सम्राट अशोक से संबंधित आदेश पत्र पाया गया है। मध्यकाल में बिहार मुगल सम्राटों के अधीन था।मुगलकाल के पतन के उपरांत गया पर अंग्रेजो ने राज किया। १७८७ में होल्कर वंश की( बुंदेलखंड की) साम्राज्ञी महारानी अहिल्याबाई ने विष्णुपद मंदिर का पुनर्निर्माण कराया था। मेगास्थनीज़ की इण्डिका, फाह्यान तथा ह्वेनसांग के यात्रा वर्णन में गया का एक समृद्ध धर्म क्षेत्र के रूप मे वर्णन है।
फल्गु नदी के पश्चिमी किनारे पर स्थित यह मंदिर पर्यटकों के बीच काफी लोकप्रिय है। कहा जाता है कि इस मंदिर का निर्माण भगवान विष्णु के पदचिन्हों पर किया गया है। यह मंदिर ३० मीटर ऊंचा है जिसमें आठ खंभे हैं। इन खंभों पर चांदी की परतें चढ़ाई हुई है। मंदिर के गर्भगृह में भगवान विष्णु के ४० सेंटीमीटर लंबे पांव के निशान हैं। इस मंदिर का १७८७ में इंदौर की महारानी अहिल्या बाई ने नवीकरण करवाया था। पितृपक्ष के अवसर पर यहां श्रद्धालुओं की काफी भीड़ जुटती है।
स्वामी धरणीधराचार्य स्थापित भोरी का वैष्णव मठ वैदिक शिक्षा तथा हिन्दू आस्था का प्रमुख केन्द्र है।
बराबर पर्वत पर सिद्ध नाथ तथा दशनाम परंपरा के नागाओं के प्रमुख आस्था का केन्द्र है सिद्धनाथ मंदिर, पास में ही नारद लोमस आदि ऋषियों की गुफायें हैं। माना जाता है कि इन गुफाओं मे प्राचीन ऋषियों ने तप किया था।
जामा मस्जिद जो दिल्ली में है, वह अलग है, ील बोध गया मंदिर के पीछे जाम मस्जिद नामक एक मस्जिद है , बिहार की सबसे बडी मस्जिद यही है। यह तकरीबन २०० साल पुरानी है। इसमे हजारो लोग साथ नमाज अदा कर सकते हैं।
मुख्य नगर से १० कि॰मी॰ दूर गया पटना मार्ग पर स्थित एक पवित्र धर्मिक स्थल है। यहाँ नवी सदी हिजरी में चिशती अशरफि सिलसिले के प्रख्यात सूफी सत हजरत मखदूम सयद दर्वेश अशरफ ने खानकाह अशरफिया की स्थापना की थी। आज भी पूरे भारत से श्रदालू यहाँ दर्शन के लिये आते है। हर साल इस्लामी मास शाबान की १० तारीख को हजरत मखदूम सयद दर्वेश अशरफ का उर्स
गया जी मनाया जाता है।
बानाबर (बराबर) पहाड़
गया से लगभग २० किलोमीटर उत्तर बेलागंज से १० किलोमीटर पूरब में स्थित है| इसके ऊपर भगवान शिव का मन्दिर है, जहाँ हर वर्ष हजारों श्रद्धालू सावन के महीने में जल चढ़ते है। कहते हैं इस मन्दिर को बानासुर ने बनवाया था। पुनः सम्राट अशोक ने मरम्मत करवाया। इसके नीचे सतघरवा की गुफा है, जो प्राचीन स्थापत्य कला का नमूना है। इसके अतिरिक्त एक मार्ग गया से लगभग ३० किमी उत्तर मखदुमपुर से भी है। इस पर जाने हेतु पातालगंगा, हथियाबोर और बावनसीढ़ी तीन मार्ग है, जो क्रमशः दक्षिण, पश्चिम और उत्तर से है, पूरब में फलगू नदी है।
और गया से लगभग २५ किलोमीटर पूरब में टनकुप्पा प्रखंड में चोवार एक गाँव है जो की गया जिले में एक अलग ही बिशेषता रखता है!इस गाँव में एक प्राचीन शिव मंदिर है जो अपने आप में ही एक बहुत बड़ी महानता रखता है!इस मंदिर में भगवान शिव को चाहे जितना भी जल क्यों नहीं चढ़ाये पर आजतक इसका पता नहीं लग पाया है!और इसी गाँव में खुदाई में बहुत ही प्राचीन अष्टधातु की मूर्तियाँ और चाँदी के बहुतें सिक्के मिले है!इस गाँव में एक ताड़ का पेड़ भी है,जो की बहुत ही अद्भुत है। इस ताड़ के पेड़ की विशेषता यह है कि इस पेड़ में तिन डाल है जो की भगवान शिव की त्रिशूल की आकार का है,ये गाँव की शोभा बढ़ाता है जी हाँ ये चोवार गाँव की विशेषता है।
प्राचीन एबं अद्भुत शिव मंदिर (चोवार गॉव)
चोवार गया शहर से ३५ किलोमीटर पूर्व में एक गाँव है चोवार जो की अपने आप में बहुत ही अद्भुत है इस गाँव में एक बहुत ही प्राचीन शिव मंदिर है जहा सैकड़ो श्रद्धालु बाबा बालेश्वरनाथ के ऊपर जल चढाते है पर आजतक ये जल कहाँ जाता है कुछ पता नहीं चलता है इसके पीछे के कारण किसी को नहीं पता चला। लगभग हजारो सालों से ये चमत्कार की जाँच करने आये सैकड़ो बैज्ञानिको ने भी ये दाबा किया है कि ये भगवान शिव का चमत्कार है।इसी गाँव में कुछ सालों पहले सड़क निर्माण के दौरान यहाँ एक बहुत ही बड़ा घड़ा निकला जिसमे हजारो शुद्ध चाँदी के सिक्के निकले थे।आज भी इस गाँव से अष्टधातु की अनेको मूर्तियाँ शिव मंदिर में देखने को मिलता है। .
इस गाँव में एक अद्भूत ताड़ का पेड़ भी है जो इस चोवार गाँव की शोभा बढ़ाता है।इस ताड की खास बात ये है कि ताड का पेड़ भगवान के त्रिशुल के तरह त्रिशाखायुक्त है!दूर-दूर से लोग इस पेड़ को देखने के लिये आते हैं।
यहां काफी प्राचीन एक कुआं भी है जिसमे कुछ-कुछ घंटों (समय) के बाद पानी का रंग बदलता रहता है।
कुएं का पानी का रंग भिन्न भिन्न रंगो में परिवर्तित होते रहता है।
यह अति प्राचीन शिव मन्दिर मोरहर-दरधा नदी के संगम किनारे मेन-मंझार गाँव में स्थित है। यहाँ हर वर्ष शिवरात्रि में मेला लगता है। यहाँ पहुँचने हेतु गया से लगभग ३० किमी उत्तर पटना-गया मार्ग पर स्थित मखदुमपुर से पाईबिगहा समसारा होते हुए जाना होता है। गया से पाईबिगहा के लिये सीधी बस सेवा उपलब्ध है। पाईबिगहा से इसकी दूरी लगभग २ किमी है।गया से टिकारी होकर भी यहां पहुंचा जा सकता है। किवदन्ती है कि प्राचीन काल में बाण पुत्री उषा ने यह मंदिर बनवाया था।किन्तु प्राप्त लिखित इतिहास तथा पुरातात्विक विश्लेषण से ये सिद्ध है कि ६ सदी में नाथ परंपरा के ३५वे सहजयानी सिद्ध बाबा कुचिया नाथ द्वारा स्थापित मठ है।इसलिए इसे कोचामठ या बुढवा महादेव भी कहते है।माना जाता है कि मेन के पाठक बाबा तथा मंझार के रामदेव बाबू को यहाँ भगवान शिव का साक्षात्कार हुआ था।वर्तमान समय मे मठ के जीर्णोद्धार का स्वप्नादेश भगवान शिव ने उन्ही रामदेव बाबू के पुत्र भोलानाथ शर्मा जी को किया , जातिभेद के वैमनस्य से क्रंदन कर रहे क्षेत्र मे शिव जी के प्रेरणा से सांस्कृतिक साहित्यिक एकता का प्रयत्न भोलानाथ शर्मा छ्त्रवली शर्मा नित्यानन्द शर्मा आदि ने प्रारंभ किया। सांस्कृतिक एकता की यात्रा ने मंदिर के जीर्णोद्धार के साथ बृहद् सांस्कृतिक केंद्र के रुप मे इसे स्थापित किया ।[]
सूर्य मंदिर प्रसिद्ध विष्णुपद मंदिर के २० किलोमीटर उत्तर और रेलवे स्टेशन से ३ किलोमीटर दूर स्थित है। भगवान सूर्य को समर्पित यह मंदिर सोन नदी के किनारे स्थित है। दिपावली के छ: दिन बाद बिहार के लोकप्रिय पर्व छठ के अवसर पर यहां तीर्थयात्रियों की जबर्दस्त भीड़ होती है। इस अवसर पर यहां मेला भी लगता है।
इस पहाड़ी की चोटी पर चढ़ने के लिए ४४० सीढ़ियों को पार करना होता है। इसके शिखर पर भगवान शिव का मंदिर है। यह मंदिर विशाल बरगद के पेड़ के नीचे स्थित हैं जहां पिंडदान किया जाता है। इस स्थान का उल्लेख रामायण में भी किया गया है। दंतकथाओं पर विश्वास किया जाए तो पहले फल्गु नदी इस पहाड़ी के ऊपर से बहती थी। लेकिन देवी सीता के शाप के प्रभाव से अब यह नदी पहाड़ी के नीचे से बहती है। यह पहाड़ी हिन्दुओं के लिए काफी पवित्र तीर्थस्थानों में से एक है। यह मारनपुर के निकट है।
पहाड पर स्थित यह मंदिर मां शक्ति को समर्पित है। यह स्थान १८ महाशक्तिपीठों में से एक है। माना जाता है कि जो भी यहां पूजा कराते हैं उनकी मन की इच्छा पूरी होती है।
इसी मन्दिर के परिवेश में मां काली, गणेश, हनुमान तथा भगवान शिव के भी मन्दिर स्थित हैं।
यह गुफा गया से २० किलोमीटर उत्तर में स्थित है। इस गुफा तक पहुंचने के लिए ७ किलोमीटर पैदल और १० किलोमीटर रिक्शा या तांगा से चलना होता है। यह गुफा बौद्ध धर्म के लिए महत्वपूर्ण है। यह बराबर और नागार्जुनी श्रृंखला के पहाड़ पर स्थित है। इस गुफा का निर्माण बराबर और नागार्जुनी पहाड़ी के बीच सम्राट अशोक और उनके पोते दशरथ के द्वारा की गई है। इस गुफा उल्लेख ई॰एम. फोस्टर की किताब ए पैसेज टू इंडिया में भी किया गया है। इन गुफओं में से ७ गुफाएं भारतीय पुरातत्व विभाग की देखरख में है।
देवी मंदिर नियाजीपुर, गया बिहार
देवी मंदिर नियाजीपुर का निर्माण सन १९६१ में हुई और इसका उद्घाटन फ़रवरी १९६१ में किया गया, इसका निर्माण नियाजीपुर गया के मूल निवासी स्वर्गीय राम उग्रह सिंह द्वारा किया गया था|
इसका उद्घाटन एक बहुत बड़े यज्ञ से हुआ था|इस समय मंदिर की देखभाल एक ट्रस्ट के माध्यम से की जाती है जिसके ट्रस्टी राम उग्रह सिंह के सबसे छोटे पुत्र श्री राज नंदन सिंह हैं। यह मंदिर एक तालाब के किनारे स्थित है जो इसकी खूबसूरती मे चार चाँद लगा देता है |
बाबा जमुनेश्वर धाम
गया शहर से पास में ही दक्षिण बिहार विश्वविद्यालय के जाने वाली रोड श ७९ के पास में ही जमुने बसा हुआ है। यह पवित्र जमूने नदी के तट पर बसा हुआ है। यहां पर काफी पुराना शिव मंदिर हैं जो कहा जाता है की टेकारी नरेश गोपाल सरण के द्वारा निर्माण करवाया गया था। स्थानीय लोगो का मानना है की बाबा जमुनेश्वर का महिमा बहुत ही अपार है। महाशिवरात्रि और श्रवण में यह श्रद्धालु की काफी भीड़ जुटती है। पास में ही सूर्य मंदिर का निर्माण किया जा रहा है,जहा एक धाम बन गया है विवाह के लगन के समय यह विवाह और कार्यक्रम करने वालो को बहुत भीड़ होती है। छठ पूजा पर आप यहां अपने परिवार के साथ यहां के घाट पर जरूर पधारे आपको एक अपनापन का एहसास दिलाएगा बाबा जमुनेश्वर का ये धाम।
सूर्य मंदिर कुजापी
गया शहर में गया जंक्शन से पश्चिमी ओर करीब ३ किमी दूर कुजापी गांव में एक खूबसूरत और विशाल सूर्य मंदिर स्थित है। इस मंदिर का निर्माण कार्य सन २०१२ ईस्वी में पूरा हुआ एवं इस मंदिर का उद्घाटन सन 201३ ईस्वी में एक विशाल महायज्ञ से हुआ जिसमें लगभग ४००० श्रद्धालु भक्तजनों ने कलश यात्रा में भाग लिया था। इस मंदिर का निर्माण कुजापी के तत्कालीन मुखिया श्री अभय कुशवाहा के द्वारा करवाया गया था जोकि टिकारी विधानसभा से विधायक भी रह चुके हैं।
इस मंदिर के ठीक सामने कृष्ण मंदिर है। इस मंदिर परिसर में एक विशाल सरोवर, मुंद्रा सरोवर का निर्माण करवाया गया है जिसमें प्रति वर्ष छठ के दिन श्रद्धालु भक्तजन अर्ध देते हैं।
ऐतिहासिक गांव ढीबर
गया-रजौली रोड पर गया से २० किमी दूर ढीबर नामक गांव है| यहां के गढ़ पे हजारो साल पुराना भगवान बुद्ध की अनेक मूर्तियाँ हैं|ये मूर्तियां खंडित हैं| यहां एक बहुत पुराना देवी मंदिर भी है यह मंदिर किसने और कब बनवाया यह कोई नहीं जानता | यहां बांसी नाला हॉल्ट नाम का एक रेलवे स्टेशन भी है जो यात्रा को आसान और तेज़ बनाता है|बाय सागर सिंह चन्द्रवंशी
सूर्य मंदिर (पाई बिगहा)
मखदुमपुर से ६ किमी दूर स्थित पाईबिगहा मोरहर किनारे बसा टिकारी राज्य का प्रमुख बाजार रहा है, हैमिल्टन बुचनन को यहाँ ई. पू. प्रथम सदी के प्राचीन शिव मंदिर के जीर्ण अवशेष मिले थे , बाजार के बीचोबीच उसी स्थान पर नया महादेव स्थान स्थापित है। पाईबिगहा मंझार रोड पर स्थित है एक प्राचीन सूर्य मंदिर जो जन आस्था का केन्द्र है।प्रति वर्ष छठपूजा मे मंदिर प्रांगण मे बडा मेला लगता है।दूर दूर से आकर लोग यहाँ छ्ठ पर्व मनाते हैं।माई जी नाम से सुविख्यत महिला भगवान् सूर्य की प्रमुख भक्त थी जिनके विषय मे कहा जाता है कि उन्हें इसी मंदिर प्रांगण में नारायण रुप मे सूर्य देव ने दर्शन दिया था।
संत कारुदास मंदिर (कोरमत्थू)
एक प्रसिद्ध कहावत है गया के राह कोरमत्थू। जी वही कोरमत्थु जहाँ जमुने किनारे भगवान राम ने गया जाते समय विश्राम किया था तथा एक शिवलिंग स्थापित की थी। वही शिवलिंग जिसकी खोज मे सिद्ध संप्रदाय के बाबा कारुदास हिमालय छोड कोरमत्थु के चैत्यवन आ पहुंचे। यहाँ प्राचीन शिवलिंग ठाकुरबाडी तथा कारूदास जी का मंदिर है। गया त्रिवेणी अखाडा से कोरमत्थु के लिए सीधी बस सेवा है । यहाँ से मंझार होते हुए बाबा कोटेश्वर नाथ धाम भी आसानी से पहुंचा जा सकता है।
माँ तारा मंदिर, केसपा
प्राचीन इतिहास मे मगध मे प्रमुख रूप से चैत्य वन तथा सिद्ध वन दो प्रमुख क्षेत्र थे। चैत्य वन मे मोरहर तथा पुनपुन का क्षेत्र केसपा कहा जाता था । पूर्व में माँ तारा के मंदिर के समीप से पुनपुन का प्रवाह था , तथा मंझार के पूर्व से मोरहर का । अर्थात मंझार से लेकर केसपा तक का संपूर्ण क्षेत्र केसपा के नाम से जाना जाता था। इस चैत्य वन के काश्यलपा क्षेत्र में मेन मंझार का क्षेत्र मंदार वन के नाम से जाना जाता था जहाँ कुचियानाथ का मठ था। कुचिया नाथ से भी बहुत पहले गया कश्यप नाम के बौद्ध संत का मठ था माँ तारा पीठ। बुचनन ने इसे बौद्ध - हिन्दु दोनो संप्रदायों का प्रमुख स्थान माना है।[]
दुर्लभ पीपल वृक्ष ( मेन-मंझार)
कोटेश्वरनाथ मंदिर से ३०० मीटर उत्तर में दुर्लभ प्रजाति का पीपल वृक्ष है।दूर देश से वैज्ञानिक इस पर शोध करने आते हैं। श्रद्धालुओं के लिए यह कौतुक का विषय है क्योंकि वृक्ष की सभी शाखाएँ दक्षिण के तरफ उपर से नीचे आ जमीन को छूती हैं (मानो भगवान शिव को प्रणाम कर रही हों )फिर ऊपर जाती है।
बोधगया बौद्ध धर्म की राजधानी है।जिस पीपल वृक्ष के नीचे भगवान बुद्ध सिद्धर्थ को ज्ञान प्राप्त हुआ था वो बोधिवृक्ष बौद्ध आस्था का केन्द्र है।
माँ काली मंदिर(बेलागंज)
गुप्तकालीन काली मंदिर मगध क्षेत्र मे शाक्त परंपरा का प्रमुख धरोहर है।
प्राचीन विष्णु मंदिर(घेजन)
पाई बिगहा से २ किमी पश्चिम घेजन प्रमुख पुरातात्विक रुचि का केन्द्र है।यहाँ से प्राप्त भगवान् बुद्ध की २५० ई पू की भगवान् बुद्ध तथा भगवान विष्णु की प्रतिमा पटना संग्रहालय मे सुरक्षित है।यहाँ का मंदिर अति प्राचीन है, बेलगार ने इसे गुप्त कालीन बताया है।
कोच स्थित कोचेश्वरनाथ मठ अति प्राचीन शैव आस्था का केंद्र है।[]
मेन मंझार शैव परंपरा का जागृत स्थान है जहाँ प्रतिवर्ष छोटे बडे एक या एक से अधिक शिवलिंग स्वयम् प्रकट हो ही जाते हैं।इस पूरे क्षेत्र में छोटे बडे १२७ शिवलिंग हैं जो स्वयं प्रकट हुए हैं , जिनमें ११ प्रमुख हैं। इन ११ में कोटेश्वरनाथ खेतेश्वर महादेव तथा गौरी शंकर तीन अति प्रमुख हैं। खेतेश्वर महादेव मोरहर नदी के उफान और बाढ मे भी नही डूबता जबकि ये न तो ऊँचाई पर स्थित है न हीं इनका आकार बहुत बडा है। आस पास के सभी ऊँचे टीले डूब जाते हैं पर उन सब से काफी कम ऊँचाई का यह स्वयंभू शिवलिंग कभी नही डूबता।
प्रसिद्ध अक्षय वट विष्णु पाद मंदिर के पास के क्षेत्र में स्थित है। अक्षय वट को सीता देवी ने अमर होने का वरदान दिया था और कभी भी किसी भी मौसम में इसके पत्तों को नहीं बहाया जाता है।
गया के दक्षिण-पूर्व की ओर स्थित रामशिला हिल को सबसे पवित्र स्थान माना जाता है क्योंकि यह माना जाता है कि भगवान राम ने पहाड़ी पर पिंडा की पेशकश की थी।पहाड़ी का नाम भगवान राम से जुड़ा है। प्राचीन काल से संबंधित कई पत्थर की मूर्तियां पहाड़ी के आसपास और आसपास के स्थानों पर देखी जा सकती हैं, जो कि बहुत पहले के समय से कुछ पूर्व संरचनाओं या मंदिरों के अस्तित्व का सुझाव देती हैं। पहाड़ी की चोटी पर स्थित मंदिर जिसे रामेश्वरा या पातालेश्वर मंदिर कहा जाता है, मूल रूप से १०१४ आ.ड में बनाया गया था, लेकिन सफल अवधि में कई बहाली और मरम्मत से गुजरा।मंदिर के सामने हिंदू भक्तों द्वारा अपने पूर्वजों के लिए पितृपक्ष के दौरान "पिंड" चढ़ाया जाता है।
रामशिला पहाड़ी से लगभग १० किलोमीटर दूर है। पहाड़ी के नीचे ब्रह्म कुंड स्थित है।इस तालाब में स्नान करने के बाद लोग 'पिंड दान' के लिए जाते हैं।पहाड़ी की चोटी पर, इंदौर की रानी, अहिल्या बाई, ने १७८७ में एक मंदिर बनाया था जिसे अहिल्या बाई मंदिर के नाम से जाना जाता था।यह मंदिर हमेशा अपनी अनूठी वास्तुकला और शानदार मूर्तियों के कारण पर्यटकों के लिए एक आकर्षण रहा है।
विष्णु पद मंदिर के विपरीत तरफ, सीता कुंड फल्गु नदी के दूसरे किनारे पर स्थित है।उस स्थान को दर्शाते हुए एक छोटा सा मंदिर है जहाँ माता सीता ने अपने ससुर के लिए पिंडदान किया था।
डूंगेश्वरी मंदिर / डुंगेश्वरी हिल
माना जाता है कि गौतम सिद्धार्थ ने अंतिम आराधना के लिए बोधगया जाने से पहले ६ साल तक इस स्थान पर ध्यान किया था।बुद्ध के इस चरण को मनाने के लिए दो छोटे मंदिर बनाए गए हैं।कठोर तपस्या को याद करते हुए एक स्वर्ण क्षीण बुद्ध मूर्तिकला गुफा मंदिरों में से एक में और एक बड़ी (लगभग ६ 'ऊंची) बुद्ध की प्रतिमा दूसरे में विहित है। गुफा मंदिर के अंदर एक हिंदू देवी देवता डुंगेश्वरी को भी रखा गया है।
थाई मोनास्ट्री बोधगया का सबसे पुराना विदेशी मठ है।जो कि सजावटी रीगल थाई स्थापत्य शैली में निर्मित है।बाहरी और साथ ही आंतरिक की भव्यता बेहद विस्मयकारी है। मंदिर सामने आँगन में एक शांत पूल के ऊपर लाल और सुनहरे मणि की तरह दिखाई देता है।बुद्ध के जीवन को दर्शाती भित्ति चित्रों के साथ शानदार बुद्ध की मूर्ति और कुछ आधुनिक घटनाओं जैसे कि शैली में चित्रित पेड़ लगाने का महत्व पूरी तरह से अद्भुत है।यह बोधगया में महाबोधि मंदिर के बगल में स्थित है।घूमने का समय: सुबह ७:०० से दोपहर १२:००, दोपहर ०२:०० से शाम ०६:०० तक।
२०० क्विंटल लोहे से बना धर्म चक्र पर्यटको में चर्चा का विषय रहा है।कहा जाता है कि इस चक्र को घुमाने पर पापो से मुक्ती मिल जाती है।
२०११ की जनगणना के अनुसार इस जिले की जनसंख्या:
शहरी क्षेत्र:- ३८६३८८८
देहाती क्षेत्र:- ५७५४९५
बिहार एवं झारखण्ड के एकमात्र अंतर्राष्ट्रीय हवाईअड्डा, गया विमानक्षेत्र, है। अब झारखंड[देवघर] में भी हवाईअड्डा बन गया है।
गया जन्कशन बिहार का दूसरा बड़ा रेलस्टेशन है। यह एक विशाल परिसर में स्थित है। इसमे ९ प्लेटफार्म है।
गया से पटना, रांची,धनबाद,कोलकाता, पुरी, बनारस, चेन्नई, मुम्बई, नई दिल्ली, नागपुर, गुवाहाटी, जयपुर, अजमेरशरीफ, हरिद्वार, ऋषिकेश, जम्मू-तवी आदि के लिए सीधी ट्रेनें है।
गया राजधानी पटना और राजगीर, रांची, धनबाद,बनारस आदि के लिए बसें जाती हैं। गया में दो बस स्टैंड हैं। दोनों स्टैंड फल्गु नदी के तट पर स्थित है। गांधी मैदान बस स्टैंड नदी के पश्चिमी किनार पर स्थित है। यहां से बोधगया के लिए नियमित तौर पर बसें जाती हैं।
गया कॉलेज ऑफ़ इंजीनियरिंग, गया
बुद्धा इंस्टिट्यूट ऑफ़ टेक्नोलॉजी
इन्हें भी देखें
पितृपक्ष (गया एवं अन्य धार्मिक स्थलों के बारे में)
सोन भण्डार गुफा, राजगीर
बिहार के शहर
गया ज़िले के नगर
बिहार में पर्यटन आकर्षण |
बोधगया (बोध गया) बिहार राज्य के गया ज़िले में स्थित एक नगर है, जिसका गहरा ऐतिहासिक और धार्मिक महत्व है। यहाँ भगवान बुद्ध को बोधि वृक्ष के तले ज्ञान प्राप्त हुआ था। बोध गया में प्रति वर्ष प्रबुद्ध सोसाइटी द्बारा ज्ञान एवं सम्मान समारोह किया जाता है ! बोधगया राष्ट्रीय राजमार्ग ८३ पर स्थित है।
बिहार की राजधानी पटना के दक्षिणपूर्व में लगभग १०१ किलोमीटर दूर स्थित बोधगया गया जिले से सटा एक छोटा शहर है। बोधगया में बोधि पेड़़ के नीचे तपस्या कर रहे भगवान गौतम बुद्ध को ज्ञान की प्राप्ति हुई थी। तभी से यह स्थल बौद्ध धर्म के अनुयायियों के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है। वर्ष २००२ में यूनेस्को द्वारा इस शहर को विश्व विरासत स्थल घोषित किया गया।
करीब ५०० ई॰पू. में गौतम बुद्ध फाल्गु नदी के तट पर पहुंचे और बोधि पेड़ के नीचे तपस्या कर्ने बैठे। तीन दिन और रात के तपस्या के बाद उन्हें ज्ञान की प्राप्ति हुई, जिस्के बाद से वे बुद्ध के नाम से जाने गए। इसके बाद उन्होंने वहां ७ हफ्ते अलग अलग जगहों पर ध्यान करते हुए बिताया और फिर सारनाथ जा कर धर्म का प्रचार शुरू किया। बुद्ध के अनुयायिओं ने बाद में उस जगह पर जाना शुरू किया जहां बुद्ध ने वैशाख महीने में पुर्णिमा के दिन ज्ञान की प्रप्ति की थी। धीरे धीरे ये जगह बोध्गया के नाम से जाना गया और ये दिन बुद्ध पुर्णिमा के नाम से जाना गया।
लगभग ५२८ ई॰ पू. के वैशाख (अप्रैल-मई) महीने में कपिलवस्तु के राजकुमार गौतम ने सत्य की खोज में घर त्याग दिया। गौतम ज्ञान की खोज में निरंजना नदी के तट पर बसे एक छोटे से गांव उरुवेला आ गए। वह इसी गांव में एक पीपल के पेड़ के नीचे ध्यान साधना करने लगे। एक दिन वह ध्यान में लीन थे कि गांव की ही एक लड़की सुजाता उनके लिए एक कटोरा खीर तथा शहद लेकर आई। इस भोजन को करने के बाद गौतम पुन: ध्यान में लीन हो गए। इसके कुछ दिनों बाद ही उनके अज्ञान का बादल छट गया और उन्हें ज्ञान की प्राप्ित हुई। अब वह राजकुमार सिद्धार्थ या तपस्वी गौतम नहीं थे बल्कि बुद्ध थे। बुद्ध जिसे सारी दुनिया को ज्ञान प्रदान करना था। ज्ञान प्राप्ित के बाद वे अगले सात सप्ताह तक उरुवेला के नजदीक ही रहे और चिंतन मनन किया। इसके बाद बुद्ध वाराणसी के निकट सारनाथ गए जहां उन्होंने अपने ज्ञान प्राप्ित की घोषणा की। बुद्ध कुछ महीने बाद उरुवेला लौट गए। यहां उनके पांच मित्र अपने अनुयायियों के साथ उनसे मिलने आए और उनसे दीक्षित होने की प्रार्थना की। इन लोगों को दीक्षित करने के बाद बुद्ध राजगीर चले गए। इसके बुद्ध के उरुवेला वापस लौटने का कोई प्रमाण नहीं मिलता है। दूसरी शताब्दी ईसा पूर्व के बाद उरुवेला का नाम इतिहास के पन्नों में खो जाता है। इसके बाद यह गांव सम्बोधि, वैजरसना या महाबोधि नामों से जाना जाने लगा। बोधगया शब्द का उल्लेख १८ वीं शताब्दी से मिलने लगता है।
विश्वास किया जाता है कि महाबोधि मंदिर में स्थापित बुद्ध की मूर्त्ति संबंध स्वयं बुद्ध से है। कहा जाता है कि जब इस मंदिर का निर्माण किया जा रहा था तो इसमें बुद्ध की एक मूर्त्ति स्थापित करने का भी निर्णय लिया गया था। लेकिन लंबे समय तक किसी ऐसे शिल्पकार को खोजा नहीं जा सका जो बुद्ध की आकर्षक मूर्त्ति बना सके। सहसा एक दिन एक व्यक्ित आया और उसे मूर्त्ति बनाने की इच्छा जाहिर की। लेकिन इसके लिए उसने कुछ शर्त्तें भी रखीं। उसकी शर्त्त थी कि उसे पत्थर का एक स्तम्भ तथा एक लैम्प दिया जाए। उसकी एक और शर्त्त यह भी थी इसके लिए उसे छ: महीने का समय दिया जाए तथा समय से पहले कोई मंदिर का दरवाजा न खोले। सभी शर्त्तें मान ली गई लेकिन व्यग्र गांववासियों ने तय समय से चार दिन पहले ही मंदिर के दरवाजे को खोल दिया। मंदिर के अंदर एक बहुत ही सुंदर मूर्त्ति थी जिसका हर अंग आकर्षक था सिवाय छाती के। मूर्त्ति का छाती वाला भाग अभी पूर्ण रूप से तराशा नहीं गया था। कुछ समय बाद एक बौद्ध भिक्षु मंदिर के अंदर रहने लगा। एक बार बुद्ध उसके सपने में आए और बोले कि उन्होंने ही मूर्त्ति का निर्माण किया था। बुद्ध की यह मूर्त्ति बौद्ध जगत में सर्वाधिक प्रतिष्ठा प्राप्त मूर्त्ति है। नालन्दा और विक्रमशिला के मंदिरों में भी इसी मूर्त्ति की प्रतिकृति को स्थापित किया गया है।
बिहार में इसे मंदिरों के शहर के नाम से जाना जाता है। इस गांव के लोगों की किस्मत उस दिन बदल गई जिस दिन एक राजकुमार ने सत्य की खोज के लिए अपने राजसिहासन को ठुकरा दिया। बुद्ध के ज्ञान की यह भूमि आज बौद्धों के सबसे बड़े तीर्थस्थल के रूप में प्रसिद्ध है। आज विश्व के हर धर्म के लोग यहां घूमने आते हैं। पक्षियों की चहचहाट के बीच बुद्धम्-शरनम्-गच्छामि की हल्की ध्वनि अनोखी शांति प्रदान करती है। यहां का सबसे प्रसिद्ध मंदिर महाबोधि मंदिर है। विभिन्न धर्म तथा सम्प्रदाय के व्यक्ित इस मंदिर में आध्यात्मिक शांति की तलाश में आते हैं। इस मंदिर को यूनेस्को ने २००२ में वर्ल्ड हेरिटेज साइट घोषित किया था। बुद्ध के ज्ञान प्रप्ति के २५० साल बाद राजा अशोक बोध्गया गए। माना जाता है कि उन्होंने महाबोधि मन्दिर का निर्माण कराया। कुछ इतिहासकारों का मानना है कि पह्ली शताब्दी में इस मन्दिर का निर्माण कराया गया या उस्की मरम्मत कराई गई। हिन्दुस्तान में बौद्ध धर्म के पतन के साथ साथ इस मन्दिर को लोग भूल गए थे और ये मन्दिर धूल और मिट्टी में दब गया था। १९वीं सदी में सिर एलेक्ज़ैंडर कनिंघम ने इस मन्दिर की मरम्मत कराई। १८८३ में उन्होंने इस जगह की खुदाई की और काफी मरम्मत के बाद बोधगया को अपने पुराने शानदार अवस्था में लाया गया।
बोध-गया घूमने के लिए दो दिन का समय पर्याप्त है। अगर आप एक रात वहां रूकते हैं तो एक दिन का समय भी प्रर्याप्त है। बोध-गया के पास ही एक शहर है गया। यहां भी कुछ पवित्र मंदिर हैं जिसे जरुर देखना चाहिए। इन दोनों गया को देखने के लिए कम से कम एक-एक दिन का समय देना चाहिए। एक अतिरिक्त एक दिन नालन्दा और राजगीर को देखने के लिए रखना चाहिए। बोधगया घूमने का सबसे बढिया समय बुद्ध जयंती (अप्रैल-मई) है जिसे राजकुमार सिद्धार्थ के जंमदिवस के रूप में मनाया जाता है। इस समय यहां होटलों में कमरा मिलना काफी मुश्किल होता है। इस दौरान महाबोधि मंदिर को हजारों कैंडिलों की सहायता से सजाया जाता है। यह दृश्य देखना अपने आप में अनोखा अनुभव होता है। इस दृश्य की यादें आपके जेहन में हमेशा बसी रहती है। बोधगया में ही मगध विश्वविद्यालय का कैंपस है। इसके नजदीक एक सैनिक छावनी है तथा करीब सात किलोमीटर दूर अन्तराष्ट्रीय एयरपोर्ट है जहाँ से थाईलैंड, श्रीलंका बर्मा इत्यादि के लिए नियमित साप्ताहिक उड़ानें उपलब्ध हैं।
यह मंदिर मुख्य मंदिर के नाम से भी जाना जाता है। इस मंदिर की बनावट सम्राट अशोक द्वारा स्थापित स्तूप के समान हे। इस मंदिर में बुद्ध की एक बहुत बड़ी मूर्त्ति स्थापित है। यह मूर्त्ति पदमासन की मुद्रा में है। यहां यह अनुश्रुति प्रचिलत है कि यह मूर्त्ति उसी जगह स्थापित है जहां बुद्ध को ज्ञान निर्वाण (ज्ञान) प्राप्त हुआ था। मंदिर के चारों ओर पत्थर की नक्काशीदार रेलिंग बनी हुई है। ये रेलिंग ही बोधगया में प्राप्त सबसे पुराना अवशेष है। इस मंदिर परिसर के दक्षिण-पूर्व दिशा में प्राकृतिक दृश्यों से समृद्ध एक पार्क है जहां बौद्ध भिक्षु ध्यान साधना करते हैं। आम लोग इस पार्क में मंदिर प्रशासन की अनुमति लेकर ही प्रवेश कर सकते हैं।
इस मंदिर परिसर में उन सात स्थानों को भी चिन्हित किया गया है जहां बुद्ध ने ज्ञान प्राप्ित के बाद सात सप्ताह व्यतीत किया था। जातक कथाओं में उल्लेखित बोधि वृक्ष भी यहां है। यह एक विशाल पीपल का वृक्ष है जो मुख्य मंदिर के पीछे स्थित है। कहा जाता बुद्ध को इसी वृक्ष के नीचे ज्ञान प्राप्त हुआ था। वर्तमान में जो बोधि वृक्ष वह उस बोधि वृक्ष की पांचवीं पीढी है। मंदिर समूह में सुबह के समय घण्टों की आवाज मन को एक अजीब सी शांति प्रदान करती है।
मुख्य मंदिर के पीछे बुद्ध की लाल बलुए पत्थर की ७ फीट ऊंची एक मूर्त्ति है। यह मूर्त्ति विजरासन मुद्रा में है। इस मूर्त्ति के चारों ओर विभिन्न रंगों के पताके लगे हुए हैं जो इस मूर्त्ति को एक विशिष्ट आकर्षण प्रदान करते हैं। कहा जाता है कि तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व में इसी स्थान पर सम्राट अशोक ने हीरों से बना राजसिहांसन लगवाया था और इसे पृथ्वी का नाभि केंद्र कहा था। इस मूर्त्ति की आगे भूरे बलुए पत्थर पर बुद्ध के विशाल पदचिन्ह बने हुए हैं। बुद्ध के इन पदचिन्हों को धर्मचक्र प्रर्वतन का प्रतीक माना जाता है।
बुद्ध ने ज्ञान प्राप्ति के बाद दूसरा सप्ताह इसी बोधि वृक्ष के आगे खड़ा अवस्था में बिताया था। यहां पर बुद्ध की इस अवस्था में एक मूर्त्ति बनी हुई है। इस मूर्त्ति को अनिमेश लोचन कहा जाता है। मुख्य मंदिर के उत्तर पूर्व में अनिमेश लोचन चैत्य बना हुआ है।
मुख्य मंदिर का उत्तरी भाग चंकामाना नाम से जाना जाता है। इसी स्थान पर बुद्ध ने ज्ञान प्राप्ित के बाद तीसरा सप्ताह व्यतीत किया था। अब यहां पर काले पत्थर का कमल का फूल बना हुआ है जो बुद्ध का प्रतीक माना जाता है।
महाबोधि मंदिर के पश्चिमोत्तर भाग में एक छतविहीन भग्नावशेष है जो रत्नाघारा के नाम से जाना जाता है। इसी स्थान पर बुद्ध ने ज्ञान प्राप्ित के बाद चौथा सप्ताह व्यतीत किया था। दन्तकथाओं के अनुसार बुद्ध यहां गहन ध्यान में लीन थे कि उनके शरीर से प्रकाश की एक किरण निकली। प्रकाश की इन्हीं रंगों का उपयोग विभिन्न देशों द्वारा यहां लगे अपने पताके में किया है।
माना जाता है कि बुद्ध ने मुख्य मंदिर के उत्तरी दरवाजे से थोड़ी दूर पर स्थित अजपाला-निग्रोधा वृक्ष के नीचे ज्ञान प्राप्ित के बाद पांचवा सप्ताह व्यतीत किया था। बुद्ध ने छठा सप्ताह महाबोधि मंदिर के दायीं ओर स्थित मूचालिंडा क्षील के नजदीक व्यतीत किया था। यह क्षील चारों तरफ से वृक्षों से घिरा हुआ है। इस क्षील के मध्य में बुद्ध की मूर्त्ति स्थापित है। इस मूर्त्ति में एक विशाल सांप बुद्ध की रक्षा कर रहा है। इस मूर्त्ति के संबंध में एक दंतकथा प्रचलित है। इस कथा के अनुसार बुद्ध प्रार्थना में इतने तल्लीन थे कि उन्हें आंधी आने का ध्यान नहीं रहा। बुद्ध जब मूसलाधार बारिश में फंस गए तो सांपों का राजा मूचालिंडा अपने निवास से बाहर आया और बुद्ध की रक्षा की।
इस मंदिर परिसर के दक्षिण-पूर्व में राजयातना वृक्ष है। बुद्ध ने ज्ञान प्राप्ित के बाद अपना सांतवा सप्ताह इसी वृक्ष के नीचे व्यतीत किया था। यहीं बुद्ध दो बर्मी (बर्मा का निवासी) व्यापारियों से मिले थे। इन व्यापारियों ने बुद्ध से आश्रय की प्रार्थना की। इन प्रार्थना के रूप में बुद्धमं शरणम गच्छामि (मैं अपने को भगवान बुद्ध को सौंपता हू) का उच्चारण किया। इसी के बाद से यह प्रार्थना प्रसिद्ध हो गई।
(महाबोधि मंदिर के पश्चिम में पांच मिनट की पैदल दूरी पर स्थित) जोकि बोधगया का सबसे बड़ा और पुराना मठ है १९३४ ई॰ में बनाया गया था। बर्मी विहार (गया-बोधगया रोड पर निरंजना नदी के तट पर स्थित) १९३६ ई॰ में बना था। इस विहार में दो प्रार्थना कक्ष है। इसके अलावा इसमें बुद्ध की एक विशाल प्रतिमा भी है। इससे सटा हुआ ही थाई मठ है (महाबोधि मंदिर परिसर से १किलोमीटर पश्िचम में स्थित)। इस मठ के छत की सोने से कलई की गई है। इस कारण इसे गोल्डेन मठ कहा जाता है। इस मठ की स्थापना थाईलैंड के राजपरिवार ने बौद्ध की स्थापना के २५०० वर्ष पूरा होने के उपलक्ष्य में किया था। इंडोसन-निप्पन-जापानी मंदिर (महाबोधि मंदिर परिसर से ११.५ किलोमीटर दक्षिण-पश्िचम में स्थित) का निर्माण १972-७३ में हुआ था। इस मंदिर का निर्माण लकड़ी के बने प्राचीन जापानी मंदिरों के आधार पर किया गया है। इस मंदिर में बुद्ध के जीवन में घटी महत्वपूर्ण घटनाओं को चित्र के माध्यम से दर्शाया गया है। चीनी मंदिर (महाबोधि मंदिर परिसर के पश्िचम में पांच मिनट की पैदल दूरी पर स्थित) का निर्माण १94५ ई॰ में हुआ था। इस मंदिर में सोने की बनी बुद्ध की एक प्रतिमा स्थापित है। इस मंदिर का पुनर्निर्माण १997 ई॰ किया गया था। जापानी मंदिर के उत्तर में भूटानी मठ स्थित है। इस मठ की दीवारों पर नक्काशी का बेहतरीन काम किया गया है। यहां सबसे नया बना मंदिर वियतनामी मंदिर है। यह मंदिर महाबोधि मंदिर के उत्तर में ५ मिनट की पैदल दूरी पर स्थित है। इस मंदिर का निर्माण २००२ ई॰ में किया गया है। इस मंदिर में बुद्ध के शांति के अवतार अवलोकितेश्वर की मूर्त्ति स्थापित है।
