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सिंधी भारत के पश्चिमी हिस्से और मुख्य रूप से सिन्ध प्रान्त में बोली जाने वाली एक प्रमुख भाषा है। यह सिन्धी हिन्दू समुदाय(समाज) की मातृ-भाषा है। गुजरात के कच्छ जिले में सिन्धी बोली जाती है और वहाँ इस भाषा को 'कच्छी भाषा' कहते हैं। इसका सम्बन्ध भाषाई परिवार के स्तर पर आर्य भाषा परिवार से है जिसमें संस्कृत समेत हिन्दी, पंजाबी और गुजराती भाषाएँ शामिल हैं। अनेक मान्य विद्वानों के मतानुसार, आधुनिक भारतीय भाषाओं में, सिन्धी, बोली के रूप में संस्कृत के सर्वाधिक निकट है। सिन्धी के लगभग ७० प्रतिशत शब्द संस्कृत मूल के हैं।
सिन्धी भाषा सिन्ध प्रदेश की आधुनिक भारतीय-आर्य भाषा है जिसका सम्बन्ध पैशाची नाम की प्राकृत और व्राचड नाम की अपभ्रंश से जोड़ा जाता है। इन दोनों नामों से विदित होता है कि सिंधी के मूल में अनार्य तत्व पहले से विद्यमान थे, भले ही वे आर्य प्रभावों के कारण गौण हो गए हों। सिन्धी के पश्चिम में बलोची, उत्तर में लहँदी, पूर्व में मारवाड़ी और दक्षिण में गुजराती का क्षेत्र है। यह बात उल्लेखनीय है कि इस्लामी शासनकाल में सिन्ध और मुलतान (लहँदीभाषी) एक प्रान्त रहा है और १८४३ से १९३६ ई. तक सिन्ध, बम्बई प्रांत का एक भाग होने के नाते गुजराती के विशेष सम्पर्क में रहा है।
पाकिस्तान में सिन्धी भाषा नस्तालिक (यानि अरबी लिपि) में लिखी जाती है जबकि भारत में इसके लिये देवनागरी और नस्तालिक दोनो प्रयोग किये जाते हैं।
सिन्धी का भूगोल एवं उपभाषाएँ
सिंध के तीन भौगोलिक भाग माने जाते हैं-
(१) सिरो (शिरो भाग),
(२) विचोली (बीच का) और
(३) लाड़ (संस्कृत : लाट प्रदेश = नीचे का)।
सिरो की बोली सिराइकी कहलाती है जो उत्तरी सिंध में खैरपुर, दादू, लाड़कावा और जेकबाबाद के जिलों में बोली जाती है। यहाँ बलोच और जाट जातियों की अधिकता है, इसलिए इसको 'बरीचिकी' और 'जतिकी' भी कहा जाता है। दक्षिण में हैदराबाद और कराची जिलों की बोली 'लाड़ी' है और इन दोनों के बीच में 'विचोली' का क्षेत्र है जो मीरपुर खास और उसके आसपास फैला हुआ है। विचोली सिंध की सामान्य और साहित्यिक भाषा है। सिंध के बाहर पूर्वी सीमा के आसपास 'थड़ेली', दक्षिणी सीमा पर 'कच्छी' और पश्चिमी सीमा पर 'लासी' नाम की सम्मिश्रित बोलियाँ हैं। 'धड़ेली' (धर = थल = मरुभूमि) जिला नवाबशाह और जोधपुर की सीमा तक व्याप्त है जिसमें मारवाड़ी और सिंधी का सम्मिश्रण है। कच्छी (कच्छ, काठियावाड़ में) गुजराती और सिंधी का एवं 'लासी' (लासबेला, बलोचिस्तान के दक्षिण में) बलोची और सिंधी का सम्मिश्रित रूप है। इन तीनों सीमावर्ती बोलियों में प्रधान तत्व सिंधी ही का है। भारत के विभाजन के बाद इन बोलियों के क्षेत्रों में सिंधियों के बस जाने के कारण सिंधी का प्राधान्य और बढ़ गया है। सिंधी भाषा का क्षेत्र ६५ हजार वर्ग मील है।
सिन्धी के सब शब्द स्वरान्त होते हैं। इसकी ध्वनियों में ग॒ , ॼ , ॾ , और , ॿ अतिरिक्त और विशिष्ट ध्वनियाँ हैं जिनके उच्चारण में सवर्ण ध्वनियों के साथ ही स्वर तन्त्र को नीचा करके काकल को बन्द कर देना होता है जिससे द्वित्व का सा प्रभाव मिलता है। ये भेदक स्वनग्राम है। संस्कृत के त वर्ग + र के साथ मूर्धन्य ध्वनि आ गई है, जैसे पुट्ट, या पुट्टु (पुत्र), मण्ड (मन्त्र), निण्ड (निन्द्रा), ॾोह (द्रोह)। संस्कृत का संयुक्त व्यंजन और प्राकृत का द्वित्व रूप सिन्धी में समान हो गया है किन्तु उससे पहले का ह्रस्व स्वर दीर्घ नहीं होता जैसे धातु (हिन्दी, भात), ॼिभ (जिह्वा), खट (खट्वा, हिन्दी, खाट), सुठो (सुष्ठु)। प्राय: ऐसी स्थिति में दीर्घ स्वर भी ह्रस्व हो जाता है, जैसे डिघो (दीर्घ), सिसी (शीर्ष), तिखो (तीक्ष्ण)। जैसे संस्कृत दत्तः और सुप्तः से दतो, सुतो बनते हैं, ऐसे ही सादृश्य के नियम के अनुसार कृतः से कीतो, पीतः से पीतो आदि रूप बन गए हैं यद्यपि मध्यम-त-का लोप हो चुका था। पश्चिमी भारतीय आर्य भाषाओं की तरह सिन्धी में भी महाप्राणत्व को संयत करने की प्रवृत्ति है जैसे साडा (सार्ध, हिन्दी, साढे), खाधो (हिन्दी, खाना), खुलण (हिन्दी, खुलना), पुचा (संस्कृत, पृच्छा)।
संज्ञाओं का वितरण इस प्रकार से पाया जाता है -
अकारान्त संज्ञाएँ सदा स्त्रीलिंग होती है, जैसे खट (खाट), तार, जिभ (जीभ), बाँह, सूँह (शोभा);
ओकरान्त संज्ञाएँ सदा पुल्लिंग होती हैं, जैसे घोड़ो, कुतो, महिनो (महीना), हफ्तो, दूँहो (धूम);
-आ-, इ और - ई में अन्त होने वाली संज्ञाएँ बहुधा स्त्रीलिंग हैं, जैसे हवा, गरोला (खोज), मखि राति, दिलि (दिल), दरी (खिड़की), (घोड़ो, बिल्ली-अपवाद रूप से सेठी (सेठ), मिसिरि (मिसर), पखी, हाथी, साँइ और संस्कृत के शब्द राजा, दाता पुल्लिंग हैं;
-उ-, -ऊ में अन्त होने वाले संज्ञाप्रद प्राय: पुल्लिंग हैं, जैसे किताब, धरु, मुँह, माण्ह (मनुष्य), रहाकू (रहने वाला) -अपवाद है, विजु (विद्युत), खण्ड (खाण्ड), आबरू, गऊ।
पुल्लिंग से स्त्रीलिंग बनाने के लिए -इ, -ई, -णि और -आणी प्रत्यय लगाते हैं -कुकुरि (मुर्गी), छोकरि; झिर्की (चिड़िया), बकिरी, कुत्ती; घोबिणी, शीहणि, नोकिर्वाणी, हाथ्याणी।
लिंग दो ही हैं-स्त्रीलिंग और पुल्लिंग। वचन भी दो ही हैं-एकवचन और बहुवचन। स्त्रीलिंग शब्दों का बहुवचन ऊँकारान्त होता है, जैसे जालूँ (स्त्रियाँ), खटूँ (चारपाइयाँ), दवाऊँ (दवाएँ) अख्यूँ (आँखें); पुल्लिंग के बहुरूप में वैविध्य हैं। ओकारांत शब्द आकारान्त हो जाते हैं-घोड़ों से घोड़ा, कपड़ों से कपड़ा आदि; उकारान्त शब्द अकारान्त हो जाते हैं-घरु से घर, वणु (वृक्ष) से वण; इकारांत शब्दों में-ऊँ बढ़ाया जाता है, जैसे सेठ्यूँ। ईकारान्त और ऊकारान्त शब्द वैसे ही बने रहते हैं।
संज्ञाओं के कारक
संज्ञाओं के कारकीय रूप परसर्गों के योग से बनते हैं - कर्ता-; कर्म- के, खे; करण-साँ; संप्रदान- के, खे, लाइ; अपादान-काँ, खाँ, ताँ (पर से), माँ (में से); सम्बन्ध- पु. एकव. जो, बहुव. जो, स्त्रीलिंग एकव. जी. बहुव. जूँ, अधिकरण- में, ते (पर)। कुछ पद अपादान और अधिकरण कारक में विभक्त्यन्त मिलते हैं- गोठूँ (गाँव से), घरूँ (घर में), पटि (जमीन पर), वेलि (समय पर)। बहुवचन में संज्ञा के तिर्यक् रूपृ -उनि प्रत्यय (तुलना कीजिए, हिन्दी-ओं) से बनता है- छोकर्युनि, दवाउनि, राजाउनि, इत्यादि।
सर्वनामों की सूची मात्र से इनकी प्रकृति को जाना जा सकेगा-
१. माँ, आऊँ (मैं); अर्सी (हम); तिर्यक क्रमश: मूँ तथा असाँ;
२. तूँ ; तव्हीं, अब्हीं (तुम); तिर्यक रूप तो, तब्हाँ;
३. पुँ. हू अथवा ऊ (वह, वे), तिर्यक् रूप हुन, हुननि; स्त्री. हूअ, हू, तिर्यक रूप उहो, उहे; पुँ. ही अथवा हीउ (यह, ये) तिर्यक् रूप हि, हिननि; स्त्री. इहो, इहे, तिर्यक् रूप इन्हें। इझी (यही), उझो (वही), बहुव. इझे, उझे; जो, जे (हिं. जो); छा, कुजाड़ी (क्या); केरु, कहिड़ी (कौन); को (कोई); की, कुझु (कुछ); पाण (आप, खुद)।
विशेषणों में ओकारान्त शब्द विशेष्य के लिंग, कारक के तिर्यक् रूप और वचन के अनुरूप बदलते हैं, जैसे सुठो छोकरो, सुठा छोकरा, सुठी छोकरी, सुठ्यनि छोकर्युनि खे।
शेष विशेषण अविकारी रहते हैं।
संख्यावाची विशेषणों में अधिकतर को हिंदीभाषी सहज में पहचान सकते हैं। ब (दो), टे (तीन), दाह (दस), अरिदह (१८), वीह (२०), टीह, (३०), पंजाह, (५०), साढा दाह (१०।।), वीणो (दूना), टीणो (तिगुना), सजो (सारा), समूरो (समूचा) आदि कुछ शब्द निराले जान पड़ते हैं।
संज्ञार्थक क्रिया णुकारान्त होती है- हलणु (चलना), बधणु (बाँधना), टपणु (फाँदना) घुमणु, खाइणु, करणु, अचणु (आना) वअणु (जानवा, विहणु (बैठना) इत्यादि।
कर्मवाच्य प्राय: धातु में- इज -या- ईज (प्राकृत अज्ज) जोड़कर बनता है, जैसे मारिजे (मारा जाता है), पिटिजनु (पीटा जाना); अथवा हिंदी की तरह वञणु (जाना) के साथ संयुक्त क्रिया बनाकर प्रयुक्त होता है, जैसे माओ वर्ञ थो (मारा जाता है)।
प्रेरणार्थक क्रिया की दो स्थितियाँ हैं- लिखाइणु (लिखना), लिखराइणु (लिखवाना); कमाइणु (कमाना), कमाराइणु (कमवाना),
कृदंतों में वर्तमानकालिक- हलन्दों (हिलता), भजदो (टूटता) -और भूतकालिक-बच्यलु (बचा), मार्यलु (मारा)-लिंग और वचन के अनुसार विकारी होते हैं। वर्तमानकालिक कृदन्त भविष्यत् काल के अर्थ में भी प्रयुक्त होता है। हिन्दी की तरह कृदंतों में सहायक क्रिया (वर्तमान आहे, था; भूत हो, भविष्यत् हूँदो आदि) के योग से अनेक क्रिया रूप सिद्ध होते हैं।
पूर्वकालिक कृदन्त धातु में -इ- या -ई लगाकर बनाया जाता है, जैसे खाई (खाकर), लिखी (लिखकर),
विधिलिंग और आज्ञार्थक क्रिया के रूप में संस्कृत प्राकृत से विकसित हुए हैं- माँ हलाँ (मैं चलूँ), असीं हलूँ (हम चलें), तूँ हलीं (तू चले), तूँ हल (तू चल), तब्हीं हलो (तुम चलो); हू हले, हू हलीन। इनमें भी सहायक क्रिया जोड़कर रूप बनते हैं। हिंदी की तरह सिंधी में भी संयुक्त क्रियाएँ पवणु (पड़ना), रहणु (रहना), वठणु (लेना), विझणु (डालना), छदणु (छोड़ना), सघणु (सकना) आदि के योग से बनती हैं।
सिंधी की एक बहुत बड़ी विशेषता है उसके सार्वनामिक अन्त्यय जो संज्ञा और क्रिया के साथ संयुक्त किए जाते हैं, जैसे पुट्रऊँ (हमारा लड़का), भासि (उसका भाई), भाउरनि (उनके भाई); चयुमि (मैंने कहा), हुजेई (तुझे हो), मारियाई (उसने उसको मारा), मारियाईमि (उसने मुझको मारा)। सिन्धी अव्यय संख्या में बहुत अधिक हैं। सिन्धी के शब्द भण्डार में अरबी-फारसी-तत्व अन्य भारतीय भाषाओं की अपेक्षा अधिक हैं। सिन्धी और हिन्दी की वाक्य रचना, पदक्रम और अन्वय में कोई विशेष अन्तर नहीं है।
सिन्धी के लिये प्रयुक्त लिपियाँ
एक शताब्दी से कुछ पहले तक सिंधी लेखन के लिए चार लिपियाँ प्रचलित थीं। हिंदु पुरुष देवनागरी का, हिंदु स्त्रियाँ प्राय: गुरुमुखी का, व्यापारी लोग (हिंदू और मुसलमान दोनों) "हटवाणिको" का (जिसे 'सिंधी लिपि' भी कहते हैं) और मुसलमान तथा सरकारी कर्मचारी अरबी-फारसी लिपि का प्रयोग करते थे। सन १८५३ ई. में ईस्ट इंडिया कंपनी के निर्णयानुसार लिपि के स्थिरीकरण हेतु सिंध के कमिश्नर मिनिस्टर एलिस की अध्यक्षता में एक समिति नियुक्त की गई। इस समिति ने अरबी-फारसी-उर्दू लिपियों के आधार पर "अरबी सिंधी " लिपि की सर्जना की। सिंधी ध्वनियों के लिए सवर्ण अक्षरों में अतिरिक्त बिंदु लगाकर नए अक्षर जोड़ लिए गए। अब यह लिपि सभी वर्गों द्वारा व्यवहृत होती है। इधर भारत के सिंधी लोग नागरी लिपि को सफलतापूर्वक अपना रहे हैं।
आम बोलचाल (वाक्य)
इन्हें भी देखें
सिन्धी भाषा का साहित्य
सिन्धी भाषा की लिपियाँ
भारतीय सिन्धु विद्यापीठ
राष्ट्रीय सिन्धी भाषा संवर्धन परिषद
भारत की भाषाएँ
भारत के भाषाई परिवार
सिन्धी कविता कोश
सिन्धी समानार्थी शब्दकोश (हिन्दी विकिकोश पर)
सिन्धी-अंग्रेजी शब्दकोश (हिन्दी विकिकोश पर) - सिन्धी शब्द देवनागरी और फारसी दोनों लिपियों में दिये हैं।
हिन्दी-सिन्धी शब्दकोश (हिन्दी विकिकोश पर)
सिन्धी शब्दकोश (देवनागरी में शब्द, अंग्रेजी में अर्थ ; कोशकार- जॉर्ज स्टैक ]
सिन्धी सीखो (देवनागरी माध्यम से)
आनलाइन सिंधी एडिटर
सिंधी भाषा और लिपि
विख - देवनागरी लिपि में सिन्धी ब्लॉग
सिंधियत - जितेन्द्र चौधरी का सिन्धी ब्लॉग (देवनागरी लिपि में)
सिंधी गुलाब (विश्व की प्रथम सिन्धी इंटरनेट पत्रिका)
सिन्धी शब्दकोश (इनपुट अंग्रेजी, रोमन या देवनागरी में दे सकते हैं।)
सिन्धी-अंग्रेजी शब्दकोश - यहाँ शब्दों के उच्चारण इपा में दिये हुए हैं। अर्थ अंग्रेजी में हैं।
सिंधी साइट्स की सूची
मीठरी सिन्धी बोली (सिंधी सींखें)
हेरिटेज ऑफ इंडिया - इसका सिंधी से सम्बन्धित विभाग अत्यन्त सूचनाप्रद है।
विश्व की प्रमुख भाषाएं
सिन्ध की भाषाएँ |
ऐश्वर्या राय बच्चन (जन्म: १ नवम्बर १973) ऐश के नाम से भी मशहूर, भारतीय सिनेमा की एक प्रमुख अभिनेत्री हैं। १९९४ में मिस इंडिया प्रतियोगिता की उपविजेता रहने के बाद उसी साल उन्होंने विश्व सुन्दरी प्रतियोगिता जीती थी। ऐश्वर्या राय ने हिन्दी के अलावा तेलगू, तमिल, बंगाली और अंग्रेजी फिल्मों में भी काम किया है।
ऐश्वर्या राय का जन्म १ नवम्बर १९७३ को मैंगलूर, कर्नाटक, भारत में हुआ था। ऐश्वर्या के पिता का नाम कृष्णराज राय जो पेशे से मरीन इंजीनियर है और माता का नाम वृंदा राय है जो एक लेखक हैं। उनका एक बडा़ भाई है जिसका नाम आदित्य राय है।
ऐश्वर्या राय की मातृ-भाषा तुलु है, इसके अलावा उन्हें कन्नड़, हिन्दी, मराठी, अंग्रेजी और तमिल भाषाओं का भी ज्ञान है। ऐश्वर्या राय की प्रारंभिक शिक्षा (कक्षा ७ तक) हैदराबाद, आंध्र प्रदेश में हुई। बाद में उनका परिवार मुंबई आकर बस गया। मुंबई में उन्होने शांता-क्रूज स्थित आर्य विद्या मंदिर और बाद में डी जी रुपारेल कालेज, माटूंगा में पढा़ई की। पढा़ई के साथ-साथ उन्हें मॉडलिंग के भी प्रस्ताव आते रहे और उन्होने में मॉडलिंग भी की।
उनको मॉडलिंग का पहला प्रस्ताव उन्हेंकैमलिन कंपनी की ओर से तब मिला जब वो नवीं कक्षा की छात्रा थीं। इसके बाद वो कोक, फूजी और पेप्सी के विज्ञापन में दिखीं। और १९९४ में मिस वर्ल्ड बनने के बाद उनकी माँग काफी बढी़ और उन्हें कई फिल्मों के प्रस्ताव मिले।
उनकी पहली फिल्म इरुवर तमिल में बनी जिसे मणिरत्नम ने निर्देशित किया। २००० में राजीव मेनन द्वारा बनी एक फिल्म कंडूकोंडिन कंडूकोंडिन काफी मशहूर हुई। हिन्दी में उनकी पहली फिल्म और प्यार हो गया थी, हिन्दी फिल्मों में उनका सिक्का संजय लीला भंसाली द्वारा बनायी गयी फिल्म हम दिल दे चुके सनम से जमा और तब से उनकी फिल्में ज्यादातर हिन्दी में ही बनी। २००२ में संजय लीला भंसाली द्वारा बनाई फिल्म देवदास में भी उन्होने काम किया। इसके अलवा उन्होंने कुछ बांग्ला फिल्में की हैं। सन २००४ में ही पहली बार उन्होंने गुरिंदर चड्ढा की एक अंग्रेजी फिल्म ब्राइड ऐंड प्रेज्यूडिस में काम किया। २००६ में उनकी प्रमुख फिल्मे रही मिसट्रेस ऑफ स्पाइसेस, धूम २ और उमराव जान। राय अगली बार रत्नम की तमिल अवधि की फिल्म पोन्नियिन सेलवन में अभिनय करेंगे।
आज ऐश्वर्या भारतीय सिनेमा की सबसे मँहगी अभिनेत्रियों में से एक है और भारत की सबसे धनी महिलाओं में शामिल हैं। दुनिया भर में उनके चाहने वालों ने ऐश्वर्या को समर्पित लगभग १७,००० इंटरनेट साइट बना रखे हैं और उनकी गिनती दुनिया के सबसे खूबसूरत महिलाओं में की जाती है। टाईम पत्रिका ने वर्ष २००४ में उन्हें दुनिया की सबसे प्रभावशाली महिलाओं में भी शुमार किया है
वर्ष १९९९ में, राय ने बॉलीवुड सितारे सलमान ख़ान के साथ डेटिंग की, उनका सम्बन्ध मिडिया में भी तब तक छाया रहा जब तक २००१ में वो एक दूसरे से अलग नहीं हो गये। सम्बन्ध विच्छेद के कारण के रूप में राय ने खान के लिए "दुरुपयोग (मौखिक, शारीरिक और भावनात्मक), बेवफाई और अपमान के आरोप लगाये। वर्ष २००९ में टाइम्स ऑफ़ इण्डिया के एक लेख के अनुसार खान ने कभी भी उसकी पिटाई किये जाने से मना किया।: "यह सच नहीं है कि मैंने एक औरत को मारा।"
ऐश्वर्या की फिल्में
नामांकन और पुरस्कार
फ़िल्मफ़ेयर सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री पुरस्कार
२००३ - देवदास
२००० हम दिल दे चुके सनम
अंतर्राष्ट्रीय भारतीय फ़िल्म अकादमी पुरस्कार
आई आई एफ ए सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री पुरस्कार
२००३ - देवदास
२००० - हम दिल दे चुके सनम
ज़ी सिने पुरस्कार
२००० - लक्स वर्ष का चेहरा पुरस्कार - हम दिल दे चुके सनम
ऐश्वर्या राय बच्चन
१९७३ में जन्मे लोग
फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार विजेता |
सचिन रमेश तेंडुलकर सचिन तेंडुलकर, जन्म: २४ अप्रैल १९७३) क्रिकेट के इतिहास में विश्व के सर्वश्रेष्ठ बल्लेबाज़ में माने जाते हैं। भारत के सर्वोच्च नागरिक सम्मान भारत रत्न से सम्मानित होने वाले वह सर्वप्रथम खिलाड़ी और सबसे कम उम्र के व्यक्ति हैं। राजीव गांधी खेल रत्न पुरस्कार से सम्मानित होने वाले पहले क्रिकेट खिलाड़ी हैं। सन् २००८ में वे पद्म विभूषण से भी पुरस्कृत किये जा चुके है।
सन् १९८९ में अन्तर्राष्ट्रीय क्रिकेट में पदार्पण के पश्चात् उन्होंने बल्लेबाजी में भी कई कीर्तिमान स्थापित किए हैं। उन्होंने टेस्ट व एक दिवसीय क्रिकेट, दोनों में सर्वाधिक शतक अर्जित किये हैं। वे टेस्ट क्रिकेट में सबसे ज़्यादा रन बनाने वाले बल्लेबाज़ हैं। इसके साथ ही टेस्ट क्रिकेट में १४००० से अधिक रन बनाने वाले वह विश्व के एकमात्र खिलाड़ी हैं। एकदिवसीय मैचों में भी उन्हें कुल सर्वाधिक रन बनाने का कीर्तिमान प्राप्त है। उन्होंने अपना पहला प्रथम श्रेणी क्रिकेट मैच मुम्बई के लिये १४ वर्ष की आयु में खेला था। उनके अन्तर्राष्ट्रीय खेल जीवन की शुरुआत १९८९ में पाकिस्तान के विरुद्ध कराची से हुई।
२००१ में, सचिन तेंदुलकर अपनी २५९ पारी में १०,००० ओडीआई रन पूरा करने वाले पहले बल्लेबाज बने। बाद में अपने करियर में, तेंदुलकर भारतीय दल का हिस्सा थे जिन्होंने २०११ क्रिकेट विश्व कप जीता, भारत के लिए छह विश्व कप के प्रदर्शन में उनकी पहली जीत। दक्षिण अफ्रीका में आयोजित टूर्नामेंट के २००३ संस्करण में उन्हें पहले "प्लेयर ऑफ द टूर्नामेंट" नाम दिया गया था। २०१३ में, वे विस्डेन क्रिकेटर्स के अल्मनैक की १५० वीं वर्षगांठ को चिह्नित करने के लिए नामित एक अखिल भारतीय टेस्ट वर्ल्ड इलेवन में शामिल एकमात्र भारतीय क्रिकेटर थे। सचिन क्रिकेट जगत के सर्वाधिक प्रायोजित खिलाड़ी हैं और विश्व भर में उनके अनेक प्रशंसक हैं। उनके प्रशंसक उन्हें प्यार से भिन्न-भिन्न नामों से पुकारते हैं जिनमें सबसे प्रचलित लिटिल मास्टर व मास्टर ब्लास्टर है। क्रिकेट के अलावा वह अपने ही नाम के एक सफल रेस्टोरेंट के स्वामी भी हैं।
सचिन तेंदुलकर भूतपूर्व राज्य सभा सांसद भी रह चुके हैं। सन् २०१२ में उन्हें राज्य सभा के सदस्य के रूप में नामित किया गया था।
क्रिकेट के भगवान कहे जाने वाले सचिन तेंदुलकर पर एक बायोपिक फिल्म सचिन : ए बिलियन ड्रीम्स बनाई जा चुकी है। इस फ़िल्म का टीज़र भी बहुत रोमांचक हैं। टीजर में सचिन को उन्हीं की कहानी सुनाते हुए देखेंगे जो एक शरारती बच्चे से एक हीरो बनकर उभरता है।
ख़ुद सचिन तेंदुलकर का भी ये मानना है कि क्रिकेट खेलने से अधिक चुनौतीपूर्ण अभिनय करना है। सचिन ए बिलियन ड्रीम्स का निर्माण श्रीकांत भासी और रवि भगचंदका ने किया है और इसका निर्देशन जेम्स अर्सकिन ने।
सचिन ने १४ साल की आयु में क्रिकेट खेलना शुरू किया था
राजापुर के सारस्वत ब्राह्मण परिवार में जन्मे सचिन का नाम उनके पिता रमेश तेंदुलकर ने अपने चहेते संगीतकार सचिन देव बर्मन के नाम पर रखा था। सचिन के पिता मराठी स्कूल में शिक्षक थे। उनके बड़े भाई अजीत तेंदुलकर ने उन्हें क्रिकेट खेलने के लिये प्रोत्साहित किया था। सचिन के एक भाई नितिन तेंदुलकर और एक बहन सविताई तेंदुलकर भी हैं। २४ मई, १९९५ के दिन सचिन ने डॉ. अंजलि महेता से शादी की थी, मूल गुजरात की डॉ. अंजलि बालरोग निष्णात है। सचिन और अंजलि दोनो पहली बार एयरपोर्ट पर मिले थे, उस वक्त अंजली को सचिन और क्रिकेट दोनों के बारे में कोई ज्यादा ज्ञान नही था। सचिन और अंजलि के दो बच्चें है, बड़ी बेटी सारा तेंदुलकर और बेटा अर्जुन तेंदुलकर है।
सचिन ने शारदाश्रम विद्यामन्दिर में अपनी शिक्षा ग्रहण की। वहीं पर उन्होंने प्रशिक्षक (कोच) रमाकान्त अचरेकर के सान्निध्य में अपने क्रिकेट जीवन का आगाज किया। तेज गेंदबाज बनने के लिये उन्होंने एम०आर०एफ० पेस फाउण्डेशन के अभ्यास कार्यक्रम में शिरकत की पर वहाँ तेज गेंदबाजी के कोच डेनिस लिली ने उन्हें पूर्ण रूप से अपनी बल्लेबाजी पर ध्यान केन्द्रित करने को कहा।
अन्य रोचक तथ्य
युवाकाल में सचिन अपने कोच के साथ अभ्यास करते थे। उनके कोच स्टम्प पर एक रुपये का सिक्का रख देते और जो गेंदबाज सचिन को आउट करता, वह सिक्का उसी को मिलता था और यदि सचिन बिना आउट हुए पूरे समय बल्लेबाजी करने में सफल हो जाते, तो ये सिक्का उनका हो जाता। सचिन के अनुसार उस समय उनके द्वारा जीते गये वे १३ सिक्के आज भी उन्हें सबसे ज्यादा प्रिय हैं।
१९८८ में स्कूल के एक हॅरिस शील्ड मैच के दौरान साथी बल्लेबाज विनोद कांबली के साथ सचिन ने ऐतिहासिक ६६४ रनों की अविजित साझेदारी की। इस धमाकेदार जोड़ी के अद्वितीय प्रदर्शन के कारण एक गेंदबाज तो रोने ही लगा और विरोधी पक्ष ने मैच आगे खेलने से इनकार कर दिया। सचिन ने इस मैच में ३२० रन और प्रतियोगिता में हजार से भी ज्यादा रन बनाये।
सचिन प्रति वर्ष २०० बच्चों के पालन पोषण की जिम्मेदारी हेतु अपनालय नाम का एक गैर सरकारी संगठन भी चलाते हैं।
भारतीय टीम का एक अन्तर्राष्ट्रीय मैच ऑस्ट्रेलिया के विरुद्ध इन्दौर में ३१ मार्च २००१ को खेला गया था। तब इस छोटे कद के खिलाड़ी ने पहली बार १०,००० रनों का आँकड़ा पार करके इन्दौर के स्टेडियम में एक मील का पत्थर गाड़ दिया था।
सचिन तेंदुलकर क्रिकेट में बल्लेबाज़ी दायें हाथ से करते हैं किन्तु लिखते बाये हाथ से हैं। वे नियमित तौर पर बायें हाथ से गेंद फेंकने का अभ्यास करते हैं। उनकी बल्लेबाज़ी उनके बेहतरीन सन्तुलन और नियन्त्रण पर आधारित है। वह भारत की धीमी पिचों की बजाय वेस्ट इंडीज़ और ऑस्ट्रेलिया की सख्त व तेज़ पिच पर खेलना ज्यादा पसंद करते हैं। वह अपनी बल्लेबाजी की अनूठी पंच शैली के लिये भी जाने जाते हैं।
ऑस्ट्रेलिया के पूर्व प्रशिक्षक जॉन ब्यूकैनन का कहना है कि तेंदुलकर अपनी पारी की शुरुआत में शॉर्ट गेंद को ज्यादा पसन्द करते हैं। उनका मानना यह भी है कि बायें हाथ की तेज गेंद तेंदुलकर की कमज़ोरी है। अपने कैरियर की शुरुआत में सचिन के बैटिंग की शैली आक्रामक हुआ करती थी। सन् २००४ से वह कई बार चोटग्रस्त भी हुए। इस वजह से उनकी बल्लेबाजी की आक्रामकता में थोड़ी कमी आयी। पूर्व ऑस्ट्रेलियाई खिलाड़ी इयान चैपल के अनुसार तेंदुलकर अब पहले जैसे खिलाड़ी नहीं रहे। किन्तु २००८ में भारत के ऑस्ट्रेलिया दौरे पर तेंदुलकर ने कई बार अपनी आक्रामक बल्लेबाज़ी का परिचय दिया।
तेंडुलकर नियमित गेंदबाज़ नहीं हैं, किन्तु वे मध्यम तेज, लेग स्पिन व ऑफ स्पिन गेंदबाज़ी में प्रखर हैं। वे कई बार लम्बी व देर से टिकी हुई बल्लेबाजों की जोड़ी को तोड़ने के लिये गेंदबाज़ के रूप में लाये जाते हैं। भारत की जीत पक्की कराने में अनेक बार उनकी गेंदबाज़ी का प्रमुख योगदान रहा है।
इंडियन प्रीमियर लीग और चैंपियंस लीग
२००८ में उद्घाटन इंडियन प्रीमियर लीग ट्वेंटी -२० प्रतियोगिता में तेंदुलकर को अपने घरेलू मैदान में मुंबई इंडियंस के लिए आइकन खिलाड़ी और कप्तान बनाया गया था। एक आइकन खिलाड़ी के रूप में, वह $ १,१2१,२५० की राशि के लिए हस्ताक्षर किए गए, टीम के सनथ जयसूर्या में दूसरे सबसे ज्यादा भुगतान करने वाले खिलाड़ी की तुलना में १5% अधिक।
इंडियन प्रीमियर लीग के २०१० संस्करण में मुंबई इंडियंस टूर्नामेंट के फाइनल में पहुंच गया। टूर्नामेंट के दौरान तेंदुलकर ने १४ पारियों में ६१८ रन बनाए, आईपीएल सीजन में शान मार्श के सर्वाधिक रन का रिकॉर्ड तोड़ दिया। उन्होंने कहा कि मौसम के दौरान अपने प्रदर्शन के लिए प्लेयर ऑफ द टूर्नामेंट घोषित किया गया था। उन्होंने २०१० आईपीएल पुरस्कार समारोह में सर्वश्रेष्ठ बल्लेबाज और सर्वश्रेष्ठ कैप्टन पुरस्कार भी जीता। सचिन ने कप्तान के रूप में दो अलग-अलग सत्रों में आईपीएल में ५०० से अधिक रन बनाए हैं।
सचिन तेंदुलकर ने लीग के दूसरे संस्करण के ४ लीग मैच में मुंबई इंडियंस का नेतृत्व किया। उन्होंने पहले मैच में ६८ और गुयाना के खिलाफ ४8 रन बनाये। लेकिन शुरुआती दो मैचों की हार के बाद मुंबई इंडियंस सेमीफाइनल के लिए क्वालीफाई करने में नाकाम रहे। तेंदुलकर ने १३५ रन बनाए।
२०११ आईपीएल में, कोच्चि टस्कर्स केरल के खिलाफ, तेंदुलकर ने अपना पहला ट्वेंटी -२० शतक बनाया। उन्होंने ६६ गेंदों पर नाबाद १०० रन बनाए। आईपीएल में ५१ मैचों में उन्होंने १,७२३ रन बनाये, जिससे उन्हें प्रतिस्पर्धा के इतिहास में दूसरा सबसे ज्यादा रन-स्कोरर बना। २०१3 में, सचिन ने इंडियन प्रीमियर लीग से सेवानिवृत्त हुए, और वर्तमान में २०१4 में उन्हें मुंबई इंडियंस टीम के 'आइकन' के रूप में नियुक्त किया गया है।
तेंदुलकर के प्रशंसक सुधीर कुमार चौधरी ने भारत के सभी घरेलू खेलों के लिए टिकट का विशेषाधिकार प्राप्त किया
तेंदुलकर के लगातार प्रदर्शन ने उन्हें दुनिया भर में एक प्रशंसक बनाया, जिसमें ऑस्ट्रेलियाई भीड़ भी शामिल थे, जहां तेंदुलकर ने लगातार शतक बनाए हैं। उनके प्रशंसकों द्वारा सबसे लोकप्रिय कहानियों में से एक है "क्रिकेट मेरा धर्म है और सचिन मेरा भगवान है"। क्रिकइन्फो ने अपने प्रोफाइल में बताया कि "... तेंदुलकर एक दूरी से, दुनिया में सबसे ज्यादा पूजा करने वाले क्रिकेटर हैं।" [१] १998 में भारत के ऑस्ट्रेलिया दौरे के दौरान मैथ्यू हेडन ने कहा, "मैंने भगवान को देखा है। ४ टेस्ट मैचों में भारत में। " हालांकि, भगवान पर, तेंदुलकर ने खुद कहा है कि" मैं क्रिकेट का ईश्वर नहीं हूं। मैं गलती करता हूं, भगवान नहीं करता है। " तेंदुलकर ने एक विशेष प्रदर्शन किया २००३ में बॉलीवुड की फिल्म स्टम्प्ड, खुद के रूप में प्रदर्शित हुई।
कई उदाहरण हैं जब तेंदुलकर के प्रशंसकों ने खेल में अपनी बर्खास्तगी पर अत्यधिक गतिविधियों की है। जैसा कि कई भारतीय समाचार पत्रों की रिपोर्ट में, एक व्यक्ति ने १०० वीं शताब्दी तक पहुंचने में तेंदुलकर की असफलता पर संकट के कारण खुद को फांसी दी थी।
मुंबई में घर पर, तेंदुलकर के प्रशंसक ने उन्हें एक अलग जीवन शैली का नेतृत्व करने के लिए प्रेरित किया। इयान चैपल ने कहा है कि वह जीवन शैली से निपटने में असमर्थ होंगे, तेंदुलकर को "विग पहनने और बाहर जाने और रात में ही फिल्म देखना" करने के लिए मजबूर होना पड़ा। टिम शेरिडन के साथ एक साक्षात्कार में, तेंदुलकर ने स्वीकार किया कि वह कभी-कभी रात की देर में मुंबई की सड़कों पर चुप ड्राइव के लिए चले गए थे, जब वह कुछ शांति और मौन का आनंद ले पाएंगे। तेंदुलकर की लोकप्रिय सोशल नेटवर्किंग साइट ट्विटर में यूज़र नेम सचिन_र्ट के साथ मई २०१० से मौजूद है।
क्रिकेट के कीर्तिमान
मीरपुर में १६ फरवरी २०१२ को बांग्लादेश के खिलाफ १०० वाँ शतक।
एकदिवसीय अन्तर्राष्ट्रीय क्रिकेट के इतिहास में दोहरा शतक जड़ने वाले पहले खिलाड़ी।
एकदिवसीय अन्तर्राष्ट्रीय मुक़ाबले में सबसे ज्यादा (१८००० से अधिक) रन।
एकदिवसीय अन्तर्राष्ट्रीय मुक़ाबले में सबसे ज्यादा ४९ शतक।
एकदिवसीय अन्तर्राष्ट्रीय विश्व कप मुक़ाबलों में सबसे ज्यादा रन।
टेस्ट क्रिकेट में सबसे ज्यादा (५१) शतक
ऑस्ट्रेलिया के खिलाफ ५ नवम्बर २००९ को १७५ रन की पारी के साथ एक दिवसीय अन्तर्राष्ट्रीय क्रिकेट में १७ हजार रन पूरे करने वाले पहले बल्लेबाज बने।
टेस्ट क्रिकेट में सर्वाधिक रनों का कीर्तिमान।
टेस्ट क्रिकेट १३००० रन बनने वाले विश्व के पहले बल्लेबाज।
एकदिवसीय अन्तर्राष्ट्रीय मुक़ाबले में सबसे ज्यादा मैन ऑफ द सीरीज।
एकदिवसीय अन्तर्राष्ट्रीय मुक़ाबले में सबसे ज्यादा मैन ऑफ द मैच।
अन्तर्राष्ट्रीय मुक़ाबलो में सबसे ज्यादा ३०००० रन बनाने का कीर्तिमान।
कुछ अन्य उल्लेखनीय घटनायें
५ नवम्बर २००९: अपना ४३५ वाँ मैच खेल रहे तेंदुलकर ने तब तक ४३४ पारियों में ४४.२१ की औसत से १७,००० रन बनाये थे जिसमें ४५ शतक और ९१ अर्धशतक शामिल हैं। तेंदुलकर के बाद एक दिवसीय क्रिकेट में सर्वाधिक रन श्रीलंका के सनथ जयसूर्या ने बनाये हैं। उनके नाम पर इस मैच से पहले तक १२,२०७ रन दर्ज़ थे। जयसूर्या ४४१ मैच खेल चुके है। अब तक ४०० से अधिक एकदिवसीय मैच केवल इन्हीं दो खिलाडि़यों ने खेले हैं।
तेंदुलकर ने अपने एक दिवसीय कैरियर में सर्वाधिक रन आस्ट्रेलिया के खिलाफ बनाये। उन्होंने विश्व चैम्पियन के खिलाफ ६० मैच में ३,००० से ज्यादा रन ठोंके जिसमें ९ शतक और १५ अर्धशतक शामिल हैं। श्रीलंका के खिलाफ भी उन्होंने सात शतक और १४ अर्धशतक की मदद से २४७१ रन बनाये लेकिन इसके लिये उन्होंने ६६ मैच खेले।
इस स्टार बल्लेबाज ने पाकिस्तान के खिलाफ ६६ मैच में २३८१ रन बनाये। इसके अलावा उन्होंने दक्षिण अफ्रीका के खिलाफ १६५५, वेस्टइंडीज के खिलाफ १५७१, न्यूजीलैंड के खिलाफ १४६०, जिम्बाब्वे के खिलाफ १३७७ और इंग्लैंड के खिलाफ भी एक हजार से अधिक रन (१२७४) रन बनाये हैं।
तेंदुलकर ने घरेलू सरजमीं पर १४२ मैच में ४६.१२ के औसत से ५७६६ और विदेशी सरजमीं पर १२७ मैच में ३५.४८ की औसत से ४१८७ रन बनाये। लेकिन वह सबसे अधिक सफल तटस्थ स्थानों पर रहे हैं जहाँ उन्होंने १४०मैच में ६०५४ रन बनाये जिनमें उनका औसत ५०.८७ है। वह भारत के अलावा इंग्लैंड (१०५१), दक्षिण अफ्रीका (१४१४), श्रीलंका (१३०२) और संयुक्त अरब अमीरात (१७७८) की धरती पर भी एक दिवसीय मैचों में एक हजार रन बना चुके हैं।
पूर्व कप्तान मोहम्मद अजहरुद्दीन ने तेंदुलकर को सलामी बल्लेबाज के तौर पर भेजने की शुरुआत की थी जिसमें मुम्बई का यह बल्लेबाज खासा सफल रहा। ओपनर के तौर पर उन्होंने १२८९१ रन बनाए हैं। जहाँ तक कप्तानों का सवाल है तो तेंदुलकर सबसे अधिक सफल अजहर की कप्तानी में ही रहे। उन्होंने अजहर के कप्तान रहते हुए १६० मैच में ६२७० रन बनाये जबकि सौरभ गांगुली की कप्तानी में १०१ मैच में ४४९० रन ठोंके। हालांकि स्वयं की कप्तानी में वह अधिक सफल नहीं रहे और ७३ मैच में ३७.७५ के औसत से केवल २४५४ रन ही बना पाये।
२४ फ़रवरी २०१०: सचिन तेंदुलकर ने अपने एक दिवसीय क्रिकेट के ४४२ वें मैच में २०० रन बनाकर ऐतिहासिक पारी खेली। एक दिवसीय क्रिकेट के इतिहास में दोहरा शतक जड़ने वाले पहले खिलाड़ी बने।
तेंदुलकर १६० टेस्ट मैचों में भी अब तक १५००० रन बना चुके हैं। और इस तरह उनके नाम पर अन्तर्राष्ट्रीय क्रिकेट में ३०,००० से ज्यादा रन और १०० शतक दर्ज़ हैं। तेंदुलकर ने अपने एक दिवसीय कैरियर में सर्वाधिक रन आस्ट्रेलिया के खिलाफ बनाये। उन्होंने विश्व चैंपियन टीम के खिलाफ ६० मैच में ३,००० से ज्यादा रन ठोंके जिसमें ९ शतक और १५ अर्धशतक शामिल हैं।
सचिन ने २००३ के वर्ल्ड कप में रिकॉर्ड ६७३ रन बनाए थे। तेंदुलकर के २००३ वर्ल्ड कप में प्रदर्शन के बारे में भारतीय क्रिकेट टीम के पूर्व कप्तान राहुल द्रविड़ ने कहाकि पूरे टूर्नामेंट के दौरान सचिन ने नेट में एक भी गेंद नहीं खेली थी। समय के हिसाब से अपनी तैयारियों में बदलाव करते रहते हैं।
तेंदुलकर क्रिकेट के मैदान में
सचिन तेंदुलकर ने क्रिकेट कभी अपने लिये नहीं खेला। वह हमेशा ही अपनी टीम के लिये या उससे भी ज्यादा अपने देश के लिये खेले। उनके मन में क्रिकेट के प्रति अत्यधिक सम्मान का भाव रहा। उन्होंने आवेश में आकर कभी कोई टिप्पणी नहीं की। किसी खिलाड़ी ने अगर उनके खिलाफ कभी कोई टिप्पणी की भी तो उन्होंने उस टिप्पणी का जवाब जुबान से देने के बजाय अपने बल्ले से ही दिया।
सचिन जब भी बल्लेबाजी के लिये उतरे, उन्होंने मैदान पर कदम रखने से पहले सूर्य देवता को नमन किया। क्रिकेट के प्रति उनके लगाव का अन्दाज़ इसी घटना से लगाया जा सकता है कि विश्व कप के दौरान जब उनके पिताजी का निधन हुआ उसकी सूचना मिलते ही वह घर आये, पिता की अन्त्येष्टि में शामिल हुए और वापस लौट गये। उसके बाद सचिन अगले मैच में खेलने उतरे और शतक ठोककर अपने दिवंगत पिता को श्रद्धांजलि दी।
अच्छा क्रिकेट खेलने के लिये ऊँचे कद को वरीयता दी जाती है लेकिन छोटे कद के बावजूद लम्बे-लम्बे छक्के मारना और बाल को सही दिशा में भेजने की कला के कारण दर्शकों ने उन्हें लिटिल मास्टर का खिताब दिया जो बाद में सचिन के नाम का ही पर्यायवाची बन गया।
टेस्ट क्रिकेट से संन्यास
२३ दिसम्बर २०१२ को सचिन ने वन-डे क्रिकेट से संन्यास लेने की घोषणा कि। लेकिन उससे भी बड़ा दिन तब आया जब उन्होंने टेस्ट क्रिकेट से भी संन्यास लेने की घोषणा की। इस अवसर पर उन्होंने कहा - "देश का प्रतिनिधित्व करना और पूरी दुनिया में खेलना मेरे लिये एक बड़ा सम्मान था। मुझे घरेलू जमीन पर २०० वाँ टेस्ट खेलने का इन्तजार है। जिसके बाद मैं संन्यास ले लूँगा।" उनकी चाहत के अनुसार उनका अन्तिम टेस्ट मैच वेस्टइण्डीज़ के खिलाफ मुम्बई के वानखेड़े स्टेडियम में ही खेला गया।
और जैसा उन्होंने कहा था वैसा ही किया भी। १६ नवम्बर २०१३ को मुम्बई के अपने अन्तिम टेस्ट मैच में उन्होंने ७४ रनों की पारी खेली। मैच का परिणाम भारत के पक्ष में आते ही उन्होंने ट्र्स्ट क्रिकेट को अलविदा! कह दिया।
भारत रत्न: १६ नवम्बर २०१३ को मुंबई में सचिन के क्रिकेट से संन्यास लेने के संकल्प के बाद ही भारत सरकार ने भी उन्हें देश के सबसे बड़े नागरिक सम्मान भारत रत्न देने की आधिकारिक घोषणा कर दी। ४ फ़रवरी २०१४ को राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी ने राष्ट्रपति भवन में आयोजित समारोह में उन्हें भारत रत्न से सम्मनित किया गया। ४० वर्ष की आयु में इस सम्मान को प्राप्त करने वाले वे सबसे कम उम्र के व्यक्ति और सर्वप्रथम खिलाड़ी हैं। गौरतलब है कि इससे पहले यह सम्मान खेल के क्षेत्र में नहीं दिया जाता था। सचिन को यह सम्मान देने के लिए पहले नियमों में बदलाव किया गया था।
राजीव गांधी खेल रत्न पुरस्कार से सम्मानित एकमात्र क्रिकेट खिलाड़ी हैं।
सन् २००८ में वे पद्म विभूषण से भी पुरस्कृत किये जा चुके है।
१९९४ - अर्जुन पुरस्कार, खेल में उनके उत्कृष्ट उपलब्धि के सम्मान में भारत सरकार द्वारा
१९९७-९८ - राजीव गांधी खेल रत्न, खेल में उपलब्धि के लिए दिए गए भारत के सर्वोच्च सम्मान
१९९९ - पद्मश्री, भारत के चौथे सर्वोच्च नागरिक पुरस्कार
२००१ - महाराष्ट्र भूषण पुरस्कार, महाराष्ट्र राज्य के सर्वोच्च नागरिक पुरस्कार
२००८ - पद्म विभूषण, भारत का दूसरा सर्वोच्च नागरिक पुरस्कार
२०१४ - भारत रत्न, भारत के सर्वोच्च नागरिक पुरस्कारअन्य सम्मान
१९९७ - इस साल के विज्डन क्रिकेटर
२००२ - बराबरी की तेंदुलकर की उपलब्धि के उपलक्ष्य में डॉन ब्रैडमैन टेस्ट क्रिकेट में 'एस २९ शताब्दियों, मोटर वाहन कंपनी फेरारी में अपनी मंडूक करने के लिए उसे आमंत्रित सिल्वरस्टोन की पूर्व संध्या पर ब्रिटिश ग्रांड प्रिक्स एक प्राप्त करने के लिए, २३ जुलाई को फेरारी ३६० मोडेना फ१ दुनिया से चैंपियन माइकल शूमाकर
२००३ - २००३ क्रिकेट विश्व कप के प्लेयर ऑफ द टूर्नामेंट
२००४, २००७, २०१० - आईसीसी विश्व एक दिवसीय एकादश
२००९, २०१०, २०११ - आईसीसी विश्व टेस्ट एकादश
२०१० - खेल और कम से पीपुल्स च्वाइस अवार्ड में उत्कृष्ट उपलब्धि एशियाई पुरस्कार, लंदन में
२०१० - विज़डन लीडिंग क्रिकेटर ऑफ द ईयर
२०१० - वर्ष के सर्वश्रेष्ठ क्रिकेटर के लिए आईसीसी पुरस्कार, सर गारफील्ड सोबर्स ट्राफी
२०१० - एलजी पीपुल्स च्वाइस अवार्ड
२०१० - भारतीय वायु सेना द्वारा मानद ग्रुप कैप्टन की उपाधि
२०११ - बीसीसीआई द्वारा वर्ष के सर्वश्रेष्ठ भारतीय क्रिकेटर
२०११ - कैस्ट्रॉल वर्ष के इंडियन क्रिकेटर
२०१२ - विज्डन इंडिया आउटस्टैंडिंग अचीवमेंट पुरस्कार
२०१२ - सिडनी क्रिकेट ग्राउंड (एससीजी) की मानद आजीवन सदस्यता
२०१२ - ऑस्ट्रेलिया के आदेश के मानद सदस्य, ऑस्ट्रेलियाई सरकार द्वारा दिए गए
२०१३ - भारतीय पोस्टल सर्विस ने तेंदुलकर का एक डाक टिकट जारी किया और वह मदर टेरेसा के बाद दूसरे भारतीय बने जिनके लिये ऐसा डाक टिकट उनके अपने जीवनकाल में जारी किया गया।
सचिन तेंदुलकर के अन्तरराष्ट्रीय क्रिकेट शतकों की सूची
सचिन: ए बिलियन ड्रीम्स
महानतम भारतीय (सर्वेक्षण)
महेंद्र सिंह धोनी
एक दिवसीय अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट के कीर्तिमानों की सूची
सचिन तेंदुलकर के विजडन प्रोफाइल
सचिन तेंदुलकर के आधिकारिक फेसबुक पेज
१९७३ में जन्मे लोग
भारत रत्न सम्मान प्राप्तकर्ता
भारतीय क्रिकेट खिलाड़ी
दाहिने हाथ के बल्लेबाज़
अर्जुन पुरस्कार के प्राप्तकर्ता
पद्म विभूषण धारक
राजीव गांधी खेल रत्न के प्राप्तकर्ता
मुम्बई के लोग
भारतीय क्रिकेट कप्तान
भारतीय टेस्ट क्रिकेट खिलाड़ी
भारतीय एक दिवसीय अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट खिलाड़ी
भारतीय ट्वेन्टी २० क्रिकेट खिलाड़ी |
हंस एक पक्षी का नाम है। हंस पक्षी देखें।
हंस जिसके संपादक राजेन्द्र यादव हैं।
हंस ऐतिहासिक पत्रिका जिसके संपादक प्रेमचंद थे। |
हंस उपन्यास सम्राट प्रेमचंद द्वारा स्थापित और सम्पादित पत्रिका रही है। वह दिल्ली से प्रकाशित होने वाली हिन्दी की कथा मासिक पत्रिका है जिसका पुनः प्रकाशन राजेन्द्र यादव ने १९८६ से २०१३ तक किया। महात्मा गांधी और कन्हैयालाल माणिक लाल मुंशी भी दो वर्ष तक हंस के सम्पादक मण्डल में शामिल रहे। मुंशी प्रेमचंद की मृत्यु के बाद हंस का सम्पादन उनके पुत्र कथाकार अमृतराय ने किया। अनेक वर्षों तक हंस का प्रकाशन बन्द रहा। बाद में मुंशी प्रेमचंद की जन्मतिथि (३१ जुलाई) को ही सन् १९८६ से अक्षर प्रकाशन ने कथाकार राजेन्द्र यादव के सम्पादन में इस पत्रिका को एक कथा मासिक के रूप में फिर से प्रकाशित करना प्रारम्भ किया। आने वाले वर्षों में यह सबसे अधिक पढ़ी जाने वाली हिंदी साहित्यिक पत्रिका के रूप में उभरी और आज भी यह हिंदी साहित्य जगत में एक प्रतिष्ठित और विचारशील पत्रिका का स्थान बनाए हुए है।
सन् २०१३ में राजेन्द्र यादव की मृत्यु के बाद हंस का प्रकाशन और प्रबंध निदेशन उनकी पुत्री रचना यादव द्वारा किया जा रहा है और हिंदी के प्रख्यात कहानीकार संजय सहाय अब हंस के संपादक हैं।
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फेडेरल रिपब्लिक ऑफ नाईजीरिया या नाईजीरिया संघीय गणराज्य पश्चिम अफ्रीका का एक देश है। इसकी सीमाएँ पश्चिम में बेनीन, पूर्व में चाड, उत्तर में हीकैमरून और दक्षिण में गुयाना की खाड़ी से लगती हैं। इस देश के बड़े शहरों में राजधानी अबुजा, भूतपूर्व राजधानी लागोस के अलावा इबादान, कानो, जोस और बेनिन शहर शामिल हैं। नाइजीरिया पश्चिमी अफ्रीका का एक प्रमुख देश है। पूरे अफ्रीका महाद्वीप में इस देश की आबादी सबसे अधिक है। नाइजीरिया की सीमा पश्चिम में बेनिन, पूर्व में चाड और कैमरून और उत्तर में नाइजर से मिलती हैं।
नाइजीरिया के प्राचीन इतिहास को देखने पर पता चलता है कि यहां सभ्यता की शुरुआत ईसा पूर्व ९००० में हुई थी। जैसा कि पुरातात्विक अभिलेखों में दिखाया गया है। नाइजीरिया के सबसे शुरुआती शहर कानो और कत्स्यिना उत्तरी शहर थे जो लगभग १००० ईस्वी में शुरू हुए थे। लगभग १४०० ईस्वी के आसपास, ओयो के योरूबा साम्राज्य की स्थापना दक्षिण पश्चिम में हुई थी और १७ वीं से १९ वीं शताब्दी तक इसकी सफलता ऊंचाई तक पहुंच गयी। इसी समय, यूरोपीय व्यापारियों ने अमेरिका के दास व्यापार के लिए बंदरगाहों की स्थापना शुरू कर दी। लेकिन १९ वीं शताब्दी में यह ताड़ के तेल और लकड़ी जैसे सामानों के व्यापार में बदल गया था।
१८८५ ईस्वी में, अंग्रेजों ने नाइजीरिया पर प्रभाव का एक क्षेत्र दावा किया और १८८६ में, रॉयल नाइजर कंपनी की स्थापना हुई। १९०० में, क्षेत्र ब्रिटिश सरकार द्वारा नियंत्रित हो गया और १ 9१4 में यह उपनीवेस और संरक्षित बन गया। १९०० के दशक के मध्य और विशेष रूप से द्वितीय विश्व युद्ध के बाद, नाइजीरिया के लोगों ने आजादी के लिए दबाव डालना शुरू कर दिया। अक्टूबर १960 में, यह तब आया जब इसे संसदीय सरकार के साथ तीन क्षेत्रों के संघ के रूप में स्थापित किया गया था। १963 ईस्वी में, नाइजीरिया ने खुद को एक संघीय गणराज्य घोषित किया और एक नया संविधान तैयार किया जिसके बाद १960 के दशक के दौरान, नाइजीरिया की सरकार अस्थिर थी क्योंकि इसमें कई सरकारी उथल-पुथल थीं; इसके प्रधान मंत्री की हत्या कर दी गई थी और गृह युद्ध शुरू हो गया था। गृहयुद्ध के बाद, नाइजीरिया ने आर्थिक विकास पर ध्यान केंद्रित किया और १977 में, सरकारी अस्थिरता के कई वर्षों बाद, देश ने एक नया संविधान तैयार किया।
नाइजीरिया की सरकार को संघीय गणराज्य माना जाता है और इसमें अंग्रेजी आम कानून, इस्लामी कानून (उत्तरी राज्यों में) और पारंपरिक कानूनों के आधार पर कानूनी व्यवस्था है। नाइजीरिया की कार्यकारी शाखा राज्य के मुखिया और सरकार के मुखिया से बना है- दोनों राष्ट्रपति द्वारा भरे जाते हैं। इसमें एक द्विपक्षीय राष्ट्रीय असेंबली भी है जिसमें सीनेट और प्रतिनिधि सभा शामिल हैं। नाइजीरिया की न्यायिक शाखा सर्वोच्च न्यायालय और अपील की संघीय न्यायालय से बना है। नाइजीरिया को ३६ राज्यों और स्थानीय प्रशासनो में बांटा गया है।
राजनीतिक भ्रष्टाचार १९७० ईस्वी के दशक के उत्तरार्ध में और १९८० के दशक में और १९८३ में बना रहा, दूसरी गणराज्य सरकार जिसे उसे नष्ट कर दिया गया था। १९८९ में, तीसरा गणराज्य शुरू हुआ और १९९० के दशक की शुरुआत में, सरकार भ्रष्टाचार बनी रही और सरकार को फिर से उखाड़ फेंकने के कई प्रयास हुए। अंत में १९९५ में, नाइजीरिया ने नागरिक शासन में संक्रमण करना शुरू कर दिया। १९९९ में एक नया संविधान और उसी वर्ष मई में, नाइजीरिया राजनीतिक अस्थिरता और सैन्य शासन के वर्षों के बाद एक लोकतांत्रिक राष्ट्र बन गया। २००७ में, राष्ट्रपति ओबासंजो के रूप में पद छोड़ दिया। उमरू यार अदुआ फिर नाइजीरिया के राष्ट्रपति बने और उन्होंने देश के चुनावों में सुधार करने, अपनी अपराध समस्याओं से लड़ने और आर्थिक विकास पर काम करना जारी रखने की कसम खाई। लेकिन ५ मई, २०१० को, यार्ड अदुआ की मृत्यु हो गई और गुडलुक जोनाथन ६ मई को नाइजीरिया के राष्ट्रपति बने।
नाइजीरिया भूगोल और जलवायु
नाइजीरिया एक बड़ा देश है जिसमें विविध स्थलाकृति है। अमेरिका के राज्य कैलिफोर्निया राज्य के आकार के लगभग दोगुना है और बेनिन और कैमरून के बीच स्थित है। दक्षिण की भूमि नीची है जो देश के मध्य भाग में पहाड़ियों और पठारों में ऊंचा है। दक्षिणपूर्व में पहाड़ हैं जबकि उत्तर मुख्य रूप से मैदानी इलाके होते हैं। नाइजीरिया का वातावरण भी भिन्न होता है लेकिन भूमध्य रेखा के निकट स्थानों के कारण केंद्र और दक्षिण उष्णकटिबंधीय हैं, जबकि उत्तर शुष्क है।