इन मठों और मंदिरों के अलावा के कुछ और स्मारक भी यहां देखने लायक है। इन्हीं में से एक है भारत की सबसे ऊंचीं बुद्ध मूर्त्ति जो कि ६ फीट ऊंचे कमल के फूल पर स्थापित है। यह पूरी प्रतिमा एक १० फीट ऊंचे आधार पर बनी हुई है। स्थानीय लोग इस मूर्त्ति को ८० फीट ऊंचा मानते हैं।
आसपास के दर्शनीय स्थल
बोधगया आने वालों को राजगीर भी जरुर घूमना चाहिए। यहां का विश्व शांति स्तूप देखने में काफी आकर्षक है। यह स्तूप ग्रीधरकूट पहाड़ी पर बना हुआ है। इस पर जाने के लिए रोपवे बना हुआ। इसका शुल्क ८० रु. है। इसे आप सुबह ८ बजे से दोपहर १ बजे तक देख सकते हैं। इसके बाद इसे दोपहर २ बजे से शाम ५ बजे तक देखा जा सकता है।
शांति स्तूप के निकट ही वेणु वन है। कहा जाता है कि बुद्ध एक बार यहां आए थे।
राजगीर में ही प्रसद्धि सप्तपर्णी गुफा है जहां बुद्ध के निर्वाण के बाद पहला बौद्ध सम्मेलन का आयोजन किया गया था। यह गुफा राजगीर बस पड़ाव से दक्षिण में गर्म जल के कुंड से १००० सीढियों की चढाई पर है। बस पड़ाव से यहां तक जाने का एक मात्र साधन घोड़ागाड़ी है जिसे यहां टमटम कहा जाता है। टमटम से आधे दिन घूमने का शुल्क १०० रु. से लेकर ३०० रु. तक है। इन सबके अलावा राजगीर में जरासंध का अखाड़ा, स्वर्णभंडार (दोनों स्थल महाभारत काल से संबंधित है) तथा विरायतन भी घूमने लायक जगह है।
घूमने का सबसे अच्छा समय: ठंढे के मौसम में
यह स्थान राजगीर से १३ किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। प्राचीन काल में यहां विश्व प्रसिद्ध नालन्दा विश्वविद्यालय स्थापित था। अब इस विश्वविद्यालय के अवशेष ही दिखाई देते हैं। लेकिन हाल में ही बिहार सरकार द्वारा यहां अंतरराष्ट्रीय विश्व विद्यालय स्थापित करने की घोषणा की गई है जिसका काम प्रगति पर है। यहां एक संग्रहालय भी है। इसी संग्रहालय में यहां से खुदाई में प्राप्त वस्तुओं को रखा गया है।
नालन्दा से ५ किलोमीटर की दूरी पर प्रसिद्ध जैन तीर्थस्थल पावापुरी स्थित है। यह स्थल भगवान महावीर से संबंधित है। यहां महावीर एक भव्य मंदिर है। नालन्दा-राजगीर आने पर इसे जरुर घूमना चाहिए। नालन्दा से ही सटा शहर बिहार शरीफ है। मध्यकाल में इसका नाम ओदन्तपुरी था। वर्तमान में यह स्थान मुस्लिम तीर्थस्थल के रूप में प्रसिद्ध है। यहां मुस्लिमों का एक भव्य मस्जिद बड़ी दरगाह है। बड़ी दरगाह के नजदीक लगने वाला रोशनी मेला मुस्लिम जगत में काफी प्रसिद्ध है। बिहार शरीफ घूमने आने वाले को मनीराम का अखाड़ा भी अवश्य घूमना चाहिए। स्थानीय लोगों का मानना है अगर यहां सच्चे दिल से कोई मन्नत मांगी जाए तो वह जरुर पूरी होती है।
गया, राजगीर, नालन्दा, पावापुरी तथा बिहार शरीफ जाने के लिए सबसे अच्छा साधन ट्रेन है। इन स्थानों को घूमाने के लिए भारतीय रेलवे द्वारा एक विशेष ट्रेन बौद्ध परिक्रमा चलाई जाती है। इस ट्रेन के अलावे कई अन्य ट्रेन जैसे श्रमजीवी एक्सप्रेस, पटना राजगीर इंटरसीटी एक्सप्रेस तथा पटना राजगीर पसेंजर ट्रेन भी इन स्थानों का जाती है। इसके अलावे सड़क मार्ग द्वारा भी यहां जाया जा सकता है।
नजदीकी हवाई अड्डा गया (०७ किलोमीटर/ २० मिनट)। इंडियन, गया से कलकत्ता और बैंकाक के साप्ताहिक उड़ान संचालित करती है। टैक्सी शुल्क: २०0 से २५० रु. के लगभग।
नजदीकी रेलवे स्टेशन गया जंक्शन। गया जंक्शन से बोध गया जाने के लिए टैक्सी (शुल्क २०० से ३०० रु.) तथा ऑटो रिक्शा (शुल्क १०० से १५० रु.) मिल जाता है।
गया, पटना, नालन्दा, राजगीर, वाराणसी तथा कलकत्ता से बोध गया के लिए बसें चलती है।
इन्हें भी देखें
बिहार के शहर
गया ज़िले के नगर
बिहार में बौद्ध धार्मिक स्थल
बिहार में पर्यटन आकर्षण
बौद्ध धर्म का इतिहास |
हाथ में पकड़कर इस्तेमाल करने वाले कंप्यूटर को सिंप्यूटर कहते हैं। सिंप्यूटर को टाइम पत्रिका ने दस सबसे बड़ी और महत्वपूर्ण तकनीकी खोजों में शामिल किया है। सिंप्यूटर बनाने के पीछे उद्देश्य यह है कि कंप्यूटर को आम आदमी तक सरल, सस्ते और कई भाषाओं में पहुँचाया जाए. इसे २८ अक्टूबर २००४ को सिंगापुर में विश्व बाज़ार में उतारा गया. सिंप्यूटर को एनकॉर के तीन तकनीकी विशेषज्ञों और भारतीय विज्ञान संस्थान के चार वैज्ञानिकों ने संयुक्त रूप से विकसित किया है।
सिंप्यूटर के कई मॉडल हैं। सबसे सस्ता मॉडल है सिर्फ़ दस हज़ार रूपए का जबकि महँगी किस्म का मॉडल है पच्चीस हज़ार रूपए का. सिंप्यूटर को हिंदी, तमिल और कन्नड़ जैसी कई भारतीय भाषाओं में इस्तेमाल किया जा सकता है। अब वैज्ञानिक सिंप्यूटर को कई दूसरी भारतीय भाषाओं में भी विकसित करने की कोशिश कर रहे हैं। एनकॉर सिंगापुर आर्थिक विकास बोर्ड और सिंगापुर की ही एक अन्य कंपनी टाइम टू टॉक के साथ मिलकर सिंप्यूटर का उत्पादन करेगी. सिंप्यूटर का पढ़ाई के लिए भी इस्तेमाल करने की योजना है। इस बारे में छत्तीसगढ़ में प्रयोग चल रहे हैं।
एमिडा सिंप्यूटर नाम से बाज़ार में उतारे गए ये कंप्यूटर शुरू में तीन मॉडेल में उपलब्ध होंगे.सबसे सस्ते मॉडेल मोनोक्रोम स्क्रीन वाला है। इसमें २०६ म्झ क्षमता का प्रोसेसर और ६४म्ब की मेमोरी है। इसकी सहायता से इंटरनेट सर्फ़िंग की जा सकती है, ईमेल किए जा सकते हैं और स्क्रीन पर लिखा जा सकता है। कीमत कम रखने के लिए इसमें लाइनक्स प्रचालन तन्त्र का उपयोग किया गया है। |
कृष्ण जन्माष्टमी, जिसे जन्माष्टमी वा गोकुलाष्टमी के रूप में भी जाना जाता है, एक वार्षिक हिंदू त्योहार है जो विष्णुजी के दशावतारों में से आठवें और चौबीस अवतारों में से बाईसवें अवतार श्रीकृष्ण के जन्म के आनन्दोत्सव के लिये मनाया जाता है।यह हिंदू चंद्रमण वर्षपद के अनुसार, कृष्ण पक्ष (अंधेरे पखवाड़े) के आठवें दिन (अष्टमी) को भाद्रपद में मनाया जाता है । जो ग्रेगोरियन कैलेंडर के अगस्त व सितंबर के साथ अधिव्यापित होता है।
यह एक महत्वपूर्ण त्योहार है, विशेषकर हिन्दू धर्म की वैष्णव परम्परा में। भागवत पुराण (जैसे रास लीला वा कृष्ण लीला) के अनुसार कृष्ण के जीवन के नृत्य-नाटक की परम्परा, कृष्ण के जन्म के समय मध्यरात्रि में भक्ति गायन, उपवास (व्रत), रात्रि जागरण (रात्रि जागरण), और एक त्योहार(महोत्सव) अगले दिन जन्माष्टमी समारोह का एक भाग हैं। यह मणिपुर, असम, बिहार, पश्चिम बंगाल, ओडिशा, मध्य प्रदेश, राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र, कर्नाटक, केरल, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश तथा भारत के अन्य सभी राज्यों में पाए जाने वाले प्रमुख वैष्णव और निर्सांप्रदायिक समुदायों के साथ विशेष रूप से मथुरा और वृंदावन में मनाया जाता है।
कृष्ण जन्माष्टमी के उपरान्त त्योहार नंदोत्सव होता है, जो उस अवसर को मनाता है जब नंद बाबा ने जन्म के सम्मान में समुदाय को उपहार वितरित किए।
कृष्ण देवकी और वासुदेव आनकदुंदुभी के पुत्र हैं और उनके जन्मदिन को हिंदुओं द्वारा जन्माष्टमी के रूप में मनाया जाता है, विशेष रूप से गौड़ीय वैष्णववाद परम्परा के रूप में उन्हें भगवान का सर्वोच्च व्यक्तित्व माना जाता है। जन्माष्टमी हिंदू परंपरा के अनुसार तब मनाई जाती है जब माना जाता है कि कृष्ण का जन्म मथुरा में भाद्रपद महीने के आठवें दिन (ग्रेगोरियन कैलेंडर में अगस्त और सितंबर के साथ अधिव्यपित) की आधी रात को हुआ था।
कृष्ण का जन्म अराजकता के क्षेत्र में हुआ था। यह एक ऐसा समय था जब उत्पीड़न बड़े पैमाने पर था, स्वतंत्रता से वंचित किया गया था, बुराई सब ओर थी, और जब उनके मामा राजा कंस द्वारा उनके जीवन के लिए संकट था।
भगवान कृष्ण की महानता
श्रीकृष्ण जी भगवान विष्णु जी के अवतार हैं, जो तीनों लोकों के तीन गुणों सतगुण, रजगुण तथा तमोगुण में से सतगुण विभाग के प्रभारी हैं। भगवान का अवतार होने के कारण से श्रीकृष्ण जी में जन्म से ही सिद्धियां उपस्थित थी। उनके माता पिता वसुदेव और देवकी जी के विवाह के समय मामा कंस जब अपनी बहन देवकी को ससुराल पहुँचाने जा रहा था तभी आकाशवाणी हुई थी जिसमें बताया गया था कि देवकी का आठवां पुत्र कंस का अन्त करेगा। अर्थात् यह होना पहले से ही निश्चित था अतः वसुदेव और देवकी को कारागार में रखने पर भी कंस कृष्ण जी को नहीं समाप्त कर पाया।
मथुरा के बंदीगृह में जन्म के तुरंत उपरान्त, उनके पिता वसुदेव आनकदुन्दुभि कृष्ण को यमुना पार ले जाते हैं, जिससे बाल श्रीकृष्ण को गोकुल में नन्द और यशोदा को दिया जा सके।
जन्माष्टमी पर्व लोगों द्वारा उपवास रखकर, कृष्ण प्रेम के भक्ति गीत गाकर और रात्रि में जागरण करके मनाई जाती है।मध्यरात्रि के जन्म के उपरान्त, शिशु कृष्ण की मूर्तियों को धोया और पहनाया जाता है, फिर एक पालने में रखा जाता है।फिर भक्त भोजन और मिठाई बांटकर अपना उपवास पूरा करते हैं। महिलाएं अपने घर के द्वार और रसोई के बाहर छोटे-छोटे पैरों के चिन्ह बनाती हैं जो अपने घर की ओर चलते हुए, अपने घरों में श्रीकृष्ण जी के आने का प्रतीक माना जाता है।
कुछ समुदाय कृष्ण की किंवदंतियों को माखन चोर के रूप में मनाते हैं।
हिंदू जन्माष्टमी पर उपवास, भजन-गायन, सत्सङ्ग-कीर्तन, विशेष भोज-नैवेद्य बनाकर प्रसाद-भण्डारे के रूप में बाँटकर, रात्रि जागरण और कृष्ण मन्दिरों में जाकर मनाते हैं। प्रमुख मंदिरों में 'भागवत पुराण' और 'भगवद गीता' के पाठ का आयोजन होता हैं। कई समुदाय नृत्य-नाटक कार्यक्रम आयोजित करते हैं जिन्हें रास लीला वा कृष्ण लीला कहा जाता है। रास लीला की परम्परा विशेष रूप से मथुरा क्षेत्र में, भारत के पूर्वोत्तर राज्यों जैसे मणिपुर और असम में और राजस्थान और गुजरात के कुछ भागों में लोकप्रिय है।कृष्ण लीला में कलाकारों की कई दलों और टोलियों द्वारा अभिनय किया जाता है, उनके स्थानीय समुदायों द्वारा उत्साहित किया जाता है, और ये नाटक-नृत्य प्रत्येक जन्माष्टमी से कुछ दिन पहले आरम्भ हो जाते हैं।
जन्माष्टमी (महाराष्ट्र में "गोकुलाष्टमी" के रूप में लोकप्रिय), नांदेड़ (गोपालचावड़ी, लिम्बगांव), मुंबई, लातूर, नागपुर और पुणे जैसे नगरों में मनाई जाती है। दही हांडी कृष्ण जन्माष्टमी के अगले दिन मनाई जाती है। यहां लोग दही हांडी को तोड़ते हैं जो इस त्योहार का एक भाग है।दही हांडी शब्द का शाब्दिक अर्थ है "दही से भरा मिट्टी का पात्र"। त्योहार को यह लोकप्रिय क्षेत्रीय नाम बाल कृष्ण की कथा से मिलता है।इसके अनुसार, वह अपने सखाओं सहित दही और मक्खन जैसे दुग्ध उत्पादों को ढूँढ कर और चुराकर बाँट देते। इसलिये लोग अपनी आपूर्ति को बालकों की पहुंच से बाहर छिपा देते थे।कृष्ण अपनी खोज में सभी ढंगों के रचनात्मक विचारों को आजमाते थे, जैसे कि अपने मित्रों के साथ इन ऊँचे लटकती हाँडियों को तोड़ने के लिए सूच्याकार-स्तम्भ बनातें। भगवान की यह लीला भारत भर में हिंदू मंदिरों के हस्तशिल्पों के साथ-साथ साहित्य और नृत्य-नाटक प्रदर्शित की जाती है, जो बालकों की आनंदमय भोलेपन का प्रतीक है, कि प्रेम और जीवन का खेल ईश्वर की अभिव्यक्ति है।
महाराष्ट्र और भारत के अन्य पश्चिमी राज्यों में, इस कृष्ण कथा को जन्माष्टमी पर एक सामुदायिक परम्परा के रूप में निभाया जाता है, जहां दही की हाँडियों कोऊंचे डंडे से व किसी भवन के दूसरे/तीसरे स्तर से लटकी हुई रस्सियों से ऊपर लटका दिया जाता है। वार्षिक परम्परा के अनुसार, "गोविंदा" कहे जाने वाले युवाओं और लड़कों की टोलियाँ इन लटकते हुई हाँडियों के चारों ओर नृत्य और गायन करते हुए जाती हैं, एक दूसरे के ऊपर चढ़ती हैं और सूच्याकार-स्तम्भ बनाती हैं, फिर बर्तन को तोड़ती हैं।गिराई गई सामग्री को प्रसाद (उत्सव प्रसाद) के रूप में माना जाता है। यह एक सार्वजनिक क्रिया है, एक सामुदायिक कार्यक्रम के रूप में उत्साहित और स्वागत किया जाता है।
समकालीन समय में, कई भारतीय नगर इस वार्षिक हिंदू अनुष्ठान को मनाते हैं। युवा समूह गोविंदा पाठक बनाते हैं, जो विशेष रूप से जन्माष्टमी पर पुरस्कार राशि के लिए एक-दूसरे के साथ प्रतिस्पर्धा करते हैं। इन समूहों को मंडल व हांडी कहा जाता है और वे स्थानीय क्षेत्रों में घूमते हैं, प्रत्येक अगस्त में अधिक से अधिक हाँडियाँ तोड़ने का प्रयास करते हैं।प्रतिष्ठित व्यक्ति और संचार माध्यम से जुड़े लोग भी उत्सव में भाग लेते हैं। गोविंदा टोलियों के लिए उपहार और धन से पुरस्कृत किया जाता है, और टाइम्स ऑफ इंडिया के अनुसार, २०१४ में अकेले मुंबई में ४,००० से अधिक हांडी पुरस्कारों से ओतप्रोत थे, और गोविंदा की कई टोलियों ने भाग लिया था।
गुजरात और राजस्थान
गुजरात के द्वारिका में लोग - जहाँ श्रीकृष्ण ने अपना राज्य स्थापित किया था - दही हांडी के समान एक परम्परा के साथ त्योहार मनाते हैं, जिसे माखन हाँडी (शाब्दिक अर्थ: नवीन मथे गये मक्खन का पात्र) कहा जाता है। अन्य लोग मंदिरों में लोक नृत्य करते हैं, भजन गाते हैं, कृष्ण मंदिरों जैसे द्वारिकाधीश मन्दिर व नाथद्वारा मन्दिर जाते हैं। कच्छ मण्डल के क्षेत्र में, किसान अपनी बैलगाड़ियों को सजाते हैं और सामूहिक भजन गायन और नृत्य के साथ श्रीकृष्ण जीवन से सम्बन्धित प्रदर्शनी निकालते हैं।
वैष्णव परम्परा के पुष्टिमार्ग सम्प्रदाय के महान सन्त दयाराम की कवितायें और रचनाएँ, गुजरात और राजस्थान में जन्माष्टमी के नगरोत्सवों के समय विशेष रूप से लोकप्रिय हैं।
जन्माष्टमी उत्तर भारत के ब्रज क्षेत्र में सबसे बड़ा त्योहार है, मथुरा जैसे नगरों में जहाँ श्री कृष्ण भगवान का जन्म हुआ था, और वृन्दावन में जहाँ वह पले-बड़े थे।
उत्तर प्रदेश, राजस्थान, दिल्ली, हरियाणा, उत्तराखण्ड, हिमाचल और पंजाब के सभी नगरों और गाँवों में जन्माष्टमी विशेष रूप से मनाते हैं। हिन्दू मन्दिरों को सजाया और जगमगाया जाता है जो दिन में कई आगन्तुकों को आकर्षित करते हैं। बहुत से कृष्ण भक्त भक्ति कार्यक्रम आयोजित करते हैं और रात्रि जागरण करते हैं।भक्तजन मिठाई- प्रसाद आदि बाँटते हैं।
त्योहार सामान्य रूप से वर्षा ऋतु में पड़ता है जब ग्रामीण क्षेत्रों में खेत उपज से लदे होते है। और ग्रामीण लोगों के पास हर्षोल्लास मनाने का बहुत समय होता है।
उत्तरी राज्यों में, जन्माष्टमी को रासलीला परम्परा के साथ मनाया जाता है, जिसका शाब्दिक अर्थ है "हर्षोल्लास का खेल (लीला), सार (रस)"। इसे जन्माष्टमी पर एकल व समूह नृत्य और नाटक कार्यक्रमों के रूप में व्यक्त किया जाता है, जिसमें कृष्ण से सम्बन्धित रचनाएँ गाई जाती हैं। कृष्ण के बालावस्था की नटखट लीलाओं और राधा-कृष्ण के प्रेम प्रसङ्ग विशेष रूप से लोकप्रिय हैं।कुछ पाश्चत्य विद्वानों के अनुसार, यह राधा-कृष्ण प्रेम कहानियाँ दैवीय सिद्धान्त और वास्तविकता के लिए मानव आत्मा की लालसा और प्रेम के लिए हिन्दू प्रतीक हैं।
जम्मू में, छतों से पतङ्ग उड़ाना कृष्ण जन्माष्टमी पर उत्सव का एक भाग है।
पूर्वी और पूर्वोत्तर भारत
जन्माष्टमी व्यापक रूप से पूर्वी और पूर्वोत्तर भारत के हिंदू वैष्णव समुदायों द्वारा मनाई जाती है। इन क्षेत्रों में कृष्ण जन्माष्टमी को मनाने की व्यापक परंपरा का श्रेय १५वीं और १६वीं शताब्दी के शंकरदेव और चैतन्य महाप्रभु के प्रयासों और शिक्षाओं को जाता है। उन्होंने दार्शनिक विचारों के साथ-साथ हिंदू भगवान कृष्ण को मनाने के लिए प्रदर्शन कला के नए रूप विकसित किए जैसे कि बोर्गेट, अंकिया नाट, सत्त्रिया और भक्ति योग अब पश्चिम बंगाल और असम में लोकप्रिय हैं। आगे पूर्व में, मणिपुर के लोगों ने मणिपुरी नृत्य रूप विकसित किया, एक शास्त्रीय नृत्य रूप जो अपने हिंदू वैष्णववाद विषयों के लिए जाना जाता है, और जिसमें सत्त्रिया की तरह रासलीला नामक राधा-कृष्ण की प्रेम-प्रेरित नृत्य नाटक कला शामिल है। ये नृत्य नाट्य कलाएं इन क्षेत्रों में जन्माष्टमी परंपरा का एक हिस्सा हैं, और सभी शास्त्रीय भारतीय नृत्यों के साथ, प्राचीन हिंदू संस्कृत पाठ नाट्य शास्त्र में प्रासंगिक जड़ें हैं, लेकिन भारत और दक्षिण पूर्व एशिया के बीच संस्कृति संलयन से प्रभावित हैं।
जन्माष्टमी पर, माता-पिता अपने बच्चों को कृष्ण की किंवदंतियों, जैसे कि गोपियों और कृष्ण के पात्रों के रूप में तैयार करते हैं। मंदिरों और सामुदायिक केंद्रों को क्षेत्रीय फूलों और पत्तियों से सजाया जाता है, जबकि समूह भागवत पुराण और भगवत गीता के दसवें अध्याय का पाठ करते या सुनते हैं।
जन्माष्टमी मणिपुर में उपवास, सतर्कता, शास्त्रों के पाठ और कृष्ण प्रार्थना के साथ मनाया जाने वाला एक प्रमुख त्योहार है। मथुरा और वृंदावन में जन्माष्टमी के दौरान रासलीला करने वाले नर्तक एक उल्लेखनीय वार्षिक परंपरा है। मीतेई वैष्णव समुदाय में बच्चे लिकोल सन्नाबागेम खेलते हैं।
ओड़िशा और पश्चिम बंगाल
पूर्वी राज्य ओड़िशा में (विशेष रूप से जगन्नाथ पुरी के आसपास के क्षेत्र) और पश्चिम बंगाल के नबद्वीप में, जनमाष्टमी के इस त्योहार को श्री कृष्ण जयंती व श्री जयंती के रूप में भी जाना जाता है। लोग आधी रात तक उपवास और पूजा कर जन्माष्टमी मनाते हैं।भागवत पुराण में श्रीकृष्ण जी के जीवन को समर्पित एक खंड, १०वें अध्याय को पढ़ा जाता है।अगले दिन को "नन्द उत्सव" जो श्रीकृष्ण के पालक माता-पिता नन्द और यशोदा के हर्ष के उत्सव का प्रतीक है। जन्माष्टमी के पूरे दिन भक्त उपवास रखते हैं।आधी रात को श्री राधा माधव के लिए एक भव्य अभिषेक किया जाता है। अभिषेक समारोह के समय गङ्गा जल से श्री राधा-माधव को स्नान करायाजाता है। ४०० से अधिक वस्तुओं का भोजन (भोग) भक्ति के साथ श्री राधा-माधव अर्पित किया जाता है।
गोकुला अष्टमी (जन्माष्टमी या श्री कृष्ण जयंती) कृष्ण का जन्मदिन मनाती है। गोकुलाष्टमी दक्षिण भारत में बहुत उत्साह के साथ मनाई जाती है। [३९] केरल में, लोग मलयालम कैलेंडर के अनुसार सितंबर को मनाते हैं। तमिलनाडु में, लोग फर्श को कोलम (चावल के घोल से तैयार सजावटी पैटर्न) से सजाते हैं। गीता गोविंदम और ऐसे ही अन्य भक्ति गीत कृष्ण की स्तुति में गाए जाते हैं। फिर वे घर की दहलीज से पूजा कक्ष तक कृष्ण के पैरों के निशान खींचते हैं, जो घर में कृष्ण के आगमन को दर्शाता है। भगवद्गीता का पाठ भी एक लोकप्रिय प्रथा है। कृष्ण को चढ़ाए जाने वाले प्रसाद में फल, पान और मक्खन शामिल हैं। कृष्ण की पसंदीदा मानी जाने वाली सेवइयां बड़ी सावधानी से तैयार की जाती हैं। उनमें से सबसे महत्वपूर्ण हैं सीदाई, मीठी सीदाई, वेरकादलाई उरुंडई। यह त्योहार शाम को मनाया जाता है क्योंकि कृष्ण का जन्म मध्यरात्रि में हुआ था। ज्यादातर लोग इस दिन सख्त उपवास रखते हैं और आधी रात की पूजा के बाद ही भोजन करते हैं।
आंध्र प्रदेश में, श्लोकों और भक्ति गीतों का पाठ इस त्योहार की विशेषता है। इस त्यौहार की एक और अनूठी विशेषता यह है कि युवा लड़के कृष्ण के रूप में तैयार होते हैं और वे पड़ोसियों और दोस्तों से मिलते हैं। विभिन्न प्रकार के फल और मिठाइयाँ सबसे पहले कृष्ण को अर्पित की जाती हैं और पूजा के बाद इन मिठाइयों को आगंतुकों के बीच वितरित किया जाता है। आंध्र प्रदेश के लोग भी उपवास रखते हैं। इस दिन गोकुलनंदन चढ़ाने के लिए तरह-तरह की मिठाइयां बनाई जाती हैं। कृष्ण को प्रसाद बनाने के लिए दूध और दही के साथ खाने की चीजें तैयार की जाती हैं। राज्य के कुछ मंदिरों में कृष्ण के नाम का आनंदपूर्वक जप होता है। कृष्ण को समर्पित मंदिरों की संख्या कम है। इसका कारण यह है कि लोगों ने मूर्तियों के बजाय चित्रों के माध्यम से उनकी पूजा की जाती है।
कृष्ण को समर्पित लोकप्रिय दक्षिण भारतीय मंदिर हैं, तिरुवरुर जिले के मन्नारगुडी में राजगोपालस्वामी मंदिर, कांचीपुरम में पांडवधूथर मंदिर, उडुपी में श्री कृष्ण मंदिर और गुरुवायुर में कृष्ण मंदिर विष्णु के कृष्ण अवतार की स्मृति को समर्पित हैं। किंवदंती कहती है कि गुरुवायुर में स्थापित श्री कृष्ण की मूर्ति द्वारका की है, जिसके बारे में माना जाता है कि यह समुद्र में डूबी हुई थी।
उत्तराखंड में जन्माष्टमी का महोत्सव
अपने पारम्परिक रीति रिवाजों द्वारा उत्तराखंड में जन्माष्टमी का उत्सव बड़े ही जोर शोर के साथ मनाया जाता है। केवल बड़ों के द्वारा ही नहीं बल्कि बच्चों द्वारा भी यह पर्व बड़े ही हर्ष और उल्लास के साथ मनाया जाता है। आज के दिन की शुरुवात सभी लोग सुबह स्नान करके नए कपड़ें पहन कर करते है। परम्परा के अनुसार सभी लोग अपने से बड़े का पैर छू कर आशीर्वाद प्राप्त करते है। उसके बाद पहले घर पर भगवान श्री कृष्ण की पूजा की जाती है और साथ अन्य देवी देवताओं की भी पूजा की जाती है। बाजारों में आज के दिन तरह तरह के फल आ जाते है सभी एक दिन पहले ही प्रसाद के रूप में फल खरीद लेते है
भारत के बाहर
नेपाल की लगभग अस्सी प्रतिशत आबादी खुद को हिंदू के रूप में पहचानती है और कृष्ण जन्माष्टमी मनाती है। वे आधी रात तक उपवास करके जन्माष्टमी मनाते हैं। भक्त भगवद गीता का पाठ करते हैं और भजन और कीर्तन करते हैं। कृष्ण के मंदिरों को सजाया जाता है। दुकानों, पोस्टरों और घरों में कृष्ण के रूपांकन हैं।
जन्माष्टमी बांग्लादेश में एक राष्ट्रीय अवकाश है। जन्माष्टमी पर, बांग्लादेश के राष्ट्रीय मंदिर, ढाकेश्वरी मंदिर ढाका से एक जुलूस शुरू होता है, और फिर पुराने ढाका की सड़कों से आगे बढ़ता है। जुलूस १९०२ का है, लेकिन १९४८ में रोक दिया गया था। जुलूस १९८९ में फिर से शुरू किया गया था।
फिजी में कम से कम एक चौथाई आबादी हिंदू धर्म का पालन करती है, और यह अवकाश फिजी में तब से मनाया जाता है जब से पहले भारतीय गिरमिटिया मजदूर वहां पहुंचे थे। फिजी में जन्माष्टमी को "कृष्णा अष्टमी" के रूप में जाना जाता है। फ़िजी में अधिकांश हिंदुओं के पूर्वज उत्तर प्रदेश, बिहार और तमिलनाडु से उत्पन्न हुए हैं, जिससे यह उनके लिए विशेष रूप से महत्वपूर्ण त्योहार है। फिजी का जन्माष्टमी उत्सव इस मायने में अनोखा है कि वे आठ दिनों तक चलते हैं, जो आठवें दिन तक चलता है, जिस दिन कृष्ण का जन्म हुआ था। इन आठ दिनों के दौरान, हिंदू घरों और मंदिरों में अपनी 'मंडलियों' या भक्ति समूहों के साथ शाम और रात में इकट्ठा होते हैं, और भागवत पुराण का पाठ करते हैं, कृष्ण के लिए भक्ति गीत गाते हैं, और प्रसाद वितरित करते हैं।
फ्रांसीसी द्वीप रीयूनियन के मालबारों में, कैथोलिक और हिंदू धर्म का एक समन्वय विकसित हो सकता है। जन्माष्टमी को ईसा मसीह की जन्म तिथि माना जाता है।
एरिज़ोना, संयुक्त राज्य अमेरिका में, गवर्नर जेनेट नेपोलिटानो इस्कॉन को स्वीकार करते हुए जन्माष्टमी पर संदेश देने वाले पहले अमेरिकी नेता थे। यह त्योहार कैरिबियन में गुयाना, त्रिनिदाद और टोबैगो, जमैका और पूर्व ब्रिटिश उपनिवेश फिजी के साथ-साथ सूरीनाम के पूर्व डच उपनिवेश में हिंदुओं द्वारा व्यापक रूप से मनाया जाता है। इन देशों में बहुत से हिंदू तमिलनाडु, उत्तर प्रदेश और बिहार से आते हैं; तमिलनाडु, उत्तर प्रदेश, बिहार, बंगाल और उड़ीसा के गिरमिटिया प्रवासियों के वंशज।
भारत में त्यौहार |
मथुरा (मथुरा) भारत के उत्तर प्रदेश राज्य के मथुरा ज़िले में स्थित एक नगर है। मथुरा ऐतिहासिक रूप से कुषाण राजवंश द्वारा राजधानी के रूप में विकसित नगर है। लोगों की मान्यता है की उससे पूर्व भगवान कृष्ण के समय काल से भी पूर्व अर्थात लगभग ७५०० वर्ष से यह नगर अस्तित्व में है.यह धार्मिक पर्यटन स्थल के रूप में प्रसिद्ध है। लेकिन इसका कोई पुरातात्विक प्रमाण नहीं है क्योंकि १३ वीं शताब्दी से पहले इसका कहीं भी जिक्र नही है उदाहरण के लिए सन् ४०२ मे चीनी यात्री फाहियान भारत आया उसने अपनी किताब मे लिखा है "फाहियान मथुरा (मताऊला) पहुंचे, जहां पर उन्होंने कई बिहारों को देखा, जिनमें तीन हजार से ज्यादा भिक्खू रहते थे और यहां के सभी राजा बुद्ध के अनुयाई थे । फाहियान आगे लिखते हैं कि इस देश का कोई निवासी ना जीव हत्या करता है, ना मद्यपान करता है और ना लहसुन प्याज खाता है ।" था तथा सन् ६३० ई. मे चीनी यात्री व्हेनसोंग भारत आया चीनी यात्री ह्वेनसांग ने मथुरा को अपने यात्रा विवरण सी-यू-की में मोटउलो के नाम से संबोधित किया है, जिसमें इसका क्षेत्रफल ५००० ली बताया है । भूमि अच्छी तथा उपजाऊ है । यहाँ के निवासी आमलक (आंवला) बहुत पैदा करते हैं। यहां पर बहुत ही उत्तम किस्म की कपास उत्पन्न होती हैं। यहां का मौसम गर्म है और लोगों का व्यवहार कोमल तथा आदरणीय है। यहां पर २० संघाराम हैं, जिसमें २०00 से भी ज्यादा भिक्खू रहते हैं, जिनका संबंध हीनयान और महायान दोनों संप्रदायों से है। ५ देवमंदिर भी हैं, जिनमें अलग मत के अनुयाई रहते हैं । सम्राट अशोक ने जिन ३ स्तूपों का निर्माण यहाँ पर करवायाँ था वो आज भी मौजूद हैं।
मथुरा की अवस्थिती
मथुरा, भगवान कृष्ण की जन्मस्थली और भारत की प्राचीन नगरी है। हालांकि उत्खनन द्वारा प्राप्त इस नगर का साक्ष्य कुषाण कालीन है। पुराण कथा अनुसार शूरसेन देश की यहाँ राजधानी थी। पौराणिक साहित्य में मथुरा को अनेक नामों से संबोधित किया गया है जैसे- शूरसेन नगरी, मधुपुरी, मधुनगरी, मधुरा आदि। भारतवर्ष का वह भाग जो हिमालय और विंध्याचल के बीच में पड़ता है, जो प्राचीनकाल में आर्यावर्त कहलाता था। यह यमुना नदी के किनारे बसा हुआ है। यह आगरा से दिल्ली की ओर और दिल्ली से आगरा की ओर क्रमश: ५८ किलोमीटर उत्तर-पश्चिम एवं १४५ किलोमीटर दक्षिण-पश्चिम में यमुना के किनारे राष्ट्रीय राजमार्ग २ पर स्थित है।
वाल्मीकि रामायण में मथुरा को मधुपुर या मधुदानव का नगर कहा गया है तथा यहाँ लवणासुर की राजधानी बताई गई है। इस नगरी को इस प्रसंग में मधुदैत्य द्वारा बसाई, बताया गया है। लवणासुर, जिसको शत्रुघ्न ने युद्ध में हराकर मारा था इसी मधुदानव का पुत्र था। इससे मधुपुरी या मथुरा का रामायण-काल में बसाया जाना सूचित होता है। रामायण में इस नगरी की समृद्धि का वर्णन है। इस नगरी को लवणासुर ने भी सजाया संवारा था। दानव, दैत्य, राक्षस आदि जैसे संबोधन विभिन्न काल में अनेक अर्थों में प्रयुक्त हुए हैं, कभी जाति या क़बीले के लिए, कभी आर्य अनार्य सन्दर्भ में तो कभी दुष्ट प्रकृति के व्यक्तियों के लिए। प्राचीनकाल से अब तक इस नगर का अस्तित्व अखण्डित रूप से चला आ रहा है।
मथुरा के चारों ओर चार शिव मंदिर हैं- पूर्व में पिपलेश्वर का, दक्षिण में रंगेश्वर का और उत्तर में गोकर्णेश्वर का और पश्चिम में भूतेश्वर महादेव का मन्दिर है। चारों दिशाओं में स्थित होने के कारण भगवान शिव को मथुरा का कोतवाल कहते हैं। मथुरा को आदि वाराह भूतेश्वर क्षेत्र के नाम से भी जाना जाता है। वाराह जी की गली में नीलवारह और श्वेतवाराह के सुंदर विशाल मंदिर हैं। श्रीकृष्ण के प्रपौत्र वज्रनाभ ने श्री केशवदेवजी की मूर्ति स्थापित की थी पर औरंगजेब के काल में वह रजधाम में पधरा दी गई व औरंगजेब ने मंदिर को तोड़ डाला और उसके स्थान पर मस्जिद खड़ी कर दी। बाद में उस मस्जिद के पीछे नया केशवदेवजी का मंदिर बन गया है। प्राचीन केशव मंदिर के स्थान को केशवकटरा कहते हैं। खुदाई होने से यहाँ बहुत सी ऐतिहासिक वस्तुएँ प्राप्त हुई थीं।मुगलकाल में सौंख का किला जाट राजा हठी सिंह की वीरता के लिए प्रसिद्ध था
पास ही एक कंकाली टीले पर कंकालीदेवी का मंदिर है। कंकाली टीले में भी अनेक वस्तुएँ प्राप्त हुई थीं। यह कंकाली वह बतलाई जाती है, जिसे देवकी की कन्या समझकर कंस ने मारना चाहा था पर वो उसके हाथ से छूटकर आकाश में चली गई थी। (देखें विद्याधर चक्रवर्ती) मस्जिद से थोड़ा सा पीछे पोतराकुण्ड के पास भगवान् श्रीकृष्ण की जन्मभूमि है, जिसमें वसुदेव तथा देवकी की मूर्तियाँ हैं, इस स्थान को मल्लपुरा कहते हैं। इसी स्थान में कंस के चाणूर, मुष्टिक, कूटशल, तोशल आदि प्रसिद्ध मल्ल रहा करते थे। नवीन स्थानों में सबसे श्रेष्ठ स्थान श्री पारखजी का बनवाया हुआ श्री द्वारकाधीश का मंदिर है। इसमें प्रसाद आदि का समुचित प्रबंध है। संस्कृत पाठशाला, आयुर्वेदिक तथा होमियोपैथिक लोकोपकारी विभाग भी हैं।
इस मंदिर के अलावा गोविंदजी का मंदिर, किशोरीरमणजी का मंदिर, वसुदेव घाट पर गोवर्द्धननाथजी का मंदिर, उदयपुर वाली रानी का मदनमोहनजी का मंदिर, विहारीजी का मंदिर, रायगढ़वासी रायसेठ का बनवाया हुआ मदनमोहनजी का मंदिर, उन्नाव की रानी श्यामकुंवरी का बनाया राधेश्यामजी का मंदिर, असकुण्डा घाट पर हनुमान्जी, नृसिंहजी, वाराहजी, गणेशजी के मंदिर आदि हैं, जिनमें कई का आय-व्यय बहुत है, प्रबंध अत्युत्तम है, साथ में पाठशाला आदि संस्थाएँ भी चल रही हैं। विश्राम घाट या विश्रान्त घाट एक बड़ा सुंदर स्थान है, मथुरा में यही प्रधान तीर्थ है। विश्रांतिक तीर्थ (विश्राम घाट) असिकुंडा तीर्थ (असकुंडा घाट) वैकुंठ तीर्थ, कालिंजर तीर्थ और चक्रतीर्थ नामक पांच प्रसिद्ध मंदिरों का वर्णन किया गया है। इस ग्रंथ में कालवेशिक, सोमदेव, कंबल और संबल, इन जैन साधुओं को मथुरा का बतलाया गया है। जब यहाँ एक बार घोर अकाल पड़ा था तब मथुरा के एक जैन नागरिक खंडी ने अनिवार्य रूप से जैन आगमों के पाठन की प्रथा चलाई थी।