हालांकि नाइजीरिया में राजनीतिक भ्रष्टाचार की समस्याएं थीं और बुनियादी ढांचे की कमी थी, यह प्राकृतिक संसाधनों जैसे तेल और हाल ही में इसकी अर्थव्यवस्था दुनिया में सबसे तेज़ से बढ़ने लगी है।
हालांकि, तेल अकेले विदेशी मुद्रा आय का ९ ५% प्रदान करता है। नाइजीरिया के अन्य उद्योगों में कोयले, टिन, कोलम्बिट, रबर उत्पाद, लकड़ी, छुपाएं और खाल, कपड़ा, सीमेंट और अन्य निर्माण सामग्री, खाद्य उत्पाद, जूते, रसायन, उर्वरक, मुद्रण, मिट्टी के बरतन और स्टील शामिल हैं। नाइजीरिया के कृषि उत्पाद कोको, मूंगफली, कपास, ताड़ के तेल, मक्का, चावल, ज्वारी, बाजरा, कसावा, याम, रबड़, मवेशी, भेड़, बकरियां, सूअर, लकड़ी और मछली हैं।
अजुमिनी ब्लू रिवर रोज
अजुमिनी ब्लू रिवर अबिआ राज्य में स्थित है। अपनी खूबसूरती के कारण यह नदी पर्यटक स्थल के रूप में मशहूर हो रही है। पर्यटकों को यहां के साफ नीले पानी में नौका विहार का आनंद लेना बहुत लुभाता है। यहां के तटों पर आराम करने के लिए सुविधाएं उपलब्ध कराई जाती हैं।
द लॉन्ग जुजु श्राइन ऑफ अरोचुकवा
यह एक प्रसिद्ध पर्यटक सथान है। गुफा में स्थित जुजु की ऊंची प्रतिमा यहां का मुख्य आकर्षण है। इस गुफा के बारे में माना जाता है यहां पर एक लंबा धातु का पाइप है जिसके जरिए भगवान लोगों से बात करते थे। यह एक प्रमुख धार्मिक केंद्र है। यहां पर प्रबंधकीय शाखा भी है जहां पर मुख्य पुजारी रहते हैं।
यंकारी राष्ट्रीय उद्यान
यह उद्यान नाइजीरिया का सबसे विकसित राष्ट्रीय उद्यान है। यह उद्यान यहां पाए जाने वाले विभिन्न प्रकार के जानवरों के कारण प्रसिद्ध है। ये वन्य जीव नवंबर से मई के बीच अधिक दिखाई पड़ते हैं। इस दौरान पानी की तलाश में ये गजी नदी के किनारे पर आते हैं। यहां दिखाई देने वाले प्रमुख्य जानवरों में हाथी, मगरमच्छ, गैंडे, बंदर, वॉटरहॉग, बबून, वॉटरबक और बुशबक शामिल हैं। यंकारी राष्ट्रीय उद्यान का मुख्य आकर्षण विक्की वॉर्म स्प्रिंग है। यह गर्म पानी का झरना है जहां पूरे दिन तैराकी का आनंद उठाया जा सकता है।
यह झील नाइजीरिया के बोर्नो प्रांत में स्थित है। योजनापूर्वक बनाई गई यह झील न केवल इस प्रांत की आवश्यकताओं की पूर्ति करती है बल्कि नाइजीरिया के तीन पड़ोसी देशों नाइजर, कैमरून और चाड की आवश्यकताओं को भी पूरा करती है। यह झील कृषि में सहायता करने के साथ-साथ पर्यटकों को भी आकर्षित करती है। यहां पर बोटिंग का आनंद उठा सकते हैं।
चीफ नाना पेलेस, कोको
चीफ नाना ओलोमु १९वीं शताब्दी में नाइजीरिया के बहुत बड़े उद्यमी थे। अपनी उपलब्धियों को दर्शाने के लिए उन्होंने इस भव्य महल का निर्माण करवाया था। इस महल में उनके ब्रिटेन की महारानी से संपर्क और अंग्रेज व्यापारिया के साथ उनके संबंधों से संबंधित दस्तावेज व अन्य सामग्री रखी गई है। डेल्टा राज्य में स्थित इस भवन को अब राष्ट्रीय स्मारक का दर्जा हासिल है।
इन्हें भी देखें
अफ़्रीका के देश
पश्चिम अफ्रीका के देश |
खडिया आदिवासी समुदाय से आने वाले प्यारा केरकेट्टा भारतीय समाज और राजनीति में झारखंडी जनता की दावेदारी को बडी शिद्दत के साथ उठाया और उसे स्थापित किया। झारखंड की सांस्कृतिक विरासत की रक्षा के लिये उन्होंने देशज भाषाओं को पुनर्सृजित और संगठित किया। मातृभाषा में देशज भाषाओं के अध्ययन अध्यापन के लिये पुस्तकें लिखीं और छपवाईं। खडिया भाषा में आधुनिक शिष्ट साहित्य की शुरूआत की। झारखंड की देशज जनता के स्वभिमान और गौरव को स्थापित करने के लिये युवाओं का नेतृत्व करते हुए सांस्कृतिक आंदोलन को संगठित किया। आजादी के पहले और बाद के भारत में झारखंड की उत्पीडित आबादी के समग्र उत्थान के लिये वे हमेशा संघर्षरत रहे।'''
इन्हें भी देखें |
दक्षिण अफ़्रीका (अंग्रेज़ी: साउथ अफ्रीका) अफ़्रीका महाद्वीप के दक्षिणी छोर पर स्थित एक गणराज्य है। इसकी सीमाएँ उत्तर में नामीबिया, बोत्सवाना और ज़िम्बाब्वे और उत्तर-पूर्व में मोज़ाम्बीक और एस्वातीनी के साथ लगती हैं, जबकि लेसूथो एक स्वतंत्र देश है, जो पूरी तरह से दक्षिण अफ़्रीका से घिरा हुआ है।
आधुनिक मानव की बसाहट दक्षिण अफ़्रीका में एक लाख साल पुरानी है। यूरोपीय लोगों के आगमन के दौरान क्षेत्र में रहने वाले बहुसंख्यक स्थानीय लोग आदिवासी थे, जो अफ़्रीका के विभिन्न क्षेत्रों से हजार साल पहले आए थे। ४थी-५वीं सदी के दौरान बांतू भाषी आदिवासी दक्षिण को ओर बढ़े और दक्षिण अफ़्रीका के वास्तविक निवासियों, खोई सान लोगों, को विस्थापित करने के साथ-साथ उनके साथ शामिल भी हो गए। यूरोपीय लोगों के आगमन के दौरान कोसा और ज़ूलु दो बड़े समुदाय थे।
केप समुद्री मार्ग की खोज के करीबन डेढ़ शताब्दी बाद १९६२ में डच ईस्ट इंडिया कंपनी ने उस जगह पर खानपान केंद्र (रिफ्रेशमेंट सेंटर) की स्थापना की, जिसे आज केप टाउन के नाम से जाना जाता है। १८०६ में केप टाउन ब्रिटिश कॉलोनी बन गया। १८२० के दौरान बुअर (डच, फ्लेमिश, जर्मन और फ्रेंच सेटलर्ज़) और ब्रिटिश लोगों के देश के पूर्वी और उत्तरी क्षेत्रों में बसने के साथ ही यूरोपीय बसाहट में वृद्धि हुई। इसके साथ ही क्षेत्र पर क़ब्ज़े के लिए कोसा, जुलू और अफ़्रिकानरों के बीच झड़पें भी बढ़ती गई।
हीरे और बाद में सोने की खोज के साथ ही १९वीं सदी में द्वंद शुरू हो गया, जिसे अंग्रेज़-बुअर युद्ध के नाम से जाना जाता है। हालाँकि ब्रिटिश ने बुअरों पर युद्ध में जीत हासिल कर ली थी, लेकिन १९10 में दक्षिण अफ़्रीका को ब्रिटिश डोमिनियन के तौर पर सीमित स्वतंत्रता प्रदान की।
१९६१ में दक्षिण अफ़्रीका को गणराज्य का दर्जा मिला। देश के भीतर और बाहर विरोध के बावजूद सरकार ने रंगभेद की नीति को जारी रखा। २०वीं सदी में देश की दमनकारी नीतियों के विरोध में बहिष्कार करना शुरू किया। काले दक्षिण अफ़्रीकी और उनके सहयोगियों के सालों के अंदरुनी विरोध, कार्रवाई और प्रदर्शन के परिणामस्वरूप आख़िरकार १९९० में दक्षिण अफ़्रीकी सरकार ने वार्ता शुरू की, जिसकी परिणति भेदभाव वाली नीति के ख़त्म होने और १९९४ में लोकतांत्रिक चुनाव से हुई। देश फिर से राष्ट्रकुल देशों में शामिल हुआ।
दक्षिण अफ़्रीका, अफ़्रीका में जातीय रूप से सबसे ज़्यादा विविधताओं वाला देश है और यहाँ अफ़्रीका के किसी भी देश से ज़्यादा सफ़ेद लोग रहते हैं। अफ़्रीकी जनजातियों के अलावा यहाँ कई एशियाई देशों के लोग भी हैं जिनमे सबसे ज़्यादा भारत से आये लोगों की संख्या है।
दक्षिण अफ़्रीका में ग्यारह भाषाओं को आधिकारिक भाषा का दर्जा दिया गया है, जिसमें अंग्रेज़ी के साथ-साथ अफ़्रिकांस, दक्षिणी दीबीली, उत्तरी सूथो, दक्षिणी सूथो, स्वाज़ी, त्सोंगा, त्स्वाना, कोसा और जुलू शामिल है। किसी एक देश में बोली जाने वाली भाषाओं की संख्या के हिसाब से यह बोलिविया और भारत के बाद तीसरा देश है।
२००१ के राष्ट्रीय जनगणना के अनुसार, मातृभाषा के तौर पर बोली जाने वाली तीन पहली भाषाओं में जुलू (२३.८ प्रति.), कोसा (१७.६ प्रति.) और अफ़्रीकांस (१३.३ प्रति.) हैं। हालाँकि अंग्रेज़ी व्यापार और विज्ञान की भाषा है, लेकिन दक्षिण अफ़्रीका में सिर्फ़ ८.२ प्रतिशत लोगों की मातृभाषा है। इन भाषाओं के अलावा देश में आठ अन्य ग़ैर आधिकारिक भाषाओं को भी मान्यता प्रदान की गई है, जिसमें फानागालो, खोई, लोबेदू, नामा, उत्तरी दीबीली, फूथी, सान और दक्षिण अफ्रीकी साइन भाषा शामिल है।
दक्षिण अफ्रीका की अर्थव्यवस्था नाइजीरिया के बाद अफ्रीका में दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है, दक्षिण अफ्रीका की अर्थव्यवस्था मिश्रित अर्थव्यवस्था है। उप-सहारा अफ्रीका में अन्य देशों की तुलना में प्रति व्यक्ति अपेक्षाकृत उच्च सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) है (२०१२ तक क्रय शक्ति समता पर यूएस $ ११,७५०)। इसके बावजूद, दक्षिण अफ्रीका अभी भी गरीबी और बेरोजगारी की अपेक्षाकृत उच्च दर के बोझ से दबी है और आर्थिक असमानता, के लिए दुनिया के शीर्ष दस देशों में स्थान पर है, जिसे गिनी गुणांक द्वारा मापा जाता है। २०१५ में, ७१% शुद्ध संपत्ति १०% आबादी के पास थी, जबकि ६०% आबादी के पास शुद्ध संपत्ति का केवल ७% था, और गिनी गुणांक ०.६३ था, जबकि १९९६ में ०.६१ था।
दुनिया के अधिकांश गरीब देशों के विपरीत, दक्षिण अफ्रीका में एक संपन्न अनौपचारिक अर्थव्यवस्था नहीं है। ब्राजील और भारत में लगभग आधे और इंडोनेशिया में लगभग तीन-चौथाई की तुलना में केवल १५% दक्षिण अफ्रीकी नौकरियां अनौपचारिक क्षेत्र में हैं। आर्थिक सहयोग और विकास संगठन (ओईसीडी) इस अंतर का श्रेय दक्षिण अफ्रीका की व्यापक कल्याण प्रणाली को देता है। विश्व बैंक के शोध से पता चलता है कि दक्षिण अफ्रीका में प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद बनाम इसकी मानव विकास सूचकांक रैंकिंग के बीच सबसे बड़ा अंतर है, जिसमें केवल बोत्सवाना एक बड़ा अंतर दिखा रहा है।
१९९४ के बाद, सरकारी नीति ने मुद्रास्फीति को कम किया, सार्वजनिक वित्त को स्थिर किया, और कुछ विदेशी पूंजी को आकर्षित किया, हालांकि विकास अभी भी कम था। २००४ के बाद से, आर्थिक विकास में उल्लेखनीय वृद्धि हुई; रोजगार और पूंजी निर्माण दोनों में वृद्धि हुई। जैकब जुमा की अध्यक्षता के दौरान, सरकार ने राज्य के स्वामित्व वाले उद्यमों (एसओई) की भूमिका में वृद्धि की। कुछ सबसे बड़े एसओई हैं एस्कॉम, इलेक्ट्रिक पावर एकाधिकार, दक्षिण अफ्रीकी एयरवेज (एसएए), और ट्रांसनेट, रेल और बंदरगाहों का एकाधिकार। इनमें से कुछ सोए लाभदायक नहीं रहे हैं, जैसे सा, जिसके लिए २०१५ से पहले के २० वर्षों में कुल र३० बिलियन ($२.०८ बिलियन) के बेलआउट की आवश्यकता है।
अन्य अफ्रीकी देशों के अलावा दक्षिण अफ्रीका के प्रमुख अंतरराष्ट्रीय व्यापारिक साझेदारों में जर्मनी, संयुक्त राज्य अमेरिका, चीन, जापान, यूनाइटेड किंगडम और स्पेन शामिल हैं। २०२० के वित्तीय गोपनीयता सूचकांक ने दक्षिण अफ्रीका को दुनिया में ५८ वें सबसे सुरक्षित टैक्स हेवन के रूप में स्थान दिया।
दक्षिण अफ्रीकी कृषि उद्योग औपचारिक रोजगार में लगभग १०% का योगदान देता है, अफ्रीका के अन्य हिस्सों की तुलना में अपेक्षाकृत कम, साथ ही साथ आकस्मिक मजदूरों के लिए काम प्रदान करता है और राष्ट्र के लिए सकल घरेलू उत्पाद का लगभग २.६% योगदान देता है। भूमि की शुष्कता के कारण फसल उत्पादन के लिए केवल १३.५% का उपयोग किया जा सकता है, और केवल ३% को उच्च क्षमता वाली भूमि माना जाता है। अगस्त २0१३ में, देश की आर्थिक क्षमता, श्रम वातावरण, लागत-प्रभावशीलता, बुनियादी ढांचे, व्यापार मित्रता और विदेशी प्रत्यक्ष निवेश रणनीति के आधार पर एफडीआई इंटेलिजेंस द्वारा दक्षिण अफ्रीका को भविष्य के शीर्ष अफ्रीकी देश के रूप में स्थान दिया गया था।
दक्षिण अफ्रीका में एक बहुत बड़ा ऊर्जा क्षेत्र है और वर्तमान में अफ्रीकी महाद्वीप का एकमात्र देश है जिसके पास परमाणु ऊर्जा संयंत्र है। यह देश अफ्रीका में बिजली का सबसे बड़ा उत्पादक और दुनिया में २१ सबसे बड़ा उत्पादक देश भी है दक्षिण अफ्रीका २४८ मिलियन टन से अधिक कोयले का उत्पादन करता है और इसका लगभग तीन-चौथाई घरेलू स्तर पर खपत करता है। दक्षिण अफ्रीका की ऊर्जा जरूरतों का लगभग ७७% सीधे कोयले से प्राप्त होता है और अफ्रीकी महाद्वीप पर खपत होने वाले कोयले का ९२% दक्षिण अफ्रीका में खनन किया जाता है। अफ्रीका का सबसे बड़ा बिजली उत्पादक होने के बावजूद, देश एक ऊर्जा संकट का सामना कर रहा है जो देश की अर्थव्यवस्था पर भारी प्रभाव डालता है, लोडशेडिंग के लगातार दौर के रूप में प्रकट होने वाली सबसे उल्लेखनीयता, राज्य के रूप में व्यापक राष्ट्रीय स्तर के रोलिंग ब्लैकआउट की निरंतर अवधि है- स्वामित्व वाली बिजली कंपनी एस्कॉम दक्षिण अफ्रीका की ऊर्जा मांग को पूरा करने में विफल रही, यह २००७ के बाद के महीनों में शुरू हुई और आज भी जारी है।
दक्षिण अफ्रीका एक लोकप्रिय पर्यटन स्थल है, और पर्यटन से पर्याप्त मात्रा में राजस्व प्राप्त होता है। दक्षिण अफ्रीका एक विशाल, विविध और एक सुंदर देश है। यह अद्वितीय है और इसे "द वर्ल्ड इन वन कंट्री" के रूप में भी जाना जाता है। शेर, भैंस, तेंदुआ, गैंडा और हाथी की तलाश में दुनिया भर से वन्यजीव प्रेमी यहां आते हैं। वन्य जीवन और परिदृश्य के अलावा, गंतव्य प्रवाल भित्तियों, शार्क डाइव्स, व्हाइट-वाटर राफ्टिंग, सुनहरे समुद्र तटों, सर्फिंग और भी बहुत कुछ दिखाता है। दक्षिण अफ्रीका में सभी सनबाथ प्रेमियों के लिए लगभग ३००० किलोमीटर की खूबसूरत तटरेखा है। कोई भी स्थानीय और अंतरराष्ट्रीय व्यंजनों का अनुभव कर सकता है जिसमें दक्षिण अफ्रीका की अपनी प्रसिद्ध वाइन शामिल हैं।
दक्षिण अफ्रीका में घूमने के लिए सबसे अच्छी जगहें
एडो हाथी राष्ट्रीय उद्यान
कांगो की गुफाएं
दक्षिण अफ्रीका हमेशा से खनन का पावरहाउस रहा है। २०१३ में हीरा और सोने का उत्पादन अपने शिखर से काफी नीचे था, हालांकि दक्षिण अफ्रीका अभी भी सोने में पांचवें नंबर पर है, और खनिज संपदा का एक कॉर्नुकोपिया बना हुआ है। यह क्रोम, मैंगनीज, प्लेटिनम, वैनेडियम और वर्मीक्यूलाइट का दुनिया का सबसे बड़ा उत्पादक है । यह इल्मेनाइट, पैलेडियम, रूटाइल और जिरकोनियम का दूसरा सबसे बड़ा उत्पादक है। यह दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा कोयला निर्यातक है। यह लौह अयस्क का बहुत बड़ा उत्पादक है; २०१२ में, इसने भारत को पछाड़कर चीन को दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा लौह अयस्क आपूर्तिकर्ता बन गया, जो दुनिया का लौह अयस्क का सबसे बड़ा उपभोक्ता है।
१९९५ से २००३ तक, औपचारिक नौकरियों की संख्या में कमी आई और अनौपचारिक नौकरियों में वृद्धि हुई; समग्र बेरोज़गारी बिगड़ गई। केप टाउन विश्वविद्यालय द्वारा प्रकाशित आंकड़ों के अनुसार, २०१७ और २०२० के अंत के बीच, दक्षिण अफ्रीका ने अपने मध्यम वर्ग के कमाने वालों का ५६% खो दिया था, और न्यूनतम मजदूरी से कम कमाने वाले अति-गरीबों की संख्या में ६.६ मिलियन की वृद्धि हुई थी। (५४%)।
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अफ़्रीका के देश
अंग्रेज़ी-भाषी देश व क्षेत्र |
अमरीश पुरी (२२ जून १९३२ १२ जनवरी २००५) चरित्र अभिनेता मदन पुरी के छोटे भाई अमरीश पुरी हिन्दी फिल्मों की दुनिया का एक प्रमुख स्तंभ रहे है। अभिनेता के रूप निशांत, मंथन और भूमिका जैसी फ़िल्मों से अपनी पहचान बनाने वाले श्री पुरी ने बाद में खलनायक के रूप में काफी प्रसिद्धी पायी। उन्होंने १९८४ में बनी स्टीवेन स्पीलबर्ग की फ़िल्म "इंडियाना जोन्स एंड द टेम्पल ऑफ़ डूम" (अंग्रेज़ी- इंडियाना जोनस एंड थे टेम्पल ऑफ दूम) में मोलाराम की भूमिका निभाई जो काफ़ी चर्चित रही। इस भूमिका का ऐसा असर हुआ कि उन्होंने हमेशा अपना सिर मुँडा कर रहने का फ़ैसला किया। इस कारण खलनायक की भूमिका भी उन्हें काफ़ी मिली। व्यवसायिक फिल्मों में प्रमुखता से काम करने के बावज़ूद समांतर या अलग हट कर बनने वाली फ़िल्मों के प्रति उनका प्रेम बना रहा और वे इस तरह की फ़िल्मों से भी जुड़े रहे। फिर आया खलनायक की भूमिकाओं से हटकर चरित्र अभिनेता की भूमिकाओं वाले अमरीश पुरी का दौर। और इस दौर में भी उन्होंने अपनी अभिनय कला का जादू कम नहीं होने दिया फ़िल्म मिस्टर इंडिया के एक संवाद "मोगैम्बो खुश हुआ" किसी व्यक्ति का खलनायक वाला रूप सामने लाता है तो फ़िल्म दल्ज का संवाद "जा सिमरन जा - जी ले अपनी ज़िन्दगी" व्यक्ति का वह रूप सामने लाता है जो खलनायक के परिवर्तित हृदय का द्योतक है। इस तरह हम पाते है कि अमरीश पुरी भारतीय जनमानस के दोनों पक्षों को व्यक्त करते समय याद किये जाते है।
अमरीश पुरी ने सदी की सबसे बड़ी फिल्मों में कार्य किया।
उनके द्वारा शाहरुख खान की हिट फिल्म "दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे" में निभाये गए "बाबूजी" के किरदार की प्रशंसा सर्वत्र की जाती है।
उन्होंने मुख्यतः फिल्मो में विलेन का पात्र निभाते देखा गया है।
१९८७ में बनी अनिल कपूर की मिस्टर इंडिया में उन्होंने "मोगैम्बो" का किरदार निभाया जो कि फिल्म का मुख्य खलनायक है। इसी फिल्म में अमरीश का डायलॉग "मोगैम्बो खुश हुआ" फिल्म-जगत मेंं प्रसिद्ध है।
अमरीश पुरी ने अपनी शुरुआती पढ़ाई पजाब से की। उसके बाद वह शिमला चले गए। शिमला के बी एम कॉलेज(ब.म. कॉलेज) से पढ़ाई करने के बाद उन्होंने अभिनय की दुनिया में कदम रखा। शुरुआत में वह रंगमंच से जुड़े और बाद में फिल्मों का रुख किया। उन्हें रंगमंच से उनको बहुत लगाव था। एक समय ऐसा था जब अटल बिहारी वाजपेयी और स्व. इंदिरा गांधी जैसी हस्तियां उनके नाटकों को देखा करती थीं। पद्म विभूषण रंगकर्मी अब्राहम अल्काजी से १९६१ में हुई ऐतिहासिक मुलाकात ने उनके जीवन की दिशा बदल दी और वे बाद में भारतीय रंगमंच के प्रख्यात कलाकार बन गए।
अमरीश पुरी ने १९६० के दशक में रंगमंच की दुनिया से अपने अभिनय करियर की शुरुआत की। उन्होंने सत्यदेव दुबे और गिरीश कर्नाड के लिखे नाटकों में प्रस्तुतियां दीं। रंगमंच पर बेहतर प्रस्तुति के लिए उन्हें १९७९ में संगीत नाटक अकादमी की तरफ से पुरस्कार दिया गया, जो उनके अभिनय कॅरियर का पहला बड़ा पुरस्कार था।
अमरीश पुरी के फ़िल्मी करियर शुरुआत साल १९७१ की प्रेम पुजारी से हुई। पुरी को हिंदी सिनेमा में स्थापित होने में थोड़ा वक्त जरूर लगा, लेकिन फिर कामयाबी उनके कदम चूमती गयी। १९८० के दशक में उन्होंने बतौर खलनायक कई बड़ी फिल्मों में अपनी छाप छोड़ी। १९८७ में शेखर कपूर की फिल्म मिस्टर इंडिया में मोगैंबो की भूमिका के जरिए वे सभी के जेहन में छा गए। १९९० के दशक में उन्होंने दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे घायल और विरासत में अपनी सकारात्मक भूमिका के जरिए सभी का दिल जीता।
अमरीश पुरी ने हिंदी के अलावा कन्नड़, पंजाबी, मलयालम, तेलुगू और तमिल फिल्मों तथा हॉलीवुड फिल्म में भी काम किया। उन्होंने अपने पूरे कॅरियर में ४०० से ज्यादा फिल्मों में अभिनय किया। अमरीश पुरी के अभिनय से सजी कुछ मशहूर फिल्मों में 'निशांत', 'गांधी', 'कुली', 'नगीना', 'राम लखन', 'त्रिदेव', 'फूल और कांटे', 'विश्वात्मा', 'दामिनी', 'करण अर्जुन', 'कोयला' आदि शामिल हैं। दर्शक उनकी खलनायक वाली भूमिकाओं को देखने के लिए बेहद उत्साहित होते थे।
उनके जीवन की अंतिम फिल्म 'किसना' थी जो उनके निधन के बाद वर्ष २००५ में रिलीज़ हुई। उन्होंने कई विदेशी फिल्मों में भी काम किया। उन्होंने इंटरनेशनल फिल्म 'गांधी' में 'खान' की भूमिका निभाई था जिसके लिए उनकी खूब तारीफ हुई थी। अमरीश पुरी का १२ जनवरी २००५ को ७२ वर्ष के उम्र में ब्रेन ट्यूमर की वजह से उनका निधन हो गया। उनके अचानक हुए इस निधन से बॉलवुड जगत के साथ-साथ पूरा देश शोक में डूब गया था। आज अमरीश पुरी इस दुनिया में नहीं हैं लेकिन उनकी यादें आज भी फिल्मों के माध्यम से हमारे दिल में बसी हैं।
इन्हें भी देखें
फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार विजेता
१९३२ में जन्मे लोग
२००५ में निधन
लाहौर के लोग |
पुर्तगाली गणराज्य यूरोप खंड में स्थित देश है। यह देश स्पेन के साथ आइबेरियन प्रायद्वीप बनाता है। इस राष्ट्र का भाषा पुर्तगाली भाषा है। इस राष्ट्र का राजधानी लिस्बन है।
पुर्तगाली नाविक वास्को द गामा ने १४९८ अध में भारत के समुद्री मार्ग की खोज की थी। सर्वप्रथम ग्लास का निर्माण इसी देश ने किया था।
यह भी देखिए
यूरोप के देश
पुर्तगाली-भाषी देश व क्षेत्र |
उन्नाव (उन्नाओ) भारत के उत्तर प्रदेश राज्य के उन्नाव ज़िले में स्थित एक नगर है। यह ज़िले का मुख्यालय भी है उन्नाव जिले की सुरुआत लखनऊ सीमा से सोहरामऊ से होती है , सोहरामऊ लखनऊ कानपुर रोड पर सबसे ज्यादा बस्ती वाला कस्बा है।
उन्नाव जनपद लखनऊ तथा कानपुर के बीच में स्थित है। उन्नाव की सुरूवात सई नदी के पुल से सोहरामऊ से होती है यह लखनऊ उन्नाव की सीमा पर स्थित है । यह लखनऊ से लगभग ६० किलोमीटर तथा कानपुर से १८ किलोमीटर दूर है। दोनों शहरों को जोड़ने वाले राजमार्ग व रेलमार्ग यहाँ से गुज़रते है। जनपद के पूर्व में सईं नदी व लखनऊ नगर की सीमाएँ, पश्चिम में गंगा नदी और कानपुर नगर की सीमाएँ, उत्तर में हरदोई, दक्षिण में रायबरेली व दक्षिण-पश्चिम में फतेहपुर है। जनपद मुख्यालय से ६ किमी की दूरी पर शारदा नहर के तट पर स्थित प्रियदर्शी नगर (हिन्दूखेड़ा) ग्राम में सम्राट बृहद्रथ बुद्ध विहार में राष्ट्रीय प्रतीक चिह्न अशोक स्तम्भ निर्मित है।
पौराणिक मान्यता के अनुसार उन्नाव के गंगा तट के परियर नामक स्थल पर बैठकर महर्षि वाल्मीकि ने दुनिया के प्रथम महाकाव्य "रामायण" की रचना की थी। मान्यता है कि लव-कुुुश ने राम की सेना को यहीं परास्त किया था। गौतम बुद्ध ने जनपद के बांगरमऊ ब्लॉक के नेवल जगटापुर ग्राम में ५१२ ई.पू. में १६वाँ वर्षावास व्यतीत किया। नगर को अभी तक अनेक देशभक्त, हिंदी साहित्य के पुरोधाओ की धरती से जाना जाता है। ह्वेन त्सांग ने जनपद के बांगरमऊ स्थल का जिक्र ना-फो-टु-पो-कु-लो नाम से किया है। १८५७ की क्रांति के बाद तत्काल अवध के बैसवारा चकला को विभाजित करके उत्तरी भाग उन्नाव को नया जनपद बनाया गया।
हिन्दी साहित्य में इसके पश्चात भगवती चरण वर्मा, नन्ददुलारे वाजपेयी, जगदंबा प्रसाद मिश्रा 'हितैषी' एवं डॉ॰ राम विलास शर्मा, डॉ॰ शिवमंगल सिंह 'सुमन' , प्रतापनारायण मिश्र, सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला' ,आल्हा सम्राट लल्लू बाजपेई , रमई काका दिनेश बैसवारी केे नाम से जाना जाता है।
इन्हें भी देखें
उन्नाव स्वर्ण खजाने की घटना
उत्तर प्रदेश के नगर
उन्नाव ज़िले के नगर |
गोरखपुर भारत के उत्तर प्रदेश राज्य के पूर्वी भाग में, नेपाल की सीमा के पास, गोरखपुर ज़िले में स्थित एक प्रसिद्ध नगर है। यह जिले का प्रशासनिक मुख्यालय और पूर्वोत्तर रेलवे (एन०ई०आर०) का मुख्यालय भी है। गोरखपुर ज़िले की सीमाएँ पूर्व में देवरिया एवं कुशीनगर से, पश्चिम में संत कबीर नगर से, उत्तर में महराजगंज एवं सिद्धार्थनगर से, तथा दक्षिण में मऊ, आज़मगढ़ तथा अम्बेडकर नगर से लगती हैं।
गोरखपुर का महत्व
गोरखपुर एक प्रसिद्ध धार्मिक केन्द्र है, जो अतीत से बौद्ध, हिन्दू, मुस्लिम, जैन और सिख सन्तों की साधनास्थली रहा है। किन्तु मध्ययुगीन सर्वमान्य सन्त गोरखनाथ के बाद, उनके ही नाम पर इसका वर्तमान नाम गोरखपुर रखा गया। यहाँ का प्रसिद्ध गोरखनाथ मन्दिर अभी भी नाथ सम्प्रदाय की पीठ है। यह महान सन्त परमहंस योगानन्द का जन्म स्थान भी है। इस शहर में और भी कई ऐतिहासिक स्थल हैं जैसे, बौद्धों के घर, इमामबाड़ा, १८वीं सदी की दरगाह और हिन्दू धार्मिक ग्रन्थों का प्रमुख प्रकाशन संस्थान गीताप्रेस। गोरखपुर जंक्शन रेलवे स्टेशन गोरखपुर शहर का रेलवे स्टेशन है। गिनीज़ बुक ऑफ़ वर्ल्ड रिकॉर्ड्स के अनुसार विश्व का सर्वाधिक लम्बा प्लेटफॉर्म यहीं पर स्थित है। यह सन् १९३० में शुरू हुआ।
२०वीं सदी में, गोरखपुर भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन का एक केन्द्र बिन्दु था और आज यह शहर एक प्रमुख व्यापार केन्द्र बन चुका है। पूर्वोत्तर रेलवे का मुख्यालय, जो ब्रिटिश काल में 'बंगाल नागपुर रेलवे' के रूप में जाना जाता था, यहीं स्थित है। अब इसे एक औद्योगिक क्षेत्र के रूप में विकसित करने के लिये गोरखपुर औद्योगिक विकास प्राधिकरण (गीडा/गिडा) की स्थापना पुराने शहर से १५ किमी दूर की गयी है। गोरखपुर में गोरखनाथ मंदिर भी है, जो इस जिले का प्रमुख मंदिर है।
(आधिकारिक जनगणना २०११ के आँकड़ों के अनुसार)
भौगोलिक क्षेत्र ३,4८३.८ वर्ग किलोमीटर
लिंग अनुपात ९४४/१०००
ग्रामीण जनसंख्या ८१.२२%
शहरी जनसंख्या १८.७८%
जनसंख्या घनत्व १,३३६ व्यक्ति प्रति वर्ग किलोमीटर
२०२० की एक रिपोर्ट के अनुसार ३२ गांवों को नगर निगम की सीमा में शामिल किया गया है,जिससे जनसंख्या १० लाख से अधिक हो गई है और नगरनिगम के आंकड़ो के अनुसार वर्तमान मे गोरखपुर महानगर की आबादी १५ लाख है। शहर का क्षेत्रफल भी २०११ में १४५.५ किमी२ से बढ़कर २२६.६ किमी२ हो गया है।
नाम की उत्पत्ति
गोरखपुर शहर और जिले के का नाम प्रसिद्ध तपस्वी सन्त मत्स्येन्द्रनाथ के प्रमुख शिष्य गोरखनाथ के नाम पर पड़ा है। योगी मत्स्येन्द्रनाथ एवं उनके प्रमुख शिष्य गोरक्षनाथ ने मिलकर सन्तों के सम्प्रदाय की स्थापना की थी। गोरखनाथ मन्दिर के बारे में कहा जाता है कि यह वही स्थान है जहाँ गोरखनाथ हठ योग का अभ्यास करने के लिये आत्म नियन्त्रण के विकास पर विशेष बल दिया करते थे और वर्षानुवर्ष एक ही मुद्रा में धूनी रमाये तपस्या किया करते थे। गोरखनाथ मन्दिर में आज भी वह धूनी की आग अनन्त काल से अनवरत सुलगती हुई चली आ रही है।
प्राचीन समय में गोरखपुर के भौगोलिक क्षेत्र में बस्ती, देवरिया, कुशीनगर, आजमगढ़, मऊ आदि आधुनिक जिले शामिल थे। वैदिक लेखन के मुताबिक, अयोध्या के सत्तारूढ़ ज्ञात सम्राट इक्ष्वाकु, जो सूर्यवंश के संस्थापक थे जिनके वंश में उत्पन्न सूर्यवंशी राजाओं में रामायण के राम को सभी अच्छी तरह से जानते हैं। पूरे क्षेत्र में अति प्राचीन आर्य संस्कृति और सभ्यता के प्रमुख केन्द्र कोशल और मल्ल, जो सोलह महाजनपदों में दो प्रसिद्ध राज्य ईसा पूर्व छ्ठी शताब्दी में विद्यमान थे, यह उन्ही राज्यों का एक महत्वपूर्ण केन्द्र हुआ करता था।
गोरखपुर में राप्ती और रोहिणी नदियों का संगम होता है। ईसा पूर्व छठी शताब्दी में गौतम बुद्ध ने सत्य की खोज के लिये जाने से पहले अपने राजसी वस्त्र त्याग दिये थे। बाद में उन्होने मल्ल राज्य की राजधानी कुशीनारा, जो अब कुशीनगर के रूप में जाना जाता है, पर मल्ल राजा हस्तिपाल मल्ल के आँगन में अपना शरीर त्याग दिया था। कुशीनगर में आज भी इस आशय का एक स्मारक है। यह शहर भगवान बुद्ध के समकालीन २४वें जैन तीर्थंकर भगवान महावीर की यात्रा के साथ भी जुड़ा हुआ है। भगवान महावीर जहाँ पैदा हुए थे वह स्थान गोरखपुर से बहुत दूर नहीं है। बाद में उन्होने पावापुरी में अपने मामा के महल में महानिर्वाण (मोक्ष) प्राप्त किया। यह पावापुरी कुशीनगर से लगभग १५ किलोमीटर की दूरी पर है। ये सभी स्थान प्राचीन भारत के मल्ल वंश की जुड़वा राजधानियों (१६ महाजनपद) के हिस्से थे। इस तरह गोरखपुर में क्षत्रिय गण संघ, जो वर्तमान समय में मल्ल-सैंथवार के रूप में जाना जाता है, का राज्य भी कभी था।
इक्ष्वाकु राजवंश के बाद मगध पर जब नंद राजवंश द्वारा चौथी सदी में विजय प्राप्त की उसके बाद गोरखपुर मौर्य, शुंग, कुषाण, गुप्त और हर्ष साम्राज्यों का हिस्सा बन गया। भारत का महान सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य जो मौर्य वंश का संस्थापक था, उसका सम्बन्ध पिप्पलीवन के एक छोटे से प्राचीन गणराज्य से था। यह गणराज्य भी नेपाल की तराई और कसिया में रूपिनदेई के बीच उत्तर प्रदेश के इसी गोरखपुर जिले में स्थित था। १० वीं सदी में थारू जाति के राजा मदन सिंह ने गोरखपुर शहर और आसपास के क्षेत्र पर शासन किया। राजा विकास संकृत्यायन का जन्म स्थान भी यहीं रहा है।
मध्यकालीन समय में, इस शहर को मध्यकालीन हिन्दू सन्त गोरक्षनाथ के नाम पर गोरखपुर नाम दिया गया था। हालांकि गोरक्षनाथ की जन्म तिथि अभी तक स्पष्ट नहीं है, तथापि जनश्रुति यह भी है कि महाभारत काल में युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ का निमन्त्रण देने उनके छोटे भाई भीम स्वयं यहाँ आये थे। चूँकि गोरक्षनाथ जी उस समय समाधिस्थ थे अत: भीम ने यहाँ कई दिनों तक विश्राम किया था। उनकी विशालकाय लेटी हुई प्रतिमा आज भी हर साल तीर्थयात्रियों की एक बड़ी संख्या को अपनी ओर आकर्षित करती है।
१२वीं सदी में, गोरखपुर क्षेत्र पर उत्तरी भारत के मुस्लिम शासक मुहम्मद गौरी ने विजय प्राप्त की थी बाद में यह क्षेत्र कुतुबुद्दीन ऐबक और बहादुरशाह, जैसे मुस्लिम शासकों के प्रभाव में कुछ शताब्दियों के लिए बना रहा। शुरुआती १६वीं सदी के प्रारम्भ में भारत के एक रहस्यवादी कवि और प्रसिद्ध सन्त कबीर भी यहीं रहते थे और मगहर नाम का एक गाँव (वर्तमान संतकबीरनगर जिले में स्थित), जहाँ उनके दफन करने की जगह अभी भी कई तीर्थयात्रियों को आकर्षित करती है, गोरखपुर से लगभग २० किमी दूर स्थित है।
१६वीं शताब्दी में मुगल बादशाह अकबर ने साम्राज्य के पुनर्गठन पर, जो पाँच सरकार स्थापित की थीं सरकार नाम की उन प्रशासनिक इकाइयों में अवध प्रान्त के अन्तर्गत गोरखपुर का नाम मिलता है।
गोरखपुर १८०३ में सीधे ब्रिटिश नियन्त्रण में आया। यह १८५७ के विद्रोह के प्रमुख केंद्रों में रहा और बाद में भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में इसने एक प्रमुख भूमिका निभायी।
गोरखपुर जिला चौरीचौरा की ४ फ़रवरी १९२२ की घटना जो भारत के स्वतंत्रता संघर्ष के इतिहास में एक महत्वपूर्ण मोड़ सिद्ध हुई, के बाद चर्चा में आया जब पुलिस अत्याचार से गुस्साये २००० लोगों की एक भीड़ ने चौरीचौरा का थाना ही फूँक दिया जिसमें उन्नीस पुलिसकर्मियों की मृत्यु हो गयी। आम जनता की इस हिंसा से घबराकर महात्मा गांधी ने अपना असहयोग आंदोलन यकायक स्थगित कर दिया। जिसका परिणाम यह हुआ कि उत्तर प्रदेश में ही हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन नाम का एक देशव्यापी प्रमुख क्रान्तिकारी दल गठित हुआ जिसने ९ अगस्त 1९25 को काकोरी काण्ड करके ब्रिटिश सरकार को खुली चुनौती दी जिसके परिणामस्वरूप दल के प्रमुख क्रन्तिकारी नेता राम प्रसाद बिस्मिल' को गोरखपुर जेल में ब्रिटिश शासन के खिलाफ लड़ाई में सक्रिय भाग लेने के लिये फाँसी दे दी गयी। 1९ दिसम्बर 1९27 को बिस्मिल की अन्त्येष्टि जहाँ पर की गयी वह राजघाट नाम का स्थान गोरखपुर में ही राप्ती नदी के तट पर स्थित है।
सन १९३४ में यहाँ एक भूकम्प आया था जिसकी तीव्रता ८.१ रिक्टर पैमाने पर मापी गयी, उससे शहर में बहुत ज्यादा नुकसान हुआ था।
जिले में घटी दो अन्य महत्वपूर्ण घटनाओं ने १९४२ में शहर को और अधिक चर्चित बनाया। प्रसिद्ध भारत छोड़ो आंदोलन के बाद शीघ्र ही ९ अगस्त को जवाहर लाल नेहरू को गिरफ्तार किया गया था और इस जिले में उन पर मुकदमा चलाया गया। उन्होंने यहाँ की जेल में अगले तीन साल बिताये। सहजनवा तहसील के पाली ब्लॉक अन्तर्गत डोहरिया गाँव में २३ अगस्त को आयोजित एक विरोध सभा पर ब्रिटिश सरकार के सुरक्षा बलों ने गोलियाँ चलायीं जिसके परिणामस्वरूप अकारण नौ लोग मारे गये और सैकड़ों घायल हो गये। एक शहीद स्मारक आज भी उस स्थान पर खड़ा है।
यह नगर राप्ती और रोहिणी नामक दो नदियों के तट पर बसा हुआ है। नेपाल से निकलने वाली इन दोनों नदियों में सहायक नदियों का पानी एकत्र हो जाने से कभी-कभी इस क्षेत्र में भयंकर बाढ भी आ जाती है। यहाँ एक बहुत बड़ा तालाब भी है जिसे रामगढ़ ताल कहते हैं। यह बारिश के दिनों में अच्छी खासी झील के रूप में परिवर्तित हो जाता है जिससे आस-पास के गाँवों की खेती के लिये पानी की कमी नहीं रहती।
गोरखपुर महानगर की अर्थव्यवस्था सेवा-उद्योग पर आधारित है। यहाँ का उत्पादन उद्योग पूर्वांचल के लोगों को बेहतर शिक्षा, चिकित्सा और अन्य सुविधायें, जो गांवों की तुलना में उपलब्ध कराता है जिससे गांवों से शहर की ओर पलायन रुकता है। एक बेहतर भौगोलिक स्थिति और उप शहरी पृष्ठभूमि के लिये शहर की अर्थव्यवस्था सेवा में वृद्धि पर निश्चित रूप से टिकी हुई है।
शहर हाथ से बुने कपडों के लिये प्रसिद्ध है यहाँ का टेराकोटा उद्योग अपने उत्पादों के लिए जाना जाता है। अधिक से अधिक व्यावसायिक दृष्टिकोण को ध्यान में रखते हुए सभी राष्ट्रीयकृत बैंकों की शाखायें भी हैं। विशेष रूप में आई०सी०आई०सी०आई०, एच०डी०एफ०सी० और आई०डी०बी०आई० बैंक जैसे निजी बैंकों ने इस शहर में अच्छी पैठ बना रखी है।
शहर के भौगोलिक केन्द्र "गोलघर" में कई प्रमुख दुकानों, होटलों, बैंकों और रेस्तराँ के रूप में बलदेव प्लाजा शॉपिंग मॉल शामिल हैं। इसके अतिरिक्त बख्शीपुर में भी कई शॉपिंग माल हैं। यहाँ के "सिटी माल" में ३ स्क्रीन वाला आइनॉक्स मल्टीप्लेक्स भी है जो फिल्म प्रेमियों के लिये एक आकर्षण है। यहाँ एक वाटर पार्क भी है।
गोरखपुर शहर की संस्कृति अपने आप में अद्भुत है। यहाँ परम्परा और संस्कृति का संगम प्रत्येक दिन सुरम्य शहर में देखा जा सकता है। जब आप का दौरा गोरखपुर शहर में हो तो जीवन और गति का सामंजस्य यहाँ आप भली-भाँति देख सकते हैं। सुन्दर और प्रभावशाली लोक परम्पराओं का पालन करने में यहाँ के निवासी नियमित आधार पर अभ्यस्त हैं। यहाँ के लोगों की समृद्ध संस्कृति के साथ लुभावनी दृश्यावली का अवलोकन कर आप मन्त्रमुग्ध हुए बिना नहीं रह सकते। गोरखपुर की महिलाओं की बुनाई और कढ़ाई, लकड़ी की नक्काशी, दरवाजों और उनके शिल्प-सौन्दर्य, इमारतों के बाहर छज्जों पर छेनी-हथौडे का बारीक कार्य आपका मन मोह लेगा। गोरखपुर में संस्कृति के साथ-साथ यहाँ का जन-जीवन बड़ा शान्त और मेहनती है। देवी-देवताओं की छवियों, पत्थर पर बने बारीक कार्य देखते ही बनते हैं। ब्लॉकों से बनाये गये हर मन्दिर को सजाना यहाँ की एक धार्मिक संस्कृति है। गोरखपुर शहर में स्वादिष्ट भोजन के कई विकल्प हैं। रामपुरी मछली पकाने की परम्परागत सांस्कृतिक पद्धति और अवध के काकोरी कबाब की थाली यहाँ के विशेष व्यंजन हैं।
गोरखपुर संस्कृति का सबसे बड़ा भाग यहाँ के लोक-गीतों और लोक-नृत्यों की परम्परा है। यह परम्परा बहुत ही कलात्मक है और गोरखपुर संस्कृति का ज्वलन्त हिस्सा है। यहाँ के बाशिन्दे गायन और नृत्य के साथ काम-काज के लम्बे दिन का लुत्फ लेते हैं। वे विभिन्न अवसरों पर नृत्य और लोक-गीतों का प्रदर्शन विभिन्न त्योहारों और मौसमों में वर्ष के दौरान करते है। बारहो महीने बरसात और सर्दियों में रात के दौरान आल्हा, कजरी, कहरवा और फाग गाते हैं। गोरखपुर के लोग हारमोनियम, ढोलक, मंजीरा, मृदंग, नगाडा, थाली आदि का संगीत-वाद्ययन्त्रों के रूप में भरपूर उपयोग करते हैं। सबसे लोकप्रिय लोक-नृत्य कुछ त्योहारों व मेलों के विशेष अवसर पर प्रदर्शित किये जाते हैं। विवाह के मौके पर गाने के लिये गोरखपुर की विरासत और परम्परागत नृत्य उनकी संस्कृति का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। गोरखपुर प्रसिद्ध बिरहा गायक बलेसर, भोजपुरी लोकगायक मनोज तिवारी, मालिनी अवस्थी, मैनावती आदि की कर्मभूमि रहा है।
रहस्यवादी कवि और प्रसिद्ध सन्त कबीर (१४४०-१५१८) यहीं के थे। उनका मगहर नाम के एक गाँव (गोरखपुर से २० किमी दूर) देहान्त हुआ। कबीर दास ने अपनी कविताओं के माध्यम से अपने देशवासियों में शान्ति और धार्मिक सद्भाव स्थापित करने की कोशिश की। उनकी मगहर में बनी दफन की जगह तीर्थयात्रियों की एक बड़ी संख्या को अपनी ओर आकर्षित करती है।
मुंशी प्रेमचंद (१८८०-१९३६)], भारत के एक महान हिन्दी उपन्यासकार, गोरखपुर में रहते थे। वह घर जहाँ वे रहते थे और उन्होंने अपना साहित्य लिखा उसके समीप अभी भी एक मुंशी प्रेमचंद पार्क उनके नाम पर स्थापित है।
संस्कृत के प्रकाण्ड विद्वान तथा हिन्दी साहित्यकार और सफल सम्पादक विद्यानिवास मिश्र यहीं के थे।
फिराक गोरखपुरी (१८९६-१९८२, पूरा नाम : रघुपति सहाय फिराक), प्रसिद्ध उर्दू कवि, गोरखपुर में उनका बचपन का घर अभी भी है। वह बाद में इलाहाबाद में चले गया जहाँ वे लम्बे समय तक इलाहाबाद विश्वविद्यालय में अंग्रेजी के प्रोफेसर रहे।
परमानन्द श्रीवास्तव (जन्म: १० फ़रवरी १९३५ - मृत्यु: ५ नवम्बर २०१३) हिन्दी के प्रतिष्ठित साहित्यकार थे। उनकी गणना हिन्दी के शीर्ष आलोचकों में होती है। गोरखपुर विश्वविद्यालय में प्रेमचन्द पीठ की स्थापना में उनका विशेष योगदान रहा। कई पुस्तकों के लेखन के अतिरिक्त उन्होंने हिन्दी भाषा की साहित्यिक पत्रिका आलोचना का सम्पादन भी किया था। आलोचना के क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान के लिये उन्हें व्यास सम्मान और भारत भारती पुरस्कार प्रदान किया गया। लम्बी बीमारी के बाद उनका गोरखपुर में निधन हो गया।
प्रसिद्ध संगीत निर्देशक लक्ष्मीकान्त प्यारेलाल का जन्म इसी शहर गोरखपुर में हुआ था।
जनसंख्या की प्रमुख संरचना में हिन्दू धर्म के कायस्थ, ब्राह्मण, क्षत्रिय, मारवाड़ी वैश्य समाज व मुसलमान, सिख, ईसाई, शामिल हैं। कुछ समय से बिहार के लोग भी आकर गोरखपुर में बसने लगे हैं। शहर में स्थित दुर्गाबाड़ी बंगाली समुदाय के सैकड़ों लोगों का भी निवासस्थल है जो कि पूर्वी उत्तर प्रदेश में एक विलक्षण बात है।
गोरखपुर की भाषा में हिन्दी और भोजपुरी शामिल है। इन दोनों भाषाओं का भारत में व्यापक रूप से प्रयोग किया जाता है। हिन्दी भाषा तो अधिकांश भारतीयों की मातृभाषा है परन्तु जो हिन्दी गोरखपुर में बोली जाती है उसकी भाषा में कुछ स्थानीय भिन्नता है। लेकिन यह शहर में सबसे व्यापक रूप से प्रयुक्त भाषा है। शहर की दूसरी भाषा भोजपुरी है। इसमें उत्तर प्रदेश के क्षेत्र में बोली जाने वाली विशेष रूप से भोजपुरी की कई बोलियाँ शामिल हैं। भोजपुरी संस्कृत, हिन्दी, उर्दू और अन्य भाषाओं के हिन्द-आर्यन आर्यन शब्दावली के मिश्रणों से बनी है। भोजपुरी भाषा बिहारी भाषाओं से भी सम्बन्धित है। यह भोजपुरी भाषा ही है जो फिजी, त्रिनिदाद, टोबैगो, गुयाना, मारीशस और सूरीनाम में भी बोली जाती है।
उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल में गोरखपुर पर्यटन परिक्षेत्र एक विस्तृत भू-भाग में फैला हुआ है। इसके अंतर्गत गोरखपुर- मण्डल, बस्ती-मण्डल एवं आजमगढ़-मण्डल के कई जनपद है। अनेक पुरातात्विक, आध्यात्मिक, ऐतिहासिक, सांस्कृतिक एवं प्राकृतिक धरोहरों को समेटे हुए इस पर्यटन परिक्षेत्र की अपनी विशिष्ट परम्पराए हैं। सरयू, राप्ती, गंगा, गण्डक, तमसा, रोहिणी जैसी पावन नदियों के वरदान से अभिसंचित, भगवान बुद्ध, तीर्थकर महावीर, संत कबीर, गुरु गोरखनाथ की तपःस्थली, सर्वधर्म-सम्भाव के संदेश देने वाले विभिन्न धर्मावलम्बियों के देवालयों और प्रकृति द्वारा सजाये-संवारे नयनाभिराम पक्षी-विहार एवं अभयारण्यों से परिपूर्ण यह परिक्षेत्र सभी वर्ग के पर्यटकों का आकर्षण-केन्द्र है।
गोरखपुर रेलवे स्टेशन से ४ किलोमीटर पश्चिमोत्तर में स्थित नाथ सम्प्रदाय के संस्थापक सिद्ध पुरूष श्री मत्स्येन्द्रनाथ (निषाद) के शिष्य परम सिद्ध गुरु गोरखनाथ का अत्यन्त सुन्दर भव्य मन्दिर स्थित है। यहां प्रतिवर्ष मकर संक्रांति के अवसर पर 'खिचड़ी-मेला' का आयोजन होता है, जिसमें लाखों की संख्या में श्रद्धालु/पर्यटक सम्मिलित होते हैं। यह एक माह तक चलता है।
यह मेडिकल कॉलेज मार्ग पर रेलवे स्टेशन से ३ किलोमीटर की दूरी पर शाहपुर मोहल्ले में स्थित है। इस मन्दिर में १२वीं शताब्दी की पालकालीन काले कसौटी पत्थर से निर्मित भगवान विष्णु की विशाल प्रतिमा स्थापित है। यहां दशहरा के अवसर पर पारम्परिक रामलीला का आयोजन होता है।
रेलवे स्टेशन से ४ किलोमीटर दूरी पर रेती चौक के पास स्थित गीताप्रेस में सफ़ेद संगमरमर की दीवारों पर श्रीमद्भगवदगीता के सम्पूर्ण १८ अध्याय के श्लोक उत्कीर्ण है। गीताप्रेस की दीवारों पर मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम एवं भगवान श्रीकृष्ण के जीवन की महत्त्वपूर्ण घटनाओं की 'चित्रकला' प्रदर्शित हैं। यहां पर हिन्दू धर्म की दुर्लभ पुस्तकें, हैण्डलूम एवं टेक्सटाइल्स वस्त्र सस्ते दर पर बेचे जाते हैं। विश्व प्रसिद्ध पत्रिका कल्याण का प्रकाशन यहीं से किया जाता है।
रेलवे स्टेशन से ९ किलोमीटर दूर गोरखपुर-कुशीनगर मार्ग पर अत्यन्त सुन्दर एवं मनोहारी छटा से पूर्ण मनोरंजन केन्द्र (पिकनिक स्पॉट) स्थित है जहाँ बारहसिंघे व अन्य हिरण, अजगर, खरगोश तथा अन्य वन्य पशु-पक्षी विचरण करते हैं। यहीं पर प्राचीन बुढ़िया माई का स्थान भी है, जो नववर्ष, नवरात्रि तथा अन्य अवसरों पर कई श्रद्धालुओं को आकर्षित करता है।
गोरखपुर-पिपराइच मार्ग पर रेलवे स्टेशन से ३ किलोमीटर दूरी पर स्थित गीतावाटिका में राधा-कृष्ण का भव्य मनमोहक मन्दिर स्थित है। इसकी स्थापना प्रख्यात समाजसेवी हनुमान प्रसाद पोद्दार ने की थी।
यह तालाब गोररखपुर शहर के अन्दर स्थित एक विशाल तालाब (ताल) है। यह रेलवे स्टेशन से ५ किलोमीटर दक्षिण में १७०० एकड़ के विस्तृत भू-भाग में स्थित है। इसका परिमाप लगभग १८ किमी है। यह पर्यटकों के लिए अत्यन्त आकर्षक केन्द्र है। यहां पर जल-क्रीड़ा केन्द्र, नौकाविहार, बौद्ध संग्रहालय, तारा मण्डल, चम्पादेवी पार्क एवं अम्बेडकर उद्यान आदि दर्शनीय स्थल हैं।
गोरखपुर नगर के मध्य में रेलवे स्टेशन से २ किलोमीटर दूरी पर स्थित इस इमामबाड़ा का निर्माण हज़रत बाबा रोशन अलीशाह की अनुमति से सन् १७१७ ई० में नवाब आसफुद्दौला ने करवाया। उसी समय से यहां पर दो बहुमूल्य ताजियां एक स्वर्ण और दूसरा चांदी का रखा हुआ है। यहां से मुहर्रम का जुलूस निकलता है।
प्राचीन महादेव झारखंडी मन्दिर
गोरखपुर शहर से देवरिया मार्ग पर कूड़ाघाट बाज़ार के निकट शहर से ४ किलोमीटर पर यह प्राचीन शिव स्थल रामगढ़ ताल के पूर्वी भाग में स्थित है।
मुंशी प्रेमचन्द उद्यान
गोरखपुर नगर के मध्य में रेलवे स्टेशन से ६ किलोमीटर की दूरी पर स्थित यह मनोरम उद्यान प्रख्यात साहित्यकार मुंशी प्रेमचन्द के नाम पर बना है। इसमें प्रेमचन्द्र के साहित्य से सम्बन्धित एक विशाल पुस्तकालय निर्मित है तथा यह उन दिनों का द्योतक है जब मुंशी प्रेमचन्द गोरखपुर में एक शिक्षक थे।
गोरखपुर नगर के एक कोने में रेलवे स्टेशन से ४ किलोमीटर दूरी पर स्थित ताल के मध्य में स्थित इस स्थान में के बारे में यह विख्यात है कि भगवान श्री राम ने यहाँ पर विश्राम किया था जो कि कालान्तर में भव्य सुर्यकुण्ड मन्दिर बना। १० एकड में फैला है।
गोरखनाथ मन्दिर (एक सन्त समर्पित मठ)
प्रणव मन्दिर ॐकार अश्राम (महर्षि ओमकरानन्द द्वारा स्थापित )
भारतीय वायुसेना (जगुआर स्टेशन)
दुनिया का सबसे बड़ा सहारा इंडिया परिवार (सबसे पहले पूरी दुनिया में स्थापित)
सरस्वती शिशु मन्दिर (सबसे पहले पूरी दुनिया में स्थापित शिक्षण सस्थान ???)