भगवान् ने कंस वध के पश्चात् यहीं विश्राम लिया था। नित्य प्रातः-सायं यहाँ यमुनाजी की आरती होती है, जिसकी शोभा दर्शनीय है। यहाँ किसी समय दतिया नरेश और काशी नरेश क्रमशः ८१ मन और ३ मन सोने से तुले थे और फिर यह दोनों बार की तुलाओं का सोना व्रज में बांट दिया था। यहाँ मुरलीमनोहर, कृष्ण-बलदेव, अन्नपूर्णा, धर्मराज, गोवर्द्धननाथ आदि कई मंदिर हैं। यहाँ चैत्र शु. ६ (यमुना-जाम-दिवस), यमद्वितीया तथा कार्तिक शु. १० (कंस वध के बाद) को मेला लगता है। विश्रान्त से पीछे श्रीरामानुज सम्प्रदाय का नारायणजी का मंदिर, इसके पीछे पुराना गतश्रम नारायणजी का मंदिर, इसके आगे कंसखार हैं। सब्जी मंडी में पं॰ क्षेत्रपाल शर्मा का बनवाया घंटाघर है। पालीवाल बोहरों के बनवाए राधा-कृष्ण, दाऊजी, विजयगोविंद, गोवर्द्धननाथ के मंदिर हैं। रामजीद्वारे में श्री रामजी का मंदिर है, वहीं अष्टभुजी श्री गोपालजी की मूर्ति है, जिसमें चौबीस अवतारों के दर्शन होते हैं। यहाँ रामनवमी को मेला होता है। यहाँ पर वज्रनाभ के स्थापित किए हुए ध्रुवजी के चरणचिह्न हैं। चौबच्चा में वीर भद्रेश्वर का मंदिर, लवणासुर को मारकर मथुरा की रक्षा करने वाले शत्रुघ्नजी का मंदिर, होली दरवाजे पर दाऊजी का मंदिर, डोरी बाजार में गोपीनाथजी का मंदिर है।
आगे चलकर दीर्घ विष्णुजी का मंदिर, बंगाली घाट पर श्री वल्लभ कुल के गोस्वामी परिवारों के बड़े-छोटे दो मदनमोहनजी के और एक गोकुलेश का मंदिर है। नगर के बाहर ध्रुवजी का मंदिर, गऊ घाट पर प्राचीन विष्णुस्वामी सम्प्रदाय का श्री राधाविहारीजी का मंदिर, वैरागपुरा में प्राचीन विष्णुस्वामी सम्प्रदाय के विरक्तों का मंदिर है। वैरागपुरा में गोहिल छिपि जाति के चाउधरि श्रि गोर्धनदास नागर पुत्र श्रि हरकरन दास नागर ने सकल पन्च मथुरा को सम्वत १९८१ (सन १९२४) में मन्दिर बनाने के हेतु अपनै भुमि दान में दै। और उस भुमि के ऊपर दाउजि माहारज और रेवति देवि कि मुर्ति पधार क्र्र मन्दिर दान कर दिया। इससे आगे मथुरा के पश्चिम में एक ऊंचे टील पर महाविद्या का मंदिर है, उसके नीचे एक सुंदर कुण्ड तथा पशुपति महादेव का मंदिर है, जिसके नीचे सरस्वती नाला है। किसी समय यहाँ सरस्वतीजी बहती थीं और गोकर्णेश्वर-महादेव के पास आकर यमुनाजी में मिलती थीं।
एक प्रसंग में यह वर्णन है कि एक सर्प नंदबाबा को रात्रि में निगलने लगा, तब श्रीकृष्ण ने सर्प को लात मारी, जिस पर सर्प शरीर छोड़कर सुदर्शन विद्याधर हो गया। किन्हीं-किन्हीं टीकाकारों का मत है कि यह लीला इन्हीं महाविद्या की है और किन्हीं-किन्हीं का मत है कि अम्बिकावन दक्षिण में है। इससे आगे सरस्वती कुण्ड और सरस्वती का मंदिर और उससे आगे चामुण्डा का मंदिर है। चामुण्डा से मथुरा की ओर लौटते हुए बीच में अम्बरीष टीला पड़ता है, यहाँ राजा अम्बरीष ने तप किया था। अब उस स्थान पर नीचे जाहरपीर का मठ है और टीले के ऊपर हनुमान्जी का मंदिर है। ये सब मथुरा के प्रमुख स्थान हैं। इनके सिवाय और बहुत छोटे-छोटे स्थान हैं। मथुरा के पास नृसिंहगढ़ एक स्थान है, जहाँ नरहरि नाम के एक पहुंचे हुए महात्मा हो गए हैं। कहा जाता है इन्होंने ४०० वर्ष के होकर अपना शरीर त्याग किया था।
मथुरा की परिक्रमा
प्रत्येक एकादशी और अक्षय नवमी को मथुरा की परिक्रमा होती है। देवशयनी और देवोत्थापनी एकादशी को मथुरा-गरुड गोविन्द्-वृन्दावन् की एक साथ परिक्रमा की जाती है। यह परिक्र्मा २१ कोसी या तीन वन की भी कही जाती है। वैशाख शुक्ल पूर्णिमा को रात्रि में परिक्रमा की जाती है, जिसे वनविहार की परिक्रमा कहते हैं। स्थान-स्थान में गाने-बजाने का तथा पदाकन्दा नाटक का भी प्रबंध रहता है। श्री दाऊजी ने द्वारका से आकर, वसन्त ऋतु के दो मास व्रज में बिताकर जो वनविहार किया था तथा उस समय यमुनाजी को खींचा था, यह परिक्रमा उसी की स्मृति है।
सप्तपुरियों में मथुरा
भारतवर्ष के सांस्कृतिक और आधात्मिक गौरव की आधारशिलाऐं इसकी सात महापुरियां हैं। 'गरुडपुराण' में इनके नाम इस क्रम से वर्णित हैं - इनमें मथुरा का स्थान अयोध्या के पश्चात अन्य पुरियों के पहिले रखा गया है। पदम पुराण में मथुरा का महत्व सर्वोपरि मानते हुए कहा गया है कि यद्यपि काशी आदि सभी पुरियाँ मोक्ष दायिनी है तथापि मथुरापुरी धन्य है। यह पुरी देवताओं के लिये भी दुर्लभ है। २ इसी का समर्थन 'गर्गसंहिता' में करते हुए बतलाया गया है कि पुरियों की रानी कृष्णापुरी मथुरा बृजेश्वरी है, तीर्थेश्वरी है, यज्ञ तपोनिधियों की ईश्वरी है यह मोक्ष प्रदायिनी धर्मपुरी मथुरा नमस्कार योग्य है।
ब्रज का प्राचीन संगीत
ब्रज के प्राचीन संगीतज्ञों की प्रामाणिक जानकारी १६वीं शताब्दी के भक्तिकाल से मिलती है। इस काल में अनेकों संगीतज्ञ वैष्णव संत हुए। संगीत शिरोमणि स्वामी हरिदास जी, इनके गुरु आशुधीर जी तथा उनके शिष्य तानसेन आदि का नाम सर्वविदित है। बैजूबावरा के गुरु भी श्री हरिदास जी कहे जाते हैं, किन्तु बैजू बावरा ने अष्टछाप के कवि संगीतज्ञ गोविन्द स्वामी जी से ही संगीत का अभ्यास किया था। निम्बार्क सम्प्रदाय के श्रीभट्ट जी इसी काल में भक्त, कवि और संगीतज्ञ हुए। अष्टछाप के महासंगीतज्ञ कवि सूरदास, नन्ददास, परमानन्ददास जी आदि भी इसी काल में प्रसिद्ध कीर्तनकार, कवि और गायक हुए, जिनके कीर्तन बल्लभकुल के मन्दिरों में गाये जाते हैं। स्वामी हरिदास जी ने ही वस्तुत: ब्रजसंगीत के ध्रुपदधमार की गायकी और रासनृत्य की परम्परा चलाई।
मथुरा में संगीत का प्रचलन बहुत पुराना है, बांसुरी ब्रज का प्रमुख वाद्य यंत्र है। भगवान श्रीकृष्ण की बांसुरी को जनजन जानता है और इसी को लेकर उन्हें 'मुरलीधर' और 'वंशीधर' आदि नामों से पुकारा जाता है। वर्तमान में भी ब्रज के लोक संगीत में ढोल मृदंग, झांझ, मंजीरा, ढप, नगाड़ा, पखावज, एकतारा आदि वाद्य यंत्रों का प्रचलन है। १६ वीं शती से मथुरा में रास के वर्तमान रूप का प्रारम्भ हुआ। यहाँ सबसे पहले बल्लभाचार्य जी ने स्वामी हरदेव के सहयोग से विश्रांत घाट पर रास किया। रास ब्रज की अनोखी देन है, जिसमें संगीत के गीत गद्य तथा नृत्य का समिश्रण है। ब्रज के साहित्य के सांस्कृतिक एवं कलात्मक जीवन को रास बड़ी सुन्दरता से अभिव्यक्त करता है। अष्टछाप के कवियों के समय ब्रज में संगीत की मधुरधारा प्रवाहित हुई। सूरदास, नन्ददास, कृष्णदास आदि स्वयं गायक थे। इन कवियों ने अपनी रचनाओं में विविध प्रकार के गीतों का अपार भण्डार भर दिया। स्वामी हरिदास संगीत शास्त्र के प्रकाण्ड आचार्य एवं गायक थे। तानसेन जैसे प्रसिद्ध संगीतज्ञ भी उनके शिष्य थे। सम्राट अकबर भी स्वामी जी के मधुर संगीत- गीतों को सुनने का लोभ संवरण न कर सका और इसके लिए भेष बदलकर उन्हें सुनने वृन्दावन आया करता था। मथुरा, वृन्दावन, गोकुल, गोवर्धन लम्बे समय तक संगीत के केन्द्र बने रहे और यहाँ दूर से संगीत कला सीखने आते रहे।
ब्रज में अनेकानेक गायन शैलियां प्रचलित हैं और रसिया ब्रज की प्राचीनतम गायकी कला है। भगवान श्रीकृष्ण की बाल लीलाओं से सम्बन्धित पद, रसिया आदि गायकी के साथ रासलीला का आयोजन होता है। श्रावण मास में महिलाओं द्वारा झूला झूलते समय गायी जाने वाली मल्हार गायकी का प्रादुर्भाव ब्रज से ही है। लोकसंगीत में रसिया, ढोला, आल्हा, लावणी, चौबोला, बहलतबील, भगत आदि संगीत भी समय समय पर सुनने को मिलता है। इसके अतिरिक्त ऋतु गीत, घरेलू गीत, सांस्कृतिक गीत समयसमय पर विभिन्न वर्गों में गाये जाते हैं।
यहाँ स्थापत्य तथा मूर्ति कला के विकास का सबसे महत्त्वपूर्ण युग कुषाण काल के प्रारम्भ से गुप्त काल के अन्त तक रहा। यद्यपि इसके बाद भी ये कलायें १२वीं शती के अन्त तक जारी रहीं। इसके बाद लगभग ३५० वर्षों तक मथुरा कला का प्रवाह अवरूद्ध रहा, पर १६वीं शती से कला का पुनरूत्थान साहित्य, संगीत तथा चित्रकला के रूप में दिखाई पड़ने लगता है।
ब्रज के वन
ब्रज में बारह वन ब्रज के वन हैं जो कि द्वादश वन के नाम से प्रसिद्ध हैं।
कृष्ण जन्म भूमि
दर्शनीय स्थल (मथुरा से वृन्दावन की ओर)
श्री गरुड् गोविन्द मन्दिर, शाडान्ग वन (छटीकरा)
राधावल्लभ मंदिर राधावल्लभ मंदिर
दर्शनीय स्थल (मथुरा से गोकुल की ओर)
नवनीतप्रिया जी का मंदिर
बह्मांड घाट महावन
चिंताहरण महादेव महावन
दर्शनीय स्थल (मथुरा से गोवर्धन की ओर)
मथुरा रेलवे स्टेशन काफ़ी व्यस्त जंक्शन है और दिल्ली से दक्षिण भारत या मुम्बई जाने वाली सभी ट्रेने मथुरा होकर गुजरती हैं। सडक द्वारा भी पहुंचा जा सकता है। आगरा से मात्र ५५ किलोमीटर तथा खैर से मात्र ५० किलोमीटर है। वृन्दावन पहुचने के लिये यह वृन्दावन की वेबसाईट काफी सूचना देती हे| स्टेशन के आसपास कई होटल हैं और विश्राम घाट के आसपास कई कमखर्च वाली धर्मशालाएं रूकने के लिए उपलब्ध हैं। घूमने के लिए टेक्सी कर सकते हैं, जिससे मथुरा, वृन्दावन एक दिन में घूमा जा सकता है। अधिकतर मंदिरों में दर्शन सुबह १२ बजे तक और सांय ४ से ६-७ बजे तक खुलते हैं, दर्शनार्थियों को इसी हिसाब से अपना कार्यक्रम बनाना चाहिए। आटो और तांगे भी उपलब्ध है। यमुना में नौका विहार और प्रातःकाल और सांयकाल में विश्राम घाट पर होने वाली यमुना जी की आरती दर्शनीय है। गोकुल की ओर जाने के लिये आधा दिन और लगेगा, उसके बाद गोवर्धन के लिये निकल सकते हैं। गोवर्धन के लिये बस से उपलब्ध है। राधाष्टमी का उत्सव वृन्दावन में धूम से मनाया जाता हे |
श्रीकृष्ण राधा और गोपियोंग्वालों के बीच की होली के रूप में गुलाल, रंग केसर की पिचकारी से ख़ूब खेलते हैं। होली का आरम्भ फाल्गुन शुक्ल ९ बरसाना से होता है। वहां की लट्ठमार होली होली जग प्रसिद्ध है। दसवीं को ऐसी ही होली नन्दगांव में होती है। इसी के साथ पूरे ब्रज में होली की धूम मचती है। धूलेंड़ी को प्राय: होली पूर्ण हो जाती है, इसके बाद हुरंगे चलते हैं, जिनमें महिलायें रंगों के साथ लाठियों, कोड़ों आदि से पुरुषों को घेरती हैं। बरसाना और नंदगाँव की लठमार होली तो जगप्रसिद्ध है। 'नंदगाँव के कुँवर कन्हैया, बरसाने की गोरी रे रसिया' और बरसाने में आई जइयो बुलाए गई राधा प्यारी गीतों के साथ ही ब्रज की होली की मस्ती शुरू होती है। वैसे तो होली पूरे भारत में मनाई जाती है लेकिन ब्रज की होली ख़ास मस्ती भरी होती है। वजह ये कि इसे कृष्ण और राधा के प्रेम से जोड़ कर देखा जाता है। उत्तर भारत के ब्रज क्षेत्र में बसंत पंचमी से ही होली का चालीस दिवसीय उत्सव आरंभ हो जाता है। नंदगाँव एवं बरसाने से ही होली की विशेष उमंग जाग्रत होती है। जब नंदगाँव के गोप गोपियों पर रंग डालते, तो नंदगांव की गोपियां उन्हें ऐसा करनेसे रोकती थीं और न माननेपर लाठी मारना शुरू करती थीं। होली की टोलियों में नंदगाँव के पुरुष होते हैं, क्योंकि कृष्ण यहीं के थे और बरसाने की महिलाएं, क्योंकि राधा बरसाने की थीं। दिलचस्प बात ये होती है कि ये होली बाकी भारत में खेली जाने वाली होली से पहले खेली जाती है। दिन शुरू होते ही नंदगाँव के हुरियारों की टोलियाँ बरसाने पहुँचने लगती हैं। साथ ही पहुँचने लगती हैं कीर्तन मंडलियाँ। इस दौरान भाँग-ठंढई का ख़ूब इंतज़ाम होता है। ब्रजवासी लोगों की चिरौंटा जैसी आखों को देखकर भाँग ठंढई की व्यवस्था का अंदाज़ लगा लेते हैं। बरसाने में टेसू के फूलों के भगोने तैयार रहते हैं। दोपहर तक घमासान लठमार होली का समाँ बंध चुका होता है। नंदगाँव के लोगों के हाथ में पिचकारियाँ होती हैं और बरसाने की महिलाओं के हाथ में लाठियाँ और शुरू हो जाती है होली।
मथुरा संग्रहालय में मथुरा शैली की कलाकृतियाँ
मथुरा का विशाल मूर्तिकला संग्रह देश के और विदेश के अनेक संग्रहालयों में वितरित हो चुका है। यहाँ की सामग्री लखनऊ के राज्य संग्रहालय में, कलकत्ता के भारतीय संग्रहालय में, मुम्बई और वाराणसी के संग्रहालयों में तथा विदेशों में मुख्यत: अमेरिका के 'बोस्टन' संग्रहालय में, 'पेरिस' व 'ज़्यूरिच' के संग्रहालयों व लन्दन के ब्रिटिश संग्रहालय में प्रदर्शित है। परन्तु इसका सबसे बड़ा भाग मथुरा संग्रहालय में प्रदर्शित है। इसके अतिरिक्त कतिपय व्यक्तिगत संग्रहों में भी मथुरा की कलाकृतियाँ हैं।
मथुरा का संग्रहालय यहाँ के तत्कालीन जिलाधीश एफ. एस. ग्राउज द्वारा सन १८७४ में स्थापित किया गया था। प्रारम्भ में यह संग्रहालय स्थानीय तहसील के पास एक छोटे भवन में रखा गया था। प्रारम्भ में यह संग्रहालय स्थानीय तहसील के पास एक छोटे भवन में रखा गया था। कुछ परिवर्तनों के बाद सन १९०० में संग्रहालय का प्रबन्ध नगरपालिका के हाथ में दिया गया। इसके पाँच वर्ष पश्चात तत्कालीन पुरातत्व अधिकारी डॉ॰ जे. पी. एच. फोगल के द्वारा इस संग्रहालय की मूर्तियों का वर्गीकरण किया गया और सन १९१० में एक विस्तृत सूची प्रकाशित की गई। इस कार्य से संग्रहालय का महत्व शासन की दृष्टि में बढ़ गया और सन १९१२ में इसका सारा प्रबन्ध राज्य सरकार ने अपने हाथ में ले लिया।
सन १९०८ से रायबहादुर पं॰ राधाकृष्ण यहाँ के प्रथम सहायक संग्रहाध्यक्ष के रूप में नियुक्त हुए, बाद में वे अवैतनिक संग्रहाध्यक्ष हो गए। अब संग्रहालय की उन्नति होने लगी, जिसमें तत्कालीन पुरातत्व निदेशक सर जॉन मार्शल और रायबहादुर दयाराम साहनी का बहुत बड़ा हाथ था। सन १९२९ में प्रदेशीय शासन ने एक लाख छत्तीस हजार रुपये लगाकर स्थानीय डेंम्पीयर पार्क में संग्रहालय का सम्मुख भाग निर्मित कराया और सन् १९३० में यह जनता के लिए खोला गया। इसके पश्चात ब्रिटिश शासनान्तर्गत यहाँ कोई नवीन परिवर्तन नहीं हुआ।
सन १९४७ में जब भारत का शासन सूत्र उसके अपने हाथों में आया तब से अधिकारियों का ध्यान इस सांस्कृतिक तीर्थ की उन्नति की ओर भी गया। द्वितीय पंचवर्षीय योजना में इसकी उन्नति में अलग के धन राशि की व्यवस्था की गई और कार्य भी प्रारम्भ हुआ। सन १९५८ से कार्य की गति तीव्र हुई। पुराने भवन की छत का नवीनीकरण हुआ और साथ ही साथ सन १९३० का अधूरा बना हुआ भवन भी पूरा किया गया।
मथुरा की मूर्ति कला का प्रादुर्भाव यहाँ की लोक कला के माध्यम से सम्पन्न हुआ। लोक कला की दृष्टि से देखा जाय तो मथुरा और उसके आसपास के भाग में इसके मौर्य कालीन नमूने विधमान हैं। लोक कला से सम्बन्धित ये मूर्तियाँ 'यक्षों' की हैं। 'यक्ष' पूजा तत्कालीन लोक धर्म का एक अभिन्न अंग थी। संस्कृत, पालि और प्राकृत साहित्य में 'यक्ष' पूजा का वर्णन विषद् रूप में वर्णित है। पुराणों के अनुसार यक्षों का कार्य पापियों को विघ्न करना, उन्हें दुर्गति देना और साथ ही साथ अपने क्षेत्र का संरक्षण करना था। १ मथुरा से इस प्रकार के यक्ष्म और यक्षणियों की ६ प्रतिमाएँ प्राप्त हो चुकी हैं। २ जिनमें सर्वाधिक महत्वपूर्ण 'परखम' नामक ग्राम से मिली हुई अभिलिखित यक्ष मूर्ति है। धोती और दुपट्टा धारण किए स्थूलकाय 'मणिभद्र यक्ष' स्थानक अवस्था में है। इस यक्ष का पूजन उस समय बड़ा ही लोकप्रिय था। इसकी एक विशालकाय प्रतिमा मध्यप्रदेश के 'पवाया' ग्राम से भी प्राप्त हुई है, जो वर्तमान समय में ग्वालियर के संग्रहालय
में प्रदर्शित है। मथुरा की यक्ष प्रतिमा भारतीय कला जगत में 'परखम यक्ष' के नाम से प्रसिद्ध है। शारीरिक बाल और सामर्थ्य की अभिव्यंजक प्राचीन काल की ये यक्ष प्रतिमाएँ केवल लोक कला के उदाहरण ही नहीं अपितु उत्तर काल में निर्मित बोधिसत्व, विष्णु, कुबेर, नाग आदि देव प्रतिमाओं के निर्माण की प्रेरिकाएँ भी हैं।
शुंग और शक क्षत्रप काल में पहुँचते-पहुँचते मथुरा को सं.सं.-कला केन्द्र का रूप प्राप्त हो गया। जैनों का देव निर्मित स्तूप, जो आज संग्रहालय संख्या के 'कंकाली' टीले पर विराजमान था, उस काल में विधमान था। ३ इस समय के तीन लेख, जिनका सम्बन्ध जैन धर्म से है, अब तक मथुरा से मिल चुके हैं। ४ यहाँ से इस काल की कई कलाकृतियाँ भी प्राप्त हो चुकी हैं जिनमें बोधिसत्व की विशाल प्रतिमा (लखनऊ संग्रहालय बी.१ बी) अमोहिनी का शिलाप (लखनऊ संग्रहालय, जे.-१), कई वेदिका स्तम्भ जिनमें से कुछ पर जातक कथाएँ तथा यक्षिणयों की प्रतिमाएँ उत्कीर्ण हैं, प्रमुख हैं।
स्थानीय भौगोलिक नाम
इन्हें भी देखें
मथुरा: जागरण यात्रा के संग
उत्तर प्रदेश के नगर
मथुरा ज़िले के नगर
हिन्दू तीर्थ स्थल |
रासलीला या कृष्णलीला में युवा और बालक कृष्ण की गतिविधियों का मंचन होता है। कृष्ण की मनमोहक अदाओं पर गोपियां यानी बृजबालाएं लट्टू थीं। कान्हा की मुरली का जादू ऐसा था कि गोपियां अपनी सुतबुत गंवा बैठती थीं। गोपियों के मदहोश होते ही शुरू होती थी कान्हा के मित्रों की शरारतें। माखन चुराना, मटकी फोड़ना, गोपियों के वस्त्र चुराना, जानवरों को चरने के लिए गांव से दूर-दूर छोड़ कर आना ही प्रमुख शरारतें थी, जिन पर पूरा वृन्दावन मोहित था। जन्माष्टमी के मौके पर कान्हा की इन सारी अठखेलियों को एक धागे में पिरोकर यानी उनको नाटकीय रूप देकर रासलीला या कृष्ण लीला खेली जाती है। इसीलिए जन्माष्टमी की तैयारियों में श्रीकृष्ण की रासलीला का आनन्द मथुरा, वृंदावन तक सीमित न रह कर पूरे देश में छा जाता है। जगह-जगह रासलीलाओं का मंचन होता है, जिनमें सजे-धजे श्री कृष्ण को अलग-अलग रूप रखकर राधा के प्रति अपने प्रेम को व्यक्त करते दिखाया जाता है। इन रास-लीलाओं को देख दर्शकों को ऐसा लगता है मानो वे असलियत में श्रीकृष्ण के युग में पहुंच गए हों।
रासलीला का वास्तविक अर्थ नृत्य,गान एवं अभिनय तीनो कलाओं के समावेश से है ।
इन्हें भी देखें
रस (काव्य शास्त्र)
गुजरात के लोक नृत्य
उत्तर प्रदेश के लोक नृत्य |
सिडनी ऑस्ट्रेलिया का सबसे बड़ा और सबसे पुराना शहर है। न्यू साउथ वेल्स का सबसे सुंदर माना जाने वाला यह शहर आधुनिक वास्तुकला और शहरी विकास का प्रतीक है। यह शहर मरे-डार्लिंग बेसिन का सबसे सुंदर नगर है। ब्राउन रेत के खूबसूरत बीच, सुहावना मौसम और डार्लिंग हार्बर के लिए प्रसिद्ध है सिडनी। दर्शनीय स्थलों में प्रमुख हैं- आस्ट्रेलियन म्यूजियम, रॉयल बोटेनिक गार्डन, बॉन्डी बीच, निल्सन पार्क इसके अलावा आस्ट्रेलियन नेशनल मैरिटाइम म्यूजियम, चाइनीज गार्डन, म्यूजियम ऑफ कंटैम्परेरी आर्ट, म्यूजियम ऑफ सिडनी, पॉवर हाउस म्यूजियम, सिडनी एक्वेरियम, सिडनी हार्बर ब्रिज पाइलोन लुक आउट, सिडनी ओपेरा हाउस, सिडनी ऑब्जरवेशन लेवल, राष्ट्रीय उद्यान के अलावा ४० से भी अधिक खूबसूरत रेतीले बीच हैं जिनमें से कूजी, क्रोन्यूला, कोलोरॉयल और पाम बीच प्रमुख हैं। सिडनी हार्बर को चारों तरफ से घेरे रहस्यमय सैंड स्टोन से बने क्लिफ और कव्स हैं।
ऑस्ट्रेलिया के शहर |
आस्ट्रेलिया की राजधानी कैनेबरा काफी सुनियोजित ढंग से बसाया गया खूबसूरत शहर है। भव्य इमारतें, शॉपिंग कॉम्पलेक्स, ३०० से अधिक रेस्तरां हैं। सिडनी से कैनबरा तक जलमार्ग, सड़क मार्ग और वायु मार्ग द्वारा भ्रमण कर सकते हैं। शहर में घूमने के लिए बस ट्राम की सुविधा है। कैनेबरा में अनेक दर्शनीय स्थलों में से प्रमुख हैं- ब्लैक माउंटेन, आस्ट्रेलिया वार मैमोरियल, नेशनल फिल्म एंड साउंड आर्काइव्स, नेशनल गैलरी ऑफ आस्ट्रेलिया, संसद भवन। कैनेबरा का प्रमुख बाजार है सिटी सेंटर। यहां की स्थानीय भाषा में कैनबरा का अर्थ है मिटिंग प्लेस। इसकी स्थापना १२ मार्च १९१३ ईसवी को हुई थी। कैनबरा आस्ट्रेलिया का दूसरा सबसे बड़ा शहर होने के साथ-साथ यहां की राजधानी भी है। लगभग ३४ लाख जनसंख्या वाले इस शहर में पर्यटन की दृष्टि से आस्ट्रेलियन वार मेमोरियल, पार्लियामेन्ट, ओल्ड पार्लियामेन्ट हाउस, नेशनल म्यूजियम, नेशनल लाइब्रेरी, राष्ट्रीय विज्ञान केन्द्र, नेशनल बोटेनिकल गार्डेन, टेल्सट्रा टावर जैसे जगह घूमा जा सकता है।
कैनबरा की अवस्थिति ३५१८२७स अक्षांश और १४९०७२७.९ए देशांतर पर है और यह आस्ट्रेलिया के नक़्शे पर इसके दक्षिणी-पूर्वी हिस्से में स्थित है।
यह शहर समुद्र-तट से लगभग डेढ़ सौ किलोमीटर की दूरी पर स्थित है और समुद्र यहाँ से पूरब-दक्षिण-पूरब की ओर पड़ता है तथा समुद्र तल से इस शहर की औसत ऊँचाई कुछ ५८० मीटर है।
कैनबरा ब्रिंडाबेला पर्वतश्रेणी के पास स्थित है और यहाँ का उच्चतम बिंदु माजुरा पर्वत के रूप में ८८८ मीटर है जबकि अन्य पहाडियों में माउंट टेलर (८५५ मीटर), माउंट एन्सले (८४३ मीटर) माउंट मुग्गा मुग्गा (८१२ मीटर) और ब्लैक पर्वत (८१२ मीटर) हैं।
शहर का कुल क्षेत्रफल ८१४.२ वर्ग किलोमीटर है और इसकी मुख्य आबादी कुछ छोटे मैदानी इलाकों में विस्तृत है जिनमें जिनिन्डेरा मैदान, मोलोंग्लो मैदान और इसाबेला मैदान प्रमुख हैं।
मोलोंग्लो नदी पूर्व से पश्चिम की ओर बहते हुए कैनबरा शहर को दो हिस्सों में बाँटती है और इस नदी पर एक बाँध बना कर एक कृत्रिम झील बर्ले ग्रिफ़िन का निर्माण किया गया है जो इस शहर का एक केन्द्रीय आकर्षण है।
कैनबरा की जलवायु कोपेन के वर्गीकरण के अनुसार (कब) श्रेणी में आती है और यहाँ गर्मियां काफ़ी गर्म और जाड़े की ऋतु सामान्य ठंढी से लेकर काफ़ी ठंढी तक होती है जिनमें शहर के बाहरी हिस्सों में हलकी बर्फ़बारी भी आम घटना है।
वर्षा का वार्षिक औसत लगभग ६० सेंटीमीटर है लेकिन यह साल भर लगभग एक बराबर मात्रा में होती है और महीनेवार वर्षा मई जून में ४ सेंटीमीटर से लेकर अक्टूबर नवंबर में ६ सेंटीमीटर या कुछ अधिक होती है।
बर्फ़बारी आमतौर पर जुलाई के महीने की घटना है वहीं झंझावाती तूफ़ान अक्टूबर से अप्रैल के बीच आते हैं।
आस्ट्रेलियन वार मेमोरियल
अगर पर्यटक इस देश की सेना की स्थापना से लेकर वर्तमान स्थिति की कहानी जानना चाहते है तो उन्हें यह वार मेमोरियल जरूर घूमना चाहिए। रोजाना सुबह १० बजे से लेकर शाम ५ बजे तक यह खुला रहता है।
पार्लियामेन्ट हाउस ऑफ आस्ट्रेलिया
वर्तमान में इसी इमारत से आस्ट्रेलिया की सरकार चलती है। नए बने इस भवन को बड़े भव्य और अत्याधुनिक तरीके से बनाया गया है। इसकी खूबसूरती देखते ही बनती है। पर्यटक यहां आकर इसके बारे में और नजदीक से जान सकते है।
ओल्ड पार्लियामेन्ट हाउस
१९२० से लेकर १९८८ ईसवी तक आस्ट्रेलियन सरकार का मुख्यालय यही था। इसके बाद नए भवन में स्थानांतरित हो गया। किसी समय में आस्ट्रेलियाई राजनीति का केन्द्र बिन्दु रहे इस भवन के प्रधानमंत्री कक्ष, कैबिनट कक्ष तथा विभिन्न पार्टी कक्षों को पर्यटकों के लिए खोला गया है। यहां पर बहुत सारे राजनीतिक तथा ऐतिहासिक फोटो भी लगे हुए हैं, जिससे आप पूर्व की सरकारों के बारे में जान सकते है।
लॉसन क्रिसेन्ट मार्ग पर स्थित इस संग्रहालय में बहुत सारी ऐतिहासिक वस्तुओं का संग्रह है, जिन्हें आप नजदीक से देख सकते है। इस संग्रहालय को देखने के लिए कोई शुल्क नहीं लिया जाता है।
यह देश की सबसे बडी आर्ट गैलरी है। यहां पर केवल आस्ट्रेलिया से ही नहीं वरन विश्व के भी कई देशों की बेहतरीन पेन्टिंग रखी हुई है।
ब्लैक माउन्टेन के पास स्थित इस गार्डेन में पेड़-पौधों का सबसे बड़ा संग्रह है। यह एक पिकनिक स्पॉट भी है। जिसके कारण बडी संख्या पर्यटक छुट्टी के दिन पिकनिक मनाने यहां आते है। यहां पर इस बोटेनिक गार्डेन घूमने का कोई शुल्क नहीं लिया जाता है।
सिटी सेन्टर से ५ किमी की दूरी पर यह स्थित है। यहां से पर्यटक कैनबरा को किसी भी समय ३६० डिग्री कोण से देख सकते है। इस टावर से पार्लियामेन्ट हाउस तथा कोर्क ट्री की खेती का अदभूत नजारा दिखाई देता है। यहां पर एक रेस्टोरेंट भी है जहां आप खाने-पीने का मजा ले सकते है। सुबह ९ बजे से रात १० बजे तक यह खुला रहता है।
इसके अलावा पर्यटक यहां विभिन्न एम्बेसी, सरकारी आवास, प्रधानमंत्री लॉज, रॉयल आस्ट्रेलियन मिन्ट, नेशनल लाइब्रेरी भी घूम सकते है।
कैनबरा हवाई अड्डा यहां का नजदीकी हवाई अड्डा है, जहां से राष्ट्रीय तथा विभिन्न देशों के लिए अंतर्राष्ट्रीय उड़ानें उपलब्ध है।
यह देश के विभिन्न रेलमार्ग द्वारा जुडा हुआ है। सिडनी से यहां के लिए नियमित ट्रेन उपलब्ध है।
सिडनी से कैनबरा के लिए निरन्तर बस सेवा उपलब्ध है। यहां का लोकल बस अडडा सिटी सेन्टर के पास ही जौलीमान्ट सेन्टर में स्थित है।
ऑस्ट्रेलिया के शहर
ओशिआनिया में राजधानियाँ |
एक्यूप्रेशर शरीर के विभिन्न हिस्सों के महत्वपूर्ण बिंदुओं पर दबाव डालकर रोग के निदान करने की विधि है। एक्युप्रेशर काउंसिल नेचुआजलालपुर के संस्थापक डा० श्री प्रकाश बरनवाल का कहना है कि मानव शरीर पैर से लेकर सिर तक आपस में जुड़ा है तथा हजारों नसें, रक्त धमनियों, मांसपेशियां, स्नायु और हड्डियों के साथ आँख नाक कान हृदय फेेेेफडे दाॅॅॅत नाडी आदि आपस में मिलकर मानव शरीर के स्वचालित मशीन को बखूबी चलाती हैं। अत: किसी एक बिंदु पर दबाव डालने से उससे जुड़ा पूरा भाग प्रभावित होता है। यह भारत की प्राचीन चिकित्सा पद्धति है।
शरीर में एक हजार ऐसे बिंदु चिन्हित किए गए हैं, जिन्हें एक्यूप्वाइंट कहा जाता है।
जिस जगह दबाव डालने से दर्द हो उस जगह दबने से सम्बन्धित बिनदु कि बीमारी दुर होती है। कई पूर्वी एशियाई मार्शल आर्ट आत्मरक्षा और स्वास्थ्य उद्देश्यों के लिए व्यापक अध्ययन और एक्यूप्रेशर का उपयोग करते हैं, (चिन ना, तुई ना)। कहा जाता है कि बिंदुओं या बिंदुओं के संयोजन का उपयोग किसी प्रतिद्वंद्वी को हेरफेर करने या अक्षम करने के लिए किया जाता है। इसके अलावा, मार्शल कलाकार नियमित रूप से अपने स्वयं के मेरिडियन से कथित रुकावटों को दूर करने के लिए नियमित रूप से अपने स्वयं के एक्यूप्रेशर बिंदुओं की मालिश करते हैं, जिससे उनका परिसंचरण और लचीलेपन में वृद्धि होती है और बिंदु "नरम" या हमले के प्रति कम संवेदनशील होते हैं।
लक्षणों के उपचार में एक्यूप्रेशर की प्रभावशीलता की २०११ की व्यवस्थित समीक्षा में पाया गया कि ४३ यादृच्छिक नियंत्रित परीक्षणों में से ३५ ने निष्कर्ष निकाला था कि एक्यूप्रेशर कुछ लक्षणों के उपचार में प्रभावी था; हालांकि, इन ४३ अध्ययनों की प्रकृति ने "पूर्वाग्रह की एक महत्वपूर्ण संभावना का संकेत दिया।" इस व्यवस्थित समीक्षा के लेखकों ने निष्कर्ष निकाला कि "पिछले दशक से नैदानिक परीक्षणों की समीक्षा ने लक्षण प्रबंधन के लिए एक्यूप्रेशर की प्रभावकारिता के लिए कठोर समर्थन प्रदान नहीं किया है। एक्यूप्रेशर की उपयोगिता और प्रभावकारिता निर्धारित करने के लिए अच्छी तरह से डिजाइन, यादृच्छिक नियंत्रित अध्ययन की आवश्यकता है।
२०११ में एक्यूपंक्चर का उपयोग करते हुए चार परीक्षणों की कोक्रेन समीक्षा और प्रसव में दर्द को नियंत्रित करने के लिए एक्यूप्रेशर का उपयोग करते हुए नौ अध्ययनों ने निष्कर्ष निकाला कि "एक्यूपंक्चर या एक्यूप्रेशर श्रम के दौरान दर्द को दूर करने में मदद कर सकता है, लेकिन अधिक शोध की आवश्यकता है।" एक अन्य कोक्रेन सहयोग समीक्षा में पाया गया कि मालिश ने कम पीठ दर्द के लिए कुछ दीर्घकालिक लाभ प्रदान किया, और कहा: "ऐसा लगता है कि एक्यूप्रेशर या दबाव बिंदु मालिश तकनीक क्लासिक (स्वीडिश) मालिश की तुलना में अधिक राहत प्रदान करती है, हालांकि इसकी पुष्टि के लिए और अधिक शोध की आवश्यकता है।"
एक्यूप्रेशर रिस्टबैंड, जो मोशन सिकनेस और अन्य प्रकार की मतली के लक्षणों से राहत देने का दावा करता है, प६ एक्यूपंक्चर बिंदु पर दबाव प्रदान करता है, एक ऐसा बिंदु जिसकी व्यापक जांच की गई है। कोक्रेन सहयोग ने मतली और उल्टी के लिए प६ के उपयोग की समीक्षा की, और इसे पोस्ट-ऑपरेटिव मतली को कम करने के लिए प्रभावी पाया, लेकिन उल्टी नहीं। कोक्रेन समीक्षा में एक्यूपंक्चर, इलेक्ट्रो-एक्यूपंक्चर, ट्रांसक्यूटेनियस नर्व स्टिमुलेशन, लेजर स्टिमुलेशन, एक्यूस्टिम्यूलेशन डिवाइस और एक्यूप्रेशर सहित प६ को उत्तेजित करने के विभिन्न साधन शामिल थे; इसने इस पर कोई टिप्पणी नहीं की कि क्या उत्तेजना के एक या अधिक रूप अधिक प्रभावी थे; इसने दिखावटी की तुलना में प६ की उत्तेजना का समर्थन करने वाले निम्न-गुणवत्ता वाले साक्ष्य पाए, जिसमें ५९ में से २ परीक्षणों में पूर्वाग्रह का कम जोखिम था। एब्म समीक्षक बैंडोलियर ने कहा कि दो अध्ययनों में प६ से 5२% रोगियों को नियंत्रण में सफलता मिली।
एक्यूप्रेशर का नैदानिक उपयोग अक्सर पारंपरिक चीनी चिकित्सा के वैचारिक ढांचे पर निर्भर करता है। एक्यूपंक्चर बिंदुओं या मेरिडियन के अस्तित्व के लिए कोई शारीरिक रूप से सत्यापन योग्य संरचनात्मक या हिस्टोलॉजिकल आधार नहीं है। समर्थकों का जवाब है कि टीसीएम एक वैज्ञानिक प्रणाली है जिसकी व्यावहारिक प्रासंगिकता बनी हुई है। एक्यूपंक्चर चिकित्सक टीसीएम अवधारणाओं को संरचनात्मक शब्दों के बजाय कार्यात्मक रूप में देखते हैं (उदाहरण के लिए, रोगियों के मूल्यांकन और देखभाल के मार्गदर्शन में उपयोगी होने के रूप में)। पारंपरिक उपचार।
क्वैकवॉच में उन तरीकों की सूची में एक्यूप्रेशर शामिल है जिनका मालिश चिकित्सा के रूप में कोई "तर्कसंगत स्थान" नहीं है और कहा गया है कि चिकित्सक "निदान तक पहुंचने के लिए तर्कहीन निदान विधियों का भी उपयोग कर सकते हैं जो स्वास्थ्य और रोग की वैज्ञानिक अवधारणाओं के अनुरूप नहीं हैं।"
शरीर के रिफ्लेक्स ज़ोन पर रगड़ने, लुढ़कने या दबाव डालने से गैर-विशिष्ट दबाव लागू करने के लिए कई अलग-अलग उपकरण हैं। एक्यूबॉल रबड़ से बनी एक छोटी गेंद होती है जिसमें उभार होते हैं जो गर्म करने योग्य होते हैं। इसका उपयोग दबाव डालने और मांसपेशियों और जोड़ों के दर्द को दूर करने के लिए किया जाता है। ऊर्जा रोलर प्रोट्यूबेरेंस के साथ एक छोटा सिलेंडर है। इसे हाथों के बीच पकड़कर एक्यूप्रेशर लगाने के लिए आगे-पीछे किया जाता है। फुट रोलर उभार के साथ एक गोल, बेलनाकार रोलर है। इसे फर्श पर रखा जाता है और इसके ऊपर पैर आगे-पीछे किया जाता है। पावर मैट (पिरामिड मैट भी) छोटे पिरामिड के आकार के उभार वाली एक चटाई है जिस पर आप चलते हैं। स्पाइन रोलर एक ऊबड़-खाबड़ रोलर है जिसमें मैग्नेट होता है जो रीढ़ की हड्डी के ऊपर और नीचे लुढ़कता है। तेइशें एक्यूपंक्चर के मूल ग्रंथों में वर्णित मूल नौ शास्त्रीय एक्यूपंक्चर सुइयों में से एक है। भले ही इसे एक्यूपंक्चर सुई के रूप में वर्णित किया गया हो, लेकिन इसने त्वचा को छेदा नहीं। इसका उपयोग इलाज किए जा रहे बिंदुओं पर तेजी से टक्कर के दबाव को लागू करने के लिए किया जाता है
१. चाईनीज एक्यूप्रेशर
२. आयुर्वेदिक एक्यूप्रेशर
४. इंडियन एक्युप्रेशर
५. बरनवाल एकयुप्रेशर
जिस जगह दबाव दालने से दर्द हो उस जगह दबाने से सम्बन्धित बिन्दु कि बीमारी दूर होती है। हमारे शरीर में उर्जा का निरंतर और लगातार बह रही है इसे प्राण या आत्मा भी कहते है ! इसी शक्ति की मदद से एक्यूप्रेशर में इलाज़ किया जाता है!
दवा नहीं, दबा कर इलाज
एक्यूप्रेशर में इलाज बिना दवाई के |
मालदीव या (मह्ल: धीवेही रा'जे) या मालदीव द्वीप समूह, आधिकारिक तौर पर मालदीव गणराज्य, हिंद महासागर में स्थित एक द्वीप देश है, जो मिनिकॉय आईलेंड और चागोस द्वीपसमूह के बीच २६ प्रवाल द्वीपों की एक दोहरी चेन जिसका फेलाव भारत के लक्षद्वीप टापू की उत्तर-दक्षिण दिशा में है, से बना है। यह लक्षद्वीप सागर में स्थित है, श्री लंका की दक्षिण-पश्चिमी दिशा से करीब सात सौ किलोमीटर (४३५मी) पर।
मालदीव के प्रवाल द्वीप लगभग ९०,००० वर्ग किलोमीटर में फेला क्षेत्र सम्मिलित करते हैं, जो इसे दुनिया के सबसे पृथक देशों में से एक बनाता है। इसमें १,१92 टापू हैं, जिसमें से २०० पर बस्ती है। मालदीव गणराज्य की राजधानी और सबसे बड़ा शहर है माले, जिसकी आबादी १03,६९३ (२००6) है। यह काफू प्रवाल द्वीप में, उत्तर माँले प्रवाल द्वीप के दक्षिणी किनारे पर स्थित है। यह मालदीव का एक प्रशासकीय विभाग भी है। पारम्परिक रूप से यह राजा का द्वीप था, जहाँ से प्राचीन मालदीव राजकीय राजवंश शासन करते थे और जहाँ उनका महल स्थित था।
मालदीव जनसंख्या और क्षेत्र, दोनों ही प्रकार से एशिया का सबसे छोटा देश है। समुद्र तल से ऊपर, एक औसत जमीनी स्तर के साथ यह ग्रह का सबसे लघुतम देश है। यह दुनिया का सबसे लघुतम उच्चतम बिंदु वाला देश है।
मालदीव की "व्युत्पत्ति"
"मालदीव" नाम, माले धिवेही राजे ("माले [के प्राधिकरण के अंतर्गत] द्वीप राज्य"), जो मालदीव का स्थानीय नाम है, से उत्पन्न हुआ होगा। द्वीप राष्ट्र अपनी राजधानी, "माले" के साथ समानार्थी था और कभी कभी 'महल्दीप' कहलाया जाता था और लोगों को माल्दिवियन 'धिवेहीं' कहा जाता था। शब्द धीब/दीब (प्राचीन धिवेही, संस्कृत के द्वीप शब्द का अपभ्रंश) का मतलब है 'टापू' और धीवस (धिवेहीं) मतलब 'द्वीप-वासी' (यानी माल्दिवियन). उपनिवेशीय युग के दौरान, डच ने अपने प्रलेखन में इस देश को मल्दिविस्चे इलन्देन नाम से संबोधित किया जबकि "मालदीव आईलेंड " इसका ब्रिटिश द्वारा प्रयुक्त किया जाने वाला आंग्लिकरण है, जो बाद में मालदीव लिखा जाने लगा।
श्रीलंका का प्राचीन इतिहास, महावंश पाली में महिलादिवा या 'महिलाओं का द्वीप' (अहिल्दिभ) नामक एक द्वीप को संदर्भित करता है। महावंश, एक बहुत ही पुराने कार्य सिंहाला से व्युत्पद हुआ है, जो दूसरी शताब्दी ब.च. का काम है।
कुछ विद्वानों का कहना है कि "मालदीव" नाम संस्कृत शब्द माँलाद्विपा (द्मालावीप) मतलब "द्वीपों का हार" से उत्पन्न हुआ है। कोई भी नाम का किसी भी साहित्य में ज़िक्र नहीं किया गया मगर वैदिक समय का पारम्परिक संस्कृत अवतरण "सौ हज़ार द्वीप"(लक्शाद्वीपा) के बारे में चर्चा करता है, यह एक वर्गीय नाम है जिसमें न केवल मालदीवज बल्कि लक्षद्वीप और चागोस द्वीप समूह भी शामिल है।
कुछ मध्ययुगीन अरब यात्री जैसे इब्न बतूता इन द्वीपों को "महल दिबियत" कहते थे। ( ) अरबी शब्द महल ("प्लेस") से. यही नाम वर्तमान में मालदीव राजकीय चिह्न की नामावली पर खुदा हुआ है। मालदीवज का शास्त्रीय येमेनी नाम दिबजत है।
फिलोस्तोर्गिउस, एक एरियन यूनानी इतिहासकार, एक दिवोएइस बंधक के बारे में बताता है जो होमेरितेस से अपना कार्य पूरा करने के पश्चात, "दिवस " (माल्दिव्ज़) नामक अपने द्वीप वापस चला गया। वर्तमान नाम "मालदीव" सिंहली शब्द माला दिवैना, जिसका अर्थ है हार द्वीप, से भी निकला हो सकता है, यह संभवत द्वीपसमूह के आकार का उल्लेख करता है।
मालदीव में लगभग १,१९० मुँगिया द्वीप शामिल हैं, जो उतर-दक्षिण दिशा के बराबर २६ प्रवाल द्वीपों की दोहरी चेन में संगठित हैं। यह लगभग ९०,००० वर्ग किलोमीटर में फेला है, जो इसे दुनिया के सबसे पृथक देशों में से एक बनाता है। प्रवाल द्वीप गतिशील मूंगा रीफ़ और रेत की टिकियों से बना है। यह एक ९६० किलोमीटर लम्बे पनडुब्बी कटक के ऊपर स्थित है जो अकस्मात भारतीय महासागर की गहराई में से उत्थान करता है और उत्तर से दक्षिण की ओर चलता है। इस प्राकृतिक मुँगिया रुकावट के केवल दक्षिणी छोर के पास २ खुले रास्ते है, जो मालदीवज के क्षेत्रीय पानी द्वारा जहाजों को भारतीय महासागर के एक किनारे से दूसरे किनारे तक सुरक्षित मल्लाही देता है। प्रशासकीय प्रयोजनों के लिए मालदीव सरकार ने इन प्रवाल द्वीपों को इक्कीस प्रशासकीय विभागों में संगठित किया हैं। मालदीवज का सबसे बड़ा द्वीप गण है, जो लामू प्रवाल द्वीप या हह्धुम्माथि मालदीव का है। अडडू प्रवाल द्वीप में, सबसे पश्चिमी द्वीप, रीफ के ऊपर सडकों द्वारा जुड़े हुए हैं और सड़क की कुल लंबाई है
मालदीवज के पास दुनिया में सबसे निचला देश होने का रिकॉर्ड है, इसका अधिकतम प्राकृतिक जमीनी स्तर सिर्फ , जिसकी औसत सागर के स्तर से केवल {१/ है, हालांकि ऐसे क्षेत्र जहां निर्माण के अस्तित्व हैं, वहाँ इनमें कई मीटर की वृद्धि की गई है। रीफ मूंगिया मलबे और क्रियाशील मूंगिया से बनाया जाता है। यह दलदल बना कर सागर के विरुद्ध एक प्राकृतिक बाधा का कार्य करता हैं। अन्य द्वीपों, एक दूरी बना लेते हैं और रीफ के अनुरूप उनकी अपनी एक सुरक्षा फ़्रिंज होती है। मूंगा बाधा के आसपास एक छिद्र, शांत झील के पानी को अभिगम देता है। द्वीप की मूंगा बाधा उसे तूफानों और हिंद महासागर की उच्च तरंगों से सुरक्षित रखती है।
धरण की एक मोटी परत, द्वीपों की मिटटी की ऊपरी परत बनती है। नीचे धरण परत रेतीले पत्थर की होती है, उसके बाद रेत और फिर ताजे पानी की। समुद्र तट के पास मिट्टी में नमक के उच्च स्तर के कारण, वनस्पति के रूप में सिर्फ झाड़ियाँ, पुष्पित पौधे और छोटी बाढ़ ही पाई जाती है। द्वीप के आंतरिक भाग में, अधिक वनस्पति जैसे मैनग्रोव और बरगद पाए जाते हैं। नारियल के वृक्ष, राष्ट्रीय पेड़, इन द्वीपों पर लगभग हर जगह उग जाते हैं और जनसंख्या की जीवन शैली का अभिन्न अंग हैं।
सीमित वनस्पति और भूमि वन्यजीवों का बहुतायत समुद्री जीवन से पूरक है। मालदीव के आस-पास का जल जैविक और वाणिज्यिक मूल्य की दुर्लभ प्रजातियों में प्रचुर मात्रा में हैं, टूना मछली पालन परंपरागत रूप से देश के मुख्य वाणिज्यिक संसाधनों में से एक है। मालदीव में समुद्र जीवन की अद्भुत विविधता है। इसमें प्रवाल और २,००० से भी अधिक प्रकार की मछलियां हैं, रीफ मछली से लेकर रीफ शार्क, मोरे इल्ज़ और कई प्रकार की रे मछालियाँ: मानता रेज़, स्टिंग रे और ईगल रे. मालदीवी जल व्हेल शार्क के लिए घर भी है।
हिंद महासागर का देश की जलवायु पर बड़ा प्रभाव है, वह एक गर्मी प्रतिरोधक के रूप में अवचूषण और भंडारण करते हैं और धीरे से उष्णदेशीय गर्मी निकालते हैं। मालदीव का तापमान पूरे साल २४ (७५फ) और के बीच रहता है। हालांकि नमी अपेक्षाकृत अधिक है, लगातार शांत समुद्र हवाएं वायु को गतिमान रखती हैं और गर्मी कम करती हैं।
मालदीव का मौसम दक्षिण एशिया के उत्तर में बड़े भूमि के ढेर से प्रभावित होता है। इस भूमि के ढेर की उपस्थिति भूमि और जल के अंतर तापक का कारण बनता है। यह तत्त्व हिंद महासागर से दक्षिण एशिया के ऊपर नमी से भरपूर हवा अचल करते हैं जिसके परिणामस्वरूप दक्षिण पश्चिम मानसून आता है। दो ऋतु मालदीव के मौसम को प्रभावित करती हैं: पूर्वोत्तर मानसून से जुडी शुष्क ऋतु और बरसात ऋतु जो गर्मियों में दक्षिण पश्चिम मानसून के द्वारा लाई जाती है। मालदीव में गीला दक्षिण पश्चिम मानसून अप्रैल के अंत से अक्टूबर के अंत तक रहता है और तेज हवा और तूफान लाता है। नम दक्षिण पश्चिम मानसून से शुष्क पूर्वोत्तर मानसून में बदलाव अक्टूबर और नवंबर के दौरान होता है। इस अवधि के दौरान पूर्वोत्तर हवा पूर्वोत्तर मानसून की उत्पत्ति करने में योगदान देती हैं जो दिसम्बर की शुरुआत में मालदीव पहुँचता है और मार्च के अंत तक वहाँ रहता है। हालांकि, मालदीव के मौसम का पैटर्न हमेशा दक्षिण एशिया के मानसून पैटर्न के अनुरूप नहीं रहता. वार्षिक औसत वर्षा उत्तर में २,५४० मिलीमीटर और दक्षिण में ३,८१० मिलीमीटर रहती है।
पर्यावरण के मुद्दे
पिछली सदी में, समुद्र का जल स्तर बढ़ गया है , केवल अधिकतम प्राकृतिक जमीनी स्तर के साथ और समुद्र स्तर से ऊपर केवल उसत के साथ, यह दुनिया का सबसे नीचला देश है और महासागर में इससे ज्यादा उछाल मालदीवज के अस्तित्व के लिए खतरा पैदा हो सकता है। लेकिन, १९७० के आसपास, वहाँ समुद्र स्तर में गिरावट आई है। नवम्बर २००८ में, राष्ट्रपति मोहम्मद नशीद ने भारत, श्रीलंका और ऑस्ट्रेलिया में नई जमीनें खरीदने के योजना की घोषणा की, ग्लोबल वार्मिंग और ज्यादा द्वीपों के जल स्तर बढ़ने से बाढ़ की संभावना के बारे में अपनी चिंता के कारण उन्होंने यह योजना बनाई। मौजूदा अनुमान के अनुसार वर्ष २१०० तक समुद्र तल में की वृद्धि हो सकती है। भूमि की खरीद पर्यटन द्वारा उत्पन्न मूलधन से किया जाएगा. राष्ट्रपति ने अपने इरादे स्पष्ट किए है: "हम मालदीव छोड़ना नहीं चाहते, लेकिन हम दशकों के लिए टेंट में रहने वाले जलवायु शरणार्थी भी नहीं बनना चाहते."
२००४ हिंद महासागर में भूकंप के कारण, हिंद महासागर में सूनामी आई जिसकी की वजह से सामाजिक आर्थिक बुनियादी ढांचे में गंभीर क्षति पहुंची, जिसने कई लोगों को बेघर बना दिया और पर्यावरण को अपरिवर्तनीय नुकसान पहुँचाया. आपदा के बाद, मानचित्रकार सूनामी की वजह से आए परिवर्तन के कारण द्वीपों के नक्शे दूसरी प्रति उतारने की योजना बना रहे हैं।
२२ अप्रैल २००८ को, मालदीव के उस समय के राष्ट्रपति मॉमून अब्दुल गयूम ने विश्वीय ग्रीनहाउस गैस के उत्सर्जन में कटौती के लिए अनुरोध किया, यह चेतावनी देते हुए कि समुद्र का जल स्तर बढ़ने पर मालदीव का द्वीप राष्ट्र डूब सकता है। २००९ में, बाद के राष्ट्रपति मोहम्मद नशीद ने प्रतिज्ञा ली कि वह मालदीवज को सौर एंव पवन शक्ति से एक दशक के भीतर कार्बन निष्पक्ष बना देंगे। हाल ही में, राष्ट्रपति नशीद ने मालदीवज जैसे नीचले देशों को जलवायु परिवर्तन से होने वाले खतरों के बारे में जागरूकता बढ़ाने के लिए, १७ अक्टूबर २००९ को दुनिया की पहली अन्तर्जलीय कैबिनेट बैठक आयोजित की।
मालदीव के मौखिक, भाषाई और सांस्कृतिक परंपरा और रिवाज का तुलनात्मक अध्ययन इस बात की पुष्टि करता हैं कि पहले बसने वाले लोग द्रविड़ थे, यह संगम अवधि (ब्स ३००-३०० स), में केरल से यहाँ आए थे। यह शायद दक्षिण पश्चिम तट के मछुआरे थे जो अब भारतीय उपमहाद्वीप का दक्षिण और श्रीलंका का पश्चिमी तट है। ऐसा एक समुदाय गिरावारू लोगों का है जो प्राचीन तमिलों के वंशज हैं। पूंजी की स्थापना और माले के आलीशान शासन के बारे में प्राचीन कथाओं और स्थानीय लोक कथाओं में वर्णन किया है। उन्हें द्वीप पर बसने वाला सबसे पहला समुदाय माना जाता है। एक स्पष्ट तमिल-मलयालम अधःस्तर के साथ तमिल जनसंख्या और संस्कृति की एक मजबूत अंतर्निहित परत मालदीव समाज में मौजूद है जो जगह के नाम, जाति के शब्दो, कविता, नृत्य और धार्मिक विश्वासों में भी दिखाई देती है। केरलं समुद्र परला की वजह से, तमिल लक्षद्वीप में बसने लगे और मालदीवज स्पष्ट रूप से द्वीपसमूह के एक विस्तार के रूप में देखा गया। कुछ लोगों का तर्क है कि गुजराती भी प्रवासन की पहली परत में थे। गुजरात से समुद्रीय काम सिंधु घाटी सभ्यता के दौरान शुरू हुआ। जतका और पुराण इस समुद्री व्यापार के प्रचुर साक्ष्य दिखाते हैं। एक और प्रारंभिक निवासी दक्षिण पूर्व एशिया से हो सकते है। सिंहली, जो कलिंगा (भारत) के निर्वासित राजकुमार विजया (विजया एक बंगा या बंगाल राजकुमार थे जिनका मातृ पूर्वज कलिंगा था) और उनकी कई सौ की पार्टी के वंशज थे, उनका आगमन मालदीवज में ५४३-४८३ ब्स के बीच हुआ। उनसे उनके उड़ीसा और उत्तर पश्चिम भारत के सिंहपुरा राज्य के मूल क्षेत्र छुडवा दिए गए। महावंसा के अनुसार, ५०० ब्क के आसपास एक जहाज जो राजकुमार विजया के साथ श्रीलंका के लिए रवाना हुआ था, दिशाहीन हो गया और एक महिलाद्विपिका नामक द्वीप, जो मालदीवज है, वहाँ पहुँच गया। यह भी कहा जाता है कि उस समय महिलाद्विपिका के लोग श्रीलंका की यात्रा करते थे। श्रीलंका और मालदीवज के कुछ स्थानों में उनका अवस्थापन जनसांख्यिकी में महत्वपूर्ण परिवर्तन और भारत-आर्य भाषा, धिवेही के विकास के लिए अर्थपूर्ण है। ज्यादातर दक्षिण प्रवाल द्वीपों में अरब और पूर्वी एशियाई निवासियों के कुछ संकेत मिले हैं।
बौद्ध धर्म सम्राट अशोक के प्रसार के समय मालदीव में आया और १२ वीं शताब्दी अध तक मालदीव के लोगों का प्रमुख धर्म बना रहा। प्राचीन मालदीव राजाओं ने बौद्ध धर्म को बढ़ावा दिया और पहला मालदीव लेखन और कलात्मक उपलब्धियां विकसित मूर्तिकला और वास्तुकला के रूप में इसी अवधि से हैं। इस्द्हू लोमफानू (ल्मफनु) अभी तक की मालदीवज पर पाए जाने वाली सबसे पुरानी ताम्र पत्तर पुस्तक है। यह किताब ११९४ अध(आह ५९०) में सिरी फेन्नाधीत्था महा रडून (दहिनी कलामिन्जा) के शासनकाल के दौरान लिखी गई थी, इसकी पहली पत्तर को छोड़ कर बाकी दिवेही अकुरु के एवेला के रूप में है। ऐसा कहा जाता है कि तुसितेस माकरी, मालदीव पौराणिक कथाओं में युद्ध के परमेश्वर, किसी भी नेता को पकड़ लेते थे जिसने ताज पहने हुए गलत तरीके के काम किए होते थे।
मालदीव की प्रारंभिक सभ्यता के पहले के अवशेष का अध्ययन, सीलोन देशीय सर्विस के एक ब्रिटिश अधिकारी, ह.च.प. बेल के काम के साथ शुरू हुआ। १८७९ में द्वीपों पर बेल की नौका का नाश हो गया और वह कई बार प्राचीन बौद्ध अवशेषों की जांच करने लौटे. उन्होंने मालदीव के लोगो द्वारा प्राचीन हविता और उस्तुबू (यह नाम चेतिया और स्तूपा से उत्पन किए गए हैं) () नामक टीलों के बारे में अध्ययन किया जो कई प्रवाल द्वीपों पर पाए जाते हैं।
हालांकि बेल ने कहा कि प्राचीन मालदीव के लोग थेरावदा बौद्ध धर्म मानते थे, स्थानीय बौद्धधर्मी के कई पुरातात्त्विक अवशेष जो अब माले संग्रहालय में हैं असल में महायाना और विजरायाना आइकॉनोग्राफी दर्शाते हैं।
११ वीं सदी की शुरुवात में मिनिकॉय और थिलाधुनमथी, संभवतः अन्य उत्तरी प्रवाल द्वीप भी मध्यकालीन चोला तमिल सम्राट, राजा राजा चोला १ के द्वारा विजयी कर लिए गए और चोला राज्य का हिस्सा बन गया।
मालदीव लोक कथाओं की एक दन्तकथा के अनुसार, १२ वीं सदी अध के शुरू में सीलोन के लायन रेस का कोइमाला नामक मध्यकालीन राजकुमार उत्तर माल्होस्मादुलू प्रवाल द्वीप के रस्गेथीमु द्वीप (वस्तुतः रजा का शहर) को रवाना हुआ, वहाँ से माले गया और वहाँ एक राज्य की स्थापना की। तब तक, आदीत्ता (सूर्य) वंश ने कुछ समय के लिए माले पर शासन करना बंद किया था, संभवतः दसवीं सदी में दक्षिण भारत के चोला द्वारा हमलों की वजह से. माले प्रवाल द्वीप के स्वदेशीय लोग, गिरावारू ने कोइमाला को माले आने के लिए आमंत्रित किया और उसे राजा घोषित होने की अनुमति दी। कोइमाला कलोऊ (लार्ड कोइमाला) राजा मानाबराना के रूप में राज्य करता था, वह होमा (लूनर) राजवंश का राजा था, जिसे कुछ इतिहासकार हाउस ऑफ़ थीमुगे कहते हैं। कोइमाला के शासनकाल से मालदीव राजगद्दी, सिंगासना (शेर राजगद्दी) भी कहलाई जाने लगी। इससे पहले और तब से कुछ स्थितियों में इसे सरिधालेय्स (गजदंत राजगद्दी) भी कहा जाता था। कुछ इतिहासकार कोइमाला को, तमिल चोला के शासन से मालदीव को मुक्त करवाने के लिए, प्रत्यायित करते हैं।
कई विदेशी यात्री, मुख्य रूप से अरब, ने मालदीव के ऊपर एक राज्य का एक रानी के द्वारा शासन करने के बारे में लिखा था। यह राज्य कोइमाला राजकाल से पहले दिनांकित था। अल इदरीसी, प्रारंभिक लेखको के लेखन की चर्चा करते हुए एक रानी के बारे में उल्लेख करता है। उसका नाम दमहार था। वह आदीत्ता (सूर्य) राजवंश की एक सदस्य थी। होमा (लूनर) वंश मुख्य ने आदित्ता (सूर्य) वंश के साथ शादी कर ली। यही कारण था की १९६८ तक मालदीव राजाओं के औपचारिक शीर्षक में "कुला सुधा इरा " का संदर्भ होता था, जिसका अर्थ है "चंद्रमा और सूर्य से उत्पन्न हुआ". आदीत्ता राजवंश के शासनकाल के कोई सरकारी रिकॉर्ड मौजूद नहीं हैं।
इस्लाम में परिवर्तन का उल्लेख प्राचीन आज्ञापत्रों में किया गया है जो १२ वीं शताब्दी अध के अंत के ताम्र पत्तर पर लिखा हैं। एक विदेशी संत (अनुवाद के अनुसार, तब्रिज़ शहर से एक फारसी यां एक मोरोकन बर्बर) के बारे में भी एक स्थानीय ज्ञात दन्तकथा है, जिसने रंनामारी नामक एक दानव को शान्त किया। धोवेमी कलामिन्जा जो कोइमाला के बाद आया वह ११५३ अध में इस्लाम में परिवर्तित हो गया।
सदियों से, द्वीपों का दौरा किया गया है और उनके विकास को अरब सागर और बंगाल की खाड़ी के नाविकों और व्यापारियों ने प्रभावित किया है।
१९५३ में, गणतंत्र बनाने का एक संक्षिप्त निष्फल प्रयास किया गया, लेकिन सल्तनत फिर से लगा दिया गया। १९५९ में नासिर के केंद्रवाद पर आपत्ति ज़ाहिर करते हुए, तीन दक्षिणी प्रवाल द्वीपों के निवासियों ने सरकार के खिलाफ विरोध किया। उन्होंने संयुक्त सुवादिवे गणराज्य का गठन किया और अब्दुल्ला अफीफ को राष्ट्रपति एंव हिथाद्हू को राजधानी के रूप में चुना।
हालांकि ११५३ से १९६८ तक स्वतंत्र इस्लामी सल्तनत के रूप में इस पर शासन हुआ है, मगर मालदीवज १८८७ से २५ जुलाई १९६५ तक एक ब्रिटिश संरक्षण रहा।
मालदीव को पूरी राजनीतिक स्वतंत्रता देने का समझौता महामहिम सुल्तान की ओर से इब्राहीम नासिर रंनाबंदेय्री किलेगेफां, प्रधान मंत्री और महारानी साहिबा की ओर से सर माइकल वॉकर ब्रिटिश एलची मालदीव द्वीप के अभिनिहित ने हस्ताक्षरित किया। यह समारोह २६ जुलाई १९६५ को कोलंबो में ब्रिटिश उच्चायुक्त के निवास पर आयोजित किया गया। १९६५ में ब्रिटेन से आजादी के बाद, सल्तनत, राजा मुहम्मद फरीद दीदी के तहत अगले तीन साल तक चलती रही। ११ नवम्बर १९६८ को राजशाही समाप्त कर दी गयी और इब्राहीम नासिर के राष्ट्रपति पद के तहत एक गणतंत्र से बदल दी गयी, हालांकि यह एक प्रसाधक बदलाव था इससे सरकार के ढांचे में कोई महत्वपूर्ण परिवर्तन नहीं आया। देश का अधिकारी का नाम मालदीव द्वीप समूह से बदल कर मालदीवज रख दिया गया। १९७० के दशक के आरंभ तक पर्यटन द्वीपसमूह पर विकसित होना शुरू हो गया।
बहरहाल, सत्तर के दशक में, राष्ट्रपति नासिर के गुट और अन्य लोकप्रिय राजनैतिक व्यक्तियों के बीच राजनीतिक लड़ाई की वजह से १९७५ में निर्वाचित प्रधानमंत्री अहमद जाकी की गिरफ्तारी और एक दूरवर्ती प्रवाल द्वीप पर निर्वासन हो गया। आर्थिक गिरावट के बाद गण में स्थित ब्रिटेन हवाई अड्डा बंद हो गया और सूखी मछली का बाज़ार, एक महत्वपूर्ण निर्यात, पतन हो गया। अपनी प्रशासन हिचक के समर्थन से, १९७८ में नासिर सिंगापुर भाग गए, कथित तौर पर सरकारी खजाने से करोड़ों डॉलर के साथ.
मॉमून अब्दुल गयूम ने १९७८ में अपनी ३० वर्ष लम्बी राष्ट्रपति की भूमिका का प्रारम्भ किया, विरोध के बिना लगातार छह चुनाव जीत कर. गयूम की गरीब द्वीपों का विकास करने की प्राथमिकता को ध्यान में रखते, उसके चुनाव की अवधि राजनीतिक स्थिरता और आर्थिक विकास के संचालन के रूप में देखी गई। पर्यटन का अलंकरण हुआ और विदेशी संपर्क बढ़ा जिससे द्वीपों में विकास को प्रोत्साहन मिला। हालांकि, उसका शासन कुछ आलोचकों के साथ विवादास्पद है, उनके अनुसार गयूम एक तानाशाह था जिसने स्वतंत्रता सीमित और राजनीतिक पक्षपात द्वारा मतभेद पर काबू पाया।
नसीर समर्थकों और व्यापारिक हितों की घातक कोशिशों की एक श्रृंखला (१९८०, १९८३ और १९८८ में) ने सफलता के बिना सरकार गिराने की कोशिश की। जबकि पहले दो प्रयासों को थोड़ी सफलता मिली, १९८८ के घातक प्रयास में प्लोट तमिल आतंकवादी समूह के करीब २००-लोग शामिल हुए, जिन्होंने हवाई अड्डे पर कब्जा किया और गयूम के एक घर से दूसरे घर भागने का कारण बने जब तक १६०० भारतीय दलों ने वायु वाहित हस्तक्षेप करके माले में व्यवस्था बहाल की।
नवम्बर १९८८ में, मुहम्मदु इब्राहिम लुत्फी (एक छोटा व्यापारी) के नेतृत्व में मालदीव के लोगो के एक समूह ने राष्ट्रपति गयूम के खिलाफ एक तख्तापलट मंच पर श्रीलंका से तमिल आतंकवादियों का इस्तेमाल किया। मदद के लिए मालदीव सरकार की ओर से एक अपील के बाद भारतीय सेना ने गयूम को सत्ता में बहाल करने के लिए आतंकवादियों के खिलाफ हस्तक्षेप किया। ३ नवम्बर १९८८ की रात को, भारतीय वायु सेना ने आगरा से एक पैराशूट बटालियन समूह वायु वाहित किया और उसे लगातार २,००० किलोमीटर (१,२40 मील) से अधिक की दूरी पर मालदीवज के लिए रवाना कर दिया। भारतीय पैराट्रूपर्स हुलुले पर उतरे और हवाई क्षेत्र को सुरक्षित करते हुए कुछ ही घंटों के भीतर माले पर सरकार का शासन बहाल कर लिया। ऑपरेशन कैक्टस, नामक इस संक्षिप्त रक्तहीन ऑपरेशन, में भारतीय नौसेना भी शामिल की गयी थी।
२००४ हिंद महासागर में आए भूकंप के बाद, २६ दिसम्बर २००४ को, मालदीव सुनामी से तबाह हो गया। सूचना के अनुसार केवल नौ द्वीप ही बाढ़ से बच पाए, जब कि सत्तावन द्वीपों के सूक्ष्म आवश्यक तत्वों पर गंभीर क्षति पहुंची, चौदह द्वीपों को पूरी तरह खाली करना पड़ा और छह द्वीपों का नाश हो गया। इसके इलावा इक्कीस रिज़ॉर्ट द्वीपों को गंभीर क्षति पहुँचने के कारण जबरन बंद करवाया. अनुमान है कि कुल नुकसान करीब ४०० मिलियन डॉलर या ६२% गप (सकल घरेलू उत्पाद) से अधिक का हुआ। कथित तौर पर, सूनामी में मारे गए लोगों की कुल संख्या १०८ थी जिनमें छह विदेशी भी शामिल थे। निचले द्वीपों पर लहरों का विनाशकारी प्रभाव इसलिए हुआ क्यूंकि वहाँ वास्तव में कोई महाद्वीपीय शेल्फ या भूमि का ढेर नहीं था जिस पर लहरों को ऊंचाई हासिल हो सकती. सबसे ऊँची लहरें प्रतिवेदित कि गयी थी।
२००४ और २००५ में हिंसक विरोध प्रदर्शन के चलते राष्ट्रपति गयूम ने राजनीतिक दलों को वैध बनाने और लोकतांत्रिक प्रक्रिया में सुधार लाने के लिए सुधराव की एक श्रृंखला शुरू कर दी। ९ अक्टूबर २००८ को बहुदलीय, बहु उम्मीदवार चुनाव आयोजित किए गए जिसमें ५ उम्मीदवार पदधारी गयूम के खिलाफ गए। अक्टूबर २८ को गयूम और मोहम्मद नशीद के बीच राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार के रूप में एक अपवाह चुनाव हुआ, एक पूर्व पत्रकार और राजनीतिक कैदी जो गयूम शासन का कट्टर आलोचक था उसके प्रभाव से नशीद और उसके उपाध्यक्ष उम्मीदवार डॉ॰ वहीद को ५4 प्रतिशत बहुमत हासिल हुआ। ११ नवम्बर २००८ को अपने उत्तराधिकारी को सत्ता सौंपने से पहले एक भाषण में गयूम ने कहा: "मैं अपने ऐसे किसी भी कार्य के लिए अत्यंत खेद प्रकट करता हू... (जो) किसी भी मालदीव वासी के लिए अनुचित उपचार, कठिनाई या अन्याय का कारण बना". उस समय, गयूम किसी भी एशियाई देश के सबसे लंबे समय तक रहने वाले नेता थे।
मोहम्मद नशीद पहले राष्ट्रपति बने जिन्हें मालदीव में एक बहुदलीय लोकतंत्र द्वारा निर्वाचित किया गया और डॉ॰ वहीद मालदीव के पहले उप राष्ट्रपति चुने गए। इनकी चुनावी जीत से राष्ट्रपति गयूम का ३० साल का शासन समाप्त हो गया।
राष्ट्रपति नशीद की नई सरकार का सामना ऐसे कुछ मुद्दों से हुआ: २००४ सूनामी के बाद द्वीप और अर्थव्यवस्था की बहाली, ग्लोबल वार्मिंग से द्वीपों के भविष्य पर असर के बारे में चिंता संबोधित करना, बेरोजगारी, सरकार के भ्रष्टाचार और नशीली दवाओं के प्रयोग का बढ़ाना, खासकर युवाओं में. १० नवम्बर २००८ को नशीद ने पर्यटन द्वारा कमाए गए धन से स्वायत्त संपत्ति निधि बनाने के इरादे की घोषणा की, जिसे, यदि मौसम के बदलाव से समुद्र स्तर बढ कर देश में बाढ़ लाया तो, वह मालदीव निवासियों के स्थानांतर के लिए कही और भूमि खरीदने के इस्तेमाल में ला सकते हैं। सूचना के अनुसार सरकार सांस्कृतिक और जलवायु समानताओं के कारण श्रीलंका और भारत के कुछ स्थानों पर विचार कर रही है, यहाँ तक कि ऑस्ट्रेलिया में भी.
हाल के एक फोरम १८ रिपोर्ट में लिखा था कि कोई मालदीव प्रशासन, नागरिकों को अंतरात्मा की बुनियादी स्वतंत्रता का आनंद सुनिश्चित करने में सक्षम नहीं हुआ।
मालदीव में राजनीति एक अध्यक्षीय गणराज्य ढांचे के तहत होती है, जहाँ राष्ट्रपति सरकार का मुखिया होता है। राष्ट्रपति के कार्यकारी शाखा का मुखिया होता है और केबिनेट की नियुक्ति करता है जिसे संसद मंजूरी देती है। राष्ट्रपति मजलिस(संसद) के गुप्त मतदान द्वारा पांच वर्ष के कार्यकाल के लिए नामांकित किया जाता है जिसकी पुष्टि राष्ट्र जनमत संग्रह द्वारा की जाती है। सविंधान गैर-मुस्लिम वोटो को मना करता है।
मालदीव की युनिकेम्र्ल मजलिस में पच्चास सदस्य होते हैं, जो पांच साल के कार्यकाल तक सेवा करते हैं। प्रत्येक प्रवाल द्वीप में दो सदस्य सीधे चुने जाते हैं। आठ राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त किया जाते हैं, जो की मुख्या द्वार है, जहाँ से महिलाये संसद में प्रवेश करती हैं।
देश के इतिहास में जुलाई,२००५ में पहली बार राजनितिक दलों को पेश किया गया, संसद के पिछले चुनाव के छः महीने बाद. संसद के छतीस सदस्यों ने धिवेही रायाथुन्गा पार्टी में शामिल हुए और उन्होंने मॉमून अब्दुल गयूम को अपना राष्ट्रपति नियक्त किया। संसद के बारह सदस्यों मालदीव डेमोक्रेटिक पार्टी के सदस्यों के रूप में विपक्ष का गठन किया और दो सदस्य स्वतन्त्र रहे। मार्च २००६ में, राष्ट्रपति गयूम ने सुधार एजेंडा के लिए एक विस्तृत खाता प्रकाशित किया जिसमें नया संविधान लिखने के लिए और क़ानूनी ढांचे का आधुनिकीकरण करने के लिए समय प्रदान किया गया। इस योजना के तहत सरकार ने संसद में सुधार उपायों का बेडा प्रस्तुत किया। अब तक पारित कानून का सबसे महत्वपूर्ण टुकड़ा मानव अधिकार आयोग अधिनियम में संशोधन था, जिसने इसे पेरिस सिंद्दान्त के अनुरूप बना दिया है।
संसद के पचास सदस्य, एक समान संख्या के उसी प्रकार से नियुक्त किए गए लोगों और मंत्रिमण्डलों के साथ संविधानी सभा का गठन करने के लिए बैठते हैं, यह मालदीव के लिए एक आधुनिक उदार लोकतांत्रिक संविधान लिखने के लिए राष्ट्रपति की पहल पर एकत्र किए गए। यह सभा जुलाई २००४ से बैठी हुई है और धीमी गति से बढ़ने के लिए इसकी बहुत आलोचना की गई है। सरकार और विपक्ष देरी के लिए एक दूसरे पर आरोप लगा रहा है, लेकिन स्वतंत्र पर्यवेक्षकों का मानना है कि धीमी गति से बढ़ने का कारण कमजोर संसदीय परम्परा,
गरीब फेंट (कोई भी सांसद (म्प) पार्टी टिकट पर नहीं चुना गया था) और व्यवस्था हस्तक्षेप के अंतहीन अंक हैं। प्रगति की धीमी गति का कारण, मुख्य विपक्षी पार्टी मैप की राष्ट्रपति गयूम को सुधार का एजेंडे लागू करने के बाद सीधी कार्रवाई से पदच्युत करने की प्रतिबद्धता भी है, जिसके कारण जुलाई-अगस्त २००४ और अगस्त २००५ में नागरिक अशांति और नवंबर २००६ में एक निष्फल क्रान्ति हुई। गौरतलब है कि, मैप के नेता इब्राहिम इस्माइल (सबसे बड़े निर्वाचन क्षेत्र, माले के म्प) अप्रैल २००५ में, डाक्टर मोहम्मद वहीद हसन को कुछ ही महीने पहले मात देने के बाद, अपने पार्टी पद से इस्तीफा दे दिया। उन्होंने अंततः नवंबर २००६ में मैप को अपनी राष्ट्रीय कार्यकारिणी समिति की कट्टरता का उल्लेख करते हुए छोड़ दिया। सरकार ने पार्टी के संवाद की सुविधा के लिए राष्ट्रमंडल विशेष दूत, तुन मूसा हितम को व्यस्त किया और जब मैप ने उसका बहिष्कार किया, तब ब्रिटिश उच्चायुक्त को संलाप की सेवा देने के लिए भरती किया गया। आगामी वेस्टमिंस्टर सदन की प्रक्रिया में कुछ प्रगति हुई लेकिन जब मैप ने नवम्बर क्रांति का निर्णय लिया तब यह खाली कर दिया गया।
रोडमैप इस सभा को अपना काम समाप्त करने के लिए और अक्टूबर २००८ तक देश में पहले बहु-दलिए चुनाव का मार्ग प्रशस्त करने के लिए, ३१ मई २००७ की समय सीमा प्रदान करता है। चुनाव इतना नज़दीकी था कि चुनाव का एक दूसरा भाग ट्रिगर हो गया जिसमें चुनौती करता मोहम्मद नशीद और मोहम्मद वहीद हसन जीत गए। डॉ॰ मोहम्मद वहीद हसन चुनाव में भाग लेने मालदीव आएंगे. राष्ट्रपति नशीद और उपाध्यक्ष डॉ॰ वहीद ने ११ नवम्बर २००८ को कार्यालय में शपथ ली।
राजशाही से गणतंत्र के निकास के बावजूद, समकालीन राजनैतिक ढांचा सामंती अतीत के साथ एक अविच्छेदता दिखाता है, जिसमें सामाजिक संरचना के शीर्ष पर कुछ परिवारों के बीच सत्ता बांटी हुई थी। कुछ द्वीपों में, कार्यालय एक ही परिवार में पीढ़ियों के लिए बने रहे है। आधुनिक दिन में, गांव पर कतीबू (कटबू) नामक एक प्रशासकीय अधिकारी ने शासन किया है, जो द्वीप में कार्यकारी मुखिया के रूप में कार्य करता है। हर प्रवाल द्वीप के कतिबस के ऊपर एक अतोलुवएरिया (प्रवाल द्वीप प्रमुख) है। इन स्थानीय प्रमुखों की शक्ति बहुत सीमित है और यह कुछ ज़िम्मेदारी लेते हैं। उन्हें अपने द्वीप की स्थिति के बारे में सरकार को रिपोर्ट करने, केंद्रीय सत्ता से केवल निर्देश के लिए इंतजार करने और उनका अच्छी तरह से पालन करने के लिए प्रशिक्षित किया जाता है। हालांकि, द्वीप शासी मुख्य नगर से काफी लंबे फ़ासले पर हुए हैं, किसी विशिष्ट द्वीप के व्यवस्थापक कण पर प्रशासकीय अधिकारों को न्यूनतम पर रोक लिया जाता है, इसी के साथ द्वीपों के प्रतिनिधियों को एक सामान्य संसद में केन्द्रित कर दिया जाता है; माले में स्थित पीपल्स मजलिस देश भर से सभी सदस्यों का प्रतिष्ठान करते हैं।
मालदीव में ७ प्रांत हैं, हर एक में निम्नलिखित प्रशासकीय विभाग हैं (राजधानी माले अपनी प्रशासकीय विभाग है):
माथी-उथुरु प्रांत; इसमें हा अलिफ़ प्रवाल द्वीप, हा ढालू प्रवाल द्वीप और शावियानी प्रवाल द्वीप शामिल हैं।
उथुरु प्रांत; इसमें नूणु प्रवाल द्वीप, रा प्रवाल द्वीप, बा प्रवाल द्वीप और ल्हावियानी प्रवाल द्वीप शामिल हैं।
मेधु-उथुरु प्रांत; इसमें काफू प्रवाल द्वीप, अलिफु अलिफु प्रवाल द्वीप, अलिफु ढालू प्रवाल द्वीप और वावू प्रवाल द्वीप शामिल हैं।
मेंदु प्रांत, इसमें मेमू प्रवाल द्वीप, फाफु प्रवाल द्वीप और ढालू प्रवाल द्वीप शामिल हैं।
मेधु-धेकुनु प्रांत; इसमें था प्रवाल द्वीप और लामू प्रवाल द्वीप शामिल हैं।
माथी-धेकुनु प्रांत; इसमें गाफू अलिफु प्रवाल द्वीप और गाफू ढालू प्रवाल द्वीप शामिल हैं।
धेकुनु प्रांत; इसमें ग्नावियानी प्रवाल द्वीप और सीनू प्रवाल द्वीप शामिल हैं।
यह प्रांत उथुरु बोदुथीलाधुन्माथि के ऐतिहासिक विभाजन के अनुरूप हैं। धेकुनु बोदुथीलाधुन्माथि, उथुरु मेधु-राज्जे, मेधु-राज्जे, धेकुनु मेधु-राज्जे, हुवाधू (या उथुरु सुवादीन्माथि) और अडडूलाकथोल्हू (या धेकुनु सुवादीन्माथि).