भगवान बुद्ध संग्रहालय (एक बौद्ध संग्रहालय)
तारामण्डल (मुख्यमंत्री वीर बहादुर सिंह द्वारा स्थापित)
रामगढ़ ताल (झील)
सैयद मोदी रेलवे स्टेडियम
गोरखा राइफल्स रेजीमेण्ट
नीर-निकुंज (उत्तर प्रदेश में सबसे बड़ा पानी का पार्क)
बुढिया माता मन्दिर ( कुस्मही मे)
शाही जामा मस्जिद (उर्दू बाजार में पुराने शहर की एक प्रसिद्ध मस्जिद)
इमामबाड़ा (रोशन अली शाह नामक सूफी सन्त की दरगाह)
इन्दिरा गान्धी बाल विहार
जामा मस्जिद रसूलापुर
जामा मस्जिद (गोरखनाथ मन्दिर के पास)
नूर मस्जिद (चिल्मापुर रुस्तमपुर)
मदीना मस्जिद (रेती रोड)
गाया-ए-मस्जिद (मदरसा चौक बसन्तपुर)
विनोद वन चिड़ियाघर (सबसे बड़ा)
ऑल इंडिया रेडियो (१००.१० मेगाहर्ट्ज)
फीवर फ्म(९४.३ मेगा हर्ट्ज)
बिग फ्म(९२.७ मेगा हर्ट्ज)
रेडियो सिटी(९१.९ मेगा हर्ट्ज)
मुख्य स्कूल, कॉलेज और विश्वविद्यालय
दीनदयाल उपाध्याय विश्वविद्यालय, बी० आर० डी० एम० एम० एम० मैडिकल कॉलेज, मदन मोहन मालवीय प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय और कई निजी इंजीनियरिंग कॉलेज वर्षों से यहाँ हैं, एक पुरुष पॉलिटेक्निक, एक महिला पॉलिटेक्निक और कई औद्योगिक प्रशिक्षण संस्थान (आईटीआई) यहाँ स्थित हैं। कुछ नए प्रौद्योगिकी और प्रबन्धन विद्यालय, डेण्टल कॉलेज आदि के अतिरिक्त शहर में कुछ अन्य संस्थान जैसे निजी कॉलेज भी खोले गये हैं जो आस-पास के क्षेत्रों में प्रसिद्ध है। बालकों के लिये राजकीय जुबिली इण्टर कॉलेज, तथा बालिकाओं के लिये अयोध्यादास राजकीय कन्या इण्टर कॉलेज स्थापित है। दिव्यांगजनों के पुनर्वास हेतु समेकित क्षेत्रीय केन्द्र (दिव्यांगजन) की स्थापना गोरखपुर में की गयी है ई वर्तमान समय में यह संस्थान सीतापुर नेत्र चिकित्सालय के परिसर में अस्थायी भवन में संचालित किया जा रहा है ई इसका स्थाई भवन बी. आर.डी. मेडिकल कॉलेज परिसर में निर्माणाधीन है ई यहाँ दिव्यांगजनों की समस्त समस्याओं का निदान एक ही छत के नीचे उपलब्ध है ई
लाल बहादुर शास्त्री इन्टर कालेज जगदीशपुर,गोरखपुर
नाथ चंद्रावत महाविद्यालय जगदीशपुर, गोरखपुर
एल० पी० के० इण्टर कॉलेज बसडीला सरदार नगर गोरखपुर नगर गोरखपुर
इंटरमीडिएट कॉलेज रामपुरवा खजनी गोरखपुर
श्री गणेश पाण्डेय इंटर कॉलेज कटघर खजनी गोरखपुर
सरस्वती विद्या मंदिर आर्य नगर, गोरखपुर
बापू इण्टर कॉलेज पीपीगंज गोरखपुर
राजकीय जुबिली इण्टर कॉलेज
महाराणा प्रताप इण्टर कालेज गोरखपुर
संस्कृति पब्लिक स्कूल, रानी डीहा दिव्यनगर खोराबार
मारवाड़ बिज़नेस स्कूल गोरखपुर (कॉलेज)
सेंट पॉल स्कूल, मोघलपुर
अयोध्या दास राजकीय कन्या इण्टर कॉलेज
कार्मल गर्ल्स स्कूल
भगवती देवी कन्या इण्टर कॉलेज
महात्मा गाँधी इण्टर कॉलेज
सरस्वती शिशु मन्दिर सीनियर सेकेण्डरी स्कूल
नेहरु इण्टर कालेज, बिछिया
जवाहर नवोदय विद्यालय, पीपीगंज, गोरखपुर।
डी० बी० इण्टर कॉलेज
स्प्रिंगर पब्लिक स्कूल
एच० पी० चिल्ड्रेंस एकेडमी
जी० एन० नेशनल पब्लिक स्कूल
सेण्ट जोसेफ स्कूल
एन० ई० आर० सीनियर सेकेण्डरी स्कूल
लिटिल फ्लावर स्कूल
डी० ए० वी० इण्टर कॉलेज
वायु सेना विद्यालय
आर्मी पब्लिक स्कूल
एम० एस० आई० इण्टर कॉलेज
वीरेन्द्रनाथ गांगुली मेमोरियल स्कूल, बशारतपुर
इमामबाडा मुस्लिम गर्ल्स इण्टर कॉलेज
मारवाड़ इण्टर कॉलेज
पूर्वांचल सेन्ट्रल अकेडमी गर्ल्स इण्टर कॉलेज बरईपार रामरूप ब्लॉक गोला गोरखपुर
नाथ चंद्रावत महाविद्यालय जगदीशपुर गोरखपुर
सरस्वती विद्या मंदिर पीजी कॉलेज (महिला), आर्यनगर गोरखपुर
इस्लामिया कामर्स कॉलेज
सेन्ट एन्ड्रयूज डिग्री कॉलेज
डी० वी० एन० डी० कॉलेज
गंगोत्री देवी महिला महाविद्यालय
मारवाड़ बिजनेस स्कूल
श्री गोरक्षनाथ संस्कृत विद्यापीठ, गोरखनाथ मंदिर गोरखपुर
एम० जी० पी० जी० कॉलेज
महाराणा प्रताप स्नातकोत्तर महाविद्यालय
डी० ए० वी० पी० जी० कालेज, बक्शीपुर
नेशनल पी० जी० कालेज, बड़हलगंज गोरखपुर
सरस्वती देवी महाविद्यालय नंदापर जैतपुर गोरखपुर
श्री मती द्रौपदी देवी महाविद्यालय खजनी गोरखपुर
मदन मोहन मालवीय प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय, गोरखपुर (उ.प्र.) भारत
इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी एण्ड मैनेजमेन्ट
सुयस इंस्टीट्यूट ऑफ इनफाँरमेशन टेक्नोलॉजी
बुद्धा इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी
राष्ट्रीय इलेक्ट्रॉनिकी एवं सूचना प्रौद्योगिकी संस्थान (भारत सरकार)
कैलाश कॉलेज ऑफ़ इंजीनियरिंग एंड टेक्नोलॉजी
गवर्नमेण्ट पॉलिटेक्निक कॉलेज
महाराणा प्रताप पॉलीटेक्निक
गवर्न्मेण्ट आई० टी० आई० कॉलेज
अन्य व्यावसायिक संस्थान
आई० टी० एम० फार्मेसी कॉलेज
बाबा राघव दास मेडिकल कॉलेज
पूर्वांचल दन्त विज्ञान संस्थान
अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान, गोरखपुर
क्षेत्रीय आयुर्विज्ञान शोध संस्थान,गोरखपुर
समेकित क्षेत्रीय कौशल विकास,पुनर्वास एवं दिव्यांगजन सशक्तिकरण केंद्र गोरखपुर
दीनदयाल उपाध्याय गोरखपुर विश्वविद्यालय, गोरखपुर
मदन मोहन मालवीय प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय
गोरखपुर रेलवे स्टेशन भारत के उत्तर पूर्व रेलवे का मुख्यालय है। यहाँ से गुजरने वाली गाडियाँ भारत में हर प्रमुख शहर से इस प्रमुख शहर को सीधा जोड़ती हैं। पुणे, चेन्नई, इंदौर, भोपाल, ग्वालियर, जबलपुर,जौनपुर,उज्जैन, जयपुर, जोधपुर, त्रिवेंद्रम, मुंबई, दिल्ली, कोलकाता, लखनऊ, कानपुर, बंगलौर, वाराणसी, अमृतसर, जम्मू, गुवाहाटी और देश के अन्य दूर के भागों के लिये यहाँ से सीधी गाड़ियाँ मिल जाती हैं।
प्रमुख राष्ट्रीय राजमार्गों पर एक दूसरे को काटते हुए गोरखपुर राष्ट्रीय राजमार्ग २८ और २९तथा२३३ब(जो गोरखपुर, राजेसुल्तानपुर, आजमगढ) तक जाता है। यहाँ सेफैजाबाद १००किलोमीटर कुशीनगर ५० किलोमीटर,जौनपुर १७० किलोमीटर ,कानपुर २७६ किलोमीटर, लखनऊ २३१ किलोमीटर, इलाहाबाद ३३९ किलोमीटर, आगरा ६२४ किलोमीटर, दिल्ली ७८३ किलोमीटर, कोलकाता] ७७० किलोमीटर, ग्वालियर ७३० किलोमीटर, भोपाल ९२२ किलोमीटर और मुम्बई १६९० किलोमीटर दूर है। इन शहरों के लिये यहाँ से लगातार बस सेवा उपलब्ध है। पूर्व पश्चिम गलियारे की सड़क परियोजना से गोरखपुर सड़क सम्पर्क में पर्याप्त सुधार हुआ है।
गोरखपुर शहर के केंद्र से ५ कि०मी० पूर्व में गोरखपुर हवाईअड्डा स्थित है। एलाएंस एयर, इंडिगो और स्पाइसजेट सहित घरेलू विमान सेवाओं की एक छोटी संख्या दिल्ली, कोलकाता, बैंगलोर, हैदराबाद, प्रयागराज, अहम्दाबाद इत्यादि गंतव्यों तक जाने के लिये नागरिक विमानन सेवाओं का कार्य करती हैं। गोरखपुर में आने वाले कई पर्यटकों के लिये, जो इसे एक केंद्र के रूप में उपयोग करते हैं, उन्हें भगवान बुद्ध के तीर्थ स्थलों की यात्रा के लिये मेजबानी का कार्य भी यह शहर करता है। यहाँ अब कुशीनगर अंतरराष्ट्रीय हवाईअड्डे का निर्माण भी हो चुका है जो गोरखपुर शहर से ४४ कि०मी० की दूरी पर कुशीनगर जिले की सीमा पर स्थित है।
प्रसिद्ध हिन्दी लेखक मुंशी प्रेमचन्द की कर्मस्थली भी यह शहर रहा है। क्रान्तिकारी शचीन्द्र नाथ सान्याल, जिन्हें दो बार आजीवन कारावास की सजा मिली, ने भी अपने जीवन के अन्तिम क्षण इसी शहर में बिताये। शचिन दा 'हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन' के संस्थापकों में थे बाद में जब उन्हें टी०बी० (क्षय रोग) ने त्रस्त किया तो वे स्वास्थ्य लाभ के लिये भुवाली चले गये वहीं उनकी मृत्यु हुई। उनका घर आज भी बेतियाहाता में है जहाँ एक बहुत बड़ी बहुमंजिला आवासीय इमारत सहारा के स्वामित्व पर खडी कर दी गयी है। इसी घर में कभी अंग्रेजों के खिलाफ बगावत करने वाले उनके छोटे भाई स्वर्गीय जितेन्द्र नाथ सान्याल भी रहे। इन्हीं जितेन दा ने सरदार भगत सिंह पर एक किताब थी लिखी थी जिसे अंग्रेजों ने जब्त कर लिया।
उर्दू कवि फिराक गोरखपुरी, कमर गोरखपुरी,हॉकी खिलाड़ी प्रेम माया तथा दिवाकर राम, राम आसरे पहलवान और हास्य अभिनेता असित सेन गोरखपुर से जुड़े प्रमुख व्यक्तियों में हैं। प्रसिद्ध पत्रकार आलोक वर्मा की भी यह कर्मस्थली रहा।
इन्हें भी देखें
जिला आधिकारिक वेब साइट
गोरखपुर डिविजन की आधिकारिक वेबसाइट
उत्तर प्रदेश के नगर
गोरखपुर ज़िले के नगर |
अयोध्या जिसे साकेत और रामनगरी भी कहा जाता है। भारत के उत्तर प्रदेश राज्य में स्थित एक ऐतिहासिक और धार्मिक दृष्टि से महत्वपूर्ण नगर है। यह पवित्र सरयू नदी के तट पर बसा हुआ है और अयोध्या जिले का मुख्यालय है। इतिहास में इसे 'कोशल जनपद' भी कहा जाता था। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार अयोध्या में सूर्यवंशी/रघुवंशी/अर्कवंशी राजाओं का राज हुआ करता था, जिसमें भगवान् श्री राम ने अवतार लिया।
स्थापना और नामोत्पत्ति
मान्यता है कि इस नगर को मनु ने बसाया था और इसे 'अयोध्या' का नाम दिया जिसका अर्थ होता है अ-योध्या अर्थात् 'जिसे युद्ध के द्वारा प्राप्त न किया जा सके। प्रसिद्ध चीनी यात्री ह्वेन त्सांग ७वीं शताब्दी में यहाँ आया था। उसके अनुसार यहाँ २० बौद्ध मंदिर थे तथा ३००० भिक्षु रहते थे। यह नगरी सप्त पुरियों में से एक है-
अयोध्या मथुरा माया काशी काञ्ची अवन्तिका ।
पुरी द्वारावती चैव सप्तैता मोक्षदायिका:॥
(अर्थ : अयोध्या, मथुरा, हरिद्वार, काशी, काञ्चीपुरम, उज्जैन, और द्वारिका - ये सात पुरियाँ नगर मोक्षदायी हैं।)
वेद में अयोध्या को ईश्वर का नगर बताया गया है, "अष्टचक्रा नवद्वारा देवानां पूरयोध्या" और इसकी सम्पन्नता की तुलना स्वर्ग से की गई है। अथर्ववेद में यौगिक प्रतीक के रूप में अयोध्या का उल्लेख है-
अष्टचक्रा नवद्वारा देवानां पूरयोध्या।
तस्यां हिरण्मयः कोशः स्वर्गो ज्योतिषावृतः॥
रामायण के अनुसार अयोध्या की स्थापना मनु ने की थी। यह पुरी सरयू के तट पर बारह योजन (लगभग १४४ कि.मी) लम्बाई और तीन योजन (लगभग ३६ कि.मी.) चौड़ाई में बसी थी। कई शताब्दी तक यह नगर सूर्यवंशी राजाओं की राजधानी रहा। स्कन्दपुराण के अनुसार सरयू के तट पर दिव्य शोभा से युक्त दूसरी अमरावती के समान अयोध्या नगरी है। अयोध्या मूल रूप से हिंदू मंदिरो का शहर है। यहां आज भी हिंदू धर्म से जुड़े अवशेष देखे जा सकते हैं।
जैन मत के अनुसार यहां चौबीस तीर्थंकरों में से पांच तीर्थंकरों का जन्म हुआ था। क्रम से पहले तीर्थंकर ऋषभनाथ जी, दूसरे तीर्थंकर अजितनाथ जी, चौथे तीर्थंकर अभिनंदननाथ जी, पांचवे तीर्थंकर सुमतिनाथ जी और चौदहवें तीर्थंकर अनंतनाथ जी। इसके अलावा जैन और वैदिक दोनों मतो के अनुसार भगवान रामचन्द्र जी का जन्म भी इसी भूमि पर हुआ। उक्त सभी तीर्थंकर और भगवान रामचंद्र जी सभी इक्ष्वाकु वंश से थे। इसका महत्त्व इसके प्राचीन इतिहास में निहित है क्योंकि भारत के प्रसिद्ध एवं प्रतापी क्षत्रियों (सूर्यवंशी) की राजधानी यही नगर रहा है। उक्त क्षत्रियों में दाशरथी रामचन्द्र अवतार के रूप में पूजे जाते हैं। पहले यह कोसल जनपद की राजधानी था। प्राचीन उल्लेखों के अनुसार तब इसका क्षेत्रफल ९६ वर्ग मील था। यहाँ पर सातवीं शाताब्दी में चीनी यात्री ह्वेनसांग आया था। उसके अनुसार यहाँ २० बौद्ध मंदिर थे तथा ३००० भिक्षु रहते थे।
मानव सभ्यता की पहली पुरी होने का पौराणिक गौरव अयोध्या को स्वाभाविक रूप से प्राप्त है। फिर भी रामजन्मभूमि , कनक भवन , हनुमानगढ़ी ,राजद्वार मंदिर ,दशरथमहल , लक्ष्मणकिला , कालेराम मन्दिर , मणिपर्वत , श्रीराम की पैड़ी , नागेश्वरनाथ , क्षीरेश्वरनाथ श्री अनादि पञ्चमुखी महादेव मन्दिर , गुप्तार घाट समेत अनेक मन्दिर यहाँ प्रमुख दर्शनीय स्थल हैं। बिरला मन्दिर , श्रीमणिरामदास जी की छावनी , श्रीरामवल्लभाकुञ्ज , श्रीलक्ष्मणकिला , श्रीसियारामकिला , उदासीन आश्रम रानोपाली तथा हनुमान बाग जैसे अनेक आश्रम आगन्तुकों का केन्द्र हैं।
अयोध्या यूँ तो सदैव किसी न किसी आयोजन में व्यस्त रहती है परन्तु यहाँ कुछ विशेष अवसर हैं जो अत्यन्त हर्षोल्लास के साथ मनाये जाते हैं। श्रीरामनवमी , श्रीजानकीनवमी , गुरुपूर्णिमा , सावन झूला , कार्तिक परिक्रमा , श्रीरामविवाहोत्सव आदि उत्सव यहाँ प्रमुखता से मनाये जाते हैं।
शहर के पश्चिमी हिस्से में स्थित रामकोट में स्थित अयोध्या का सर्वप्रमुख स्थान श्रीरामजन्मभूमि है। श्रीराम-लक्ष्मण-भरत और शत्रुघ्न चारों भाइयों के बालरूप के दर्शन यहाँ होते हैं। यहां भारत और विदेश से आने वाले श्रद्धालुओं का साल भर आना जाना लगा रहता है। मार्च-अप्रैल में मनाया जाने वाला रामनवमी पर्व यहां बड़े जोश और धूमधाम से मनाया जाता है।
हनुमान गढ़ी के निकट स्थित कनक भवन अयोध्या का एक महत्वपूर्ण मंदिर है। यह मंदिर सीता और राम के सोने मुकुट पहने प्रतिमाओं के लिए लोकप्रिय है। इसी कारण बहुत बार इस मंदिर को सोने का घर भी कहा जाता है। यह मंदिर टीकमगढ़ की रानी ने १८९१ में बनवाया था। इस मन्दिर के श्री विग्रह (श्री सीताराम जी) भारत के सुन्दरतम स्वरूप कहे जा सकते हैं। यहाँ नित्य दर्शन के अलावा सभी समैया-उत्सव भव्यता के साथ मनाये जाते हैं।
नगर के केन्द्र में स्थित इस मंदिर में ७६ कदमों की चाल से पहुँचा जा सकता है। अयोध्या को भगवान राम की नगरी कहा जाता है। मान्यता है कि यहां हनुमान जी सदैव वास करते हैं। इसलिए अयोध्या आकर भगवान राम के दर्शन से पहले भक्त हनुमान जी के दर्शन करते हैं। यहां का सबसे प्रमुख हनुमान मंदिर "हनुमानगढ़ी" के नाम से प्रसिद्ध है। यह मंदिर राजद्वार के सामने ऊंचे टीले पर स्थित है। कहा जाता है कि हनुमान जी यहाँ एक गुफा में रहते थे और रामजन्मभूमि और रामकोट की रक्षा करते थे। हनुमान जी को रहने के लिए यही स्थान दिया गया था।
प्रभु श्रीराम ने हनुमान जी को ये अधिकार दिया था कि जो भी भक्त मेरे दर्शनों के लिए अयोध्या आएगा उसे पहले तुम्हारा दर्शन पूजन करना होगा। यहां आज भी छोटी दीपावली के दिन आधी रात को संकटमोचन का जन्म दिवस मनाया जाता है। पवित्र नगरी अयोध्या में सरयू नदी में पाप धोने से पहले लोगों को भगवान हनुमान से आज्ञा लेनी होती है। यह मंदिर अयोध्या में एक टीले पर स्थित होने के कारण मंदिर तक पहुंचने के लिए लगभग ७६ सीढि़यां चढ़नी पड़ती हैं। इसके बाद पवनपुत्र हनुमान की ६ इंच की प्रतिमा के दर्शन होते हैं,जो हमेशा फूल-मालाओं से सुशोभित रहती है। मुख्य मंदिर में बाल हनुमान के साथ अंजनी माता की प्रतिमा है। श्रद्धालुओं का मानना है कि इस मंदिर में आने से उनकी सारी मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं। मंदिर परिसर में मां अंजनी व बाल हनुमान की मूर्ति है जिसमें हनुमान जी, अपनी मां अंजनी की गोद में बालक के रूप में विराजमान हैं।
इस मन्दिर के निर्माण के पीछे की एक कथा प्रचलित है। सुल्तान मंसूर अली अवध का नवाब था। एक बार उसका एकमात्र पुत्र गंभीर रूप से बीमार पड़ गया। प्राण बचने के आसार नहीं रहे, रात्रि की कालिमा गहराने के साथ ही उसकी नाड़ी उखड़ने लगी तो सुल्तान ने थक हार कर संकटमोचक हनुमान जी के चरणों में माथा रख दिया। हनुमान ने अपने आराध्य प्रभु श्रीराम का ध्यान किया और सुल्तान के पुत्र की धड़कनें पुनः प्रारम्भ हो गई। अपने इकलौते पुत्र के प्राणों की रक्षा होने पर अवध के नवाब मंसूर अली ने बजरंगबली के चरणों में माथा टेक दिया। जिसके बाद नवाब ने न केवल हनुमान गढ़ी मंदिर का जीर्णोंद्धार कराया बल्कि ताम्रपत्र पर लिखकर ये घोषणा की कि कभी भी इस मंदिर पर किसी राजा या शासक का कोई अधिकार नहीं रहेगा और न ही यहां के चढ़ावे से कोई कर वसूल किया जाएगा। उसने ५२ बीघा भूमि हनुमान गढ़ी व इमली वन के लिए उपलब्ध करवाई।
इस हनुमान मंदिर के निर्माण के कोई स्पष्ट साक्ष्य तो नहीं मिलते हैं लेकिन कहते हैं कि अयोध्या न जाने कितनी बार बसी और उजड़ी, लेकिन फिर भी एक स्थान जो हमेशा अपने मूल रूप में रहा वो हनुमान टीला है जो आज हनुमान गढ़ी के नाम से प्रसिद्ध है। लंका से विजय के प्रतीक रूप में लाए गए निशान भी इसी मंदिर में रखे गए जो आज भी खास मौके पर बाहर निकाले जाते हैं और जगह-जगह पर उनकी पूजा-अर्चना की जाती है। मन्दिर में विराजमान हनुमान जी को वर्तमान अयोध्या का राजा माना जाता है। कहते हैं कि हनुमान यहाँ एक गुफा में रहते थे और रामजन्मभूमि और रामकोट की रक्षा करते थे। श्रद्धालुओं का मानना है कि इस मंदिर में आने से उनकी सारी मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं।
यह अयोध्या के महत्वपूर्ण स्थलों में से एक है, जो उत्तर प्रदेश के अयोध्या क्षेत्र, हनुमान गढ़ी के पास स्थित है। यह भव्य मंदिर एक उच्च पतला शिखर वाला एक उच्च भूमि पर खड़ा है और दूर से दिखाई देता है। मंदिर भगवान राम को समर्पित है। यह समकालीन वास्तुकला का एक बेहतरीन उदाहरण है।
आचार्यपीठ श्री लक्ष्मण किला
महान संत स्वामी श्री युगलानन्यशरण जी महाराज की तपस्थली यह स्थान देश भर में रसिकोपासना के आचार्यपीठ के रूप में प्रसिद्ध है। श्री स्वामी जी चिरान्द (छपरा) निवासी स्वामी श्री युगलप्रिया शरण 'जीवाराम' जी महाराज के शिष्य थे। ईस्वी सन् १८१८ में ईशराम पुर (नालन्दा) में जन्मे स्वामी युगलानन्यशरण जी का रामानन्दीय वैष्णव-समाज में विशिष्ट स्थान है। आपने उच्चतर साधनात्मक जीवन जीने के साथ ही आपने 'रघुवर गुण दर्पण','पारस-भाग','श्री सीतारामनामप्रताप-प्रकाश' तथा 'इश्क-कान्ति' आदि लगभग सौ ग्रन्थों की रचना की है। श्री लक्ष्मण किला आपकी तपस्या से अभिभूत रीवां राज्य (म.प्र.) द्वारा निर्मित कराया गया। ५२ बीघे में विस्तृत आश्रम की भूमि आपको ब्रिटिश काल में शासन से दान-स्वरूप मिली थी। श्री सरयू के तट पर स्थित यह आश्रम श्री सीताराम जी आराधना के साथ संत-गो-ब्राह्मण सेवा संचालित करता है। श्री राम नवमी, सावन झूला, तथा श्रीराम विवाह महोत्सव यहाँ बड़ी भव्यता के साथ मनाये जाते हैं। यह स्थान तीर्थ-यात्रियों के ठहरने का उत्तम विकल्प है। सरयू की धार से सटा होने के कारण यहाँ सूर्यास्त दर्शन आकर्षण का केंद्र होता है।
नागेश्वर नाथ मंदिर
कहा जाता है कि नागेश्वर नाथ मंदिर को भगवान राम के पुत्र कुश ने बनवाया था। माना जाता है जब कुश सरयू नदी में नहा रहे थे तो उनका बाजूबंद खो गया था। बाजूबंद एक नाग कन्या को मिला जिसे कुश से प्रेम हो गया। वह शिवभक्त थी। कुश ने उसके लिए यह मंदिर बनवाया। कहा जाता है कि यही एकमात्र मंदिर है जो विक्रमादित्य के काल के पहले से है। शिवरात्रि पर्व यहां बड़ी धूमधाम से मनाया जाता है।
श्रीअनादि पञ्चमुखी महादेव मन्दिर
अन्तर्गृही अयोध्या के शिरोभाग में गोप्रतार घाट पर पञ्चमुखी शिव का स्वरूप विराजमान है जिसे अनादि माना जाता है। शैवागम में वर्णित ईशान , तत्पुरुष , वामदेव , सद्योजात और अघोर नामक पाँच मुखों वाले लिंगस्वरूप की उपासना से भोग और मोक्ष दोनों की प्राप्ति होती है।
राघवजी का मन्दिर
ये मन्दिर अयोध्या नगर के केन्द्र में स्थित बहुत ही प्राचीन भगवान श्री रामजी का स्थान है जिस्को हम (राघवजी का मंदिर) नाम से भी जानते हैं मन्दिर में स्थित भगवान राघवजी अकेले ही विराजमान है ये मात्र एक ऐसा मंदिर है जिसमें भगवन जी के साथ माता सीताजी की मूर्ति बिराजमान नहीं है। सरयू जी में स्नान करने के बाद राघव जी के दर्शन किये जाते हैं।
मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम की लीला के अतिरिक्त अयोध्या में श्रीहरि के अन्य सात प्राकट्य हुए हैं जिन्हें सप्तहरि के नाम से जाना जाता है। अलग-अलग समय देवताओं और मुनियों की तपस्या से प्रकट हुए भगवान् विष्णु के सात स्वरूपों को ही सप्तहरि के नाम से जाना जाता है। इनके नाम भगवान "गुप्तहरि" , "विष्णुहरि", "चक्रहरि", "पुण्यहरि", "चन्द्रहरि", "धर्महरि" और "बिल्वहरि" हैं।
हिन्दुओं के मंदिरों के अलावा अयोध्या जैन मंदिरों के लिए भी खासा लोकप्रिय है। जैन धर्म के अनेक अनुयायी नियमित रूप से अयोध्या आते रहते हैं। अयोध्या को पांच जैन र्तीथकरों की जन्मभूमि भी कहा जाता है। जहां जिस र्तीथकर का जन्म हुआ था, वहीं उस र्तीथकर का मंदिर बना हुआ है। इन मंदिरों को फैजाबाद के नवाब के खजांची केसरी सिंह ने बनवाया था।
प्रभु श्रीराम की नगरी होने से अयोध्या उच्चकोटि के सन्तों की भी साधना-भूमि रही। यहाँ के अनेक प्रतिष्टित आश्रम ऐसे ही सन्तों ने बनाये। इन सन्तों में स्वामी श्रीरामचरणदास जी महाराज 'करुणासिन्धु जी' स्वामी श्रीरामप्रसादाचार्य जी, स्वामी श्रीयुगलानन्यशरण जी, पं. श्रीरामवल्लभाशरण जी महाराज, श्रीमणिरामदास जी महाराज, स्वामी श्रीरघुनाथ दास जी, पं.श्रीजानकीवरशरण जी, पं. श्री उमापति त्रिपाठी जी आदि अनेक नाम उल्लेखनीय हैं
अयोध्या, लखनऊ पंडित दीनदयाल रेलवे प्रखंड का एक स्टेशन है। लखनऊ से बनारस रूट पर फैजाबाद से आगे अयोध्या जंक्शन है। अयोध्या को एशिया के श्रेष्ठतम रेलवे स्टेशन के रूप में विकसित किये जाने का कार्मुय प्गरगति पर है। उत्तर प्रदेश और देश के लगभग तमाम शहरों से यहां पहुंचा जा सकता है। यहाँ से बस्ती, बनारस एवं रामेश्वरम के लिए भी सीधी ट्रेन है
उत्तर प्रदेश सड़क परिवहन निगम की बसें लगभग सभी प्रमुख शहरों से अयोध्या के लिए चलती हैं। अयोध्या राष्ट्रीय राजमार्ग २७ व राष्ट्रीय राजमार्ग ३३० और राज्य राजमार्ग से जुड़ा हुआ है।
इन्हें भी देखें
राम की पैड़ी
अयुध्या - थाईलैण्ड में इस नाम से एक प्राचीन नगर, जिला तथा प्रान्त हैं।
धनदेव का अयोध्या अभिलेख
अयोध्या के नाम पर
श्रीराम मन्दिर, अयोध्या
अयोध्या, जैन विरासत केन्द्र
अयोझा, बौद्ध पाली शब्दकोश में
भारत के तीर्थस्थल
उत्तर प्रदेश के नगर
अयोध्या ज़िले के नगर
प्राचीन भारत के नगर
हिन्दू तीर्थ स्थल
रामायण में स्थान |
मुरादाबाद (मोरादाबाद) भारत के उत्तर प्रदेश राज्य के मुरादाबाद ज़िले में स्थित एक नगर है। यह ज़िले का मुख्यालय भी है। उत्तर प्रदेश का मुरादाबाद जिला रामगंगा नदी के किनारे पर स्थित है यहां की जलवायु सम व विषम है तथा मुरादाबाद जिले में एक नगर पंचायत कांठ भी तथा तहसील व कांठ थाना उत्तर प्रदेश में नंबर १ की श्रेणी में प्रथम स्थान प्राप्त है
मुरादाबाद पीतल हस्तशिल्प के निर्यात के लिए प्रसिद्ध है। रामगंगा नदी के तट पर स्थित मुरादाबाद पीतल पर की गई हस्तशिल्प के लिए पूरे विश्व में प्रसिद्ध है। इसका निर्यात केवल भारत में ही नहीं अपितु अमेरिका, ब्रिटेन, कनाडा, जर्मनी और मध्य पूर्व एशिया आदि देशों में भी किया जाता है। अमरोहा, गजरौला और तिगरी आदि यहाँ के प्रमुख पयर्टन स्थलों में से हैं। रामगंगा]] और गंगा यहाँ की दो प्रमुख नदियाँ हैं। मुरादाबाद विशेष रूप से प्राचीन समय की हस्तकला, पीतल के उत्पादों पर की रचनात्मकता और हॉर्न हैंडीक्राफ्ट के लिए सबसे अधिक प्रसिद्ध है। यह जिला बिजनौर जिला के उत्तर, बदायूँ जिला के दक्षिण, रामपुर जिला के पूर्व और ज्योतिबा फुले नगर जिला के पश्चिम से घिरा हुआ है।
पूर्व में यह शहर चौपला नाम से जाना जाता था जो हिमालय के तराई और कुमाऊं क्षेत्रों में व्यवसाय और दैनिक जीवनोपयोगी वस्तुओं की प्राप्ति का प्रमुख स्थान रहा है बाद में इसका वर्तमान नाम यह सन् १६००+ में मुग़ल सम्राट शाहजहाँ के बेटे मुराद के नाम पर रखा गया; जिसके कारण इस शहर का नाम मुरादाबाद पड़ गया। १६२४ ई. में सम्भल के गर्वनर रुस्तम खान ने मुरादाबाद शहर पर कब्जा कर लिया था और इस जगह पर एक किले का निर्माण करवाया था। उनके नाम पर इस जगह का नाम रुस्तम खान रखा गया। इसके पश्चात् मुरादाबाद शहर की स्थापना मुगल शासक शाहजहाँ के पुत्र मुराद बख्श ने की थी। अत: उसके नाम पर इस जगह का नाम मुरादाबाद रख दिया गया।
मुरादाबाद की स्थिति पर है। यहां की औसत ऊंचाई है १८६मीटर (६१०फीट).
कृषि और उद्योग
प्रमुख सड़क और रेल जंक्शन पर स्थित यह शहर कृषि उत्पादों का व्यापार केंद्र है। कृषि वस्तुओं के व्यापार का प्रमुख केन्द्र है। कलई किए गए पीतल के बर्तनों के लिए यह नगर प्रसिद्ध है। यहाँ पर कुछ चीनी व कपड़े की मिलें भी हैं। यहाँ के उद्योगों में कपास मिल, बुनाई, धातुकर्म, इलेक्ट्रोप्लेटिंग और छपाई उद्योग शामिल हैं। यहाँ अनाज, कपास और गन्ने की खेती होती है। चीनी मिल और सूती वस्त्र निर्माण यहाँ के प्रमुख उद्योग हैं।
मुरादाबाद में होलीडे रीजेंसी नाम का एक पंच सितारा होटल है। इसके अलावा प्रेम वाटर किंगडम घूमने के लिए उपयुक्त जगह है एवं यहाँ पर हाफिज साहब का मजार भी देखने योग्य है जो रामगंगा नदी के किनारे पर स्थित है साथ ही यहाँ ४०० बर्ष से भी अधिक पुराना काली माता मंदिर है जो रामगंगा नदी के किनारे स्थित है। रेलवे हॉस्पिटल के पास स्थित प्राचीन मनोकामना मंदिर में भी मंगलवार को श्रद्धालुओं की अच्छी खासी भीड़ जुटा करती है,और नगर की चाऊ वाली बस्ती नामक पुरानी आबादी में स्थित मंदिर का जीर्णोद्धार होने से यह मंदिर भी चर्चा का विषय बन चुका है इसके पूरी दीवार को बहुत रमणीक भित्ति चित्रों से सजाया गया है यदि नवीनता की बात करें तो अब इस नगर में एक आबादी नया मुरादाबाद के नाम से बसी है और इसमें निर्मित हर्बल पार्क भी पर्यटकों के लिए आकर्षण का नया केंद्र बनकर उभरा है,कई एकड़ में फैला यह पार्क विभिन्न प्रजाति के पौधों के कारण तो चर्चा में है ही इसके अलावा समीप ही बह रही गांगन नदी का तट भी कुछ पर्यटकों को एकांतवास के लिए आकर्षित करता है , कुछ लोग नए मुरादाबाद के उस छोर में भी घूमना पसंद करते हैं जिस ओर आधुनिकीकरण की आभा बिखेरते बहुमंजिला टॉवर्स स्थित हैं, शहर सर्व धर्म समभाव का उत्कृष्ट उदाहरण है।
अमरोहा मुरादाबाद से तीस किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। कहा जाता है कि इस शहर का निर्माण लगभग ३,००० पूर्व हुआ था। इसकी स्थापना हस्तिनापुर के राजा अमरजोध ने की थी। बाद में दिल्ली के राजा पृथ्वी राजा की बहन अम्बा देवी द्वारा अमरोहा का पुनर्निर्माण करवाया गया। इसके बाद जब तक यहां मुगलों का प्रवेश नहीं हो गया इस जगह पर त्यागियों ने शासन किया। आम और मछली यहां बाहुल्य मात्रा में उपलब्ध है। इसके अतिरिक्त, ऐसा भी कहा जाता है कि जब शराफुद्दीन इस जगह पर आया था तब स्थानीय लोगों ने उन्हें आम और मछली पेश की थी। इसके बाद ही से इस जगह को अमरोहा के नाम से जाना जाने लगा। अमरोहा स्थित प्रमुख स्थलों में वसुदेव मंदिर, तुलसी पार्क, बायें का कुंआ, नसरूद्दीन साहिब की मजार, दरगाह भूरे शाह और मजार शाह विजयत साहिब आदि हैं।
गजरौला राष्ट्रीय राजमार्ग नम्बर २४ पर स्थित है। यह स्थान मुरादाबाद से ५३ किलोमीटर और दिल्ली से लगभग १०० किलोमीटर की दूरी पर है। यह शहर महत्वपूर्ण औद्योगिक शहर के रूप में विकसित हो रहा है। कई कुटीर व लघु उद्योग जैसे हिन्दुस्तान लीवर का शिवालिक सेलोलॉस, चड्ढ़ा रबर, वाम ओरगेनिक आदि यहाँ पर स्थित है।
गंगा नदी पर स्थित तिगरी मुरादाबाद से लगभग ६२ किलोमीटर की दूरी पर है। प्रत्येक वर्ष कार्तिक पूर्णिमा के अवसर पर प्रसिद्ध गंगा मेले का आयोजन किया जाता है। लाखों की संख्या में भक्त इस पवित्र जल में स्नान करने के लिए आते हैं।
यहाँ का सबसे निकटतम हवाई अड्डा दिल्ली स्थित इन्दिरा गाँधी अन्तर्राष्ट्रीय हवाई अड्डा है। भारत के कई प्रमुख शहरों जैसे लखनऊ, कलकत्ता, मुम्बई, लखनऊ, चंडीगढ़ आदि से दिल्ली के लिए नियमित रूप से उड़ान भरी जाती है।
सबसे निकटतम रेलवे स्टेशन मुरादाबाद जंक्शन है। भारत के कई प्रमुख शहरों जैसे नई दिल्ली, कलकत्ता, मुम्बई, चैन्नई, आगरा और वाराणसी आदि से मुरादाबाद रेल द्वारा पहुँचा जा सकता है।
मुरादाबाद सड़क मार्ग द्वारा भारत के कई प्रमुख शहरों जैसे मथुरा, दिल्ली, चंडीगढ़, कानपुर, लखनऊ, वाराणसी, झाँसी और आगरा आदि से पहुँचा जा सकता है। उत्तर प्रदेश राज्य मार्ग परिवहन निगम द्वारा इन सभी शहरों से मुरादाबाद के लिए बस सुविधा उपलब्ध करवा रखी है। इसके अतिरिक्त विभिन्न निजी लक्सरी बसों की सुविधा भी उपलब्ध है।
मुरादाबाद में खरीदारी किए बिना आपका सफर अधूरा ही रहेगा। मुरादाबाद स्थित मुख्य बाजार पीतल मंडी है। इस जगह पर कई सौ छोटी और बड़ी दुकानें है जहां तांबा और कांसा की बिक्री की जाती है। इन छोटी-छोटी दुकानों से जहां आप तांबा और कांसे से बनी खूबसूरत वस्तुओं की खरीदारी कर सकते हैं वहीं दूसरी ओर बड़ी दुकानों से बेशकिमती और आकर्षक वस्तुओं खरीद सकते हैं। यहां आपको तांबे के आइटम सभी साइज और शेप में मिल जाएंगे। उन पर की खूबसूरत नक्काशी का काम देखा जा सकता है। इसके अतिरिक्त यहां जिस चीज की बिक्री सबसे अधिक होती है वह इत्रदान और गुलाबपाश है। यह इत्रदान और गुलाबपाश आपको हर शेप में विशेष रूप से कांसे और तांबे के मिश्रण से बने बर्तन में आसानी से मिल जाएंगे। इसके साथ-साथ अफताब अथवा वाइन सर्वर की खरीदारी भी जरूर करें। इन पर तांबे की लाइंनिग का काम हुआ होता है और इसका भार भी अधिक होता है।
इन्हें भी देखें
मुरादाबाद रेलवे स्टेशन
मुरादाबाद आधिकारिक जालस्थल
उत्तर प्रदेश के नगर
मुरादाबाद ज़िले के नगर |
मेरठ भारत के उत्तर प्रदेश राज्य के मेरठ ज़िले में स्थित एक नगर है। यह ज़िले का मुख्यालय और पश्चिमी उत्तर प्रदेश का एक बड़ा शहर है। मेरठ दिल्ली से ७२ किमी (४४ मील) उत्तर पूर्व में स्थित है। मेरठ राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र (ऍन.सी.आर) का हिस्सा है। यहाँ भारतीय सेना की एक छावनी भी है। यह उत्तर प्रदेश के सबसे तेजी से विकसित और शिक्षित होते क्षेत्रों में से एक है।
सन् १९५० में यहाँ से २३ मील उत्तर-पूर्व में स्थित एक स्थल विदुर का टीला की पुरातात्विक खुदाई से ज्ञात हुआ, कि यह शहर प्राचीन नगर हस्तिनापुर का अवशेष है, जो महाभारत काल मे कौरव राज्य की राजधानी थी।, यह बहुत पहले गंगा नदी की बाढ़ में बह गयी थी। एक अन्य किवंदती के अनुसार रावण के श्वसुर मय दानव के नाम पर यहाँ का नाम मयराष्ट्र पड़ा, जैसा की रामायण में वर्णित है।
मेरठ मौर्य सम्राट अशोक के काल में (२७३ ईसा पूर्व से २३२ ईसा पूर्व) बौद्ध धर्म का केन्द्र रहा, जिसके निर्माणों के अवशेष जामा मस्जि़द के निकट वर्तमान में मिले हैं। दिल्ली के बाड़ा हिन्दू राव अस्पताल, दिल्ली विश्वविद्यालय के निकट अशोक स्तंभ, फिरोज़ शाह तुगलक (१३५१ १३८८) द्वारा दिल्ली लाया गया था।, बाद में यह १७१३ में, एक बम धमाके में ध्वंस हो गया, एवं १८६७ में जीर्णोद्धार किया गया।
बाद में मुगल सम्राट अकबर के काल में, (१५५६-१६०५), यहाँ तांबे के सिक्कों की टकसाल थी। ग्यारहवीं शताब्दी में, जिले का दक्षिण-पश्चिमी भाग, बुलंदशहर के दोर राजा हर दत्त द्वारा शासित था, जिसने एक क़िला बनवाया, जिसका आइन-ए-अकबरी में उल्लेख भी है, तथा वह अपनी शक्ति हेतू प्रसिद्ध रहा। बाद में वह महमूद गज़नवी द्वारा १०१८ में पराजित हुआ। हालाँकि शहर पर पहला बड़ा आक्रमण मोहम्मद ग़ौरी द्वारा ११९२ में हुआ, किन्तु इस शहर का इससे बुरा भाग्य अभी आगे खड़ा था, जब तैमूर लंग ने १३९८ में आक्रमण किया, उसे राजपूतों ने कड़ी टक्कर दी। यह लोनी के किले पर हुआ, जहाँ उन्होंने दिल्ली के सुल्तान मुहम्मद बिन तुग़लक़ से भी युद्ध किया। परंतु अन्ततः वे सब हार गये, यह तैमूर लंग के अपने उल्लेख तुज़ुक-ए-तैमूरी में मिलता है।. उसके बाद, वह दिल्ली पर आक्रमण करने आगे बढ़ गया, व वापस मेरठ पर हमला बोला, जहाँ तब एक अफ़गान मुख्य का शासन था। उसने नगर पर दो दिनों में कब्ज़ा किया, जिसमें विस्तृत विनाश सम्मिलित था और फिर वह आगे उत्तर की ओर बढ़ गया।
प्रथम स्वतंत्रता संग्राम
मेरठ का नाम ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के विरुद्ध १८५७ के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के लिये भी प्रसिद्ध है। इस हिसाब से जनसंख्या अनुसार मेरठ शहरी क्षेत्र भारत के शहरी क्षेत्रों में ३३वे स्थान पर है और भारत के शहरों में २६वे स्थान पर है। मेरठ में लिंग अनुपात ८८८ है, राज्य औसत ९०८ से कम; बाल लिंग अनुपात ८४७ है, राज्य औसत ८९९ से कम। १२.४१% जनसंख्या ६ साल की उम्र से छोटी है। साक्षरता दर ७८.२९% है, राज्य औसत ६9.७२% से अधिक।
२०१२ अनुसार मेरठ में अपराध दर (भारतीय दंड संहिता के अंतर्गत कुल संज्ञेय अपराध प्रति लाख जनसंख्या) ३०९.१ है, राज्य औसत ९६.४ और राष्ट्रीय औसत १९६.७ से अधिक।
२००१ की राष्ट्रीय जनगणना अनुसार शहर राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में जनसंख्या अनुसार दूसरे स्थान पर है और राष्ट्र में २५वे स्थान पर।
मेरठ में भारत के मुख्य शहरों में, सर्वाधिक मुस्लिम जनसंख्या है, जो ३४.४३ के लगभग है। यहां की ईसाई संख्या भी ठीक ठाक है। मेरठ १९८७ के सांप्रदायिक दंगों की स्थली भी रहा था।
डॉ॰ भीमराव अम्बेडकर हवाई अड्डा मेरठ में स्तिथ है
पंतनगर विमानक्षेत्र या इंदिरा गाँधी अन्तर्राष्ट्रीय विमानक्षेत्र मेरठ के निकटतम एयरपोर्ट है। पंतनगर का एयरपोर्ट मेरठ से ६२ किलोमीटर की दूरी पर स्थित है।
मेरठ में दो प्रमुख रेलवे स्टेशन हैं,मेरठ छावनी व मेरठ जंक्शन। मेरठ देश के प्रमुख शहरों से अनेक ट्रेनों के माध्यम से जुड़ा हुआ है। दिल्ली, जम्मू, अंबाला, सहारनपुर आदि स्थानों से आसानी से मेरठ पहुंचा जा सकता है।
मेरठ उत्तर प्रदेश और आसपास के राज्यों के अनेक शहरों से सड़क मार्ग द्वारा जुड़ा हुआ है। राज्य परिवहन निगम की बसें अनेक शहरों से मेरठ के लिए नियमित रूप से चलती हैं।
मेरठ का सर्राफा एशिया का नंबर एक का व्यवसाय बाजार है।.. सोने के बारे में कहें तो मेरठ शहर कई तरह के उद्योगों के लिये प्रसिद्ध है। मेरठ में निर्माण व्यवसाय में खूब तेजी आयी है, जैसा कि दिखता है- शहर में कई ऊंची इमारतें , शॉपिंग परिसर एवं अपार्टमेन्ट्स हैं।
मेरठ भारत के शहरों में क्रीड़ा सामग्री के सर्वोच्च निर्माताओं में से एक है। साथ ही वाद्य यंत्रों के निर्माण में भी यह उच्च स्थान पर है। मेरठ में यू.पी.एस.आइ.डी.सी के दो औद्योगिक क्षेत्र हैं, एक परतापुर में एवं एक उद्योग पुरम में। मेरठ में कुछ प्रसिद्ध फार्मास्यूटिकल कंपनियाँ भी हैं, जैसे पर्क फार्मास्यूटिकल्स लिमिटेड, मैनकाईंड फार्मा एवं बैस्टोकैम।
आयकर विभाग द्वारा संकलित आंकड़ों के अनुसार, मेरठ ने वर्ष २००७-०८ में ही १०,०८९ करोड़ रुपये, राष्ट्रीय कोष में दिये हैं, जो लखनऊ, जयपुर, भोपाल, कोच्चि एवं भुवनेश्वर से कहीं अधिक हैं।
मेरठ एक महत्वपूर्ण मास मीडिया केन्द्र बनता जा रहा है। देश के विभिन्न क्षेत्रों से पत्रकार एवं अन्य मीडियाकर्मी यहां कार्यरत हैं। हाल ही में, कई समाचार चैनलों ने अपराध पर केन्द्रित कार्यक्रम दिखाने आरंभ किये हैं। चूँकि मीडिया केन्द्र मेरठ में स्थित हैं, तो शहर को राष्ट्रीय स्तर पर अच्छा प्रचार मिल रहा है। हाल के वर्षों में नगर में कानून व्यवस्था की स्थिति काफी सुधरी है। इसमें मीडिया का बहुत बड़ा हाथ है। मेरठ वेब मीडिया का भी मुख्य केंद्र बनता जा रहा है मेरठ मे एक्सएन व्यू न्यूज और कई अन्य वेब मीडिया चैनल मौजूद है।
नगर में कुल पांच विश्वविद्यालय हैं चौधरी चरण सिंह विश्वविद्यालय, सरदार वल्लभ भाई पटेल कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय, शोभित विश्वविद्यालय एवं स्वामी विवेकानंद सुभारती विश्वविद्यालय ईम्त विश्विद्यालय । इसके अलावा नगर में कई महाविद्यालय एवं विद्यालय हैं।
यहां का ऐतिहासिक नौचंदी मेला हिन्दू मुस्लिम एकता का प्रतीक है। हजरत बाले मियां की दरगाह एवं नवचण्डी देवी (नौचन्दी देवी) का मंदिर एक दूसरे के निकट ही स्थित हैं। मेले के दौरान मंदिर के घण्टों के साथ अज़ान की आवाज़ एक सांप्रदायिक आध्यात्म की प्रतिध्वनि देती है। यह मेला चैत्र मास के नवरात्रि त्यौहार से एक सप्ताह पहले से लग जाता है। होली के लगभग एक सप्ताह बाद और एक माह तक चलता है।
औंघड़नाथ मंदिर १८५७ का प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में इस मंदिर का विशेष योगदान रहा है। यह मन्दिर महानगर में छावनी क्षेत्र में स्थित है।चूंकि यहां भगवान शिव स्वरूप में विद्यमान हैं, इस कारण इसे औंघडनाथ मंदिर कहा जाता है। वैसे यह काली पल्टन वाला मंदिर भी कहलाता है।यह मान्यता है, कि इस मंदिर में शिवलिंग स्वयंभू है। यानि यह शिवलिंग स्वयं पृथ्वी से बाहर निकला है। तभी यह सद्य फलदाता है। भक्तों की मनोकामनाएं औंघड़दानी शिव स्वरूप में पूरी करने के साथ साथ ही शांति संदेश देते हैं। इसके साथ ही नटराज स्वरूप में क्रांति को भी प्रकाशित करते हैं।
पांडव किला - यह किला मेरठ के (बरनावा) में स्थित है। महाभारत से संबंध रखने वाले इस किले में अनेक प्राचीन मूर्तियां देखी जा सकती हैं। कहा जाता है कि यह किला पांडवों ने बनवाया था। दुर्योधन ने पांडवों को उनकी मां सहित यहां जीवित जलाने का षडयंत्र रचा था, किन्तु वे एक भूमिगत मार्ग से बच निकले थे।
शहीद स्मारक - शहीद स्मारक उन बहादुरों को समर्पित है, जिन्होंने १८५७ में देश के लिए "प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम" में अपने प्राणों की आहुति दे दी। संग-ए-मरमर से बना यह स्मारक लगभग ३० मीटर ऊंचा है। १८५७ का भारतीय विद्रोह मेरठ छावनी स्थिति काली पलटन मंदिर, जिसे वर्तमान में औघडनाथ मंदिर के नाम से भी जाना जाता है, से आरंभ हुआ था, जिसे प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम, सिपाही विद्रोह और भारतीय विद्रोह के नाम से भी जाना जाता है ब्रितानी शासन के विरुद्ध एक सशस्त्र विद्रोह था। यह विद्रोह दो वर्षों तक भारत के विभिन्न क्षेत्रों में चला। इस विद्रोह का आरंभ छावनी क्षेत्रों में छोटी झड़पों तथा आगजनी से हुआ था परन्तु जनवरी मास तक इसने एक बड़ा रूप ले लिया। विद्रोह का अन्त भारत में ईस्ट इंडिया कम्पनी के शासन की समाप्ति के साथ हुआ और पूरे भारतीय साम्राज्य पर ब्रितानी ताज का प्रत्यक्ष शासन आरंभ हो गया जो अगले ९० वर्षों तक चला।
शाहपीर मकबरा - यह मकबरा मुगलकालीन है। यह मेरठ के ओल्ड शाहपीर गेट के निकट स्थित है। शाहपीर मकबरे के निकट ही लोकप्रिय सूरज कुंड स्थित है।
हस्तिनापुर तीर्थ - हस्तिनापुर तीर्थ जैनियों के लिए एक पवित्र स्थान माना जाता है। यहां का मंदिर जैन तीर्थंकर शांतिनाथ को समर्पित है। ऐतिहासिक दृष्टि से जैनियों के लिए इस स्थान का विशेष महत्व है क्योंकि जैनियों के तीसरे तीर्थंकर आदिनाथ ने यहां ४०० दिन का उपवास रखा था। इस मंदिर का संचालन श्री हस्तिनापुर जैन श्वेतांबर तीर्थ समिति द्वारा किया जाता है।
जैन श्वेतांबर मंदिर - मेरठ जिले के हस्तिनापुर में स्थित जैन श्वेतांबर मंदिर तीर्थंकर विमल नाथ को समर्पित है। एक ऊंचे चबूतरे पर उनकी आकर्षक प्रतिमा स्थापित है। मंदिर के चारों किनारे चार कल्याणक के प्रतीक हैं। हस्तिनापुर मेरठ से ३० किलोमीटर उत्तर-पर्व में स्थित है।
रोमन कैथोलिक चर्च - सरधना स्थित रोमन कैथोलिक चर्च अपनी खूबसूरत कारीगरी के लिए चर्चित है। मदर मैरी को समर्पित इस चर्च का डिजाइन इटालिक वास्तुकार एंथनी रघेलिनी ने तैयार किया था। १८२२ में इस चर्च को बनवाने की लागत ०.५ मिलियन रूपये थी। भवन निर्माण साम्रगी जुटाने के लिए आसपास खुदाई की गई थी। खुदाई वाला हिस्सा आगे चलकर दो झीलों में तब्दील हो गया।
सेन्ट जॉन चर्च - १८१९ में इस चर्च को ईस्ट इंडिया कंपनी की ओर से चेपलिन रेव हेनरी फिशर ने स्थापित किया था। इस चर्च की गणना उत्तर भारत के सबसे प्राचीन चर्चो में की जाती है। इस विशाल चर्च में दस हजार लोगों के बैठने की क्षमता है।
नंगली तीर्थ - पवित्र नंगली तीर्थ मेरठ के नंगली गांव में स्थित है। नंगली तीर्थ स्वामी स्वरूपानंद जी महाराज की समाधि की वजह से लोकप्रिय है। मुख्य सड़क से तीर्थ तक ८४ मोड़ हैं जो चौरासी लाख योनियों के मुक्ति के प्रतीक हैं। देश के विविध हिस्सों से श्रद्धालु यहां आते हैं।
सूरज कुंड - इस पवित्र कुंड का निर्माण एक धनी व्यापारी लावार जवाहर लाल ने १७१४ ई. में करवाया था। प्रारंभ में अबु नाला से इस कुंड को जल प्राप्त होता था। वर्तमान में गंग नहर से इसे जल प्राप्त होता है। सूरज कुंड के आसपास अनेक मंदिर बने हुए हैं जिनमें मनसा देवी मंदिर और बाबा मनोहर नाथ मंदिर प्रमुख हैं। ये मंदिर शाहजहां के काल में बने थे।
जामा मस्जिद - कोतवाली के निकट स्थित इस मस्जिद का यह निर्माण ११वीं शताब्दी में करवाया गया था।
द्रोपदी की रसोई - द्रोपदी की रसोई हस्तिनापुर में बरगंगा नदी के तट पर स्थित है। माना जाता है कि महाभारत काल में इस स्थान पर द्रोपदी की रसोई थी।
हस्तिनापुर अभयारण्य - इस अभयारण्य की स्थापना १९८६ में की गई थी। २०७३ वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र में फैले इस अभयारण्य में मृग, सांभर, चीतल, नीलगाय, तेंदुआ, हैना, जंगली बिल्ली आदि पशुओं के अलावा पक्षियों की अनेक प्रजातियां देखी जा सकती हैं। नंवबर से जून का समय यहां आने के सबसे उपयुक्त माना जाता है। अभयारण्य का एक हिस्सा गाजियाबाद, बिजनौर और ज्योतिबा फुले नगर के अन्तर्गत आता है।
मेरठ की हस्तियां
२१ दिसंबर, २००५, को मेरठ राष्ट्रीय समाचार की झलकियों में था, जब पुलिस ने सार्वजनिक रूप से हाथ पकड़े जोड़ों को मारा पीटा, जो कि देश के कई भागों में सांस्कृतिक रूप से अस्वीकृत तथा अभद्र है। यह "आप्रेशन मजनूं" के तहत था। इसके अन्तर्गत युवा जोड़े निशाना थे। हालांकि इसके बाद स्थानीय पुलिस को अप्रसिद्धि मिली।
मेरठ की माल रोड, मूलतः ब्रिटिश छावनी का भाग थी, जहां रघुवीर सारंग नामक एक आदमी, जो घोड़े और बघ्घियां चलाता था; को एक अंग्रेज़ अफसर के साथ रेस में हराने के बाद अभद्र व्यवहार का आरोप लगाकर कोड़े लगाये गये थे।
१९४० के दशक में, मेरठ के सिनेमाघरों में ब्रिटिश राष्त्रगान बजने के समय हिलना निषेध था।
१० अप्रैल २००६ में एक अग्नि कांड में २२५ (आधिकारिक घोषित) लोग मारे गये, जब विक्टोरिया पार्क में लगे एक इलेक्ट्रॉनिक मेले के मण्डप में अग लग गयी। अन्य सूत्रों के अनुसार तब यहां १०00 लोग मारे गये थे। इसके कुछ समय बाद ही, यहाँ के एक मल्टीप्लैक्स सिनेमाघर पी वी एस मॉल में भी आग लगी थी।
मेरठ के प्रसिद्ध क्रीड़ा सामान (खासकर क्रिकेट का बल्ला) विश्व भर में प्रयोग होता है।
मेरठ को भारत की क्रीड़ा राजधानी कहा जाता है।
इन्हें भी देखें
उत्तर प्रदेश के नगर
मेरठ ज़िले के नगर |
युक्रेन पूर्वी यूरोप में स्थित एक देश है। इसकी सीमा पूर्व में रूस, उत्तर में बेलारूस, पोलैंड, स्लोवाकिया, पश्चिम में हंगरी, दक्षिणपश्चिम में रोमानिया एवं मॉल्डोवा और दक्षिण में काला सागर और अजोव सागर से मिलती है। देश की राजधानी होने के साथ-साथ सबसे बड़ा नगर भी कीव है। युक्रेन का आधुनिक इतिहास ९वीं शताब्दी में तब से प्रारम्भ होता है जब यह 'कीवियन रुुस' के नाम से एक बड़ा और शक्तिशाली राज्य बनकर खड़ा हुआ। परन्तु १२वीं शताब्दी में यह महान उत्तरी लड़ाई के बाद क्षेत्रीय शक्तियों में विभाजित हो गया। १९वीं शताब्दी में इसका बड़ा भाग रूसी साम्राज्य का और बाकी का भाग आस्ट्रो-हंगेरियन नियंत्रण में आ गया। बीच के कुछ वर्षो के उथल-पुथल के पश्चात १९२२ में सोवियत संघ के संस्थापक सदस्यों में से एक बना। १९४५ में यूक्रेनियाई एसएसआर संयुक्त राष्ट्रसंघ का सह-संस्थापक सदस्य बना। सोवियत संघ के विघटन के बाद युक्रेन पुनः स्वतंत्र देश बना।
नाम की उत्पत्ति
यूक्रेन के नाम की व्युत्पत्ति के बारे में अलग अलग परिकल्पनाये हैं। सबसे व्यापक और पुरानी परिकल्पना के अनुसार इसका अर्थ "परदेश" है, जबकि हाल ही के कुछ अध्ययन में इसका एक अलग ही अर्थ "मातृभूमि" या "क्षेत्र, देश" का दावा किया जा रहा है। अधिकतर इंग्लिश बोलने बाले देशों में इसे "द यूक्रेन" के नाम से ही जाना जाता है।
१९वी शताब्दी,प्रथम विश्व युद्ध, और क्रांति
१९वीं सदी में, ऑस्ट्रिया और रूस के बीच में यूक्रेन की स्थिति एक ग्रामीण क्षेत्र जैसी ही थी। इन देशो में होते तेजी से शहरीकरण और आधुनिकीकरण के बीच यूक्रेन में भी राष्ट्रवाद, बुद्धिजीवीवर्ग का उदय हुआ जिनमे प्रमुख नाम राष्ट्रीय कवि तारस शेवचेन्को (१८१४-१८६१) तथा राजनीतिक विचारक मिखाइलो द्राहोमनोव (१८४१-१८९५) का रहा।
रूस-तुर्की युद्ध (१७६८-१७७४) के बाद, रूस के शासको ने यूक्रेन में रह रहे तुर्कीयों की जन्संख्या में कमी लाने के लिए, विशेष कर क्रीमिया में जर्मन आव्रजन को प्रोत्साहित किया, जिसका लाभ आगे चल कर कृषिक्षेत्र में हुआ
१९वीं सदी के आरम्भ में, यूक्रेन से रूसी साम्राज्य के सुदूर क्षेत्रों में लोगो का पलायन किया गया था। १८९७ की जनगणना के अनुसार, साइबेरिया में २२३,००० और मध्य एशिया में १०२,००० यूक्रेनियन थे। जबकि १९०६ में ट्रांस-साइबेरियन रेलवे के उद्घाटन के बाद अतिरिक्त १.६ मिलियन लोगो को यूक्रेन के बाहर बसाया गया। यूक्रेन के बाहर यूक्रेनी की इतनी बड़ी जनसँख्या के कारण, सुदूर पूर्वी क्षेत्र, "ग्रीन यूक्रेन" के रूप में जाना जाने लगा।
१९वीं सदी में राष्ट्रवादी और समाजवादी पार्टियों का उदय हुआ। ऑस्ट्रियन गैलिसिया, हैब्सबर्ग्ज़ की अपेक्षाकृत उदार नियम के तहत, राष्ट्रवादी आंदोलन का केंद्र बन गया।
प्रथम विश्व युद्ध में यूक्रेन ने केन्द्रीय शक्तियों, की ओर से ऑस्ट्रिया के तहत, तथा ट्रिपल इंटेंट, की ओर से रूस के तहत में प्रवेश किया। ३५ लाख यूक्रेनियन, इम्पीरियल रूसी सेना के साथ लड़ाई लड़ी है, जबकि २५०,००० ऑस्ट्रो-हंगेरियन सेना के लिए लड़ाई लड़ी। ऑस्ट्रो-हंगेरियन अधिकारियों रूसी साम्राज्य के खिलाफ लड़ने के लिए यूक्रेनी सेना की स्थापना की। जिसे यूक्रेनी गैलिशियन् सेना का नाम दिया गया, जोकि विश्व युद्ध के बाद भी (१९१९-२३) में बोल्शेविक और पोल्स के खिलाफ लड़ाई लड़ते रहे। यहाँ तक की ऑस्ट्रिया में रुशियो के साथ उदार भावना रखने वालो को कठोरता के साथ दमन किया गया।
प्रथम विश्व युद्ध ने दोनों साम्राज्यो को नष्ट कर दिया। जहाँ १९१७ की रूसी क्रांति में बोल्शेविक के तहत सोवियत संघ के संस्थापना हुई, वही यूक्रैन में भी, उग्र कम्युनिस्ट और समाजवादी प्रभाव के बीच स्वाधीनता के लिए एक यूक्रेनी राष्ट्रीय आंदोलन उभरा। कई यूक्रेनी राज्यों का उथान हुआ जिसकी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मान्यता यूक्रेनी पीपुल्स रिपब्लिक (उनर ) के रूप में हुई
यूक्रेन के उन राज्यो में जहा कभी रूसी साम्राज्य का राज था वह यूक्रेनी सोवियत समाजवादी गणराज्य (या सोवियत यूक्रेन) की स्थापना; जबकि पूर्व ऑस्ट्रो-हंगेरियन साम्राज्य के क्षेत्र में पश्चिम यूक्रेनी पीपुल्स रिपब्लिक और हुतसुल गणराज्य का गठन हुआ। आगे चल कर २२ जनवरी, १९१९ को कीव में सेंट सोफिया स्क्वायर पर यूक्रेनी पीपुल्स रिपब्लिक और पश्चिम यूक्रेनी पीपुल्स रिपब्लिक के बीच जलूक अधिनियम (एकीकरण अधिनियम) के तहत समझौते पर हस्ताक्षर किए गए। जिसने आगे चल कर गृहयुद्ध को जन्म दिया
रूसी गृहयुद्ध के समय ही एक बागी आंदोलन जिसे ब्लैक आर्मी नाम दिया गया जो आगे चल कर "यूक्रेन के क्रांतिकारी विद्रोही सेना" कहलाई, जिसका नेतृत्व नेस्टर मखनो कर रहे थे जो की यूक्रेनी क्रांति के दौरान १९१८ से १९२१ तक स्वशासित राज्य के निर्माड़ के लिए, ट्रोट्स्की के सफ़ेद सेना से, देनीकिन के नेतृत्व में जबकि तसर्रिस्ट के नेतृत्व में लाल सेना से लड़ते रहे हालकि इनका प्रयास अगस्त १९२१ में उत्तरार्द्ध में ख़तम हो चूका था।
पोलैंड ने पोलिश-यूक्रेनी युद्ध में पश्चिमी यूक्रेन को हराया, लेकिन कीव में बोल्शेविक के खिलाफ विफल रहे। रीगा की शांति के अनुसार, पश्चिमी यूक्रेन को पोलैंड में सम्मलित कर लिया गया, जिसे मार्च १९१९ में यूक्रेनी सोवियत समाजवादी गणराज्य के रूप में मान्यता प्राप्त हुई। सोवियत सत्ता की स्थापना के साथ ही, यूक्रेन के आधे क्षेत्र, में पोलैंड, बेलारूस और रूस का अधिकार हो गया, जबकि दनिएस्टर नदी के बाएं किनारे पर मोलदावियन स्वायत्तता राष्ट्र का निर्माड़ हो गया। यूक्रेन दिसंबर १९२२ में सोवियत समाजवादी गणराज्य संघ के एक संस्थापक सदस्य बन गया।
यूक्रेन का इतिहास
द्वितीय विश्व युद्ध
सितंबर १९३९ में पोलैंड पर आक्रमण के बाद, जर्मन और सोवियत सेना ने पोलैंड के क्षेत्र को आपस में बाट लिया। इस प्रकार, यूक्रेनी जनसंख्या बहुल पूर्वी गालिसिया और वोल्होनिया क्षेत्र फिर से यूक्रेन के बाकी हिस्सों के साथ जुड़ गया। और इतिहास में पहली बार, यह राष्ट्र एकजुट हुआ था।
१९४० में, सोवियत संघ ने बेस्सारबिया और उत्तरी बुकोविना पर अपना कब्ज़ा किया। यूक्रेनी एसएसआर ने बेस्सारबिया के उत्तरी और दक्षिणी जिलों, उत्तरी बुकोविना और हर्त्सा क्षेत्र को अपने में शामिल तो कर किया, लेकिन मोल्डावियन स्वायत्त सोवियत समाजवादी गणराज्य के पश्चिमी भाग को नव निर्मित मोल्डावियन सोवियत समाजवादी गणराज्य को सौंप दिया। यूएसएसआर को उसके विजित इन क्षेत्रो पर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर १९४७ के पेरिस शांति संधियों द्वारा मान्यता दिया गया।
२२ जून १९४१ को जर्मन सेना ने सोवियत संघ पर हमला किया, और लगभग चार वर्ष के युद्ध का प्रारम्भ हो गया। प्रारम्भ में धुरी राष्ट्र ने बढ़त बनाई पर लाल सेना ने उन्हें रोक दिया। कीव के युद्ध में, इसके भयंकर प्रतिरोध के कारण, शहर को "हीरो शहर" के रूप में प्रशंसित किया गया। ६००,००० से अधिक सोवियत सैनिक (या सोवियत की पश्चिमी मोर्चा का एक चौथाई) मारे गए या बंदी बना लिया गए।
यद्यपि अधिकांश यूक्रेनियन, लाल सेना और सोवियत प्रतिरोध के साथ-साथ में लड़े, पश्चिमी यूक्रेन में एक स्वतंत्र यूक्रेनी विद्रोही सेना आंदोलन (यूपीए, १९४२) आगे आया। कुछ यूपीए प्रभागों ने स्थानीय पोल्स जातीय का नरसंहार भी किया, जिससे प्रतिहिंसा की स्थिति उत्पन्न हो गयी हो गयी। युद्ध के बाद भी, यूपीए १९५० के दशक तक यूएसएसआर से लड़ते रहा। इसी समय, यूक्रेनी लिबरेशन आर्मी, एक और राष्ट्रवादी आंदोलन सेना, नाजियों के के साथ-साथ लड़ती रही।