मालदीव में छब्बीस प्राकृतिक प्रवाल द्वीप हैं और कुछ पृथक भित्तियों पर द्वीप समूह है, यह सभी इक्कीस प्रशासकीय विभागों में विभाजित किए गए हैं (बीस प्रशासकीय प्रवाल द्वीप और माले शहर).
एक नाम के अलावा, हर प्रशासनिक खंड, मालदीव कोड वर्ण से जाना जाता है जैसे थिलाधुन्मती उथुरुबुरी(थिलाधुन्माथि उत्तर) के लिए "हा अलिफ़"; और एक लेटिन कोड वर्ण द्वारा.
पहला, प्रवाल द्वीप के भौगोलिक मालदीव नाम से मेल खाता है।
दूसरा कोड सुविधा के लिए अपनाया गया है। इसकी शुरुआत प्रवाल द्वीप और केंद्रीय प्रशासन के बीच रेडियो संचार की सुविधा के लिए की गयी थी। चूँकि विभिन्न प्रवाल द्वीपों में कुछ ऐसे द्वीप हैं जिनके नाम एक जैसे हैं इसलिए प्रशासकीय प्रयोजनों के लिए द्वीप के नाम से पहले यह कोड उद्धृत किए जाते है, उदाहरण के लिए: बा फुनाद्हू, काफू फुनाद्हू, गाफू-अलिफु फुनाद्हू. अधिकतम प्रवाल द्वीपों के भौगोलिक नाम बहुत लंबे हैं इसलिए यह तब भी इस्तेमाल किये जाते हैं जब प्रवाल द्वीप के नाम को अल्प उद्धृत करना होता है, जैसे प्रवाल द्वीप वेबसाइट के नामों में.
इस कोड मूल्यवर्ग की विदेशियों द्वारा काफी निंदा की गई है, जिन्हें इन नामों के समुचित उपयोग की समझ नहीं है और जिन्होंने पर्यटकों के प्रकाशनों में मालदीव के असली नामों को अनदेखी किया है। मालदीव के वासी साधारण बोलचाल में वर्ण कोड नाम का उपयोग कर सकते हैं, लेकिन अहम भौगोलिक, ऐतिहासिक या सांस्कृतिक लेखन में हमेशा असली भौगोलिक नाम ही श्रेष्ठ पद लेते हैं। लैटिन कोड वर्ण अक्सर नाव पंजीकरण प्लेटों में प्रयोग किया जाता है। यह वर्ण प्रवाल द्वीप और द्वीप की संख्या के लिए प्रयोग किया जाता है।
प्रत्येक प्रवाल द्वीप का प्रशासन एक प्रवाल द्वीप प्रमुख (अथोल्हू वेरिया) द्वारा किया जाता है, जिसे राष्ट्रपति नियुक्त करता है। प्रवाल द्वीप प्रशासन का मंत्रालय और उसके उत्तरी और दक्षिणी क्षेत्रीय कार्यालय, प्रवाल द्वीप कार्यालय और द्वीप कार्यालय सामूहिक रूप से प्रवाल द्वीप प्रशासन के लिए राष्ट्रपति को जवाबदेह होते हैं। हर द्वीप का प्रशासकीय प्रमुख, द्वीप मुख्याधिकारी (कथीब) होता है, जिसे राष्ट्रपति नियुक्त करता है। द्वीप मुख्याधिकारी का तत्काल अफसर प्रवाल द्वीप मुख्याधिकारी होता है।
कोड वर्ण नामों का प्रारम्भ, ख़ास कर के विदेशियों के लिए, काफी हैरानी और गलतफहमी का स्रोत रहा है। कई लोगों को लगता है कि प्रशासकीय प्रवाल द्वीप का कोड वर्ण उनका नया नाम है और उसने उनके भौगोलिक नाम को बदल दिया है। ऐसी परिस्थिति के तहत यह जानना कठिन है कि इस्तेमाल करने के लिए सही नाम कौन सा है।
मालदीव सजातीय पहचान संस्कृतियों का मिश्रण है जो उन लोगों को दर्शाता है जो इन द्वीपों पर बसे, यह धर्म और भाषा के द्वारा प्रबलित है। आरम्भिक निवासी सम्भवतः दक्षिणी भारत और श्रीलंका से थे। वह भाषा और सजातीय में भारतीय उपमहाद्वीप के द्रविड़ लोगों से संबंधित है। उन्हें सजातीय तौर पर माहलज (स्थानीय रूप में धिवेहिस) कहा जाता है।
द्वीपों पर कुछ सामाजिक स्तरीकरण मौजूद है। यह कठोर नहीं है, क्यूंकि क्रम विभिन्न कारकों पर आधारित है, जिसमें व्यवसाय, धन, इस्लामी पुण्य और परिवार के संबंधों शामिल हैं। परंपरागत रूप से, एक जटिल जाति व्यवस्था की बजाय, मालदीव में केवल महान (बेफुल्हू) और आम लोगों के बीच एक अंतर था। सामाजिक अभिजात वर्ग के सदस्य माले में सकेंद्रित कर रहे हैं। सेवा उद्योग के बाहर, केवल यही एक स्थान है, जहां विदेशी और आंतरिक जनता की बातचीत की संभावना है। पर्यटकों की सैरगाह उन द्वीपों पर नहीं हैं जहां मूल निवासी रहते हैं और दो समूहों के बीच अनौपचारिक संपर्क हतोत्साहित किया जाता हैं।
१९०५ के बाद से एक जनगणना दर्ज की गई है, जो यह दर्शाती है कि देश की जनसंख्या अगले साठ साल तक १००,००० के आसपास रही। १९६५ में आजादी के बाद, जनता के स्वास्थ्य की स्थिति में इतना सुधार आया कि १९७८ तक जनसंख्या दोगुनी (2०००00) हो गई और १९८५ में जनसंख्या वृद्धि दर ३.४% तक बढ गया। २००७ तक, आबादी ३00,००० तक पहुँच गई थी, यद्यपि 2००० में जनगणना से पता चला कि जनसंख्या वृद्धि दर में १.९% की गिरावट आई थी। १९७८ में जन्म के समय जीवन प्रत्याशा ४6 साल था, जबकि अब यह बढ़ कर ७२ साल हो गया है। शिशु मृत्यु दर १९77 में १27 प्रति हजार से गिर कर आज १2 हो गया है और वयस्क साक्षरता ९९% पर है। संयुक्त स्कूल नामांकन उच्च ९0 के पड़ाव पर है।
अप्रैल २००८ से ७०,००० से अधिक विदेशी कर्मचारी इस देश में रहते हैं और अन्य ३३,००० अवैध आप्रवासी मालदीव की आबादी का तीसरे से भी ज्यादा हिस्सा संचय करते हैं। इसमें मुख्य रूप से दक्षिण एशियाई पड़ोसी देशों जैसे भारत, श्रीलंका, बांग्लादेश और नेपाल के लोग शामिल हैं।
प्राचीन काल में मालदीव कौड़ी खोल, नारियल-जटा की रस्सी, सूखी टूना मछली (मालदीव मछली), एम्बर्ग्रिज़ (मावाहरू) और कोको डे मेर(तवाक्काशी) के लिए प्रसिद्ध था। स्थानीय और विदेशी व्यापारिक जहाज इन उत्पादों को श्रीलंका से भर के हिंद महासागर के अन्य बंदरगाहों पर पहुँचाया करते थे।
दूसरी शताब्दी ऐडी से अरब, जिन्होंने हिंद महासागर व्यापार मार्गों को वर्चस्व किया हुआ था, द्वीपों को 'मणी आइल्ज़' कहने लगे। मालदीवज ने भारी मात्रा में कौड़ी खोल, प्रारभिक योग की अंतरराष्ट्रीय मुद्रा, प्रदान की। कौड़ी अब मालदीव मौद्रिक प्राधिकरण का प्रतीक है।
मालदीव सरकार ने १९८९ में एक आर्थिक सुधार कार्यक्रम शुरू किया, इसका प्रारंभ आयात कोटा उठा के और निजी क्षेत्र के लिए कुछ निर्यात खोलने से किया गया। बाद में, इसके नियम उदार कर दिए गए और अधिक विदेशी निवेश की अनुमति दे दी गई। वास्तविक सकल घरेलू उत्पाद की वृद्धि एक दशक से ज्यादा के लिए प्रति वर्ष ७.५% औसत से अधिक रही। आज, 'मालदीव का सबसे बड़ा उद्योग पर्यटन है, इसका सकल घरेलू उत्पाद में २८% और मालदीव विदेशी मुद्रा की प्राप्ति में ६०% से अधिक के लिए लेखांकन है। मछली पकड़ना दूसरा प्रमुख क्षेत्र है।
देर दिसम्बर २००४ में, एक बड़े सूनामी में १०० से अधिक लोग मारे गए, १२,००० विस्थापित हुए और ४०० करोड़ डॉलर से अधिक की संपत्ति का नुकसान हो गया। सूनामी के परिणामस्वरूप, २००५ में सकल घरेलू उत्पाद करीब ३.६% अनुबंध हुआ। पर्यटन के क्षेत्र में खुशहाली लौटने लगी, सूनामी के बाद पुनर्निर्माण और नए रिसॉर्ट्स के विकास से अर्थव्यवस्था को जल्दी से ठीक होने में मदद मिली और 200६ में १८% की वृद्धि देखी गई। २००७ के आकलन दर्शाते हैं कि, अमीर फारसी गल्फ देशों को छोड़ कर अन्य दक्षिण एशियाई देशों के बीच मालदीव सर्वाधिक सकल घरेलू उत्पाद प्रति व्यक्ति ४,६00$ (२००७ इस्ट) का आनन्द उठाता है।
१९७० के दशक तक मालदीव मोटे तौर पर पर्यटकों के लिए अनन्वेषित क्षेत्र था। हिंद महासागर में भूमध्य रेखा के पार बिखरे, मालदीव द्वीपसमूह एक असाधारण अद्वितीय भूगोल के रूप में एक छोटा सा द्वीप देश है। प्रकृति ने इस द्वीपसमूह को १,१९० छोटे द्वीपों में खंडित किया है, जो ९०,००० किलोमीटर२ का मात्र १ प्रतिशत क्षेत्र प्रयोग करते हैं। सिर्फ १85 द्वीप इसकी ३००,००० की जनसंख्या के लिए घर हैं, जबकि अन्य द्वीप पूरी तरह से आर्थिक प्रयोजनों के लिए इस्तेमाल किए जाते हैं, जिनमें पर्यटन और कृषि सबसे अधिक प्रभावी हैं। सकल घरेलू उत्पाद का २8% और 'मालदीव विदेशी मुद्रा की प्राप्ति का ६०% से अधिक, पर्यटन खाते में से आता है। ९०% से अधिक सरकार कर राजस्व, आयात शुल्क और पर्यटन संबंधित करों से आता है।. पर्यटन के विकास ने देश की अर्थव्यवस्था के समग्र विकास को बढ़ावा दिया है। इसने अन्य संबंधित उद्योगों में प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रोजगार और आय के अवसर उत्पादित किए हैं। पहले पर्यटन रिसॉर्ट्स १97२ में खोले गए बन्दोस द्वीप रिज़ॉर्ट और कुरुम्बा ग्राम थे।
पर्यटन मंत्रालय की वेबसाइट के मुताबिक, १९७२ में पर्यटन के उद्भव से मालदीव की अर्थव्यवस्था बदल गई, इसकी निर्भरता तेजी से मत्स्य पालन क्षेत्र से पर्यटन का क्षेत्र बन गई। बस साडे तीन दशक में, यह उद्योग मालदीव के लोगों की आय और आजीविका का मुख्य स्रोत बन गया है। पर्यटन देश का सबसे बड़ा विदेशी मुद्रा अर्जक और सकल घरेलू उत्पाद का सबसे बड़ा सहयोगी भी है। आज, मालदीव में ८९ सैरगाह हैं, जिनमें १७,००० से अधिक बिस्तर की क्षमता है, यह पर्यटकों को विश्व स्तर की सुविधाएं उपलब्ध कराते हैं, यहाँ पर्यटकों की वार्षिक आगमन की संख्या ६००,००० से अधिक है।
सैरगाहों की संख्या १९७२ और २००७ के बीच २ से बढ़ कर 9२ हो गई है। २००७ में ८,3८0,००० से अधिक पर्यटकों ने मालदीव का दौरा किया था।
वास्तव में सभी आगंतुक, राजधानी माले के ठीक बगल में हुल्हुले द्वीप पर स्थित माले अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे पर पहुँचते हैं। हवाई अड्डा विस्तृत सारणी की उड़ानॉ से उपयुक्त है, यहाँ भारत, श्रीलंका, दुबई और दक्षिण पूर्व एशिया के सभी प्रमुख हवाई अड्डों के लिए उड़ानें हैं और साथ ही यूरोप से बढ़ती हुई संख्या के चार्टर भी हैं। कई उड़ानें रास्ते में कोलंबो (श्रीलंका) रूकती हैं।
अडडू के दक्षिणी प्रवाल द्वीप पर स्थित गन हवाई अड्डा भी सप्ताह में कई बार मिलान की अंतरराष्ट्रीय उड़ान के लिए कार्य करता है।
मत्स्य पालन उद्योग
कई शताब्दियों के लिए मालदीव अर्थव्यवस्था पूरी तरह से मछली पालन और अन्य समुद्री उत्पादों पर निर्भर था। मछली पकड़ना लोगों का मुख्य व्यवसाय है और सरकार मत्स्य पालन क्षेत्र के विकास को विशेष प्राथमिकता देती है।
१९७४ में, पारंपरिक मछली पकड़ने की नाव, धोनी का मशीनीकरण, मत्स्य पालन उद्योग और सामान्य रूप से देश की अर्थव्यवस्था के विकास के लिए एक महत्वपूर्ण घटना थी। १९७७ में, एक जापानी कंपनी के साथ संयुक्त उद्यम के रूप में, फेलिवारू द्वीप में एक मछली कैनिंग यंत्र स्थापित किया गया। १९७९ में, एक मत्स्य सलाहकार बोर्ड स्थापित किया गया, यह सरकार को मत्स्य पालन क्षेत्र के समग्र विकास के लिए नीति निर्देशों पर सलाह देने के जनादेश के साथ बनाया गया था। मानव शक्ति विकास कार्यक्रम की शुरुआत १९८० के दशक के प्रारंभ में हुई और मत्स्य पालन शिक्षा स्कूल पाठ्यक्रम में शामिल कर दी गई। मछली कुल उपकरण और नौवहन एड्स विभिन्न रणनीतिक अंकों में स्थित थे। इसके अलावा, मालदीव के मत्स्य पालन के लिए विशेष आर्थिक क्षेत्र (ई ई जेड) के खुलने से मत्स्य पालन क्षेत्र के विकास में इजाफा हुआ है।
आज, मत्स्य पालन देश के सकल घरेलू उत्पाद में पंद्रह प्रतिशत से अधिक का योगदान देता है और देश के लगभग तीस प्रतिशत लोगों को इस काम में संलग्न करता हैं। यह पर्यटन के बाद दूसरा सबसे बड़ा विदेशी मुद्रा अर्जक है।
कृषि और कुटीर उद्योग
कृषि और विनिर्माण अर्थव्यवस्था में कम भूमिका निभाते हैं, यह खेती की जमीन की सीमित उपलब्धता और घरेलू श्रम की कमी की वजह से बाध्य है। कई मुख्य खाद्य पदार्थ आयात करने होते हैं। उद्योग, जो वस्त्र उत्पादन, नाव के निर्माण, हस्तशिल्प में मुख्य रूप से शामिल है, सकल घरेलू उत्पाद के खातों में लगभग ७% का योगदान देंते हैं।
पर्यटन क्षेत्र के विकास ने देश के अनुभवहीन पारंपरिक कुटीर उद्योगों जैसे चटाई की बुनाई, लाख के काम, हस्तकला और नारियल-जटा रस्सी बनाने को महत्वपूर्ण बढ़ावा दिया है। तब से जो नए उद्योग उभर कर आए, उन में छपाई, पीवीसी पाइप का निर्माण, ईंट बनाना, समुद्री इंजन की मरम्मत, सोडा पानी की बोतल भरना और वस्त्र उत्पादन शामिल है।
१९६८ में गणराज्य के रूप में संविधान लागू हुआ (और १९७०, १९७२ एंव १९७५ में इसका संशोधन किया गया) यह निरसित किया गया और २७ नवम्बर १९९७ में राष्ट्रपति गयूम की सहमति से दूसरे संविधान के साथ बदल दिया गया। यह संविधान १ जनवरी १998 को लागू हुआ। सभी ने कहा कि राष्ट्रपति राज्य का प्रमुख, सरकार का प्रमुख और सशस्त्र सेनाओं एंव मालदीव की पुलिस का प्रधान सेनाध्यक्ष था। विरोध से तीव्र दबाव के तहत दिनांक ७ अगस्त २००८ को एक नए संविधान का अनुमोदन हुआ, जिसके तहत न्यायपालिका की शक्ति को राज्यपाल से अलग कर दिया गया।
मालदीव के संविधान के अनुसार, "न्यायाधीश स्वतंत्र हैं और केवल संविधान एंव कानून के अधीन हैं। जब ऐसे मामले तय किये जाने हों जिस पर संविधान या कानून निःशब्द हैं, तब न्यायाधीशों को इस्लामी शऋअह पर विचार करना चाहिए."
स्वतंत्र न्यायिक सेवा आयोग, न्यायपालिका का क्रोड़ है, जो न्यायाधीशों की नियुक्ति और बर्खास्तगी की निगरानी करता है और यह सुनिश्चित करता है कि न्यायाधीश अपने नियमबद्ध आचरण का अनुमोदन करें। वर्तमान में, एक अंतरिम चरण में, इसे राष्ट्रपति, असैनिक सेवा आयोग, संसद, सार्वजनिक, उच्च न्यायालय के न्यायाधीश, निचली अदालत के न्यायाधीश और सुप्रीम कोर्ट के एक सदस्य द्वारा नियुक्त किया जाता है। जनसमूह के चरित्र में अन्तर्विरोध, इसकी आवश्यकता है कि एक सुप्रीम कोर्ट सदस्य जनसमूह पर मौजूद हो, भले ही सुप्रीम कोर्ट, आयोग की सलाह से बनना चाहिए।
आयोग की स्वतंत्रता पर चिंता उठाई गई है, दिए गए आठ अंतरिम सदस्य में, अध्यक्ष इनकी नियुक्त करता है और सभी मौजूदा न्यायकर्ता राष्ट्रपति मॉमून अब्दुल गयूम के द्वारा पिछले संविधान के अधीन नियुक्त किए गए थे, उनमें से दो आयोग में नियुक्त किए गए थे।
मालदीव का सुप्रीम कोर्ट एक मुख्य न्यायाधीश की अध्यक्षता में हैं, जो न्यायपालिका का प्रमुख है। अभी एक अंतरिम मंच पर राष्ट्रपति ने ५ न्यायाधीश नियुक्त किए, जो संसद द्वारा अनुमोदित किए गए। अंतरिम अदालत, संविधान के तहत एक नए स्थायी सुप्रीम कोर्ट के मनोनीत होने तक बैठेगी. सुप्रीम कोर्ट के नीचे एक उच्च न्यायालय और एक निचली अदालत. संविधान को मालदीव के उच्च न्यायालय के लिए एक असमान संख्या के शासन की आवश्यकता है, इसलिए तीन न्यायकर्ताओं की नियुक्त की जाती है। किसी भी फैसले को बहुमत द्वारा पहुँचाया जाता है, लेकिन उसमें एक
'अल्पसंख्यक' रिपोर्ट का शामिल होना भी ज़रूरी है।
नव स्वतंत्र न्यायपालिका का एक भाग होने के रूप में, एक अभियोजक जनरल नियुक्त किया गया है, जो सरकार की ओर से अदालत की कार्यवाही शुरू करने के लिए जिम्मेदार है, वह निरीक्षण करेगा की जाँच-पड़ताल कैसे आयोजित की जाती है और आपराधिक अनुशीलता में भी उसका निर्देश होगा, यह काम पहले एटॉर्नी जनरल द्वारा किया जाता था। उसके पास जांच का आदेश, नजरबंदियों पर निगरानी, लॉज के पुनर्वाद और मौजूदा मामलों की समीक्षा करने की शक्ति होती है। मालदीव का अभियोजक जनरल, राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त किया जाता है और इसमें संसद की मंजूरी आवश्यक है।
मालदीव ने संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (अंडप), के सहयोग से दुनिया का पहला मुस्लिम आपराधिक कोड लिखने का कार्य प्रारंभ किया। यह प्रत्यालेख इस छोटे से देश में आपराधिक न्याय की कार्यवाही को नियमानुरूप करके दुनिया का सबसे व्यापक आधुनिक आपराधिक कोड बना देगा। कोड लिख दिया गया है और संसद द्वारा कार्रवाई के इंतजार में है।
इस बीच, इस्लाम ही मालदीव का शासकीय धर्म है। अन्य सभी धर्मों का खुला अनुशीलन मना है और ऐसी प्रक्रिया कानून के तहत मुकदमा चलाने के लिए उत्तरदायी हैं। संशोधित संविधान के लेख दो के अनुसार, यह कहा गया है कि गणतंत्र "इस्लाम के सिद्धांतों पर आधारित है।" अनुच्छेद नौ कहता है कि "एक गैर मुस्लिम मालदीव का नागरिक नहीं बन सकता"; नम्बर दस कहता हैं, इस्लाम के किसी भी सिद्धांत के विपरीत, मालदीव में कोई कानून लागू नहीं किया जा सकता है।" लेख उन्नीस कहता है कि "नागरिकों को भाग लेने की या ऐसी कोई भी गतिविधि करने की स्वतंत्रता है जो स्पष्ट रूप से शरीयत या कानून द्वारा निषिद्ध नहीं है।"
एक विशेष धर्म का पालन करने और अन्य धर्मों की सार्वजनिक पूजा करने पर निषेध की आवश्यकता, मानव अधिकार के सार्वलौकिक प्रख्यापन के अनुच्छेद १८ और असैनिक एंव राजनीतिक अधिकारों के अंतर्राष्ट्रीय अनुबंध के अनुच्छेद १८, जिसके मालदीव हालही में सहायक बने हैं, के विपरीत है और इसीलिए अनुबंध का पालन करते हुए मालदीव आरक्षण में इस दावे के साथ संबोधित किया कि, "अनुबंध के अनुच्छेद १८ में दिए गए सिद्धान्त मालदीव गणराज्य के संविधान पर पक्षपात किये बिना अनुप्रयोग होंगे."
मालदीव के सैना
मालदीव राष्ट्रीय सुरक्षा बल (मॉडफ) एक संयुक्त सुरक्षा बल है जो मालदीव की सुरक्षा और आधिपत्य की रक्षा के लिए जिम्मेदार है, इसका प्राथमिक कार्य है मालदीव के सभी आंतरिक और बाह्य सुरक्षा प्रयोजनों के लिए उपस्थित होने की जिम्मेदारी लेना, इसमें विशेष आर्थिक क्षेत्रों (ईज़) की सुरक्षा भी शामिल है।
मॉडफ संघटक की शाखाएं हैं तट रक्षक, आग और बचाव सेवा, पैदल सेना सेवा, प्रशिक्षण और शिक्षा के लिए सुरक्षा संस्थान (प्रशिक्षण समादेश) और सहायता सेवाएं.
एक पानी बाध्य देश होने की वजह से इसकी अधिक सुरक्षा चिंताएं समुद्र से जोड़ी है। देश का लगभग ९०% भाग समुद्र के द्वारा आवृत है और शेष १०% जमीन ४१५ किमी क्स १२० किमी के क्षेत्र में फैली हुई है, जिसमें सबसे बड़ा द्वीप अधिक से अधिक ८ क्म२ का है। इसलिए मालदीव पानी पर निगरानी रखने और विदेशी घुसपैठियों द्वारा ई ई जेड और प्रादेशिक जल क्षेत्र में अवैध शिकार के खिलाफ संरक्षण प्रदान करने के मॉडफ को सौंपे गए कर्तव्य दोनों सैन्य और आर्थिक दृष्टि से काफी विशाल कार्य हैं। इसलिए, इन कार्यों को करने के लिए तट रक्षक एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। समय पर सुरक्षा प्रदान करने के लिए इसकी गश्ती नौकाएं विभिन्न मॉडफ क्षेत्रीय मुख्यालयों में तैनात रहती हैं।
तटरक्षक को समय पर तरीके से समुद्री संकट कॉल का जवाब और खोज और बचाव संचालन करने का काम भी सौंपा जाता है। समुद्री प्रदूषण नियंत्रण अभ्यास ऐसी खतरनाक स्थितियों से निपटने और उनसे परिचय करने के लिए वार्षिक आधार पर नियमित रूप से आयोजित किया जाता हैं।
तटरक्षक देश भर के सेना और सैन्य उपकरणों के सशस्त्र समुद्री परिवहनों का उपक्रम करते हैं।
हिंद महासागर आयोग
१९९६ के बाद से, मालदीव हिंद महासागर आयोग का अधिकारी प्रगति अनुश्रवण रहा है। २००२ के बाद से, मालदीव ने हिंद महासागर आयोग के काम में रुचि व्यक्त की है लेकिन सदस्यता के लिए आवेदन नहीं किया। मालदीव की अभिरूचि एक छोटे से द्वीप राज्य के रूप में अपनी पहचान से संबंधित है, विशेष रूप से आर्थिक विकास और पर्यावरण संरक्षण के मामलों के संबंध में और फ्रांस, जो आयोक के क्षेत्र में एक मुख्य अभिनेता है, उसके साथ निकट संबंध बनाने की इच्छा. मालदीव, क्षेत्रीय सहयोग की दक्षिण एशियाई सभा एंव सार्क (सार्क) का संस्थापक सदस्य है और ग्रेट ब्रिटेन से आजादी पाने के कुछ १७ साल के बाद, ग्रेट ब्रिटेन के पूर्व संरक्षण के रूप में १९८२ में राष्ट्रमण्डल में शामिल हुआ। मालदीव सेशेल्स और मॉरीशस के साथ घनिष्ठ संबंधों का आनन्द उठाता है, जो मालदीव की ही तरह राष्ट्रमंडल के सदस्य हैं। मालदीव और कोमोरोस दोनों इस्लामी सम्मेलन संगठन के सदस्य भी हैं। मालदीव ने मॉरीशस के साथ मालदीव और ब्रिटिश हिंद महासागरीय क्षेत्र के बीच समुद्री सीमा के सीमांकन पर किसी भी वार्ता में प्रवेश करने से इनकार कर दिया है, उनका कहना है कि अंतरराष्ट्रीय कानून के तहत, छागोस द्वीपसमूह की संप्रभुता ब्रिटेन के साथ टिकी है जिसके साथ बातचीत १९९१ में शुरू हुई थी।
भाषा और संस्कृति
मालदीव संस्कृति श्रीलंका और दक्षिण भारत से भौगोलिक निकटता होने के कारण बहुत प्रभावित है।
सरकारी और आम भाषा धिवेही है जो एक भारत-यूरोपीय भाषा है जिसमें प्राचीन सिंहली भाषा, इलू के साथ कुछ समानताएं हैं। पहली ज्ञात लिपि लिखती है कि धिवेही, एवेयला अकुरु लिपि है, जो राजाओं (राधावाल्ही) के ऐतिहासिक रिकॉर्डिंग में पाया जाता है। बाद में एक धीवस अकुरु नाम की लिपि प्रस्तुत हुई और एक लंबी अवधि के लिए प्रयोग की गई। वर्तमान में लिखित लिपि, थाना कहलाई जाती है और दाहिनी ओर से बाईं ओर लिखी जाती है। कहा जाता है कि थाना मोहम्मद थाकुरुफानु के शासन द्वारा शुरू की गई है। अंग्रेजी वाणिज्य में व्यापक रूप से इस्तेमाल की जाती है और तेजी से सरकारी स्कूलों में शिक्षा का माध्यम भी बन रही है।
भाषा एक इंडिक सांस्कृतिक मूल की है, जिसमें उत्तरकालीन का प्रभाव उपमहाद्वीप के उत्तर से है। दन्तकथाओं के अनुसार, आलीशान वंश जो अतीत में देश का शासन करता था, उसका मूल वहां का है।
संभवतः यह प्राचीन राजा, बौद्ध धर्म उपमहाद्वीप से लाए थे, लेकिन मालदीव दन्तकथाओं में यह स्पष्ट नहीं है। श्रीलंका में इसी तरह की दन्तकथाएं हैं, तथापि, यह असंभव है कि प्राचीन मालदीव राजपरिवार और बौद्ध धर्म दोनों उस द्वीप से आए क्योंकि श्रीलंका का कोई भी इतिवृत मालदीव का उल्लेख नहीं करता. यह अविश्वसनीय है कि प्राचीन श्रीलंका का कोई भी इतिवृत मालदीव का उल्लेख करने में असफल होता, अगर उसके राज्य की एक शाखा मालदीव द्वीप समूह की ओर बड़ी होती.
मालदीव इतिहास में बौद्ध धर्म के लम्बे काल के बाद, मुस्लिम व्यापारियों ने सुन्नी इस्लाम की शुरुआत की। मालदीव वासी, मध्य १२ वीं शताब्दी तक धर्मान्तरित कर दिए गए। द्वीप में सुफिक आदेशों का एक लंबा इतिहास है, ऐसा देश के इतिहास में देखा जा सकता है जैसे कि मकबरों का निर्माण. यह मकबरे हाल ही में १९८० के दशक तक मरे हुए संतों से सहायता प्राप्त करने के लिए इस्तेमाल किए जाते थे। यह आज, मालदीव के कुछ पुराने मस्जिदों के बगल में देखे जा सकते है और आज एक सांस्कृतिक विरासत के रूप में माने जाते हैं। तस्सवुफ़ के अन्य पहलु जैसे माउलूदू (मौल्डू) कहलाये जाने वाली विधिशास्तरीय धिक्र रीति, जिसके प्रार्थना करने की रीति में कुछ ही समय पूर्व तक एक माधुर्य स्वर में अनुवाचन और कुछ प्रार्थनाएँ शामिल थी। यह माउलूदू (मौल्डू) त्योहार इस अवसर के लिए विशेष तौर पर निर्मित अलंकृत टेंट में आयोजित किया जाता है। वर्तमान में, सुन्नी इस्लाम संपूर्ण जनसंख्या का आधिकारिक धर्म है, नागरिकता पाने के लिए इसका पालन करना आवश्यक है।
१२ वीं शताब्दी में इस्लाम को सामान्य रूपांतरण और केंद्रीय हिंद महासागर में एक चौराहे के रूप में अपनी जगह बनाने से, १२ वीं शताब्दी एडी के बाद से मालदीव की भाषा और संस्कृति पर अरब का भी बहुत प्रभाव पड़ा है। यह मध्य पूर्व और अत्यन्त पूर्व के बीच लंबे व्यापार के इतिहास के कारण हुआ था। सोमाली समुद्री डाकूओं ने बाद में, पुर्तगालियों से पहले, १३ वीं सदी में सोने के लिए द्वीप की खोज की। उनका संक्षिप्त ठहराव बाद में सोमालिओं द्वारा कहलाये जाने वाले "डगाल डीग बदानी" खूनी संघर्ष में १४२४ में समाप्त हुआ।
इन्हें भी देखें
मालदीव में इस्लाम
मालदीव में इब्न बतूता
दिवेहीराज्जेगे जोगराफिज (ज्ग्रफगे) वनावारू . मुहम्मदु इब्राहिम लुत्फी. जी सोसनी (स्सन). १९९९ माले (माल).
ह.च.प. बेल, द मालदीव आइलेंद्ज़, एन अकाउंट ऑफ़ फिजिकल फेचर्ज़, हिस्टरी, इन्हेबीटेंटस, प्रोडक्ट्स एंड ट्रेड. कोलम्बो १८८३, इसब्न ८१-२०६-१२२२-१
हप बेल, द मालदीव आइलेंद्ज़; मोनोग्राफ ओंन द हिस्टरी, अर्किओलोजी एंड एपिग्रफी . १९४० कोलंबो पुनर्मुद्रण. काउन्सिल फॉर लिंगुइस्टिक एंड हिस्टोरिकल रिसर्च. माले' १९८९
हप बेल, एक्स्सर्पता मालदिविअना . कोलंबो १९२२/३५ पुनर्मुद्रण इडीएन. एशियाई शैक्षिक सेवा. नई दिल्ली - १९९९
जेवियर रोमेरो-फ्रिअस, द मालदीव आइलेंदर्ज़, अ स्टडी ऑफ़ द पोपुलर कल्चर ऑफ़ एन एन्शिएन्त ओशन किंगडम . १९९९ बार्सिलोना, इसब्न ८४-७२५४-८०१-५
दिवेही तारीखः औ अलिकमेह दिवेही बहाई तारीखः खिद्मैय्कुर कौमी मर्कजु १९५८ इदन पुनर्मुद्रण. १९९० माले.
क्रिस्टोफर, १८३६-३८ विलियम. टरान्जेकशंन ऑफ़ द जिओग्रफ़िकल सोसाइटी, वोल.१. बंबई.
लेफ्टिनेंट. आइ.ए. यंग एंड व. क्रिस्टोफर, मेमोइर्ज़ ओंन द इन्हेबिटेंट्स ऑफ़ द मालदीव आइलेंद्ज़ .
गीजर, विल्हेलम. मालदीव लिन्गुइस्तिक स्टडीज़ . १९१९ इडीएन पुनर्मुद्रण. एशियाई शैक्षिक सेवा. १९९९ दिल्ली.
हो्क्ली, टी.व. द टू थाउजेंड आइल्ज़ . १८३५ इडीएन पुनर्मुद्रण. एशियाई शैक्षिक सेवा. २००३ दिल्ली.
हिदेयुकी ताकाहाशी, '' मालदीव नेशनल सिक्योरिटी एंड द थरेट्स ऑफ़ मर्सेनारिस'', द राउंड टेबल (लन्दन), न. ३५१, जुलाई १९९९, पप. ४३३-४४४.
मल्तें, थॉमस: मलेदिवन एंड लक्कादिवें. मटेरिअलएन जूर बिब्लियोग्राफी दर अटोल्ले इम इन्दिसचेन ओज़ेंन. बितरेज जूर सुदसिएँ-फॉरसचंग सुदसिएँ- इंस्टीटयूट युनिवरसिटेत-हीडएलबर्ग, न्रर. ८७. फ्रांज स्टीनर वर्लग. विस्बदेंन, १९८३.
विल्गोंन, लार्स: मालदीव और मिनिकॉय आइलेंड्स बिब्लिओग्रफ़ी विद द लक्षद्वीप आईलेंड. लेखक द्वारा प्रकाशित किया। स्टॉकहोम, १९९४.
मालदीव की यात्रा का दस्तावेज
अब पब्स पर: मालदीव द्वीप समूह जलवायु संकट
हिन्द महासागर के द्वीप
हिन्द महासागर के द्वीपसमूह
हिन्द महासागर के देश
मालदीव के द्विपक्षीय संबंध
क्षेत्रीय सहयोग राज्य सदस्यों का दक्षिण एशियाई संघ
हिन्द महासागर के प्रवाल द्वीप
इस्लामी सम्मेलन सदस्यों का संगठन
पूर्व पुर्तगाली कोलोनियां
लघुतम विकसित देश
१९६५ में स्थापित राज्य एंव प्रांत
दक्षिण एशिया के देश |
श्रीलंका (आधिकारिक नाम श्रीलंका समाजवादी जनतांत्रिक गणराज्य) दक्षिण एशिया में हिन्द महासागर के उत्तरी भाग में स्थित एक द्वीपीय देश है। भारत के दक्षिण में स्थित इस देश की दूरी भारत से मात्र ३१ किलोमीटर है।लंका के आगे सम्मानसूचक शब्द "श्री" जोड़कर श्रीलंका कर दिया गया। श्रीलंका का सबसे बड़ा नगर कोलम्बो समुद्री परिवहन की दृष्टि से एक महत्वपूर्ण बन्दरगाह है। श्री लंका में (वेदास) जनजाति पायी जाती है। पाक जलसंधि भारत-श्री लंका के मध्य में ही है ।
श्री लंका का पिछले ५००० वर्ष का लिखित इतिहास उपलब्ध है। 12५,००० वर्ष पूर्व यहाँ मानव बस्तियाँ होने के प्रमाण मिले हैं। यहाँ से २९ ईसापूर्व में चतुर्थ बौद्ध संगीति के समय रचित बौद्ध ग्रन्थ प्राप्त हुए हैं।
प्राचीन काल से ही श्रीलंका पर शाही सिंहल वंश का शासन रहा है। समय-समय पर दक्षिण भारतीय राजवंशों का भी आक्रमण भी इस पर होता रहा है। तीसरी सदी ईसा पूर्व में मौर्य सम्राट अशोक के पुत्र महेन्द्र के यहां आने पर बौद्ध धर्म का आगमन हुआ।
सोलहवीं सदी में यूरोपीय शक्तियों ने श्रीलंका में अपना व्यापार स्थापित किया। देश चाय, रबड़, चीनी, कॉफ़ी, दालचीनी सहित अन्य मसालों का निर्यातक बन गया। पहले पुर्तगाल ने कोलम्बो के पास अपना दुर्ग बनाया। धीरे-धीरे पुर्तगालियों ने अपना प्रभुत्व आसपास के इलाकों में बना लिया। श्रीलंका के निवासियों में उनके प्रति घृणा घर कर गई। उन्होंने डच लोगों से मदद की अपील की। १६३० ईस्वी में डचों ने पुर्तगालियों पर हमला बोला और उन्हें मार गिराया, लेकिन इसका असर श्रीलंकाई पर भी हुआ और उन पर डचों ने और ज्यादा कर थोप दिया। १६६० तक अंग्रेजों का ध्यान भी इस पर गया। नीदरलैंड पर फ्रांस के अधिकार होने के बाद अंग्रेजों को डर हुआ कि श्रीलंका के डच इलाकों पर फ्रांसिसी अधिकार हो जाएगा। तदुपरांत उन्होंने डच इलाकों पर अधिकार करना आरंभ कर दिया। १८०० ईस्वी के आते-आते तटीय इलाकों पर अंग्रेजों का अधिकार हो गया। १८१८ तक अंतिम राज्य कैंडी के राजा ने भी आत्मसमर्पण कर दिया और इस तरह सम्पूर्ण श्रीलंका पर अंग्रेजों का अधिकार हो गया। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद ४ फरवरी १९४८ को देश को यूनाइटेड किंगडम से पूर्ण स्वतंत्रता मिली।
हिन्द महासागर के उत्तरी भाग मे स्थित इस द्वीप राष्ट्र की भूमि केन्द्रीय पहाड़ों तथा तटीय मैदानों से मिलकर बनी है। वार्षिक वर्षा २५०० से ५००० मि.मी. तक होती है। वार्षिक तापमान का औसत मैदानी इलाकों में २७ डिग्री सेल्सियस तथा नुवर एलिय (ऊंचाई - १८०० मीटर) के इलाके में १५ डिग्री सेल्सियस रहता है। इस देश का विस्तार ६-१० गिग्री उत्तरी अक्षांश के मध्य होने, तथा चारो ओर समुद्र से घिरे होने की वजह से यह एक उष्ण कटिबंधीय जलवायु क्षेत्र है। यहां की औसत सापेक्षिक आर्द्रता दिन में ७०% से लेकर रात के समय में ९०% तक हो जाती है।
प्रशासकीय रूप से श्रीलंका ९ प्रान्तों में बंटा हुआ है। इन ९ प्रान्तों में कुल २५ जिले हैं। इन जिलों के तहत मंडलीय सचिवालय आते हैं और इनके घटक इकाईयों को ग्राम सेवक खंड कहते हैं।
यह देश एक बहुजातीय तथा बहुधार्मिक है। यहां के निवासियों में ७४% सिंहली, १८% तमिल, ७% ईसाई तथा १% अन्य जातिमूल के हैं।
श्रीलंकाई गृहयुद्धश्रीलंकामें बहुसंख्यक सिंहला और अल्पसंख्यक तमिलो के बीच२३ जुलाई,१९८३से आरंभ हुआ गृहयुद्ध है। मुख्यतः यह श्रीलंकाई सरकार और अलगाववादी गुटलिट्टेके बीच लड़ा जाने वाला युद्ध है। ३० महीनों के सैन्य अभियान के बाद मई २००९ में श्रीलंकाई सरकार ने लिट्टे को परास्त कर दिया।[१]
लगभग २५ वर्षों तक चले इस गृहयुद्ध में दोनों ओर से बड़ी संख्या में लोग मारे गए और यह युद्ध द्वीपीय राष्ट्र की अर्थव्यस्था और पर्यावरण के लिए घातक सिद्ध हुआ। लिट्टे द्वारा अपनाई गई युद्ध-नीतियों के चलते ३२ देशों ने इसे आतंकवादी गुटो की श्रेणी में रखा जिनमेंभारत[२],ऑस्ट्रेलिया,कनाडा,यूरोपीय संघ[३]के बहुत से सदस्य राष्ट्र और अन्य कई देश हैं। एक-चौथाई सदी तक चले इस जातीय संघर्ष में सरकारी आँकड़ों के अनुसार ही लगभग ८०,००० लोग मारे गए हैं। .
यह भी देखिए
श्रीलंका का इतिहास
श्रीलंका का स्वतंत्रता संग्राम
श्रीलंका में बौद्ध धर्म
श्रीलंका की संस्कृति
श्रीलंका सरकार का जलपृष्ठ
एशिया के देश
हिन्द महासागर के द्वीप
दक्षिण एशिया के देश |
कोलम्बो, श्रीलंका का सबसे बड़ा नगर तथा ये पहले श्री लंका की राजधानी हुआ करता था । यह शहर नए तथा औपनिवेशिक इमारतों का सुन्दर सम्मिश्रण है। कोलम्बो का इतिहास दो हजार साल से भी पुराना है।
कोलम्बो नाम के पीछे कई कहानियाँ प्रचलित है। एक कहानी के अनुसार कोलम्बो नाम का उच्चारण सर्वप्रथम पुर्तगालियों ने १५०५ ई. में किया था। दूसरी कहानी के अनुसार यह नाम सिंहली शब्द 'कोला-अम्बा-थोता' से आया। सिंहली भाषा में इस शब्द का अर्थ 'आम के वृक्षों वाला बन्दरगाह' है। एक अन्य कहानी के अनुसार यह शब्द कोलोन-थोता से आया, जिसका शाब्दिक अर्थ होता है 'केलानी नदी पर स्थित बन्दरगाह'। यहां घूमने लायक कई जगह है। गाले फेस ग्रीन, विहारमहादेवी पार्क और राष्ट्रीय संग्रहालय आदि यहां के प्रमुख दर्शनीय स्थल हैं।
चूँकि कोलम्बो एक प्राकृतिक बन्दरगाह है, इस कारण यह प्राचीन काल से ही विभिन्न देशों से जुड़ा रहा है। रोम, अरब तथा चीन के व्यापारी यहां २००० वर्ष पहले से ही आते रहे हैं। प्रसिद्ध यात्री इब्नबतूता १४वीं शताब्दी में यहाँ आया था। उसने कोलम्बो का उल्लेख कालाम्पू के रूप में किया है। ८वीं शताब्दी के आसपास से ही अरब व्यापारी यहां बसने लगे थे। इसके बाद क्रमश: पुर्तगाली, डच तथा ब्रिटिश आए। अन्तत: ब्रिटिशों ने इस देश पर 1८15 ई. में कब्जा कर लिया। 194८ ई. में यह देश अंग्रेजों के कब्जे से मुक्त होकर स्वतन्त्र हुआ।
विहार महादेवी पार्क
यह एक सार्वजनिक पार्क है। यह सुन्दर पार्क औपनिवेशिक शैली में बने टाउन हाल के ठीक सामने है। इस पार्क का नाम प्रसिद्ध राजा दुतुगामुनु की माता के नाम पर रखा गया है। इस पार्क का निर्माण ब्रिटिश शासनकाल में हुआ था। उस समय इस पार्क को रानी विक्टोरिया के नाम पर विक्टोरिया पार्क के नाम से जाना जाता था। अभी भी टूरिस्ट गाइड इस पार्क का उल्लेख विक्टोरिया पार्क के नाम से करते हैं। इस पार्क में भगवान बुद्ध की एक विशाल मूर्ति स्थापित है। इसके अलावा इस पार्क में एक छोटा चिडियाघर, बच्चों का खेल का मैदान तथा पानी के झरने भी हैं।
विहारमहादेवी पार्क कोलम्बो का एकमात्र सार्वजनिक पार्क है। इसकी देखभाल कोलम्बो का नगर निगम करता है।
गाले फेस ग्रीन
यह कोलम्बो का सबसे प्रसिद्ध भ्रमण स्थल है। इसको १८५९ ई. में श्रीलंका के तत्कालीन अंग्रेज गवर्नर सर हेनरी वार्ड ने विकसित किया था। उस समय यह स्थान भ्रमणस्थल के अलावा घुड़दौड़ तथा गोल्फ खेलने के लिए उपयोग किया जाता था। मूल गाले फेस ग्रीन वर्तमान से बहुत ज्यादा क्षेत्र घेरे हुआ था।
गाले फेसे ग्रीन गाले रोड और इण्डियन ओसेन के बीच ५ हेक्टेयर रीबन स्ट्रीप में फैला हुआ है। वर्तमान में यह कोलम्बो का सबसे बड़ा खुला क्षेत्र है। यह बच्चें, युवाओं, प्रेमियों का पसन्दीदा स्थल है। शनिवार और रविवार की शाम को यहां बहुत भीड़ होती है। यहां पर कोलम्बो के दो बड़े होटल, सीलोन कंटीनेनटल होटल तथा गाले फेस होटल भी स्थित हैं। वर्तमान समय में गाले फेस ग्रीन की देख-रेख श्रीलंका का शहरी विकास प्राधिकरण कर रहा है
इस संग्रहालय की स्थापना१ जनवरी १877 ई. को हुई थी। इसकी स्थापना तत्कालीन ब्रिटिश गवर्नर सर विलियम हेनरी जार्ज ने करवाई था। यह संग्रहालय सीनामन क्षेत्र में है। इस संग्रहालय में आभूषण तथा श्रीलंका के अंतिम राजा श्री विक्रम राजसिंघे का राजसिंहासन रखा हुआ है। अंग्रेजों ने विक्रम राजसिंघे को हरा कर ही श्रीलंका पर कब्जा किया था। इस संग्रहालय की कला गैलरी बहुत समृद्ध नहीं है। यहां श्रीलंका के हस्तशिल्पों का छोटा सा संग्रह है।
वर्ल्ड ट्रेड सेंटर
यह जुड़वा इमारत श्रीलंका की सबसे ऊंची इमारत है। इस ४० मंजिला इमारत का निर्माण १९९७ ई. में पूरा हुआ। यह इमारत यहां आने वाले पर्यटकों के आकर्षण का प्रमुख केंद्र होती है।
सीमा मालाक्या मंदिर, जामी उल अलफार मस्जिद, मुरुगन हिंदू मंदिर तथा वीरा झील यहां के अन्य दर्शनीय स्थल है।
त्योहार एवं उत्सव
कोलंबो का सबसे महत्वपूर्ण उत्सव वेसाक है। यह उत्सव भगवान बुद्ध के जन्म, ज्ञान प्राप्ित तथा महापरिनिर्वाण (जो सभी एक ही तिथि को हुआ था) के अवसर पर मनाया जाता है। इस उत्सव के दौरान पूरे शहर को प्रकाश से सजाया जाता है। यह उत्सव मध्य मई महीने में मनाया जाता है तथा एक सप्ताह तक चलता है। इस दौरान कोलंबोवासी पूरा शहर घूमते हैं और प्रकाशयमान शहर को देखते हैं। इस दौरान लोग दुंसल क्षेत्र (दान का स्थान) में चावल, पेय तथा दूसरे खाद्य पदार्थ दान करते हैं।
क्रिसमस यहां का एक अन्य प्रसिद्ध त्योहार है। यद्यपि ईसाई श्रीलंका की कुल जनसंख्या का मात्र ७ प्रतिशत हैं, फिर भी यह त्योहार बड़ी धूम-धाम से मनाया जाता है। इस उत्सव के दौरान भी पूरे शहर को प्रकाश से सजाया जाता है।
कोलंबो की परिवहन व्यवस्था बस, ऑटो रिक्शा (जिसे स्थानीय लोग तिपहिया कहते हैं) तथा टैक्सियों पर टिकी हुई है। बसें, सरकार और निजी एजेंसियों द्वारा चलाई जाती है। तिपहिया निजी रूप से ही चलाया जाता है। ट्रेन यहां का सबसे सस्ता और अच्छा परिवहन साधन है। अधिकतर लोग इसी से यात्रा करना पसंद करते हैं।
कोलंबो में बंडारनायके अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डा है। यहां विभिन्न देशों से नियमित रूप से विमान आते रहते हैं। यह हवाई अड्डा शहर से १८ मील की दूरी पर स्थित है। यहां से बस, टैक्सी आदि से मुख्य शहर जाया जा सकता है।
सेंट पीटर्स्बर्ग, रूस (१९९७ से)
शंघाई, चीन (२००३ से)
लीड्स, यूनाइटेड किंगडम
इन्हें भी देखें
टिप्पणी और संदर्भ
श्रीलंका की प्रान्तीय राजधानियां
पूर्व राष्ट्रीय राजधानियां
हिन्द महासागर में बंदरगाह
एशिया में राजधानियां
श्रीलंका के शहर
पश्चिमी प्रान्त, श्रीलंका |
मामून अबदुल गयूम मालदीव के राष्ट्रपति रह चुके हैं।
मालदीव के राष्ट्रपति |
नेल्सन ख़ोलीह्लह्ला मंडैला (ख़ोसा: नेल्सन रोलिहलाहला मंडेला; १८ जुलाई 19१८ ५ दिसम्बर २०१३) दक्षिण अफ्रीका के प्रथम अश्वेत भूतपूर्व राष्ट्रपति थे। राष्ट्रपति बनने से पूर्व वे दक्षिण अफ्रीका में सदियों से चल रहे रंगभेद का विरोध करने वाले अफ्रीकी नेशनल कांग्रेस और इसके सशस्त्र गुट उमखोंतो वे सिजवे के अध्यक्ष रहे। रंगभेद विरोधी संघर्ष के कारण उन्होंने २७ वर्ष रॉबेन द्वीप के कारागार में बिताये जहाँ उन्हें कोयला खनिक का काम करना पड़ा था। १९९० में श्वेत सरकार से हुए एक समझौते के बाद उन्होंने नये दक्षिण अफ्रीका का निर्माण किया। वे दक्षिण अफ्रीका एवं समूचे विश्व में रंगभेद का विरोध करने के प्रतीक बन गये। संयुक्त राष्ट्रसंघ ने उनके जन्म दिन को नेल्सन मंडेला अन्तर्राष्ट्रीय दिवस के रूप में मनाने का निर्णय लिया।
मंडेला का जन्म १८ जुलाई 19१८ को म्वेज़ो, ईस्टर्न केप, दक्षिण अफ़्रीका संघ में गेडला हेनरी म्फ़ाकेनिस्वा और उनकी तीसरी पत्नी नेक्यूफी नोसकेनी के यहाँ हुआ था। वे अपनी माँ नोसकेनी की प्रथम और पिता की सभी संतानों में १३ भाइयों में तीसरे थे। मंडेला के पिता हेनरी म्वेजो कस्बे के जनजातीय सरदार थे। स्थानीय भाषा में सरदार के बेटे को मंडेला कहते थे, जिससे उन्हें अपना उपनाम मिला। उनके पिता ने इन्हें 'रोलिह्लाला' प्रथम नाम दिया था जिसका खोज़ा में अर्थ "उपद्रवी" होता है। उनकी माता मेथोडिस्ट थी। मंडेला ने अपनी प्रारम्भिक शिक्षा क्लार्कबेरी मिशनरी स्कूल से पूरी की। उसके बाद की स्कूली शिक्षा मेथोडिस्ट मिशनरी स्कूल से ली। मंडेला जब १२ वर्ष के थे तभी उनके पिता की मृत्यु हो गयी।
१९४१ में मंडेला जोहन्सबर्ग चले गये जहाँ इनकी मुलाकात वॉल्टर सिसुलू और वॉल्टर एल्बरटाइन से हुई। उन दोनों ने राजनीतिक रूप से मंडेला को बहुत प्रभावित किया। जीवनयापन के लिये वे एक कानूनी फ़र्म में क्लर्क बन गये परन्तु धीर-धीरे उनकी सक्रियता राजनीति में बढ़ती चली गयी। रंग के आधार पर होने वाले भेदभाव को दूर करने के उन्होंने राजनीति में कदम रखा। १९४४ में वे अफ़्रीकन नेशनल कांग्रेस में शामिल हो गये जिसने रंगभेद के विरूद्ध आन्दोलन चला रखा था। इसी वर्ष उन्होंने अपने मित्रों और सहयोगियों के साथ मिल कर अफ़्रीकन नेशनल कांग्रेस यूथ लीग की स्थापना की। १९४७ में वे लीग के सचिव चुने गये। १९६१ में मंडेला और उनके कुछ मित्रों के विरुद्ध देशद्रोह का मुकदमा चला परन्तु उसमें उन्हें निर्दोष माना गया।
५ अगस्त १९६२ को उन्हें मजदूरों को हड़ताल के लिये उकसाने और बिना अनुमति देश छोड़ने के आरोप में गिरफ़्तार कर लिया गया। उन पर मुकदमा चला और १२ जुलाई १९६४ को उन्हें उम्रकैद की सजा सुनायी गयी। सज़ा के लिये उन्हें रॉबेन द्वीप की जेल में भेजा गया किन्तु सजा से भी उनका उत्साह कम नहीं हुआ। उन्होंने जेल में भी अश्वेत कैदियों को लामबन्द करना शुरू कर दिया था। जीवन के २७ वर्ष कारागार में बिताने के बाद अन्ततः ११ फ़रवरी १९९० को उनकी रिहाई हुई। रिहाई के बाद समझौते और शान्ति की नीति द्वारा उन्होंने एक लोकतान्त्रिक एवं बहुजातीय अफ्रीका की नींव रखी।
१९९४ में दक्षिण अफ़्रीका में रंगभेद रहित चुनाव हुए। अफ़्रीकन नेशनल कांग्रेस ने ६२ प्रतिशत मत प्राप्त किये और बहुमत के साथ उसकी सरकार बनी। १० मई १९९४ को मंडेला अपने देश के सर्वप्रथम अश्वेत राष्ट्रपति बने। दक्षिण अफ्रीका के नये संविधान को मई १९९६ में संसद की ओर से सहमति मिली जिसके अन्तर्गत राजनीतिक और प्रशासनिक अधिकारों की जाँच के लिये कई संस्थाओं की स्थापना की गयी। १९९७ में वे सक्रिय राजनीति से अलग हो गये और दो वर्ष पश्चात् उन्होंने १९९९ में कांग्रेस-अध्यक्ष का पद भी छोड़ दिया।
नेल्सन मंडेला बहुत हद तक महात्मा गांधी की तरह अहिंसक मार्ग के समर्थक थे। उन्होंने गांधी को प्रेरणा स्रोत माना था और उनसे अहिंसा का पाठ सीखा था।
मंडेला के तीन शादियाँ कीं जिन से उनकी छह संतानें हुई। उनके परिवार में १७ पोते-पोती थे। अक्टूबर १९४४ को उन्होंने अपने मित्र व सहयोगी वॉल्टर सिसुलू की बहन इवलिन मेस से शादी की। १९६१ में मंडेला पर देशद्रोह का मुकदमा चलाया गया परन्तु उन्हें अदालत ने निर्दोष पाया। इसी मुकदमे के दौरान उनकी मुलाकात अपनी दूसरी पत्नी नोमजामो विनी मेडीकिजाला से हुई। १९९८ में अपने ८०वें जन्मदिन पर उन्होंने ग्रेस मेकल से विवाह किया।
५ दिसम्बर २०१३ को फेफड़ों में संक्रमण हो जाने के कारण मंडेला की हॉटन, जोहान्सबर्ग स्थित अपने घर में मृत्यु हो गयी। मृत्यु के समय ये 9५ वर्ष के थे और उनका पूरा परिवार उनके साथ था। उनकी मृत्यु की घोषणा राष्ट्रपति जेकब ज़ूमा ने की।
पुरस्कार एवं सम्मान
दक्षिण अफ्रीका के लोग मंडेला को व्यापक रूप से "राष्ट्रपिता" मानते थे। उन्हें "लोकतन्त्र के प्रथम संस्थापक", "राष्ट्रीय मुक्तिदाता और उद्धारकर्ता" के रूप में देखा जाता था। २००४ में जोहनसबर्ग में स्थित सैंडटन स्क्वायर शॉपिंग सेंटर में मंडेला की मूर्ति स्थापित की गयी और सेंटर का नाम बदलकर नेल्सन मंडेला स्क्वायर रख दिया गया। दक्षिण अफ्रीका में प्रायः उन्हें मदीबा कह कर बुलाया जाता है जो बुजुर्गों के लिये एक सम्मान-सूचक शब्द है।
नवम्बर २००९ में संयुक्त राष्ट्र महासभा ने रंगभेद विरोधी संघर्ष में उनके योगदान के सम्मान में उनके जन्मदिन (१८ जुलाई) को 'मंडेला दिवस' घोषित किया। ६७ साल तक मंडेला के इस आन्दोलन से जुड़े होने के उपलक्ष्य में लोगों से दिन के २४ घण्टों में से ६७ मिनट दूसरों की मदद करने में दान देने का आग्रह किया गया।
मंडेला को विश्व के विभिन्न देशों और संस्थाओं द्वारा २५० से भी अधिक सम्मान और पुरस्कार प्रदान किए गए हैं:
१९९३ में दक्षिण अफ्रीका के पूर्व राष्ट्रपति फ़्रेडरिक विलेम डी क्लार्क के साथ संयुक्त रूप से नोबेल शांति पुरस्कार
प्रेसीडेंट मैडल ऑफ़ फ़्रीडम
ऑर्डर ऑफ़ लेनिन
२३ जुलाई २००८ को गाँधी शांति पुरस्कार
नेल्सन मंडेला की जीवनी नोबलप्राइज़डॉटओआरजी पर
नेल्सन मंडेला फाउण्डेशन
१९१८ में जन्मे लोग
२०१३ में निधन
दक्षिण अफ़्रीका के राष्ट्रपति
नोबल शांति पुरस्कार के प्राप्तकर्ता
गांधी पुरस्कार प्राप्तकर्ता
भारत रत्न सम्मान प्राप्तकर्ता |
माले (धिवेही: ), जनसंख्या १५३३७९ (२०१४), मालदीव की राजधानी है। पारंपरिक रूप से यह प्राचीन मालदीव शाही राजवंश का राजद्वीप था। पहले यह किले व दीवारों से घिरा रहता था।
यद्दपि माले भौगोलिक रूप से माले अटोल,काफू अटोल, मे स्थित है परन्तु प्रशासकीय रूप से इसे उसका हिस्सा नही माना जाता है। एक व्यापारिक बंदरगाह द्वीप मे स्थित है, यह राष्ट्र कि सारी वाणिज्यिक चहल पहल का प्रमुख ठिकाना है।
द्वीप का अधिकतम भाग नगरीकृत है। यह विश्व का सबसे घनी आबादी वाला शहर है
नगर को चार भागों मे बाटा गया है;हेनवीरू, गालोल्हू, माफान्नू व मैक्चांगोल्ही। पास क विलिंगिली, पूर्व पर्यटक स्थल, को सर्कारी रूप से पाँचवा भाग माना जाता है।
माले ने सूनमी, दिसंबर २००४, को सहा है जिसने एक तिहाई शहर को पानी से ढक दिया था।
२९ सितम्बर २००७ को माले ने बम धमाके को भी झेला था, यह मालदीव के इसिहास क पहला धमाका था।.
माले शब्द संस्कृत भाषा से महाआले शब्द से लिया गया है। महा=बडा़, आले=घर। परन्तु लोककथा नाम कि उत्पत्ति का दूसरा स्रोत बताती है।
इन्हें भी देखें
माले का उपग्रह चित्र विकिमैपिया से।
गूगल उपग्रह चित्र
एशिया में राजधानियाँ |
दिल्ली विश्वविद्यालय(डी.यु.) भारत सरकार द्वारा वित्तपोषित एक केन्द्रीय विश्वविद्यालय है। भारत की राजधानी दिल्ली स्थित यह विश्वविद्यालय १९२२ में स्थापित हुआ था। भारत के उपराष्ट्रपति विश्वविद्यालय के कुलाधिपति हैं।
ठेस-क़्स की विश्व के विश्वविद्यालयों की रैंकिंग के अनुसार यह भारत का शीर्ष गैर-आईआईटी विश्वविद्यालय है और यह ४७४ पायदान पर है ।
दिल्ली विश्वविद्यालय के दो परिसर हैं जो दिल्ली के उत्तरी और दक्षिणी भाग में स्थित हैं। इन्हें क्रमश: 'उत्तरी परिसर' और 'दक्षिणी परिसर' कहा जाता है। दिल्ली विश्वविद्यालय का उत्तरी परिसर में [दिल्ली मेट्रो] की पीली लाइन के साथ सुनियोजित ढंग से जुड़ा हुआ है और मेट्रो स्टेशन का नाम 'विश्वविद्यालय' है। उत्तरी परिसर [केन्द्रीय सचिवालय] से २.५ किमी और महाराणा प्रताप अंतरराज्यीय बस अड्डा (कश्मीरी गेट) से ७.० किलोमीटर की दूरी पर स्थित है, तो वहीं इसका दक्षिणी परिसर गुलाबी (पिंक)लाइन से जुड़ा है और मेट्रो स्टेशन का नाम 'दुर्गाबाई देशमुख साउथ केम्पस 'है। इसके कई महाविद्यालय एवम संस्थान दिल्ली में फैले हुए हैं।
दिल्ली विश्वविद्यालय की स्थापना १९२२ में ब्रिटिश भारत के तत्कालीन केंद्रीय विधान सभा के एक अधिनियम द्वारा एकात्मक, शिक्षण और आवासीय विश्वविद्यालय के रूप में की गई थी। हरि सिंह गौर ने १९२२ से १९२६ तक विश्वविद्यालय के पहले कुलपति के रूप में कार्य किया। उस समय दिल्ली में चार कॉलेज मौजूद थे: सेंट स्टीफन कॉलेज की स्थापना १८१८ में, हिंदू कॉलेज की स्थापना १८९९ में, ज़ाकिर हुसैन दिल्ली कॉलेज (तब दिल्ली कॉलेज के रूप में जाना जाता था), १७९२ में स्थापित और रामजस कॉलेज की स्थापना १९१७ में हुई, जिनको बाद में मान्यता विश्वविद्यालय ने प्रदान की। विश्वविद्यालय में शुरू में दो संकाय (कला और विज्ञान) और लगभग ७५० छात्र थे।
ब्रिटिश भारत में राजधानी १९११ में कलकत्ता से दिल्ली स्थानांतरित कर दी गई थी। विकराल लॉज एस्टेट अक्टूबर १९३३ तक भारत के वायसराय का निवास स्थान बन गया, जब इसे दिल्ली विश्वविद्यालय को दिया गया। तब से, इसमें कुलपति और अन्य कार्यालयों के कार्यालय को रखा है।
जब १९३७ में सर मौरिस गौएर ब्रिटिश भारत के मुख्य न्यायाधीश के रूप में सेवा देने के लिए भारत आए, तो वे दिल्ली विश्वविद्यालय के कुलपति बने। उनके समय के दौरान, स्नातकोत्तर शिक्षण पाठ्यक्रम शुरू किए गए थे और प्रयोगशालाएं विश्वविद्यालय में स्थापित की गई। संकाय के सदस्यों में फिजिक्स में दौलत सिंह कोठारी और बॉटनी में पंचानन माहेश्वरी शामिल थे। गौएर को "विश्वविद्यालय का निर्माता" कहा जाता है। उन्होंने १९५० तक कुलपति के रूप में कार्य किया।
१९४७ में विश्वविद्यालय का रजत जयंती वर्ष भारत की स्वतंत्रता के साथ मेल खाता था और विजयेंद्र कस्तूरी रंगा वरदराजा राव द्वारा पहली बार मुख्य भवन में राष्ट्रीय ध्वज फहराया गया था। उस वर्ष भारत के विभाजन के कारण कोई दीक्षांत समारोह नहीं हुआ था। इसके बजाय एक विशेष समारोह १९४८ में आयोजित किया गया था, जिसमें भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री जवाहरलाल नेहरू, साथ ही लॉर्ड माउंटबेटन, लेडी माउंटबेटन, अबुल कलाम आज़ाद, ज़ाकिर हुसैन और शांति स्वरूप भटनागर ने भाग लिया। पच्चीस साल बाद १९७३ की स्वर्ण जयंती समारोह में भारत की तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी, सत्यजीत रे, अमृता प्रीतम और एम. एस. सुब्बुलक्ष्मी ने भाग लिया।
दिल्ली विश्वविद्यालय में वर्तमान में, १६ संकाय, ८६ शैक्षणिक विभाग, ७७ कॉलेज और ५ अन्य मान्यता प्राप्त संस्थान शहर में फैले हुए हैं, जिसमें १,३२,४३५ नियमित छात्र (१,१४,४९४ स्नातक और १७,९४१ स्नातकोत्तर) हैं। गैर-औपचारिक शिक्षा कार्यक्रमों में २,६१,१६९ छात्र (२,५८,८३१ स्नातक और २,३३८ स्नातकोत्तर) हैं। डीयू के केमिस्ट्री, जियोलॉजी, जूलॉजी, सोशियोलॉजी और हिस्ट्री डिपार्टमेंट्स को उन्नत अध्ययन का केंद्र का दर्जा दिया गया है। उन्नत अध्ययन के इन केंद्रों ने अपने क्षेत्रों में शिक्षण और अनुसंधान के क्षेत्र में उत्कृष्टता के केंद्र के रूप में खुद के लिए एक जगह बना ली है। इसके अलावा, विश्वविद्यालय के कई विभागों को उनके उत्कृष्ट शैक्षणिक कार्यों की मान्यता में विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के विशेष सहायता कार्यक्रम के तहत अनुदान भी प्राप्त हो रहा है।
भारत में उच्च शिक्षा संस्थानों के बाद डीयू सबसे अधिक मांग वाली संस्थाओं में से एक है। भारतीय विश्वविद्यालयों में इसका प्रकाशन सबसे अधिक है।
विश्वविद्यालय के वार्षिक मानद डिग्री समारोह में कई प्रतिष्ठित लोगों को सम्मानित किया गया है, जिसमें फिल्म अभिनेता अमिताभ बच्चन, दिल्ली की पूर्व मुख्यमंत्री शीला दीक्षित, कार्टूनिस्ट आरके लक्ष्मण, केमिस्ट सी.एन.आर राव और यूनाइटेड किंगडम के पूर्व प्रधानमंत्री भूरा गॉर्डन शामिल हैं ।
दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रमुख महाविद्यालय
संबद्ध / घटक / मान्यता प्राप्त महाविद्यालय:
पाठ्यक्रम और महाविद्यालय
यू .जी. डिप्लोमा
सेंट स्टीफेंस कॉलेज
श्रीराम कॉलेज ऑफ कॉमर्स
स्वामी श्रद्धानन्द कॉलेज
आचार्य नरेंद्र देव महाविद्यालय
अहिल्या बाई नर्सिंग महाविद्यालय
अमर ज्योति इंस्टिट्यूट ऑफ़ फिजियोथेरेपी
आत्मा राम सनातन धर्म महाविद्यालय
आयुर्वेदिक एवं यूनानी टिबिया महाविद्यालय
भगिनी निवेदिता महाविद्यालय
भास्कराचार्य कॉलेज ऑफ़ एप्लाइड साइंस
भीम राव आंबेडकर महाविद्यालय
चाचा नेहरू बाल चिकित्सालय
कॉलेज ऑफ़ आर्ट्स
कॉलेज ऑफ़ नर्सिंग एट आर्मी हस्पताल (आर एंड आर)
कॉलेज ऑफ़ वोकेशनल स्टडीज
दीन दयाल उपाध्याय महाविद्यालय
दिल्ली कॉलेज ऑफ़ आर्ट्स एंड कॉमर्स
दिल्ली इंस्टिट्यूट ऑफ़ फार्मसूटिकल साइंस एंड रिसर्च
दुर्गा बाई देशमुख कॉलेज ऑफ़ स्पेशल एजुकेशन
दयाल सिंह महाविद्यालय
दयाल सिंह महाविद्यालय (इवनिंग)
होली फैमिली कॉलेज ऑफ़ नर्सिंग
इंदिरा गाँधी इंस्टिट्यूट ऑफ़ फिजिकल एजुकेशन एंड स्पोर्ट्स साइंसेज
इंद्रप्रस्थ महिला महाविद्यालय
इंस्टिट्यूट ऑफ़ होम इकोनॉमिक्स
जानकी देवी मेमोरियल कॉलेज
जीसस एंड मैरी कॉलेज
कमला नेहरू कॉलेज
लेडी हार्डिंग मेडिकल कॉलेज
लेडी इरविन कॉलेज
लेडी श्री राम कॉलेज
लक्ष्मी बाई कॉलेज
महाराजा अग्रसेन कॉलेज
महर्षि वाल्मीकि कॉलेज ऑफ एजुकेशन
माता सुंदरी कॉलेज
मौलाना आजाद इंस्टीट्यूट ऑफ डेंटल साइंसेज
मौलाना आजाद मेडिकल कॉलेज
मोती लाल नेहरू कॉलेज
मोती लाल नेहरू कॉलेज (शाम)
नेहरू होम्योपैथिक मेडिकल कॉलेज एंड हॉस्पिटल
नेताजी सुभाष इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी
पं। दीनदयाल उपाध्याय संस्थान (शारीरिक रूप से विकलांगों के)
राजकुमारी अमृत कौर कॉलेज ऑफ नर्सिंग
राम लाल आनंद कॉलेज
सत्यवती कॉलेज (शाम)
ओपन लर्निंग स्कूल (पूर्व में स्कूल ऑफ कॉरस्पोन्डेंस एंड कॉन्टिन्यूइंग एजुकेशन)
स्कूल ऑफ़ रिहैबिलिटेशन साइंसेज
शहीद भगत सिंह कॉलेज
शहीद भगत सिंह कॉलेज(शाम)
शहीद राजगुरु कॉलेज ऑफ एप्लाइड साइंसेज फॉर विमेन
शहीद सुखदेव कॉलेज ऑफ बिजनेस स्टडीज़
श्याम लाल कॉलेज
श्याम लाल कॉलेज (शाम)
श्यामा प्रसाद मुखर्जी कॉलेज
श्री अरबिंदो कॉलेज
श्री अरबिंदो कॉलेज (शाम)
श्री गुरु गोबिंद सिंह कॉलेज ऑफ कॉमर्स
श्री गुरु नानक देव खालसा कॉलेज
श्री गुरु तेग बहादुर खालसा कॉलेज
श्री वेंकटेश्वर कॉलेज
यूनिवर्सिटी कॉलेज ऑफ मेडिकल साइंसेज
वल्लभभाई पटेल चेस्ट इंस्टीट्यूट
जाकिर हुसैन दिल्ली कॉलेज
जाकिर हुसैन पोस्ट ग्रेजुएट शाम कॉलेज
राष्ट्रीय स्वास्थ्य और परिवार कल्याण संस्थान
मानव व्यवहार और सहयोगी विज्ञान संस्थान
ग.ब. पंत अस्पताल
कमला नेहरु कॉलेज
मोतीलाल नेहरू कॉलेज
लेडी श्रीराम कॉलेज
जीसस एंड मेरी कॉलेज
आत्मा राम सनातन धर्म कॉलेज
दयाल सिंह कॉलेज
जाकिर हुसैन दिल्ली कॉलेज
आचार्य नरेन्द्र देव कॉलेज
श्री अरबिंदो कॉलेज
शहीद भगत सिंह कॉलेज
अन्य शिक्षा संस्थान
इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केन्द्र
उत्तरी परिसर, दिल्ली विश्वविद्यालय
दक्षिणी परिसर, दिल्ली विश्वविद्यालय
इंटरनेशनल स्टूडेंटस हाउस
दिल्ली के रिंग मार्ग पर पड़ने वाला एक विश्वविद्यालय चौराहा है, जिसे गुरु तेगबहादुर मार्ग काटता है। यहां दिल्ली मेट्रो रेल की येलो लाइन शाखा का एक विश्वविद्यालय स्टेशन भी है।
इन्हें भी देखें
भारत के विश्वविद्यालय
दिल्ली विश्वविद्यालय का जालस्थल
दिल्ली विश्वविद्यालय का आधिकारिक जालस्थल
सर्वोच्च विश्वविद्यालयों की सूचि
डीयूपीडिया - दिल्ली विश्वविद्यालय के बारे में जानकारी एवं इसके आनलाइन शैक्षिक नोट
दिल्ली मेट्रो ब्लूलाइन
दिल्ली के क्षेत्र
दिल्ली के विश्वविद्यालय
रिंग मार्ग, दिल्ली के चौक |
उदयपुर (उदयपुर) भारत के राजस्थान राज्य के उदयपुर ज़िले में स्थित एक नगर है। यह राजस्थान का एक प्रमुख पर्यटन स्थल है, जो अपने इतिहास, संस्कृति और अपने आकर्षक स्थलों के लिये प्रसिद्ध है। इसे "पूर्व के वेनिस" के नाम से भी जाना जाता है।
उदयपुर में रेबारी, डाँगी, ब्राह्मण, राजपूत , भील , मीणा के साथ अन्य कई जातियाँ निवास करती हैं। उदयपुर का प्रारंभिक इतिहास सिसोदिया राजवंश से जुड़ा है। एक मत के अनुसार सन् १५५८ में महाराणा उदय सिंह - सिसोदिया राजपूत वंश - ने स्थापित किया था। अपनी झीलों के कारण यह शहर झीलों की नगरी के नाम से भी जाना जाता है। उदयपुर शहर सिसोदिया राजवंश द्वारा शासित मेवाड़ की राजधानी रहा है। राजस्थान का यह सुन्दर शहर देश विदेश से आने वाले पर्यटकों के लिए एक सपना सा लगता है। यह शहर ऐतिहासिक और सांस्कृतिक दृष्टि से अनुपम है। किसी समय विलायती प्रशासक जेम्स टोड ने उदयपुर पूरे भारतीय उपमहाद्वीप पर "सबसे रुमानी" शहर कहा था
मेवाड़ की राजधानी उदयपुर की स्थापना १५५९ में महाराणा उदयसिंह ने की। किन्तु तिथि को लेकर इतिहासकारों के अलग-अलम मत हैं। कुछ इतिहासकार हिन्दू कैलेंडर के अनुसार उदयपुर की स्थापना आखातीज के दिन मानते हैं तो कुछ का कहना है कि उदयपुर की स्थापना पंद्रह अप्रैल १५५३ में ही हो गई थी। जिसके प्रमाण उदयपुर(राजस्थान) के मोतीमहल में मिलते हैं। जिसे उदयपुर का पहला महल माना जाता है जो अब खंडहर में तब्दील हो चुका है, जिसकी सुरक्षा मोतीमगरी ट्रस्ट कर रहा है। महाराणा उदय सिंह द्वितीय, जो महाराणा प्रताप के पिता थे, चित्तौडग़ढ़ दुर्ग से मेवाड़ का संचालन करते थे। उस समय चित्तौडग़ढ़ निरन्तर मुगलों के आक्रमण से घिरा हुआ था। इसी दौरान महाराणा उदयसिंह अपने पौत्र अमरसिंह के जन्म के उपलक्ष्य में मेवाड़ के शासक भगवान एकलिंगजी के दर्शन करने कैलाशपुरी आए थे। उन्होंने यहां आयड़ नदी के किनारे शिकार के लिए डेरे डलवाए थे। तब उनके दिमाग में चित्तौडग़ढ़ पर मुगल आतताइयों के आक्रमण को लेकर सुरक्षित जगह राजधानी बनाए जाने का मंथन चल रहा था।
इसी दौरान उन्होंने एक शाम अपने सामंतों के समक्ष उदयपुर नगर बसाने का विचार रखा। जिसका सभी सामंत तथा मंत्रियों ने समर्थन किया। उदयपुर की स्थापना के लिए वह जगह तलाशने पहुंचे तब उन्होंने यहां पहला महल बनवाया, जिसका नाम मोती महल दिया, जो वर्तमान मोती मगरी पर खंडहर के रूप में मौजूद है। जिसको लेकर कई इतिहासकारों का मानना है कि मोतीमहल उदयपुर का पहला महल है और एक तरह से इस के निर्माण के साथ ही उदयपुर नगर की स्थापना शुरू हुई। स्थापना का दिन पंद्रह अप्रेल १५५३ था और उस दिन आखातीज थी।