सोवियत सेना के लिए लड़ते यूक्रेनियनों की संख्या, ४.५ मिलियन से ७ मिलियन के पास थी। यूक्रेन में प्रो-सोवियत कट्टरपंथी गोरिल्ला प्रतिरोध की संख्या ४७,८०० अपने अधिग्रहण के आरम्भ में से लेकर 19४४ में अपने चरम पर ५00,००० तक होने का अनुमान है। जिनमे लगभग ५0% संख्या स्थानीय यूक्रेनियन की थी। सामान्यतः यूक्रेनी विद्रोही सेना के आंकड़े अविश्वसनीय होते हैं, पर इनकी संख्या १५,००० से लेकर १,००,००० सैनिकों तक के बीच रही होगी।
यूक्रेनी एसएसआर में अधिकांश भर्ती, यूक्रेन (रिच्स्कोमिस्सरीत) के भीतर से ही की गई थी, ताकि इसके संसाधनों और जर्मन आबादी का उपयोग (शोषण) किया जा सके। कुछ पश्चिमी यूक्रेनियन द्वारा, जो १९३९ में ही सोवियत संघ में शामिल हुए थे, जर्मनी का मुक्तिदाता के रूप में स्वागत किया गया। हलाकि क्रूर जर्मन शासन ने अंततः अपने ही समर्थकों को खिलाफत की ओर मोड़ दिया, जिन्होंने कभी स्टालिनिस्ट नीतियों के खिलाफ खड़े होकर इनका साथ दिया था।. नाजियों ने सामूहिक खेत व्यवस्था को संरक्षित रखने के बजाय, यहूदियों के खिलाफ नरसंहार चालू कर दिया,यहाँ से जर्मनी में काम करने के लिए लाखों लोगों को भेज गया, और जर्मन उपनिवेशण के लिए एक वंशानुक्रम कार्यक्रम शुरू किया गया उन्होंने कीव नदी पर भोजन के परिवहन को अवरुद्ध कर दिया।
द्वितीय विश्व युद्ध की अधिकतर लड़ाई पूर्वी मोर्चो पर हुई। कुछ अनुमानों के अनुसार, लगभग ९३% जर्मन की जनहानि यहाँ हुई थी। युद्ध के दौरान यूक्रेनी आबादी का कुल नुकसान का अनुमान ५ से ८ मिलियन के बीच था, जिनमे नाजियों द्वारा मारे गए, लगभग डेढ़ लाख यहूदि भी शामिल थे। अनुमानित ८.७ मिलियन सोवियत सैनिकों जोकि नाजियों के खिलाफ लड़ाई में उतरे थे, में १.४ मिलियन स्थानीय यूक्रेनियन थे। विजय दिवस, दस यूक्रेनी राष्ट्रीय छुट्टियों में से एक के रूप में मनाया जाता है।
द्वितीय विश्व युद्ध के बाद
यूक्रेन को युद्ध से भारी क्षति हुई थी, और इसे पुनर्वास के लिए अधिक प्रयासों की आवश्यकता थी। ७०० से अधिक नगरों और कस्बे और २८,००० से अधिक गांव नष्ट हो चुके थे। १९४६-४७ में आये सूखे और युद्धकाल में नष्ट हुए बुनियादी सुविधाओं के कारण आये अकाल से स्थिति और बिगड़ गई। अकाल से हुए मृतकों की संख्या लाखो में थी। १९४५ में, यूक्रेनी एसएसआर संयुक्त राष्ट्र संगठन के संस्थापक सदस्यों में से एक था। युद्ध के बाद के नए विस्तारित सोवियत संघ में जाति संहार को बढ़ावा मिला। १ जनवरी १953 तक, २०% से अधिक वयस्कों के "विशेष निर्वासन" में रूस के बाद यूक्रेनियन का ही स्थान था। इसके अलावा, यूक्रेन के ४५०,००० से अधिक जर्मन मूल और २०0,००० से अधिक क्रीमिया तातारों को निर्वासन के लिए मजबूर किया गया।
१९५३ में स्टालिन की मृत्यु के बाद, निकिता ख्रुश्चेव सोवियत संघ के नए नेता बने। १९३८-४९ में यूक्रेनी एसएसआर कम्युनिस्ट पार्टी के प्रमुख सचिव रह चुके ख्रुश्चेव यहाँ के गणराज्य से भली-भांति परिचित थे; संघ के नेता बनते ही, उन्होंने यूक्रेनी और रूसी राष्ट्रों के बीच दोस्ती को बढ़ावा दिया। १९५४ में, पेरेसास्लाव की संधि की ३०० वीं वर्षगांठ को व्यापक रूप से मनाया गया। क्रीमिया को रूसी एसएफएसआर से यूक्रेनी एसएसआर को स्थानांतरित कर दिया गया। १९५० तक, यूक्रेन ने उद्योग और उत्पादन में युद्ध के पूर्व के स्तर को पार कर लिया। १९४६-१९५० की पंचवर्षीय योजना के दौरान, सोवियत बजट का लगभग २०%, सोवियत यूक्रेन में निवेश किया गया था, जोकि युद्ध-पूर्व योजना से ५% अधिक था। नतीजतन, यूक्रेनी जनबल १९४० से 19५५ तक ३३.२% बढ़ गया, जबकि इसी अवधि में औद्योगिक उत्पादन में २.२ गुना की वृद्धि हुई।
सोवियत यूक्रेन जल्द ही औद्योगिक उत्पादन में यूरोप को पीछे छोड़ दिया, और साथ ही सोवियत में हथियार उद्योग और उच्च तकनीक अनुसंधान का एक महत्वपूर्ण केंद्र बन गया। इस तरह की एक महत्वपूर्ण भूमिका के परिणामस्वरूप स्थानीय अभिजात वर्ग को एक बड़ा प्रभाव हासिल हो गया। सोवियत नेतृत्व के कई सदस्य यूक्रेन से आए, जिसमे सबसे खास तौर पर लियोनिद ब्रेझ़नेव थे। बाद में जिन्होंने ख्रुश्चेव को हटा कर १९६४ से १९८२ तक सोवियत नेता बन रहे। कई प्रमुख सोवियत खिलाड़ी, वैज्ञानिक और कलाकार यूक्रेन से आए थे।
२६ अप्रैल १९८६ को, चेर्नोबिल परमाणु ऊर्जा संयंत्र के एक रिएक्टर में विस्फोट हुआ, परिणामस्वरूप चेर्नोबिल दुर्घटना, इतिहास का सबसे खराब परमाणु रिएक्टर दुर्घटना माना जाता हैं। दुर्घटना के समय, ७ मिलियन लोग उस क्षेत्रों में रहते थे, जिसमें २.२ मिलियन लोग यूक्रेन के थे। दुर्घटना के बाद, एक नया नगर स्लावुतच, प्रदूषित क्षेत्र के बाहर बनाया गया और संयंत्र के कर्मचारियों का वह बसाया गया, जिसे आगे चल कर सन २००० में सेवा मुक्त कर दिया गया। विश्व स्वास्थ्य संगठन के एक विवरण के अनुसार ५६ मौते प्रत्यक्ष से दुर्घटना के समय हुई, तथा आगे चल कर ४,००० अतिरिक्त मृत्यु कैंसर के कारण हुई।
२०१४ की क्राँति एवं रूस का सैन्य दखल
नवंबर २०१२ में यूरोपीय संघ के साथ अंतिम समय में एक व्यापारिक समझौता रद्द कर रूस के साथ जाने पर के बाद यूक्रेन की राजधानी कीव में सरकार विरोधी प्रदर्शन प्रारम्भ हो गए। लाखों लोगों ने इंडिपेंडेंट स्क्वेयर पर प्रदर्शन किया। पुलिस और प्रदर्शनकारियों में झड़प हुई जिसमें ७० से अधिक मारे गए और लगभग ५०० घायल हो गए।
२३ फ़रवरी २०१४ को यूक्रेन के तत्कालीन राष्ट्रपति विक्टर यानुकोविच के ऊपर महाभियोग लगाए जाने के बाद यूक्रेन की संसद ने स्पीकर ओलेक्जेंडर तुर्चिनोव को अस्थायी रूप से राष्ट्रपति के कार्यो की जिम्मेदारी सौंप दी। यानुकोविच देश छोड़कर भाग गए।
२६ फ़रवरी २०१४ को हथियारबंद रूस समर्थकों ने यूक्रेन के क्रीमिया प्रायद्वीप में संसद और सरकारी बिल्डिंगो पर को कब्जा कर लिया। रूसी सैनिकों ने क्रीमिया के हवाई अड्डों, एक बंदरगाह और सैन्य अड्डे पर भी कब्जा कर लिया जिससे रूस और यूक्रेन के बीच आमने-सामने की जंग जैसे हालात बन गए। २ मार्च को रूस की संसद ने भी राष्ट्रपति पुतिन के यूक्रेन में रूसी सेना भेजने के निर्णया का अनुमोदन कर दिया। दुनिया भर में इस संकट से चिंता छा गई और कई देशों के राजनयिक अमले हरकत में आ गए। यही नहीं, ३ मार्च को दुनिया भर के शेयर बाजार गिर गए। अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा और उनके यूरोपीय सहयोगियों ने रूस के कदम को अंतर्राष्ट्रीय शांति और सुरक्षा के लिए खतरा बताया। उन्होंने फोन पर रूसी राष्ट्रपति से डेढ़ घंटा बात की।। ४ मार्च को रूस के राष्ट्रपति ने सेनाएँ वापिस बुलाने की घोषणा कर दी।
६०३,६२८ वर्ग किलोमीटर (२३३,०६२ वर्ग मील) के क्षेत्रफल और २७८२ किलोमीटर (१७२९ मील) लम्बी तटरेखा के साथ, यूक्रेन दुनिया का ४६वां सबसे बड़ा देश है (मेडागास्कर से पहले, दक्षिण सूडान के बाद)। यह पूर्णतः यूरोपियाई सीमा के अंदर आने वाला सबसे बड़ा देश है एवं यूरोप का दूसरा सबसे बड़ा देश है।
उत्तर-पश्चिम से दक्षिण तक यूक्रेन की मिट्टी तीन प्रमुख भागो में विभाजित किया जा सकता है: बलुआ पॉडजॉलीज़ेड मिट्टी क्षेत्र, अत्यंत उपजाऊ काली मिटटी(चेर्नोजम) का मध्यक्षेत्र, तथा भूरा और लवणता उक्त मिट्टी के क्षेत्र।
इनमे से सबसे प्रमुख काली मिटटी हैं जोकि यूक्रेन के दो तिहाई हिस्सो में पाई जाती हैं। यह अत्यंत ही उपजाऊ मिटटी होती है इसे दुनिया कि सबसे उपजाऊ क्षेत्रों में से एक माना जाता हैं और "पाव का टोकरी" के नाम से प्रसिद्ध हैं।
यूक्रेन जानवरों, कवक, सूक्ष्मजीवों और पौधों की विभिन्नतओ का घर है।
यूक्रेन का प्राणि क्षेत्र दो भागो में बता हुआ हैं पहला पश्चिमी क्षेत्र जहा यूरोप कि सीमा स्थित हैं यहाँ मिश्रित वनों की विशिष्ट प्रजातियों देखने को मिलती हैं और दूसरा पूर्वी यूक्रेन की ओर का क्षेत्र हैं जहां मैदान में रहने वाली प्रजातियों पनपती हैं देश के वन क्षेत्रों में जंगली बिल्ली, भेड़िये, जंगली सूअर और नेवला मुख्य रूप से पाए जाते है इनके अलावा यह अन्य की प्रकार के जीव पाया जाते हैं, वही कार्पेथियन पहाड़ियां जोकि कई स्तनधारियों का घर हैं जिनमे भूरे भालू, ऊदबिलाव तथा मिंक प्रमुख हैं
कवक की ६,६00 से अधिक ज्ञात प्रजातियों को यूक्रेन में दर्ज किया गया है, लेकिन अभी कई संख्या में अज्ञात प्रजातिया भी है।
यूक्रेन में ज्यादातर समशीतोष्ण जलवायु रहती है, इसके अपवाद क्रिमीआ के दक्षिणी तट हैं जहाँ उपोष्णकटिबंधीय जलवायु है। यहाँ की जलवायु अटलांटिक महासागर से आने वाली मामूली गर्म तथा नम हवा से प्रभावित होती है। औसत वार्षिक तापमान ७ च (४१.९४४.६ फ) उत्तर की ओर, से लेकर १११३ च (५१.८५५.४ फ)दक्षिण में रहती हैं। वर्षण (बूंदा बांदी, बारिश, ओले के साथ वर्षा, बर्फ, कच्चा ओला और ओलों इत्यादि) का वितरण भी असमान्य है; यह पश्चिम और उत्तर में सबसे अधिक जबकि पूर्व और दक्षिण पूर्व में सबसे कम है। पश्चिमी यूक्रेन में, विशेष रूप कार्पथियान पहाड़ों में वर्षा १,२०० मिलीमीटर (४७.२ में) के आसपास प्रतिवर्ष होता है जबकि क्रिमीआ और काला सागर के तटीय क्षेत्रों के आसपास ४00 मिलीमीटर होती है।
यूक्रेन एक गणराज्य है जिसमे अलग विधायी, कार्यकारी और न्यायिक शाखाओं के साथ एक मिश्रित अर्द्ध संसदीय, अर्द्ध राष्ट्रपति प्रणाली लागु हैं।
२४ अगस्त १९९१ में अपनी स्वतंत्रता के साथ ही यूक्रेन ने २८ जून १९९६ को संविधान लागु कर अर्द्ध-राष्ट्रपति गणतंत्र की पद्धति अपना ली, हलाकि २००४ में इसमें कई संशोधन किये गए जिससे इसका झुकाओ संसदीय प्रणाली की और बढ़ गया, हलाकि इसका विरोध सारे देश में किया गया और अंत में यूक्रेनी कोर्ट ने ३० सितंबर २०१० को सारे संविधान में किये गए संशोधनों को ख़ारिज कर पुनः १९९६ वाले संविधान को लागु कर दिया
२००४ का संवैधानिक संशोधन तथा २०१० पर कोर्ट के आदेश पर राजनीतिक बहस का एक प्रमुख विषय बन गया कि न तो १९९६ के संविधान और न ही २००४ के संविधान, "संविधान पूर्ववत करें" करने की क्षमता प्रदान करता हैं,
२१ फरवरी २०१४ को राष्ट्रपति विक्टर यानुकोवायच और विपक्षी नेताओं के बीच पुनः २००४ के संविधान की वापसी के लिये एक समझौता हुआ। यह समझौता यूरोपीय संघ की मध्यस्थता के बाद हुआ, जिसके बाद सारे देश में विरोध पनपने लगा। नवम्बर २०१३ में शुरू हुआ हिंसक झड़प एक सप्ताह तक चला जिसमें कई प्रदर्शनकारी मारे गए। इस सौदे में २००४ के संविधान में देश के लौटने , गठबंधन सरकार का गठन , जल्दी चुनाव का आवाहन तथा जेल से पूर्व प्रधानमंत्री यूलिया टायमोशेनको की रिहाई भी शामिल थी।
समझौते के एक दिन बाद, यूक्रेन की संसद ने समझौता खारिज कर दिया और अपनी वक्ता ऑलेक्ज़ेंडर तुर्सायनॉव को अंतरिम राष्ट्रपति और आर्सेनिय यात्सेंयुक को यूक्रेन के प्रधानमंत्री के रूप में स्थापित किया।
सोवियत संघ के विघटन के बाद, यूक्रेन को अपने विरासत में ७८०,००० सैन्य बल, के साथ दुनिया में तीसरी सबसे बड़ी परमाणु हथियार शस्त्रागार मिला है। मई १९९२ में, यूक्रेन ने लिस्बन में अपने सभी परमाणु हथियारों को नष्ट करने हेतु रूस को सौपने और परमाणु अप्रसार संधि पर एक गैर परमाणु हथियार संपन्न राष्ट्र के रूप में शामिल होने के सहमति पत्र पर हस्ताक्षर किए।
यूक्रेन ने १९९४ में संधि की पुष्टि की, और १९९६ तक देश में उपस्थित सभी परमाणु हथियारों से मुक्त हो गया। यूक्रेन, वर्तमान में अनिवार्य भरती आधारित सैन्य को एक पेशेवर स्वयंसेवक सेना में के रूप में परिवर्तित करने के लिए योजना बना रही है।
यूक्रेन शांति अभियानों में एक बड़ी भूमिका निभा रहा है। यूक्रेनी सैनिक, यूक्रेनी-पोलिश बटालियन के रूप में कोसोवो में तैनात किए गए हैं।एक यूक्रेनी सैनिक टुकड़ी को लेबनान में "अनिवार्य संघर्ष विराम समझौते" को लागू करने के लिए संयुक्त राष्ट्र अंतरिम सेना के भूमिका के रूप में तैनात किया गया था। २००३-०५ में, यूक्रेनी की सैनिक इकाई को पोलिश नियंत्रण में इराक में बहुराष्ट्रीय बल के रूप में तैनात किया गया था।
अपनी स्वतंत्रता के बाद से ही, यूक्रेन अपने आप को एक तटस्थ राष्ट्र घोषित करता रहा हैं। १९९४ तक देश की रूस, नाटो, और अन्य सीआईएस देशों के साथ सीमित सैन्य साझेदारी है। २००० के दशक में यूक्रेन सरकार का नाटो की ओर झुकाव बढ़ गया और २००२ में आपस में प्रगण सहयोग स्थापित करने हेतु नाटो-यूक्रेन कार्य योजना पर हस्ताक्षर किए गए। अभी तक रूस के दवाब के कारण यूक्रेन के नाटो में जुड़ने के आसार काम ही दिखाई देते रहे हैं। हलाकि २००८ बुखारेस्ट शिखर सम्मेलन के दौरान नाटो ने घोषणा की कि यूक्रेन, जब परिग्रहण के लिए सभी मानदंडों को पूरा कर लेगा, वह अंततः नाटो का सदस्य बन जाएगा।
यूक्रेन इंटरनेट के क्षेत्र में बड़ी तेजी से बढ़ रहा है जोकि २००७-०८ के वित्तीय संकट से अप्रभावित रहा है। जून, २०१४ तक, वहाँ १८.२ करोड़ डेस्कटॉप इंटरनेट उपयोगकर्ताओं थे, जोकि कुल वयस्क आबादी का ५६% है. इस क्षेत्र का केंद्र-बिंदु, २5 से ३४ वर्षीय आयु वर्ग,की और हैं जोकि जनसंख्या का २9% प्रतिनिधित्व करता है। दुनिया के सबसे तेजी से इंटरनेट का उपयोग करने वाले शीर्ष दस देशों के बीच, यूक्रेन ८ वें स्थान पर है।
यूक्रेन, विश्व पर्यटन संगठन श्रेणी के अनुसार आने वाले पर्यटकों की संख्या से यूरोप में ८ वें स्थान पर है,
क्योंकि यहाँ कई पर्यटकों के आकर्षणो का केंद्र हैं: पहाड़ स्कीइंग, लंबी पैदल यात्रा और मछली पकड़ने के लिए शैलानी यहाँ बड़ी मात्रा में आते हैं
काला सागर का तट गर्मियों में गंतव्य के रूप में लोकप्रिय हैं ; विभिन्न पारिस्थितिक तंत्र की प्रकृति भंडार; चर्चों, महल खंडहरो, पार्क स्थलों तथा विभिन्न आउटडोर गतिविधि के लिए प्रशिद्ध हैं
अपनी कई ऐतिहासिक स्थलों तथा आतिथ्य बुनियादी सुविधाओं के साथ कीव, लविवि , ओडेसा और कम्यानेट्स-पोडिलसकइ यूक्रेन के प्रमुख पर्यटन केंद्रों में से एक हैं।
क्रीमिया की अर्थव्यवस्था का मुख्य आधार पर्यटन हुआ करता था लेकिन २०१४ में रूसी विलय के बाद आगंतुक संख्या में एक बड़ी गिरावट आई है।
जनसंख्या में गिरावट
यूक्रेन में कुल ४५७ शहर हैं, जिनमे से १७६ ओब्लास्ट वर्ग, २७९ छोटे रायोन-स्तरीय शहरों, और दो शहर विशेष कानूनी दर्ज है।
'यूक्रेन में सबसे बड़े शहर या कस्बे'
युक्रेन मे ईसाई लगभग ८३%है
बाकी मुसलमान,यहुदी और बौद्ध धर्म के अनुयायी हैं
यूक्रेन रूढ़िवादी ईसाई धर्म, को की देश में प्रमुख धर्म हैं से बहुत प्रभावित हैं। यूक्रेन की संस्कृति अपने पूर्वी और पश्चिमी पड़ोसी देशो से भी बहुत प्रभावित है इसका उदाहरण वहा की स्थापत्य कला, संगीत और कला में देखने को मिल सकता हैं।
कम्युनिस्ट युग का यूक्रेन के कला और लेखन पर काफी गहरा प्रभाव रहा हैं। १९३२ में स्टालिन ने सोवियत संघ में समाजवादी यथार्थवाद राज्यनीति का गठन किया जिसने वहा के रचनात्मकता पर बुरा असर डाला। १९८० के दशक ग्लासनोस्ट् (खुलापन) पेश किया गया और सोवियत कलाकार और लेखक फिर से खुद को अभिव्यक्त करने के लिए स्वतंत्र हो गए।
ईस्टर एग की परंपरा, जो की वहा पैसंकी के रूप में जाना जाता हैं, यूक्रेन की जड़ों में बसा हुआ है। यहाँ पर रंग-बिरंगे ईस्टर एग बनाये जाते हैं जोकि वहा के पारंपरिक विरासत हैं
बुनाई और कढ़ाई
दस्तकार वस्त्र कला, यूक्रेनी संस्कृति में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं विशेषकर यूक्रेनी शादी की परंपराओं में। यूक्रेनी कढ़ाई, बुनाई और फीता बनाने पारंपरिक कला वहा के लोक पोशाक और पारंपरिक समारोह में देखा जा सकता है।
राष्ट्रीय पोशाक बुना जाता है और इसे अत्यधिक सजाया जाता हैं। हस्तनिर्मित करघे के साथ बुनाई अभी भी कृपोव गांव, जोकि रीव्ने ओब्लास्त में स्थित हैं प्रचलित है। यह गांव राष्ट्रीय शिल्प निर्माण के दो मशहूर हस्तियों का जन्मस्थान है। नीना म्य्हाइलीवना और उलियाना पेट्रीव्ना, जिनकी पहचान अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हैं। इस पारंपरिक ज्ञान को सहेजने के लिए गांव में एक स्थानीय बुनाई केंद्र, एक संग्रहालय तथा बुनाई स्कूल खोलने की योजना बनाई जा रही है।
यूक्रेनी साहित्य का इतिहास ११ वीं सदी से है, उस समय के लेखन मुख्य रूप से पूजन पद्धति संबंधी थे तथा पुराने चर्च स्लावोनिक भाषा में लिखा गया था। साहित्यिक गतिविधि को मंगोल आक्रमण के दौरान अचानक गिरावट का सामना करना पड़ा। यूक्रेनी साहित्य फिर से १४ वीं सदी में विकसित होना शुरू किया और १६ वीं सदी छाप की शुरूआत के बाद , कोसैक युग की शुरुआत के साथ में काफी फला-फूला, वहा की कला में रूसी और पोलिश कलाओ का प्रभुत्व दिखा। यह उन्नति १७वीं और १८वीं शताब्दी में वापस स्थगित हो गए, जब यूक्रेनी भाषा में प्रकाशित करने को गैरकानूनी और निषिद्ध कर दिया गया। बहरहाल, १८वीं सदी में आधुनिक साहित्यिक यूक्रेनी फिर से उभर कर सामने आया।
संगीत और सिनेमा
संगीत एक लंबे इतिहास के साथ यूक्रेनी संस्कृति का एक प्रमुख हिस्सा है। पारंपरिक लोक संगीत से, पारंपरिक और आधुनिक रॉक संगीत तक, यूक्रेन कई अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मान्यता प्राप्त संगीतकारों का घर है। जिनमे किरिल कराबिट्स, ओकेयन एलजी और रुस्लाना शामिल हैं। पारंपरिक यूक्रेनी लोक संगीत के धुन ने पश्चिमी संगीत और आधुनिक जैज़ संगीत को भी प्रभावित किया हैं। १९६० के दशक के मध्य से, पश्चिमी-प्रभावित पॉप संगीत की लोकप्रियता यूक्रेन में बढ़ रही है। लोक गायक और हार्मोनियम वादक मारियाना सदोवस्का प्रमुख कलाकार हैं।
यूक्रेन का यूरोपीय सिनेमा पर भी प्रभाव है यूक्रेनी निर्देशक अलेक्जेंडर दोवजहेंको, अक्सर महत्वपूर्ण सोवियत फिल्म निर्माताओं में याद किये जाते है। उन्होंने अपनी खुद की सिनेमाई शैली का आविष्कार किया, यूक्रेनी काव्य सिनेमा, जोकि उस समय के समाजवादी मार्गदर्शक सिद्धांतों से एकदम अलग थे। महत्वपूर्ण और सफल प्रस्तुतियों के बावजूद, यहाँ के फिल्म उद्योग में यूरोपीय और रूसी प्रभाव को लेकर अक्सर बहस होती रहती है। यूक्रेनी निर्माता, अंतरराष्ट्रीय सह-निर्माण में सक्रिय हैं और यूक्रेनी अभिनेता, निर्देशक और चालक दल नियमित रूप से रूसी (पूर्व में सोवियत) फिल्मों में दिखाई देते रहते हैं।
यूक्रेन को सोवियत के शारीरिक शिक्षा पर जोर से काफी लाभ हुआ। इस तरह की नीतियों से यहाँ कई स्टेडियम, स्विमिंग पूल, जिम्नॅशिअम और कई अन्य पुष्ट सुविधाएं विरासत में यूक्रेन को मिले। यहाँ का सबसे लोकप्रिय खेल फुटबॉल है। यहाँ के शीर्ष पेशेवर लीग में विस्चा लिहा ( "प्रीमियर लीग") का नाम है।
कई यूक्रेनियन्स ने सोवियत राष्ट्रीय फुटबॉल टीम के लिए भी खेला हैं यहाँ की राष्ट्रीय टीम २००६ के फीफा विश्व कप में क्वार्टर फाइनल तक पहुंचे, और अंततः चैंपियन इटली से हार का सामना करना पड़ा
यूक्रेनियन का मुक्केबाजी में भी अच्छा प्रदर्शन रहा हैं जिनमे वितली और व्लाडीमीर क्लिट्सचको भाइयों को विश्व हैवीवेट चैंपियन का दर्ज हासिल है।
शतरंज यूक्रेन में एक लोकप्रिय खेल है। यहाँ के रुसलन पोनोमारियोव पूर्व विश्व चैंपियन रह चुके है। यहाँ यूक्रेन में ८५ ग्रैंडमास्टर तथा १९८ अंतर्राष्ट्रीय मास्टर्स हैं।
यूक्रेन १९९४ के शीतकालीन ओलंपिक में अपने ओलंपिक करियर की शुरुआत की। अब तक ओलंपिक में यूक्रेन शीतकालीन ओलंपिक की तुलना में ग्रीष्मकालीन ओलंपिक (पांच मैचों में ११५ पदक) में बहुत अधिक सफल रहा है। यूक्रेन वर्तमान में स्वर्ण पदकों की संख्या से ३५ वें स्थान पर है।
परंपरागत यूक्रेनी आहार में मुर्गी-सुअर का मांस, मांस, मछली और मशरूम शामिल है। यहाँ आलू, अनाज, ताजा, उबला हुआ या मसालेदार सब्जिया भी बहुत खाये जाते हैं। यहाँ का लोकप्रिय पारंपरिक व्यंजन, वरेनेक्य (मशरूम, आलू, गोभी, पनीर, चेरी के साथ उबला हुआ पकौड़ी), नालीस्णकी (पनीर, खसखस, मशरूम, मछली के अंडे या मांस के साथ पेनकेक्स),और पियरोगी (उबला हुआ आलू और पनीर या मांस के साथ भरा पकौड़ी) शामिल हैं।
यूक्रेनी व्यंजन में चिकन कीव और कीव केक भी शामिल हैं। यूक्रेनियन पेय पदार्थो में फल जूस, दूध, छाछ, चाय और कॉफी, बीयर, वाइन और होरिल्का शामिल हैं।
अ. रूस और कजाखस्तान पहले और दूसरे सबसे बड़े देश हैं लेकिन दोनों यूरोपीय और एशियाई महाद्वीपों में फैले हैं। रूस यूक्रेन से अधिक यूरोपियाई क्षेत्रफल रखने वाला एकमात्र देश है।
यूरोप के देश |
तबला भारतीय संगीत में प्रयोग होने वाला एक तालवाद्य है जो मुख्य रूप से दक्षिण एशियाई देशों में बहुत प्रचलित है। यह लकड़ी के दो ऊर्ध्वमुखी, बेलनाकार, चमड़ा मढ़े मुँह वाले हिस्सों के रूप में होता है, जिन्हें रख कर बजाये जाने की परंपरा के अनुसार "दायाँ" और "बायाँ" कहते हैं। यह तालवाद्य हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत में काफी महत्वपूर्ण है और अठारहवीं सदी के बाद से इसका प्रयोग शास्त्रीय एवं उप शास्त्रीय गायन-वादन में लगभग अनिवार्य रूप से हो रहा है। इसके अतिरिक्त सुगम संगीत और हिंदी सिनेमा में भी इसका प्रयोग प्रमुखता से हुआ है। यह बाजा भारत, पाकिस्तान, नेपाल, बांग्लादेश, और श्री लंका में प्रचलित है। पहले यह गायन-वादन-नृत्य इत्यादि में ताल देने के लिए सहयोगी वाद्य के रूप में ही बजाय जाता था, परन्तु बाद में कई तबला वादकों ने इसे एकल वादन का माध्यम बनाया और काफी प्रसिद्धि भी अर्जित की।
नाम तबला की उत्पत्ति अरबी-फ़ारसी मूल के शब्द "तब्ल" से बतायी जाती है। हालाँकि, इस वाद्य की वास्तविक उत्पत्ति विवादित है - जहाँ कुछ विद्वान् इसे एक प्राचीन भारतीय परम्परा में ही उर्ध्वक आलिंग्यक वाद्यों का विकसित रूप मानते हैं वहीं कुछ इसकी उत्पत्ति बाद में पखावज से निर्मित मानते हैं और कुछ लोग इसकी उत्पत्ति का स्थान पच्छिमी एशिया भी बताते हैं।
तबले का इतिहास सटीक तौर पर नामालूम है और इसकी उत्पत्ति के बारे में कई उपस्थापनायें मौजूद हैं। इसकी उत्पत्ति के सम्बन्ध में वर्णित विचारों को दो समूहों में बाँटा जा सकता है:
औपनिवेशिक शासन के दौरान इस परिकल्पना को काफी बलपूर्वक पुरःस्थापित किया गया कि तबले की मूल उत्पत्ति मुस्लिम सेनाओं के साथ चलने वाले जोड़े ड्रम से हुई है; इस स्थापना का मूल अरबी के "तब्ल" शब्द पर आधारित है जिसका अर्थ "ड्रम (ताल वाद्य)" होता है। बाबर द्वारा सेना के साथ ऐसे ड्रम लेकर चलने को उदाहरण के रूप में प्रस्तुत किया जाता है, हालाँकि तुर्क सेनाओं के साथ चलने वाले ये वाद्ययंत्र तबले से कोई समानता नहीं रखते बल्कि "नक्कारा" (भीषण आवाज़ पैदा करने वाले) से समानता रखते हैं।
दूसरी स्थापना के मुताबिक़, अलाउद्दीन खिलजी के समय में, अमीर ख़ुसरो ने "आवाज़ बाजा" (बीच में पतला तालवाद्य) को काट कर तबले का रूप देने की बात कही जाती है। हालाँकि, यह भी संभव नहीं लगता क्योंकि उस समय के कोई भी चित्र इस तरह के किसी वाद्य यंत्र का निरूपण नहीं करते। मुस्लिम इतिहासकारों ने भी अपने विवरणों में ऐसे किसी वाद्ययंत्र का उल्लेख नहीं किया है। उदाहरण के लिए, अबुल फैजी ने आईन-ए-अकबरी में तत्कालीन वाद्ययंत्रों की लंबी सूची गिनाई है, लेकिन इसमें तबले का ज़िक्र नहीं है।
एक अन्य तीसरे मतानुसार दिल्ली के ख़यात गायक सदारंग के शिष्य और प्रसिद्ध पखावज वादक रहमान खान के पुत्र, अमीर खुसरो (द्वितीय) ने १७३८ ई॰ में पखावज से तबले का आविष्कार किया। इससे पहले ख़याल गायन में भी पखावज से संगत की जाती थी। इस सिद्धांत में सत्यता संभावित है क्योंकि उस समय की लघु कलाकृतियों (मिनियेचर पेंटिंग) में तबले से मिलते-जुलते वाद्ययंत्र के प्रमाण मिलते हैं। हालाँकि, इससे यह प्रतीत होता है की इस वाद्ययंत्र की उत्पत्ति भारतीय उपमहादीप के मुस्लिम समुदायों में दिल्ली के आसपास हुई न कि यह अरब देशों से आयातित वाद्ययंत्र है। नील सोर्रेल और पंडित राम नारायण जैसे संगीतविद पखावज काट कर तबला बनाये जाने की इस किम्वदंती में बहुत सत्यता नहीं देखते।
भारतीय उत्पत्ति के सिद्धांत को मानने वाले तबले का मूल भारत में मानते हैं और यह कहते हैं कि मुस्लिम काल में इसने मात्र अरबी नाम ग्रहण कर लिया। भारतीय नाट्यशास्त्र के प्रणेता भरत मुनि के द्वारा उर्ध्वक आलिंग्यक वाद्यों के वर्णन की बात कही जाती है। ऐसे ही, हाथ में लेकर बजाये जाने वाले "पुष्कर" नामक तालवाद्यों से तबले की उत्पत्ति बतायी जाती है। "पुष्कर" वाद्य के प्रमाण छठवीं-सातवीं सदी के मंदिर उत्कीर्णनों में, ख़ासतौर पर मुक्तेश्वर और भुवनेश्वर मंदिरों में, प्राप्त होते हैं। इन कलाकृतियों में वादक कलाकार दो या तीन अलग-अलग रखे तालवाद्यों को सामने रख कर बैठे दिखाए गए हैं और उनके हाथों और उँगलियों के निरूपण से वे इन्हें बजाते हुए प्रतीत होते हैं। हालाँकि, इन निरूपणों से यह नहीं पता चलता कि ये वाद्ययंत्र उन्हीं पदार्थों से निर्मित हैं और चर्मवाद्य ही हैं, जैसा की आधुनिक समय का तबला होता है।
तबला आज जिन पदार्थों से और जिस रूप में बनाया जाता है, ऐसे वाद्ययंत्रों के निर्माण के लिखित प्रमाण संस्कृत ग्रंथों में उपलब्ध हैं। "तबला"-जैसे वाद्ययंत्र के निर्माण सम्बन्धी सबसे पुरानी जानकारी संस्कृत नाट्य शास्त्र में मिलती है। इन तालवाद्यों को बजाने से सम्बंधित विवरण भी नाट्यशास्त्र में मिलती है। वहीं, दक्षिण भारतीय ग्रंथ, उदाहरणार्थ, शिलप्पदिकारम, जिसकी रचना प्रथम शताब्दी ईसवी मानी जाती है, लगभग तीस ताल वाद्यों का विवरण देता है जिनमें कुछ रस्सियों द्वारा कसे जाने वाले और अन्य शामिल हैं, लेकिन इसमें "तबला" नामक किसी वाद्य का विवरण नहीं है।
ताल और तालवाद्यों का वर्णन वैदिक साहित्य से ही मिलना शुरू हो जाता है। दो या तीन अंगों वाला, डोरियों के सहारे लटका कर, हाथों से बजाये जाने वाले वाद्य यंत्र पुष्कर (अथवा "पुष्कल") के प्रमाण पाँचवीं सदी में होने के प्रमाण मिलते हैं जो मृदंग के साथ अन्य तालवाद्यों में गिने जाते थे, हालाँकि, तब इन्हें तबला नहीं कहा जाता था। पांचवीं सदी से पूर्व की अजंता गुफाओं के भित्ति-चित्र जमीन पर रख कर बजाये जाने वाले ऊर्ध्वमुखी ड्रमों का निरूपण करते हैं। बैठ का ताल वाद्य बजाते हुए कलाकारों का ऐसा ही निरूपण एलोरा की प्रस्तर मूर्तियों में मिलता है, तथा अन्य स्थलों से भी।
पहली सदी के चीनी-तिब्बती यात्रियों द्वारा भी भारत में छोटे आकार के ऊर्ध्वमुखी ड्रमों का प्रचलन होने का विवरण प्राप्त होता है (पुष्कर को तिब्बती साहित्य में "जोंग्पा" कहा गया है)। जैन और बौद्ध ग्रंथों, जैसे समवायसूत्र, ललितविस्तार और सूत्रालंकार इत्यादि में भी पुष्कर नामक इस तालवाद्य के विवरण मिलते हैं।
कई हिन्दू और जैन मंदिर, जैसे की राजस्थान के जयपुर स्थित एकलिंगजी मंदिर, तबले जैसे आकार के वाद्य बजाते हुए व्यक्ति का प्रस्तर मूर्तियों में निरूपण करते हैं। दक्षिण में यादव शासन के समय (१२१० से १२४७) में भी आईएस तरह के छोटे तालवाद्यों का प्रमाण मिलता है जब सारंगदेव संगीत रत्नाकर की रचना कर रहे थे। हालिया बिंबशास्त्रीय दावे जिनमें तबले को १७९९ के आसपास का माना गया है अब महत्वहीन हो चुकी हैं और भाजे गुफाओं से प्राप्त चित्र प्राचीन भारत में इस तरह के वाद्य का प्रयोग प्रमाणित करते हैं। जमीन पर रख कर बजाये जाने वाले ऊर्ध्वमुखी वाद्यों के प्रमाण कई हिन्दू मंदिरों से प्राप्त हुए हैं जो ५०० ईपू के आसपास तक के समय के हैं। दक्षिण भारत में इसतरह के वाद्यों के मौजूद होने के प्रमाण के रूप में होयसलेश्वर मंदिर, कर्नाटकम का उदाहरण लिया जा सकता है जिसमें एक नक्काशी में नृत्य समारोह में एक स्त्री तबले जैसे वाद्य बजाती दिखाई गयी है।
तबला, बजाने की कला के आधार पर मृदंग और पखावज से अलग है। इसमें हाथ की उंगलियों की कलात्मक गति का महत्व अधिक है। वहीं, पखावज और मृदंग पंजों की गति से बजाये जाते हैं क्योंकि इनपर आघात क्षैतिज रूप से किया जाता है और इस प्रकार इनके बोलों में जटिलता उतनी नहीं जितनी तबले में पाई जाती है। अतः ध्वनिशास्त्रीय और वादन कला आधारित अध्ययनों में तबले की समानता तीनों वाद्यों के साथ स्थापित की जा सकती है; पखावज की तरह का "दायाँ", नक्कारे की तरह आकार वाला "बायाँ", ढोलक की तरह गमक वाला प्रयोग, तीनों प्राप्त होते हैं।
"तबला" के दो अंग होते हैं, अर्थात इसमें दो ड्रम होते हैं जिनका आकार और आकृति एक दूसरे से कुछ भिन्नता लिए होती है।
तकनीकी तौर पर, एक सीधे हाथ वाले वादक द्वारा, दाहिने हाथ (कुशल हाथ) से बजाय जाने वाला अंग ही तबला कहलाता है। आम भाषा में इसे दायाँ या दाहिना कहते हैं। यह लगभग १५ सेंटीमीटर (~६ इंच) व्यास वाला और २५ सेंटीमीटर (~१० इंच) ऊँचाई वाला होता है।
बायें वाले हिस्से को क्षेत्र अनुसार डग्गा, डुग्गी अथवा धामा भी कहते हैं। पुराने प्राप्त चित्रों में दाहिने और बायें अंग का आकार लगभग समान पाया गया है और कभी कभी बायें का आकर छोटा भी। हालाँकि, अब बायाँ का आकार तबले की तुलना में काफी बड़ा होता है। दाहिना या तबला बहुधा लकड़ी का बना होता है जबकि बायाँ मिट्टी (पके बर्तन के रूप में जिस पर चमड़ा मढ़ा जाय) का भी होता है अथवा दोनों ही पीतल या फूल (मिश्र-धातु) के भी बने हो सकते हैं। बायाँ, चौड़े मुँह वाला, चमड़े मढ़ा ड्रम होता है जिसका आकार लगभग २० सेंटीमीटर (~८ इंच) व्यास वाला और २५ सेंटीमीटर (~१० इंच) ऊँचाई वाला होता है।
दाहिने में डोरियों के बीच (जो अक्सर चमड़े की ही होती हैं) लकड़ी के छोटे आड़े बेलन बेलन लगे होते हैं, जिनपर हथौड़ी से चोट कर डोरियों के कसाव को बदला जा सकता है। इस क्रिया को सुर मिलाना कहते हैं। गायन-वादन के दौरान राग के मुख्य स्वर "सा" के साथ तबले की ध्वनि की तीक्ष्णता का मिलान किया जाता है, जिसे तबले को "षडज" पर मिलाना कहते हैं। सितार के साथ, चूँकि तार वाद्य और ऊँची तीक्ष्णता का वाद्य है, तबले को "पंचम" पर भी मिलाया जाता है। बायें को सामान्यतः, तबले की तुलना में निचले स्वरों "मन्द्र पंचम" पर सुर में रखा जाता है। कलाकार अपनी हथेली के पिछले हिस्से (मणिबंध) के दबाव द्वारा भी बायें के सुरों में मामूली बदलाव कर सकते हैं।
इन दोनों अंगों के आकार में विषमता के कारण तीखे और चंचल बोल - ता, तिन, ना इत्यादि दाहिने पर बजाये जाते हैं और बायें का आकार बड़ा होने के कारण गंभीर आवाज वाले नाद धे, धिग इत्यादि बायें पर बजते हैं। इसीलिए "बायें" को "बेस ड्रम" की तरह प्रयोग में लाया जाता है।
तबलों के चमड़ा मढ़े मुख पर भी तीन हिस्से होते हैं:
चाट, चांटी, किनारा, किनार, की, या स्याही - सबसे किनारे का हिस्सा।
सुर, मैदान, लव, या लौ - स्याही और किनारे के बीच का भाग।
बीच, स्याही, सियाही, या गाँव - सबसे बीच का काला हिस्सा, जहाँ एक प्रकार का काला पदार्थ चिपका होता है, जिससे यह हिस्सा मोटा हो जाता है।
तबले के प्रत्येक हिस्से के बीचोबीच एक काले चकत्ते के रूप में जो हिस्सा होता है उसे "स्याही" कहते हैं। यह मुख्य रूप से चावल या गेहूँ के मंड में कई प्रकार की चीजे मिला कर बनाया गया एक लेप होता है जो सूख कर कड़ा हो जाने के बाद तबले के चमड़े की स्वाभाविक धवनि का परिष्कार करके इसे एक खनकदार आवाज़ प्रदान करता है। तबला निर्माण की प्रक्रिया के दौरान स्याही का समुचित प्रयोग एक निपुणता की चीज है और इस वाद्ययंत्र की गुणवत्ता काफ़ी हद तक स्याही आरोपण की कुशलता पर निर्भर होती है।
कुछ वादक, डुग्गी पर सियाही के बजाय, गूँधे गए आटे को चिपका कर सुखा लेते हैं, हालाँकि यह प्रक्रिया हर बार करनी पड़ती है और तबला वादन के बाद इसे खुरच कर हटा दिया जाता है। पंजाब में यह अभी भी प्रचलन में है और ऐसे "बायें" को "धामा" कहते हैं।
तबले के बोल
तबले के बोलों को "शब्द", "अक्षर" या "वर्ण" भी कहते हैं। ये बोल परंपरागत रूप से लिखे नहीं बल्कि गुरु-शिष्य परम्परा में मौखिक रूप से सीखे सिखाये जाते रहे हैं। इसीलिए इनके नामों में कुछ विविधता देखने को मिलती है। अलग-अलग क्षेत्र और घराने के वादन में भी बोलों का अंतर आता है। एक ही बोल को बजाने के कई तरीकों का प्रचलन भी मिलता है। एक विवरण के अनुसार तबले के मूल बोलों की संख्या पंद्रह है जिनमें से ग्यारह दायें पर बजाये जाते हैं और चार बायें पर। नीचे डेविड कर्टनी लिखित "फंडामेंटल्स ऑफ़ तबला" और बालकृष्ण गर्ग लिखित बोलों का एक संक्षिप्त और सामान्यीकृत विवरण प्रस्तुत किया गया है:
दाहिने के बोल
ता/ना - किनारा पर तर्जनी (पहली) उउंगली से, ठोकर के बाद उंगली तुरंत उठ जाती है।
ती - मैदान में तर्जनी से ठोकर, उंगली तुरंत उठ जाती है।
तिन् - सियाही पर तर्जनी से ठोकर, उंगली तुरंत उठ जाती है।
ते - तर्जनी अतिरिक्त बाकी तीन उंगलियाँ (या केवल मध्यमा) से सियाही पर, गुंजन नहीं।
टे - तर्जनी अँगुरी से सियाही पर, गुंजन नहीं।
तिट - दोहरे ठोकर का बोल, ते और टे का सामूहिक रूप (अन्य उच्चारण तिर)।
बायाँ के बोल
धा/धे - पहिली (या दूसरी) उंगली से बीच में ठोकर, मणिबंध (कलाई का पिछला हिस्सा) "मैदान" में रखा रहता है।
क/के/गे - पूरी हथेली खुली सपाट रख दी जाती है, गुंजन नहीं।
घिस्सा - बीच में ठोकर के हथेली का पिछला हिस्सा बीच की ओर सरकाया जाता है, जिससे से गुंजन धीरे-धीरे क्रमिक रूप से बंद होता है।
तबला के प्रमुख घराने
तबला वादन के कुल छह घराने हैं-
दिल्ली घराने के प्रवर्तक उस्ताद सिध्दाथ॔ ख़ाँ थे और पंजाब घराने के अलावा बाकी के चार अन्य घराने भी दिल्ली घराने का ही विस्तार माने जाते हैं। लखनऊ घराने के प्रवर्तक मोदू ख़ाँ और बख़्शू ख़ाँ; फ़र्रूख़ाबाद घराने के प्रवर्तक विलायत अली ख़ाँ उर्फ़ हाजी साहब; अजराड़ा घराने के प्रवर्तक कल्लू ख़ाँ और मीरू ख़ाँ; बनारस घराने के प्रवर्तक पंडित राम सहाय और पंजाब घराने के प्रवर्तक उस्ताद फ़क़ीरबख़्श ख़ाँ थे।
प्रसिद्ध तबला वादक
प्रसिद्ध तबला वादकों में पंजाब घराने के अल्ला रक्खा ख़ाँ और ज़ाकिर हुसैन (पिता पुत्र) का नाम आता है। ज़ाकिर हुसैन को मात्र ३७ वर्ष की आयु में पद्म भूषण सम्मान प्राप्त हुआ और वे सबसे कम उम्र में यह सम्मान पाने वाले व्यक्ति बने, बाद में उन्हें अंतर्राष्ट्रीय ग्रैमी पुरस्कार भी प्राप्त हुआ। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर तबला वादन को प्रतिष्ठित कराने में चतुरलाल का उल्लेखनीय योगदान रहा।
बनारस घराने के सामता प्रसाद मिश्र (गुदई महराज), अनोखेलाल मिश्र, कंठे महराज और किशन महाराज (२००२ में पद्म विभूषण से सम्मानित) उल्लेखनीय हैं। इसी घराने के संदीप दास को भी ग्रैमी अवार्ड से सम्मानित किया गया है।
इनके अलावा प्रसिद्ध पाकिस्तानी तबला वादक शौक़त हुसैन ख़ाँ, मुंबई के योगेश शम्सी, त्रिलोक गुर्टू, कुमार बोस, तन्मय बोस, फ़जल क़ुरैशी इत्यादि के नाम उल्लेखनीय हैं।
इन्हें भी देखें
आगे पढ़ने हेतु
दि मेजर ट्रेडिशंस ऑफ़ नॉर्थ इंडियन तबला ड्रमिंग: अ सर्वे प्रेसेंटेशन बेस्ड ऑन परफॉर्मेंसेज बाय इंडियाज लीडिंग आर्टिस्ट्स, लेखक - रॉबर्ट ऍस॰ गौट्लिब, म्युज़िकवर्लाग ई॰ कात्ज़बिश्लर, १९७७. इसब्न ९७८-३-८7३97-३00-८.
दि तबला ऑफ़ लखनऊ: अ कल्चरल ऍनालिसिस ऑफ़ अ म्यूज़िकल ट्रेडिशन, लेखक - जेम्स किपेन, कैंब्रिज यूनिवर्सिटी प्रेस, १९८८. इसब्न ०-५२१-३३५२८-०.
सोलो तबला ड्रमिंग ऑफ़ नॉर्थ इंडिया: टेक्स्ट & कमेंटरी, लेखक - रॉबर्ट ऍस॰ गौट्लिब, मोतीलाल बनारसीदास प्रकाशन, १९९३. इसब्न ८१-२०८-१०९३-७.
फंडामेंटल्स ऑफ़ तबला, (भाग १). लेखक - डेविड आर॰ कर्टनी, सुर संगीत सर्विसेस प्रकाशन, १995. इसब्न ०-९६३४४४७-६-क्स.
एडवांस्ड थ्योरी ऑफ़ तबला, (भाग २). लेखक - डेविड आर॰ कर्टनी, सुर संगीत सर्विसेस प्रकाशन, २०००. इसब्न ०-९६३४४४७-९-४.
मैन्युफैक्चर एंड रिपेयर ऑफ़ तबला, (भाग ३). लेखक - डेविड आर॰ कर्टनी, सुर संगीत सर्विसेस प्रकाशन, २००१. इसब्न १-89३644-०२-२.
फोकस ऑन कायदाज ऑफ़ तबला, (भाग ४). लेखक - डेविड आर॰ कर्टनी, सुर संगीत सर्विसेस प्रकाशन, २००२. इसब्न १-8936४४-०३-०.
थ्योरी एंड प्रैक्टिस ऑफ़ तबला, लेखक- सदानंद नाइमपल्ली, पॉपुलर प्रकाशन, २००५. इसब्न ८१-७९९१-१४९-७
ऍसऍसबी रेडियो, ऑस्ट्रेलिया - प्रसारण: बनारस घराने के पंडित चन्द्रनाथ शास्त्री का इंटरव्यू, बनारस घराने की विशिष्टताओं पर।
भारतीय वाद्य यंत्र |
मोहिनीअट्टम (मलयालम: ) भारत के केरल राज्य के दो शास्त्रीय नृत्यों में से एक है, जो अभी भी काफी लोकप्रिय है केरल की एक अन्य शास्त्रीय नृत्य कथकली भी है। मोहिनीअट्टम नृत्य शब्द मोहिनी के नाम से बना है, मोहिनी रूप हिन्दुओ के देव भगवान विष्णु ने धारण इसलिए किया था ताकि बुरी ताकतों के ऊपर अच्छी ताकत की जीत हो सके
मोहिनीअट्टम की जड़ों, सभी शास्त्रीय भारतीय नृत्यों की तरह, नाट्य शास्त्र में हैं यह एक प्राचीन हिंदू संस्कृत ग्रन्थ है जो शास्त्रीय कलाओ पर लिखी गयी हैं [७]। यह परंपरागत रूप से व्यापक प्रशिक्षण के बाद महिलाओं द्वारा किया एक एकल नृत्य है।
पौराणिक मोहिनी मोहिनीअट्टम, जिसको मोहिनी अट्टम भी बोला जाता हैं यह "मोहिनी" शब्द से लिया गया है जो भारतीय पौराणिक कथाओं में भगवान् विष्णु का एक प्रसिद्ध नारी अवतार हैं
मोहिनी का अर्थ एक "दिव्य जादूगरनी या मन को मोहने वाला" होता है। जिसका अवतरण देव और असुरों के बीच युद्ध के दौरान हुआ था जब असुरों ने अमृत के ऊपर अपना नियंत्रण कर लिया था। मोहिनी ने वो अमृत असुरों को मोह में लेकर देवताओं को दे दिया था
मोहिनीअट्टम एक भारतीय शास्त्रीय नृत्य है, जिसकी जड़े कला की भारतीय कला की जननी समझी जाने वाली पुष्तक नाट्य शास्त्र में हैं। जिसके रचयिता प्राचीन विद्वान भरत मुनि हैं
इसकी पहली पूर्ण संकलन २०० ईसा पूर्व और २०० ईसा के बाद की मानी जाती हैं मोहिनीअट्टम संरचना इस प्रकार है और नाट्य शास्त्र में लास्य नृत्य के लिए करना है।
रेजिनाल्ड मैसी के अनुसार, मोहिनीअट्टम के इतिहास के बारे में स्पष्ट नहीं है। केरल जहां इस नृत्य शैली विकसित हुई है और लोकप्रिय है, लास्य शैली नृत्य जिसका मूल बातें और संरचना जड़ में हो सकता है कि एक लंबी परंपरा है।
ब्रिटिश शासन का युग
१९ वीं सदी में ब्रिटिश शासन के प्रसार के साथ भारत के सभी शास्त्रीय नृत्यों का उपहास और खिल्ली उड़ाई गयी जिससे इनके प्रसार में गंभीर रूप से गिरावट हुई।
ब्रिटिश औपनिवेशिक युग के दौरान उपहास और अधिनियमित प्रतिबंध ने राष्ट्रवादी भावनाओं के लिए योगदान दिया है, और मोहिनीअट्टम सहित सभी हिंदू प्रदर्शन कला पर इनका असर पड़ा। १९३० के दशक में इसको भी पुनर्जीवित किया गया था।
प्रदर्शनों की सूची
एक कलाकार की अभिव्यक्ति मोहिनीअट्टम नृत्य की शैली लास्य की हैं एवं इससे कसिका वृति में प्रस्तुत किया जाता हैं। जिसका वर्णन भारतीय कला की प्राचीन ग्रन्थ नाट्य शास्त्र में किया गया हैं। यहाँ सबसे महत्वपूर्ण है इसकी एकल अभिनय शैली जिसमे संगीत एवं गायन का भी योगदान रहता हैं।
मोहिनीअट्टम के प्रदर्शनों की सूची अनुक्रम भरतनाट्यम के समान है।
संगीत और वाद्य
मोहिनीअट्टम के मुख्य संगीत में विभिन्न प्रकार के लय शामिल है।
मोहिनीअट्टम में आमतौर पर इस्तेमाल होने वाले संगीत उपकरण में मृदंगम या मधालम (बैरल ड्रम), इदक्का (ऑवर गिलास ड्रम), बांसुरी, वीणा एवं किज्हितलम शामिल हैं। रागों (राग) को सोपाना शैली में गाया जाता है, जो धीमी गति से मधुर शैली में गाया जाता है। |
रक्षाबन्धन भारतीय धर्म संस्कृति के अनुसार रक्षाबन्धन का त्योहार श्रावण माह की पूर्णिमा को मनाया जाता है। यह त्योहार भाई-बहन को स्नेह की डोर में बांधता है। इस दिन बहन अपने भाई के मस्तक पर टीका लगाकर रक्षा का बन्धन बांधती है, जिसे राखी कहते हैं। यह एक हिन्दू व जैन त्योहार है जो प्रतिवर्ष श्रावण मास की पूर्णिमा के दिन मनाया जाता है। श्रावण (सावन) में मनाये जाने के कारण इसे श्रावणी (सावनी) या सलूनो भी कहते हैं। रक्षाबन्धन में राखी या रक्षासूत्र का सबसे अधिक महत्त्व है। राखी कच्चे सूत जैसे सस्ती वस्तु से लेकर रंगीन कलावे, रेशमी धागे, तथा सोने या चाँदी जैसी मँहगी वस्तु तक की हो सकती है। रक्षाबंधन भाई बहन के रिश्ते का प्रसिद्ध त्योहार है, रक्षा का मतलब सुरक्षा और बंधन का मतलब बाध्य है। रक्षाबंधन के दिन बहने भगवान से अपने भाईयों की तरक्की के लिए भगवान से प्रार्थना करती है। राखी सामान्यतः बहनें भाई को ही बाँधती हैं परन्तु ब्राह्मणों, गुरुओं और परिवार में छोटी लड़कियों द्वारा सम्मानित सम्बंधियों (जैसे पुत्री द्वारा पिता को) भी बाँधी जाती है। कभी-कभी सार्वजनिक रूप से किसी नेता या प्रतिष्ठित व्यक्ति को भी राखी बाँधी जाती है। रक्षाबंधन के दिन भाई अपने बहन को राखी के बदले कुछ उपहार देते है।
हिन्दू धर्म के सभी धार्मिक अनुष्ठानों में रक्षासूत्र बाँधते समय कर्मकाण्डी पण्डित या आचार्य संस्कृत में एक श्लोक का उच्चारण करते हैं, जिसमें रक्षाबन्धन का सम्बन्ध राजा बलि से स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होता है (यह श्लोक रक्षाबन्धन का अभीष्ट मन्त्र -)-
येन बद्धो बलिराजा दानवेन्द्रो महाबल:।
तेन त्वामपि बध्नामि रक्षे मा चल मा चल ॥
इस श्लोक का हिन्दी भावार्थ है- "जिस रक्षासूत्र से महान शक्तिशाली दानवेन्द्र राजा बलि को बाँधा गया था, उसी सूत्र से मैं तुझे बाँधता हूँ। हे रक्षे (राखी)! तुम अडिग रहना (तू अपने संकल्प से कभी भी विचलित न हो।)"
प्रातः स्नानादि से निवृत्त होकर लड़कियाँ और महिलाएँ पूजा की थाली सजाती हैं। थाली में राखी के साथ रोली या हल्दी, चावल, दीपक, मिठाई और कुछ पैसे भी होते हैं। लड़के और पुरुष तैयार होकर टीका करवाने के लिये पूजा या किसी उपयुक्त स्थान पर बैठते हैं। पहले अभीष्ट देवता की पूजा की जाती है, इसके बाद रोली या हल्दी से भाई का टीका करके चावल को टीके पर लगाया जाता है और सिर पर छिड़का जाता है, उसकी आरती उतारी जाती है, दाहिनी कलाई पर राखी बाँधी जाती है और पैसों से न्यौछावर करके उन्हें गरीबों में बाँट दिया जाता है। भारत के अनेक प्रान्तों में भाई के कान के ऊपर भोजली या भुजरियाँ लगाने की प्रथा भी है। भाई बहन को उपहार या धन देता है। इस प्रकार रक्षाबन्धन के अनुष्ठान को पूरा करने के बाद ही भोजन किया जाता है। प्रत्येक पर्व की तरह उपहारों और खाने-पीने के विशेष पकवानों का महत्त्व रक्षाबन्धन में भी होता है। आमतौर पर दोपहर का भोजन महत्त्वपूर्ण होता है और रक्षाबन्धन का अनुष्ठान पूरा होने तक बहनों द्वारा व्रत रखने की भी परम्परा है। पुरोहित तथा आचार्य सुबह-सुबह यजमानों के घर पहुँचकर उन्हें राखी बाँधते हैं और बदले में धन, वस्त्र और भोजन आदि प्राप्त करते हैं। यह पर्व भारतीय समाज में इतनी व्यापकता और गहराई से समाया हुआ है कि इसका सामाजिक महत्त्व तो है ही, धर्म, पुराण, इतिहास, साहित्य और फ़िल्में भी इससे अछूते नहीं हैं।
नेपाल के पहाड़ी इलाकों में ब्राह्मण एवं क्षेत्रीय समुदाय में रक्षा बन्धन गुरू और भागिनेय के हाथ से बाँधा जाता है। लेकिन दक्षिण सीमा में रहने वाले भारतीय मूल के नेपाली भारतीयों की तरह बहन से राखी बँधवाते हैं।
इस दिन बहनें अपने भाई के दायें हाथ पर राखी बाँधकर उसके माथे पर तिलक करती हैं और उसकी दीर्घ आयु की कामना करती हैं। बदले में भाई उनकी रक्षा का वचन देता है। ऐसा माना जाता है कि राखी के रंगबिरंगे धागे भाई-बहन के प्यार के बन्धन को मज़बूत करते है। भाई बहन एक दूसरे को मिठाई खिलाते हैं और सुख-दुख में साथ रहने का विश्वास दिलाते हैं। यह एक ऐसा पावन पर्व है जो भाई-बहन के पवित्र रिश्ते को पूरा आदर और सम्मान देता है।
सगे भाई बहन के अतिरिक्त अनेक भावनात्मक रिश्ते भी इस पर्व से बँधे होते हैं जो धर्म, जाति और देश की सीमाओं से परे हैं। रक्षाबन्धन का पर्व भारत के राष्ट्रपति और प्रधानमन्त्री के निवास पर भी मनाया जाता है। जहाँ छोटे छोटे बच्चे जाकर उन्हें राखी बाँधते हैं।
रक्षाबन्धन आत्मीयता और स्नेह के बन्धन से रिश्तों को मज़बूती प्रदान करने का पर्व है। यही कारण है कि इस अवसर पर न केवल बहन भाई को ही अपितु अन्य सम्बन्धों में भी रक्षा (या राखी) बाँधने का प्रचलन है। गुरु शिष्य को रक्षासूत्र बाँधता है तो शिष्य गुरु को। भारत में प्राचीन काल में जब स्नातक अपनी शिक्षा पूर्ण करने के पश्चात गुरुकुल से विदा लेता था तो वह आचार्य का आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए उसे रक्षासूत्र बाँधता था जबकि आचार्य अपने विद्यार्थी को इस कामना के साथ रक्षासूत्र बाँधता था कि उसने जो ज्ञान प्राप्त किया है वह अपने भावी जीवन में उसका समुचित ढंग से प्रयोग करे ताकि वह अपने ज्ञान के साथ-साथ आचार्य
की गरिमा की रक्षा करने में भी सफल हो। इसी परम्परा के अनुरूप आज भी किसी धार्मिक विधि विधान से पूर्व पुरोहित यजमान को रक्षासूत्र बाँधता है और यजमान पुरोहित को। इस प्रकार दोनों एक दूसरे के सम्मान की रक्षा करने के लिये परस्पर एक दूसरे को अपने बन्धन में बाँधते हैं।
रक्षाबन्धन पर्व सामाजिक और पारिवारिक एकबद्धता या एकसूत्रता का सांस्कृतिक उपाय रहा है। विवाह के बाद बहन पराये घर में चली जाती है। इस बहाने प्रतिवर्ष अपने सगे ही नहीं अपितु दूरदराज के रिश्तों के भाइयों तक को उनके घर जाकर राखी बाँधती है और इस प्रकार अपने रिश्तों का नवीनीकरण करती रहती है। दो परिवारों का और कुलों का पारस्परिक योग (मिलन) होता है। समाज के विभिन्न वर्गों के बीच भी एकसूत्रता के रूप में इस पर्व का उपयोग किया जाता है। इस प्रकार जो कड़ी टूट गयी है उसे फिर से जागृत किया जा सकता है।
रक्षाबन्धन के अवसर पर कुछ विशेष पकवान भी बनाये जाते हैं जैसे घेवर, शकरपारे, नमकपारे और घुघनी। घेवर सावन का विशेष मिष्ठान्न है यह केवल हलवाई ही बनाते हैं जबकि शकरपारे और नमकपारे आमतौर पर घर में ही बनाये जाते हैं। घुघनी बनाने के लिये काले चने को उबालकर चटपटा छौंका जाता है। इसको पूरी और दही के साथ खाते हैं। हलवा और खीर भी इस पर्व के लोकप्रिय पकवान हैं।
भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम में रक्षा बन्धन पर्व की भूमिका
राखी कौन किसे बाँध सकता है? बहन भाई के या पत्नी पति को*
हमें सबसे प्राचीन दो कथाएं मिलती है। पहली भविष्य पुराण में इंद्र और शची की कथा और दूसरी श्रीमद्भागवत पुराण में वामन और बाली की कथा। अब दोनों ही कथा का समय काल निर्धारित करना कठिन है। राजा बली भी इंद्र के ही काल में हुए थे। उन्होंने भी देवासुर संग्राम में भाग लिया था। यह ढूंढना थोड़ा मुश्किल है कि कौनसी घटना पहले घटी। फिर भी जानकार कहते हैं कि पहले समुद्र मंथन हुआ फिर वामन अवतार।
१.भविष्य पुराण में कहीं पर लिखा है कि देव और असुरों में जब युद्ध शुरू हुआ, तब असुर या दैत्य देवों पर भारी पड़ने लगे। ऐसे में देवताओं को हारता देख देवेंद्र इन्द्र घबराकर ऋषि बृहस्पति के पास गए। तब बृहस्पति के सुझाव पर इन्द्र की पत्नी इंद्राणी (शची) ने रेशम का एक धागा मंत्रों की शक्ति से पवित्र करके अपने पति के हाथ पर बांध दिया। संयोग से वह श्रावण पूर्णिमा का दिन था। जिसके फलस्वरूप इंद्र विजयी हुए। कहते हैं कि तब से ही पत्नियां अपने पति की कलाई पर युद्ध में उनकी जीत के लिए राखी बांधने लगी।
२.दूसरी कथा हमें स्कंद पुराण, पद्मपुराण और श्रीमद्भागवत पुराण में मिलती है। कथा के अनुसार असुरराज दानवीर राजा बली ने देवताओं से युद्ध करके स्वर्ग पर अधिकार कर लिया था और ऐसे में उसका अहंकार चरम पर था। इसी अहंकार को चूर-चूर करने के लिए भगवान विष्णु ने अदिति के गर्भ से वामन अवतार लिया और ब्राह्मण के वेश में राजा बली के द्वार भिक्षा मांगने पहुंच गए।
चूंकि राज बली महान दानवीर थे तो उन्होंने वचन दे दिया कि आप जो भी मांगोगे मैं वह दूंगा। भगवान ने बलि से भिक्षा में तीन पग भूमि की मांग ली। बली ने तत्काल हां कर दी, क्योंकि तीन पग ही भूमि तो देना थी। लेकिन तब भगवान वामन ने अपना विशालरूप प्रकट किया और दो पग में सारा आकाश, पाताल और धरती नाप लिया। फिर पूछा कि राजन अब बताइये कि तीसरा पग कहां रखूं? तब विष्णुभक्त राजा बली ने कहा, भगवान आप मेरे सिर पर रख लीजिए और फिर भगवान ने राजा बली को रसातल का राजा बनाकर अजर-अमर होने का वरदान दे दिया। लेकिन बली ने इस वरदान के साथ ही अपनी भक्ति के बल पर भगवान से रात-दिन अपने सामने रहने का वचन भी ले लिया।
भगवान को वामनावतार के बाद पुन: लक्ष्मी के पास जाना था लेकिन भगवान ये वचन देकर फंस गए और वे वहीं रसातल में बली की सेवा में रहने लगे। उधर, इस बात से माता लक्ष्मी चिंतित हो गई। ऐसे में नारदजी ने लक्ष्मीजी को एक उपाय बताया। तब लक्ष्मीजी ने राजा बली को राखी बांध अपना भाई बनाया और अपने पति को अपने साथ ले आईं। उस दिन श्रावण मास की पूर्णिमा तिथि थी। तभी से यह रक्षा बंधन का त्योहार प्रचलन में हैं।
आज भी रक्षा बंधन में राखी बांधते वक्त या किसी मंगल कार्य में मौली बांधते वक्त यह श्लोक बोला जाता है:-
येन बद्धो बली राजा दानवेन्द्रो महाबल:।*
तेन त्वामनुबध्नामि रक्षे माचल-माचल:।।*
अर्थात् जिस रक्षा सूत्र से महान शक्तिशाली दानवेन्द्र राजा बली को बांधा गया था, उसी रक्षा सूत्र से मैं तुम्हें बांधता-बंधती हूं, जो तुम्हारी रक्षा करेगा। हे रक्षे! (रक्षासूत्र) तुम चलायमान न हो, चलायमान न हो या आप अपने वचन से कभी विचलित न होना।
सदैव प्रसन्न रहिए ई*
जो प्राप्त है, पर्याप्त है ई ई*
भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम में जन जागरण के लिये भी इस पर्व का सहारा लिया गया। श्री रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने बंग-भंग का विरोध करते समय रक्षाबन्धन त्यौहार को बंगाल निवासियों के पारस्परिक भाईचारे तथा एकता का प्रतीक बनाकर इस त्यौहार का राजनीतिक उपयोग आरम्भ किया। १९०५ में उनकी प्रसिद्ध कविता "मातृभूमि वन्दना" का प्रकाशन हुआ जिसमें वे लिखते हैं-
"हे प्रभु! मेरे बंगदेश की धरती, नदियाँ, वायु, फूल - सब पावन हों;
है प्रभु! मेरे बंगदेश के, प्रत्येक भाई बहन के उर अन्तःस्थल, अविछन्न, अविभक्त एवं एक हों।"
(बांग्ला से हिन्दी अनुवाद)
सन् १९०५ में लॉर्ड कर्ज़न ने बंग भंग करके वन्दे मातरम् के आन्दोलन से भड़की एक छोटी सी चिंगारी को शोलों में बदल दिया। १६ अक्टूबर १९०५ को बंग भंग की नियत घोषणा के दिन रक्षा बन्धन की योजना साकार हुई और लोगबाग गंगा स्नान करके सड़कों पर यह कहते हुए उतर आये-
सप्त कोटि लोकेर करुण क्रन्दन, सुनेना सुनिल कर्ज़न दुर्जन;
ताइ निते प्रतिशोध मनेर मतन करिल, आमि स्वजने राखी बन्धन।
उत्तरांचल में इसे श्रावणी कहते हैं। इस दिन यजुर्वेदी द्विजों का उपकर्म होता है। उत्सर्जन, स्नान-विधि, ॠषि-तर्पणादि करके नवीन यज्ञोपवीत धारण किया जाता है। ब्राह्मणों का यह सर्वोपरि त्यौहार माना जाता है। वृत्तिवान् ब्राह्मण अपने यजमानों को यज्ञोपवीत तथा राखी देकर दक्षिणा लेते हैं।
अमरनाथ की अतिविख्यात धार्मिक यात्रा गुरु पूर्णिमा से प्रारम्भ होकर रक्षाबन्धन के दिन सम्पूर्ण होती है। कहते हैं इसी दिन यहाँ का हिमानी शिवलिंग भी अपने पूर्ण आकार को प्राप्त होता है। इस उपलक्ष्य में इस दिन अमरनाथ गुफा में प्रत्येक वर्ष मेले का आयोजन भी होता है।
महाराष्ट्र राज्य में यह त्योहार नारियल पूर्णिमा या श्रावणी के नाम से विख्यात है। इस दिन लोग नदी या समुद्र के तट पर जाकर अपने जनेऊ बदलते हैं और समुद्र की पूजा करते हैं। इस अवसर पर समुद्र के स्वामी वरुण देवता को प्रसन्न करने के लिये नारियल अर्पित करने की परम्परा भी है। यही कारण है कि इस एक दिन के लिये मुंबई के समुद्र तट नारियल के फलों से भर जाते हैं।
राजस्थान में रामराखी और चूड़ाराखी या लूंबा बाँधने का रिवाज़ है। रामराखी सामान्य राखी से भिन्न होती है। इसमें लाल डोरे पर एक पीले छींटों वाला फुँदना लगा होता है। यह केवल भगवान को ही बाँधी जाती है। चूड़ा राखी भाभियों की चूड़ियों में बाँधी जाती है। जोधपुर में राखी के दिन केवल राखी ही नहीं बाँधी जाती, बल्कि दोपहर में पद्मसर और मिनकानाडी पर गोबर, मिट्टी और भस्मी से स्नान कर शरीर को शुद्ध किया जाता है। इसके बाद धर्म तथा वेदों के प्रवचनकर्त्ता अरुंधती, गणपति, दुर्गा, गोभिला तथा सप्तर्षियों के दर्भ के चट (पूजास्थल) बनाकर उनकी मन्त्रोच्चारण के साथ पूजा की जाती हैं। उनका तर्पण कर पितृॠण चुकाया जाता है। धार्मिक अनुष्ठान करने के बाद घर आकर हवन किया जाता है, वहीं रेशमी डोरे से राखी बनायी जाती है। राखी को कच्चे दूध से अभिमन्त्रित करते हैं और इसके बाद ही भोजन करने का प्रावधान है।
तमिलनाडु, केरल, महाराष्ट्र और उड़ीसा के दक्षिण भारतीय ब्राह्मण इस पर्व को अवनि अवित्तम कहते हैं। यज्ञोपवीतधारी ब्राह्मणों के लिये यह दिन अत्यन्त महत्वपूर्ण है। इस दिन नदी या समुद्र के तट पर स्नान करने के बाद ऋषियों का तर्पण कर नया यज्ञोपवीत धारण किया जाता है। गये वर्ष के पुराने पापों को पुराने यज्ञोपवीत की भाँति त्याग देने और स्वच्छ नवीन यज्ञोपवीत की भाँति नया जीवन प्रारम्भ करने की प्रतिज्ञा ली जाती है। इस दिन यजुर्वेदीय ब्राह्मण ६ महीनों के लिये वेद का अध्ययन प्रारम्भ करते हैं।
इस पर्व का एक नाम उपक्रमण भी है जिसका अर्थ है- नयी शुरुआत।
व्रज में हरियाली तीज (श्रावण शुक्ल तृतीया) से श्रावणी पूर्णिमा तक समस्त मन्दिरों एवं घरों में ठाकुर झूले में विराजमान होते हैं। रक्षाबन्धन वाले दिन झूलन-दर्शन समाप्त होते हैं।
उत्तर प्रदेश: श्रावण मास की पूर्णिमा के दिन रक्षा बंधन का पर्व मनाया जाता है। रक्षा बंधन के अवसर पर बहिन अपना सम्पूर्ण प्यार रक्षा (राखी ) के रूप में अपने भाई की कलाई पर बांध कर उड़ेल देती है। भाई इस अवसर पर कुछ उपहार देकर भविष्य में संकट के समय सहायता देने का बचन देता है।
राखी का त्योहार कब शुरू हुआ यह कोई नहीं जानता। लेकिन भविष्य पुराण में वर्णन मिलता है कि देव और दानवों में जब युद्ध शुरू हुआ तब दानव हावी होते नज़र आने लगे। भगवान इन्द्र घबरा कर बृहस्पति के पास गये। वहां बैठी इन्द्र की पत्नी इंद्राणी सब सुन रही थी। उन्होंने रेशम का धागा मन्त्रों की शक्ति से पवित्र करके अपने पति के हाथ पर बाँध दिया। संयोग से वह श्रावण पूर्णिमा का दिन था। लोगों का विश्वास है कि इन्द्र इस लड़ाई में इसी धागे की मन्त्र शक्ति से ही विजयी हुए थे। उसी दिन से श्रावण पूर्णिमा के दिन यह धागा बाँधने की प्रथा चली आ रही है। यह धागा धन, शक्ति, हर्ष और विजय देने में पूरी तरह समर्थ माना जाता है।
इतिहास मे कृष्ण और द्रौपदी की कहानी प्रसिद्ध है, जिसमे युद्ध के दौरान श्री कृष्ण की उंगली घायल हो गई थी, श्री कृष्ण की घायल उंगली को द्रौपदी ने अपनी साड़ी मे से एक टुकड़ा बाँध दिया था, और इस उपकार के बदले श्री कृष्ण ने द्रौपदी को किसी भी संकट मे द्रौपदी की सहायता करने का वचन दिया था। स्कन्ध पुराण, पद्मपुराण और श्रीमद्भागवत में वामनावतार नामक कथा में रक्षाबन्धन का प्रसंग मिलता है।
कथा कुछ इस प्रकार है, दानवेन्द्र राजा बलि ने जब १०० यज्ञ पूर्ण कर स्वर्ग का राज्य छीनने का प्रयत्न किया तो इन्द्र आदि देवताओं ने भगवान विष्णु से प्रार्थना की। तब भगवान वामन अवतार लेकर ब्राह्मण का वेष धारण कर राजा बलि से भिक्षा माँगने पहुँचे। गुरु के मना करने पर भी बलि ने तीन पग भूमि दान कर दी। भगवान ने तीन पग में सारा आकाश पाताल और धरती नापकर राजा बलि को रसातल में भेज दिया। इस प्रकार भगवान विष्णु द्वारा बलि राजा के अभिमान को चकनाचूर कर देने के कारण यह त्योहार बलेव नाम से भी प्रसिद्ध है। कहते हैं एक बार बलि रसातल में चला गया तब बलि ने अपनी भक्ति के बल से भगवान को रात-दिन अपने सामने रहने का वचन ले लिया। भगवान के घर न लौटने से परेशान लक्ष्मी जी को नारद जी ने एक उपाय बताया। उस उपाय का पालन करते हुए लक्ष्मी जी ने राजा बलि के पास जाकर उसे रक्षाबन्धन बांधकर अपना भाई बनाया और अपने पति भगवान विष्णु को अपने साथ ले आयीं। उस दिन श्रावण मास की पूर्णिमा तिथि थी। विष्णु पुराण के एक प्रसंग में कहा गया है कि श्रावण की पूर्णिमा के दिन भगवान विष्णु ने हयग्रीव के रूप में अवतार लेकर वेदों को ब्रह्मा के लिये फिर से प्राप्त किया था। भगवान हयग्रीव को विद्या और बुद्धि का प्रतीक माना जाता है।
राजपूत जब लड़ाई पर जाते थे तब महिलाएँ उनको माथे पर कुमकुम तिलक लगाने के साथ साथ हाथ में रेशमी धागा भी बाँधती थी। इस विश्वास के साथ कि यह धागा उन्हे विजयश्री के साथ वापस ले आयेगा। राखी के साथ एक और प्रसिद्ध कहानी जुड़ी हुई है। कहते हैं, मेवाड़ की रानी कर्मावती को बहादुरशाह द्वारा मेवाड़ पर हमला करने की पूर्व सूचना मिली। रानी लड़ऩे में असमर्थ थी अत: उसने मुगल बादशाह हुमायूँ को राखी भेज कर रक्षा की याचना की। हुमायूँ ने मुसलमान होते हुए भी राखी की लाज रखी और मेवाड़ पहुँच कर बहादुरशाह के विरूद्ध मेवाड़ की ओर से लड़ते हुए कर्मावती व उसके राज्य की रक्षा की। एक अन्य प्रसंगानुसार सिकन्दर की पत्नी ने अपने पति के हिन्दू शत्रु पुरूवास को राखी बाँधकर अपना मुँहबोला भाई बनाया और युद्ध के समय सिकन्दर को न मारने का वचन लिया। पुरूवास ने युद्ध के दौरान हाथ में बँधी राखी और अपनी बहन को दिये हुए वचन का सम्मान करते हुए सिकन्दर को जीवन-दान दिया।
महाभारत में भी इस बात का उल्लेख है कि जब ज्येष्ठ पाण्डव युधिष्ठिर ने भगवान कृष्ण से पूछा कि मैं सभी संकटों को कैसे पार कर सकता हूँ तब भगवान कृष्ण ने उनकी तथा उनकी सेना की रक्षा के लिये राखी का त्योहार मनाने की सलाह दी थी। उनका कहना था कि राखी के इस रेशमी धागे में वह शक्ति है जिससे आप हर आपत्ति से मुक्ति पा सकते हैं। इस समय द्रौपदी द्वारा कृष्ण को तथा कुन्ती द्वारा अभिमन्यु को राखी बाँधने के कई उल्लेख मिलते हैं। महाभारत में ही रक्षाबन्धन से सम्बन्धित कृष्ण और द्रौपदी का एक और वृत्तान्त भी मिलता है। जब कृष्ण ने सुदर्शन चक्र से शिशुपाल का वध किया तब उनकी तर्जनी में चोट आ गई। द्रौपदी ने उस समय अपनी साड़ी फाड़कर उनकी उँगली पर पट्टी बाँध दी। यह श्रावण मास की पूर्णिमा का दिन था। कृष्ण ने इस उपकार का बदला बाद में चीरहरण के समय उनकी साड़ी को बढ़ाकर चुकाया। कहते हैं परस्पर एक दूसरे की रक्षा और सहयोग की भावना रक्षाबन्धन के पर्व में यहीं से प्रारम्भ हुई।
अनेक साहित्यिक ग्रन्थ ऐसे हैं जिनमें रक्षाबन्धन के पर्व का विस्तृत वर्णन मिलता है। इनमें सबसे अधिक महत्वपूर्ण है हरिकृष्ण प्रेमी का ऐतिहासिक नाटक रक्षाबन्धन जिसका १९९१ में १८वाँ संस्करण प्रकाशित हो चुका है। मराठी में शिन्दे साम्राज्य के विषय में लिखते हुए रामराव सुभानराव बर्गे ने भी एक नाटक की रचना की जिसका शीर्षक है राखी ऊर्फ रक्षाबन्धन। पचास और साठ के दशक में रक्षाबन्धन हिंदी फ़िल्मों का लोकप्रिय विषय बना रहा। ना सिर्फ़ 'राखी' नाम से बल्कि 'रक्षाबन्धन' नाम से भी कई फ़िल्में बनायीं गयीं। 'राखी' नाम से दो बार फ़िल्म बनी, एक बार सन १९४९ में, दूसरी बार सन १९६२ में, सन ६२ में आई फ़िल्म को ए. भीमसिंह ने बनाया था, कलाकार थे अशोक कुमार, वहीदा रहमान, प्रदीप कुमार और अमिता। इस फ़िल्म में राजेंद्र कृष्ण ने शीर्षक गीत लिखा था- "राखी धागों का त्यौहार"। सन १९७२ में एस.एम.सागर ने फ़िल्म बनायी थी 'राखी और हथकड़ी' इसमें आर.डी.बर्मन का संगीत था। सन १९७६ में राधाकान्त शर्मा ने फ़िल्म बनाई 'राखी और राइफल'। दारा सिंह के अभिनय वाली यह एक मसाला फ़िल्म थी। इसी तरह से सन १९७६ में ही शान्तिलाल सोनी ने सचिन और सारिका को लेकर एक फ़िल्म 'रक्षाबन्धन' नाम की भी बनायी थी।
भारत सरकार के डाक-तार विभाग द्वारा इस अवसर पर दस रुपए वाले आकर्षक लिफाफों की बिक्री की जाती हैं। लिफाफे की कीमत ५ रुपए और ५ रुपए डाक का शुल्क। इसमें राखी के त्योहार पर बहनें, भाई को मात्र पाँच रुपये में एक साथ तीन-चार राखियाँ तक भेज सकती हैं। डाक विभाग की ओर से बहनों को दिये इस तोहफे के तहत ५0 ग्राम वजन तक राखी का लिफाफा मात्र पाँच रुपये में भेजा जा सकता है जबकि सामान्य २० ग्राम के लिफाफे में एक ही राखी भेजी जा सकती है। यह सुविधा रक्षाबन्धन तक ही उपलब्ध रहती है। रक्षाबन्धन के अवसर पर बरसात के मौसम का ध्यान रखते हुए डाक-तार विभाग ने २०07 से बारिश से ख़राब न होने वाले वाटरप्रूफ लिफाफे भी उपलब्ध कराये हैं। ये लिफाफे अन्य लिफाफों से भिन्न हैं। इसका आकार और डिजाइन भी अलग है जिसके कारण राखी इसमें ज्यादा सुरक्षित रहती है। डाक-तार विभाग पर रक्षाबन्धन के अवसर पर २० प्रतिशत अधिक काम का बोझ पड़ता है। अतः राखी को सुरक्षित और तेजी से पहुँचाने के लिए विशेष उपाय किये जाते हैं और काम के हिसाब से इसमें सेवानिवृत्त डाककर्मियों की सेवाएँ भी ली जाती है। कुछ बड़े शहरों के बड़े डाकघरों में राखी के लिये अलग से बाक्स भी लगाये जाते हैं। इसके साथ ही चुनिन्दा डाकघरों में सम्पर्क करने वाले लोगों को राखी बेचने की भी इजाजत दी जाती है, ताकि लोग वहीं से राखी खरीद कर निर्धारित स्थान को भेज सकें।
राखी और आधुनिक तकनीकी माध्यम
आज के आधुनिक तकनीकी युग एवं सूचना सम्प्रेषण युग का प्रभाव राखी जैसे त्योहार पर भी पड़ा है। बहुत सारे भारतीय आजकल विदेश में रहते हैं एवं उनके परिवार वाले (भाई एवं बहन) अभी भी भारत या अन्य देशों में हैं। इण्टरनेट के आने के बाद कई सारी ई-कॉमर्स साइट खुल गयी हैं जो ऑनलाइन आर्डर लेकर राखी दिये गये पते पर पहुँचाती है। इसके अतिरिक्त भारत में २००७ राखी के अवसर पर इस पर्व से सम्बन्धित एक एनीमेटेड सीडी भी आ गयी है जिसमें एक बहन द्वारा भाई को टीका करने व राखी बाँधने का चलचित्र है। यह सीडी राखी के अवसर पर अनेक बहनें दूर देश में रहने वाले अपने भाइयों को भेज सकती हैं।
ख. गोबर गाय के मल को कहते हैं। शरीर, मन और घर की शुद्धि के लिए भारतीय संस्कृति में इसका बहुत महत्व है।
ग. मिट्टी पंच तत्वों में से एक होने के कारण शरीर की शुद्धि के लिए महत्वपूर्ण मानी गई है।
घ. यज्ञ की भस्म का शरीर की शुद्धि के लिए प्रयोग किया जाता है।
ङ. रक्षिष्ये सर्वतोहं त्वां सानुगं सपरिच्छिदम्।
सदा सन्निहितं वीरं तत्र माँ दृक्ष्यते भवान्॥-श्रीमद्भागवत ८ स्कन्ध २३ अध्याय ३३ श्लोक
जैन मतानुसार रक्षाबंधन
इस दिन बिष्णुकुमार नामक मुनिराज ने ७०० जैन मुनियों की रक्षा की थी।जैन मतानुसार इसी कारण रक्षाबंधन पर्व हम सब मनाने लगे व हमें इस दिन देश व धर्म की रक्षा का संकल्प लेना चाहिए।
सामाजिक पारिवारिक एकबद्धता का उपक्रम है रक्षाबंधन
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भारत में त्यौहार |
दिलीप वेंगसरकर भारत के भूतपूर्व क्रिकेट खिलाड़ी हैं। इन्होंने टेस्ट क्रिकेट और एक दिवसीय क्रिकेट दोनों में एक समान प्रसिद्धी हासिल की। कुछ वर्षों के लिये इन्होंने भारतीय क्रिकेट दल के कप्तान की भूमिका भी निभाई।
भारतीय क्रिकेट खिलाड़ी
१९५६ में जन्मे लोग
महाराष्ट्र के लोग
भारतीय क्रिकेट कप्तान
भारतीय टेस्ट क्रिकेट खिलाड़ी
भारतीय एक दिवसीय अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट खिलाड़ी
दाहिने हाथ के बल्लेबाज़
अर्जुन पुरस्कार के प्राप्तकर्ता |
दमन और दीव मुंबई के समीप अरब सागर में स्थित द्वीप समूह हैं जो भारत का एक केन्द्र शासित प्रान्त है। यहाँ की राजधानी दमन है।
केंद्र शासित प्रदेश दमन गुजरात राज्य के वलसाड जिला के नजदीक स्थित है। पहले यह पुर्तगालियों के कब्जे में था। स्वतंत्रता के बहुत बाद तक यह पुर्तगालियों के कब्जे में रहा। १९६१ ई. जब गोवा को पुर्तगालियों के कब्जे से मुक्त कर भारत में मिलाया गया, उसी समय दमन को भी भारत में शामिल कर लिया गया। उस समय इसे गोवा में मिला दिया गया था। १९८७ ई. में इसे अलग से केंद्र शासित प्रदेश का दर्जा दिया गया।
दमनगंगा नदी ७२ वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल वाले इस केंद्र शासित प्रदेश को दो भागों, नानी दमन (छोटा दमन) तथा मोटी दमन (बड़ा दमन) में बांटती है। होटल तथा रेस्टोरेंट नानी दमन में स्थित है जबकि प्रशासनिक भवन तथा चर्च बड़े दमन अर्थात मोती दमन में स्थित है। मोटी दमन में दमनगंगा टूरिस्ट काम्पलेक्स भी है। इस काम्पलेक्स में कैफे, कॉटेज तथा झरने भी हैं।
मोटी दमन में अनेक चर्च स्थित है। यहां का सबसे प्रसिद्ध चर्च कैथेडरल बोल जेसू है। इसका निर्माण १६०३ ई. में हुआ था। इस कैथेडरल में लकड़ी की बहुत सुंदर कारीगरी की गई है। इस चर्च की दीवारों पर की गई चित्रकारी भी काफी आकर्षक है। इन चित्रों में ईसा मसीह को चित्रित किया गया है। इसी के पास सत्य सागर उद्यान भी है। इस उद्यान में शाम के समय घूमने का एक अलग ही मजा है। इस उद्यान में रेस्टोरेंट तथा बार की व्यवस्था भी है।
संत जेरोम किला नानी दमन में १६१४ ई. से १६२७ ई. के बीच बना था। इस किले का निर्माण मुगल आक्रमणों से सुरक्षा के लिए किया गया था। इस किले में तीन बुर्ज हैं। इस किले सामने नदी बहती है। इस किले में इसके संरक्षक संत की मूर्त्ति स्थापित है। इस समय इस किले में एक कब्रिस्तान तथा एक स्कूल है।
यह बीच दमन से ५ किलोमीटर उत्तर में स्थित है। इस बीच के पास पर्यटकों की सुविधा के लिए रेस्टोरेंट, बार तथा होटल की व्यवस्था है। इस बीच में स्नान नहीं करना चाहिए क्योंकि इस बीच में पानी के अंदर पत्थर है। यहां पर दो पुर्तगाली चर्च भी हैं।
यह बीच नानी दमन के दक्षिण में स्थित है। यह एक प्रसिद्ध पिकनिक स्पॉट है। यहां से समुद्र का नजारा बहुत सुंदर दिखता है।
यहां के सभी होटलों में आमतौर पर रेस्टोरेंट हैं। किदादे दमन होटल में रेस्टोरेंट भी है। इस रेस्टोरेंट में केकड़ा तथा झींगा मछली का लजीज व्यंजन परोसा जाता है। यहां के शेफ का कहना है कि आप जिस तरह का भोजन मांगें आपको यहां मिल जाएगा। सैंडी रिजॉर्ट में भी खाने पीने की अच्छी व्यवस्था है। होटल मिरामर्स सी फूड तथा दक्षिण भारतीय भोजन के लिए प्रसिद्ध है। जजीरा उदय रेस्टोरेंट भी सी फूड के लिए प्रसिद्ध है।
केंद्र शासित प्रदेश दीव गुजरात राज्य के जूनागढ़ जिला के नजदीक स्थित है।
भारत की लोकसभा में दमन एवं दीव के लिए एक सीट आबंटित है। वर्तमान सोलहवीं लोकसभा में यहाँ का प्रतिनिधित्व श्री लालूभाई पटेल कर रहे हैं जो कि भारतीय जनता पार्टी से संबद्ध हैं।
भारत के केन्द्र शासित प्रदेश
दमन और दीव
लोक सभा निर्वाचन क्षेत्र |
कवरत्ती भारत के केन्द्र शासित प्रदेश लक्षद्वीप की राजधानी है।
यह लक्षद्वीप द्वीप-समूह का भाग है। यह जिस द्वीप पर स्थित है उसका नाम भी कवरत्ती है।
यह केरल के शहर कोचीन के पश्चिमी तट से ३९८ किमी दूर १०-३३ उत्तर ७२-३८ पूर्व पर स्थित है। इसका औसत उन्नयन ० मी है। कवरत्ती का कुल क्षेत्रफल ४.२२ वर्ग किमी है।
भारत की २००१ की जनगणना के अनुसार कवरत्ती की कुल जनसंख्या १०११३ है, जिसमे पुरुष ५५% और महिलाओं का प्रतिशत ४५ है। कवरत्ती की साक्षरता दर ७८% है जो राष्ट्रीय औसत ५९.५% से अधिक है। पुरुष साक्षरता ८३% और महिला साक्षरता ७२% है। कवरत्ती की १२% जनसंख्या ६ वर्ष से कम आयु के बच्चों की है।
अधिकतर लोग मलयालम बोलते हैं।
कवरत्ती द्वीप का अनूप क्षेत्र पानी के खेल, तैराकी के लिए आदर्श स्थल है और वहाँ का रेतीला सागर तट धूप सेंकने के लिए आदर्श हैं। पर्यटक समुद्री जीवन से संबंधित विशाल संग्रह का आनन्द यहां के समुद्री संग्रहालय में सकते हैं। काँच के तले वाली नौकाओं से अनूप के जलीय जीवन का जीवंत और रमणीक दृश्यावलोकन भी बहुत लोकप्रिय हैं। कयाक और पाल नौकायें नौकायन के लिए किराए पर उपलब्ध हैं।
भारत का पहला कम तापमान अलवणीकरण संयंत्र (लैंड) कवरती में मई २००५ में खोला गया था। इस अलवणीकरण संयंत्र को पांच करोड़ रुपये की लागत से स्थापित किया गया है और इससे समुद्र के पानी से हर रोज १००,००० लीटर पीने योग्य पानी के उत्पादन की आशा है।
लक्षद्वीप के द्वीप
लक्षद्वीप के नगर
लक्षद्वीप ज़िले के नगर |
दीमापुर (दीमापूर) भारत के नागालैण्ड राज्य के दीमापुर ज़िले में स्थित एक शहर है। यह ज़िले का मुख्यालय और राज्य का सर्वाधिक आबादी वाला शहर है। यह असम की राज्य सीमा के पास, धनसीरी नदी के किनारे बसा हुआ है। राष्ट्रीय राजमार्ग २९, राष्ट्रीय राजमार्ग १२९ और राष्ट्रीय राजमार्ग १२९ए यहाँ से गुज़रते हैं।
मध्यकाल में यह नगर दिमासा कछारी शासकों की राजधानी थी। यह भारत का ११५वाँ सबसे बड़ा नगर है। इसका निर्देशांक २५५४४५ उत्तर ९३४४३० पूर्व है। इस नगर के दक्षिण और पूर्व में कोहिमा जिला है, पश्चिम में असम का कार्बी आंगलोंग ज़िला (करबी एंगलोंग) है और उत्तर तथा पश्चिम दिशा में असम का गोलाघाट जिला है। 'दिमापुर' की उत्पत्ति 'दिमस' नामक एक कछारी शब्द से हुई है जो एक नदी का नाम है। दिमापुर, नागालैण्ड का प्रवेशद्वार है और यहाँ का एकमात्र रेलवे स्टेशन तथा एकमात्र कार्यशील हवाई अड्डा है।
कछारी राज्य के खंडहर : हालांकि कुछ इतिहासकार मानते हैं कि यह कछारी राज्य के अवशेष हैं। मशरूम के आकार के ये खंभे कछारी खंडहर के हिस्से हैं। दीमापुर कछारी राज्य की प्राचीन राजधानी थी। यह महापाषाण युग के महत्वपूर्ण स्थलों में से एक है। हिन्दू राज्य कछारी पर १३वीं सदी में अहोम राजाओं ने आक्रमण किया जिसके चलते यह राज्य तहस-नहस हो गया था। यह खंडहर उसी आक्रमण का सबूत है। सबसे प्रसिद्ध कछारी खंडहर के बीच केवल पत्थर का खंभा खड़ा है। इस खंभे के अलावा, इस जगह पर मंदिरों, टंकियों और तटबंधों के कई खंडहर हैं। विभिन्न डिजाइनों के बिखरे हुए पत्थर के टुकड़े भी आसपास पाए जाते हैं।
महाभारत से सम्बन्ध
भारतीय राज्य नागालैंड के दीमापुर का इतिहास महाभारत काल से जुड़ा हुआ है। यहां हिडिंबा नाम से एक वाड़ा है, जहां राजवाड़ी में स्थित शतरंज की ऊंची-ऊंची गोटियां हैं जो चट्टानों से निर्मित है। शतरंज की इतनी विशालकाय गोटियों नो देखना पर्यटकों के लिए आश्चर्य में डालने वाला ही होता है। हालांकि इनमें से अब कुछ गोटियां टूट चुकी है। भीम की पत्नी हिडिम्बा यहां की राजकुमारी थीं: दीमापुर कभी हिडिंबापुर के नाम से जाना जाता था। इस जगह महाभारत काल में हिडिंब राक्षस और उसकी बहन हिडिंबा रहा करते थे। यही पर हिडिंबा ने कुंति-पवनपुत्र भीम से विवाह किया था। यहां रहने वाली डिमाशा जनजाति के लोग खुद को भीम की पत्नी हिडिंबा का वंशज मानते हैं। भीम और घटोत्कच खेलते थे इस शतरंज से : यहां के निवासियों कि मान्यता है कि इन गोटियों से भीम और उसका पुत्र घटोत्कच शतरंज खेलते थे। इस जगह पांडवो ने अपने वनवास का काफी समय गुजारा किया था। मान्यता अनुसार जब वनवास काल में पांडवों का महल षड़यंत्र के चलते जलकर खाक हो गया था तब वे एक गुप्त रास्ते से वहां से एक दूसरे वन में चले गए थे। इस वन में हिडिंब नामक राक्षस अपनी बहन हिडिंबा के साथ रहता था। कहते हैं कि एक दिन हिडिंब ने अपनी बहन हिडिंबा को वन में भोजन की तलाश करने के लिए भेजा और इसी दौरान राक्षसी हिडिंबा ने भीम को देख लिया। बलशाली भीम को देखकर राक्षसी हिडिंबा का मान भीम पर आ गया। उसने इस प्रेम के चलते भीम और उसके परिवार को छोड़ दिया। जब हिडिंब को यह पता चला तो उसने पाण्डवों पर हमला बोल दिया। भीम का हिडिंब से भयानक युद्ध हुआ और अंत: हिडिंब मारा गया। हिडिंब की मौत के बाद हिडिंबा और भीम का विवाह हुआ और कुछ काल तक भीम वहीं रहे। विवाह उपरान्त भीम और हिडिम्बा को घटोत्कच नामक पुत्र की प्राप्ति हुई। घटोत्कच अपनी मां के समान विशाल काया वाला निकला।
इन्हें भी देखें
नागालैण्ड के नगर
दीमापुर ज़िले के नगर |
नाम्ची (नामची) भारत के सिक्किम राज्य के दक्षिण सिक्किम ज़िले में स्थित एक शहर है। यह ज़िले का मुख्यालय भी है। राष्ट्रीय राजमार्ग ७१० यहाँ से गुज़रता है।
इन्हें भी देखें
दक्षिण सिक्किम ज़िला
सिक्किम के नगर
दक्षिण सिक्किम ज़िला
दक्षिण सिक्किम ज़िले के नगर |
देहरादून (, ), देहरादून जिले का मुख्यालय है जो भारत की राजधानी दिल्ली से २३० किलोमीटर दूर दून घाटी में बसा हुआ है। ९ नवंबर, २००० को उत्तर प्रदेश राज्य को विभाजित कर जब उत्तराखण्ड राज्य का गठन किया गया था, उस समय इसे उत्तराखण्ड (तब उत्तरांचल) की अंतरिम राजधानी बनाया गया। देहरादून नगर पर्यटन, शिक्षा, स्थापत्य, संस्कृति और प्राकृतिक सौंदर्य के लिए प्रसिद्ध है।
देहरादून का इतिहास कई सौ वर्ष पुराना है। देहरादून से ५६ किलोमीटर दूर कालसी के पास स्थित शिलालेख से इस पर तीसरी सदी ईसा पूर्व में सम्राट अशोक का अधिकार होने की सूचना मिलती है। देहरादून ने सदा से ही आक्रमणकारियों को आकर्षित किया है। खलीलुल्लाह खान के नेत्वृत्व में १६५४ में इस पर मुगल सेना ने आक्रमण किया था। सिरमोर के राजा सुभाक प्रकाश की सहायता से खान गढ़वा के राजा पृथ्वी शाह को हराने में सफल रहे। गद्दी से अपदस्त किए गए राजा को इस शर्त पर गद्दी पर आसीन किया गया कि वे नियमित रूप से मुगल बादशाह शाहजहाँ को कर चुकाएगें। इसे १७७२ में गुज्जरों ने लूटा था। तत्कालीन राजा ललत शाह जो पृथ्वी शाह के वंशज थे, की पुत्री की शादी गुलाब सिंह नामक गुज्जर से की गई थी। गुलाब सिंह के पुत्र का नियंत्रण देहरादून पर था और उनके वंशज इस समय भी नगर में मिल सकते हैं।
गढ़वाल के राजा ललत शाह के पुत्र प्रदुमन शाह के शासन काल में रोहिल्ला नजीब के पोते गुलाम कादिर के नेतृत्व में अफगानों का आक्रमण हुआ। जिसमें उसने गुरू राम राय के अनुयायियों और शिष्यों को मौत के घाट उतार दिया। जिन लोगों ने हिन्दू धर्म त्यागने का निर्णय लिया, उन्हें छोड़ दिया गया। लेकिन अन्य लोगों के साथ बहुत निमर्मतापूर्वक व्यवहार किया गया। सहारनपुर के राज्यपाल और अफगान प्रमुख नजीबुदौल्ला भी देहरादून को अपने अधिकार में करने के उद्देश्य में सफल रहा उसके बाद देहरादून पर गुज्जरों, सिक्खों, राजपूतों और गोरखाओं के लगातार आक्रमण हुए और यह उपजाऊ और सुंदर भूमि शिघ्र ही बंजर स्थल में बदल गई। १७८३ में एक सिक्ख प्रमुख बुघेल सिंह ने देहरादून पर आक्रमण किया और बिना किसी बड़े प्रतिरोध के सहजता से इस क्षेत्र को जीत लिया। १७८६ में देहरादून पर गुलाम कादिर का आक्रमण हुआ। उसने पहले हरिद्वार को लूटा और फिर देहरादून पर कहर बरपाया। उसने नगर पर आक्रमण किया और उसे जमकर लूटा तथा बाद में देहरादून को बर्बाद कर दिया। १८०१ तक अमर सिंह थापा के नेतृत्व में गोरखा राज्य ने दून घाटी पर आक्रमण किया और उस पर अधिकार कर लिया। १८१४ में नालापानी के लिए अमर सिंह थापा के पोते बलभद्र कुंवर के नेत्वृत्व में गोरखा और जनरल जिलेस्पी के नेत्वृत्व में ब्रिटिश के बीच युद्ध हुआ। गोरखाओं ने इस लड़ाई में जमकर बराबरी कि और जनरल समेत कई ब्रिटिश सेनाओं को अपने प्राणों से हाथ धोना पड़ा। इस बीच गोरखाओं को एक असामान्य स्थिति का सामना करना पड़ा और उन्हें नालापानी के किले को छोड़ कर जाना पड़ा। १८१५ तक गोरखाओं को हरा कर ब्रिटिश शासन ने इस पूरे क्षेत्र पर अपना अधिकार कर लिया।
देहरादून के दो स्मारक प्रसिद्ध हैं। (कलंगा स्मारक) का निर्माण ब्रिटिश जनरल गिलेस्पी और उसके अधिकारियों की स्मृति में कराया गया है। दूसरा स्मारक गिलेस्पी से लोहा लेनेवाले कैप्टन बलभद्र सिंह थापा और उनके गोरखा सिपाहियों की स्मृति में बनवाया गया है। कालंगा गढ़ी सहस्त्रधारा सड़क पर स्थित है। घंटा घर से इसकी दूरी ४.५ किलोमीटर है। इसी वर्ष देहरादून तहसील के वर्तमान क्षेत्र को सहारनपुर जिले से जोड़ दिया गया। इसके बाद १८२५ में इसे कुमाऊँ मण्डल को हस्तांतरित कर दिया गया। १८२८ में अलग-अलग उपायुक्त के प्रभार के अंतर्गत देहरादून और जॉनसार बवार हस्तांतरित कर दिया गया और १८२९ में देहरादून जिले को मेरठ खण्ड को हस्तांतरित कर दिया गया। १८४२ में देहरादून को सहारनपुर जिले से जोड़ दिया गया और इसे जिलाधीश के अधिनस्थ एक अधिकारी के अधिकार क्षेत्र में रखा गया। १८७१ से यह एक अलग जिला है। १९६८ में इस जिले को मेरठ खण्ड से अलग करके गढ़वा खण्ड से जोड़ दिया गया। देहरादून के इतिहास के बारे में विस्तृत जानकारी चंदर रोड पर स्थित स्टेट आर्काइव्स में है। यह संस्था दलानवाला में स्थित है।
देहरादून की स्थापना १६९९ में हुई थी। कहते हैं कि सिक्खों के गुरु रामराय किरतपुर पंजाब से आकर यहाँ बस गए थे। मुग़ल सम्राट औरंगज़ेब ने उन्हें कुछ ग्राम टिहरी नरेश से दान में दिलवा दिए थे। यहाँ उन्होंने १६९९ ई. में मुग़ल मक़बरों से मिलता-जुलता मन्दिर भी बनवाया जो आज तक प्रसिद्ध है। शायद गुरु का डेरा इस घाटी में होने के कारण ही इस स्थान का नाम देहरादून पड़ गया होगा।
इसके अतिरिक्त एक अत्यन्त प्राचीन किंवदन्ती के अनुसार देहरादून का नाम पहले द्रोणनगर था और यह कहा जाता था कि पाण्डव-कौरवों के गुरु द्रोणाचार्य ने इस स्थान पर अपनी तपोभूमि बनाई थी और उन्हीं के नाम पर इस नगर का नामकरण हुआ था। एक अन्य किंवदन्ती के अनुसार जिस द्रोणपर्त की औषधियाँ हनुमान जी लक्ष्मण के शक्ति लगने पर लंका ले गए थे, वह देहरादून में स्थित था, किन्तु वाल्मीकि रामायण में इस पर्वत को महोदय कहा गया है।
देहरादून की जलवायु समशीतोष्ण है। यहां का तापमान १६ से ३६ डिग्री सेल्सियस के बीच रहता है जहां शीत का तापमान २ से २४ डिग्री सेल्सियस के बीच रहता है। देहरादून में औसतन २०७३.३ मिलिमीटर वर्षा होती है। अधिकांश वर्षा जून और सितंबर के बीच होती है। अगस्त में सबसे अधिक वर्षा होती है।
नगर के विषय में
राजपुर मार्ग पर या डालनवाला के पुराने आवासीय क्षेत्र में पूर्वी यमुना नहर सड़क से देहरादून शुरु हो जाता है। सड़क के दोनों किनारे स्थित चौड़े बरामदे और सुन्दर ढालदार छतों वाले छोटे बंगले इस शहर की पहचान हैं। इन बंगलों के फलों से लदे हुए पेड़ों वाले बगीचे बरबस ध्यान आकर्षित करते हैं। घण्टाघर से आगे तक फैलाहुआ रंगीन पलटन बाजार यहाँ का सर्वाधिक पुराना और व्यस्त बाजार है। यह बाजार तब अस्तित्व में आया जब १८२० में ब्रिटिश सेना की टुकड़ी को आने की आवश्यकता पड़ी। आज इस बाजार में फल, सब्जियां, सभी प्रकार के कपड़े, तैयार वस्त्र (रेडीमेड गारमेंट्स) जूते और घर में प्रतिदिन काम आने वाली वस्तुयें मिलती हैं। इसके स्टोर माल, राजपुर सड़क तक है जिसके दोनों ओर विश्व के लोकप्रिय उत्पादों के शो रूम हैं। अनेक प्रसिद्ध रेस्तरां भी राजपुर सड़क पर है। कुछ छोटी आवासीय बस्तियाँ जैसे राजपुर, क्लेमेंट टाउन, प्रेमनगर और रायपुर इस शहर के पारंपरिक गौरव हैं।
देहरादून के राजपुर मार्ग पर भारत सरकार की दृष्टिबाधितों के लिए स्थापित पहली और एकमात्र राष्ट्रीय स्तर की संस्था राष्ट्रीय दृष्टिबाधित संस्थान (एन.आइ.वी.एच.) स्थित है। इसकी स्थापनी १९वीं सदी के नब्बे के दशक में विकलांगों के लिए स्थापित चार संस्थाओं की श्रंखला में हुआ जिसमें राष्ट्रीय दृष्टिबाधित संस्था के लिए देहरादून का चयन किया गया। यहाँ दृष्टिबाधित बच्चों के लिए स्कूल, कॉलेज, छात्रावास, ब्रेल पुस्तास्तलय एवं ध्वन्यांकित पुस्तकों का पुस्तकालय भी स्थापित किया गया है। इसके कर्मचारी इसके अन्दर रहते हैं इसके अतिरिक्त (तेज यादगार) शार्प मेमोरियल नामक निजी संस्था राजपुर में हैं यें दृष्टि अपंगता तथा कानों सम्बन्धि बजाज संस्थान तथा राजपुर सड़क पर दूसरी अन्य संस्थाये बहुत अच्छा कार्य कर रही है। उत्तराखण्ड सरकार का एक और नया केन्द्र है। करूणा विहार, बसन्त विहार में कुछ कार्य शुरू किये है। तथा गहनता से बच्चों के लिये कार्य कर रहें है तथा कुछ नगर के चारों ओर केन्द्र है। देहरादून राफील रेडरचेशायर अर्न्तराष्ट्रीय केन्द है। रिस्पना ब्रिज शायर गृह डालनवाला में हैं। जो मानसिक चुनौतियों के लिए कार्य करते है। मानसिक चुनौतियों के लिए काम करने के अतिरिक्त राफील रेडरचेशायर अर्न्तराष्ट्रीय केन्द्र ने टी.बी व अधरंग के इलाज के लिये भी अस्पताल बनाया। अधिकाँश संस्थायें भारत और विदेश से स्वेच्छा से आने वालो को आकर्षित तथा प्रोत्साहित करती है। आवश्यकता विहीन का कहना है कि स्वेच्छा से काम करने वाले इन संस्थाओं को ठीक प्रकार से चलाते है। तथा अयोग्य, मानसिक चुनौतियो और कम योग्य वाले लोगो को व्यक्तिगत रूप से चेतना देते है।
देहरादून अपनी पहाडीयों और ढलानो के साथ-साथ साईकिलिंग का भी एक महत्वपूर्ण स्थान है। चारों ओर पर्वतो और हरियाली से घिरा होने के कारण यहाँ साईकिलिंग करना बहुत सुखद है। लीची देहरादून का पर्यायवाची है क्योंकि यह स्वादिष्ट फल चुनिँदा जलवायु में ही उगता है। देहरादून देश के उन जगहों में से एक है जहाँ लीची उगती है। लीची के अतिरिक्त देहरादून के चारों ओर बेर, नाशपत्ती, अमरूद्ध और आम के पेड है। जो नगर की बनावट को घेरे हुये है। ये सारी चीजे घाटी के आकर्षण में वृद्धि करती है। यदि आप मई माह या जून के शुरू की गर्मियों में भ्रमण के लिये जाओ तो आप इन फलों को केवल देखोगें ही नही बल्कि खरीदोंगे भी। बासमती चावल की लोकप्रियता देहरादून या भारत में ही नही बल्कि विदेशो में भी है। एक समय अंग्रेज भी देहरादून में रहते थे और वे नगर पर अपना प्रभाव छोड गयें। उदाहरण के रूप में देहरादून की बैकरीज (बिस्कुट आदि) आज भी यहाँ प्रसिद्ध है। उस समय के अंग्रेजो ने यहाँ के स्थानीय स्टाफ को सेंकना (बनाना) सीखाया। यह निपुणता बहुत अच्छी सिद्ध हुई तथा यह निपुणता अगली संतति सन्तान में भी आयी। फिर भी देहरादून के रहने वालो के लिये यहाँ के स्थानीय रस्क, केक, होट क्रोस बन्स, पेस्टिज और कुकीज मित्रों के लिये सामान्य उपहार है, कोई भी ऐसी नही बनाता जैसे देहरादून में बनती है।
दूसरा उपहार जो पर्यटक यहाँ से ले जाते है विख्यात क्वालिटी की टॉफी जोकि क्वालिटी रेस्टोरेन्ट (गुणवत्ता वाली दुकानों) से मिलती हैं। यद्यपि आज बडी संख्या में दूसरी दुकानों (स्टोर) से भी ये टॉफी मिलती है परन्तु असली टॉफी आज भी सर्वोतम है। देहरादून में आन्नद के और बहुत से पर्याप्त विकल्प है। प्रर्याप्त मात्रा में देहरादून में दर्शनीय चीजे है जो उनके लिये प्रकृति के उपहार है विशेष रूप से देहरादून से मसूरी का मार्ग जो कि पैदल चलने वालों के लिये बहुत लोकप्रिय है। उन लोगो के लिये जो साधारण से ऊपर कुछ करना चाहते है सर्वोतम योग संस्थानों में से किसी एक से जुड़ना चाहिये अथवा सीखना चाहिये।
सड़क मार्गः देहरादून देश के विभिन्न हिस्सों से सड़क मार्ग से जुड़ा हुआ है और यहां पर किसी भी जगह से बस या टेक्सी से आसानी से पहुंचा जा सकता है। सभी तरह की बसें, (साधारण और लक्जरी) गांधी बस स्टेंड जो दिल्ली बस स्टेंड के नाम से जाना जाता है, यहां से खुलती हैं। यहां पर दो बस स्टैंड हैं। देहरादून और दिल्ली, शिमला और मसूरी के बीच डिलक्स/ सेमी डिलक्स बस सेवा उपलब्ध है। ये बसें क्लेमेंट टाउन के नजदीक स्थित अंतरराज्यीय बस टर्मिनस से चलती हैं। दिल्ली के गांधी रोड बस स्टैंड से एसी डिलक्स बसें (वोल्वो) भी चलती हैं। यह सेवा हाल में ही यूएएसआरटीसी द्वारा शुरू की गई है। आईएसबीटी, देहरादून से मसूरी के लिए हर १५ से ७० मिनट के अंतराल पर बसें चलती हैं। इस सेवा का संचालन यूएएसआरटीसी द्वारा किया जाता है। देहरादून और उसके पड़ोसी केंद्रों के बीच भी नियमित रूप से बस सेवा उपलब्ध है। इसके आसपास के गांवों से भी बसें चलती हैं। ये सभी बसें परेड ग्राउंड स्थित स्थानीय बस स्टैड से चलती हैं।
देहरादून और कुछ महत्वपूर्ण स्थानों के बीच की दूरी नीचे दी गयी है:
दिल्ली - २४० किमी
यमुनोत्री - २७९ किमी
मसूरी - ३५ किमी
नैनीताल - २९७ किमी
हरिद्वार - ५४ किमी
शिमला - २२१ किमी
ऋषिकेश - ४४ किमी
आगरा - ३८२ किमी
रुड़की - ४३ किमी
ऊखीमठ - २१९ किमी
रेलः देहरादून उत्तरी रेलवे का एक प्रमुख रेलवे स्टेशन है। यह भारत के लगभग सभी बड़े शहरों से सीधी ट्रेनों से जुड़ा हुआ है। ऐसी कुछ प्रमुख ट्रेनें हैं- हावड़ा-देहरादून एक्सप्रेस, चेन्नई- देहरादून एक्सप्रेस, दिल्ली- देहरादून एक्सप्रेस, बांद्रा- देहरादून एक्सप्रेस, इंदौर- देहरादून एक्सप्रेस आदि।
वायु मार्गः जॉली ग्रांट एयरपोर्ट देहरादून से २५ से किलोमीटर है। यह दिल्ली एयरपोर्ट से अच्छी तरह से जुड़े हुए हैं। एयर डेक्कन दोनों एयरपोर्टों के बीच प्रतिदिन वायु सेवा संचालित करती है।
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देहरादून की सम्पूर्ण जानकारी
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देहरादून ज़िले के नगर |
हमीरपुर भारत के हिमाचल प्रदेश प्रान्त का एक शहर है। हिमाचल की निचली पहाडि़यों पर स्थित हमीरपुर जिला समुद्र तल से ४०० से ११०० मीटर की ऊंचाई पर स्थित है। पाइन के पेड़ों से घिरा यह शहर हिमाचल के अन्य शहरों से सामान्यत: कम ठंडा है। कांगडा जिले से अलग करने के बाद १९७२ में हमीरपुर अस्तित्व में आया था। सर्दियों में ट्रैकिंग और कैंपिग के लिए यह शहर तेजी से विकसित हो रहा है। हिमाचल प्रदेश और पडोसी राज्यों के शहरों से यहां आसानी से पहुंचा जा सकता है। यहां के कुछ ऐतिहासिक और धार्मिक स्थल इस जिले की प्रसिद्धी के कारण हैं। हमीरपुर का देवसिद्ध मंदिर, सुजानपुर टीहरा और नादौन खासे लोकप्रिय हैं। शिमला-धर्मशाला रोड़ पर स्थित हमीरपुर टाउन यहां का जिला मुख्यालय है।
बाबा बालक नाथ का यह गुफा मंदिर पूरे साल श्रद्धालुओं से भरा रहता है। बिलासपुर की सीमा पर स्थित यह मंदिर चारों तरफ के सड़क मार्ग से आसानी से पहुंचा जा सकता है। नवरात्रों के अवसर पर बाबा का आशीर्वाद लेने के लिए यहां लोग बड़ी संख्या में पहुंचते हैं। इस मौके पर सरकार लोगों के ठहरने की उचित टेंट कालोनी
की व्यवस्था करती है और उसमें पानी, शौच आदि बहुत सी सुविधाएं उपलब्ध कराईं जाती हैं।
यह नगर उस समय चर्चा में आया जब कांगड़ा शासकों ने अपनी राजधानी कांगड़ा किला जहांगीर की सेना से हारने के बाद यहां स्थानांतरित कर दी। उसके बाद राजा संसार चंद ने कांगड़ा किले को फिर से जीत लिया और कांगड़ा घाटी का शक्तिशाली शासक के रूप में आसीन हुआ। तब से नादौन का महत्व कम हो गया। शिमला-धर्मशाला मार्ग पर स्थित यह नगर व्यास नदी के किनारे बसा है। नादौन हमीरपुर से २० और कांगड़ा से ४३ किमी की दूरी पर है। इस शांत नगर में एक शिव मंदिर और प्राचीन महल बना हुआ है। प्राचीन महल में उस काल की कुछ चित्रकारियां देखी जा सकती है। ज्वालाजी का मंदिर भी यहां से अधिक दूर नहीं है। व्यास नदी के तट पर स्थित होने के कारण यहां फिशिंग और राफ्टिंग की भी व्यवस्था है।
नादौन से मात्र १ किलोमीटर दूरी पर अमतर नामक गाँव मे क्रिकेट स्टेडियम का निर्माण किया गया है।
सुजानपुर टीहरा हमीरपुर से २२ किमी की दूरी पर है। यह स्थान एक जमाने में कटोक्ष वंश की राजधानी थी। यहां बने एक प्राचीन किले को देखने के लिए लोगों का नियमित आना जाना लगा रहता है। यहां एक विशाल मैदान है जिसमें चार दिन तक होली पर्व आयोजित किया जाता है। यहां एक सैनिक स्कूल भी स्थित है। धार्मिक केन्द्र के रूप में भी यह स्थान खासा लोकप्रिय है और यहां नरबदेश्वर, गौरी शंकर और मुरली मनोहर मंदिर बने हुए हैं। स साहसिक और रोमांचप्रिय पर्यटकों को सुजानपुर काफी पसंद आता है क्योंकि वे यहां पैराग्लाइडिंग, एंगलिंग, राफ्टिंग और ट्रैकिंग जैसी गतिविधियों का आनंद ले सकते हैं।
कांगड़ा जिले का गग्गल एयरपोर्ट यहां का निकटतम एयरपोर्ट है।
हमीरपुर का निकटतम ब्रोड गैज रेलवे स्टेश्ान ऊना है। रानीताल यहां का नजदीकी नैरो गैज रेलवे स्टेशन है जो पठानकोट-जोगिन्दर नगर रेल लाइन पर पड़ता है। हमीरपुर के लिए यहां से नियमित बसें चलती रहती हैं।
हिमाचल का लगभग पूरा क्षेत्र सड़क मार्ग से हमीरपुर से जुड़ा है। हिमाचल प्रदेश के लगभग सभी शहरों और पड़ोसी शहरों से यहां के लिए बस सेवाएं उपल्ाब्ध हैं।
हिमाचल प्रदेश के शहर
हमीरपुर, हिमाचल प्रदेश
हमीरपुर ज़िला, हिमाचल प्रदेश
हमीरपुर ज़िले, हिमाचल प्रदेश के नगर |
लता मंगेशकर (२८ सितंबर १९२९ ६ फ़रवरी २०२२) भारत की सबसे लोकप्रिय और आदरणीय गायिका थी, जिनका छः दशकों का कार्यकाल उपलब्धियों से भरा पड़ा है। हालाँकि लता ने लगभग तीस से ज्यादा भाषाओं में फ़िल्मी और गैर-फ़िल्मी गाने गाये हैं लेकिन उनकी पहचान भारतीय सिनेमा में एक पार्श्वगायिका के रूप में रही है। अपनी बहन आशा भोंसले के साथ लता जी का फ़िल्मी गायन में सबसे बड़ा योगदान रहा है।
लता जी की जादुई आवाज़ के भारतीय उपमहाद्वीप के साथ-साथ पूरी दुनिया में दीवाने हैं। टाईम पत्रिका ने उन्हें भारतीय पार्श्वगायन की अपरिहार्य और एकछत्र साम्राज्ञी स्वीकार किया है। भारत सरकार ने उन्हें 'भारतरत्न' से सम्मानित किया था।
इनकी मृत्यु कोविड से जुड़े जटिलताओं से ६ फरवरी २०२२ रविवार माघ शुक्ल पक्ष पंचमी तिथि वि स २०७८ (पंचक) को मुम्बई के ब्रीच कैंडी हॉस्पिटल में हुई। वे कुछ समय से बीमार थीं। उनकी महान गायकी और सुरमय आवाज के दीवाने पूरी दुनिया मे हैं। प्यार से सब उन्हें 'लता दीदी' कहकर पुकारते हैं। वर्ष २००१ में इन्हें भारत के सर्वोच्च सम्मान भारत रत्न से सम्मानित किया गया ।
लता का जन्म एक कर्हाडा ब्राह्मण दादा और गोमंतक मराठा दादी के परिवार में, मध्य प्रदेश के इंदौर शहर में सबसे बड़ी बेटी के रूप में पंडित दीनानाथ मंगेशकर के मध्यवर्गीय परिवार में हुआ। उनके पिता रंगमंच एलजी के कलाकार और गायक थे। इनके परिवार से भाई हृदयनाथ मंगेशकर और बहनों उषा मंगेशकर, मीना मंगेशकर और आशा भोंसले सभी ने संगीत को ही अपनी आजीविका के लिये चुना।
हालाँकि लता का जन्म इंदौर में हुआ था लेकिन उनकी परवरिश महाराष्ट्र मे हुई। वह बचपन से ही गायक बनना चाहती थीं। बचपन में कुन्दन लाल सहगल की एक फ़िल्म चंडीदास देखकर उन्होने कहा था कि वो बड़ी होकर सहगल से शादी करेगी। पहली बार लता ने वसंत जोगलेकर द्वारा निर्देशित एक फ़िल्म कीर्ती हसाल के लिये गाया। उनके पिता नहीं चाहते थे कि लता फ़िल्मों के लिये गाये इसलिये इस गाने को फ़िल्म से निकाल दिया गया। लेकिन उसकी प्रतिभा से वसंत जोगलेकर काफी प्रभावित हुये।
पिता की मृत्यु के बाद (जब लता सिर्फ़ तेरह साल की थीं), लता को पैसों की बहुत किल्लत झेलनी पड़ी और काफी संघर्ष करना पड़ा। उन्हें अभिनय बहुत पसंद नहीं था लेकिन पिता की असामयिक मृत्यु की कारण से पैसों के लिये उन्हें कुछ हिन्दी और मराठी फिल्मों में काम करना पड़ा। अभिनेत्री के रूप में उनकी पहली फिल्म पाहिली मंगलागौर (१९४२) रही, जिसमें उन्होंने स्नेहप्रभा प्रधान की छोटी बहन की भूमिका निभाई। बाद में उन्होंने कई फ़िल्मों में अभिनय किया जिनमें, माझे बाल, चिमुकला संसार (१९४३), गजभाऊ (१९४४), बड़ी माँ (१९४५), जीवन यात्रा (१९४६), माँद (१९४८), छत्रपति शिवाजी (१९५२) शामिल थी। बड़ी माँ में लता ने नूरजहाँ के साथ अभिनय किया और उसके छोटी बहन की भूमिका निभाई आशा भोंसले ने। उन्होंने खुद की भूमिका के लिये गाने भी गाये और आशा के लिये पार्श्वगायन किया।
१९४७ में वसंत जोगलेकर ने अपनी फ़िल्म आपकी सेवा में में लता को गाने का मौका दिया। इस फ़िल्म के गानों से लता की खूब चर्चा हुई। इसके बाद लता ने मज़बूर फ़िल्म के गानों "अंग्रेजी छोरा चला गया" और "दिल मेरा तोड़ा हाय मुझे कहीं का न छोड़ा तेरे प्यार ने" जैसे गानों से अपनी स्थिती सुदृढ की। हालाँकि इसके बावज़ूद लता को उस खास हिट की अभी भी तलाश थी।
१९४९ में लता को ऐसा मौका फ़िल्म "महल" के "आयेगा आनेवाला" गीत से मिला। इस गीत को उस समय की सबसे खूबसूरत और चर्चित अभिनेत्री मधुबाला पर फ़िल्माया गया था। यह फ़िल्म अत्यंत सफल रही थी और लता तथा मधुबाला दोनों के लिये बहुत शुभ साबित हुई। इसके बाद लता ने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा।
पिता दीनानाथ मंगेशकर शास्त्रीय गायक थे।
उन्होने अपना पहला गाना मराठी फिल्म 'किती हसाल' (कितना हसोगे?) (१९४२) में गाया था।
लता मंगेशकर को सबसे बड़ा ब्रेक फिल्म महल से मिला। उनका गाया "आयेगा आने वाला" सुपर डुपर हिट था।
लता मंगेशकर अब तक २० से अधिक भाषाओं में ३०००० से अधिक गाने गा चुकी हैं।
लता मंगेशकर ने १९८० के बाद से फ़िल्मो में गाना कम कर दिया और स्टेज शो पर अधिक ध्यान देने लगी।
लता ही एकमात्र ऐसी जीवित व्यक्ति थीं जिनके नाम से पुरस्कार दिए जाते हैं।
लता मंगेशकर ने आनंद घन बैनर तले फ़िल्मो का निर्माण भी किया है और संगीत भी दिया है।
वे हमेशा अपने पैर से चप्पल उतार कर हि (नंगे पाँव) स्टूडियो, स्टेज आदि पर गाना रिकार्डिंग करती अथवा गाती थीं।
फिल्म फेयर पुरस्कार (१९५८, १९६२, १९६५, १९६९, १९९३ और १९९४)
राष्ट्रीय पुरस्कार (१९७२, १९७५ और १९९०)
महाराष्ट्र सरकार पुरस्कार (१९६६ और १९६७)
१९६९ - पद्म भूषण
१९७४ - दुनिया में सबसे अधिक गीत गाने का गिनीज़ बुक रिकॉर्ड
१९८९ - दादा साहब फाल्के पुरस्कार
१९९३ - फिल्म फेयर का लाइफ टाइम अचीवमेंट पुरस्कार
१९९६ - स्क्रीन का लाइफटाइम अचीवमेंट पुरस्कार
१९९७ - राजीव गांधी पुरस्कार
१९९९ - एन.टी.आर. पुरस्कार
१९९९ - पद्म विभूषण
१९९९ - ज़ी सिने का लाइफटाइम अचीवमेंट पुरस्कार
२००० - आई. आई. ए. एफ. का लाइफटाइम अचीवमेंट पुरस्कार
२००१ - स्टारडस्ट का लाइफटाइम अचीवमेंट पुरस्कार
२००१ - भारत का सर्वोच्च नागरिक सम्मान "भारत रत्न"
२००१ - नूरजहाँ पुरस्कार
२००१ - बंजारा पुरस्कार
२००१ - महाराष्ट्र पूरस्कार
१९२९ में जन्मे लोग
भारतीय फिल्म पार्श्वगायक
मध्य प्रदेश के लोग
दादासाहेब फाल्के पुरस्कार विजेता
भारत रत्न सम्मान प्राप्तकर्ता
इंदौर जिले के लोग
भारतीय महिला गायक
पद्म विभूषण धारक
भारतीय शास्त्रीय गायिका
२०२२ में निधन |
गंगा ( ; ; ) भारत की सबसे महत्त्वपूर्ण नदी है। गंगा नदी का उद्गम भागीरथी व अलकनंदा नदी मिलकर करती है। यह भारत और बांग्लादेश में कुल मिलाकर २५२५ किलोमीटर (कि॰मी॰) की दूरी तय करती हुई उत्तराखंड में हिमालय के गंगोत्री हिमनद के गोमुख स्थान से लेकर बंगाल की खाड़ी के सुन्दरवन तक भारत की मुख्य नदी के रूप में विशाल भू-भाग को सींचती है। गंगा नदी देश की प्राकृतिक सम्पदा ही नहीं, जन-जन की भावनात्मक आस्था का आधार भी है। २,०७१ कि॰मी॰ तक भारत तथा उसके बाद बांग्लादेश में अपनी लंबी यात्रा करते हुए यह सहायक नदियों के साथ दस लाख वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल के अति विशाल उपजाऊ मैदान की रचना करती है। सामाजिक, साहित्यिक, सांस्कृतिक और आर्थिक दृष्टि से अत्यंत महत्त्वपूर्ण गंगा का यह मैदान अपनी घनी जनसंख्या के कारण भी जाना जाता है। १०० फीट (३१ मी॰) की अधिकतम गहराई वाली यह नदी भारत में पवित्र नदी भी मानी जाती है तथा इसकी उपासना माँ तथा देवी के रूप में की जाती है। भारतीय पुराण और साहित्य में अपने सौंदर्य और महत्त्व के कारण बार-बार आदर के साथ वंदित गंगा नदी के प्रति विदेशी साहित्य में भी प्रशंसा और भावुकतापूर्ण वर्णन किए गए हैं।
इस नदी में मछलियों तथा सर्पों की अनेक प्रजातियाँ तो पायी जाती ही हैं, तथा मीठे पानी वाले दुर्लभ डॉलफिन भी पाए जाते हैं। यह कृषि, पर्यटन, साहसिक खेलों तथा उद्योगों के विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान देती है तथा अपने तट पर बसे शहरों की जलापूर्ति भी करती है। इसके तट पर विकसित धार्मिक स्थल और तीर्थ भारतीय सामाजिक व्यवस्था के विशेष अंग हैं। इसके ऊपर बने पुल, बाँध और नदी परियोजनाएँ भारत की बिजली, पानी और कृषि से सम्बन्धित जरूरतों को पूरा करती हैं। वैज्ञानिक मानते हैं कि इस नदी के जल में बैक्टीरियोफेज नामक विषाणु होते हैं, जो जीवाणुओं व अन्य हानिकारक सूक्ष्मजीवों को जीवित नहीं रहने देते हैं। गंगा की इस अनुपम शुद्धीकरण क्षमता तथा सामाजिक श्रद्धा के बावजूद इसको प्रदूषित होने से रोका नहीं जा सका है। फिर भी इसके प्रयत्न जारी हैं और सफ़ाई की अनेक परियोजनाओं(नमामी गंगे योजना ) के क्रम में नवम्बर,२००८ में भारत सरकार द्वारा इसे भारत की राष्ट्रीय नदी तथा प्रयाग (प्रयागराज) और हल्दिया के बीच (१६२० किलोमीटर) गंगा नदी जलमार्ग को राष्ट्रीय जलमार्ग घोषित किया है।
भारत में गंगाजल को उतम जल माना जाता है।(इसमे गंगेटिक डाल्फिन भी पाया जाताहै जिसे भारत सरकार द्वारा २००९ जलीय जीव के रूप मे मान्यता दिया गया है )
गंगा नदी की प्रधान शाखा भागीरथी है जो गढ़वाल में हिमालय के गौमुख नामक स्थान पर गंगोत्री हिमनद या ग्लेशियर(गुरुकुल) से निकलती हैं। गंगा के इस उद्गम स्थल की ऊँचाई ३१४० मीटर है। यहाँ गंगा जी को समर्पित एक मंदिर है। गंगोत्री तीर्थ, शहर से १९ कि॰मी॰ उत्तर की ओर ३,८९२ मी॰ (१२,७७० फीट) की ऊँचाई पर इस हिमनद का मुख है। यह हिमनद २५ कि॰मी॰ लंबा व ४ कि॰मी॰ चौड़ा और लगभग ४0 मीटर ऊँचा है। इसी ग्लेशियर से भागीरथी एक छोटे से गुफानुमा मुख पर अवतरित होती हैं। इसका जल स्रोत ५,००० मीटर ऊँचाई पर स्थित एक घाटी है। इस घाटी का मूल पश्चिमी ढलान की संतोपंथ की चोटियों में है। गौमुख के रास्ते में ३,६०० मीटर ऊँचे चिरबासा ग्राम से विशाल गौमुख हिमनद के दर्शन होते हैं। इस हिमनद में नन्दा देवी, कामत पर्वत एवं त्रिशूल पर्वत का हिम पिघल कर आता है। यद्यपि गंगा के आकार लेने में अनेक छोटी धाराओं का योगदान है, लेकिन ६ बड़ी और उनकी सहायक ५ छोटी धाराओं का भौगोलिक और सांस्कृतिक महत्त्व अधिक है। अलकनन्दा (विष्णु गंगा) की सहायक नदी धौली, विष्णु गंगा तथा मन्दाकिनी है। धौली गंगा का अलकनन्दा से विष्णु प्रयाग में संगम होता है। यह 1३72 मीटर की ऊँचाई पर स्थित है। फिर 280५ मीटर ऊँचे नन्द प्रयाग में अलकनंदा का नन्दाकिनी नदी से संगम होता है। इसके बाद कर्ण प्रयाग में अलकनंदा का कर्ण गंगा या पिंडर नदी से संगम होता है। फिर ऋषिकेश से 1३9 कि॰मी॰ दूर स्थित रुद्र प्रयाग में अलकनंदा मन्दाकिनी से मिलती है। इसके बाद भागीरथी व अलकनंदा 1५00 फीट पर स्थित देव प्रयाग में संगम करती हैं यहाँ से यह सम्मिलित जल-धारा गंगा नदी के नाम से आगे प्रवाहित होती है। इन पाँच प्रयागों को सम्मिलित रूप से पंच प्रयाग कहा जाता है। इस प्रकार २०० कि॰मी॰ का सँकरा पहाड़ी रास्ता तय करके गंगा नदी ऋषिकेश होते हुए प्रथम बार मैदानों का स्पर्श हरिद्वार में करती हैं।
गंगा का मैदान
हरिद्वार से लगभग ८०० कि॰मी॰ मैदानी यात्रा करते हुए बिजनौर, गढ़मुक्तेश्वर, सोरों, फर्रुखाबाद, कन्नौज, बिठूर, कानपुर होते हुए गंगा प्रयाग (प्रयागराज) पहुँचती है। यहाँ इसका संगम यमुना नदी से होता है। यह संगम स्थल हिंदुओं का एक महत्त्वपूर्ण तीर्थ है। इसे तीर्थराज प्रयाग कहा जाता है। इसके बाद हिंदू धर्म की प्रमुख मोक्षदायिनी नगरी काशी (वाराणसी) में गंगा एक वक्र लेती है, जिससे यहाँ उत्तरवाहिनी कहलाती है। यहाँ से मीरजापुर, गाज़ीपुर, पटना, भागलपुर होते हुए पाकुर पहुँचती है। इस बीच इसमें बहुत-सी सहायक नदियाँ, जैसे सोन, गण्डक, सरयू, कोसी आदि मिल जाती हैं। भागलपुर में राजमहल की पहाड़ियों से यह दक्षिणवर्ती होती है। पश्चिम बंगाल के मुर्शिदाबाद जिले के गिरिया स्थान के पास गंगा नदी दो शाखाओं में विभाजित हो जाती है भागीरथी और पद्मा। भागीरथी नदी गिरिया से दक्षिण की ओर बहने लगती है जबकि पद्मा नदी दक्षिण-पूर्व की ओर बहती फरक्का बैराज (१९७४ निर्मित) से छनते हुई बंग्ला देश में प्रवेश करती है। यहाँ से गंगा का डेल्टाई भाग शुरू हो जाता है। मुर्शिदाबाद शहर से हुगली शहर तक गंगा का नाम भागीरथी नदी तथा हुगली शहर से मुहाने तक गंगा का नाम हुगली नदी है। गंगा का यह मैदान मूलत: एक भू-अभिनति गर्त है जिसका निर्माण मुख्य रूप से हिमालय पर्वतमाला निर्माण प्रक्रिया के तीसरे चरण में लगभग ३-४ करोड़ वर्ष पहले हुआ था। तब से इसे हिमालय और प्रायद्वीप से निकलने वाली नदियाँ अपने साथ लाये हुए अवसादों से पाट रही हैं। इन मैदानों में जलोढ़ की औसत गहराई १००० से २००० मीटर है। इस मैदान में नदी की प्रौढ़ावस्था में बनने वाली अपरदनी और निक्षेपण स्थलाकृतियाँ, जैसे- बालू-रोधका, विसर्प, गोखुर झीलें और गुम्फित नदियाँ पायी जाती हैं।
गंगा की इस घाटी में एक ऐसी सभ्यता का उद्भव और विकास हुआ जिसका प्राचीन इतिहास अत्यन्त गौरवमयी व वैभवशाली है। जहाँ ज्ञान, धर्म, अध्यात्म व सभ्यता-संस्कृति की ऐसी किरण प्रस्फुटित हुई जिससे न केवल भारत, बल्कि समस्त संसार आलोकित हुआ। पाषाण या प्रस्तर युग का जन्म और विकास यहाँ होने के अनेक साक्ष्य मिले हैं। इसी घाटी में रामायण और महाभारत कालीन युग का उद्भव और विलय हुआ। शतपथ ब्राह्मण, पंचविश ब्राह्मण, गौपथ ब्राह्मण, ऐतरेय आरण्यक, कौशितकी आरण्यक, सांख्यायन आरण्यक, वाजसनेयी संहिता और महाभारत इत्यादि में वर्णित घटनाओं से उत्तर वैदिककालीन गंगा घाटी की जानकारी मिलती है। प्राचीन मगध महाजनपद का उद्भव गंगा घाटी में ही हुआ, जहाँ से गणराज्यों की परंपरा विश्व में पहली बार प्रारंभ हुई। यहीं भारत का वह स्वर्ण युग विकसित हुआ जब मौर्य और गुप्त वंशीय राजाओं ने यहाँ शासन किया।
गंगा का सुंदरवन डेल्टा
हुगली नदी कोलकाता, हावड़ा होते हुए सुंदरवन के भारतीय भाग में सागर से संगम करती है। पद्मा में ब्रह्मपुत्र से निकली शाखा नदी जमुना नदी एवं मेघना नदी मिलती हैं। अंततः ये ३५० कि॰मी॰ चौड़े सुंदरवन डेल्टा में जाकर बंगाल की खाड़ी में सागर संगम करती है। यह डेल्टा गंगा एवं उसकी सहायक नदियों द्वारा लायी गयी नवीन जलोढ़ से १,००० वर्षों में निर्मित समतल तथा निम्न मैदान है। यहाँ गंगा और बंगाल की खाड़ी के संगम पर एक प्रसिद्ध हिंदू तीर्थ है जिसे गंगा-सागर-संगम कहते हैं। विश्व का सबसे बड़ा डेल्टा (सुन्दरवन) बहुत-सी प्रसिद्ध वनस्पतियों और प्रसिद्ध बंगाल टाईगर का निवास स्थान है। यह डेल्टा धीरे-धीरे सागर की ओर बढ़ रहा है। कुछ समय पहले कोलकाता सागर तट पर ही स्थित था और सागर का विस्तार राजमहल तथा सिलहट तक था, परंतु अब यह तट से १5-२० मील (२४-३२ किलोमीटर) दूर स्थित लगभग १,८०,००० वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र में फैला हुआ है। जब डेल्टा का सागर की ओर निरंतर विस्तार होता है तो उसे प्रगतिशील डेल्टा कहते हैं। सुंदरवन डेल्टा में भूमि का ढाल अत्यंत कम होने के कारण यहाँ गंगा अत्यंत धीमी गति से बहती है और अपने साथ लायी गयी मिट्टी को मुहाने पर जमा कर देती है, जिससे डेल्टा का आकार बढ़ता जाता है और नदी की कई धाराएँ तथा उपधाराएँ बन जाती हैं। इस प्रकार बनी हुई गंगा की प्रमुख शाखा नदियाँ जालंगी नदी, इच्छामती नदी, भैरव नदी, विद्याधरी नदी और कालिन्दी नदी हैं। नदियों के वक्र गति से बहने के कारण दक्षिणी भाग में कई धनुषाकार झीलें बन गई हैं। ढाल उत्तर से दक्षिण है, अतः अधिकांश नदियाँ उत्तर से दक्षिण की ओर बहती हैं। ज्वार के समय इन नदियों में ज्वार का पानी भर जाने के कारण इन्हें ज्वारीय नदियाँ भी कहते हैं। डेल्टा के सुदूर दक्षिणी भाग में समुद्र का खारा पानी पहुँचने का कारण यह भाग नीचा, नमकीन एवं दलदली है तथा यहाँ आसानी से पनपने वाले मैंग्रोव जाति के वनों से भरा पड़ा है। यह डेल्टा चावल की कृषि के लिए अधिक विख्यात है। यहाँ विश्व में सबसे अधिक कच्चे जूट का उत्पादन होता है। कटका अभ्यारण्य सुन्दरवन के उन इलाकों में से है जहाँ का रास्ता छोटी-छोटी नहरों से होकर गुजरता है। यहाँ बड़ी तादाद में सुन्दरी पेड़ मिलते हैं जिसके कारण इन वनों का नाम सुन्दरवन पड़ा है। इसके अलावा यहाँ पर देवा, केवड़ा, तर्मजा, आमलोपी और गोरान वृक्षों की ऐसी प्रजातियाँ हैं, जो सुन्दरवन में पायी जाती हैं। यहाँ के वनों की एक खास बात यह है कि यहाँ वही पेड़ पनपते या बच सकते हैं, जो मीठे और खारे पानी के मिश्रण में रह सकते हों।
गंगा में बायें ओर से आकर मिलने वाली प्रमुख सहायक नदियाँ राम गंगा , करनाली (सरयू), ताप्ती, गंडक, कोसी और काक्षी हैं तथा दाहिनी नदियाँ यमुना, चम्बल, सोन, बेतवा, केन, दक्षिणी टोस पुु हैं यमुना, गंगा की सबसे प्रमुख सहायक नदी है जो हिमालय की बन्दरपूँछ चोटी के आधार पर यमुनोत्री हिमखण्ड से निकली है। हिमालय के ऊपरी भाग में इसमें टोंस तथा बाद में लघु हिमालय में आने पर इसमें गिरि और आसन नदियाँ मिलती हैं। चम्बल, बेतवा, शारदा और केन यमुना की सहायक नदियाँ हैं। चम्बल इटावा के पास तथा बेतवा हमीरपुर के पास यमुना में मिलती हैं। यमुना प्रयागराज के निकट दायें ओर से गंगा नदी में जा मिलती है। रामगंगा मुख्य हिमालय के दक्षिणी भाग नैनीताल के निकट से निकलकर बिजनौर जिले से बहती हुई कन्नौज के पास गंगा में मिलती है। करनाली नदी मप्सातुंग नामक हिमनद से निकलकर अयोध्या, फैजाबाद होती हुई बलिया जिले के सीमा के पास गंगा में मिल जाती है। इस नदी को पर्वतीय भाग में कौरियाला तथा मैदानी भाग में सरयू कहा जाता है। गंडक हिमालय से निकलकर नेपाल में शालीग्राम नाम से बहती हुई मैदानी भाग में नारायणी नदी का नाम पाती है। यह काली गंडक और त्रिशूल नदियों का जल लेकर प्रवाहित होती हुई सोनपुर के पास गंगा में मिलती है। कोसी की मुख्यधारा अरुण है जो गोसाई धाम के उत्तर से निकलती है। ब्रह्मपुत्र के घाटी के दक्षिण से सर्पाकार रूप में अरुण नदी बहती है, जहाँ यारू नामक नदी इससे मिलती है। इसके बाद एवरेस्ट के कंचनजंघा शिखरों के बीच से बहती हुई यह दक्षिण की ओर ९० किलोमीटर बहती है, जहाँ पश्चिम से सूनकोसी तथा पूरब से तामूर कोसी नामक नदियाँ इसमें मिलती हैं। इसके बाद कोसी नदी के नाम से यह शिवालिक को पार करके मैदान में उतरती है तथा बिहार राज्य से बहती हुई गंगा में मिल जाती है। अमरकंटक पहाड़ी (मध्यप्रदेश) से निकलकर सोन नदी पटना के पास गंगा में मिलती है। मध्य-प्रदेश के मऊ के निकट जनायाब पर्वत से निकलकर चम्बल नदी इटावा से ३८ किलोमीटर की दूरी पर यमुना नदी में मिलती है। बेतवा नदी मध्य प्रदेश में भोपाल से निकलकर उत्तर हमीरपुर के निकट यमुना में मिलती है। भागीरथी नदी के बाएँ किनारे से मिलने वाली अनेक नदियों में बाँसलई, द्वारका, मयूराक्षी, रूपनारायण, कंसावती और रसूलपुर प्रमुख हैं। जलांगी और माथा भाँगा या चूनीं बाएँ किनारे से मिलती हैं जो अतीत काल में गंगा या पद्मा की शाखा नदियाँ थीं। किन्तु ये वर्तमान समय में गंगा से पृथक होकर वर्षाकालीन नदियाँ बन गई हैं।
ऐतिहासिक साक्ष्यों से यह ज्ञात होता है कि १६वीं तथा १७वीं शताब्दी तक गंगा-यमुना प्रदेश घने वनों से ढका हुआ था। इन वनों में जंगली हाथी, भैंस, गेंडा, शेर, बाघ तथा गवल का शिकार होता था। गंगा का तटवर्ती क्षेत्र अपने शान्त व अनुकूल पर्यावरण के कारण रंग-बिरंगे पक्षियों का संसार अपने आंचल में संजोए हुए है। इसमें मछलियों की १४० प्रजातियाँ, ३५ सरीसृप तथा इसके तट पर ४२ स्तनधारी प्रजातियाँ पायी जाती हैं। यहाँ की उत्कृष्ट पारिस्थितिकी संरचना में कई प्रजाति के वन्य जीवों जैसे नीलगाय, साम्भर, खरगोश, नेवला, चिंकारा के साथ सरीसृप वर्ग के जीव-जन्तुओं को भी आश्रय मिला हुआ है। इस इलाके में ऐसे कई जीव-जन्तुओं की प्रजातियाँ हैं जो दुर्लभ होने के कारण संरक्षित घोषित की जा चुकी हैं। गंगा के पर्वतीय किनारों पर लंगूर, लाल बंदर, भूरे भालू, लोमड़ी, चीते, बर्फीले चीते, हिरण, भौंकने वाले हिरण, साम्भर, कस्तूरी मृग, सेरो, बरड़ मृग, साही, तहर आदि काफ़ी संख्या में मिलते हैं। विभिन्न रंगों की तितलियाँ तथा कीट भी यहाँ पाए जाते हैं। बढ़ती हुई जनसंख्या के दबाव में धीरे-धीरे वनों का लोप होने लगा है और गंगा की घाटी में सर्वत्र कृषि होती है फिर भी गंगा के मैदानी भाग में हिरण, जंगली सूअर, जंगली बिल्लियाँ, भेड़िया, गीदड़, लोमड़ी की अनेक प्रजातियाँ काफी संख्या में पाए जाते हैं। डॉलफिन की दो प्रजातियाँ गंगा में पाई जाती हैं। जिन्हें गंगा डॉलफिन और इरावदी डॉलफिन के नाम से जाना जाता है। इसके अलावा गंगा में पाई जाने वाले शार्क की वजह से भी गंगा की प्रसिद्धि है, जिसमें बहते हुए पानी में पाई जानेवाली शार्क के कारण विश्व के वैज्ञानिकों की काफी रुचि है। इस नदी और बंगाल की खाड़ी के मिलन स्थल पर बनने वाले मुहाने को सुन्दरवन के नाम से जाना जाता है जो विश्व की बहुत-सी प्रसिद्ध वनस्पतियों और प्रसिद्ध बंगाल बाघ का गृहक्षेत्र है।
गंगा अपनी उपत्यकाओं (घाटियों) में भारत और बांग्लादेश के कृषि आधारित अर्थ में भारी सहयोग तो करती ही है, यह अपनी सहायक नदियों सहित बहुत बड़े क्षेत्र के लिए सिंचाई के बारहमासी स्रोत भी हैं। इन क्षेत्रों में उगायी जाने वाली प्रधान उपज में मुख्यतः धान, गन्ना, दाल, तिलहन, आलू एवम् गेहूँ हैं। जो भारत की कृषि आज का महत्त्वपूर्ण स्रोत हैं। गंगा के तटीय क्षेत्रों में दलदल तथा झीलों के कारण यहाँ लेग्यूम, मिर्च, सरसो, तिल, गन्ना और जूट की बहुतायत फसल होती है। नदी में मत्स्य उद्योग भी बहुत जोरों पर चलता है। गंगा नदी प्रणाली भारत की सबसे बड़ी नदी प्रणाली है; इसमें लगभग ३७५ मत्स्य प्रजातियाँ उपलब्ध हैं। वैज्ञानिकों द्वारा उत्तर प्रदेश व बिहार में १११ मत्स्य प्रजातियों की उपलब्धता बतायी गयी है। फरक्का बांध बन जाने से गंगा नदी में हिल्सा मछली के बीजोत्पादन में सहायता मिली है। गंगा का महत्त्व पर्यटन पर आधारित आय के कारण भी है। इसके तट पर ऐतिहासिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण तथा प्राकृतिक सौन्दर्य से भरपूर कई पर्यटन स्थल है जो राष्ट्रीय आय का महत्त्वपूर्ण स्रोत है। गंगा नदी पर रैफ्टिंग के शिविरों का आयोजन किया जाता है। जो साहसिक खेलों और पर्यावरण द्वारा भारत के आर्थिक सहयोग में सहयोग करते हैं। गंगा तट के तीन बड़े शहर हरिद्वार, प्रयागराज एवम् वाराणसी जो तीर्थ स्थलों में विशेष स्थान रखते हैं। इस कारण यहाँ श्रद्धालुओं की बड़ी संख्या निरन्तर बनी रहती है तथा धार्मिक पर्यटन में महत्त्वपूर्ण योगदान करती हैं। गर्मी के मौसम में जब पहाड़ों से बर्फ पिघलती है, तब नदी में पानी की मात्रा व बहाव अत्यधिक होता है, इस समय उत्तराखण्ड में ऋषिकेश, बद्रीनाथ मार्ग पर कौडियाला से ऋषिकेश के मध्य रैफ्टिंग, क्याकिंग व कैनोइंग के शिविरों का आयोजन किया जाता है, जो साहसिक खेलों के शौकीनों व पर्यटकों को विशेष रूप से आकर्षित करके भारत के आर्थिक सहयोग में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
बाँध एवम् नदी परियोजनाएँ
गंगा नदी पर निर्मित अनेक बाँध भारतीय जन-जीवन तथा अर्थव्यवस्था का महत्त्वपूर्ण अंग हैं। इनमें प्रमुख हैं फ़रक्का बाँध, टिहरी बाँध, तथा भीमगोडा बाँध। फ़रक्का बाँध (बैराज) भारत के पश्चिम बंगाल प्रान्त में स्थित गंगा नदी पर बनाया गया है। इस बाँध का निर्माण कोलकाता बंदरगाह को गाद (सिल्ट) से मुक्त कराने के लिए किया गया था जो कि १९५० से १९६० तक इस बंदरगाह की प्रमुख समस्या थी। कोलकाता हुगली नदी पर स्थित एक प्रमुख बंदरगाह है। ग्रीष्म ऋतु में हुगली नदी के बहाव को निरन्तर बनाए रखने के लिए गंगा नदी के जल के एक बड़े हिस्से को फ़रक्का बाँध के द्वारा हुगली नदी में मोड़ दिया जाता है। गंगा पर निर्मित दूसरा प्रमुख टिहरी बाँध, टिहरी विकास परियोजना का एक प्राथमिक बाँध है जो उत्तराखण्ड प्रान्त के टिहरी जिले में स्थित है। यह बाँध गंगा नदी की प्रमुख सहयोगी नदी भागीरथी पर बनाया गया है। टिहरी बाँध की ऊँचाई २६१ मीटर है जो इसे विश्व का पाँचवाँ सबसे ऊँचा बाँध बनाती है। इस बाँध से २४०० मेगावाट विद्युत उत्पादन, २,७०,००० हेक्टर क्षेत्र की सिंचाई और प्रतिदिन १०२.२० करोड़ लीटर पेयजल दिल्ली, उत्तर-प्रदेश एवम् उत्तराखण्ड को उपलब्ध कराना प्रस्तावित है। तीसरा प्रमुख भीमगोडा बाँध हरिद्वार में स्थित है जिसको सन् १८४० में अंग्रेज़ों ने गंगा नदी के पानी को विभाजित कर ऊपरी गंगा नहर में मोड़ने के लिए बनवाया था। यह नहर हरिद्वार के भीमगोडा नामक स्थान से गंगा नदी के दाहिने तट से निकलती है। प्रारम्भ में इस नहर में जलापूर्ति गंगा नदी में एक अस्थायी बाँध बनाकर की जाती थी। वर्षाकाल प्रारम्भ होते ही अस्थायी बाँध टूट जाया करता था तथा मॉनसून अवधि में नहर में पानी चलाया जाता था। इस प्रकार इस नहर से केवल रबी की फसलों की ही सिंचाई हो पाती थी। अस्थायी बाँध निर्माण स्थल के अनुप्रवाह (नीचे की ओर बहाव) में वर्ष १९७८-१९८४ की अवधि में भीमगोडा बैराज का निर्माण करवाया गया। इसके बन जाने के बाद ऊपरी गंगा नहर प्रणाली से खरीफ की फसल में भी पानी दिया जाने लगा।
प्रदूषण एवं पर्यावरण
गंगा नदी विश्व भर में अपनी शुद्धीकरण क्षमता के कारण जानी जाती है। लम्बे समय से प्रचलित इसकी शुद्धीकरण की मान्यता का वैज्ञानिक आधार भी है। वैज्ञानिक मानते हैं कि इस नदी के जल में बैक्टीरियोफेज नामक विषाणु होते हैं, जो जीवाणुओं व अन्य हानिकारक सूक्ष्मजीवों को जीवित नहीं रहने देते हैं। नदी के जल में प्राणवायु (ऑक्सीजन) की मात्रा को बनाये रखने की असाधारण क्षमता है; किन्तु इसका कारण अभी तक अज्ञात है। एक राष्ट्रीय सार्वजनिक रेडियो कार्यक्रम के अनुसार इस कारण हैजा और पेचिश जैसी बीमारियाँ होने का खतरा बहुत ही कम हो जाता है, जिससे महामारियाँ होने की सम्भावना बड़े स्तर पर टल जाती है। लेकिन गंगा के तट पर घने बसे औद्योगिक नगरों के नालों की गंदगी सीधे गंगा नदी में मिलने से प्रदूषण पिछले कई सालों से भारत सरकार और जनता के चिन्ता का विषय बना हुआ है। औद्योगिक कचरे के साथ-साथ प्लास्टिक कचरे की बहुतायत ने गंगा जल को बेहद प्रदूषित किया है। वैज्ञानिक जाँच के अनुसार गंगा का बायोलॉजिकल ऑक्सीजन स्तर ३ डिग्री (सामान्य) से बढ़कर ६ डिग्री हो चुका है। गंगा में २ करोड़ ९० लाख लीटर प्रदूषित कचरा प्रतिदिन गिर रहा है। विश्व बैंक रिपोर्ट के अनुसार उत्तर-प्रदेश की १२ प्रतिशत बीमारियों की वजह प्रदूषित गंगा जल है। यह घोर चिन्तनीय है कि गंगाजल न स्नान के योग्य रहा, न पीने के योग्य रहा और न ही सिंचाई के योग्य। गंगा के पराभव का अर्थ होगा, हमारी समूची सभ्यता का अन्त। गंगा में बढ़ते प्रदूषण पर नियंत्रण पाने के लिए घड़ियालों की मदद ली जा रही है। शहर की गंदगी को साफ करने के लिए संयन्त्रों को लगाया जा रहा है और उद्योगों के कचरों को इसमें गिरने से रोकने के लिए कानून बने हैं। इसी क्रम में गंगा को राष्ट्रीय धरोहर भी घोषित कर दिया गया है और गंगा एक्शन प्लान व राष्ट्रीय नदी संरक्षण योजना लागू की गयी हैं। हालाँकि इसकी सफलता पर प्रश्नचिह्न भी लगाये जाते रहे हैं। जनता भी इस विषय में जागृत हुई है। इसके साथ ही धार्मिक भावनाएँ आहत न हों इसके भी प्रयत्न किये जा रहे हैं। इतना सबकुछ होने के बावजूद गंगा के अस्तित्व पर संकट के बादल छाये हुए हैं। २००७ की एक संयुक्त राष्ट्र रिपोर्ट के अनुसार हिमालय पर स्थित गंगा की जलापूर्ति करने वाले हिमनद की २०३० तक समाप्त होने की सम्भावना है। इसके बाद नदी का बहाव वर्षा-ऋतु पर आश्रित होकर मौसमी ही रह जाएगा।
इस नदी की सफाई के लिए कई बार पहल की गयी लेकिन कोई भी संतोषजनक स्थिति तक नहीं पहुँच पाया। प्रधानमन्त्री चुने जाने के बाद भारत के प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी ने गंगा नदी में प्रदूषण पर नियन्त्रण करने और इसकी सफाई का अभियान चलाया। इसके बाद उन्होंने जुलाई २०१४ में भारत के आम बजट में नमामि गंगा नामक एक परियोजना आरम्भ की। इसी परियोजना के हिस्से के रूप में भारत सरकार ने गंगा के किनारे स्थित ४८ औद्योगिक इकाइयों को बन्द करने का आदेश दिया है।
भारत में २०२० के २५ मार्च से ३ मई तक लोक डाउन होने का कारण गंगा के किनारे सभी फैक्टरी बंद है जिस के कर उन का गंदा पानी गंगा में नहीं जा रहा है और गंगा का जल बहुत अधिक साफ हुआ है पिछले दस वर्षो में पहली बार हरकिपोड़ी में गंगा का पानी पीने के लायक बताया गया है।
भारत की अनेक धार्मिक अवधारणाओं में गंगा नदी को देवी के रूप में निरुपित किया गया है। बहुत से पवित्र तीर्थस्थल गंगा नदी के किनारे पर बसे हुए हैं, जिनमें वाराणसी, हरिद्वार और प्रयागराज उत्तरकाशी प्रमुख हैं। गंगा नदी को भारत की नदियों में सबसे पवित्र माना जाता है एवं यह मान्यता है कि गंगा में स्नान करने से मनुष्य के सारे पापों का नाश हो जाता है। मरने के बाद लोग गंगा में राख विसर्जित करना मोक्ष प्राप्ति के लिए आवश्यक समझते हैं, यहाँ तक कि कुछ लोग गंगा के किनारे ही प्राण विसर्जन या अंतिम संस्कार की इच्छा भी रखते हैं। इसके घाटों पर लोग पूजा अर्चना करते हैं और ध्यान लगाते हैं। गंगाजल को पवित्र समझा जाता है तथा समस्त संस्कारों में उसका होना आवश्यक है। पंचामृत में भी गंगाजल को एक अमृत माना गया है। अनेक पर्वों और उत्सवों का गंगा से सीधा सम्बन्ध है। उदाहरण के लिए मकर संक्रांति, कुम्भ और गंगा दशहरा के समय गंगा में नहाना या केवल दर्शन ही कर लेना बहुत महत्त्वपूर्ण समझा जाता है। इसके तटों पर अनेक प्रसिद्ध मेलों का आयोजन किया जाता है और अनेक प्रसिद्ध मंदिर गंगा के तट पर ही बने हुए हैं। महाभारत के अनुसार मात्र प्रयाग में माघ मास में गंगा-यमुना के संगम पर तीन करोड़ दस हजार तीर्थों का संगम होता है। ये तीर्थ स्थल सम्पूर्ण भारत में सांस्कृतिक एकता स्थापित करते हैं। गंगा को लक्ष्य करके अनेक भक्ति ग्रन्थ लिखे गये हैं। जिनमें श्रीगंगासहस्रनामस्तोत्रम् और आरती सबसे लोकप्रिय हैं। अनेक लोग अपने दैनिक जीवन में श्रद्धा के साथ इनका प्रयोग करते हैं। गंगोत्री तथा अन्य स्थानों पर गंगा के मंदिर और मूर्तियाँ भी स्थापित हैं जिनके दर्शन कर श्रद्धालु स्वयं को कृतार्थ समझते हैं। उत्तराखण्ड के पंच प्रयाग तथा प्रयागराज जो उत्तर प्रदेश में स्थित है गंगा के वे प्रसिद्ध संगम स्थल हैं जहाँ वह अन्य नदियों से मिलती हैं। ये सभी संगम धार्मिक दृष्टि से पूज्य माने गये हैं।
गंगा नदी के साथ अनेक पौराणिक कथाएँ जुड़ी हुई हैं। मिथकों के अनुसार ब्रह्मा ने विष्णु के पैर के पसीने की बून्दों से गंगा का निर्माण कियाा तथा पृथ्वी पर आते समय शिवजी ने गंगा को अपने शिर जटाओं में रखा। त्रिमूर्ति के तीनों सदस्यों के स्पर्श के कारण यह पवित्र समझा गया। एक अन्य कथा के अनुसार राजा सगर ने जादुई रूप से साठ हजार पुत्रों की प्राप्ति की। एक दिन राजा सगर ने देवलोक पर विजय प्राप्त करने के लिए एक अश्ववमेध नामक यज्ञ किया। यज्ञ के लिए घोड़ा आवश्यक था जो ईर्ष्यालु इन्द्र ने चुरा लिया था। सगर ने अपने सारे पुत्रों को घोड़े की खोज में भेज दिया अन्त में उन्हें घोड़ा पाताल लोक में मिला जो एक ऋषि कपिल मुनि के समीप बँधा था। सगर के पुत्रों ने यह सोचकर कि ऋषि ही घोड़े के गायब होने की वजह हैं, उन्होंने ऋषि का अपमान किया। तपस्या में लीन ऋषि ने हजारों वर्ष बाद अपनी आँखें खोली और उनके क्रोध से सगर के सभी साठ हजार पुत्र जलकर वहीं भस्म हो गए। सगर के पुत्रों की आत्माएँ भूत बनकर विचरने लगीं क्योंकि उनका अंतिम संस्कार नहीं किया गया था। सगर के पुत्र अंशुमान ने आत्माओं की मुक्ति का असफल प्रयास किया और बाद में अंशुमान के पुत्र दिलीप ने भी। भगीरथ राजा दिलीप की दूसरी पत्नी के पुत्र थे। उन्होंने अपने पूर्वजों का अंतिम संस्कार किया। उन्होंने गंगा को पृथ्वी पर लाने का प्रण किया जिससे उनके अंतिम संस्कार कर, राख को गंगाजल में प्रवाहित किया जा सके और भटकती आत्माएँ स्वर्ग में जा सकें। भगीरथ ने ब्रह्मा की घोर तपस्या की ताकि गंगा को पृथ्वी पर लाया जा सके। ब्रह्मा प्रसन्न हुए और गंगा को पृथ्वी पर भेजने के लिए तैयार हुए और गंगा को पृथ्वी पर और उसके बाद पाताल में जाने का आदेश दिया ताकि सगर के पुत्रों की आत्माओं की मुक्ति सम्भव हो सके। तब गंगा ने कहा कि मैं इतनी ऊँचाई से जब पृथ्वी पर अवतरित होऊँगी तो पृथ्वी इतना वेग कैसे सह पाएगी? तत्पश्चात् भगीरथ ने भगवान शिव से निवेदन किया और उन्होंने अपनी खुली जटाओं में गंगा के वेग को रोककर, एक लट खोल दी, जिससे गंगा की अविरल धारा पृथ्वी पर प्रवाहित हुई। वह धारा भगीरथ के पीछे-पीछे गंगा-सागर संगम तक गई, जहाँ सगर-पुत्रों का उद्धार हुआ। शिव के स्पर्श से गंगा और भी पावन हो गयीं और पृथ्वीवासियों के लिए श्रद्धा का केन्द्र बन गई। पुराणों के अनुसार स्वर्ग में गंगा को मन्दाकिनी और पाताल में भागीरथी कहते हैं। इसी प्रकार एक पौराणिक कथा राजा शान्तनु और गंगा के विवाह तथा उनके सात पुत्रों के जन्म की है।
भारत की राष्ट्र-नदी गंगा जल ही नहीं, अपितु भारत और हिन्दी साहित्य की मानवीय चेतना को भी प्रवाहित करती है। ऋग्वेद, महाभारत, रामायण एवं अनेक पुराणों में गंगा को पुण्य सलिला, पाप-नाशिनी, मोक्ष प्रदायिनी, सरित्श्रेष्ठा एवं महानदी कहा गया है। संस्कृत कवि जगन्नाथ राय ने गंगा की स्तुति में 'श्रीगंगालहरी' नामक काव्य की रचना की है। हिन्दी के आदि महाकाव्य पृथ्वीराज रासो तथा वीसलदेव रास (नरपति नाल्ह) में गंगा का उल्लेख है। आदिकाल का सर्वाधिक लोक विश्रुत ग्रन्थ जगनिक रचित आल्हखण्ड में गंगा, यमुना और सरस्वती का उल्लेख है। कवि ने प्रयागराज की इस त्रिवेणी को पापनाशक बतलाया है। श्रृंगार-रस के कवि विद्यापति, कबीर वाणी और जायसी के पद्मावत में भी गंगा का उल्लेख है, किन्तु सूरदास और तुलसीदास ने भक्ति भावना से गंगा-महात्म्य का वर्णन विस्तार से किया है। गोस्वामी तुलसीदास ने कवितावली के उत्तरकाण्ड में श्री गंगा महात्म्य का वर्णन तीन छंदों में किया है इन छंदों में कवि ने गंगा दर्शन, गंगा स्नान, गंगा जल सेवन, गंगा तट पर बसने वालों के महत्त्व को वर्णित किया है। रीतिकाल में सेनापति और पद्माकर का गंगा वर्णन श्लाघनीय है। पद्माकर ने गंगा की महिमा और कीर्ति का वर्णन करने के लिए गंगालहरी नामक ग्रन्थ की रचना की है। सेनापति कवित्त रत्नाकर में गंगा महात्म्य का वर्णन करते हुए कहते हैं कि पाप की नाव को नष्ट करने के लिए गंगा की पुण्यधारा तलवार-सी सुशोभित है। रसखान, रहीम आदि ने भी गंगा प्रभाव का सुन्दर वर्णन किया है। आधुनिक काल के कवियों में जगन्नाथदास रत्नाकर के ग्रन्थ गंगावतरण में कपिल मुनि द्वारा शापित सगर के साठ हजार पुत्रों के उद्धार के लिए भगीरथ की 'भगीरथ-तपस्या' से गंगा के भूमि पर अवतरित होने की कथा है। सम्पूर्ण ग्रन्थ तेरह सर्गों में विभक्त और रोला छंद में निबद्ध है। अन्य कवियों में भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, सुमित्रानन्दन पन्त और श्रीधर पाठक आदि ने भी यत्र-तत्र गंगा का वर्णन किया है। छायावादी कवियों का प्रकृति वर्णन हिन्दी साहित्य में उल्लेखनीय है। सुमित्रानन्दन पन्त ने नौका विहार में ग्रीष्मकालीन तापस बाला गंगा का जो चित्र उकेरा है, वह अति रमणीय है। उन्होंने गंगा नामक कविता भी लिखी है। गंगा नदी के कई प्रतीकात्मक अर्थों का वर्णन जवाहर लाल नेहरू ने अपनी पुस्तक भारत एक खोज (डिस्कवरी ऑफ इंडिया) में किया है। गंगा की पौराणिक कहानियों को महेन्द्र मित्तल अपनी कृति माँ गंगा में संजोया है।
क. इंदो किं अंदोलिया अमी ए चक्कीवं गंगा सिरे। .................एतने चरित्र ते गंग तीरे।
ख. कइ रे हिमालइ माहिं गिलउं। कइ तउ झंफघडं गंग-दुवारि।..................बहिन दिवाऊँ राइ की। थारा ब्याह कराबुं गंग नइ पारि।
ग. प्रागराज सो तीरथ ध्यावौं। जहँ पर गंग मातु लहराय॥/एक ओर से जमुना आई। दोनों मिलीं भुजा फैलाय॥/सरस्वती नीचे से निकली। तिरबेनी सो तीर्थ कहाय॥
घ. कज्जल रूप तुअ काली कहिअए, उज्जल रूप तुअ बानी।/रविमंडल परचण्डा कहिअए, गंगा कहिअए पानी॥
ङ. सुकदेव कह्यो सुनौ नरनाह। गंगा ज्यौं आई जगमाँह॥/कहौं सो कथा सुनौ चितलाइ। सुनै सो भवतरि हरि पुर जाइ॥
च. देवनदी कहँ जो जन जान किए मनसा कहुँ कोटि उधारे।/देखि चले झगरैं सुरनारि, सुरेस बनाइ विमान सवाँरे।
पूजा को साजु विरंचि रचैं तुलसी जे महातम जानि तिहारे।/ओक की लोक परी हरि लोक विलोकत गंग तरंग तिहारे॥ (कवितावली-उत्तरकाण्ड १४५)
ब्रह्म जो व्यापक वेद कहैं, गमनाहिं गिरा गुन-ग्यान-गुनी को।/जो करता, भरता, हरता, सुर साहेबु, साहेबु दीन दुखी को।
सोइ भयो द्रव रूप सही, जो है नाथ विरंचि महेस मुनी को।/मानि प्रतीति सदा तुलसी, जगु काहे न सेवत देव धुनी को॥ (कवितावली-उत्तरकाण्ड १४६)
बारि तिहारो निहारि मुरारि भएँ परसें पद पापु लहौंगो।/ईस ह्वै सीस धरौं पै डरौं, प्रभु की समताँ बड़े दोष दहौंगो।
बरु बारहिं बार सरीर धरौं, रघुबीर को ह्वै तव तीर रहौंगो।/भागीरथी बिनवौं कर जोरि, बहोरि न खोरि लगै सो कहौंगो॥ (कवितावली-उत्तरकाण्ड १४७)
छ. पावन अधिक सब तीरथ तैं जाकी धार, जहाँ मरि पापी होत सुरपुर पति है।/देखत ही जाकौ भलो घाट पहचानियत, एक रूप बानी जाके पानी की रहति है।
बड़ी रज राखै जाकौं महाधीर तरसत, सेनापति ठौर-ठौर नीकीयै बहति है।/पाप पतवारि के कतल करिबे को गंगा, पुण्य की असील तरवारि सी लसति है॥--सेनापति
ज. अच्युत चरण तरंगिणी, शिव सिर मालति माल। हरि न बनायो सुरसरी, कीजौ इंदव भाल॥--रहीम
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पाकुड़ (पाकुड़) भारत के झारखंड प्रान्त का एक शहर है। यह पाकुड़ ज़िले का मुख्यालय है। पाकुड़ को पत्थर नगरी भी कहा जाता है। यहां के पत्थर एशिया के बेहतरीन पत्थरों में एक है। पाकुड़ के मुख्य व्यवसायिक स्त्रोत कोयला एवं पत्थर के खदान हैं। पाकुड़ के सिदो कान्हू मुर्मू पार्क में स्थित मार्टिलो टावर १८५५ ई० के हूल क्रांति का प्रतीक है।
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झारखंड के शहर
पाकुड़ ज़िले के नगर |
पुरुलिया (पुरुलिया) भारत के पश्चिम बंगाल राज्य के पुरुलिया ज़िले में स्थित एक नगर है। यह ज़िले का मुख्यालय भी है और झारखण्ड और पश्चिम बंगाल की सीमा पर स्थित है।
पुरुलिया "मानभुम सिटी" के रूप में भी जाना जाता है। शहर १८७६ में गठित किया गया था। पुरुलिया नगर के दक्षिण में कंगसाबती नदी (कांसाई नदी) बहती है। पुरुलिया जिला ६२५१ वर्ग किमी क्षेत्र में फैला हुआ है। यह छोटा नागपुर पठार की सबसे छोटी श्रेणी में अवस्थित है। क्षेत्र में कम ऊंचाई की छोटी पहाड़ियां व टीले और मैदानी भूमि हैं।
यह "चौधरी नृत्य" के लिए प्रसिद्ध है। छऊ नृत्य पुरुलिया का प्रमुख मुखोटा नृत्य है। नृत्य पौराणिक धार्मिक कथा जैसे रामायण और महाभारत की कहानी पर आधारित होता है। वीर रस के इस नृत्य को पहले सिर्फ पुरुष ही करते हैं। जिसमें महिलाओं की भूमिका भी पुरुष निभाते हैं। इन दिनों कई लड़कियां भी इस नृत्य को सीख रही हैं और देश विदेश में प्रस्तुतियां दे रहीं हैं। इस नृत्य आज काफी लोकप्रिय हो हैं।
सड़क - राष्ट्रीय राजमार्ग १८ यहाँ से गुज़रता है और इसे कई अन्य स्थानों से जोड़ता है।
रेल - पुरुलिया रेलवे जंक्शन से कई स्थानों के लिए रेल यातायात उपलब्ध है।
पुरुलिया का रामकृष्ण मिशन विद्यापीठ
"रामकृष्ण मिशन विद्यापीठ" प्राचीन गुरुकुल प्रणाली है जिसकी विचारधारा के शांत वातावरण के साथ लड़कों के लिए एक आवासीय स्कूल द्वारा स्वामी विवेकानंद ने स्थापित की थी। सैनिक स्कूल रांची रोड पर है। ग्र्क डीएवी एक आवासीय स्कूल आर्य समाज, स्वामी दयानंद द्वारा की स्थापना की की विचारधाराओं पर आधारित है। भगवान चर्च स्कूल की एक सुबह (भट्भंध) बैच और एक दिन बैच (रांची रोड) है। स्कूलों की प्राचीनतम पुरुलिया जिला है जो १८५३ में स्थापित किया गया था।
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पश्चिम बंगाल के शहर
पुरुलिया ज़िले के नगर |
बुद्धदेव भट्टाचार्य (; जन्म १ मार्च १९४४) भारतीय राजनीतिज्ञ तथा मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के पोलित ब्यूरो सदस्य हैं। वो २००० से २०११ तक पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री रहे। वो जाधवपुर विधानसभा क्षेत्र से १४ मई २०११ तक विधायक रहे। २४ वर्षों तक विधायक रहने के बाद वो अपनी ही सरकार के पूर्व मुख्य सचिव मनीष गुप्ता से १६,६८४ मतों से पराजित हुये। वो अपने ही विधानसभा क्षेत्र से हारने वाले पश्चिम बंगाल के दूसरे मुख्यमंत्री हैं। उनसे पहले प्रफुल चन्द्र सेन १९६७ में अपने ही निर्वाचन क्षेत्र से हारे थे।
माकपा जालस्थल पर जीवनी लेख
१९४४ में जन्मे लोग
भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) के राजनीतिज्ञ
पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री |
साक्षरता का अर्थ है साक्षर होना अर्थात पढने और लिखने की क्षमता से संपन्न होना । सरल शब्दों मैं कहें तो जो पढ़ और लिख सकता है वही साक्षर होगा। । अलग अलग देशों में साक्षरता के अलग अलग मानक हैं। भारत में राष्ट्रीय साक्षरता मिशन के अनुसार अगर कोई व्यक्ति अपना नाम लिखने और पढने की योग्यता हासिल कर लेता है तो उसे साक्षर माना जाता है।
किसी देश अथवा राज्य की साक्षरता दर वहाँ के कुल लोगों की जनसँख्या व पढ़े लिखे लोगों के अनुपात को कहा जाता है। अधिकाँश यह प्रतिशत में दर्शाया जाता है। परन्तु कभी कभी इसे प्रति-कोटि (हर हज़ार पर) भी दिखाया जाता है
इसको समझने का गणितीय सूत्र है:
साक्षरता दर प्रतिशत = शिक्षित जनसंख्या/कुल जनसंख्या
अर्थात हर सौ लोगों में से कितने लोग साक्षर हैं।
भारत में स्थिति
आज़ादी के समय भारत की साक्षरता दर मात्र बारह (१२%) प्रतिशत थी जो बढ़ कर लगभग चोहत्तर (७४%) प्रतिशत हो गयी है। परन्तु अब भी भारत संसार के सामान्य दर (पिच्यासी प्रतिशत ८५%) से बहुत पीछे है। भारत में संसार की सबसे अधिक अनपढ़ जनसंख्या निवास करती है।
वर्तमान स्थिति कुछ इस प्रकार है:
पुरुष साक्षरता: बयासी प्रतिशत (८२%)
स्त्री साक्षरता: पैंसठ प्रतिशत (६५%)
सर्वाधिक साक्षरत दर (राज्य): केरल (चोरान्वे प्रतिशत ९४%)
न्यूनतम साक्षरता दर (राज्य): बिहार (चौसठ प्रतिशत ६४%)
सर्वाधिक साक्षरता दर (केन्द्र प्रशासित): लक्षद्वीप (बानवे प्रतिशत ९२%)
जब से भारत ने शिक्षा का अधिकार लागू किया है, तब से भारत की साक्षरता दर बहुत अधिक बढ़ी है। केरल हिमाचल, मिजोरम, तमिल नाडू एवं राजस्थान में हुए विशाल बदलावों ने इन राज्यों की काया पलट कर दी एवं लगभग सभी बच्चों को अब वहाँ शिक्षा प्रदान की जाती है। बिहार में शिक्षा सबसे बड़ी समस्या है जिस से सरकार जूझ रही है। वहाँ गरीबी की दर इतनी अधिक है कि लोग जीवन की मूल-भूत आवश्यकताएं जैसे रोटी कपडा और मकान का भी जुगाड़ नहीं कर पाते| वे किताबों का खर्च नहीं उठा पाते|
साक्षर कौन हैं?
भारतीय नियम के अनुसार इस सूत्र में जो उन लोगों को भी शिक्षित गिना जाता है जो अपने हस्ताक्षर कर सकते हैं तथा पैसे का हिसाब किताब करना जानते हैं अथवा समझ सकते हैं अथवा दोनों।
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विधिक साक्षरता (या, कानूनी साक्षरता) |
किरोड़ीमल महाविद्यालय दिल्ली विश्वविद्यालय के उत्तरी परिसर में स्थित एक प्रमुख महाविद्यालय है। इस महाविद्यालय के पढ़े छात्र-छात्राये देश विदेशो में अनेक महत्वपूर्ण पदों पर कार्यरत है। |
खरसावाँ (खरसावन) भारत के झारखण्ड राज्य के सराइकेला खरसावाँ ज़िले में स्थित एक शहर है। यहाँ एक रेल स्टेशन है।
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सराइकेला खरसावाँ ज़िला
झारखंड के शहर
सराइकेला खरसावाँ ज़िला
सराइकेला खरसावाँ ज़िले के नगर |
बिरसा मुण्डा (१५ नवम्बर १८७५ - ९ जून 1९00) एक भारतीय आदिवासी स्वतंत्रता सेनानी और मुंडा जनजाति के लोक नायक थे। उन्होंने ब्रिटिश राज के दौरान 1९वीं शताब्दी के अंत में बंगाल प्रेसीडेंसी (अब झारखंड) में हुए एक आदिवासी धार्मिक सहस्राब्दी आंदोलन का नेतृत्व किया, जिससे वह भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के इतिहास में एक महत्वपूर्ण व्यक्ति बन गए। भारत के आदिवासी उन्हें भगवान मानते हैं और 'धरती आबा' के नाम से भी जाना जाता है।
बिरसा मुंडा का जन्म मुंडा जनजाति के गरीब परिवार में पिता सुगना मुंडा और माता करमी मुंडा के सुपुत्र रूप में १५ नवम्बर १८७५ को झारखण्ड के खुटी जिले के उलीहातु गाँव में हुआ था। साल्गा गाँव में प्रारम्भिक पढाई के बाद इन्होंने चाईबासा जी०ई०एल० चार्च (गोस्नर एवं जिलकल लुथार) विद्यालय से आगे की शिक्षा ग्रहण की।
मुंडा विद्रोह का नेतृत्व
१८५८-९४ का सरदारी आंदोलन बिरसा मुंडा के उलगुलान का आधार बना, जो भूमिज-सरदारों के नेतृत्व में लड़ा गया था। 18९४ में सरदारी लड़ाई मजबूत नेतृत्व की कमी के कारण सफल नहीं हुआ, जिसके बाद आदिवासी बिरसा मुंडा के विद्रोह में शामिल हो गए।
१ अक्टूबर १894 को बिरसा मुंडा ने सभी मुंडाओं को एकत्र कर अंग्रेजों से लगान (कर) माफी के लिये आन्दोलन किया, जिसे 'मुंडा विद्रोह' या 'उलगुलान' कहा जाता है। १895 में उन्हें गिरफ़्तार कर लिया गया और हजारीबाग केन्द्रीय कारागार में दो साल के कारावास की सजा दी गयी। लेकिन बिरसा और उसके शिष्यों ने क्षेत्र की अकाल पीड़ित जनता की सहायता करने की ठान रखी थी और जिससे उन्होंने अपने जीवन काल में ही एक महापुरुष का दर्जा पाया। उन्हें उस इलाके के लोग "धरती आबा"के नाम से पुकारा और पूजा करते थे। उनके प्रभाव की वृद्धि के बाद पूरे इलाके के मुंडाओं में संगठित होने की चेतना जागी।
विद्रोह में भागीदारी और अन्त
१८९७ से १९०० के बीच मुंडाओं और अंग्रेज सिपाहियों के बीच युद्ध होते रहे और बिरसा और उसके चाहने वाले लोगों ने अंग्रेजों की नाक में दम कर रखा था। अगस्त १८९७ में बिरसा और उसके चार सौ सिपाहियों ने तीर कमानों से लैस होकर खूँटी थाने पर धावा बोला। १८९८ में तांगा नदी के किनारे मुंडाओं की भिड़ंत अंग्रेज सेनाओं से हुई जिसमें पहले तो अंग्रेजी सेना हार गयी लेकिन बाद में इसके बदले उस इलाके के बहुत से आदिवासी नेताओं की गिरफ़्तारियाँ हुईं।
जनवरी १९०० डोम्बरी पहाड़ पर एक और संघर्ष हुआ था जिसमें बहुत सी औरतें व बच्चे मारे गये थे। उस जगह बिरसा अपनी जनसभा को सम्बोधित कर रहे थे। बाद में बिरसा के कुछ शिष्यों की गिरफ़्तारियाँ भी हुईं। अन्त में स्वयं बिरसा भी ३ फरवरी १९०० को चक्रधरपुर के जमकोपाई जंगल से अंग्रेजों द्वारा गिरफ़्तार कर लिया गया। बिरसा ने अपनी अन्तिम साँसें ९ जून १९०० ई को आंग्रेजों द्वारा जहर देकर मर गया |१९०० को राँची कारागार में लीं। आज भी बिहार, उड़ीसा, झारखंड, छत्तीसगढ और पश्चिम बंगाल के आदिवासी इलाकों में बिरसा मुण्डा को भगवान की तरह पूजा जाता है।
बिरसा मुण्डा की समाधि राँची में कोकर के निकट डिस्टिलरी पुल के पास स्थित है। वहीं उनका स्टेच्यू भी लगा है। उनकी स्मृति में रांची में बिरसा मुण्डा केन्द्रीय कारागार तथा बिरसा मुंडा अंतरराष्ट्रीय विमानक्षेत्र भी है। १० नवंबर २०२१ को भारत सरकार ने १५ नवंबर यानी बिरसा मुंडा की जयंती को जनजातीय गौरव दिवस के रूप में मनाने की घोषणा की।
जनजातीय गौरव दिवस
भारत सरकार के केंद्रीय मंत्रिमंडल द्वारा १० नवंबर २०२१ को आयोजित बैठक में आदिवासी स्वतंत्रता सेनानियों के योगदान को याद करने के लिए बिरसा मुंडा की जयंती १५ नवंबर को "जनजातीय गौरव दिवस" के रूप में घोषित किया है।इस दिन को भारत के एक वीर स्वतंत्रता सेनानी को याद किया जाता है।
इन्हें भी देखें
बिरसा मुंडा आदिवासी विश्वविद्यालय
बिरसा एक क्रांतिकारी थे, जिन्हें लोग पूजा करते हैं (प्रभासाक्षी)
अब भी अधूरी है शहीद बिरसा मुंडा का सपना
१९०० में निधन |
झारखंड आंदोलन भारत के छोटा नागपुर पठार और इसके आसपास के क्षेत्र, जिसे झारखण्ड के नाम से जाना जाता है, को अलग राज्य का दर्जा देने की माँग के साथ शुरू होने वाला एक सामाजिक-राजनीतिक आंदोलन था। इसकी शुरुआत २० वीं सदी के शुरुआत में हुई। अंततः २०00 में बिहार पुनर्गठन बिल के पास होने के बाद इसे अलग राज्य का दर्जा प्राप्त हुआ।
झारखंड शब्द की उत्पत्ति "झार" यानी जंगल और खंड यानी स्थान से है। झारखंड वनों से आच्छादित छोटानागपुर के पठार का हिस्सा है जो गंगा के मैदानी हिस्से के दक्षिण में स्थित है। झारखंड शब्द का प्रयोग कम से कम चार सौ साल पहले सोलहवीं शताब्दी में हुआ माना जाता है। अपने बृहत और मूल अर्थ में झारखंड क्षेत्र में पुराने बिहार के ज्यादातर दक्षिणी हिस्से और छत्तीसगढ़, पश्चिम बंगाल और उड़ीसा के कुछ जिले शामिल है। इस क्षेत्र में नागपुरी और कुड़माली बोली जाती है। इसके आलावा कुछ क्षेत्र में मुंडारी, हो, संताली, भूमिज, खड़िया तथा खोरठा भाषा बोली जाती है।
१८४५ में पहली बार यहाँ ईसाई मिशनरियों के आगमन से इस क्षेत्र में एक बड़ा सांस्कृतिक परिवर्तन और उथल-पुथल शुरू हुआ। मिशनरियाँ आदिवासी समुदाय के एक बड़ा और महत्वपूर्ण भाग को ईसाई बनाने में सफल रहे। उन्होंने क्षेत्र में ईसाई स्कूल और अस्पताल खोले। लेकिन ईसाई धर्म में बृहत धर्मांतरण के बावज़ूद आदिवासियों ने अपनी पारंपरिक धार्मिक आस्थाएँ भी कायम रखी और ये द्वंद्व कायम रहा।
झारखंड के खनिज पदार्थों से संपन्न प्रदेश होने का खामियाजा भी इस क्षेत्र के आदिवासियों को चुकाते रहना पड़ा है। यह क्षेत्र भारत का सबसे बड़ा खनिज क्षेत्र है जहाँ कोयला, लोहा प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है। इसके अलावा बाक्साईट, ताँबा चूना-पत्थर इत्यादि जैसे खनिज भी बड़ी मात्रा में हैं। यहाँ कोयले की खुदाई पहली बार १८५६ में शुरू हुआ और टाटा आयरन ऐंड स्टील कंपनी की स्थापना १९०७ में जमशेदपुर में की गई। इसके बावजूद कभी केन्द्र और राज्य सरकार द्वारा इस क्षेत्र की प्रगति पर ध्यान नहीं दिया गया।
अलग झारखण्ड राज्य आंदोलन की शुरुआत २०वीं सदी के शुरुआत में हुई, जिसकी पहल ईसाई आदिवासियों द्वारा शुरू की गई। लेकिन बाद में इसे सभी वर्गों जिसमें गैर आदिवासी भी शामिल थे; का समर्थन हासिल हुआ।
अलग राज्य की मांग १९१२ में शुरू हुई, जब पहली बार इसका प्रस्ताव सेंट कोलंबिया कॉलेज, हज़ारीबाग के एक छात्र ने रखा था। १९२८ में, ईसाई आदिवासियों की एक राजनीतिक शाखा उन्नति समाज ने पूर्वी भारत में एक आदिवासी राज्य के गठन के लिए साइमन कमीशन को एक ज्ञापन सौंपा। जयपाल सिंह मुंडा और राम नारायण सिंह जैसे बड़े नेता ने अलग राज्य की मांग की। १९३९ में, उन्नति समाज का नाम बदलकर आदिवासी महासभा कर दिया गया, जयपाल सिंह मुंडा इसके अध्यक्ष बने। आदिवासी महासभा ने बिहार, मध्य प्रदेश, पश्चिम बंगाल और ओडिशा के कुल २८ जिलों को मिलाकर अलग झारखण्ड राज्य की सीमा तैयार की। बाद में आदिवासी महासभा का नाम बदलकर झारखण्ड पार्टी कर दिया गया।
आजादी के बाद
१९४७ में भारत की आज़ादी के बाद व्यवस्थित रूप से औद्योगिक विकास पर काफी बल दिया गया जो भारी उद्योगों पर केन्द्रित थी और जिसके लिये खनिजों की खुदाई एक जरूरी हिस्सा थी। समाजवादी सरकारी नीति के तहत भारत सरकार द्वारा स्थानीय लोगों की जमीनें बगैर उचित मुआवज़े के अन्य हाथों में जाने लगीं। दूसरी तरफ़ सरकार का यह भी मानना था कि चूँकि वहाँ की जमीन बहुत उपजाऊ नहीं है इसलिये वहाँ औद्योगीकरण न सिर्फ़ राष्ट्रीय हित के लिये आवश्यक है बल्कि स्थानीय विकास के लिये भी जरूरी है। लेकिन औद्योगीकरण का नतीजा हुआ कि वहाँ बाहरी लोगों का दखल और भी बढ़ गया और बड़ी सँख्या में लोग कारखानों में काम के लिये वहाँ आने लगे। इससे वहाँ स्थानीय लोगों में असंतोष की भावना उभरने लगी और उन्हें लगा कि उनके साथ नौकरियों में भेद-भाव किया जा रहा है। १९७१ में बनी राष्ट्रीय खनन नीति इसी का परिणाम थी।
सरकारी भवनों, बाँधों, इत्यादी के लिये भी भूमि का अधिग्रहण होने लगा। लेकिन कुछ पर्यवेक्षकों का मानना है कि इन बाँधों से उत्पादन होने वाली विद्युत का बहुत कम हिस्सा इस क्षेत्र को मिलता था। इसके अलावा सरकार द्वारा वनरोपण के क्रम में वहाँ की स्थानीय रूप से उगने वाले पेड़ पौधों के बदले व्यवसायिक रूप से लाभदायक पेड़ों का रोपण होने लगा। पारंपरिक झूम खेती और चारागाह क्षेत्र सिमटने लगे और उनपर प्रतिबंधों और नियमों की गाज गिरने लगी। आज़ादी के बाद के दशकों में ऐसी अनेक समस्याएँ बढ़ती गयीं।
राजनैतिक स्तर पर १९३८ में जयपाल सिंह मुंडा के नेतृत्व में झारखंड पार्टी का गठन हुआ जो पहले आमचुनाव में सभी आदिवासी जिलों में पूरी तरह से दबंग पार्टी रही। जब राज्य पुनर्गठन आयोग बना तो झारखंड की भी माँग हुई जिसमें तत्कालीन बिहार, उड़ीसा, पश्चिम बंगाल और मध्य प्रदेश के २१ जिले शामिल थे, आदिवासियों के लिए अलग राज्य के आंदोलन में संताल, मुंडा, उरांव, भूमिज, खड़िया जैसे बड़े जनजातियों के साथ-साथ छोटे जनजातियों ने बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया। इस आंदोलन में गैर-सरकारी आदिवासी कुड़मी महतो का भी महत्वपूर्ण योगदान रहा। आयोग ने उस क्षेत्र में कोई एक आम भाषा न होने के कारण झारखंड के दावे को खारिज कर दिया। ३१ जनवरी १९४७ को सरायकेला और खरसावां को उड़ीसा में शामिल करने के विरोध में खरसावां हाट मैदान में हजारों की संख्या में आदिवासी इकट्ठा हुए, जिन्हें उड़ीसा पुलिस ने गोलियों से भून दिया। जिसे 'आजाद भारत का जालियांवाला नरसंहार' भी कहा गया। १९५० के दशकों में झारखंड पार्टी बिहार में सबसे बड़ी विपक्षी दल की भूमिका में रहा लेकिन धीरे-धीरे इसकी शक्ति में क्षय होना शुरू हुआ। अप्रैल १९५४ में बिहार विधानसभा में छोटानागपुर और संथाल परगना के विधायकों ने राज्य पुनर्गठन आयोग को एक स्मार पत्र देकर अलग राज्य की मांग की, जिसमें सिधू हेंब्रम (कोल्हान), सुशील कुमार बागे (कोलेबिरा), हरमन लकड़ा (बेड़ो), शुभनाथ देवगम (मनोहरपुर), सुखदेव मांझी (चक्रधरपुर), लुकस मुंडा (खूंटी), जीतू किस्कू (महेशपुर), जुनस सुरीन (बसिया), विलियम हेंब्रम (शिकारीपाड़ा), कैलाश प्रसाद (जुगसलाई-पोटका एक), जेठा किस्कू (राजमहल-दामिन), सुपई मूर्मू (रामगढ़), शत्रुघन बेसरा (जामताड़ा), रामचरण किस्कू (पाकुड़-दामिन), हरिपद सिंह (जुगसलाई-पोटका दो), बाबूलाल टुडू (गोड्डा-दामिन), देवी सोरेन (दुमका), जगन्नाथ महतो कुरमी (सोनाहातू), पाल दयाल (रांची), मदन बेसरा (मसलिया), घानी राम संताल (घाटशिला-बहरागोड़ा दो), उजिंद्र लाल हो (खरसावां), देवचरण मांझी (चैनपुर), बलिया भगत (सिसई), मुकुंद राम तांती (घाटशिला-बहरागोड़ा एक), सुकरू उरांव (गुमला), अंकुरा हो (जायदा), अल्फ्रेड उरांव (सिमडेगा), चुका हेंब्रम (पोड़ैयाहाट-जरमुंडी) भैयाराम मुंडा (तमाड़), सुरेन्द्र नाथ बिरुआ (मंझारी), इग्नेस कुजुर (लोहरदगा), गोकुल महारा और जयपाल सिंह द्वारा हस्ताक्षर किया गया था। आंदोलन को सबसे बड़ा अघात तब पहुँचा जब १९६३ में जयपाल सिंह ने झारखंड पार्टी ने बिना अन्य सदस्यों से विचार विमर्श किये कांग्रेस में विलय कर दिया। इसकी प्रतिक्रिया स्वरुप छोटानागपुर क्षेत्र में कई छोटे छोटे झारखंड नामधारी दलों का उदय हुआ जो आमतौर पर विभिन्न समुदायों का प्रतिनिधित्व करती थी और विभिन्न मात्राओं में चुनावी सफलताएँ भी हासिल करती थीं।
झारखंड आंदोलन में ईसाई-आदिवासी और गैर-ईसाई आदिवासी समूहों में भी परस्पर प्रतिद्वंदिता की भावना रही है। इसका कुछ कारण शिक्षा का स्तर रहा है तो कुछ राजनैतिक। १९४०-१९६० के दशकों में गैर ईसाई आदिवासियों ने अपनी अलग सँस्थाओं का निर्माण किया और सरकार को प्रतिवेदन देकर ईसाई आदिवासी समुदायों के अनुसूचित जनजाति के दर्जे को समाप्त करने की माँग की, जिसके समर्थन और विरोध में काफी राजनैतिक गोलबंदी हुई। १९६७ में अखिल भारतीय झारखंड पार्टी का गठन किया गया, जिसमें बागुन सुंब्रुई अध्यक्ष और एनईर होरो महासचिव बने। इसके बाद, हुल झारखंड और बिरसा सेवा दल का भी गठन हुआ। इसी वर्ष, बिनोद बिहारी महतो द्वारा शिवाजी समाज नामक संगठन की स्थापना की गई। १९६९ में शिबू सोरेन द्वारा सोनत सांथाल समाज संगठन की स्थापना की।
बिनोद बिहारी महतो २५ साल तक कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य थे। उन्का अविश्वास अखिल भारतीय दलों से टूट चुका था। उन्होंने सोचा था कि कांग्रेस और जनसंघ सामंतवाद, पूंजीवादी के लिए थे, दलित और पिछड़ी जाति के लिए नहीं थे। इसलिए इन दलों के सदस्य के रूप में दलित और पिछड़ी जाति के लिए लड़ना मुश्किल है। फिर उन्होंने शिबू सोरेन के साथ मिलकर १९७२ में झारखंड मुक्ति मोर्चा बनाया। झारखंड मुक्ति मोर्चा के बैनर तले झारखंड अलग राज्य के लिए कई आंदोलन हुए। १९७८ में कोल्हान में जंगल आंदोलन हुआ, जिसमें देवेंद्र मांझी, शैलेन्द्र महतो, मछुआ गगराई, सूला पूर्ति, लाल सिंह मुंडा, भुवनेश्वर महतो और बहादुर उरांव शामिल थे। १९८६ में निर्मल महतो ने ऑल झारखण्ड स्टूडेंट्स यूनियन कि स्थापना की और झारखंड अलग राज्य के लिए कई आंदोलन किया।
१९९० में आजसू पार्टी द्वारा झारखंड एकता पदयात्रा निकाली गई, जिसने १५ दिनों में ६०० किलोमीटर पदयात्रा किया। अगस्त १९९५ में बिहार सरकार ने १८० सदस्यों वाले झारखंड स्वायत्तशासी परिषद की स्थापना की।
१९२८ - ईसाई आदिवासियों की राजनीतिक शाखा "उन्नति समाज" द्वारा आदिवासी राज्य का गठन करने के लिए साइमन कमीशन को ज्ञापन सौंपा
१९३९ - "आदिवासी महासभा" का गठन
१९४८ - खरसावां गोलीकांड
१९४९ - जयपाल सिंह मुंडा द्वारा झारखंड पार्टी का गठन
१९५१ - झारखंड पार्टी का विधानसभा में मुख्य विपक्षी दल बनना
१९५४ - झारखंड पार्टी तथा छोटानागपुर और संथाल परगना के विधायकों द्वारा झारखंड राज्य के लिए राज्य पुनर्गठन आयोग को एक ज्ञापन सौंपा
१९६३ - झारखंड पार्टी का कांग्रेस में विलय
१९६७ - अखिल भारतीय झारखंड पार्टी का गठन; बागुन सुंब्रुई अध्यक्ष और एनईर होरो महासचिव बने
१९६७ - हुल झारखंड का गठन
१९६७ - बिरसा सेवा दल का गठन; ललित कुजुर अध्यक्ष
१९६७ - बिनोद बिहारी महतो द्वारा "शिवाजी समाज" की स्थापना
१९६९ - शिबू सोरेन द्वारा "सोनत सांथाल समाज" की स्थापना
१९७२ - बिनोद बिहारी महतो, शिबू सोरेन और ए.के. रॉय द्वारा झारखंड मुक्ति मोर्चा का गठन
१९८० - गुआ गोलीकांड
१९८६ - निर्मल महतो द्वारा ऑल झारखण्ड स्टूडेंट्स यूनियन का गठन
१९८८ - डॉ.बीपी केशरी द्वारा झारखंड राज्य बनाने के लिए ज्ञापन
१९८८ - भारतीय जनता पार्टी का "वनांचल" राज्य की मांग
१९८९ - झारखंड राज्य मामले पर समिति का गठन
१९९१ - राम दयाल मुंडा द्वारा "झारखंड पीपुल्स पार्टी" का गठन
१९९४ - झारखंड क्षेत्र स्वायत्त परिषद विधेयक बिहार विधानसभा में पारित
१९९८ - न्यायमूर्ति लाल पिंगले नाथ शाहदेव का आंदोलन
१९९८ - 'ऑल पार्टी सेपरेट स्टेट फॉर्मेशन कमेटी' का गठन; झारखंड एक्ट पर वोटिंग
२००० - झारखंड अलग राज्य का गठन
झारखंड का इतिहास |
भीष्म अथवा भीष्म पितामह महाभारत के सबसे महत्वपूर्ण पात्रों में से एक थे। भीष्म महाराजा शान्तनु के पुत्र थे महाराज शांतनु की पटरानी और नदी गंगा की कोख से उत्पन्न हुए थे | उनका मूल नाम देवव्रत था। भीष्म में अपने पिता शान्तनु का सत्यवती से विवाह करवाने के लिए आजीवन ब्रह्मचर्य का पालन करने की भीषण प्रतिज्ञा की थी | अपने पिता के लिए इस तरह की पितृभक्ति देख उनके पिता ने उन्हें इच्छा मृत्यु का वरदान दे दिया था | इनके दूसरे नाम गाँगेय, शांतनव, नदीज, तालकेतु आदि हैं।
इन्हें अपनी उस भीष्म प्रतिज्ञा के लिये भी सर्वाधिक जाना जाता है जिसके कारण इन्होंने राजा बन सकने के बावजूद आजीवन हस्तिनापुर के सिंहासन के संरक्षक की भूमिका निभाई। इन्होंने आजीवन विवाह नहीं किया व ब्रह्मचारी रहे। इसी प्रतिज्ञा का पालन करते हुए महाभारत में उन्होने कौरवों की तरफ से युद्ध में भाग लिया था। इन्हें इच्छा मृत्यु का वरदान था। यह कौरवों के पहले प्रधान सेनापति थे। जो सर्वाधिक दस दिनो तक कौरवों के प्रधान सेनापति रहे थे। कहा जाता है कि द्रोपदी ने शरशय्या पर लेटे हुए भीष्म पितामह से पूछा कि उनकी आंखों के सामने चीर हरण हो रहा था और वे चुप रहे, तब भीष्म पितामह ने जवाब दिया कि उस समय मै कौरवों का नमक खाता था इस वजह से मुझे मेरी आँखों के सामने एक स्त्री के चीरहरण का कोई फर्क नही पड़ा; परंतु अब अर्जुन ने बाणों की वर्षा करके मेरा कौरवों के नमक ग्रहण से बना रक्त निकाल दिया है, अतः अब मुझे अपने पापों का ज्ञान हो रहा है अतः मुझे क्षमा करें द्रौपदी। महाभारत युद्ध खत्म होने पर इन्होंने गंगा किनारे इच्छा मृत्यु ली।
पूर्व जन्म में वसु थे भीष्म
भीष्म के नाम से प्रसिद्ध देवव्रत पूर्व जन्म में एक वसु थे | एक बार कुछ वसु अपनी पत्नियों के साथ मेरु पर्वत पर भ्रमण करने गए | उस पर्वत पर महर्षि वशिष्ठ जी का आश्रम था | उस समय महर्षि वशिष्ठ जी आपने आश्रम में नहीं थे लेकिन वहां उनकी प्रिय गायें कामधेनु की बछड़ी नंदिनी गाये बंधी थी | उस गायें को देखकर द्यौ नाम के एक वसु की पत्नी उस गायें को लेने की जिद करने लगी | अपनी पत्नी की बात मानकर द्यौ वसु ने महर्षि वशिष्ठ जी के आश्रम से उस गायें को चुरा लिया | जब महर्षि वशिष्ठ जी वापिस आए तो उन्होंने दिव्य दृष्टि से पूरी घटना को देख लिया |