बाकी इतिहासकार भी यह मानते हैं कि उदयपुर की स्थापना आखातीज के दिन हुई है, लेकिन यह तिथि पंद्रह अप्रैल १५५३ है इसको लेकर कोई शिलालेख या प्रमाण मौजूद नहीं हैं।
इतिहासकारों की मानें तो एक बार महाराणा उदयसिंह मोतीमहल में निवास कर रहे थे, तभी वह शिकार की भावना से खरगोश का पीछा करते हुए उस जगह पहुंचे जहां राजमहल मौजूद हैं। तब उदयुपर में फतहसागर नहीं था और वह एक सहायक नदी के रूप में था। वहां एक योगी साधु धूणी रमाए बैठे थे। साधु जगतगिरी से उनकी मुलाकात हुई और महाराणा के दिल का हाल जानकार साधु ने धूणी की जगह पर राज्य बसाने का सुझाव दिया, जिसे महाराणा ने मान लिया।
यह बात सन १५५९ की थी। जिस पहाड़ी की चोटी पर महल का निर्माण कराया गया, वह समूचे शहर से दिखाई देता है। जहां अलग-अलग काल में महाराणाओं ने राजमहल का निर्माण कराया। बाद में सरदार, राव, उमराव और ठिकानों के लोग भी राजमहल के पास बसाए गए। जिनकी हवेलियां भी राजमहल के इर्द-गिर्द मौजूद हैं। इतिहासकार जोगेंद्र राजपुरोहित बताते हैं कि पंद्रह अप्रेल को इस तरह उदयपुर शहर की स्थापना हुई।
पांच हज़ार साल पुरानी सभ्यता
उदयपुर की स्थापना से पांच हजार साल पहले आयड़ नदी के किनारे सभ्यता मौजूद थी। विभिन्न उत्खनन के स्तरों से पता चलता है कि प्रारंभिक बसावट से लेकर अठारहवीं सदी तक यहां कई बार बस्तियां बसी और उजड़ी। आहड़ के आस-पास तांबे की उपलब्धता के चलते यहां के निवासी इस धातु के उपकरण बनाते थे। इसी की वजह से यह तांबावती नगरी के नाम से जाना जाता था। इसी तरह पिछोली गांव भी महाराणा लाखा (सन १३८२-१४२१ )के काल का है।
जब कुछ बंजारे यहां से गुजर रहे थे। छीतर नाम के बंजारे की बैलगाड़ी नमी वाली जगह धंस गई और वहां पानी का स्रोत जानकर खुदाई की और पिछोला झील का निर्माण हुआ था। तब यहां चारों तरफ पहाड़ी इलाके हुआ करते थे।
८वीं से १६वीं सदी तक बप्पा रावल के वंशजो ने अजेय शासन किया और तभी से यह राज्य मेवाड के नाम से जाना जाता है।
बुद्धि तथा सुन्दरता के लिये विख्यात महारानी पद्मिनी भी यहीं की थी। कहा जाता है कि उनकी एक झलक पाने के लिये सल्तनत दिल्ली के सुल्तान अल्लाउदीन खिलजी ने इस किले पर आक्रमण किया। रानी ने अपने चेहरे की परछाई को लोटस कुण्ड में दिखाया। इसके बाद उसकी इच्छा रानी को ले जाने की हुई। पर यह संभव न हो सका। क्योंकि महारानी सभी रानियों और सभी महिलाओं सहित एक एक कर जलती हुयी आग जिसे विख्यात जौहर के नाम से जानते हैं, में कूद गयी और अल्लाउदीन खिलजी की इच्छा पूरी न हो सकी। मुख्य शासकों में बप्पा रावल (१४३३-६८), राणा सांगा (१५०९-२७) जिनके शरीर पर ८० घाव होने, एक टांग न (अपंग) होने, एक हाथ न होने के बावजूद भी शासन सामान्य रूप से चलाते थे बल्कि बाबर के खिलाफ लडाई में भी भाग लिया। और सबसे प्रमुख महाराणा प्रताप (१५७२-९२) हुए जिन्होने अकबर की अधीनता नहीं स्वीकार की और राजधाने के बिना राज्य किया।
दर्शनीय स्थल (शहर में)
ऐतिहासिक दृष्टि से इस झील के बारे में कहा जाता है कि महाराणा लाखा के काल में इस झील का निर्माण एक बंजारे द्वारा करवाया गया इस झील के बीचों बीच एक नटनी का चबूतरा बना हुआ है महाराणा उदय सिंह द्वितीय ने इस शहर की खोज के बाद इस झील का विस्तार कराया था। झील में दो द्वीप हैं और दोनों पर महल बने हुए हैं। एक है जग निवास, जो अब लेक पैलेस होटल बन चुका है और दूसरा है जग मंदिर। दोनों ही महल राजस्थानी शिल्पकला के बेहतरीन उदाहरण हैं, बोट द्वारा जाकर इन्हें देखा जा सकता है।
जग निवास द्वीप, उदयपुर
पिछोला झील पर बने द्वीप पैलेस में से एक यह महल, जो अब एक सुविधाजनक होटल का रूप ले चुका है। कोर्टयार्ड, कमल के तालाब और आम के पेड़ों की छाँव में बना स्विमिंग-पूल मौज-मस्ती करने वालों के लिए एक आदर्श स्थान है। आप यहाँ आएं और यहाँ रहने तथा खाने का आनंद लें, किंतु आप इसके भीतरी हिस्सों में नहीं जा सकते।
जग मंदिर, उदयपुर
पिछोला झील पर बना एक अन्य द्वीप पैलेस। यह महल महाराजा करण सिंह द्वारा बनवाया गया था, किंतु महाराजा जगत सिंह ने इसका विस्तार कराया। महल से बहुत शानदार दृश्य दिखाई देते हैं, गोल्डन महल की सुंदरता दुर्लभ और भव्य है।
सिटी पैलेस, उदयपुर
प्रसिद्ध और शानदार सिटी पैलेस उदयपुर के जीवन का अभिन्न अंग है। यह राजस्थान का सबसे बड़ा महल है। इस महल का निर्माण शहर के संस्थापक महाराणा उदय सिंह-द्वितीय ने करवाया था। उनके बाद आने वाले राजाओं ने इसमें विस्तार कार्य किए। तो भी इसके निर्माण में आश्चर्यजनक समानताएं हैं। महल में जाने के लिए उत्तरी ओर से बड़ीपोल से और त्रिपोलिया द्वार से प्रवेश किया जा सकता है।
यह एक शिल्पग्राम है जहाँ गोवा, गुजरात, राजस्थान और महाराष्ट्र के पारंपरिक घरों को दिखाया गया है। यहाँ इन राज्यों के शास्त्रीय संगीत और नृत्य भी प्रदर्शित किए जाते हैं।
सज्जनगढ़ (मानसून पैलेस)
उदयपुर शहर के दक्षिण में अरावली पर्वतमाला के एक पहाड़ का निर्माण महाराजा सज्जन सिंह ने करवाया था। यहाँ गर्मियों में भी अच्छी ठंडी हवा चलती है। सज्जनगढ़ से उदयपुर शहर और इसकी झीलों का सुंदर नज़ारा दिखता है। पहाड़ की तलहटी में अभयारण्य है। सायंकाल में यह महल रोशनी से जगमगा उठता है, जो देखने में बहुत सुंदर दिखाई पड़ता है।
महाराणा जय सिंह द्वारा निर्मित यह झील बाढ़ के कारण नष्ट हो गई थी, बाद में महाराणा फतेह सिंह ने इसका पुनर्निर्माण करवाया। झील के बीचों-बीच एक बगीचा नेहरु गार्डन, स्थित है। आप बोट अथवा ऑटो द्वारा झील तक पहुँच सकते हैं।
यहाँ सिसोदिया राजपूत वंश के विश्व प्रसिद्ध महाप्रतापी राजा महाराणा प्रताप की मूर्ति है। मोती मगरी फतेहसागर के पास की पहाड़ी पर स्थित है। मूर्ति तक जाने वाले रास्तों के आसपास सुंदर बगीचे हैं, विशेषकर जापानी रॉक गार्डन दर्शनीय हैं।
बाहुबली हिल्स, उदयपुर
बाहुबली हिल्स उदयपुर से १४ किलोमीटर दूर बड़ी तालाब के समीप की पहाड़ी पर स्थित है ये जगह युवाओ में लोकप्रिय है और उनका पसंदीदा स्थान बन चुकी है।
एकलिंगजी मंदिर राजस्थान के सबसे लोकप्रिय मंदिरों में से एक है और उदयपुर के उत्तर में २२ किमी की दूरी पर स्थित है। एकलिंगजी मंदिर हिंदू धर्म के भगवान शिव को समर्पित है और इसकी शानदार वास्तुकला हर साल यहां कई पर्यटकों को आकर्षित करती है। इसकी ऊंचाई लगभग ५० फीट है और इसके चार चेहरे भगवान शिव के चार रूपों को दर्शाते है। चाँदी के साँप की माला पहना हुआ शिवलिंग एक प्रमुख पर्यटक आकर्षण है।
सहेलियों की बाड़ी
सहेलियों की बाड़ी / दासियों के सम्मान में बना बाग एक सजा-धजा बाग है। इसमें कमल के तालाब, फव्वारे, संगमरमर के हाथी और कियोस्क बने हुए हैं।
दर्शनीय स्थल (आसपास)
नाथद्वारा ४८ किलोमीटर दूर है उदयपुर से
कुंभलगढ ८० किलोमीटर
कांकरोली ७० किलोमीटर
ऋषभदेव यह केसरिया जी के नाम से भी प्रसिद्ध है।
एकलिंगजी १३ किलोमीटर
हल्दीघाटी २६ मील की दूरी पर स्थित
सांवरियाजी का मंदिर ८०किलोमीटर
मेनार ५२ किलोमीटर दूर हैंं उदयपुर से
उदयपुर के सार्वजनिक यातायात के साधन मुख्यतः बस, ऑटोरिक्शा और रेल सेवा हैं।
सबसे नजदीकी हवाई अड्डा उदयपुर हवाई अड्डा है। यह हवाई अड्डा उदयपुर से २० कि॰मी॰ दूर डबोक में है। जयपुर, जोधपुर, औरंगाबाद, दिल्ली तथा मुंबई से यहाँ नियमित उड़ानें उपलब्ध हैं।
यहाँ उदयपुर सिटी रेलवे स्टेशन नामक रेलवे स्टेशन है। यह स्टेशन देश के अन्य शहरों से जुड़ा हुआ है।
यह शहर राष्ट्रीय राजमार्ग संख्या ८ पर स्थित है। यह सड़क मार्ग से जयपुर से ९ घण्टे, दिल्ली से १४ घण्टे तथा मुंबई से १७ घण्टे की दूरी पर स्थित है।
इन्हें भी देखें
मेवाद़ के दर्शनीय स्थल: उदयपुर
राजस्थान के शहर
उदयपुर ज़िले के नगर |
उदगमंडलम (उदगमंडलम), पहले ऊटी (ऊटी) के नाम से जाना जाता था, भारत के तमिल नाडु राज्य के नीलगिरि जिले में स्थित एक नगर है। कर्नाटक और तमिलनाडु की सीमा के समीप बसा यह शहर मुख्य रूप से एक हिल स्टेशन के रूप में जाना जाता है। कोयंबतूर यहाँ का निकटतम हवाई अड्डा है। सड़को द्वारा यह तमिलनाडु और कर्नाटक के अन्य हिस्सों से अच्छी तरह जुड़ा है परंतु यहाँ आने के लिये कन्नूर से रेलगाड़ी या ट्वाय ट्रेन किया जाता है। ऊटी समुद्र तल से लगभग ७४४० फीट (२२६८ मीटर) की ऊँचाई पर स्थित है।
नीलगिरि चेर साम्राज्य का भाग हुआ करते थे। फिर वे गंगा साम्राज्य के हाथों में चले गये और फिर १२वीं शताब्दी में होयसल साम्राज्य के राजा विष्णुवर्धन के राज्य में आ गये। उस के बाद नीलगिरि मैसूर राज्य का हिस्सा बन गये जिस के टीपू सुलतान ने उन्हें १८वीं शताब्दी में अंग्रेजों के हवाले कर दिया।
पड़ोसी कोयम्बटूर जिले के गवर्नर, जॉन सुलिवान को यहाँ की आबो-हवा बहुत पसंद आने लगी और उसने स्थानीय जातियों (टोडा, इरुंबा और बदागा) से जमीन खरीदनी शुरु कर दी। नीलगिरि पर सातवाहन, गंगास, कदंब, राष्ट्रकूट, होयसला, विजयनगर साम्राज्य और उम्मतूर के राजाओं (मैसूरु के वोड्यार ) जैसे विभिन्न राजवंशों का शासन था। टीपू सुल्तान ने अठारहवीं शताब्दी में नीलगिरी पर कब्जा कर लिया और एक छिपी हुई गुफा जैसी संरचना का निर्माण कर सीमा का विस्तार किया।
उदगमंडलम में कोपेन जलवायु वर्गीकरण के तहत एक उपोष्णकटिबंधीय उच्चभूमि जलवायु है। उष्णकटिबंधीय में इसके स्थान के बावजूद, अधिकांश दक्षिण भारत के विपरीत, ऊटी में आम तौर पर पूरे वर्ष हल्का वातावरण होता हैं। हालांकि, जनवरी और फरवरी के महीनों में रात का समय आमतौर पर ठंडा होता है। आम तौर पर, शहर में वसंत के मौसम बना रहता है।
नीलगिरि या नीले पर्वतों की पर्वतमाला में बसा हुआ उदगमंडलम प्रति वर्ष बड़ी संख्या में पर्यटको को आकर्षित करता है। सर्दियों के अलावा यहाँ साल भर मौसम सुहाना ही बना रहता है। सर्दी के समय तापमान शून्य डिग्री सेल्सियस से नीचे चला जाता है। पर आज ये शहर अधिकाधिक औद्योगिकीकरण और पर्यावरण संबंधी समस्याओं से जूझ रहा है।
घनी वनस्पति, चाय के बागान और नीलगिरि के पेड़ यहाँ के पहाड़ों की विशेषता है। यहाँ कि प्राकृतिक सुंदरता बनाये रखने के लिये पहाड़ों के कई हिस्सों को आरक्षित वन का दर्जा प्रदान किया गया है। इस कारण से शिविर क्षेत्र से बाहर शिविर लगाने के लिये खास अनुमति लेनी पड़ती है। ऊटी एक बिंदू की तरह पर्यटकों को आकर्षित करता है और फिर वे आसपास भी भ्रमण करते हैं।
इन्ही पहाड़ो में दूसरे छोटे शहर जैसे कुन्नूर और कोटागिरी भी हैं। ये शहर उदगमंडलम से सिर्फ कुछ ही घंटों की दूरी पर हैं और इन का मौसम भी उदगमंडलम जैसा ही है पर यहाँ कम पर्यटक है और दाम भी सस्ते हैं।
उदगमंडलम जिला मुख्यालय भी है। ऐसे तो यहाँ की स्थानीय अर्थव्यवस्था पर्यटन पर ही टिकी है, उदगमंडलम आसपास के शहरों के लिये भी बाजार का काम करता है। अर्थव्यवस्था मूलतः कृषि पर निर्भर है। ठंडे मौसम की वजह से यहाँ "अंग्रेजी सब्जियाँ" जैसे आलू, गाजर और गोभी उगाई जाती हैं। उदगमंडलम म्यूनिसिपल बाजार में रोजाना इन सब्जियों की नीलामी होती है।
इस वनस्पति उद्यान की स्थापना १८४७ में की गई थी। २२ हेक्टेयर में फैले इस खूबसूरत बाग की देखरेख बागवानी विभाग करता है। यहाँ एक पेड़ के जीवाश्म संभाल कर रखे गए हैं जिसके बारे में माना जाता है कि यह २ करोड़ वर्ष पुराना है। इसके अलावा यहाँ पेड़-पौधों की ६५० से ज्यादा प्रजातियाँ देखने को मिलती है। प्रकृति प्रेमियों के बीच यह उद्यान बहुत लोकप्रिय है। मई के महीने में यहाँ ग्रीष्मोत्सव मनाया जाता है। इस महोत्सव में फूलों की प्रदर्शनी और सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं जिसमें स्थानीय प्रसिद्ध कलाकार भाग लेते हैं।
इस झील का निर्माण यहाँ के पहले कलेक्टर जॉन सुविलिअन ने १८२५ में करवाया था। यह झील २.५ किलोमीटर लंबी है। यहाँ आने वाले पर्यटक बोटिंग और मछली पकड़ने का आनंद ले सकते हैं। मछलियों के लिए चारा खरीदने से पहले आपके पास मछली पकड़ने की अनुमति होनी चाहिए। यहाँ एक बगीचा और जेट्टी भी है। इन्हीं विशेषताओं के कारण प्रतिवर्ष 1२ लाख दर्शक यहाँ आते हैं।
बोटिंग का समय: सुबह ८ बजे-शाम ६ बजे तक
यह चोटी समुद्र तल से २६२३ मीटर ऊपर है। यह जिले की सबसे ऊँची चोटी मानी जाती है। यह चोटी उदगमंडलम से केवल १० किलोमीटर दूर है इसलिए यहाँ आसानी से पहुँचा जा सकता है। यहाँ से घाटी का नजारा अदभूत दिखाई पड़ता है। लोगों का कहना है कि जब मौसम साफ होता है तब यहाँ से दूर के इलाके भी दिखाई देते हैं जिनमें कायंबटूर के मैदानी इलाके भी शामिल हैं।
आसपास दर्शनीय स्थल
मदुमलाई वन्यजीव अभयारण्य
यह वन्यजीव अभयारण्य उदगमंडलम से ६७ किलोमीटर दूर है। यहाँ पर वनस्पति और जंतुओं की कुछ दुर्लभ प्रजातियाँ पाई जाती हैं और कई लुप्तप्राय: जानवरों भी यहाँ पाए जाते है। हाथी, सांभर, चीतल, हिरन आसानी से देखे जा सकते हैं। जानवरों के अलावा यहाँ रंगबिरंगे पक्षी भी उड़ते हुए दिखाई देते हैं। अभयारण्य में ही बना थेप्पाक्कडु हाथी कैंप बच्चों को बहुत लुभाता है।
यह पर्वतीय स्थान उदगमंडलम से २८ किलोमीटर पूर्व में स्थित है। नीलगिरि के तीन हिल स्टेशनों में से यह सबसे पुराना है। यह उदगमंडलम और कुन्नूर के समान प्रसिद्ध नहीं है। लेकिन यह माना जाता है कि इन दोनों की अपेक्षा कोटागिरी का मौसम ज्यादा सुहावना होता है। यहाँ बहुत ही सुंदर हिल रिजॉर्ट है जहाँ चाय के बहुत खूबसूरत बागान हैं। हिल स्टेशन की सभी खूबियाँ यहाँ मौजूद लगती हैं। यहाँ की यात्रा आपको निराश नहीं करेगी।
कलपट्टी के किनारे स्थित यह झरना १०० फीट ऊँचा है। यह जलप्रपात ऊटी से केवल १३ किलोमीटर की दूरी पर है इसलिए ऊटी आने वाले पर्यटक यहाँ की सुंदरता को देखने भी आते हैं। झरने के अलावा कलहट्टी-मसिनागुडी की ढलानों पर जानवरों की अनेक प्रजातियाँ भी देखी जा सकती हैं जिसमें चीते, सांभर और जंगली भैसा शामिल हैं।
निकटतम हवाई अड्डा कोयंबटूर है।
शहर में उदगमंडलम रेलवे स्टेशन है। मुख्य जंक्शन कोयंबटूर है।
राज्य राजमार्ग १७ से मड्डुर और मैसूर होते हुए बांदीपुर पहुँचा जा सकता है। यह आपको मदुमलाई रिजर्व तक पहुँचा देगा। यहाँ से उदगमंडलम की दूरी केवल ६७ किलोमीटर है।
उदगमंडलम में कई चाइनीज रेस्टोरेंट हैं लेकिन सबसे मशहूर है नीलगिरि पुस्तकालय के पास स्थित "शिंकोज"। कमर्शियल रोड पर बने कुरिंजी में दक्षिण भारतीय भोजन मिलता है।
उदगमंडलम चाय, हाथ से बनी चॉकलेट, खुशबूदार तेल और मसालों के लिए प्रसिद्ध है। कमर्शियल रोड पर हाथ से बनी चॉकलेट कई तरह के स्वादों में मिल जाएगी। यहाँ हर दूसरी दुकान पर यह चॉकलेट मिलती है। हॉस्पिटल रोड की किंग स्टार कंफेक्शनरी इसके लिए बहुत प्रसिद्ध है। कमर्शियल रोड की बिग शॉप से विभिन्न आकार और डिजाइन के गहने खरीदे जा सकते हैं। यहाँ के कारीगर पारंपरिक तोडा शैली के चाँदी के गहनों को सोने में बना देते हैं। तमिलनाडु सरकार के हस्तशिल्प केंद्र पुंपुहार में बड़ी संख्या में लोग हस्तशिल्प से बने सामान की खरीदारी करने आते हैं।
इन्हें भी देखें
उदगमंडलम के पर्यटन स्थल
तमिल नाडु के शहर
नीलगिरि ज़िले के नगर
तमिल नाडु में पर्यटन आकर्षण
तमिल नाडु में हिल स्टेशन |
भागलपुर बिहार प्रान्त का एक शहर है। गंगा के तट पर बसा यह एक अत्यंत प्राचीन शहर है। पुराणों में और महाभारत में इस क्षेत्र को अंग प्रदेश का हिस्सा माना गया है। भागलपुर के निकट स्थित चम्पानगर महान पराक्रमी शूरवीर कर्ण की राजधानी मानी जाती रही है। यह बिहार के मैदानी क्षेत्र का आखिरी सिरा और झारखंड और बिहार के कैमूर की पहाड़ी का मिलन स्थल है। भागलपुर सिल्क के व्यापार के लिये विश्वविख्यात रहा है, तसर सिल्क का उत्पादन अभी भी यहां के कई परिवारों के रोजी रोटी का श्रोत है। वर्तमान समय में भागलपुर हिन्दू मुसलमान दंगों और अपराध की वजह से सुर्खियों में रहा है। यहाँ एक हवाई अड्डा भी है जो अभी चालू नहीं है। यहाँ का निकटतम हवाई अड्डा गया और पटना है। रेल और सड़क मार्ग से भी यह शहर अच्छी तरह जुड़ा है।
प्राचीन काल के तीन प्रमुख विश्वविद्यालयों यथा तक्षशिला, नालन्दा और विक्रमशिला में से एक विश्वविद्यालय भागलपुर में ही था जिसे हम विक्रमशिला के नाम से जानते हैं। पुराणों में वर्णित समुद्र मंथन में प्रयुक्त मथान अर्थात मंदराचल तथा मथानी में लपेटने के लिए जो रस्सा प्रयोग किया गया था वह दोनों ही उपकरण यहाँ विद्यमान हैं और आज इनका नाम तीर्थस्थलों के रूप में है ये हैं बासुकीनाथ और मंदार पर्वत।
पवित्र् गंगा नदी को जाह्नवी के नाम से भी जाना जाता है। जिस स्थान पर गंगा को यह नाम दिया गया उसे अजगैवी नाथ कहा जाता है यह तीर्थ भी भागलपुर में ही है।
बीते समय में भागलपुर भारत के दस बेहतरीन शहरों में से एक था। आज का भागलपुर सिल्क नगरी के रूप में भी जाना जाता है। इसका इतिहास काफी पुराना है। भागलपुर को (ईसा पूर्व ५वीं सदी) चंपावती के नाम से जाना जाता था। यह वह काल था जब गंगा के मैदानी क्षेत्रों में भारतीय सम्राटों का वर्चस्व बढ़ता जा रहा था। अंग १६ महाजनपदों में से एक था जिसकी राजधानी चंपावती थी। अंग महाजनपद को पुराने समय में मलिनी, चम्पापुरी, चम्पा मलिनी, कला मलिनी आदि आदि के नाम से जाना जाता था।
अथर्ववेद में अंग महाजनपद को अपवित्र माना जाता है, जबकि कर्ण पर्व में अंग को एक ऐसे प्रदेश के रूप में जाना जाता था जहां पत्नी और बच्चों को बेचा जाता है। वहीं दूसरी ओर महाभारत में अंग (चम्पा) को एक तीर्थस्थल के रूप में पेश किया गया है। इस ग्रंथ के अनुसार अंग राजवंश का संस्थापक राजकुमार अंग थे। जबकि रामयाण के अनुसार यह वह स्थान है जहां कामदेव ने अपने अंग को काटा था।
शुरुआत से ही अपने गौरवशाली इतिहास का बखान करने वाला भागलपुर आज कई बड़ों शहरों में से एक है तथा अब तो उसने अपना नाम समार्ट सिटी में भी दाखिल कर लिया है।
आज का साहेबगंज जिला,पाकुड़ जिला,दुमका जिला,गोड्डा जिला,देवघर जिला,जामताड़ा जिला( १५ नवम्बर २००० ई॰ से ये सभी जिले अब झारखण्ड राज्य में है।) कभी भागलपुर जिला के सभ-डिवीज़न थे।जबकी देवघर जिला और जामताड़ा जिला बिहार के भागलपुर जिला और पश्चिम बंगाल के बिरभूम जिला से शेयर किए जाते थे।मुंगेर जिला(संयुक्त मुंगेर)और बाँका जिला भी पहले भागलपुर जिला में ही थे।ये दोनों ही जिले अब बिहार राज्य में हैं।
पुराणों के अनुसार भागलपुर का पौराणिक नाम भगदतपुरम् था जिसका अर्थ है वैसा जगह जो की भाग्यशाली हो।आज का भागलपुर जिला बिहार में पटना जिला के बाद दुसरे विकसित जिला के स्थान पर है तथा आस-पास के जिलों का मुख्य शहर भी भागलपुर जिला हीं है।यहाँ के लोग अंगिका भाषा का मुख्य रूप से इस्तमाल करते हैं तथा यहाँ के लोग अक्सर रुपया को टका(जो की बंगलादेश की मुद्रा है)कहकर संबोधित करते है।
भागलपुर नगर के कुछ मुहल्लों के नाम की हकीकत
मोजाहिदपुर इसका नाम १५७६ ई बादशाह अकबर के एक मुलाज़िम मोजाहिद के नाम पर नामित हुआ था /
सिकंदर पुर बंगाल के सुल्तान सिकंदर के नाम पर यह मुहल्ला बसा ।
ततारपुर अकबर काल मे एक कर्मचारी तातार खान के नाम पर इस मुहल्ले का नाम रखा गया ।
काजवली चक यह मुहल्ला शाहजहाँ काल के मशहूर काज़ी काजी काजवली के नाम पर पड़ा । उनकी मज़ार भी इसी मुहल्ले मे है ।
कबीरपुर अकबर के शासन काल मे फकीर शाह कबीर के नाम पर पड़ा ,उनकी कब्र भी इसी मुहल्ले मे है ।
नरगा इसका पुराना नाम नौगजा था यानी एक बड़ी कब्र ।कहते हैं कि खिलजी काल मे हुये युद्ध के शहीदो को एक ही बड़े कब्र मे दफ़्नाया गया था । कालांतर नौ गजा नरगा के नाम से पुकारा जाने लगा ।
मंदरोजा इस मुहल्ले का नाम मंदरोजा इस लिए पड़ा क्योंकि यहाँ शाह मदार का रोज़ा (मज़ार ) था जिसे बाद मे मदरोजा के नाम से जाना जाने ल्लगा ।
मंसूर गंज कहते हैं कि अकबर के कार्यकाल मे शाह मंसूर की कटी उँगलियाँ जो युद्ध मे कटी थी , यहाँ दफनाई गई थी ,इस लिए इसका नाम मंसूरगंज हो गया ।
आदमपुर और खंजरपुर अकबर के समय के दो भाई आदम बेग और खंजर बेग के नाम पर ये दोनों मुहल्ले रखे गए थे ।
मशाकचक अकबर के काल के मशाक बेग एक पहुंचे महात्मा थे ,उनका मज़ार भी यही है इस लिए इस मुहल्ले का नाम मशाक चक पड़ा ।
हुसेना बाद,हुसैन गंज और मुगलपुरा यह जहांगीर के समय बंगाल के गवर्नर इब्राहिम हुसैन के परिवार की जागीर थी ,उसी लिए उनके नाम पर ये मुहल्ले बस गए ।
बरहपुरा सुल्तानपुर के १२ परिवार एक साथ आकर इस मुहल्ले मे बस गए थे ,इस लिए इसे बरहपुरा के नाम से जाना जाने लगा ।
फ़तेहपुर १५७६ ई मे शाहँशाह अकबर और दाऊद खान के बीच हुई लड़ाई मे अकबर की सेना को फ़तह मिली थी ,इस लिए इसका नाम फ़तेहपुर रख दिया गया था /
सराय यहाँ मुगल काल मे सरकारी कर्मचारिओ और आम रिआया के ठहरने का था ,इसी लिए इसे सराय नाम मिला । /
सूजा गंज यह मुहल्ला औरंगजेव के भाई शाह सूजा के नाम पर पड़ा है । यहाँ शाह सुजा की लड़की का मज़ार भी है
उर्दू बाज़ार उर्दू का अर्थ सेना होता है । इसी के नजदीक रकाबगंज है रेकाब का मानी घोड़सवार ऐसा बताया जाता है कि उर्दू बाज़ार और रेकाबगंज का क्षेत्र मुगल सेना के लिए सुरक्षित था ।
हुसेनपुर इस मुहल्ले को दमडिया बाबा ने अपने महरूम पिता मखदूम सैयद हुसैन के नाम पर बसाया था ।
मुंदीचक अकबर काल के ख्वाजा सैयद मोईनउद्दीन बलखी के नाम पर मोइनूद्दीनचक बसा था जो कालांतर मे मुंदीचक कहलाने लगा ।
खलीफाबाग- जमालउल्लाह एक विद्वान थे जो यहाँ रहते थे ,उन्हे खलीफा कह कर संबोधित किया जाता था । जहां वे रहते थे ,उस जगह को बागे खलीफा यानि खलीफा का बाग कहते थे । उनका मज़ार भी यहाँ है ।इस लिए यह जगह खलीफाबाग के नाम से जाना जाने लगा ।
आसानन्दपुर यह भागलपुर स्टेशन से नाथनगर जाने के रास्ते मे हैं शाह शुजा के काल मे सैयद मुर्तजा शाह आनंद वार्शा के नाम पर यह मुहल्ला असानंदपुर पड़ गया ।
यह पहाड़ी भागलपुर से ४८ किलोमीटर की दूरी पर है, जो अब बांका जिले में स्थित है। इसकी ऊंचाई ८०० फीट है। इसके संबंध में कहा जाता है कि इसका प्रयोग सागर मंथन में किया गया था। किंवदंतियों के अनुसार इस पहाड़ी के चारों ओर अभी भी शेषनाग के चिन्ह को देखा जा सकता है, जिसको इसके चारों ओर बांधकर समुद्र मंथन किया गया था। कालिदास के कुमारसंभवम में पहाड़ी पर भगवान विष्णु के पदचिन्हों के बारे में बताया गया है। इस पहाड़ी पर हिन्दू देवी देवताओं का मंदिर भी स्थित है। यह भी माना जाता है कि जैन के १२वें तिर्थंकर ने इसी पहाड़ी पर निर्वाण को प्राप्त किया था। लेकिन मंदार पर्वत की सबसे बड़ी विशेषता इसकी चोटी पर स्थित झील है। इसको देखने के लिए दूर-दूर से पर्यटक आते हैं। पहाड़ी के ठीक नीचे एक पापहरनी तलाब है, इस तलाब के बीच में एक विश्नु मन्दिर इस द्रिश्य को रोमान्चक बानाता है। यहाँ जाने के लिये भागलपुर से बस और रेल कि सुविधा उप्लब्ध है।
विश्व प्रसिद्ध विक्रमशिला विश्वविद्यालय भागलपुर से ३८ किलोमीटर दूर अन्तीचक गांव के पास है। विक्रमशिला विश्वविद्यालय नालन्दा के समकक्ष माना जाता था। इसका निर्माण पाल वंश के शासक धर्मपाल (७७०-८१० ईसा ) ने करवाया था। धर्मपाल ने यहां की दो चीजों से प्रभावित होकर इसका निर्माण कराया था। पहला, यह एक लोकप्रिय तांत्रिक केंद्र था जो कोसी और गंगा नदी से घिरा हुआ था। यहां मां काली और भगवान शिव का मंदिर भी स्थित है। दूसरा, यह स्थान उत्तरवाहिनी गंगा के समीप होने के कारण भी श्रद्धालुओं के आकर्षण का केंद्र बना रहता है। एक शब्दों में कहा जाए तो यह एक प्रसिद्ध तीर्थस्थान था।
कहलगांव भागलपुर से ३२ किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। यहां तीन छोटे-छोटे टापू हैं। कहा जाता है कि जाह्नु ऋषि के तप में गंगा की तीव्र धारा से यहीं पर व्यवधान पड़ा था। इससे क्रोधित होकर ऋषि ने गंगा को पी लिया। बाद में राजा भागीरथ के प्रार्थना के उपरांत उन्होंने गंगा को अपनी जांघ से निकाला। तत्पश्चात गंगा का नाम जाह्नवी कहलाया। बाद से गंगा की धाराएं बदल गई और यह दक्षिण से उत्तर की ओर गमन करने लगी। एक मात्र पत्थर पर बना हुआ मंदिर भी देखने लायक है। इस प्रकार का मंदिर बिहार में अन्यत्र नहीं है। कहलगांव में डॉल्फीन को भी देखा जा सकता है। यहाँ एन. टी. पी. सी. भी है।
इसके अलावा कुप्पा घाट, विषहरी स्थान, भागलपुर संग्रहालय, मनसा देवी का मंदिर, जैन मन्दिर, चम्पा, विसेशर स्थान, २५किलोमीटर दूर सुल्तानगंज आदि को देखा जा सकता है।
भागलपुर से ४० किमी की दुरी पर स्थित है। यहाँ आने की सुविधा सड़क मार्ग से है। यह भागलपुर से पूर्व -दक्षिण में स्थित है। यहाँ की मुख्य कृषि चावल की खेती होती है।
भागलपुर शहर प्रमुख रेल और सड़क मार्गो से जुड़ा है।
कृषि और खनिज
यह कृषि उत्पादो और वस्त्रो का व्यापार केंद्र है। खाद्यान्न और तिलहन यहाँ पर उगाई जाने वाली प्रमुख फ़सलें है। चीनी मिट्टी, अग्निसह मिट्टी और अभ्रक के भंडार यहाँ पाए जाते हैं। इसके आसपास के क्षेत्र में जलोढ मैदान और दक्षिण में छोटा नागपुर पठार की वनाच्छादित अपरी भूमि है। गंगा और चंदन नदियों द्वारा इस क्षेत्र की सिंचाई होती है। यहाँ एक कृषि विश्वविद्यालय भी है।
उद्योग और व्यापार
प्रदेश उद्योगों में चावल और चीनी की मिलें और ऊनी कपड़ों की बुनाई शामिल है। भागलपुर रेशम के उत्पादन के लिए भी विख्यात है। यहाँ एक रेशम उत्पादन संस्थान और एक कृषि अनुसंधान केंन्द स्थापित किए गए हैं।भागलपुर के सन्हौला के अंतर्गत ग्राम पंचायत (तरार) के दोगच्छी ग्राम में अधिक में आम का उत्पादन किया जाता है।
भागलपुर विश्वविद्यालय यहाँ का प्रमुख शिक्षा केन्द्र हैं। भागलपुर शहर में तिलका मांझी भागलपुर विश्वविद्यालय (१९६०) से संबद्ध तेजनारायण बनैली कॉलेज , मारवाड़ी कॉलेज , भागलपुर इंजिनीयरिंग कॉलज, जे .एल .एन .मेडिकल कॉलेज, ताड़र कॉलेज ताड़र (दोगच्छी के नजदीक स्थित हैं )और अनेक महाविद्यालय है। सबौर में कृषि विश्वविद्यालय भी है। वर्ष २०११ से भागलपुर में इंदिरा गाँधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय का क्षेत्रीय केन्द्र भी खुल गया है। जेल रोड, तिलकामांझी स्थित इग्नू के क्षेत्रीय केन्द्र ने यहाँ कई नए पाठ्यक्रम आरम्भ किये हैं और बांका, मुंगेर और भागलपुर के भीतरी हिस्सों में अपने नए केन्द्रों और प्रोजेक्ट्स के माध्यम से उच्च शिक्षा को सर्वसुलभ बनाने में योगदान दे रहा है। वर्ष २०१४ में यहां सम्पूर्ण कम्पयूटर शिक्षा के लिये मानव भारती एजुकेशन मिशन तथा लाल बहादुर शास्त्री ट्रेनिंग संस्थान खुल गया है। विक्रमशीला विश्वविद्यालय (कहलगोन)को जीवीत करने का काम चालू है।
२००१ की जनगणना के अनुसार भागलपुर शहर कुल जनंसख्या ३,४०,३49 है।
अशोक कुमार (अभिनेता)
भागलपुर रेल और सड़क मार्ग दोनों से अच्छी तरह से जुड़ा हुआ है। यह शहर पटना से कोई २२० किलोमीटर तथा कोलकाता से ४१० किलोमीटर दूर स्थित है।
भागलपुर के लिए राजधानी पटना से सीधी ट्रेनें हैं। दिल्ली जाने के लिए विक्रमशिला, ब्रह्मपुत्र एक्सप्रेस, फरक्का एक्सप्रेस, सप्ताहिक एक्सप्रेस, गरीब रथ आदि ट्रेनें जाती हैं। इसके अलावा दिल्ली से पटना पहुंचकर स्थानीय ट्रेन से भागलपुर जाया जा सकता है। कोलकाता से इस शहर के लिए सीधी ट्रेन है। कोलकाता से आने के लिए दिल्ली हावड़ा रूट की ट्रेन लेकर लक्खीसराय स्थित कियूल जंक्शन से भी भागलपुर के लिए ट्रेन ली जा सकती है।
भागलपुर बिहार के अन्य शहरों से सड़क के माध्यम से अच्छी तरह जुड़ा हुआ है। यह राष्ट्रीय राजमार्ग ८० पर स्थित है। विक्रशिला पुल के बन जाने से यह शहर बिहार के उत्तरी राज्यों से सीधा जुड़ गया है। भागलपुर की आंतरिक परिवहन ऑटो रिक्शा, रिक्शा, तांगा, ई-रिक्शा आदि पर निर्भर है। भागलपुर में उल्टापुल के पास बस टर्मिनल स्थित है, जहां से विभिन्न स्थानों के लिए बसें जाती है।जिसे कोयल डिपो के नाम से जानते है।
जयप्रकाश नारायण हवाई अड्डा, पटना उतरकर भागलपुर आया जा सकता है। यह हवाई अड्डा भागलपुर स्टेशन से ५ .८ किलोमीटर दूर है।
भागलपुर का प्रथम ऑनलाइन न्यूज़ पेपर
बिहार के शहर
भागलपुर ज़िले के नगर |
चंपारण बिहार प्रान्त का एक जिला था। अब पूर्वी चंपारण और पश्चिमी चंपारण नाम के दो जिले हैं। भारत और नेपाल की सीमा से लगा यह क्षेत्र स्वाधीनता संग्राम के दौरान काफी सक्रिय रहा है। महात्मा गाँधी ने अपनी मशाल यहीं से अंग्रेजों के खिलाफ नील आंदोलन से जलायी थी। बेतियापश्चिमी चंपारण का जिला मुख्यालय है और मोतिहारी पूर्वी चम्पारण का। चंपारण से ३५ किलोमीटर दूर दक्षिण साहेबगंज-चकिया मार्ग पर लाल छपरा चौक के पास अवस्थित है प्राचीन ऐतिहासिक स्थल केसरिया। यहाँ एक वृहद् बौद्धकालीन स्तूप है जिसे केसरिया स्तूप के नाम से जाना जाता है।
गोपाल सिंह नेपाली
रमेश चन्द्र झा
संजीव के झा
इन्हें भी देखें
भारत के शहर
भारत के प्रान्त
बिहार के भूतपूर्व ज़िले |
इतिहास में कुश्तुन्तुनिया को इस्तांबुल (तुर्की: स्टैंबुल) के नाम से जाना जाता है) देश का सबसे बड़ा शहर और उसकी सांस्कृतिक और आर्थिक केंद्र है।
आबनाईे बासतुरस और उसकी प्राकृतिक बंदरगाह शाखा मुहाना (तुर्की: हाली) के किनारे स्थित तुर्की का उत्तर पश्चिमी शहर बासतुरस एक ओर यूरोप क्षेत्र थरेस और दूसरी ओर एशिया के क्षेत्र आना्ऑलियह तक फैला हुआ है इस तरह वह दुनिया का एकमात्र शहर है जो दो महाद्वीपों में स्थित है। इस्तांबुल तारीख़े आलम का एकमात्र शहर जो तीन महान सटिनतों की राजधानी रहा है जिनमें ३३० ई. से ३९५ ई। तक रोमन साम्राज्य, ३९५ ए से १४५३ ई. तक बीजान्टिन साम्राज्य और १४५३ ई. से १९२३ ई। तक राज्य इतमानिया शामिल हैं। १९२३ ई. में तुर्की गणराज्य की स्थापना के बाद राजधानी अंकारा कर दिया गया।