महर्षि वशिष्ठ जी वसुओं के इस कार्य को देखकर बहुत क्रोधित हुए और उन्होंने वसुओं को श्राप दे दिया कि उन्हें मनुष्य रूप में पृथ्वी पर जन्म लेना पड़ेगा | इसके बाद सभी वसु वशिष्ठ जी से माफ़ी मांगने लगे | इस पर महर्षि वशिष्ठ जी ने बाकी वसुओं को माफ़ कर दिया और कहा की उन्हें जल्दी ही मनुष्य जन्म से मुक्ति मिल जाएगी लेकिन द्यौ नाम के वसु को लम्बे समय संसार में रहना होगा और दुःख भोगने पड़ेंगे |
परशुराम के साथ युद्ध
भगवान परशुराम के शिष्य देवव्रत अपने समय के बहुत ही विद्वान व शक्तिशाली पुरुष थे। महाभारत के अनुसार हर तरह की शस्त्र विद्या के ज्ञानी और ब्रह्मचारी देवव्रत को किसी भी तरह के युद्ध में हरा पाना असंभव था। उन्हें संभवत: उनके गुरु परशुराम ही हरा सकते थे लेकिन इन दोनों के बीच हुई युद्ध में परशुराम जी की हार हुई और दो अति शक्तिशाली योद्धाओं के लड़ने से होने वाले नुकसान को आंकते हुए इसे भगवान शिव द्वारा रोक दिया गया।
शांतनु से सत्यवती का विवाह भीष्म की ही विकट प्रतिज्ञा के कारण संभव हो सका था। भीष्म ने आजीवन ब्रह्मचारी रहने और गद्दी न लेने का वचन दिया और सत्यवती के दोनों पुत्रों को राज्य देकर उनकी बराबर रक्षा करते रहे। दोनों के नि:संतान रहने पर उनके विधवाओं की रक्षा भीष्म ने की, परशुराम से युद्ध किया, उग्रायुद्ध का बध किया। फिर सत्यवती के पूर्वपुत्र कृष्ण द्वैपायन द्वारा उन दोनों की पत्नियों से पांडु एवं धृतराष्ट्र का जन्म कराया। इनके बचपन में भीष्म ने हस्तिनापुर का राज्य संभाला और आगे चलकर कौरवों तथा पांडवों की शिक्षा का प्रबंध किया। महाभारत छिड़ने पर उन्होंने दोनों दलों को बहुत समझाया और अंत में कौरवों के सेनापति बने। युद्ध के अनेक नियम बनाने के अतिरिक्त इन्होंने अर्जुन से न लड़ने की भी शर्त रखी थी, पर महाभारत के दसवें दिन इन्हें अर्जुन पर बाण चलाना पड़ा। शिखंडी को सामने कर अर्जुन ने बाणों से इनका शरीर छेद डाला। बाणों की शय्या पर ५८ दिन तक पड़े पड़े इन्होंने अनेक उपदेश दिए। अपनी तपस्या और त्याग के ही कारण ये अब तक भीष्म पितामह कहलाते हैं। इन्हें ही सबसे पहले तर्पण तथा जलदान दिया जाता है।
इन्हें भी देखें
भीष्म का प्राण त्याग
महाभारत के पात्र |
कीव या कियीव (, ; ) रूस के पश्चिम में स्थित देश यूक्रेन की राजधानी और सबसे अधिक आबादी वाला शहर है। यह उत्तर-मध्य यूक्रेन में द्नीपर नदी के किनारे स्थित है। १ जनवरी २0२१ तक, इसकी जनसंख्या २,96२,१80 थी, जिससे कीव यूरोप का सातवां सबसे अधिक आबादी वाला शहर बन गया।कीव पूर्वी यूरोप का एक महत्वपूर्ण औद्योगिक, वैज्ञानिक, शैक्षिक और सांस्कृतिक केंद्र है। यह कई उच्च तकनीक उद्योगों, उच्च शिक्षा संस्थानों और ऐतिहासिक स्थलों का घर है। शहर में सार्वजनिक परिवहन और बुनियादी अर्थव्यवस्था की एक व्यापक व्यवस्था है, जिसमें कीव मेट्रो भी शामिल है।
यह कहा जाता है कि शहर का नाम "क्यी" के नाम पर पड़ा है, जो इसके चार महान संस्थापकों में से एक हैं। अपने इतिहास के दौरान, कीव पूर्वी यूरोप के सबसे पुराने शहरों में से एक, प्रमुखता और अस्पष्टता के कई चरणों से गुज़रा है। अपने इतिहास के दौरान, कीव, पूर्वी यूरोप के सबसे पुराने शहरों में से एक, प्रमुखता और अस्पष्टता के कई चरणों से गुज़रा। यह शहर संभवत: ५वीं शताब्दी के प्रारंभ में एक वाणिज्यिक केंद्र के रूप में अस्तित्व में था। स्कैंडिनेविया और कॉन्स्टेंटिनोपल के बीच के एक महान व्यापार मार्ग पर एक स्लाविक रिहायशी क्षेत्र, कीव खज़ारों की तब तक एक सहायक नदी थी, जब तक कि उसपर ९वीं शताब्दी के मध्य में वरंगियन ( वाइकिंग्स ) द्वारा कब्जा नहीं किया गया था। वारंगियन शासन के तहत, शहर कीवन रस की राजधानी बन गया, जो पहला पूर्वी स्लाव राज्य था। १२४० में मंगोल आक्रमणों के दौरान पूरी तरह से नष्ट हो गया, शहर भविष्य में कई शताब्दियों तक अधिकांशत: प्रभावहीन रहा। यह अपने शक्तिशाली पड़ोसियों, पहले लिथुआनिया, फिर पोलैंड और अंततः रूस द्वारा नियंत्रित क्षेत्रों के बाहरी इलाके में सीमांत महत्व की एक प्रांतीय राजधानी रहा। 1९वीं सदी के अंत में रूसी साम्राज्य की औद्योगिक क्रांति के दौरान यह शहर फिर से समृद्ध हुआ। 1९18 में, यूक्रेनी पीपुल्स रिपब्लिक द्वारा सोवियत रूस से स्वतंत्रता की घोषणा के बाद, कीव इसकी राजधानी बन गया। 1९21 के बाद से, कीव सोवियत यूक्रेन का एक शहर था, जिसे लाल सेना द्वारा घोषित किया गया था, और 1९34 से, कीव इसकी राजधानी थी। द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान शहर लगभग पूरी तरह से बर्बाद हो गया था, लेकिन युद्ध के बाद के वर्षों में जल्द ही फिर से ठीक हो गया और सोवियत संघ का तीसरा सबसे बड़ा शहर बना रहा।1९९1 में सोवियत संघ के पतन और यूक्रेनी स्वतंत्रता के बाद, कीव यूक्रेन की राजधानी बना रहा और देश के अन्य क्षेत्रों से जातीय यूक्रेनी प्रवासियों की लगातार आमद का अनुभव किया। देश के बाजार अर्थव्यवस्था और चुनावी लोकतंत्र में परिवर्तन के दौरान, कीव यूक्रेन का सबसे बड़ा और सबसे धनी शहर बना हुआ है। सोवियत के पतन के बाद इसका शस्त्र-आश्रित औद्योगिक उत्पादन गिर गया, विज्ञान और प्रौद्योगिकी पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा, लेकिन सेवाओं और वित्त जैसे अर्थव्यवस्था के नए क्षेत्रों ने वेतन और आधारभूत संरचना में निवेश से कीव विकसित होता रहा, साथ ही आवास और शहरी विकास के लिए निरंतर वित्त पोषण प्रदान किया। कीव यूक्रेन के सबसे पश्चिमी समर्थक क्षेत्र के रूप में उभरा; यहाँ चुनाव के दौरान यूरोपीय संघ के साथ कड़े एकीकरण की वकालत करने वाली पार्टियों का बोलबाला रहा है।
यूक्रेनी नाम है, यूक्रेनी सिरिलिक वर्णमाला में लिखा गया है, और आमतौर पर लैटिन अक्षरों (या रोमनकृत ) में क्यीव के रूप में लिखा जाता है।२०वीं सदी की शुरुआत में वर्णमाला के मानकीकरण से पहले, नाम की वर्तनी , , और भी थी, अब-अप्रचलित अक्षर यात के साथ। १४ वीं और १५ वीं शताब्दी से पुरानी यूक्रेनी वर्तनी नाममात्र * थी, लेकिन विभिन्न सत्यापित वर्तनी में ( जीन। ), और (एक . ), या ( इंश्य्. ), , , , , या ( लोक. ) शामिल हैं।यह नाम ओल्ड ईस्ट स्लाविक क्य्जेव ( क) से निकला है। लॉरेंटियन कोडेक्स और नोवगोरोड क्रॉनिकल जैसे पुराने पूर्व स्लाव इतिहास ने वर्तनी , , या का इस्तेमाल किया। यह सबसे अधिक संभावना है कि प्रोटो-स्लाविक नाम * किजेव गोर्डो (शाब्दिक रूप से, "की का महल"), से लिया गया है और यह शहर के प्रसिद्ध नामांकित संस्थापक ( ), ) से जुड़ा है।कीव (क्यीव) शहर के लिए रोमनकृत आधिकारिक यूक्रेनी नाम है, और इसका उपयोग विधायी और आधिकारिक कृत्यों के लिए किया जाता है। कीव (क्यीव) शहर का पारंपरिक अंग्रेजी नाम है, लेकिन रूसी नाम से इसकी ऐतिहासिक व्युत्पत्ति के कारण, रूस-यूक्रेनी युद्ध के फैलने के बाद कीव कई पश्चिमी मीडिया में बदनाम हो गया।इतिहास में इस शहर को विभिन्न नामों से जाना जाता था। नॉर्स कथाओं में यह कनुगर था या कनुगर, अर्थात कीवंस का शहर (ओल्ड ईस्ट स्लेविक से ), जो आधुनिक आइसलैंडिक में अभी भी उपयोग में है । शायद शहर का नाम रखने वाली सबसे पुरानी मूल पांडुलिपि कीवान पत्र है, जिसे शहर के यहूदी समुदाय के प्रतिनिधियों द्वारा लगभग ९३० ई. में लिखा गया था। एक लंबे इतिहास वाले एक प्रमुख शहर के रूप में, इसके अंग्रेजी नाम का क्रमिक विकास होता रहा। प्रारंभिक अंग्रेजी स्रोतों ने इस शब्द को किउ, क्यो, किऊ, किओविया के रूप में लिखा है। क्षेत्र के सबसे पुराने अंग्रेजी मानचित्रों में से एक पर, रूस , जो ऑर्टेलियस (लंदन, १५70) द्वारा प्रकाशित हुआ था, शहर के नाम की वर्तनी कीउ (कीओ) है। गिलाउम डी ब्यूप्लान द्वारा १६५० के नक्शे पर, शहर का नाम किओव है, और इस क्षेत्र का नाम क्लोविया कोविया.रखा गया था। जोसेफ मार्शल (लंदन, १७७२) द्वारा ट्रेवल्स पुस्तक में, शहर को किओविया (किओविया) कहा जाता है।अंग्रेजी में, कीव १८०४ की शुरुआत में जॉन कैरी के "यूरोप का नया नक्शा, नवीनतम अधिकारियों से" और मैरी होल्डरनेस के १८२३ के यात्रा वृतांत न्यू रूस: जर्नी फ्रॉम रीगा टू द क्रीमिया में कीव के माध्यम से मुद्रन में दिखाई दिया। ऑक्सफोर्ड इंग्लिश डिक्शनरी ने १८८३ में प्रकाशित एक उद्धरण में कीव (कीव) और २०18 में काईव (क्यीव) को शामिल किया।नाम का यूक्रेनी संस्करण, काईव (क्यीव), १८८३ में प्रकाशित पोलैंड साम्राज्य के भौगोलिक शब्दकोश के खंड ४ में दिखाई देता है।
यूक्रेन के १९९१ में सोवियत संघ से अलग होने के बाद, यूक्रेनी सरकार ने अक्टूबर १९९५ में विधायी और आधिकारिक कृत्यों के लिए लैटिन वर्णमाला में भौगोलिक नामों के लिप्यंतरण के लिए राष्ट्रीय नियम पेश किए, जिसके अनुसार यूक्रेनी नाम को (क्यीव) कीव के रूप में रोमनकृत है। ये नियम स्थान के नाम और पते के साथ-साथ पासपोर्ट में व्यक्तिगत नाम, सड़क के संकेत आदि के लिए लागू होते हैं। २०१८ में, यूक्रेनी विदेश मंत्रालय ने "पुराने, सोवियत-युग" स्थान-नामों के स्थान पर, देशों और संगठनों द्वारा आधिकारिक यूक्रेनी वर्तनी के उपयोग को बढ़ावा देने के लिए #कॉरेक्टुआ, नामक एक ऑनलाइन अभियान शुरू किया।अंग्रेजी भाषा के स्रोतों में उपयोग किए जाने वाले वैकल्पिक रोमानीकरण में (क्य्व) क्यूव , (ग्रंथ सूची सूचीकरण में प्रयुक्त एएलए-एलसी रोमानीकरण के अनुसार), (क्य्जीव) काजीव (भाषाविज्ञान में प्रयुक्त विद्वानों के लिप्यंतरण), और (क्यिव) कीव (१९६५ बीजीएन /पीसीजीएन लिप्यंतरण मानक) शामिल हैं।अमेरिकी मीडिया संगठन एनपीआर ने जनवरी २०२२ में स्थानीय आबादी के इतिहास और पहचान के पक्ष में, यूक्रेनी के ज्यादा समान (क्यीव) काईव के ऑन-एयर उच्चारण को अपनाया।
कीव के क्षेत्र में पहले ज्ञात मानव वहां पुरापाषाण काल (पाषाण युग) के बाद के काल में रहते थे। कांस्य युग के दौरान कीव के आसपास की आबादी तथाकथित ट्रिपिलियन संस्कृति का हिस्सा बन गई, जैसा कि क्षेत्र में मिली उस संस्कृति की कलाकृतियों से स्पष्ट है। प्रारंभिक लौह युग के दौरान कुछ जनजातियाँ कीव के आसपास बस गईं जो भूमि की खेती, खेती और सीथियन और उत्तरी काला सागर तट के प्राचीन राज्यों के साथ व्यापार करती थीं। दूसरी से चौथी शताब्दी के रोमन सिक्कों की खोज से पता चलता है कि रोमन साम्राज्य के पूर्वी प्रांतों के साथ व्यापारिक संबंध थे। ज़रुबिंट्सी संस्कृति के लोगों को प्राचीन स्लावों का प्रत्यक्ष पूर्वज माना जाता है जिन्होंने बाद में कीव की स्थापना की। कीव के आसपास के क्षेत्र के उल्लेखनीय पुरातत्त्वविदों में विकेंटी ख्वॉयका शामिल हैं।शहर की स्थापना के समय विद्वानों ने बहस जारी रखी: पारंपरिक स्थापना तिथि ४८२ ईस्वी है, इसलिए शहर ने १९८२ में अपनी १,५०० वीं वर्षगांठ मनाई। पुरातत्व संबंधी आंकड़े छठी या सातवीं शताब्दी में एक स्थापना का संकेत देते हैं, कुछ शोधकर्ताओं ने इसका स्थापनाकाल ९वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में पाया है।
शहर की उत्पत्ति के कई पौराणिक कहानियाँ हैं। एक कहानी स्लाव जनजाति (पूर्वी पोलन) के सदस्यों के बारे में बताती है, जिसमें भाइयों क्यी (सबसे बड़े, जिनके नाम पर शहर का नाम रखा गया था) श्केक और खोरिव, और उनकी बहन लाइबिड हैं जिन्होंने शहर की स्थापना की ( प्राथमिक क्रॉनिकल देखें)। एक अन्य किंवदंती में कहा गया है कि सेंट एंड्रयू पहली शताब्दी में इस क्षेत्र से गुजरे थे। जहां अब शहर है, उन्होंने एक क्रॉस बनाया, जहां बाद में एक गिरिजाघर बनाया गया था। मध्य युग के बाद से सेंट माइकल की एक छवि ने शहर के साथ-साथ डची का भी प्रतिनिधित्व किया है।
उस समय से संबंधित बहुत कम ऐतिहासिक साक्ष्य हैं जब शहर की स्थापना हुई थी। ६ वीं शताब्दी से इस क्षेत्र में बिखरी हुई स्लाव बस्तियों का अस्तित्व था, लेकिन यह स्पष्ट नहीं है कि उनमें से कोई बाद में शहर में विकसित हुआ या नहीं। टॉलेमी दुनिया के नक्शे पर बोरीस्थनीज की मध्य-धारा के साथ संकेतित कई बस्तियां हैं, जिनमें से अज़ागेरियम है, जिसे कुछ इतिहासकार कीव के पूर्ववर्ती मानते हैं।हालांकि, अलेक्जेंडर मैकबीन के प्राचीन भूगोल के १७७३ के शब्दकोश के अनुसार, यह समझौता आधुनिक शहर चेरनोबिल से मेल खाता है। अज़ागरियम के ठीक दक्षिण में, एक और बस्ती है, अमाडोका, जिसे अमादोसी लोगों की राजधानी के रूप में माना जाता है जो पश्चिम में अमाडोका के दलदल और पूर्व में अमाडोका पहाड़ों के बीच के क्षेत्र में रहते हैं।इतिहास में उल्लेखित कीव का एक अन्य नाम, जिसकी उत्पत्ति पूरी तरह से स्पष्ट नहीं है, संबत है, जिसका स्पष्ट रूप से खजर साम्राज्य से कुछ लेना-देना है। द प्राइमरी क्रॉनिकल का कहना है कि कीव के निवासियों ने आस्कॉल्ड को बताया, "तीन भाई क्यी, श्केक और खोरीव थे। उन्होंने इस शहर की स्थापना की और मर गए, और अब हम रह रहे हैं और उनके रिश्तेदारों खजरों को कर दे रहे हैं"। अपनी पुस्तक डी एडमिनिस्ट्रांडो इम्पीरियो में, कॉन्स्टेंटाइन पोर्फिरोजेनिटस ने छोटे-कार्गो नावों के एक कारवां का उल्लेख किया है जो सालाना इकट्ठा होते हैं, और लिखते हैं, "वे नीपर नदी के नीचे आते हैं और कीव (किओवा) के मजबूत बिंदु पर इकट्ठा होते हैं, जिसे संबात भी कहा जाता है"।कम से कम तीन अरबी भाषी १०वीं शताब्दी के भूगोलवेत्ता जिन्होंने इस क्षेत्र की यात्रा की, ज़ांबाट शहर का उल्लेख रूस के मुख्य शहर के रूप में किया। उनमें से अहमद इब्न रुस्तह, अबू सईद गरदेज़ी और हुदुद अल-आलम के लेखक हैं। उन लेखकों के ग्रंथों की खोज रूसी प्राच्यविद् अलेक्जेंडर तुमांस्की ने की थी। संबत की व्युत्पत्ति का तर्क कई इतिहासकारों द्वारा दिया गया है, जिनमें ग्रिगोरी इलिन्स्की, निकोले करमज़िन, जान पोटोकी, निकोले लैम्बिन, जोआचिम लेलेवेल, गुसब्रांडुर विगफसन शामिल हैं । इतिहासकार जूलियस ब्रुत्स्कस ने अपने काम "द खजर ओरिजिन ऑफ एंशिएंट कीव" में परिकल्पना की है कि संबत और कीव दोनों क्रमशः खजर मूल के हैं जिसका अर्थ है "पहाड़ी किला" और "निचला समझौता"। ब्रुत्ज़्कुस का दावा है कि संबत कीव नहीं है, बल्कि वाइसहोरोड (हाई सिटी) है जो पास में स्थित है।प्राथमिक कथाएँ (प्राइमरी क्रॉनिकल्स) बताती हैं कि ९वीं या १०वीं शताब्दी की शुरुआत के दौरान किसी समय आस्कोल्ड और डिर, जो वाइकिंग या वारंगियन वंश के हो सकते थे, ने कीव में शासन किया। ८८२ में नोवगोरोड के ओलेग द्वारा उनकी हत्या कर दी गई थी, लेकिन कुछ इतिहासकार, जैसे ओमेलजन प्रित्सक और कॉन्स्टेंटाइन जुकरमैन, विवाद करते हैं कि खजर शासन ९20 के दशक के अंत तक जारी रहा (उल्लेखनीय ऐतिहासिक दस्तावेजों में कीवान पत्र और शेचटर पत्र हैं)।अन्य इतिहासकारों का मानान है कि कुछ खजर जनजातियों के साथ कार्पेथियन बेसिन में प्रवास करने से पहले, मग्यार जनजातियों ने ८४० और ८७८ के बीच इस शहर पर शासन किया। प्राथमिक कथाओं में हंगरी लोगों के कीव से आगे जाने का भी उल्लेख है। आज भी कीव में एक जगह मौजूद है जिसे " उहोर्स्के यूरोचिश " (हंगेरियाई स्थान) के नाम से जाना जाता है, जिसे आस्कोल्ड्स ग्रेव के नाम से जाना जाता है।
कीव शहर वरंगियन और यूनानियों के बीच व्यापार मार्ग पर खड़ा था। ९६८ में खानाबदोश पेचनेग्स ने हमला किया और फिर शहर को घेर लिया। १००० ईस्वी तक शहर की आबादी ४५,००० थी।मार्च ११६९ में, व्लादिमीर- सुज़ाल के ग्रैंड प्रिंस एंड्री बोगोलीबुस्की ने पुराने शहर और राजकुमार के हॉल को खंडहर में छोड़कर कीव को बर्खास्त कर दिया। उन्होंने धार्मिक कलाकृति के कई टुकड़े - व्लादिमीर आइकन के थियोटोकोस सहित - पास के विशोरोड से लिए। १२०३ में, राजकुमार रुरिक रोस्टिस्लाविच और उनके किपचक सहयोगियों ने कीव पर कब्जा कर लिया और जला दिया। १२३० के दशक में, विभिन्न रूसी राजकुमारों द्वारा शहर को कई बार घेर लिया गया और तबाह कर दिया गया। शहर इन हमलों से उबर नहीं पाया था, जब १२४० में, बाटू खान के नेतृत्व में रूस के मंगोल आक्रमण ने कीव के विनाश को पूरा किया।इन घटनाओं का शहर के भविष्य और पूर्वी स्लाव सभ्यता पर गहरा प्रभाव पड़ा। बोगोलीबुस्की की लूट से पहले, कीव की दुनिया के सबसे बड़े शहरों में से एक के रूप में प्रतिष्ठा थी, जिसकी आबादी १२ वीं शताब्दी की शुरुआत में १००,००० से अधिक थी।१३२० के दशक की शुरुआत में, ग्रैंड ड्यूक गेडिमिनस के नेतृत्व में एक लिथुआनियाई सेना ने इरपेन नदी पर लड़ाई में कीव के स्टानिस्लाव के नेतृत्व में एक स्लाव सेना को हराया और शहर पर विजय प्राप्त की। टाटर्स, जिन्होंने कीव पर भी दावा किया, ने १३२४-१३२५ में जवाबी कार्रवाई की, इसलिए जबकि कीव पर लिथुआनियाई राजकुमार का शासन था, उसे गोल्डन होर्डे को श्रद्धांजलि देनी पड़ी। अंत में, १३६२ में ब्लू वाटर्स की लड़ाई के परिणामस्वरूप, लिथुआनिया के ग्रैंड ड्यूक, अल्गिरदास ने कीव और आसपास के क्षेत्रों को लिथुआनिया के ग्रैंड डची में शामिल किया। १४८२ में, क्रीमियन टाटर्स ने कीव के अधिकांश हिस्से को तहस नहस कर दिया और जला दिया।
१५६९ ( ल्यूबेल्स्की संघ) के साथ, जब पोलिश-लिथुआनियाई राष्ट्रमंडल की स्थापना हुई, कीव क्षेत्र ( पोडोलिया, वोल्हिनिया और पोडलाचिया ) की लिथुआनियाई-नियंत्रित भूमि को लिथुआनिया के ग्रैंड डची से राज्य के क्राउन में स्थानांतरित कर दिया गया। पोलैंड और कीव कीव वोइवोडीशिप की राजधानी बन गए हादियाच की १६५८ संधि ने पोलिश-लिथुआनियाई-रूथेनियन राष्ट्रमंडल के कीव को रूस के ग्रैंड डची की राजधानी बनने की परिकल्पना की थी, लेकिन संधि का यह प्रावधान कभी भी लागू नहीं हुआ।पेरेयास्लाव की १६५४ की संधि के बाद से रूसी सैनिकों द्वारा कब्जा कर लिया गया, कीव १६६७ से एंड्रसोवो के युद्धविराम के बाद रूस के साम्राज्य का हिस्सा बन गया और एक सीमा तक स्वायत्त भी बना रहा। कीव से संबंधित पोलिश-रूसी संधियों में से किसी की भी कभी पुष्टि नहीं की गई है। रूसी साम्राज्य में, कीव एक प्राथमिक ईसाई केंद्र था, जो तीर्थयात्रियों को आकर्षित करता था, और साम्राज्य के कई सबसे महत्वपूर्ण धार्मिक आंकड़ों का पालना था, लेकिन १९वीं शताब्दी तक, शहर का व्यावसायिक महत्व मामूली रहा।
१८३४ में, रूसी सरकार ने सेंट व्लादिमीर विश्वविद्यालय की स्थापना की, जिसे अब यूक्रेनी कवि तारास शेवचेंको (१८१४-१८६१) के बाद कीव का तारास शेवचेंको राष्ट्रीय विश्वविद्यालय कहा जाता है। (शेवचेंको ने भूगोल विभाग के लिए एक क्षेत्र शोधकर्ता और संपादक के रूप में काम किया)। सेंट व्लादिमीर विश्वविद्यालय के चिकित्सा संकाय, सोवियत काल के दौरान १९१९-१९२१ में एक स्वतंत्र संस्थान में अलग हो गए, १९९५ में बोगोमोलेट्स नेशनल मेडिकल यूनिवर्सिटी बन गए।
१९वीं शताब्दी के अंत में रूसी औद्योगिक क्रांति के दौरान, कीव रूसी साम्राज्य का एक महत्वपूर्ण व्यापार और परिवहन केंद्र बन गया, रेलवे और द्नीपर नदी पर चीनी और अनाज निर्यात में विशेषज्ञता हासिल की। १९00 तक, शहर २५०,००० की आबादी वाला एक महत्वपूर्ण औद्योगिक केंद्र भी बन गया था। उस अवधि के स्थलों में रेलवे बुनियादी ढांचा, कई शैक्षिक और सांस्कृतिक सुविधाओं की नींव, और उल्लेखनीय स्थापत्य स्मारक (ज्यादातर व्यापारी-उन्मुख) शामिल हैं। १८९२ में, रूसी साम्राज्य की पहली इलेक्ट्रिक ट्राम लाइन कीव (दुनिया में तीसरी) में चलने लगी।कीव १९वीं सदी के अंत में रूसी साम्राज्य में औद्योगिक क्रांति के दौरान समृद्ध हुआ, जब यह साम्राज्य का तीसरा सबसे महत्वपूर्ण शहर और इसके दक्षिण-पश्चिम में वाणिज्य का प्रमुख केंद्र बन गया। १९17 की रूसी क्रांति के बाद की अशांत अवधि में, कीव एक के बाद आए कई यूक्रेनी राज्यों की राजधानी बना और कई संघर्षों के बीच में फंस गया: प्रथम विश्व युद्ध, जिसके दौरान जर्मन सैनिकों ने २ मार्च १९18 से नवंबर १९18 तक इस पर कब्जा कर लिया, रूसी नागरिक १९17 से १९२२ का युद्ध और १९१९-१९२1 का पोलिश-सोवियत युद्ध। १९१९ के अंतिम तीन महीनों के दौरान, कीव पर रुक-रुक कर श्वेत सेना का नियंत्रण रहा। १९18 के अंत से अगस्त १९२0 तक कीव ने सोलह बार हाथ बदले।
१९२१ से १९९१ तक, शहर यूक्रेनी सोवियत समाजवादी गणराज्य का हिस्सा बना, जो १९२२ में सोवियत संघ का एक संस्थापक गणराज्य बन गया। युद्ध के बीच की अवधि के दौरान सोवियत यूक्रेन में हुई प्रमुख घटनाओं ने कीव को प्रभावित किया: १९२० के उक्रेनीकरण के साथ-साथ ग्रामीण उक्रेनोफोन आबादी के प्रवास ने रूसोफोन शहर को यूक्रेनी-भाषी बना दिया और शहर में यूक्रेनी सांस्कृतिक जीवन के विकास को बढ़ावा दिया; १९२० के दशक के उत्तरार्ध में शुरू हुए सोवियत औद्योगीकरण ने शहर को एक प्रमुख औद्योगिक, तकनीकी और वैज्ञानिक केंद्र में बदल दिया, जो वाणिज्य और धर्म का एक पूर्व केंद्र था; १९३२-१९३३ महान अकाल ने प्रवासी आबादी के उस हिस्से को तबाह कर दिया जो राशन कार्ड के लिए पंजीकृत नहीं थे; और जोसफ स्टालिन के १९३७-१९३८ के महान शुद्धिकरण ने शहर के बुद्धिजीवियों को लगभग समाप्त कर दिया१९३४ में, कीव सोवियत यूक्रेन की राजधानी बना। सोवियत औद्योगीकरण के वर्षों के दौरान शहर में फिर से उछाल आया क्योंकि इसकी आबादी तेजी से बढ़ी और कई औद्योगिक दिग्गज स्थापित हुए, जिनमें से कुछ आज भी मौजूद हैं।
द्वितीय विश्व युद्ध में, शहर को फिर से महत्वपूर्ण क्षति हुई, और नाजी जर्मनी ने १९ सितंबर १९41 से ६ नवंबर १९43 तक इस पर कब्जा कर लिया। १९41 में कीव के महान घेराव युद्ध में धुरी बलों ने ६00,००० से अधिक सोवियत सैनिकों को मार डाला या कब्जा कर लिया। पकड़े गए अधिकांश लोग कभी जीवित नहीं लौटे। वेहरमाच के शहर पर कब्जा करने के कुछ ही समय बाद, एनकेवीडी अधिकारियों की एक टीम, जो छिपी हुई थी ने शहर की मुख्य सड़क, ख्रेशचैटिक पर अधिकांश इमारतों को डाइनामाइट से उडा दिया, जहां जर्मन सैन्य और नागरिक अधिकारियों ने अधिकांश इमारतों पर कब्जा कर लिया था; इमारतें दिनों तक जलती रहीं और २५,००० लोग बेघर हो गए।कथित तौर पर एनकेवीडी की कार्रवाइयों के जवाब में, जर्मनों ने उन सभी स्थानीय यहूदियों को घेर लिया, जो उन्हें मिल सकते थे, लगभग ३४,०००, और २९ और ३० सितंबर १९41 को कीव के बाबी यार में उनका नरसंहार किया। इसके बाद के महीनों में, हजारों और लोगों को बाबी यार ले जाया गया जहां उन्हें गोली मार दी गई। यह अनुमान लगाया गया है कि द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान जर्मनों ने बाबी यार में विभिन्न जातीय समूहों के १००,००० से अधिक लोगों की हत्या कर दी थी, जिनमें ज्यादातर नागरिक थे।
युद्ध के बाद के वर्षों में कीव आर्थिक रूप से ठीक होता गया और एक बार फिर सोवियत संघ का तीसरा सबसे महत्वपूर्ण शहर बन गया। १९८६ में चेरनोबिल परमाणु ऊर्जा संयंत्र में विनाशकारी दुर्घटना शहर के उत्तर में केवल हुई। हालांकि, उस समय दक्षिण की ओर चल रही हवा ने अधिकांश रेडियोधर्मी मलबे को कीव से दूर उड़ा दिया।सोवियत संघ के पतन के दौरान यूक्रेनी संसद ने २४ अगस्त १९९१ को शहर में यूक्रेन की स्वतंत्रता की घोषणा की घोषणा की । २००४-२००५ में, ऑरेंज क्रांति के समर्थन में, शहर में उस समय तक सोवियत संघ के बाद के सबसे बड़े सार्वजनिक प्रदर्शन हुए। नवंबर २०१३ से फरवरी २०१४ तक, केंद्रीय कीव यूरोमैदान का प्राथमिक स्थान बन गया।
भौगोलिक रूप से, कीव पोलेसिया वुडलैंड पारिस्थितिक क्षेत्र की सीमा पर स्थित है, जो यूरोपीय मिश्रित जंगल क्षेत्र का एक हिस्सा है, और पूर्वी यूरोपीय वन स्टेपी बायोम है। हालांकि, शहर का अनूठा परिदृश्य इसे आसपास के क्षेत्र से अलग करता है। कीव पूरी तरह से कीव ओब्लास्ट से घिरा हुआ है।मूल रूप से पश्चिमी तट पर, आज कीव नीपर के दोनों किनारों पर स्थित है, जो शहर के बीच से काला सागर की ओर दक्षिण की ओर बहती है। शहर का पुराना और ऊँचा पश्चिमी भाग कई जंगली पहाड़ियों ( कीव हिल्स ) पर स्थित है, जिसमें खड्ड और छोटी नदियाँ हैं। कीव की भौगोलिक राहत ने पोडिल (निचला मतलब), पेचेर्सक (गुफाएं), और उज्विज़ (एक खड़ी सड़क, "वंश") जैसे इसके शीर्ष नामों में योगदान दिया। कीव, अपने मध्य-प्रवाह में नीपर के पश्चिमी तट से सटे बड़े नीपर अपलैंड का एक हिस्सा है, और जो शहर के उन्नयन परिवर्तन में योगदान देता है।शहर के भीतर नीपर नदी शहर की सीमा के भीतर सहायक नदियों, द्वीपों और बंदरगाहों की एक शाखा प्रणाली बनाती है। यह शहर उत्तर में देसना नदी के मुहाने और कीव जलाशय और दक्षिण में कानिव जलाशय के करीब है। नीपर और डेसना दोनों नदियाँ कीव में नौगम्य हैं, हालाँकि जलाशय शिपिंग तालों द्वारा विनियमित और सर्दियों के फ़्रीज़-ओवर द्वारा सीमित हैं।कुल मिलाकर, कीव की सीमाओं के भीतर खुले पानी के ४४८ निकाय हैं, जिनमें स्वयं नीपर, इसके जलाशय और कई छोटी नदियाँ, दर्जनों झीलें और कृत्रिम रूप से बनाए गए तालाब शामिल हैं। वे ७९४९ हेक्टेयर पर स्थित हैं। इसके अतिरिक्त, शहर में १६ विकसित समुद्र तट (कुल १४० हेक्टेयर) और ३५ निकट-जल मनोरंजन क्षेत्र (१,००० हेक्टेयर से अधिक का क्षेत्रफल) हैं। कई का उपयोग आनंद और मनोरंजन के लिए किया जाता है, हालांकि पानी के कुछ निकाय तैरने के लिए उपयुक्त नहीं हैं।संयुक्त राष्ट्र 20११ के मूल्यांकन के अनुसार, कीव और उसके महानगरीय क्षेत्र में प्राकृतिक आपदाओं का कोई जोखिम नहीं था।
कानूनी स्थिति, स्थानीय सरकार और राजनीति
कानूनी स्थिति और स्थानीय सरकार
कीव शहर की नगर पालिका को देश के अन्य प्रशासनिक उपखंडों की तुलना में यूक्रेन के भीतर एक विशेष कानूनी दर्जा प्राप्त है। सबसे महत्वपूर्ण अंतर यह है कि शहर को यूक्रेन का एक क्षेत्र माना जाता है (यूक्रेन के क्षेत्र देखें)। यह एकमात्र ऐसा शहर है जिसका दोहरा अधिकार क्षेत्र है। सिटी स्टेट एडमिनिस्ट्रेशन के प्रमुख - शहर के गवर्नर - को यूक्रेन के राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त किया जाता है, जबकि सिटी काउंसिल के प्रमुख - कीव के मेयर - को स्थानीय लोकप्रिय वोट द्वारा चुना जाता है।कीव के मेयर विटाली क्लिट्स्को हैं, जिन्होंने ५ जून २०१४ को शपथ ली थी, जब उन्होंने 2५ मई २०१४ को कीव के मेयर के चुनाव में लगभग ५7% मतों के साथ जीत हासिल की थी। 2५ जून २०१४ से, क्लिट्स्को कीव सिटी एडमिनिस्ट्रेशन के प्रमुख भी हैं। क्लिट्स्को को आखिरी बार २०२० कीव स्थानीय चुनाव में ५0.५2% वोटों के साथ चुनाव के पहले दौर में फिर से चुना गया था।राष्ट्रीय सरकार की अधिकांश प्रमुख इमारतें ह्रुशेवस्कोहो गली (वुलिट्सिया मायखाइला ह्रुशेवस्कोहो) और इंस्टीट्यूट गली (वुलिट्सिया इंस्टिटुत्स्का) के साथ स्थित हैं। ह्रुशेवस्कोहो गली का नाम यूक्रेनी शिक्षाविद, राजनेता, इतिहासकार और राजनेता मायखाइलो ह्रुशेव्स्की के नाम पर रखा गया है, जिन्होंने बार, यूक्रेन के इतिहास के बारे में "बार स्टारोस्टो: ऐतिहासिक नोट्स: क्स्व-ख्वी" नामक एक अकादमिक पुस्तक लिखी है। शहर के उस हिस्से को अनौपचारिक रूप से सरकारी तिमाही के रूप में भी जाना जाता है ( )शहर राज्य प्रशासन और परिषद ख्रेशचैटिक स्ट्रीट पर कीव नगर परिषद भवन में स्थित है। ओब्लास्ट राज्य प्रशासन और परिषद प्लोशा लेसी उक्रेयंकी (लेसिया उक्रेयंका स्क्वायर) पर कीव ओब्लास्ट परिषद भवन में स्थित है। कीव-स्विआतोशिन रायन राज्य प्रशासन प्रॉस्पेक्ट पेरेमोही (विजय पार्कवे) पर किल्टसेवा दोरोहा (रिंग रोड) के पास स्थित है, जबकि कीव-सिवातोशिन रायन स्थानीय परिषद वुलित्सिया यंतर्ना (यंतरनया स्ट्रीट) पर स्थित है।
शहर की बढ़ती राजनीतिक और आर्थिक भूमिका, इसके अंतरराष्ट्रीय संबंधों के साथ-साथ व्यापक इंटरनेट और सोशल नेटवर्क पैठ के साथ, ने कीव को यूक्रेन का सबसे बड़ा पश्चिमी और लोकतंत्र समर्थक क्षेत्र बना दिया है; (तथाकथित) यूरोपीय संघ के साथ कड़े एकीकरण की वकालत करने वाली राष्ट्रीय जनतांत्रिक पार्टियों को कीव में चुनावों के दौरान सबसे अधिक वोट प्राप्त होते हैं। फरवरी २०१४ की पहली छमाही में कीव इंटरनेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ सोशियोलॉजी द्वारा किए गए एक सर्वेक्षण में, कीव में मतदान करने वालों में से ५.३% का मानना था कि "यूक्रेन और रूस को एक ही राज्य में एकजुट होना चाहिए", पूरे राष्ट्र में यह प्रतिशत १२.५ था।
नीपर नदी स्वाभाविक रूप से कीव को दाएँ किनारे और बाएँ किनारे के क्षेत्रों में विभाजित करती है। ऐतिहासिक रूप से नदी के पश्चिमी दाहिने किनारे पर स्थित, शहर का विस्तार केवल २० वीं शताब्दी में बाएं किनारे में हुआ। कीव के अधिकांश आकर्षण के साथ-साथ अधिकांश व्यावसायिक और सरकारी संस्थान दाहिने किनारे पर स्थित हैं। पूर्वी "वाम बैंक" मुख्य रूप से आवासीय है। दाएँ किनारे और बाएँ किनारे दोनों में बड़े औद्योगिक और हरित क्षेत्र हैं।कीव को अनौपचारिक रूप से ऐतिहासिक या क्षेत्रीय पड़ोस में विभाजित किया गया है, प्रत्येक आवास में लगभग ५,००० से १००,००० निवासी हैं।
आधिकारिक पंजीकरण आंकड़ों के अनुसार, जुलाई २०१३ में कीव शहर की सीमा के भीतर २,८४७,२00 निवासी थे।
अखिल-यूक्रेनी जनगणना के अनुसार, २००१ में कीव की जनसंख्या २,६११,३०० थी। जनसंख्या में हुए ऐतिहासिक परिवर्तनों को बगल की सारणी में दिखाया गया है। जनगणना के अनुसार, कुछ १,३९३,००० (५३.३%) महिलाएं थीं और १,२१9,००० (४६.७%) पुरुष थे। पिछली जनगणना (१989) के साथ परिणामों की तुलना करने से जनसंख्या की उम्र बढ़ने की प्रवृत्ति का पता चलता है, जो कि पूरे देश में प्रचलित है, लेकिन कीव में कामकाजी उम्र के प्रवासियों की आमद से आंशिक रूप से ऑफसेट है। कुछ १,०६९,७00 लोगों ने उच्च या पूर्ण माध्यमिक शिक्षा प्राप्त की, १989 के बाद से २१.७% की उल्लेखनीय वृद्धि हुई।शहर में बेचे जाने वाले बेकरी उत्पादों की मात्रा के आधार पर जून २00७ के अनौपचारिक जनसंख्या अनुमान (इस प्रकार अस्थायी आगंतुकों और यात्रियों सहित) ने कम से कम ३.५ लाख लोगों की संख्या दी।
२००१ की जनगणना के आंकड़ों के अनुसार, कीव के क्षेत्र में १३० से अधिक राष्ट्रीयताएं और जातीय समूह रहते हैं। यूक्रेनियन कीव में सबसे बड़े जातीय समूह का गठन करते हैं, और वे २,११०,८०० लोगों, या 8२.२% आबादी के लिए जिम्मेदार हैं। रूसियों में ३३७,३०० (१३.१%), यहूदी १७,९०० (०.७%), बेलारूसवासी १६,५०० (०.६%), पोल ६,९०० (०.३%), अर्मेनियाई ४,९०० (०.२%), अजरबैजान २,६०० (०.१%), टाटार २,५०० (०.१%) शामिल हैं। जॉर्जियाई २,४०० (०.१%), मोल्दोवन १,९०० (०.१%)।इंटरनेशनल रिपब्लिकन इंस्टीट्यूट के २०१५ के एक अध्ययन में पाया गया कि कीव का 9४% जातीय यूक्रेनी था, और ५% जातीय रूसी था। शहर की अधिकांश गैर-स्लाव आबादी में टाटार, कोकेशियान और पूर्व सोवियत संघ के अन्य लोग शामिल हैं।
यूक्रेनी और रूसी दोनों आमतौर पर शहर में बोली जाती हैं; कीव की आबादी के लगभग ७५% ने अपनी मूल भाषा पर २००१ की जनगणना के सवाल पर "यूक्रेनी" का जवाब दिया, लगभग २५% ने "रूसी" का जवाब दिया। २००६ के एक सर्वेक्षण के अनुसार, कीवंस के २३% लोग यूक्रेनियन का उपयोग करते हैं, ५२% रूसी का उपयोग करते हैं, और २४% दोनों के बीच स्विच करते हैं। २००३ के समाजशास्त्रीय सर्वेक्षण में, जब प्रश्न "रोजमर्रा की जिंदगी में आप किस भाषा का उपयोग करते हैं?" पूछा गया, ५२% ने कहा "ज्यादातर रूसी", ३२% "रूसी और यूक्रेनी दोनों समान माप में", १४% "ज्यादातर यूक्रेनी", और ४.३% "विशेष रूप से यूक्रेनी"।१८९७ की जनगणना के अनुसार, कीव के लगभग २४0,००० लोगों में से लगभग ५६% लोग रूसी भाषा बोलते थे, २३% यूक्रेनी भाषा बोलते थे, १३% यहूदी बोलते थे, ७% पोलिश बोलते थे और १% बेलारूसी भाषा बोलते थे।इंटरनेशनल रिपब्लिकन इंस्टीट्यूट द्वारा 20१5 के एक अध्ययन में पाया गया कि कीव में घर पर बोली जाने वाली भाषाएं यूक्रेनी (2७%), रूसी (३२%) और यूक्रेनी और रूसी (४0%) का एक समान संयोजन थीं।
कीव के यहूदियों का पहली बार १०वीं शताब्दी के एक पत्र में उल्लेख किया गया है। उन्नीसवीं सदी तक यहूदी आबादी अपेक्षाकृत कम रही। पोग्रोम्स की एक श्रृंखला १८८२ में और दूसरी १९०५ में की गई थी। प्रथम विश्व युद्ध की पूर्व संध्या पर, शहर की यहूदी आबादी ८१,००० से अधिक थी। १९३९ में कीव में लगभग २२४,००० यहूदी थे, जिनमें से कुछ जून १९४१ में शुरू हुए सोवियत संघ के जर्मन आक्रमण से पहले शहर छोड़कर भाग गए थे। २९ और ३० सितंबर १९४१ को, जर्मन वेहरमाच, एसएस, यूक्रेनी सहायक पुलिस और स्थानीय सहयोगियों द्वारा बाबी यार में लगभग ३४,००० कीवान यहूदियों का नरसंहार किया गया था।युद्ध के अंत में यहूदियों ने कीव लौटना शुरू किया, लेकिन सितंबर १९४५ में एक और नरसंहार का अनुभव किया। २१वीं सदी में, कीव के यहूदी समुदाय की संख्या लगभग २०,००० है। शहर में दो प्रमुख आराधनालय हैं: ग्रेट कोरल सिनेगॉग और ब्रोडस्की कोरल सिनेगॉग।
आधुनिक कीव पुराने का मिश्रण है। कीव ने १९०७-१९१४ के दौरान निर्मित १,००० से अधिक इमारतों का लगभग ७० प्रतिशत संरक्षित किया और वास्तुकला से लेकर दुकानों और स्वयं लोगों तक हर चीज को नए रूप में देखा गया। जब यूक्रेनी एसएसआर की राजधानी को खार्किव से कीव में स्थानांतरित किया गया था, तो शहर को "एक राजधानी की चमक और पॉलिश" देने के लिए कई नई इमारतों को चालू किया गया था। शोकेस सिटी सेंटर बनाने के तरीके पर केंद्रित चर्चाओं में, ख्रेशचैटिक और मैदान नेज़ालेज़्नोस्ती (इंडिपेंडेंस स्क्वायर) का वर्तमान शहर केंद्र स्पष्ट विकल्प नहीं थे। कुछ शुरुआती, अंततः भौतिक नहीं, विचारों में पेचेर्सक, लिप्की, यूरोपीय स्क्वायर और मायखाइलिवस्का स्क्वायर का एक हिस्सा शामिल था।
कीव इन शहरों से जुड़ा हुआ है:
अंकारा, तुर्की (१९९३)
अश्क़ाबाद, तुर्कमेनिस्तान (२००१)
एथेंस, यूनान (१९९६)
बाकू, अज़रबैजान (१९९७)
बीजिंग, चीन (१९९३)
बिश्केक, किर्गिज़स्तान (१९९७)
ब्रासीलिया, ब्राज़ील (२०००)
ब्रातिस्लावा, स्लोवाकिया (१९६९)
ब्रसेल्स, बेल्जियम (१९९७)
ब्यूनस आयर्स, आर्जेंटिना (२०००)
शिकागो, संयुक्त राज्य (१९९१)
चिसिनाऊ, मोल्डोवा (१९९३)
एडिनबर्ग, स्कॉटलैंड (१९८९)
फ्लोरेंस, इटली (१९६७)
हवाना, क्यूबा (१९९४)
जकार्ता, इंडोनिशिया (२००५)
क्राकौ, पोलैंड (१९९३)
क्योटो, जापान (१९७१)
लीप्ज़िक, जर्मनी (१९५६)
लीमा, पेरू (२००५)
मेक्सिको शहर, मेक्सिका (१९९७)
म्यूनिख, जर्मनी (१९८९)
नूर-सुल्तान, कज़ाकिस्तान (१९९८)
ओडेंस, डेनमार्क (१९८९)
ओश, किरगिज़स्तान (२००२)
प्रिटोरिया, दक्षिण अफ्रीका (१९९३)
रीगा, लैटविया (१९९८)
रियो डि जेनेरो, ब्राज़ील (२०००)
सैंटियागो, चिली (१९९८)
सोफ़िया, बुल्गारिया (१९९७)
सूझो, चीन (२००५)
ताल्लिन, एस्टोनिया (१९९४)
टामपेरे, फ़िनलैंड (१९५४)
ताशकंद, उज़्बेकिस्तान (१९९८)
तिब्लिसी, जोर्जिया (१९९९)
तोलोस, फ्रांस (१९७५)
विलनियस, लिथुआनिया (१९९१)
वारसॉ, पोलैंड (१९९४)
वूहान, चीन (१९९०)
इन्हें भी देखें
युक्रेन के शहर
यूरोप में राजधानियाँ |
मोज़ाम्बीक (अंग्रेजी: मोज़ाम्बिक, पुर्तगाली: मोंबिक) दक्षिणपूर्वी अफ़्रीका में स्थित एक देश है जो पूर्व में हिन्द महासागर से, उत्तर में तंज़ानिया से, पश्चिमोत्तर में मालावी और ज़ाम्बिया से. पश्चिम में ज़िम्बाब्वे से और दक्षिण में स्वाज़ीलैंड और दक्षिण अफ़्रीका से बंधा हुआ है। पहली से पांचवी सदी ईसवी में यहाँ उत्तर और पश्चिम से बांटू-भाषी लोग आ बसे, जिसके बाद स्वाहिली-भाषी और फिर अरब लोगों का प्रभाव रहा। सन् १४९८ में पुर्तगाली खोजयात्री वास्को दा गामा जो अपनी नौकाएँ लेकर भारत जा रहा था रास्ते में यहाँ आ धमका। १५०५ में पुर्तगाल ने मोज़ाम्बीक पर अपना राज घोषित कर दिया और मोज़ाम्बीक उसका उपनिवेश (कोलोनी) बन गया। पुर्तगाली ज़माने में बहुत से भारतीय मूल के लोग भी मोज़ाम्बीक जा बसे और वे २००७ में आबादी का ०.०८% थे। १९७५ में मोज़ाम्बीक आज़ाद हुआ। १९७७ से १९९२ में यहाँ एक ज़बरदस्त गृह युद्ध चला।
इन्हें भी देखें
अफ़्रीका के देश
भूतपूर्व पुर्तगाली उपनिवेश
१९७५ में स्थापित देश या क्षेत्र
पुर्तगाली-भाषी देश व क्षेत्र |
अंबानी परिवार भारत का एक औद्योगिक घराना है। धीरूभाई अंबानी द्वारा छोटे स्तर पर शुरु किया गयी एक कंपनी भारत और एशिया के सबसे बड़े औद्योगिक घरानों में से है। तेल, टेलीकाम से ले कर बहुत से क्षेत्रों में इस परिवार का दबदबा है। आजकल धीरूभाई के बेटों अनिल अंबानी और मुकेश अंबानी में चल रहे पारिवारिक विवाद के कारण यह परिवार विवाद और चर्चा का विषय बना |
अम्बानी परिवार के व्यवसाय
देश की निजी क्षेत्र की सबसे बड़ी कंपनी रिलायंस इंडस्ट्रीज के चेयरमैन और मैनेजिंग डायरेक्टर मुकेश अंबानी देश के सबसे अमीर बिजनेसमैन हैं। १९ अप्रैल को उन्होंने ५९वां बर्थडे मनाया। मुकेश अंबानी ने १९81 में रिलायंस का काम संभाला और रिलायंस इंडस्ट्रीज को नए मुकाम तक पहुंचाया। दुनिया की सबसे बड़ी पेट्रोलियम रिफायनरी बनाई... |
खासी (या खासिया, या खासा) एक जनजाति है जो भारत के मेघालय, असम तथा बांग्लादेश के कुछ क्षेत्रों में निवास करते हैं। ये खासी तथा जयंतिया की पहाड़ियों में रहनेवाली एक मातृकुलमूलक जनजाति है। इनका रंग काला मिश्रित पीला, नाक चपटी, मुँह चौड़ा तथा सुघड़ होता है। ये लोग हृष्टपुष्ट और स्वभावत: परिश्रमी होते हैं। स्त्री तथा पुरुष दोनों सिर पर बड़े बड़े बाल रखते हैं, निर्धन लोग सिर मुँडवा लेते हैं।
खासियों की विशेषता उनका मातृमूलक परिवार है। विवाह होने पर पति ससुराल में रहता है। परंपरानुसार पुरूष की विवाहपूर्व कमाई पर मातृपरिवार का और विवाहोत्तर कमाई पर पत्नीपरिवार का अधिकार होता है। वंशावली नारी से चलती है और सम्पत्ति की स्वामिनी भी वही है। संयुक्त परिवार की संरक्षिका कनिष्ठ पुत्री होती है। समुदाय के लोग बताते हैं कि प्राचीन समय में पुरुष युद्ध के लिए लंबे समय तक घर से दूर रहते थे। ऐसे में परिवार और समाज की देखरेख का जिम्मा महिलाएं संभालती थीं। तभी से यहां महिला प्रधान सिस्टम का चलन है। कुछ लोगों का यह भी कहना है कि खासी समुदाय में पहले महिलाएं बहुविवाह करती थीं। इसलिए बच्चे का सरनेम उसे जन्म देने वाली मां के नाम पर ही रखदियाजाताथा।
अब कुछ खासिए शिलांग आदि में संयुक्त परिवार से अलग व्यापार, नौकरी आदि कृषितर वृत्ति भी करने लगे हैं। परंपरागत पारिवारिक जायदाद बेचना निषिद्ध है। विवाह के लिए कोई विशेष रस्म नहीं है। लड़की और माता पिता की सहमति होने पर युवक ससुराल में आना जाना शुरू कर देता है और संतान होते ही वह स्थायी रूप से वहीं रहने लगता है। संबंधविच्छेद भी अक्सर सरलतापूर्वक होते रहते हैं। संतान पर पिता का कोई अधिकार नहीं होता।
खासियों में ईश्वर की कल्पना होते हुए भी केवल उपदेवताओं की पूजा होती है। कुछ खासियों ने काली और महादेव जैसे हिन्दू देवदेवियों को अपना लिया है। रोग होने पर ये लोग ओषधि का उपयोग न कर संबंधित देवता को बलि द्वारा प्रसन्न करते हैं। शव का दाह किया जाता है और मृत्यु के तुरन्त बाद काग की और कभी कभी बैल या गाय की भी बलि दी जाती है। मृत्युपरांत महीनों तक कर्मकांड का सिलसिला चलता रहता है और अन्त में अवश्ष्टि अस्थियों को परिवार-समाधिशाला में रखते समय बैल की बलि दी जाती है और इस अवसर पर तीन चार दिन तक नृत्यगान तथा दावतें होती हैं। खासियों का विश्वास है कि जिनका अन्त्येष्टि संस्कार विधिवत् सम्पन्न होता है उनकी आत्माएँ ईश्वर के उद्यान में निवास करती हैं, अन्यथा पशु-पक्षी बनकर पृथ्वी पर घूमती हैं।
खासिया खेतिहर हैं और धान के अतिरिक्त नारंगी, पान तथा सुपारी का उत्पादन करते हैं। ये लोग कपड़ा बुनना बिलकुल नहीं जानते और एतत्संबंधी आवश्यकता बाहर से पूरी करते है।
खासिया अनेकानेक शाखाओं में विभक्त हैं। खासी, सिंतेंग, वार और लिंग्गम, उनकी चार मुख्य शाखाएँ हैं। इनके बीच परस्पर विवाहसंबंध होता है। केवल अपने कुल या कबीले में विवाहसंबंध निषिद्ध है।
प्रत्येक कबीले में राजवंश, पुरोहित, मन्त्री तथा जन सामान्य ये चार श्रेणियाँ हैं। किंतु वार शाखा में विशिष्ट सामाजिक श्रेणियाँ नहीं हैं। कबीले के सरदार या मन्त्री संबंधित विशिष्ट श्रेणी के सदस्य ही बन सकते हैं। एक कबीले में स्त्री ही सर्वोच्च शासक होती है और वह अपने पुत्र अथवा भांजे को लिंगडोह (मुख्य मन्त्री) बनाकर उसके द्वारा शासन करती है। खासी समुदाय की परंपरागत बैठक, जिन्हें दरबार कहा जाता है, उनमें महिलाएं शामिल नहीं होतीं। इनमें केवल पुरुष सदस्य होते हैं, जो समाज से जुड़े राजनीतिक मुद्दों पर चर्चा करते हें और जरूरी फैसले लेते हैं।
अनेक खासियों ने पिछले डेढ़-दो सौ वर्ष में ईसाई धर्म ईसाई तथा हिन्दू धर्म स्वीकार कर लिया है, फिर भी विभिन्न मतावलंबी एक ही परिवार के सदस्य हैं। शिलांग खासियों के क्षेत्र में स्थित है; फलत: खासियों पर बाहरी संस्कृति तथा आधुनिक सभ्यता का बराबर प्रभाव पड़ रहा हैं। अब अनेक खासिए व्यापार तथा नौकरी और कुछ पढ़ लिखकर अध्यापकी एवं वकालत जैसे पेशे भी करने लगे हैं।
इन्हें भी देखें
भारत की जनजातियाँ |
पंचकुला (पंचकुला) भारत के हरियाणा राज्य के पंचकुला ज़िले में स्थित एक नगर है। यह ज़िले का मुख्यालय भी है और चण्डीगढ़ के शहरी क्षेत्र का हिस्सा माना जाता है।
पंचकुला शब्द संस्कृत से लिया गया है पंच (संस्कृत: पंच) (पांच) और कुला (संस्कृत: कुला) (नहरों) जिसका मतलब है "५ नहरों का शहर"।
इस शहर की स्थापना १५ अगस्त १९९५ को करी गई थी। चण्डीगढ़ की तरह, पंचकुला भी एक नियोजित शहर है। शहर मे मौरनी की पहाड़िया हैं , जिसकी सबसे उची चोटी १,5१4 मीटर ऊँची करोह है। इसका कुछ भाग वनों से ढका है और पास में रैतान वन्य जीव अभ्यारण तथा १975 में स्थापित बीर शिकारगढ वन्य जीव अभ्यारण स्थित हैं। पंचकुला मे पालतु पशु चिकित्सा केन्द्र है। यहाँ गिर प्रजनन केन्द्र (१992-९३) और गिद्द प्रजनन केन्द्र (२००६) हैं। पंचकुला में योग व प्राकृतिक चिकीत्सा केन्द्र भी हैं। प्रसिद्ध सुखना झील और टिकरताल झील पंचकुला में हैं।
इन्हें भी देखें
हरियाणा के शहर
भारत में नियोजित नगर
पंचकुला ज़िले के नगर |
जूलिया फियोना रॉबर्ट्स(जन्म २८ अक्टूबर, १९६७) एक अमेरिकी अभिनेत्री हैं। हॉलीवुड के सबसे बैंक योग्य सितारों में से एक , वह रोमांटिक कॉमेडी और ड्रामा से लेकर थ्रिलर और एक्शन फिल्मों तक कई शैलियों की फिल्मों में अपनी प्रमुख भूमिकाओं के लिए जानी जाती हैं। उनकी कई फिल्मों ने दुनिया भर में $ १०० मिलियन से अधिक की कमाई की है, और छह ने अपने संबंधित वर्षों की सबसे अधिक कमाई करने वाली फिल्मों में स्थान दिया है। उनकी टॉप चारटेडफिल्मोंने सामूहिक रूप से वैश्विक स्तर पर ३.८ बिलियन डॉलर से अधिक की कमाई की है। उन्हें एक अकादमी पुरस्कार , एक ब्रिटिश अकादमी फिल्म पुरस्कार और तीन गोल्डन ग्लोब पुरस्कारों सहित कई पुरस्कार मिले ह
मिस्टिक पिज़्ज़ा (१९८८) और स्टील मैगनोलियास (१९८९) में उपस्थिति के साथ एक प्रारंभिक सफलता के बाद , रॉबर्ट्स ने रोमांटिक कॉमेडी प्रिटी वुमन (१९९०) में खुद को एक प्रमुख अभिनेत्री के रूप में स्थापित किया , जिसने दुनिया भर में $४६४ मिलियन की कमाई की। उन्होंने कई सफल फिल्मों में अभिनय किया, जिनमें स्लीपिंग विद द एनिमी (१९९१), हुक (१९९१), द पेलिकन ब्रीफ (१९९३), माई बेस्ट फ्रेंड्स वेडिंग (१९९७), नॉटिंग हिल (१९९९), रनवे ब्राइड (१९९९) शामिल हैं। , एरिन ब्रोकोविच (२०००), ओशन इलेवन (२००१), ओशन्स ट्वेल्व (२००४), चार्ली विल्सन्स वॉर (२००७), वेलेंटाइन डे (२०१०), ईट प्रेयर लव (२०१०), अगस्त: ओसेज काउंटी (२०१३), और वंडर (२०१७)। एरिन ब्रोकोविच में उनके प्रदर्शन के लिए, रॉबर्ट्स ने सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का अकादमी पुरस्कार जीता । उन्हें एचबीओ टेलीविजन फिल्म द नॉर्मल हार्ट (२०१४) में उनके प्रदर्शन के लिए प्राइमटाइम एमी अवार्ड नामांकन मिला और अमेज़ॅन प्राइम वीडियो मनोवैज्ञानिक थ्रिलर श्रृंखला होमकमिंग (२०१८) के पहले सीज़न में उनकी पहली नियमित टेलीविजन भूमिका थी
१९९० के दशक के अधिकांश समय, और साथ ही २००० के दशक के पूर्वार्ध में रॉबर्ट्स दुनिया की सबसे अधिक भुगतान पाने वाली अभिनेत्री थीं। प्रिटी वुमन (१९९०) के लिए उनकी फीस $३००,००० थी, जबकि उन्हें मोना लिसा स्माइल (२००३) में उनकी भूमिका के लिए अभूतपूर्व $२५ मिलियन का भुगतान किया गया था । २०२० तक , रॉबर्ट्स की कुल संपत्ति $२५0 मिलियन आंकी गई थी। पीपल मैगजीन ने उन्हें रिकॉर्ड पांच बार दुनिया की सबसे खूबसूरत महिला का खिताब दिया है।
प्रारंभिक जीवन और परिवार
रॉबर्ट्स का जन्म २८ अक्टूबर १९६७ को अटलांटा के एक उपनगर जॉर्जिया के स्मिर्ना में हुआ था , और वाल्टर ग्रेडी रॉबर्ट्स के यहाँ। वह अंग्रेजी, स्कॉटिश, आयरिश, वेल्श, जर्मन और स्वीडिश मूल की हैं। उसके पिता एक बैपटिस्ट थे, उसकी माँ एक कैथोलिक, और उसकी परवरिश कैथोलिक थी। उनके बड़े भाई एरिक रॉबर्ट्स (जन्म १९५६), जिनसे वह २००४ तक कई वर्षों तक अलग रहीं, बड़ी बहन लिसा रॉबर्ट्स गिलन (जन्म १९६५), और भतीजी एम्मा रॉबर्ट्स , अभिनेता भी हैं। उसकी एक छोटी सौतेली बहन भी थी जिसका नाम नैन्सी मोट्स था।
रॉबर्ट्स के माता-पिता, एक बार के अभिनेता और नाटककार, सशस्त्र बलों के लिए नाट्य प्रस्तुतियों में प्रदर्शन करते हुए मिले। बाद में उन्होंने अटलांटा में अटलांटा एक्टर्स एंड राइटर्स वर्कशॉप की सह-स्थापना की , मिडटाउन में जुनिपर स्ट्रीट से दूर। वे जॉर्जिया के डेकाटुर में बच्चों का एक्टिंग स्कूल चलाते थे, जबकि वे जूलिया की उम्मीद कर रहे थे। कोरेटा और मार्टिन लूथर किंग जूनियर के बच्चे स्कूल में पढ़ते थे; वाल्टर रॉबर्ट्स ने अपनी बेटी योलान्डा के लिए अभिनय कोच के रूप में काम किया । उनकी सेवा के लिए धन्यवाद के रूप में, श्रीमती किंग ने श्रीमती रॉबर्ट्स के अस्पताल के बिल का भुगतान किया जब जूलिया का जन्म हुआ।
उसके माता-पिता ने १९५५ में शादी की। उसकी माँ ने १९७१ में तलाक के लिए अर्जी दी; १९७२ की शुरुआत में तलाक को अंतिम रूप दे दिया गया था। १९७२ से, रॉबर्ट्स स्मिर्ना, जॉर्जिया में रहती थीं, जहाँ उन्होंने फ़ित्ज़ुग ली एलीमेंट्री स्कूल, ग्रिफिन मिडिल स्कूल और कैंपबेल हाई स्कूल में पढ़ाई की। १९७२ में, उनकी मां ने माइकल मोट्स से शादी की, जो गाली गलौच और अक्सर बेरोजगार थे; रॉबर्ट्स ने उसका तिरस्कार किया। दंपति की एक बेटी, नैन्सी थी, जिसकी ९ फरवरी २०१४ को ३७ वर्ष की उम्र में एक स्पष्ट ड्रग ओवरडोज से मृत्यु हो गई थी। शादी 1९83 में समाप्त हुई, जिसमें बेट्टी लू ने मोट्स को क्रूरता के आधार पर तलाक दे दिया; उसने कहा था कि उससे शादी करना उसके जीवन की सबसे बड़ी गलती थी। रॉबर्ट्स के अपने पिता की कैंसर से मृत्यु हो गई जब वह दस वर्ष की थीं।
रॉबर्ट्स बचपन में पशु चिकित्सक बनना चाहती थी। उसने अपने स्कूल बैंड में शहनाई भी बजायी । स्मिर्ना के कैंपबेल हाई स्कूल से स्नातक होने के बाद , उन्होंने जॉर्जिया स्टेट यूनिवर्सिटी में पढ़ाई की, लेकिन स्नातक नहीं किया। बाद में वह अभिनय में अपना करियर बनाने के लिए न्यूयॉर्क शहर चली गईं। एक बार वहाँ, उसने क्लिक मॉडलिंग एजेंसी के साथ हस्ताक्षर किए और अभिनय कक्षाओं में दाखिला लिया।
प्रारंभिक कार्य और सफलता (१९८७-१९८९)
१३ फरवरी, १९८७ को प्रसारित एपिसोड "द सर्वाइवर" में डेनिस फ़रीना के साथ, क्राइम स्टोरी श्रृंखला के पहले सीज़न में एक किशोर बलात्कार पीड़िता के रूप में अपनी पहली टेलीविज़न उपस्थिति के बाद , रॉबर्ट्स ने एक उपस्थिति के साथ बड़े पर्दे पर अपनी शुरुआत की। ड्रामेडी सैटिस्फैक्शन (१९८८), लियाम नीसन और जस्टिन बेटमैन के साथ, एक बैंड के सदस्य के रूप में काम किया। उन्होंने पहले ब्लड रेड में अपने भाई एरिक के साथ एक छोटी सी भूमिका निभाई थी , हालांकि उनके पास संवाद के केवल दो शब्द थे, जिन्हें १९८७ में फिल्माया गया था, हालांकि इसे १९८९ तक रिलीज़ नहीं किया गया था। १९८८ में, रॉबर्ट्स की चौथे सीज़न के समापन में भूमिका थी। मियामी वाइस . का और फिल्म देखने वालों के साथ उनकी पहली महत्वपूर्ण सफलता स्वतंत्र रोमांटिक कॉमेडी मिस्टिक पिज्जा के साथ आई , जिसमें उन्होंने एक पिज्जा पार्लर में वेट्रेस के रूप में काम करने वाली एक पुर्तगाली-अमेरिकी किशोर लड़की की भूमिका निभाई। रोजर एबर्ट ने रॉबर्ट्स को " प्रमुख सुंदरता" के रूप में पाया और देखा कि फिल्म "किसी दिन उन फिल्म सितारों के लिए जानी जा सकती है जो इसे स्टार बनने से पहले वापस दिखाए गए थे। इस फिल्म के सभी युवा अभिनेताओं के पास वास्तविक उपहार हैं"।
रॉबर्ट हार्लिंग के १९८७ के इसी नाम के नाटक का फिल्म रूपांतरण स्टील मैगनोलियास (१९८९) में , रॉबर्ट्स ने सैली फील्ड , डॉली पार्टन , शर्ली मैकलेन और डेरिल हन्ना के साथ मधुमेह से पीड़ित एक युवा दुल्हन के रूप में अभिनय किया । फिल्म निर्माता लौरा डर्न और विनोना राइडर दोनों को देख रहे थे, जब कास्टिंग निर्देशक ने जोर देकर कहा कि उन्होंने रॉबर्ट्स को देखा, जो उस समय मिस्टिक पिज्जा का फिल्मांकन कर रहे थे । हार्लिंग ने कहा: "वह कमरे में चली गई और उस मुस्कान ने सब कुछ रोशन कर दिया और मैंने कहा 'वह मेरी बहन है', इसलिए वह पार्टी में शामिल हुई और वह शानदार थी"। निर्देशक हर्बर्ट रॉस नवागंतुक रॉबर्ट्स पर बेहद सख्त थे, सैली फील्ड ने स्वीकार किया कि वह "जूलिया के पीछे एक प्रतिशोध के साथ गए थे। यह उनकी पहली बड़ी फिल्म थी"। फिर भी, जब यह फिल्म रिलीज़ हुई, तब यह एक आलोचनात्मक और व्यावसायिक प्रिय थी, और रॉबर्ट्स को अपना पहला अकादमी पुरस्कार नामांकन ( सर्वश्रेष्ठ सहायक अभिनेत्री के रूप में ) और पहला गोल्डन ग्लोब पुरस्कार ( मोशन पिक्चर सर्वश्रेष्ठ सहायक अभिनेत्री ) के लिए मिला।
विश्वव्यापी मान्यता (१९९०-१९९९)