२००० की जनगणना के अनुसार शहर की आबादी ८८ लाख ३ हजार ४६८ ए और कल शहरी क्षेत्र की आबादी एक करोड़ १८ हजार ७३५ है इस तरह इस्तांबुल यूरोप का दूसरा सबसे बड़ा शहर है। शहर को २०१० के लिए पैक्स, हंगरी और आसन, जर्मनी के साथ यूरोप की सांस्कृतिक राजधानी घोषित किया गया है।
इतिहास में शहर ने निवासियों की संस्कृति, भाषा और धर्म के आधार पर कई नाम बदले जिनमें से बाज़नटियम, कस्न्निया और इस्तांबुल भी जाने जाते हैं। शहर को "सात पहाड़ियों का शहर" कहा जाता है क्योंकि शहर का सबसे प्राचीन क्षेत्र सात पहाड़ियों पर बना हुआ है जहां हर पहाड़ी की चोटी पर एक मस्जिद स्थापित है।
बाज़नटियम दरअसल मीगारा के यूनानियों ने ६६७ ईसा पूर्व में स्थित था और अपने राजा बाईज़ास के नाम पर बाज़नटियम का नाम दिया। १९६ ए में सीपटीमेस सियोईरस और पीस्कीनियस नाईेजर के बीच युद्ध में शहर का म्षासरह किया गया और उसे भारी नुकसान पहुंचा। जीत के बाद रोमन शासक सीपटीमेस ने बाज़नटियम फिर निर्माण और शहर एक बार फिर खोई हुई महिमा ली।
बीजान्टिन साम्राज्य के शासन
बाज़नटियम के आकर्षक स्थान के कारण ३३० ई। में कस्नटियन प्रधानमंत्री ने कथित तौर पर एक सपने से स्थान की सही पहचान के बाद इस शहर को नोवा रोमा (रूम आधुनिक) या कस्न्निया (अपने नाम की तुलना से) के नाम से दोबारा आबाद किया। नोवा रोमा तो कभी सामान्य उपयोग में नहीं आसका लेकिन कस्न्निया अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त की. शहर १४५३ ई। में राज्य इतमानिया के हाथों जीत तक पूर्वी रोमन साम्राज्य की राजधानी रहा। बीजान्टिन शासनकाल के दौरान चौथी क्रूस युद्ध में सलीबियों ने शहर को बर्बाद करदयाआओर १२६१ ई। में माइकल हशतम पीलयूलोगस की द्वारा कमान नीतियाई सेना ने शहर को फिर से हासिल कर लिया।
रोम और पश्चिमी रोमन साम्राज्य के पतन के बाद शहर का नाम कस्न्निया रख दिया गया और बीजान्टिन साम्राज्य का एकमात्र राजधानी घोषित पाया। यह राज्य यूनानी संस्कृति के अलमबरदार और रोम से अलगाव के बाद यूनानी आरथोडोकस ईसाई का केंद्र बन गई। बाद यहां कई महान गिरजे और चर्च निर्माण हुए जिनमें विश्व का सबसे बड़ा चर्च आयादफया भी शामिल था जिसे सुल्तान मोहम्मद विजेता ने जीत कस्न्निया के बाद मस्जिद में बदल दिया।
इस शहर के जबरदस्त स्थान की वजह से यह कई जबरदस्त म्षासरों के बावजूद जीत नहीं सका जिनमें खिलाफ़त आमोया के दौर के म्षासरे और राज्य इतमानिया के शुरुआती दौर के कई असफल म्षासरे हैं।
राज्य इतमानिया का दौर
२९ मई १४५३ ई को सुल्तान मोहम्मद विजेता ने ५३ दिवसीय म्षासरे के बाद कुस्तुन्तुनिया को जीत लिया। म्षासरे के दौरान उस्मान सेना की तोपों से थीओडोसस समीक्षा की स्थापित दीवारों को भारी नुकसान पहुंचा। इस तरह इस्तांबुल बरोसह और आदरना के बाद राज्य इतमानिया का तीसरा राजधानी बन गया।
तुर्की जीत के बाद अगले सालों में तोप कअपी महल और बाजार की शानदार निर्माण प्रक्रिया में आईं. धार्मिक निर्माण में विजेता मस्जिद और उससे सटे मदरसों और हमाम शामिल थे। उस्मान दौर में शहर विभिन्न धर्मों और संस्कृतियों का केंद्र रहा और मुसलमान, ईसाई और यहूदी सहित विभिन्न धर्मों से संबंध रखने वालों के प्रभाव संख्या यहां बढती रही। सुलैमान प्रधानमंत्री अवैध दूर निर्माण और कला का गहन दौर किया जिसके दौरान विशेषज्ञ पमईरान स्नान पाशा ने शहर में कई महान मस्जिद और इमारतों का निर्माण करवाया ।
१९२३ ई में तुर्की गणराज्य की स्थापना के बाद राजधानी इस्तांबुल से अंकारा कर दिया गया। उस्मान दौर में शहर का नाम कुस्तुन्तुनिया मौजूद रहा जबकि राज्य से बाहर उसे आस्तामबोल के नाम से जाना जाता था लेकिन १९३० में गणतंत्र तुर्की ने इसका नाम बदलकर इस्तांबुल दिया।
गणतंत्र के शुरुआती दौर में अंकारा की तुलना में इस्तांबुल पर अधिक ध्यान नहीं दिया गया लेकिन १९५० और १९६० ई के दशक में इस्तांबुल में काफी बदलाव हुआ। शहर की यूनानी समुदाय १९५५ ई० के तहत तुर्की छोड़कर ग्रीस चले गये। १९५० के दशक में अदनान मेनदरेस की सरकार ने देश विकास के लिए कई काम किए और देश भर में नई सड़कें और कारखाने निर्माण करवाये। इस्तांबुल में आधुनिक विशाल शाहराहीं स्थापित है लेकिन दुर्भाग्य से यह सौदा शहर की प्राचीन इमारतों के बदले में गया और इस्तांबुल कई प्राचीन इमारतें से वंचित हो गया। १९७० ई के दशक में शहर के मजाफ़ात में स्थापित नए कारखानों में नौकरी के उद्देश्य से देश भर से जनता की बहु संख्या इस्तांबुल पहुंची जिसने शहर की आबादी में तेजी से वृद्धि हुई। आबादी में तेजी से वृद्धि के बाद निर्माण क्षेत्र में भी क्रांति आयी और कई उपनगरीय गांवों विस्तार पाते हुए शहर में शामिल हो गए।
इस्तांबुल आबनाईे बासतुरस दक्षिण क्षेत्र में दोनों ओर स्थित है इस तरह वह दो महाद्वीपों में स्थित दुनिया का एकमात्र शहर है। शहर का पश्चिमी हिस्सा यूरोप जबकि पूर्वी भाग एशिया में है। शहरी सीमा एक हजार ५३९ वर्ग किलोमीटर तक है जबकि इस्तांबुल ५ हजार २२० वर्ग किलोमीटर है।
इस्तांबुल उत्तर में अनातोलिया की भूकंप की पट्टी के पास स्थित है जो उत्तरी अनातोलिया से सागर मरमरह तक जाती है।१५०९ ई. में एक बहुत तेज भूकंप आया जिसमें १० हजार लोग मारे गए और१०0 से अधिक मस्जिदों नष्ट हुई। १७६६ ई. में अय्यूब मस्जिद पूरी तरह छिन्न भिन्न हो गई।१८१४ ई के भूकंप में इस्तांबुल के ढके हुए बाजार का अधिकांश हिस्सा तबाह हो गया। अगस्त १९९९ के विनाशकारी भूकंप में १८ हज़ार २००९ में ४१ लोग मारे गए। शहर में गर्मी गर्म और परनम जबकि सर्दियों में बारिश और कभी कभी बर्फ बारी के साथ गंभीर सर्दी पड़ती है। शहर में वार्षिक औसत ८७० मिमी बारिश होती है। सर्दियों के दौरान औसतन तापमान ७ से ९ डिग्री अंक तक रहता है जिसके दौरान बर्फ बारी भी होती रहती है। जून से सितंबर तक गर्मी के दौरान दिन में औसत तापमान २७ डिग्री अंक रहता है। साल का सबसे गर्म महीना जून है जिसमें औसत तापमान २३.२ डिग्री अंक है जबकि साल का ठंडा सबसे महीना जनवरी है जिसका औसत तापमान -४० डिग्री है। शहर में सबसे अधिक तापमान अगस्त२000 में ४५.५ डिग्री रिकार्ड किया गया।
इस्तांबुल के जिलों को तीन मुख्य क्षेत्रों में विभाजित किया गया है: प्राचीन कुस्तुन्तुनिया का ऐतिहासिक द्वीप नुमा आमीनूनो और विजेता के जिलों परमशतमल है। उस्मान दूर के अंत में इस्तांबुल कहलाया जाने वाला यह क्षेत्र शाखा सुनहरा दक्षिण तट परकाईम है जो प्राचीन शहर के केंद्र को यूरोपीय क्षेत्र के उत्तरी क्षेत्रों से अलग करती है। इस द्वीप नुमा के दक्षिण की ओर से सागर मरमरह और पूर्व में बासतुरस ने घेरा हुआ है। शाखा सुनहरा के उत्तर में ऐतिहासिक का आओगलो और बशक्शआ के जिलों स्थित हैं जहां अंतिम सुल्तान का महल स्थित है। उनके बाद बासतुरस के तट के साथ आराकोए और बेबक पूर्व गांव स्थित हैं। बासतुरस के यूरोपीय और एशियाई दोनों ओर इस्तांबुल के आमराय ने परपेश आवासीय मकान निर्माण कर रखा है जिन्हें ईआली कहा जाता है। उनके घरों को गर्मी आवास के रूप पुरासपमाल है।
आस्कोदार और काजी कोए शहर के एशियाई हिस्से हैं जो दरअसल मुक्त शहर थे। आज यह आधुनिक आवासीय और व्यावसायिक क्षेत्रों में शामिल है और इस्तांबुल की लगभग एक तिहाई आबादी यहां आवास पज़ीरहे।
कार्यालय और आवास शामिल बुलंद इमारतों यूरोपीय भाग के उत्तर क्षेत्र में स्थित हैं जिनमें खासकर लयूनत, मसलाक और आतीलर क्षेत्र शामिल हैं बासतुरस और विजेता सुल्तान मोहम्मद पुलों के बीच स्थित है।
आबादी में वृद्धि
इस्तांबुल की आबादी १९७० से २०२३ के वर्षीय अवधि के दौरान तीन गुना से भी ज़्यादा हो गई है। अनुमानित ७० प्रतिशत से अधिक नागरिक इस्तांबुल के यूरोपीय हिस्से में जबकि ३० प्रतिशत एशियाई हिस्से में रहते हैं। दक्षिण पूर्वी तुर्की में बेरोजगारी में वृद्धि के कारण क्षेत्र के लोगों के बहुमत इस्तांबुल हिजरत गयी जहां वह शहर के पास क्षेत्रों गाजियाबाद उस्मान पाशा, ज़िया गोक आलप व अन्य में रहने विकासशील गई।
तुर्की में उच्च शिक्षा के लिए संस्थानों से कुछ इस्तांबुल में स्थित हैं जिनमें सरकारी व निजी विश्वविद्यालयों सहित। अक्सर प्रसिद्ध विश्वविद्यालयों सरकारी लेकिन हाल कुछ वर्षों में निजी विश्वविद्यालयों की संख्या में की गई है। प्रमुख सरकारी विश्वविद्यालयों में इस्तांबुल तकनीकी जामिया, बासतुरस जामिया, रुटिह सराय जामिया, इस्तांबुल जामिया, मार्मरह जामिया, ईलदीज़ तकनीकी जामिया और निर्माता स्नान कला जामिया शामिल हैं।
तुर्की के नगर |
लंदन () यूनाइटेड किंगडम और इंग्लैंड की राजधानी और सबसे अधिक आबादी वाला शहर है। ग्रेट ब्रिटेन द्वीप के दक्षिण पूर्व में थेम्स नदी के किनारे स्थित, लंदन पिछली दो सदियों से एक बड़ा व्यवस्थापन रहा है। लंदन राजनीति, शिक्षा, मनोरंजन, मीडिया, फ़ैशन और शिल्पी के क्षेत्र में वैश्विक शहर की स्थिति रखता है। इसे रोमनों ने लोंड़िनियम के नाम से बसाया था। लंदन का प्राचीन अंदरुनी केंद्र, लंदन शहर, का परिक्षेत्र १.१२ वर्ग मीटर (२.९ किमी२) है। १९वीं शताब्दी के बाद से "लंदन", इस अंदरुनी केंद्र के आसपास के क्षेत्रों को मिला कर एक महानगर के रूप में संदर्भित किया जाने लगा, जिनमें मिडलसेक्स, एसेक्स, सरे, केंट, और हर्टफोर्डशायर आदि शमिल है। जिसे आज ग्रेटर लंदन नाम से जानते है, एवं लंदन महापौर और लंदन विधानसभा द्वारा शासित किया जाता हैं।
लंदन में लोगों और संस्कृतियों की विविधता है, और इस क्षेत्र में ३०० से अधिक भाषाएं बोली जाती हैं। इसकी २०१५ कि अनुमानित नगरपालिका जनसंख्या (ग्रेटर लंदन के समरूपी) ८,६७३,७१३ थी, जो कि यूरोपीय संघ के किसी भी शहर से सबसे बड़ा, और यूनाइटेड किंगडम की आबादी का १२.५% हिस्सा है। २०११ की जनगणना के अनुसार ९,७८७,४२६ की आबादी के साथ, लंदन का शहरी क्षेत्र, पेरिस के बाद यूरोपीय संघ में दूसरा सबसे अधिक आबादी वाला है। शहर का महानगरीय क्षेत्र यूरोपीय संघ में १३,८७९,७५७ जनसंख्या के साथ सबसे अधिक आबादी वाला है, जबकि ग्रेटर लंदन प्राधिकरण के अनुसार शहरी-क्षेत्र की आबादी के रूप में २२.७ मिलियन है। 1८31 से 1९2५ तक लंदन विश्व के सबसे अधिक आबादी वाला शहर था।
लंदन में चार विश्व धरोहर स्थल हैं: टॉवर ऑफ़ लंदन; किऊ गार्डन; वेस्टमिंस्टर पैलेस, वेस्ट्मिन्स्टर ऍबी और सेंट मार्गरेट्स चर्च क्षेत्र; और ग्रीनविच ग्रीनविच वेधशाला (जिसमें रॉयल वेधशाला, ग्रीनविच प्राइम मेरिडियन, ० डिग्री रेखांकित, और जीएमटी को चिह्नित करता है)। अन्य प्रसिद्ध स्थलों में बकिंघम पैलेस, लंदन आई, पिकैडिली सर्कस, सेंट पॉल कैथेड्रल, टावर ब्रिज, ट्राफलगर स्क्वायर, और द शर्ड आदि शामिल हैं। लंदन में ब्रिटिश संग्रहालय, नेशनल गैलरी, प्राकृतिक इतिहास संग्रहालय, टेट मॉडर्न]], ब्रिटिश पुस्तकालय और वेस्ट एंड थिएटर सहित कई संग्रहालयों, दीर्घाओं, पुस्तकालयों, खेल आयोजनों और अन्य सांस्कृतिक संस्थानों का घर है। लंदन अंडरग्राउंड, दुनिया का सबसे पुराना भूमिगत रेलवे नेटवर्क है।
लंदन नाम की व्युत्पत्ति अनिश्चित है। यह एक प्राचीन नाम है, जिसे दुसरी शताब्दी के स्रोतों में पाया गया है। यह लोंड़िनियम के नाम से १२१ ई में पाया गया है, जो रोमानो-ब्रिटिश मूल को इंगित करता है। और शहर में पाये गये ६५/७०-८० ईस्वी के कई हस्त-लिखित रोमन सिलालेखों में लोंड़िनियम (अर्थात: "लंदन में") शब्द शामिल है।
पुलिस और अपराध
लंदन के भीतर, लंदन शहर और वेस्टमिंस्टर शहर दोनों को नगर का दर्जा हसिल है। ग्रेटर लंदन में उन क्षेत्रों को भी शामिल किया गया है जो मिडलसेक्स, केंट, सरे, एसेक्स और हर्टफोर्डशायर काउंटियों का हिस्सा हैं। इंग्लैंड और बाद में यूनाइटेड किंगडम की राजधानी के रूप में लंदन का दर्जा, क़ानून या लिखित रूप में आधिकारिक तौर पर कभी भी स्वीकृति या पुष्टि नहीं हुई है।
स्थलाकृति और जलवायु
ग्रेटर लन्दन में १,५८३ वर्ग किलोमीटर (6११ वर्ग मील) के कुल क्षेत्र शामिल हैं, जिसकी 200१ में आबादी ७,१७2,०३६ थी, और जनसंख्या घनत्व ४,5४2 प्रति वर्ग किलोमीटर (११,७60/वर्ग मील) था। लंदन मेट्रोपॉलिटन क्षेत्र या लंदन मेट्रोपॉलिटन एजग्लोमेंटेशन के रूप में जाना जाने वाला विस्तारित क्षेत्र, ८,३८2 वर्ग किलोमीटर (३,2३6 वर्ग मील) का कुल क्षेत्रफल का है, और इसकी आबादी १३,७09,००० है, और जनसंख्या घनत्व १,5१0 प्रति व्यक्ति प्रति वर्ग किलोमीटर (३,९००/वर्ग मील) है। थेम्स वेली एक बाढ़ का मैदान है जोकि लहरदार पहाड़ियों से घिरा हुआ है जिसमें पार्लियामेंट हिल, अदिंग्टन हिल्स और प्रिमरोस हिल शामिल हैं।
विक्टोरियन युग के बाद से थेम्स में बड़े पैमाने पर बाँध लगा चुके हैं, और अब इसके कई सहायक नदी, लंदन में भूमिगत प्रवाह करते हैं। थेम्स एक ज्वारीय नदी है, जिससे लंदन में बाढ़ के आने कि स्थिती बनी रहती है। और समय के साथ-साथ इस खतरे में वृद्धि हुई है,जिसका कारण हिम-ग्लेशियल के पिघलने की वजह से पानी का लेवल बढना है। १९७४ में, इस खतरे से निपटने के लिए वूलविच में थेम्स के पार थेम्स बाँध के निर्माण पर एक दशक का काम शुरू हुआ। चुकि बाँध को लगभग २०७० तक पुरा होने की उम्मीद है, इसके भविष्य के अनुसार विस्तार या पुन: डिज़ाइन की अवधारणाओं पर चर्चा हो रही है।
दक्षिणी इंग्लैंड के सभी क्षेत्रों के समान, लंदन में एक समशीतोष्ण समुद्री जलवायु है। एक वृष्टि-बहुल शहर होने की अपनी प्रतिष्ठा के बावजूद, लंदन में रोम, बोर्दो, तुलूज़, नापोलि, सिडनी और न्यूयॉर्क जैसे शहरों की तुलना में साल भर में कम वर्षा होती है।. लंदन के सभी क्षेत्र के लिए चरम तापमान सीमा, अगस्त २००३ में केयू में ३८.१ डिग्री सेल्सियस (१००.६ डिग्री फ़ारेनहाइट) दर्ज किया गया था, वही न्युनतम, जनवरी १9६2 के दौरान उत्तरोल्ट में -१६.१ डिग्री सेल्सियस (३.० डिग्री फारेनहाइट) दर्ज है।
ग्रीष्मकाल हल्के होते हैं, लेकिन आम तौर पर गर्म होते हैं। लंदन की जुलाई में औसत तापमान २४ डिग्री सेल्सियस (७५.२ डिग्री फ़ारेनहाइट) होती है। औसतन लंदन में प्रत्येक वर्ष, २5 डिग्री सेल्सियस (७७.० डिग्री फारेनहाइट) से ऊपर ३१ दिन और 3०.० डिग्री सेल्सियस (८६.० डिग्री फारेनहाइट) से ऊपर ४.२ दिन देखेंने को मिलते है
शरद ऋतु आम तौर पर शांत, बादल छाए हुए होते हैं और थोड़ा तापमान में भिन्नता के साथ नमी लिये होते हैं। बर्फबारी कभी-कभी होती है, और ऐसा होने पर यात्रा में व्यवधान उत्पन्न हो जाता है। हलाकि, लंदन के बाहर बर्फबारी आम है।
इन्हें भी देखें
लंदन स्थितवेस्टमिंस्टरमेंआतंकवादीहमला-२२ मार्च२०१७
लंदन के सभी न्यूजपेपर
यूरोप में राजधानियाँ
इंग्लैण्ड में बंदरगाह शहर और नगर |
आधुनिक भारतीय आर्यभाषाओं की शृंखला में पूर्वी सीमा पर अवस्थित असम की भाषा को असमिया, असमीया कहा जाता है। असमिया भारत के असम प्रांत की आधिकारिक भाषा तथा असम में बोली जाने वाली प्रमुख भाषा है। इसको बोलने वालों की संख्या डेढ़ करोड़ से अधिक है।
भाषाई परिवार की दृष्टि से इसका संबंध आर्य भाषा परिवार से है और बांग्ला, मैथिली, उड़िया और नेपाली से इसका निकट का संबंध है। गियर्सन के वर्गीकरण की दृष्टि से यह बाहरी उपशाखा के पूर्वी समुदाय की भाषा है, पर सुनीतिकुमार चटर्जी के वर्गीकरण में प्राच्य समुदाय में इसका स्थान है। उड़िया तथा बंगला की भांति असमी की भी उत्पत्ति प्राकृत तथा अपभ्रंश से भी हुई है।
यद्यपि असमिया भाषा की उत्पत्ति सत्रहवीं शताब्दी से मानी जाती है किंतु साहित्यिक अभिरुचियों का प्रदर्शन तेरहवीं शताब्दी में रुद्र कंदलि के द्रोण पर्व (महाभारत) तथा माधव कंदलि के रामायण से प्रारंभ हुआ। वैष्णवी आंदोलन ने प्रांतीय साहित्य को बल दिया। शंकर देव (१४४९-१५६८) ने अपनी लंबी जीवन-यात्रा में इस आंदोलन को स्वरचित काव्य, नाट्य व गीतों से जीवित रखा।
सीमा की दृष्टि से असमिया क्षेत्र के पश्चिम में बंगला है। अन्य दिशाओं में कई विभिन्न परिवारों की भाषाएँ बोली जाती हैं। इनमें से तिब्बती, बर्मी तथा खासी प्रमुख हैं। इन सीमावर्ती भाषाओं का गहरा प्रभाव असमिया की मूल प्रकृति में देखा जा सकता है। अपने प्रदेश में भी असमिया एकमात्र बोली नहीं हैं। यह प्रमुखतः मैदानों की भाषा है।
असमिया एवं बंगला
बहुत दिनों तक असमिया को बंगला की एक उपबोली सिद्ध करने का उपक्रम होता रहा है। असमिया की तुलना में बंगला भाषा और साहित्य के बहुमुखी प्रसार को देखकर ही लोग इस प्रकार की धारण बनाते रहे हैं। परंतु भाषावैज्ञानिक दृष्टि से बंगला और असमिया का समानांतर विकास आसानी से देखा जा सकता है। मागधी अपभ्रंश के एक ही स्रोत से निःसृत होने के कारण दोनों में समानताएँ हो सकती हैं, पर उनके आधार पर एक दूसरी की बोली सिद्ध नहीं किया जा सकता।
क्षेत्रविस्तार एवं सीमाएँ
क्षेत्रीय विस्तार की दृष्टि से असमिया के कई उपरूप मिलते हैं। इनमें से दो मुख्य हैं - पूर्वी रूप और पश्चिमी रूप। साहित्यिक प्रयोग की दृष्टि से पूर्वी रूप को ही मानक माना जाता है। पूर्वी की अपेक्षा पश्चिमी रूप में बोलीगत विभिन्नताएँ अधिक हैं। असमिया के इन दो मुख्य रूपों में ध्वनि, व्याकरण तथा शब्दसमूह, इन तीनों ही दृष्टियों से अंतर मिलते हैं। असमिया के शब्दसमूह में संस्कृत तत्सम, तद्भव तथा देशज के अतिरिक्त विदेशी भाषाओं के शब्द भी मिलते हैं। अनार्य भाषापरिवारों से गृहीत शब्दों की संख्या भी कम नहीं है। भाषा में सामान्यत: तद्भव शब्दों की प्रधानता है। हिंदी उर्दू के माध्यम से फारसी, अरबी तथा पुर्तगाली और कुछ अन्य यूरोपीय भाषाओं के भी शब्द आ गए हैं।
भारतीय आर्यभाषाओं की शृंखला में पूर्वी सीमा पर स्थित होने के कारण असमिया कई अनार्य भाषापरिवारों से घिरी हुई है। इस स्तर पर सीमावर्ती भाषा होने के कारण उसके शब्दसमूह में अनार्य भाषाओं के कई स्रोतों के लिए हुए शब्द मिलते हैं। इन स्रोतों में से तीन अपेक्षाकृत अधिक मुख्य हैं :
(अ) खासी, (आ) कोलारी, (इ) मलायन
शब्दसमूह की इस मिश्रित स्थिति के प्रसंग में यह स्पष्ट कर देना उचित होगा कि खासी, बोडो तथा थाई तत्त्व तो असमिया में उधार लिए गए हैं, पर मलायन और कोलारी तत्वों का मिश्रण इन भाषाओं के मूलाधार के पास्परिक मिश्रण के फलस्वरूप है। अनार्य भाषाओं के प्रभाव को असम के अनेक स्थाननामों में भी देखा जा सकता है। ऑस्ट्रिक, बोडो तथा अहोम के बहुत से स्थाननाम ग्रामों, नगरों तथा नदियों के नामकरण की पृष्ठभूमि में मिलते हैं। अहोम के स्थाननाम प्रमुखतः नदियों को दिए गए नामों में हैं।
असमिया लिपि मूलत: ब्राह्मी का ही एक विकसित रूप है। बंगला से उसकी निकट समानता है। लिपि का प्राचीनतम उपलब्ध रूप भास्करवर्मन का ६१० ई. का ताम्रपत्र है। परंतु उसके बाद से आधुनिक रूप तक लिपि में "नागरी" के माध्यम से कई प्रकार के परिवर्तन हुए हैं।
असमिया भाषा का व्यवस्थित रूप १३वीं तथा १४वीं शताब्दी से मिलने पर भी उसका पूर्वरूप बौद्ध सिद्धों के "चर्यापद" में देखा जा सकता है। "चर्यापद" का समय विद्वानों ने ईसवी सन् ६०० से १००० के बीच स्थिर किया है। इन दोहों के लेखक सिद्धों में से कुछ का तो कामरूप प्रदेश से घनिष्ठ संबंध था। "चर्यापद" के समय से १२वीं शताब्दी तक असमी भाषा में कई प्रकार के मौखिक साहित्य का सृजन हुआ था। मणिकोंवर-फुलकोंवर-गीत, डाकवचन, तंत्र मंत्र आदि इस मौखिक साहिय के कुछ रूप हैं।
असमिया भाषा का पूर्ववर्ती, अपभ्रंशमिश्रित बोली से भिन्न रूप प्राय: १८वीं शताब्दी से स्पष्ट होता है। भाषागत विशेषताओं को ध्यान में रखते हुए असमिया के विकास के तीन काल माने जा सकते हैं :
१४वीं शताब्दी से १६वीं शताब्दी के अंत तक। इस काल को फिर दो युगों में विभक्त किया जा सकता है : (अ) वैष्णव-पूर्व"युग तथा (आ) वैष्णव। इस युग के सभी लेखकों में भाषा का अपना स्वाभाविक रूप निखर आया है, यद्यपि कुछ प्राचीन प्रभावों से वह सर्वथा मुक्त नहीं हो सकी है। व्याकरण की दृष्टि से भाषा में पर्याप्त एकरूपता नहीं मिलती। परंतु असमिया के प्रथम महत्वूपर्ण लेखक शंकरदेव (जन्म--१४49) की भाषा में ये त्रुटियाँ नहीं मिलती। वैष्णव-पूर्व-युग की भाषा की अव्यवस्था यहाँ समाप्त हो जाती है। शंकरदेव की रचनाओं में ब्रजबुलि प्रयोगों का बाहुल्य है।
१७वीं शताब्दी से १९वीं शताब्दी के प्रारंभ तक। इस युग में अहोम राजाओं के दरबार की गद्यभाषा का रूप प्रधान है। इन गद्यकर्ताओं को बुरंजी कहा गया है। बुरंजी साहित्य में इतिहास लेखन की प्रारंभिक स्थिति के दर्शन होते हैं। प्रवृत्ति की दृष्टि से यह पूर्ववर्ती धार्मिक साहित्य से भिन्न है। बुरंजियों की भाषा आधुनिक रूप के अधिक निकट है।
१९वीं शताब्दी के प्रारंभ से। 18१९ ई. में अमरीकी बप्तिस्त पादरियों द्वारा प्रकाशित असमिया गद्य में बाइबिल के अनुवाद से आधुनिक असमिया का काल प्रारंभ होता है। मिशन का केंद्र पूर्वी आसाम में होने के कारण उसकी भाषा में पूर्वी आसाम की बोली को ही आधार माना गया। १८४६ ई. में मिशन द्वारा एक मासिक पत्र "अरुणोदय" प्रकाशित किया गया। १८४८ में असमिया का प्रथम व्याकरण छपा और १८६७ में प्रथम असमिया अंग्रेजी शब्दकोश।
असमिया के शिष्ट और लिखित साहित्य का इतिहास पाँच कालों में विभक्त किया जाता है:
(१) वैष्णवपूर्वकाल : १२००-१४४९ ई.,
(२) वैष्णवकाल : १४४९-१६५० ई.,
(३) गद्य, बुरंजी काल : १६५०-१९२६ ई.,
(४) आधुनिक काल : १०२६-19४7 ई.,
(५) स्वाधीनतोत्तरकाल : १९४७ ई. से अब तक
असमिया साहित्य की १६वी सदी से १९वीं सदी तक की काव्य धारा को छह भागों में बाँट सकते हैं-
महाकाव्यों व पुराणों के अनुवाद
काव्य या पुराणों की कहानियाँ
निरपेक्ष व उपयोगितावादी काव्य
जीवनियों पर आधारित काव्य
धार्मिक कथा काव्य या संग्रह
असमिया की पारम्परिक कविता उच्चवर्ग तक ही सीमित थी। भट्टदेव (१५५८-१६३८) ने असमिया गद्य साहित्य को सुगठित रूप प्रदान किया। दामोदरदेव ने प्रमुख जीवनियाँ लिखीं। पुरुषोत्तम ठाकुर ने व्याकरण पर काम किया। अठारहवी शती के तीन दशक तक साहित्य में विशेष परिवर्तन दिखाई नहीं दिए। उसके बाद चालीस वर्षों तक असमिया साहित्य पर बांग्ला का वर्चस्व बना रहा। असमिया को जीवन प्रदान करने में चन्द्रकुमार अग्रवाल (१८५८-१९३८), लक्ष्मीनाथ बेजबरुवा (१८६७-१८३८), व हेमचन्द्र गोस्वामी (१८७२-१९२८) का योगदान रहा। असमिया में छायावादी आंदोलन छेड़ने वाली मासिक पत्रिका जोनाकी का प्रारम्भ इन्हीं लोगों ने किया था। उन्नीसवीं शताब्दी के उपन्यासकार पद्मनाभ गोहाञिबरुवा और रजनीकान्त बरदलै ने ऐतिहासिक उपन्यास लिखे। सामाजिक उपन्यास के क्षेत्र में देवाचन्द्र तालुकदार व बीना बरुवा का नाम प्रमुखता से आता है। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद बीरेन्द्र कुमार भट्टाचार्य को मृत्यंजय उपन्यास के लिए ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किया गया। इस भाषा में क्षेत्रीय व जीवनी रूप में भी बहुत से उपन्यास लिखे गए हैं। ४०वे व ५०वें दशक की कविताएँ व गद्य मार्क्सवादी विचारधारा से भी प्रभावित दिखाई देती है।
इन्हें भी देखें
भारत की भाषाएँ
असमिया भाषा उन्नति साधिनी सभा
हिन्दी-असमिया शब्दकोश (हिन्दी विक्षनरी पर स्थित)
भारतीय भाषा ज्योति: असमिया हिंदी के माध्यम से असमिया सिखाने की किताब
असम की भाषाएँ
पूर्वी हिन्द-आर्य भाषाएँ |
डोगरी भारत के जम्मू ,हिमाचल के कांगड़ा और उत्तरी पंजाब के कुछ प्रान्त में बोली जाने वाली एक भाषा है। वर्ष २००३ में इसे भारतीय संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल किया गया है। पश्चिमी पहाड़ी बोलियों के परिवार में, मध्यवर्ती पहाड़ी पट्टी की जनभाषाओं में, डोगरी, चंबयाली, मडवाली, मंडयाली, बिलासपुरी, बागडी आदि उल्लेखनीय हैं।
डोगरी इस विशाल परिवार में कई कारणों से विशिष्ट जनभाषा है। इसकी पहली विशेषता यह है कि दूसरी बोलियों की अपेक्षा इसके बोलनेवालों की संख्या विशेष रूप से अधिक है। दूसरी यह कि इस परिवार में केवल डोगरी ही साहित्यिक रूप से गतिशील और सम्पन्न है। डोगरी की तीसरी विशिष्टता यह भी है कि एक समय यह भाषा कश्मीर रियासत तथा चंबा राज्य में राजकीय प्रशासन के अंदरूनी व्यवहार का माध्यम रह चुकी है। इसी भाषा के संबंध से इसके बोलने वाले डोगरे कहलाते हैं तथा डोगरी के भाषाई क्षेत्र को सामान्यतः "डुग्गर" कहा जाता है।
डोगरी का केंद्र
रियासत जम्मू कश्मीर की शरतकालीन राजधानी जम्मू नाम का ऐतिहासिक नगर, डोगरी की साहित्यिक साधना का प्रमुख केंद्र है, जहाँ डोगरी के साहित्यिकों का प्रतिनिधि संगठन "डोगरी संस्था" के नाम से, इस भाषा के साहित्यिक योगक्षेम के लिये गत लगभग ६० वर्षो से प्रयत्नशील है।
डोगरी पंजाबी की उपबोली है - यह भ्रांत धारणा डॉ॰ ग्रियर्सन के भाषाई सर्वेक्षण के प्रशंसनीय कार्य में डोगरी के पंजाबी की उपबोली के रूप में उल्लेख से फैली। इसमें उनका दोष नहीं। उस समय उनके इन सर्वेक्षण में प्रत्येक भाषा, बोली का स्वतंत्र गंभीर अध्ययन संभव नहीं था।
जॉन बीम्ज ने भारतीय भाषा विज्ञान की रूपरेखा संबंधी अपनी पुस्तक (प्रकाशित १८६६ ई॰) में स्पष्ट रूप से उल्लेख किया है कि डोगरी ना तो कश्मीरी की अंगभूत बोली है, ना पंजाबी की। उन्होंने इसे भारतीय-जर्मन परिवार की आर्य शाखा की प्रमुख ११ भाषाओं में गिना है।
डॉ॰ सिद्धेश्वर वर्मा ने भी डोगरी की गणना भारत की प्रमुख सात सीमांत भाषाओं में की है।
डोगरी की लिपि
डोगरी की अपनी एक लिपि है जिसे टाकरी या टक्करी लिपि कहते हैं। यह लिपि काफी पुरानी है। गुरमुखी लिपि का प्रादुर्भाव इसी से माना जाता है। कुल्लू तथा चंबा के कुछ प्राचीन ताम्रपट्टों से ज्ञात होता है कि इस लिपि का प्रारंभिक रूप में विकास १० वीं- ११वीं शताब्दी में हो गया था। वैसे टाकरी वर्ग के अंतर्गत आने वाली कई लिपियाँ इस विस्तृत प्रदेश में प्रचलित हैं जैसे, लंडे, किश्तवाड़ी, चंबयाली, मंडयाली, सिरमौरी और कुल्लूई आदि। डॉ॰ ग्रियर्सन शारदा को और टाकरी को सहोदरा मानते हैं। श्री व्हूलर का मत है कि टाकरी शारदा की आत्मजा है।
टाकरी लिपि आज भी डुग्गर के देहाती समाज में बहीखातों में प्रयुक्त होती है। इसका एक विकसित रूप भी है जिसमें कई ग्रंथों का प्रकाशन हुआ है। कश्मीर नरेश महाराज रणवीर सिंह ने, आज से लगभग एक सौ वर्ष पूर्व, अपने राज्यकाल में, डोगरी लिपि में, नागरी के अनुरूप, सुधार करने का प्रयत्न किया था। मात्रा, चिह्नों के प्रयोग को अपनाया गया तथा पहली बार नई टाकरी लिपि में डोगरी भाषा के ग्रंथों के मुद्रण की समुचित व्यवस्था के लिये जम्मू में शासन की ओर से रणवीर प्रेस की स्थापना की गई।
पुरानी डोगरी वर्णमाला का यह संशोधित रूप जनव्यवहार में लोकप्रिय न हो सका।
डोगरी के लिये नागरी लिपि
डोगरी की नव साहित्यिक चेतना के साथ ही साथ टाकरी का स्थान देव नागरी ने ले लिया।
डोगरी की कुछ स्वर विषयक विशेषताएँ:
(१) डोगरी में शब्दों के आदि में य तथा व ध्वनियाँ नहीं आतीं, इनके स्थान पर ज तथा ब ध्वनियाँ उच्चरित होती है।
(पंजाबी) वेहड़ा (आगण) - बेड़ा (डोगरी)
यजमान (हिंदी) - जजमान (डोगरी)
यश (हिंदी) - जस (डोगरी)
(२) डोगरी में शब्दों के आदि में ह का उच्चारण हिंदी पंजाबी से सर्वथा भिन्न होता है।
(३) डोगरी में वर्गों के चतुर्थ वर्णो के उच्चारण में तद्वर्गीय प्रथम अक्षर के साथ हल्की चढ़ती सुर जोड़ी जाती है।
(४) ह जब शब्दों के मध्य में आता है तब इसके डोगरी उच्चारण में चढ़ते सुर के स्थान पर उतरते सुर का प्रयोग होता है, जैसे:
हिंदी - डोगरी
पहाड़ प्हाड़ - पा/ड़
मोहर म्होर - मो/र
(५) डोगरी के कुछ शब्दों के आदि में ङ तथा ञ का जैसे अनुनासिकों का विशुद्ध उच्चारण मिलता है, जैसे-
हिंदी - डोगरी
अंगार - ङार
अंगूर - ङूर
अञाणा (पंजाबी) - ञ्याणा
ग्यारह - ञारां
(६) संस्कृत का र जो हिंदी में लुप्त हो जाता है, डोगरी में प्राय: सुरक्षित है।
संस्कृत - हिंदी - डोगरी
ग्राम - गाँव - ग्राँ
क्षेत्र - खेत - खेतर
पत्र - पात - पत्तर
स्त्री - तिय, तीमी (पं०) - त्रीम्त
मित्र - मीत - मित्तर
इसी प्रवृति के कारण कई रूपों में र का अतिरिक्त आगम भी हुआ है, जैसे-
संस्कृत - हिंदी - डोगरी
तीक्ष्ण - तीखा - त्रिक्खना
दौड़ - द्रौड़
पसीना - परसीना, परसा
कोप - कोप - करोपी
धिक् - धिक्कार - घ्रिग
(७) डोगरी संश्लेषणात्मक भाषा है। इसी के प्रभाव से इसमें संक्षेपीकरण की असाधारण प्रवृति पाई जाती है। संश्लेषणात्मकता जैसे -
संस्कृत - हिंदी - डोगरी
अहम् - मैने - में
माम् - मुझको - में
माम् - मुझको - मिगी (ऊ मी)
अस्माभि: - हमने - असें (हमारे द्वारा)
मह्मम् - मुझे मेरे - तै (गितै) (मेरे लेई पं०)
मत् - मुझसे मेरे - शा (मेरे कोलो-पं०)
मयि - मुझ में - मेरे च (मेरे निच-पं०)
हिंदी - पंजाबी - डोगरी
मुझसे नहीं आया जाता -मेरे थीं नई आया जांदा - मेरेशा नि नोंदा (औन हुन्दा)
खाया जाता - खान हुंदा - खनोंदा
(८) डोगरी में कर्मवाच्य (तथा भाववाच्य) के क्रियारुपों की प्रवृति पाई जाती है:
खनोंदा - खाया जाता नोग तां - औन होग (पं०) ता
पनोंदा- पिया जाता पजोग - पुज्जन होग उ पहुँच सका तो सनोंदा - सोया जाता
(९) डोगरी में वर्णविशर्यय की प्रवृति भी असाधारण रूप से पाई जाती है:
उधार - दुआर
उजाड़ - जुआड़
ताम्र - तरामां
कीचड़ - चिक्कड़ आदि
(१०) डोगरी में शब्दों के प्रारंभ के लघु स्वर का प्राय: लोप हो जाता है-
अनाज - नाज
अखबार - खबर
इजाजत - जाजत
एतराज - तराज
विस्तृत लेख डोगरी साहित्य के अन्तर्गत देखें।
इन्हें भी देखें
भारत की भाषाएँ
विश्व की भाषाएँ
जम्मू और कश्मीर की भाषाएँ |
सिंधी शब्द सिंध के विशेषण के रूप में प्रयोग किया जाता है। इसलिये सिंधी का अर्थ सिंध में रहने वाले या वहाँ से संबंध रखने वाले लोगों से भी लगाया जाता है और सिंधी भाषा से भी। |