अपने १९८९ के अकादमी पुरस्कार नामांकन पर कैटापल्टिंग करते हुए, रॉबर्ट्स ने १९९० में रिचर्ड गेरे के साथ सिंड्रेला - पाइग्मेलियोनेस्क कहानी, प्रिटी वुमन में अभिनय करते हुए, सोने के दिल के साथ एक मुखर फ्रीलांस हूकर की भूमिका निभाते हुए दुनिया भर के दर्शकों से और अधिक ध्यान आकर्षित किया । रॉबर्ट्स ने मिशेल फ़िफ़र , मौली रिंगवाल्ड , मेग रयान , जेनिफर जेसन लेह , करेन एलन और डेरिल हन्ना ( स्टील मैगनोलियास में उनके सह-कलाकार ) द्वारा इसे ठुकराने के बाद भूमिका जीती। इस भूमिका ने उन्हें इस बार सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री के रूप में दूसरा ऑस्कर नामांकन और मोशन पिक्चर सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री (संगीत या हास्य) के रूप में दूसरा गोल्डन ग्लोब पुरस्कार जीता । प्रिटी वुमन ने अमेरिका में अब तक की रोमांटिक कॉमेडी के लिए सबसे अधिक टिकट बिक्री देखी, और दुनिया भर में ४६३.४ मिलियन डॉलर कमाए। फिल्म में रॉबर्ट्स द्वारा पहनी गई लाल पोशाक को सिनेमा में सबसे प्रसिद्ध गाउन में से एक माना गया है।
प्रिटी वुमन के बाद उनकी अगली फिल्म रिलीज जोएल शूमाकर की अलौकिक थ्रिलर फ्लैटलाइनर्स (१९९० भी) थी, जिसमें रॉबर्ट्स ने उन पांच छात्रों में से एक के रूप में अभिनय किया, जो गुप्त प्रयोगों का संचालन करते हैं जो मृत्यु के करीब के अनुभव पैदा करते हैं । उत्पादन को एक ध्रुवीकृत आलोचनात्मक स्वागत के साथ मिला, लेकिन बॉक्स ऑफिस पर एक लाभ बन गया और तब से इसे एक पंथ फिल्म माना जाता है । १९९१ में, रॉबर्ट्स ने स्टीवन स्पीलबर्ग की फंतासी फिल्म हुक में एक पस्त पत्नी की भूमिका निभाई, जो थ्रिलर स्लीपिंग विद द एनिमी में आयोवा में एक नया जीवन शुरू करने का प्रयास कर रही थी , एक पंखों वाला, छह इंच लंबा टॉमबॉयश टिंकरबेलऔर निर्देशक जोएल शूमाकर, रोमांस ड्रामा डाइंग यंग के साथ अपने दूसरे सहयोग में एक निवर्तमान लेकिन सतर्क नर्स । हालांकि नकारात्मक समीक्षाओं ने उनकी १९९१ की फिल्मों का स्वागत किया, स्लीपिंग विद द एनिमी ने $१७५ मिलियन, हुक $३००.९ मिलियन और डाइंग यंग ने $८२.३ मिलियन वैश्विक स्तर पर कमाई की।
रॉबर्ट्स ने स्क्रीन से दो साल का अंतराल लिया, जिसके दौरान उन्होंने रॉबर्ट ऑल्टमैन की द प्लेयर (१९९२) में एक कैमियो उपस्थिति के अलावा कोई फिल्म नहीं बनाई । १९९३ की शुरुआत में, वह पीपुल पत्रिका की कवर स्टोरी का विषय थी, जिसमें पूछा गया था, "जूलिया रॉबर्ट्स को क्या हुआ?"। रॉबर्ट्स ने जॉन ग्रिशम के १९९२ के इसी नाम के उपन्यास पर आधारित थ्रिलर द पेलिकन ब्रीफ (१९९३) में डेनजेल वाशिंगटन के साथ अभिनय किया । इसमें, उसने एक युवा कानून की छात्रा की भूमिका निभाई, जो खुद को और दूसरों को खतरे में डालकर एक साजिश का खुलासा करती है। फिल्म एक व्यावसायिक सफलता थी, जिसने दुनिया भर में $१९५.२ मिलियन की कमाई की। उनकी अगली कोई भी फिल्म रिलीज़ नहीं हुई - आई लव ट्रबल (१९९४), प्रेट-ए-पोर्टर (१९९४) और समथिंग टू टॉक अबाउट (१९९५) - विशेष रूप से आलोचकों द्वारा अच्छी तरह से प्राप्त हुई और न ही बड़े बॉक्स ऑफिस पर। १९९६ में, उन्होंने फ्रेंड्स के दूसरे सीज़न (एपिसोड १३, " द वन आफ्टर द सुपरबॉवेल ") में अतिथि भूमिका निभाई, और ऐतिहासिक नाटक माइकल कोलिन्स में लियाम नीसन के साथ दिखाई दीं , हत्यारे आयरिश क्रांतिकारी नेता की मंगेतर किट्टी कीरनन को चित्रित करते हुए ।स्टीफन फ्रियर्स की मैरी रेली , उनकी अन्य १९९६ की फिल्म, एक महत्वपूर्ण और व्यावसायिक विफलता थी।
१९९० के दशक के अंत तक, रॉबर्ट्स को रोमांटिक कॉमेडी शैली में नए सिरे से सफलता मिली। पीजे होगन की माई बेस्ट फ्रेंड्स वेडिंग (१९९७) में, उन्होंने डर्मोट मुलरोनी , कैमरन डियाज़ और रूपर्ट एवरेट के साथ एक खाद्य समीक्षक के रूप में अभिनय किया , जिसे पता चलता है कि वह अपने सबसे अच्छे दोस्त से प्यार करती है और किसी से शादी करने का फैसला करने के बाद उसे वापस जीतने की कोशिश करती है। वरना। सभी समय के सर्वश्रेष्ठ रोमांटिक कॉमेडी में से एक माना जाता है, रॉटेन टोमाटोज़ ने फिल्म को ५९ समीक्षाओं के आधार पर ७३% की स्वीकृति रेटिंग दी, जिसमें महत्वपूर्ण सहमति पढ़ने के साथ, "जूलिया रॉबर्ट्स के एक आकर्षक प्रदर्शन और एक विध्वंसक स्पिन के लिए धन्यवाद। शैली, माई बेस्ट फ्रेंड्स वेडिंगएक ताज़ा मनोरंजक रोमांटिक कॉमेडी है।" यह फिल्म एक वैश्विक बॉक्स-ऑफिस हिट थी, जिसने २९९.३ मिलियन डॉलर कमाए। उनकी अगली फिल्म में, रिचर्ड डोनर की राजनीतिक थ्रिलर कॉन्सपिरेसी थ्योरी (१९९७) , रॉबर्ट्स ने मेल गिब्सन के साथ न्याय विभाग के वकील के रूप में अभिनय किया। सैन फ्रांसिस्को क्रॉनिकल के मिक लासेल ने कहा: "जब बाकी सब विफल हो जाता है, तब भी सितारों को देखना होता है-रॉबर्ट्स, जो वास्तव में कुछ अच्छा अभिनय करने का प्रबंधन करते हैं, और गिब्सन, जिनके संभावना वास्तव में एक मजबूत चीज होनी चाहिए।" फिर भी, फिल्म ने $1३७ मिलियन की एक सम्मानजनक कमाई की।१९९८ में, रॉबर्ट्स एल्मो के चरित्र के विपरीत टेलीविजन श्रृंखला सेसम स्ट्रीट में दिखाई दिए, और सुसान सारंडन के साथनाटक स्टेपमॉम में अभिनय किया , एक बीमार मां और उसकी भावी सौतेली मां के बीच जटिल संबंधों के इर्द-गिर्द घूमती है। बच्चे। जबकि समीक्षा मिश्रित थी, फिल्म ने दुनिया भर में 1५९.७ मिलियन डॉलर कमाए।
रॉबर्ट्स ने ह्यूग ग्रांट के साथ नॉटिंग हिल (१९९९) के लिए जोड़ी बनाई, जिसमें एक प्रसिद्ध अभिनेत्री का चित्रण किया गया, जिसे एक संघर्षरत पुस्तक स्टोर के मालिक से प्यार हो जाता है। फिल्म ने फोर वेडिंग्स एंड ए फ्यूनरल को सिनेमा के इतिहास में सबसे बड़ी ब्रिटिश हिट के रूप में विस्थापित किया, जिसकी कमाई दुनिया भर में ३६३ मिलियन डॉलर थी। मुख्यधारा की संस्कृति में आधुनिक रोमांटिक कॉमेडी का एक उदाहरण, फिल्म को समीक्षकों द्वारा भी सराहा गया। सीएनएन समीक्षक पॉल क्लिंटन ने रॉबर्ट्स को "रोमांटिक कॉमेडी की रानी [जिसका] शासन जारी है" कहा, और टिप्पणी की: " नॉटिंग हिल सभी बाधाओं के खिलाफ प्यार के बारे में एक और मजेदार और दिल को छू लेने वाली कहानी है।"१९९९ में, वह रनवे ब्राइड के लिए रिचर्ड गेरे और गैरी मार्शल के साथ फिर से जुड़ गईं , जिसमें उन्होंने एक महिला की भूमिका निभाई, जिसने वेदी पर मंगेतर की एक स्ट्रिंग छोड़ दी है। मिश्रित समीक्षाओं के बावजूद, रनवे ब्राइड एक और वित्तीय सफलता थी, जिसने दुनिया भर में $३०९.४ मिलियन की कमाई की। रॉबर्ट्स टेलीविजन श्रृंखला लॉ एंड ऑर्डर के सीज़न ९ एपिसोड " एम्पायर " में एक अतिथि कलाकार थे , जिसमें नियमित कलाकार सदस्य बेंजामिन ब्रैट थे, जो उस समय उनके प्रेमी थे। उनके प्रदर्शन ने उन्हें ड्रामा सीरीज़ में उत्कृष्ट अतिथि अभिनेत्री के लिए प्राइमटाइम एमी अवार्ड के लिए नामांकित किया ।
कामयाब एक्ट्रेस के रूप मे(२०००२००७)
रॉबर्ट्स एक फिल्म के लिए $२० मिलियन का भुगतान करने वाली पहली अभिनेत्री बनीं, जब उन्होंने एरिन ब्रोकोविच में कैलिफोर्निया की पैसिफिक गैस एंड इलेक्ट्रिक कंपनी (पीजी एंड ई) के खिलाफ अपनी लड़ाई में वास्तविक जीवन के पर्यावरण कार्यकर्ता एरिन ब्रोकोविच की भूमिका निभाई। (२०00)। रॉलिंग स्टोन के पीटर ट्रैवर्स ने लिखा, "रॉबर्ट्स एरिन पर भावनात्मक प्रभाव दिखाता है क्योंकि वह अपने बच्चों और नौकरी के लिए जिम्मेदार रहने की कोशिश करती है जिसने उसे आत्म-सम्मान का पहला स्वाद प्रदान किया है", जबकि एंटरटेनमेंट वीकली आलोचक ओवेन ग्लीबरमैनमहसूस किया कि यह "रॉबर्ट्स को उसकी चुलबुली चमक और उदासी के स्वर के साथ देखकर खुशी हुई"। एरिन ब्रोकोविच ने दुनिया भर में $२५६.३ मिलियन कमाए, और कई अन्य प्रशंसाओं के साथ, रॉबर्ट्स को सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का अकादमी पुरस्कार मिला। १९९२ में सूची शुरू होने के बाद से २०00 में, वह हॉलीवुड रिपोर्टर की शो व्यवसाय में ५० सबसे प्रभावशाली महिलाओं की सूची बनाने वाली पहली अभिनेत्री बनीं , और उनकी शोलेस प्रोडक्शंस कंपनी को जो रोथ के साथ एक सौदा मिला।
एरिन ब्रोकोविच के बाद उनकी पहली फिल्म रोड गैंगस्टर कॉमेडी द मैक्सिकन (२००१) थी, जिससे उन्हें लंबे समय के दोस्त ब्रैड पिट के साथ काम करने का मौका मिला । फिल्म की स्क्रिप्ट का मूल रूप से प्रमुख मोशन पिक्चर सितारों के बिना एक स्वतंत्र उत्पादन के रूप में फिल्माया जाना था , लेकिन रॉबर्ट्स और पिट, जो कुछ समय से एक ऐसी परियोजना की तलाश में थे, जिसे वे एक साथ कर सकते थे, इसके बारे में सीखा और साइन करने का फैसला किया। हालांकि एक ठेठ रोमांटिक कॉमेडी स्टार वाहन के रूप में विज्ञापित, फिल्म केवल अभिनेताओं के रिश्ते पर ध्यान केंद्रित नहीं करती है और दोनों ने अपेक्षाकृत कम स्क्रीन समय एक साथ साझा किया है। मैक्सिकन ने उत्तरी अमेरिका में $६६.८ मिलियन कमाए। जो रोथ मेंकी रोमांटिक कॉमेडी अमेरिका की स्वीटहार्ट्स (२००१) में, रॉबर्ट्स ने बिली क्रिस्टल , जॉन क्यूसैक और कैथरीन ज़ेटा-जोन्स के साथ, एक बार अधिक वजन वाली बहन और हॉलीवुड अभिनेत्री की सहायक के रूप में अभिनय किया । आलोचकों ने महसूस किया कि इसके प्रसिद्ध कलाकारों के बावजूद, उत्पादन में "सहानुभूतिपूर्ण पात्रों" की कमी थी और यह "केवल स्पर्ट्स में मजाकिया था।" एक व्यावसायिक सफलता, हालांकि, इसने दुनिया भर में $13८ मिलियन से अधिक की कमाई की। २००१ में रिलीज हुई अपनी आखिरी फिल्म में, रॉबर्ट्स ने एरिन ब्रोकोविच के निर्देशक स्टीवन सोडरबर्ग के साथ ओशन्स इलेवन के लिए टीम बनाई, जो १९६० में इसी नाम की फिल्म की रीमेक थी।जॉर्ज क्लूनी , ब्रैड पिट और मैट डेमन सहित कलाकारों की टुकड़ी । रॉबर्ट्स ने टेस ओशन की भूमिका निभाई , जो नेता डैनी ओशन (क्लूनी) की पूर्व पत्नी थी, जो मूल रूप से एंजी डिकिंसन द्वारा निभाई गई थी । समीक्षकों के साथ और बॉक्स ऑफिस पर समान रूप से सफल, ओशन इलेवन दुनिया भर में कुल $४५० मिलियन के साथ वर्ष की पांचवीं सबसे अधिक कमाई करने वाली फिल्म बन गई ।
माइक नेवेल के नाटक मोना लिसा स्माइल में १९५३ में वेलेस्ली कॉलेज में एक आगे की सोच रखने वाले कला इतिहास के प्रोफेसर को चित्रित करने के लिए रॉबर्ट्स ने रिकॉर्ड $ २५ मिलियन प्राप्त किया, जो उस समय एक अभिनेत्री द्वारा अर्जित की गई सबसे अधिक कमाई थी । फिल्म को समीक्षकों द्वारा काफी हद तक गुनगुनी समीक्षा मिली, जिन्होंने इसे "अनुमानित और सुरक्षित" पाया, लेकिन सिनेमाघरों में $१४१ मिलियन से अधिक की कमाई की। २००४ में, रॉबर्ट्स ने केट ब्लैंचेट की जगह माइक निकोल्स की फिल्म क्लोजर के लिए एक अमेरिकी फोटोग्राफर की भूमिका निभाई , जो पैट्रिक मार्बर द्वारा लिखित एक रोमांटिक ड्रामा है, जो उनके १९९७ के इसी नाम के पुरस्कार विजेता नाटक पर आधारित है ।, जूड लॉ , नताली पोर्टमैन और क्लाइव ओवेन के सह-कलाकार । इसके बाद उन्होंने ओशन्स ट्वेल्व में टेस ओशन की भूमिका को दोहराया , जो जानबूझकर पहली फिल्म की तुलना में बहुत अधिक अपरंपरागत थी, जिसे एक अनुक्रम द्वारा दर्शाया गया था जिसमें रॉबर्ट्स का चरित्र वास्तविक जीवन में जूलिया रॉबर्ट्स का प्रतिरूपण करता है, क्योंकि फिल्म के पात्रों का मानना है कि यह है उनकी मजबूत समानता। हालांकि इलेवन की तुलना में कम अच्छी तरह से समीक्षा की गई , यह फिल्म बॉक्स ऑफिस पर एक और बड़ी सफलता बन गई, जिसने दुनिया भर में $३६३ मिलियन की कमाई की। २००५ में, उन्हें एकल " ड्रीमगर्ल " के संगीत वीडियो में चित्रित किया गया था" डेव मैथ्यू बैंड द्वारा । यह उनका पहला संगीत वीडियो प्रदर्शन था। रॉबर्ट्स २००२ से (जब पत्रिका ने अपनी सूची संकलित करना शुरू किया) २००५ से हर साल हॉलीवुड रिपोर्टर की १० सबसे अधिक भुगतान वाली अभिनेत्रियों की सूची में दिखाई दिया।
२००६ में, रॉबर्ट्स ने द एंट बुली में एक नर्स चींटी और चार्लोट्स वेब में एक खलिहान मकड़ी को आवाज दी । उन्होंने १९ अप्रैल २००६ को रिचर्ड ग्रीनबर्ग के १९97 के नाटक थ्री डेज़ ऑफ़ रेन के पुनरुद्धार में ब्रैडली कूपर और पॉल रुड के साथ नान के रूप में ब्रॉडवे की शुरुआत की । हालांकि इस नाटक ने अपने पहले सप्ताह के दौरान टिकटों की बिक्री में लगभग १ मिलियन डॉलर की कमाई की और अपने सीमित समय के दौरान व्यावसायिक रूप से सफल रही, उसके प्रदर्शन की आलोचना हुई। न्यूयॉर्क टाइम्स के बेन ब्रैंटली रॉबर्ट्स को "आत्म-चेतना (विशेषकर पहले अभिनय में) [और] केवल उनके द्वारा निभाए गए दो पात्रों से परिचित होने के रूप में वर्णित किया गया है।" ब्रेंटली ने भी समग्र उत्पादन की आलोचना करते हुए लिखा कि "जो मैन्टेलो द्वारा निर्देशित इस लकड़ी और बिखरी हुई व्याख्या से इसके कलात्मक गुणों को पहचानना लगभग असंभव है।" न्यू यॉर्क पोस्ट में लिखते हुए , क्लाइव बार्न्स ने घोषणा की, "नाटक से नफरत थी। सच कहूं तो, यहां तक कि उससे नफरत भी। कम से कम मुझे बारिश पसंद थी-भले ही इसके तीन दिन अनंत काल के लगें।" माइक निकोल्स के जीवनी नाटक चार्ली विल्सन्स वॉर (२००७) में, रॉबर्ट्स ने सोशलाइट के रूप में अभिनय कियाटॉम हैंक्स और फिलिप सीमोर हॉफमैन के सामने डेमोक्रेटिक टेक्सास के कांग्रेसी चार्ल्स विल्सन के प्रेमी जोआन हेरिंग । फिल्म को काफी प्रशंसा मिली, ने दुनिया भर में ११९.५ मिलियन डॉलर कमाए, और रॉबर्ट्स को अपना छठा गोल्डन ग्लोब नामांकन मिला।
करियर में उतार-चढ़ाव (२००८-२०१६)
स्वतंत्र नाटक फायरफ्लाइज़ इन द गार्डन , जिसमें रॉबर्ट्स ने एक माँ की भूमिका निभाई, जिसकी मृत्यु ने कहानी को गति प्रदान की, यूरोपीय सिनेमाघरों में दिखाए जाने से पहले २००८ के बर्लिन अंतर्राष्ट्रीय फिल्म समारोह में प्रदर्शित किया गया था - इसे २०११ तक उत्तर अमेरिकी रिलीज़ नहीं मिली थी। रॉबर्ट्स ने कॉमिक थ्रिलर डुप्लिसिटी (२००९) में क्लाइव ओवेन के विपरीत एक जटिल चोर को अंजाम देने के लिए एक अन्य जासूस के साथ सहयोग करते हुए एक सीआईए एजेंट की भूमिका निभाई । मिश्रित समीक्षाओं और मध्यम बॉक्स ऑफिस रिटर्न के बावजूद, आलोचक एओ स्कॉटउसके प्रदर्शन की प्रशंसा की: "सुश्री रॉबर्ट्स ने लगभग पूरी तरह से अमेरिका के प्रिय व्यवहार को पीछे छोड़ दिया है, सिवाय इसके कि जब वह उन्हें रणनीतिक रूप से निरस्त्र या भ्रमित करने के लिए उपयोग करती है। वह ४१ साल की उम्र में, स्पष्ट रूप से अपने प्रमुख में है"। उन्हें अपनी भूमिका के लिए सातवां गोल्डन ग्लोब नामांकन मिला।
२०१० में, रॉबर्ट्स ने रोमांटिक कॉमेडी वेलेंटाइन डे में एक बड़े कलाकारों की टुकड़ी के हिस्से के रूप में एक दिन की छुट्टी पर एक अमेरिकी सेना के कप्तान की भूमिका निभाई , और ईट प्रेयर लव के फिल्म रूपांतरण में तलाक के बाद खुद को खोजने वाले लेखक के रूप में अभिनय किया । जहां उन्हें वैलेंटाइन डे में छह मिनट की भूमिका के लिए कुल ३ प्रतिशत की तुलना में ३ मिलियन डॉलर का अग्रिम प्राप्त हुआ , ईट प्रेयर लव ने अमेरिका के स्वीटहार्ट्स के बाद से रॉबर्ट्स के लिए सबसे अधिक बिल वाली भूमिका में बॉक्स ऑफिस पर सबसे अधिक शुरुआत की । वह रोमांटिक कॉमेडी लैरी क्राउन में शिक्षा की ओर लौट रहे एक मध्यम आयु वर्ग के व्यक्ति की शिक्षिका के रूप में दिखाई दी, जो टॉम हैंक्स के विपरीत थी।, जिन्होंने निदेशक के रूप में भी काम किया। फिल्म को आलोचकों और दर्शकों द्वारा खराब रूप से प्राप्त किया गया था, हालांकि रॉबर्ट्स के हास्य प्रदर्शन की प्रशंसा की गई थी। मिरर मिरर (२०१२) में, स्नो व्हाइट के तरसेम सिंह अनुकूलन , रॉबर्ट्स ने क्वीन क्लेमेंटियाना , स्नो व्हाइट की दुष्ट सौतेली माँ, लिली कोलिन्स के विपरीत चित्रित की । रोलिंग स्टोन के पीटर ट्रैवर्स ने महसूस किया कि उन्होंने अपनी भूमिका में "बहुत कठिन" कोशिश की, जबकि केटी रिच ऑफ़ सिनेमा ब्लेंडदेखा कि वह "अपने दुष्ट [चित्रण] में आनंद लेती है लेकिन इसके साथ और भी आगे बढ़ सकती है"। मिरर मिरर ने विश्व स्तर पर 18३ मिलियन डॉलर कमाए।
२०१३ में, रॉबर्ट्स ने ब्लैक कॉमेडी ड्रामा अगस्त: ओसेज काउंटी में मेरिल स्ट्रीप और इवान मैकग्रेगर के साथ अभिनय किया , एक बेकार परिवार के बारे में जो पारिवारिक घर में फिर से एकजुट हो जाता है जब उनके पिता अचानक गायब हो जाते हैं। उनके प्रदर्शन ने उन्हें गोल्डन ग्लोब अवार्ड , स्क्रीन एक्टर्स गिल्ड अवार्ड , क्रिटिक्स च्वाइस अवार्ड और सर्वश्रेष्ठ सहायक अभिनेत्री के लिए अकादमी पुरस्कार सहित अन्य पुरस्कारों के लिए नामांकित किया। यह उनका चौथा अकादमी पुरस्कार नामांकन था। २०१४ में, रॉबर्ट्स ने लैरी क्रेमर के एड्स-युग के नाटक, द नॉर्मल हार्ट के टेलीविजन रूपांतरण में डॉ. लिंडा लॉबेनस्टीन पर आधारित एक चरित्र, डॉ. एम्मा ब्रुकनर , के रूप में अभिनय किया, जो एचबीओ पर प्रसारित हुआ ; फिल्म को समीक्षकों द्वारा सराहा गया और वैनिटी फेयर ने अपनी समीक्षा में लिखा: "रॉबर्ट्स, इस बीच, धर्मी, एरिन ब्रोकोविच -इयान क्रोध के साथ गुनगुनाते हैं। इस और अगस्त के बीच: ओसेज काउंटी , वह अपने लिए एक अच्छा नया स्थान बना रही है, भंगुर खेल रही है जो महिलाएं विस्फोटक स्वभाव के माध्यम से अपना प्यार और चिंता दिखाती हैं"। उनकी भूमिका ने उन्हें के लिए नामांकित कियालघु-श्रृंखला या मूवी में उत्कृष्ट सहायक अभिनेत्री के लिए प्राइमटाइम एमी पुरस्कार ।
रॉबर्ट्स ने २०१४ में मेकर्स: वूमेन हू मेक अमेरिका के दूसरे सीज़न की एक कड़ी "वीमेन इन हॉलीवुड" सुनाई , और २०१५ में गिवेंची के स्प्रिंग-समर कैंपेन में दिखाई दीं । उन्होंने इसमें अभिनय किया। सीक्रेट इन देयर आइज़ (२०१५) में निकोल किडमैन और चिवेटेल इजीओफ़ोर के विपरीत एक दुःखी माँ , इसी नाम की २००९ की अर्जेंटीना फ़िल्म की रीमेक है, दोनों लेखक एडुआर्डो साचेरी के उपन्यास ला प्रीगुंटा डे सस ओजोस पर आधारित हैं । मूल फिल्म के विपरीत, अमेरिकी संस्करण को नकारात्मक समीक्षा मिली और दर्शकों को खोजने में असफल रहा। आयरिश टाइम्स के डोनाल्ड क्लार्कनिष्कर्ष निकाला कि कलाकारों द्वारा एक "सुंदर काम" "परियोजना के चारों ओर लटके हुए समझौते की आवाज को पूरी तरह से हिला नहीं सकता"। २०१६ में, रॉबर्ट्स ने गैरी मार्शल के साथ पुनर्मिलन किया और कथित तौर पर चार दिन की शूटिंग के लिए $३ मिलियन का शुल्क प्राप्त किया, एक कुशल लेखक की भूमिका निभाई, जिसने रोमांटिक कॉमेडी मदर्स डे में अपने बच्चे को गोद लेने के लिए दिया , जिसमें एक कमजोर आलोचनात्मक और व्यावसायिक था जवाब। उनकी अगली फिल्म रिलीज जोड़ी फोस्टर की थ्रिलर मनी मॉन्स्टर थी, जिसमें उन्होंने जॉर्ज क्लूनी और जैक ओ'कोनेल के साथ एक टेलीविजन निर्देशक के रूप में अभिनय किया ।सिडनी मॉर्निंग हेराल्ड के सैंड्रा हॉलने कहा: "यह हॉलीवुड का मेलोड्रामा हो सकता है लेकिन यह रेंज में सबसे ऊपर है, क्लूनी और रॉबर्ट्स को स्टार पावर के मूल्य को प्रदर्शित करने का हर मौका देता है।" फिल्म ने दुनिया भर में 9३.३ मिलियन डॉलर का सम्मानजनक कमाई की।
हाल की भूमिकाएँ (२०१७वर्तमान)
इन वंडर (२०१७), आरजे पलासियो द्वारा इसी नाम के २०१२ के उपन्यास का फिल्म रूपांतरण , रॉबर्ट्स ने ट्रेचर कॉलिन्स सिंड्रोम वाले एक लड़के की मां की भूमिका निभाई । द टाइम्स ने कहा कि वह " वंडर में अपने प्रत्येक दृश्य को निकट-उत्कृष्ट स्थानों पर ले जाती है"। दुनिया भर में ३०५.९ मिलियन डॉलर की कमाई के साथ, वंडर रॉबर्ट्स की सबसे अधिक देखी जाने वाली फिल्मों में से एक के रूप में उभरा। २०१७ में, उन्होंने एनिमेटेड फिल्म स्मर्फ्स: द लॉस्ट विलेज में एक मातृ स्मर्फ नेता को आवाज दी ।
रॉबर्ट्स ने पीटर हेजेज के नाटक बेन इज़ बैक (२०१८) में एक परेशान युवक की माँ की भूमिका निभाई। डेली एक्सप्रेस के शॉन किचनर ने टिप्पणी की: "रॉबर्ट्स अक्सर किसी भी फिल्म के बारे में सर्वश्रेष्ठ, या सर्वश्रेष्ठ में से एक होते हैं-और बेन इज़ बैक अलग नहीं है"। मनोवैज्ञानिक थ्रिलर श्रृंखला होमकमिंग के पहले सीज़न में एक गुप्त सरकारी सुविधा में एक केसवर्कर की भूमिका रॉबर्ट्स की पहली नियमित टेलीविजन परियोजना थी। श्रृंखला, जिसका प्रीमियर अमेज़न वीडियो पर हुआनवंबर २०१८ में, आलोचकों से प्रशंसा प्राप्त हुई, जिन्होंने निष्कर्ष निकाला कि यह रॉबर्ट्स के लिए "छोटे पर्दे की प्रभावशाली शुरुआत" थी, जो "अपने भूतिया रहस्य को एक उन्मत्त संवेदनशीलता के साथ संतुलित करती है जो पकड़ में आती है और जाने नहीं देती है।" उन्हें टेलीविज़न सीरीज़ - ड्रामा में सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री के लिए गोल्डन ग्लोब नामांकन मिला ।
रॉबर्ट्स रोमांटिक कॉमेडी टिकट टू पैराडाइज के लिए जॉर्ज क्लूनी के साथ फिर से जुड़ेंगे , जो २१ अक्टूबर, २०२२ को यूनिवर्सल पिक्चर्स द्वारा रिलीज़ होने वाली है । उन्होंने वाटरगेट कांड के दौरान एक विवादास्पद व्यक्ति मार्था मिशेल की भूमिका निभाने के लिए भी साइन किया । लियोन नेफख द्वारा पॉडकास्ट स्लो बर्न के पहले सीज़न पर आधारित राजनीतिक थ्रिलर टेलीविजन श्रृंखला गैसलिट ।
अन्य एंटर प्रेज़ेज़
रॉबर्ट्स ने यूनिसेफ के साथ-साथ अन्य धर्मार्थ संगठनों में योगदान दिया है। १९९५ में पोर्ट-ऑ-प्रिंस , हैती की उनकी छह दिवसीय यात्रा , जैसा कि उन्होंने कहा, "खुद को शिक्षित करने के लिए", दान के एक विस्फोट को ट्रिगर करने की उम्मीद थी उस समय $१० मिलियन की सहायता मांगी गई थी - यूनिसेफ के अधिकारियों द्वारा। २००६ में, वह अर्थ बायोफ्यूल्स की प्रवक्ता और साथ ही अक्षय ईंधन के उपयोग को बढ़ावा देने वाले कंपनी के नवगठित सलाहकार बोर्ड की अध्यक्ष बनीं। २०१३ में, वह एक गुच्ची अभियान, "चाइम फॉर चेंज" का हिस्सा थीं, जिसका उद्देश्य महिला सशक्तिकरण का प्रसार करना है।
२००० में, रॉबर्ट्स ने रेट्ट सिंड्रोम के बारे में एक वृत्तचित्र सुनाया , एक न्यूरोडेवलपमेंटल डिसऑर्डर, जिसे बीमारी के बारे में जन जागरूकता बढ़ाने में मदद करने के लिए डिज़ाइन किया गया था, और २०१४ में, वह जागरूकता बढ़ाने के उद्देश्य से कंजर्वेशन इंटरनेशनल के लिए एक लघु फिल्म में मदर नेचर की आवाज थी। जलवायु परिवर्तन के बारे में ।
रॉबर्ट्स अपनी बहन, लिसा रॉबर्ट्स गिलन और मारिसा येरेस गिल के साथ प्रोडक्शन कंपनी रेड ओम फिल्म्स (रेड ओम "मोडर" है, जो उसके पति के अंतिम नाम के बाद लिखा गया है) चलाते हैं। रेड ओम के माध्यम से, रॉबर्ट्स ने विभिन्न परियोजनाओं के लिए एक कार्यकारी निर्माता के रूप में काम किया है, जैसे कि ईट प्रेयर लव और होमकमिंग , साथ ही साथ अमेरिकन गर्ल फिल्म श्रृंखला की पहली चार फिल्मों के लिए ( अमेरिकन गर्ल लाइन पर आधारित) ऑफ़ डॉल्स), २००४ और २००८ के बीच रिलीज़ हुई।
२००६ में, रॉबर्ट्स ने फैशन लेबल जियानफ्रेंको फेरे के साथ $६ मिलियन मूल्य के एक एंडोर्समेंट सौदे पर हस्ताक्षर किए। मारियो टेस्टिनो द्वारा लॉस एंजिल्स में ब्रांड के विज्ञापन अभियान के लिए उसकी तस्वीर खींची गई थी , जिसे यूरोप , एशिया और ऑस्ट्रेलिया में वितरित किया गया था । २००९ से, रॉबर्ट्स ने लैंकोमे के वैश्विक राजदूत के रूप में काम किया है, एक भूमिका जिसमें वह ब्रांड के सौंदर्य प्रसाधन और सौंदर्य उत्पादों के विकास और प्रचार में शामिल रही है। उसने शुरू में २०१० में $५० मिलियन के लिए कंपनी के साथ पांच साल के विस्तार पर हस्ताक्षर किए।
परिवारिक रिश्ते और संबंध
रॉबर्ट्स के अभिनेता जेसन पैट्रिक , लियाम नीसन , किफ़र सदरलैंड , डायलन मैकडरमोट और मैथ्यू पेरी के साथ रोमांटिक संबंध थे । सदरलैंड के साथ उनकी कुछ समय के लिए सगाई हुई थी; ११ जून, १९९१ को अपनी निर्धारित शादी से तीन दिन पहले वे अलग हो गए। २५ जून, १९९३ को, उन्होंने देशी गायिका लायल लवेट से शादी की ; शादी इंडियाना के मैरियन में सेंट जेम्स लूथरन चर्च में हुई थी । मार्च १९९५ में वे अलग हो गए और बाद में उनका तलाक हो गया। १९९८ से २००१ तक, रॉबर्ट्स ने अभिनेता बेंजामिन ब्रैट को डेट किया ।
रॉबर्ट्स और उनके पति, कैमरामैन डैनियल मोडर , २००० में अपनी फिल्म द मैक्सिकन के सेट पर मिले, जब वह अभी भी ब्रैट को डेट कर रही थीं। उस समय, मोडर की शादी वेरा स्टिमबर्ग से हुई थी। उन्होंने एक साल बाद तलाक के लिए अर्जी दी, और इसे अंतिम रूप देने के बाद, उन्होंने और रॉबर्ट्स ने ४ जुलाई, २००२, को ताओस, न्यू मैक्सिको में अपने खेत में शादी कर ली । साथ में, उनके तीन बच्चे हैं: जुड़वाँ, एक बेटी और एक बेटा, जिसका जन्म नवंबर 200४ में हुआ, और दूसरा बेटा जून २००७ में पैदा हुआ।
२०१० में, रॉबर्ट्स ने कहा कि वह हिंदू है, "आध्यात्मिक संतुष्टि" के लिए परिवर्तित हुई है। रॉबर्ट्स गुरु नीम करोली बाबा (महाराज-जी) के भक्त हैं, जिनकी एक तस्वीर ने रॉबर्ट्स को हिंदू धर्म की ओर आकर्षित किया।
सितंबर २००९ में, पटौदी में आश्रम हरि मंदिर के स्वामी दरम देव , जहां रॉबर्ट्स ईट प्रेयर लव की शूटिंग कर रहे थे , ने अपने बच्चों को हिंदू देवताओं के नाम पर नए नाम दिए: हेज़ल के लिए लक्ष्मी , फिनिअस के लिए गणेश और हेनरी के लिए कृष्ण बलराम ।
फ़िल्मोग्राफी और सम्मान
रॉबर्ट्स की जिन फिल्मों ने बॉक्स ऑफिस पर २०२१ तक सबसे अधिक कमाई की है , उनमें शामिल हैं:
रॉबर्ट्स ने चार अकादमी पुरस्कार नामांकन प्राप्त किए हैं, ७३वें अकादमी पुरस्कारों में सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री के लिए जीत हासिल की, एरिन ब्रोकोविच में उनके नाममात्र के चित्रण के लिए , जिसने उन्हें गोल्डन ग्लोब , बाफ्टा अवार्ड और स्क्रीन एक्टर्स गिल्ड अवार्ड भी अर्जित किया । उन्होंने स्टील मैगनोलियास और प्रिटी वुमन में अपने प्रदर्शन के लिए गोल्डन ग्लोब अवार्ड जीते , और २०१९ तक, आठ नामांकन प्राप्त किए। रॉबर्ट्स को दो प्राइमटाइम एमी अवार्ड्स नामांकन प्राप्त हुए, एक ड्रामा सीरीज़ में उत्कृष्ट अतिथि अभिनेत्री के लिए, उनकी अतिथि भूमिका के लिएलॉ एंड ऑर्डर , और दूसरा सीमित श्रृंखला या टेलीविज़न मूवी में उत्कृष्ट सहायक अभिनेत्री के लिए, द नॉर्मल हार्ट में उनके प्रदर्शन के लिए।
इन्हें भी देखें
जूलिया रॉबर्ट्स ने स्वीकारा हिन्दू धर्म
१९६७ में जन्मे लोग |
भारतीय रेल (भारे), यह भारत सरकार-नियंत्रित सार्वजनिक रेलवे सेवा है। भारत में रेलवे की कुल लंबाई ११५,००० किलोमीटर है। भारतीय रेल रोजाना करीब २ करोड़ ३१ लाख (लगभग पूरे ऑस्ट्रेलिया देश की जनसंख्या के बराबर) यात्रियों और ३३ लाख टन माल ढोती है। भारतीय रेलवे के स्वामित्व में, भारतीय रेलवे में 1२147 लोकोमोटिव, ७४००३ यात्री कोच और २89185 वैगन हैं और 870२ यात्री ट्रेनों के साथ प्रतिदिन कुल 135२3 ट्रेनें चलती हैं। भारतीय रेलवे में ३०० रेलवे यार्ड, २३०० माल ढुलाई और ७०० मरम्मत केंद्र हैं। यह दुनिया की चौथी सबसे बड़ी रेलवे सेवा है। 1२.२7 लाख कर्मचारियों के साथ, भारतीय रेलवे दुनिया की आठवीं सबसे बड़ी व्यावसायिक इकाई है। रेलवे विभाग भारत सरकार के मध्य रेलवे विभाग का एक प्रभाग है, जो भारत में संपूर्ण रेलवे नेटवर्क की योजना बना रहा है। रेलवे विभाग की देखरेख रेलवे विभाग के कैबिनेट मंत्री द्वारा की जाती है और रेलवे विभाग की योजना रेलवे बोर्ड द्वारा बनाई जाती है।
यह भारत के परिवहन क्षेत्र का मुख्य घटक है। यह न केवल देश की मूल संरचनात्मक आवश्यकताओं को पूरा करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है अपितु बिखरे हुए क्षेत्रों को एक साथ जोड़ने में और देश राष्ट्रीय अखंडता का भी संवर्धन करता है। राष्ट्रीय आपात स्थिति के दौरान आपदाग्रस्त क्षेत्रों में राहत सामग्री पहुंचाने में भारतीय रेलवे अग्रणी रहा है। देश के औद्योगिक और कृषि क्षेत्र की त्वरित प्रगति ने रेल परिवहन की उच्च स्तरीय मांग का सृजन किया है, विशेषकर मुख्य क्षेत्रकों में जैसे कोयला, लौह और इस्पात अयस्क, पेट्रोलियम उत्पाद और अनिवार्य वस्तुएं जैसे खाद्यान्न, उर्वरक, सीमेंट, चीनी, नमक, खाद्य तेल आदि।
भारत में रेलवे के लिए पहली बार प्रस्ताव मद्रास में १८३२ में किए गए थे. भारत में पहली ट्रेन १८३७ में मद्रास में लाल पहाड़ियों से चिंताद्रीपेत पुल (लिटिल माउंट)तक २५किमी चली थी. इसे आर्थर कॉटन द्वारा सड़क-निर्माण के लिए ग्रेनाइट परिवहन के लिए बनाया गया था| इसमें विलियम एवरी द्वारा निर्मित रोटरी स्टीम लोकोमोटिव प्रयोग किया गया था| १८४५ में, गोदावरी बांध निर्माण रेलवे को गोदावरी नदी पर बांध के निर्माण के लिए पत्थर की आपूर्ति करने के लिए राजामुंदरी के डोलेस्वरम में कॉटन द्वारा बनाया गया था। ८ मई १८४५ को, मद्रास रेलवे की स्थापना की गई, उसके बाद उसी वर्ष ईस्ट इंडिया रेलवे की स्थापना की गई। १ अगस्त १८४९ में ग्रेट इंडियन प्रायद्वीपीय रेलवे (गिप्र) की स्थापना की गई संसद के एक अधिनियम द्वारा। १८५१ में रुड़की में सोलानी एक्वाडक्ट रेलवे बनाया गया था। इसका नाम थॉमसन स्टीम लोकोमोटिव द्वारा रखा गया था, जिसका नाम उस नाम के एक ब्रिटिश अधिकारी के नाम पर रखा गया था। रेलवे ने सोलानी नदी पर एक एक्वाडक्ट के लिए निर्माण सामग्री पहुंचाई। १८५२ में, मद्रास गारंटी रेलवे कंपनी की स्थापना की गई।
सन् १८५० में ग्रेट इंडियन प्रायद्वीपीय रेलवे कम्पनी ने बम्बई से थाणे तक रेल लाइन बिछाने का कार्य प्रारम्भ किया गया था। इसी वर्ष हावड़ा से रानीगंज तक रेल लाइन बिछाने का काम शुरू हुआ। सन् १८५३ में बहुत ही मामूली शुरूआत से जब पहली प्रवासी ट्रेन ने मुंबई से थाणे तक (३४ कि॰मी॰ की दूरी) की दूरी तय की थी, अब भारतीय रेल विशाल नेटवर्क में विकसित हो चुका है।
साल २०१७ में भारतीय रेल व्यवस्था को सुधरने हेतु महत्वपूर्ण कदम उठाये गए| रेल सुरक्षा निधि १००,००० करोड़ रुपये के एक कोष के साथ ५ साल की अवधि में बनाया जा राहा है| लिफ्टों और एस्केलेटर प्रदान करके ५०० से अधिक रेलवे स्टेशनों को अलग-अलग तरीके से अनुकूल बनाया जा राहा है। तीर्थयात्रा और पर्यटन के लिए समर्पित गाड़ियों को लॉन्च करने के लिए कदम उठाए जा राहा है| २०१९ तक, भारतीय रेल के सभी कोचों को जैव-शौचालयों के साथ फिट किया गया| यह कार्य पूरा हो गया है| मानव रहित रेलवे स्तरीय क्रॉसिंग को २०२० तक समाप्त किया गया| यह कार्य पूरा हो गया है|
ऐसे नेटवर्क को आधुनिक बनाने, सुदृढ़ करने और इसका विस्तार करने के लिए भारत सरकार निजी पूंजी तथा रेल के विभिन्न वर्गों में, जैसे पत्तन में- पत्तन संपर्क के लिए परियोजनाएं, गेज परिवर्तन, दूरस्थ/पिछड़े क्षेत्रों को जोड़ने, नई लाइन बिछाने, सुंदरबन परिवहन आदि के लिए राज्य निधियन को आकर्षित करना चाहती है। तद्नुसार भारतीय रेल में रेल प्रौद्योगिकी की प्रगति को आत्मसात करने के लिए अनेकानेक प्रयास किए हैं और बहुत से रेल उपकरणों जैसे रोलिंग स्टॉक के उत्पादन में आत्मनिर्भर हो गया है। यह ईंधन किफायती नई डिज़ाइन के उच्च हॉर्स पावर वाले इंजन, उच्च गति के कोच और माल यातायात के लिए आधुनिक बोगियों को कार्य में लगाने की प्रक्रिया कर रहा है। आधुनिक सिग्नलिंग जैसे पैनल-इंटर लॉकिंग, रूट रीले इंटर लॉकिंग, केंद्रीकृत यातायात नियंत्रण, स्वत: सिग्नलिंग और बहु पहलू रंगीन प्रकाश सिग्नलिंग की भी शुरूआत हो चुका है।
इसके अतिरिक्त सरकार ने दिल्ली, मुंबई, चैन्नई, बैंगलूर, हैदराबाद और कोलकाता मेट्रोपोलिटन शहरों में रेल आधारित मास रेपिड ट्रांज़िट प्रणाली शुरू की है। परियोजना का लक्ष्य, शहरों के यात्रियों के लिए विश्वसनीय सुरक्षित एवं प्रदूषण रहित यात्रा मुहैया कराना है। यह परिवहन का सबसे तेज साधन सुनिश्चित करती है, समय की बचत करती एवं दुर्घटना कम करती है। इस परियोजना ने उल्लेखनीय प्रगति की है। विशेषकर दिल्ली मेट्रो रेल परियोजना का कार्य निष्पादन स्मरणीय है।
भारत में रेल मूल संरचना के विकास में निजी क्षेत्रों की भागीदारी का धीरे-धीरे विस्तार हो रहा है, मान और संभावना दोनों में। उदाहरण के लिए, पीपावाव रेलवे कॉर्पोरेशन लिमिटेड (पीआरसीएल) रेल परिवहन में पहला सरकारी निजी भागीदारी का मूल संरचना मॉडल है। यह भारतीय रेल और गुजरात पीपावाव पोर्ट लिमिटेड की संयुक्त उद्यम कंपनी है, जिसकी स्थापना २७१ कि॰मी॰ लंबी रेल लाइंस का निर्माण, रखरखाव और संचालन करने के लिए की गई है, यह गुजरात राज्य में पीपावाव पत्तन को पश्चिमी रेल के सुरेन्द्र नगर जंक्शन से जोडती है। साझेदारी के माध्यम से चयनित वस्तुओं के लिए परिवहन समाधान समाप्त करने के लिए रेलवे एकीकृत होगा|
भारत में रेल मंत्रालय, रेल परिवहन के विकास और रखरखाव के लिए नोडल प्राधिकरण है। यह विभन्न नीतियों के निर्माण और रेल प्रणाली के कार्य प्रचालन की देख-रेख करने में रत है।
भारतीय रेल के कार्यचालन की विभिन्न पहलुओं की देखभाल करने के लिए इसने अनेकानेक सरकारी क्षेत्र के उपक्रम स्थापित किये हैं.:-
रेल इंडिया टेक्नीकल एवं इकोनॉमिक सर्विसेज़ लिमिटेड (आर आई टी ई एस)
इंडियन रेलवे कन्स्ट्रक्शन (आई आर सी ओ एन) अंतरराष्ट्रीय लिमिटेड
इंडियन रेलवे फाइनेंस कॉर्पोरेशन लिमिटेड (आई आर एफ सी)
कंटनेर कॉर्पोरेशन ऑफ इंडिया लिमिटेड (सी ओ एन सी ओ आर)
कोंकण रेलवे कॉर्पोरेशन लिमिटेड (के आर सी एल)
इंडियन रेलवे कैटरिंग एंड टूरिज्म कॉर्पोरेशन लिमिटेड (आई आर सी टी सी )
रेलटेल कॉर्पोरेशन ऑफ इंडिया लिमिटेड (रेलटेल)
मुंबई रेलवे विकास कॉर्पोरेशन लिमिटेड (एम आर वी सी लि)
रेल विकास निगम लिमिटेड (आर वी एन आई)
नेशनल हाई स्पीड रेल कार्पोरेशन लिमिटेड (ने हा स्पी रे का र्लि)
अनुसंधान, डिज़ाइन और मानक संगठन: आरडीएसओ के अतिरिक्त लखनऊ में अनुसंधान और विकास स्कंध (आर एंड डी) भारतीय रेल का है। यह तकनीकी मामलों में मंत्रालय के परामर्शदाता के रूप में कार्य करता है। यह रेल विनिर्माण और डिज़ाइनों से संबद्ध अन्य संगठनों को भी परामर्श देता है। रेल सूचना प्रणाली के लिए भी केंद्र है (सीआरआईएस), जिसकी स्थापना विभिन्न कम्प्यूटरीकरण परियोजनाओं का खाका तैयार करने और क्रियान्वयन करने के लिए की गई है। इनके साथ-साथ छह उत्पादन यूनिटें हैं जो रोलिंग स्टॉक, पहिए, एक्सेल और रेल के अन्य सहायक संघटकों के विनिर्माण में रत हैं अर्थात, चितरंजन लोको वर्क्स; डीजल इंजन आधुनिकीकरण कारखाना; डीजल इंजन कारखाना; एकीकृत कोच फैक्टरी; रेल कोच फैक्टरी; और रेल पहिया फैक्टरी।
क्षेत्र तथा मंडल
प्रशासनिक सुविधा एवं रेलों के परिचालन की सुविधा की दृष्टि से भारतीय रेल को सत्रह क्षेत्र या जोन्स में बाँटा गया है।
यद्यपि कोलकाता मेट्रो भारतीय रेल द्वारा ही संचालित होती है परंतु इसे किसी जोन में नहीं रखा गया है। प्रशासनिक रूप से इसे एक क्षेत्रीय रेलवे के रूप में देखा जाता है। हर जोन में कुछ रेलमंडल होते हैं, इस समय भारत में कुल ६७ रेलमंडल है जो उपरोक्त १८ रेल-क्षेत्र (जोन) के अंतर्गत कार्य करते हैं।
रेल ईंजन निर्माण केंद्र
चितरंजन लोकोमोटिव वर्क्स, चितरंजन (विद्युत इंजन)
लोकोमोटिव वर्क्स, वाराणसी (डीजल इंजन विधुत इंजन)
डीजल कम्पोनेट वर्क्स, पटियाला (डीजल इंजन के पूर्जे)
टाटा इंजीनियरिंग एंड लोकोमोटिव कम्पनी लिमिटेड, चितरंजन (डीजल इंजन)
डीजल लोकोमोटिव कंपनी, जमशेदपुर (डीजल इंजन)
भारत हैवी इलेक्ट्रिकल लिमिटेड, भोपाल (डीजल इंजन)
रेल डिब्बे निर्माण केंद्र
इंटीग्रल कोच फैक्ट्री पैराम्बूर (चेन्नई) बी.जी.डिब्बा निर्माण
रेल कोच फैक्ट्री, कपूरथला (पंजाब) बी.जी. डिब्बा निर्माण
चितरंजन लोकोमोटिव वर्क्स, चितरंजन
भारत अर्थमूवर्स लिमिटेड बेंगलुरु (कर्नाटक)
जेसफ़ एंड कंपनी लिमिटेड, कोलकाता (पं.बंगाल)
व्हील एंड एक्सेल, बेंगलुरु (कर्नाटक)
रेलवे प्रशिक्षण केंद्र
इंडियन रेलवे इंस्टीट्यूट ऑफ मेकेनिकल एंड इलिक्ट्रोनिक, इंजीनियरिंग, जमालपुर।
रेलवे स्टाफ कालेज, बड़ौदा
इंडियन रेलवे इंस्टीट्यूट ऑफ सिग्नल इंजीनियरिंग एंड हेली कम्यूनिकेशन, सिकंदराबाद।
इंडियन रेलवे इंस्टीट्यूट ऑफ सिविल इंजीनियरिंग, पुणे
इंडियन रेलवे इंस्टीट्यूट ऑफ इलेक्ट्रिकल इंजीनियरिंग, नासिक।
भारतीय रेल के दो मुख्य सेवा हैं - भाड़ा/माल वाहन और सवारी। भाड़ा खंड लगभग दो तिहाई राजस्व जुटाता है जबकि शेष सवारी यातायात से आता है। भाड़ा खंड के भीतर थोक यातायात का योगदान लगभग ९५ प्रतिशत से अधिक कोयले से आता है। वर्ष २००२-०३ से सवारी और भाड़ा ढांचा यौक्तिकीकरण करने की प्रक्रिया में वातानुकूलित प्रथम वर्ग का सापेक्ष सूचकांक को १४०० से घटाकर ११५० कर दिया गया है। एसी-२ टायर का सापेक्ष सूचकांक 7२0 से ६५० कर दिया गया है। एसी प्रथम वर्ग के किराए में लगभग १८ प्रतिशत की कटौती की गई है और एसी-२ टायर का १० प्रतिशत घटाया गया है। २005-०६ में माल यातायात में वस्तुओं की संख्या ४००० वस्तुओं से कम करके ८० मुख्य वस्तु समूह रखा गया है और अधिक २0०६-०७ में २7 समूहों में रखा गया है। भाड़ा प्रभारित करने के लिए वर्गों की कुल संख्या को घटाकर ५९ से १७ कर दिया गया है।
रेलगाड़िया का प्रकार
गतिमान एक्सप्रेस दिल्ली से वीरांगना लक्ष्मीबाई झांसी के बीच १६० किमी प्रति घंटे तक की रफ्तार से चलने वाली रेल है। ये रेल हजरत निजामुद्दीन से वीरांगना लक्ष्मीबाई झांसी की १८८ किमी दूरी मात्र १०० मिनट में तय कर लेती है|
राजधानी एक्सप्रेस ये रेलगाड़ी भारत के मुख्य शहरों को सीधे राजधानी दिल्ली से जोडती हुयी एक वातानुकूलित रेल है इसलिए इसे राजधानी एक्सप्रेस कहते है| ये भारत की सबसे तेज रेलगाड़ियो में शामिल है जो लगभग १३०-१४० किमी प्रति घंटे की रफ्तार तक चल सकती है| इसकी शुरुआत १९६९ में हुयी थी|
शताब्दी एक्सप्रेस शताब्दी रेल वातानुकूलित इंटरसिटी रेल है जो केवल दिन में चलती है| भोपाल शताब्दी एक्सप्रेस भारत की सबसे तेज रेलों में से एक है जो दिल्ली से भोपाल के बीच चलती है| ये रेलगाड़ी १५० किमी प्रति घंटे की रफ्तार तक पहुच सकती है| इसकी शुरुवात १९८८ में हुयी थी|
दुरन्त एक्सप्रेस २००९ में में शुरू हुयी यह रेल सेवा एक नॉन स्टॉप रेल है जो भारत के मेट्रो शहरों और राज्यों की राजधानियों को आपस में जोडती है| इस रेल की रफ्तार लगभग राजधानी एक्सप्रेस के बराबर है|
तेजस एक्सप्रेस ये भी शताब्दी एक्सप्रेस की तरह पूर्ण वातानुकूलित रेलगाड़ी है लेकिन शताब्दी एक्सप्रेस से हटकर इसमें स्लीपर कोच भी है जो लम्बी दूरी के लिए काम आती है|
उदय एक्सप्रेस दो मंजिला , पूर्ण वातानुकूलित ,उच्च प्राथमिकता , सिमीत स्टॉप , रात्रि यात्रा के लिए अच्छी है|
जनशताब्दी एक्सप्रेस शताब्दी एक्सप्रेस की सस्ती किस्म , गति १३० किमी प्रति घंटा , एक और नॉन-एक दोनों है|
गरीब रथ एक्सप्रेस वातानुकूलित, गति अधिकतम १३० किमी प्रति घंटा, साधारण कोच से लेकर ३ टियर इकॉनमी बर्थ है|
हमसफर एक्सप्रेस पूर्ण वातानुकूलित ३ टियर एक कोच रेलगाड़ी
संपर्क क्रांति एक्स्प्रेस राजधानी दिल्ली से जोडती सुपर एक्सप्रेस रेलगाड़ी|
युवा एक्सप्रेस ६० प्रतिशत से ज्यादा सीट १८-४५ साल के यात्रियों के लिए रिज़र्व है|
कवि गुरु एक्सप्रेस रविन्द्रनाथ टैगोर के सम्मान में शुरू रेलगाड़ी है|
विवेक एक्सप्रेस स्वामी विवेकानंद की १५०वी वर्षगांठ पर २०१३ में शुरू है|
राज्य रानी एक्सप्रेस राज्यों की राजधानियों को महत्वपूर्ण शहरों से जोड़ती रेलगाड़ी है|
महामना एक्सप्रेस आधुनिक सुविधाओं युक्त रेलगाड़ी है|
इंटरसिटी एक्सप्रेस महत्वपूर्ण शहरों को आपस में जोड़ने के लिए छोटे रूट वाली गाडिया है|
एसी एक्सप्रेस ये पूर्ण वातानुकूलित रेलगाड़ी भारत के मुख्य शहरों को आपस में जोडती है | ये भी भारत की सबसे तेज रेलगाड़ियो से शामिल है जिसकी रफ्तार लगभग १३० किमी प्रति घंटा है|
डबल डेकर एक्सप्रेस ये भी शताब्दी एक्सप्रेस की तरह पूर्ण वातानुकूलित दो मंजिला एक्सप्रेस रेल है| ये केवल दिन के समय सफर करती है और भारत की सबसे तेज रेलों में शामिल है|
सुपरफ़ास्ट एक्सप्रेस लगभग १०० किमी प्रति घंटे की रफ्तार से चलने वाली गाडिया है|
अन्त्योदय एक्सप्रेस और जन साधारण एक्सप्रेस पूर्ण रूप से अनारक्षित रेल है|
पैसेंजर हर स्टेशन पर रुकने वाली धीमी रेलगाड़ियां (४०-८० किमी प्रति घंटा), जो सबसे सस्ती रेलगाड़ियां होती है|
सबअर्बन रेल शहरी इलाको जैसे मुम्बई ,दिल्ली, कोलकाता, चेन्नई, हैदाराबाद, अहमदाबाद, पुणे आदि में चलने वाली रेलगाड़ियां, जो हर स्टेशन पर रुकती है और जिसमे अनारक्षित सीट होती है|
विश्व विरासत रेलगाड़िया
दार्जिलिंग हिमालयन रेलवे जो पतली गेज की रेल व्यवस्था है उसे यूनेस्को द्वारा विश्व विरासत घोषित किया गया है। यह रेल अभी भी भाप से चलित इंजनों द्वारा खींची जाती है। आजकल यह न्यू जलपाईगुड़ी से सिलीगुड़ी तक चलती है। इस रास्ते में सबसे ऊँचाई पर स्थित स्टेशन घूम है।
नीलगिरि पर्वतीय रेल जो पतली गेज की रेल व्यवस्था है इसे भी विश्व विरासत घोषित किया गया है।
कालका शिमला रेलवे जो पतली गेज की रेल व्यवस्था है इसे भी विश्व विरासत घोषित किया गया है।
पैलेस आन व्हील्स
जीवन रेखा एक्सप्रेस, भारतीय रेल की चलंत अस्पताल सेवा जो दुर्घटनाओं एवं अन्य स्थितियों में प्रयोग की जाती है।
भाड़ा सेगमेंट में, ईर भारत की लंबाई और चौड़ाई में औद्योगिक, उपभोक्ता और कृषि क्षेत्रों में विभिन्न वस्तुओं और ईंधनों की आपूर्ति करता है। आईआर ने माल व्यवसाय से होने वाली आय के साथ यात्री खंड को ऐतिहासिक रूप से सब्सिडी दी है। नतीजतन, माल ढुलाई सेवा लागत और वितरण की गति दोनों पर परिवहन के अन्य साधनों के साथ प्रतिस्पर्धा करने में असमर्थ हैं, जिससे बाजार में हिस्सेदारी लगातार बढ़ रही है। इस नीचे की प्रवृत्ति का मुकाबला करने के लिए, ईर ने माल खंडों में नई पहल शुरू की है, जिसमें मौजूदा माल शेड को उन्नत करना, बहु-वस्तु मल्टी-मोडल लॉजिस्टिक्स टर्मिनलों का निर्माण करने के लिए निजी पूंजी को आकर्षित करना, कंटेनर के आकार को बदलना, समय-समय पर मालवाहक गाड़ियों का परिचालन, और साथ में ट्विकिंग करना शामिल है। माल का मूल्य निर्धारण / उत्पाद मिश्रण। इसके अलावा, एंड-टू-एंड इंटीग्रेटेड ट्रांसपोर्ट सॉल्यूशंस जैसे रोल-ऑन, रोल-ऑफ (रोरो) सर्विस, कोंकण रेलवे कॉर्पोरेशन द्वारा १९९९ में फ्लैटबेड ट्रेलरों पर ट्रकों को ले जाने के लिए एक सड़क-रेल प्रणाली का नेतृत्व किया गया, अब इसे बढ़ाया जा रहा है। भारत भर में अन्य मार्गों के लिए।
शायद माल खंड में आईआर के लिए गेम चेंजर नए समर्पित फ्रेट कॉरिडोर हैं जो २०२० तक पूरा होने की उम्मीद है। जब पूरी तरह से लागू किया जाता है, तो ३३०० किमी के आसपास फैले नए कॉरिडोर, लंबाई में १.५ किमी तक की गाड़ियों के ठहराव का समर्थन कर सकते हैं। १00 किलोमीटर प्रति घंटे (६२ मील प्रति घंटे) की गति से ३२.५ टन एक्सल-लोड। साथ ही, वे घने यात्री मार्गों पर क्षमता को मुक्त कर देंगे और आईआर को उच्च गति पर अधिक ट्रेनें चलाने की अनुमति देंगे। देश में माल ढाँचे को बढ़ाने के लिए अतिरिक्त गलियारों की योजना बनाई जा रही है।
इन्हें भी देखें
रेल मंत्रालय, भारत
भारतीय रेल हिंदी में आधिकारिक जालस्थल
भारतीय रेल ऑनलाइन टिकट बुक आधिकारिक जालस्थल
पत्र सूचना कार्यालय का जालस्थल
भारतीय रेल सहायता वेबसाइट
भारत में रेल परिवहन |
जबलपुर भारत के मध्यप्रदेश राज्य का एक शहर है। यहाँ पर मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय तथा राज्य न्यायिक अकादमी जहाँ मध्यप्रदेश राज्य के समस्त न्यायधीशों की ट्रेनिंग होती है। तथा राज्य विज्ञान संस्थान है। इसे मध्यप्रदेश की 'संस्कारधानी' तथा जबलपुर को मध्यप्रदेश की न्यायिक राजधानी भी कहा जाता है। थलसेना की छावनी के अलावा यहाँ भारतीय आयुध निर्माणियों के कारखाने तथा पश्चिम-मध्य रेलवे का मुख्यालय भी है।
पुराणों और किंवदंतियों के अनुसार इस शहर का नाम पहले जबालिपुरम् था, क्योंकि इसका सम्बंध महर्षि जबालि से जोड़ा जाता है। जिनके बारे में कहा जाता है कि वह यहीं निवास करते थे।
१७८१ के बाद ही मराठों के मुख्यालय के रूप में चुने जाने पर इस नगर की सत्ता बढ़ी, बाद में यह सागर और नर्मदा क्षेत्रों के ब्रिटिश कमीशन का मुख्यालय बन गया। यहाँ १८६४ में नगरपालिका का गठन हुआ था।
एक पहाड़ी पर मदन महल का किला स्थित है, जो लगभग ११०० ई. में राजा मदन सिंह द्वारा बनवाया गया एक पुराना गोंड किला है जिसका निर्माण सामरिक उद्देश्य से किया गया था. इसमें आवासीय व्यवस्था नहीं थी । इसके ठीक पश्चिम में गढ़ है, जो १४वीं शताब्दी के चार स्वतंत्र गोंड राज्यों का प्रमुख नगर था।
भेड़ाघाट, ग्वारीघाट और जबलपुर से प्राप्त जीवाश्मों से संकेत मिलता है कि यह प्रागैतिहासिक काल के पुरापाषाण युग के मनुष्य का निवास स्थान था। मदन महल, नगर में स्थित कई ताल और गोंड राजाओं द्वारा बनवाए गए कई मंदिर इस स्थान की प्राचीन महिमा की जानकारी देते हैं। इस क्षेत्र में कई बौद्ध, हिन्दू और जैन भग्नावशेष भी हैं। कहते है कि जबलपुर में स्थित ५२ प्राचीन ताल तलेैयों ने यहाँ की पहचान को बढाया, इनमें से अब कुछ ही तालाब शेष बचे हैं परन्तु उन प्राचीन ताल तलैयों के नाम अभी तक प्रचलित हैं। जिनमें से कुछ निम्न हैं;
अधारताल, रानीताल, चेरीताल, हनुमानताल, फूटाताल, मढाताल, हाथीताल, सूपाताल, देवताल, कोलाताल, बघाताल, ठाकुरताल, गुलौआ ताल, माढोताल, मठाताल, सुआताल, खम्बताल, गोकलपुर तालाब, शाहीतालाब, महानद्दा तालाब, उखरी तालाब, कदम तलैया, भानतलैया, श्रीनाथ की तलैया, तिलकभूमि तलैया, बैनीसिंह की तलैया, तीनतलैया, लोको तलैया, ककरैया तलैया, जूडीतलैया, गंगासागर, संग्रामसागर। जबलपुर भेड़ाघाट मार्ग पर स्थित त्रिपुर सुंदरी मंदिर, हथियागढ़ संस्कृत के कवि राजशेखर से सम्बंधित है ।
विंध्य पर्वत श्रृंखला में स्थित यह नगर पवित्र नर्मदा नदी के तट पर स्थित है। जबलपुर भारत के प्रमुख शहरों दिल्ली हैदराबाद अहमदाबाद पुणे कोलकाता तथा मुंबई से हवाई मार्ग से जुड़ा हुआ है।
२०११ की जनगणना के अनुसार जबलपुर नगर निगम क्षेत्र की जनसंख्या १४,४४,६६७ है, जबलपुर छावनी क्षेत्र की जनसंख्या १०२,४८२ और जबलपुर ज़िले की कुल जनसंख्या २४,६३,२८९ है।
उद्योग और व्यापार
यह नगर सामरिक दृष्टि से भी महत्त्वपूर्ण है, यहाँ तोपगाड़ी बनाने का केंद्रीय कारख़ाना शस्त्र निर्माण कारख़ाना और एक शस्त्रागार स्थित है। यहाँ के प्रमुख उद्योगों में खाद्य प्रसंस्करण, आरा मिल और विभिन्न निर्माण शामिल हैं।
रेडीमेड वस्त्र उत्पादन जबलपुर रेडीमेड वस्त्र उद्योग - सलवार-सूट , शर्ट, का प्रमुख उत्पादक केंद्र बन गया है।
कृषि तथा खनिज
इसके आसपास के क्षेत्रों में नर्मदा नदी घाटी के पश्चिमी छोर पर स्थित एक अत्यधिक उपजाऊ, गेहूँ की खेती वाला इलाक़ा हवेली शामिल है। चावल, ज्वार चना और तिलहन आसपास के क्षेत्रों की अन्य महत्त्वपूर्ण फ़सलें हैं। यहाँ लौह अयस्क, चूना-पत्थर बॉक्साइट, चिकनी मिट्टी, अग्निसह मिट्टी, शैलखड़ी, फ़ेल्सपार, मैंगनीज और गेरू का व्यापक पैमाने पर खनन होता है।
इस शहर के विश्वविद्यालय निम्न हैं-
रानी दुर्गावती विश्वविद्यालय
जवाहरलाल नेहरू कृषि विश्वविद्यालय
महर्षि महेश योगी वैदिक विश्वविद्यालय
मध्य प्रदेश आयुर्विज्ञान विश्वविद्यालय
नानाजी देशमुख पशुचिकित्सा विज्ञान विश्वविद्यालय
धर्मशास्त्र नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी जबलपुर दस्नलू
शासकीय महाकोशल कला एवं वाणिज्य महाविद्यालय स्वशासी
जबलपुर कृषि महाविद्यालय
नेताजी सुभाष चन्द्र बोस चिकित्सा महाविद्यालय
नानाजी देशमुख पशुचिकित्सा विश्वविद्यालय
जबलपुर अभियांत्रिकी महाविद्यालय
तक्षशिला इंजीनियरिंग एंड टेक्नोलॉजी
लक्ष्मी नारायण प्रौद्योगिकी महाविद्यालय
पी.डी.पी.एम. भारतीय सूचना प्रौद्योगिकी, अभिकल्पन एवं विनिर्माण संस्थान
हितकारिणी प्रौद्योगिकी व अभियांत्रिकी महाविद्यालय
श्री राम प्रौद्योगिकी संस्थान - [एसआरआईटी]
भातखंडे संगीत कला महाविद्यालय
शासकीय ललित कला महाविद्यालय
रानी दुर्गावती का मदन महल - मदन महल का किला सन् १११६ में राजा मदन शाह द्वारा बनवाया गया था। जबलपुर को आचार्य विनोबा भावे ने 'संस्कारधानी का नाम दिया था।
भेड़ाघाट- भारतीय पुरातत्व विभाग द्वारा संरक्षित चौंसठ योगिनी मंदिर इसके समीप ही स्थित है - धुंआधार जलप्रपात, भेड़ाघाट एक आकर्षक पर्यटन स्थल है।
त्रिपुर सुन्दरी मन्दिर
बाजना मठ: बाजना मठ, रेलवे स्टेशन से करीब ८ कि॰मी॰ की दूरी पर मेडीकल कालेज से, तिलवारा घाट रोड पर स्तिथ है, इस मन्दिर में "श्री बाबा बटुक भैरवनाथ जी"* विराजमान हैं। प्रति शनिवार को इस मन्दिर में भक्तों की इतनी भीड होती है कि मन्दिर के अन्दर उनके द्वारा जलाई गयी अगरबत्तीयों से निकले धुएं के कारण कुछ भी दिखायी नहीं देता। कुछ लोग इस मन्दिर को तान्त्रिक मन्दिर मानते हैं।
रामलला हनुमानजी मंदिर ग्वारीघाट
छोटे महावीर मंदिर
शनि मंदिर तिलवारा
कचनार सिटी - शिव जी की विशाल मूर्ति
भिटौली घाट इसे भटौलीघाट नाम से जानते हैं
सेठ गोविन्द दास
व्यौहार राजेन्द्र सिंह
द्वारका प्रसाद मिश्र, पूर्व मुख्य मंत्री, मध्य प्रदेश
महर्षि महेश योगी
सुभद्रा कुमारी चौहान, भारतीय कवयित्री
हरिशंकर परसाई, भारतीय व्यंग्यकार
पन्नालाल श्रीवास्तव "नूर"
पंडित रामेश्वर गुरु
भवानी प्रसाद तिवारी
भूपेंद्र नाथ कौशिक
रामेश्वर शुक्ल अंचल
अमृतलाल वेगड़ , भारतीय पर्यावरणविद
अर्जुन रामपाल, भारतीय अभिनेता
बृजेश मिश्र, पूर्व राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार, भारत
मुस्कान किरार, भारतीय महिला तीरंदाज
श्रेया अग्रवाल, भारतीय महिला निशानेबाज
जबलपुर के बारे में विस्तृत जानकारी से सम्पन्न जालस्थल
पलपलइंडिया डॉट कॉम, जबलपुर के बारे में विस्तृत समाचार पत्र
नगर पालिक निगम, जबलपुर द्वारा संचालित डिजिटल पुस्तकालय
जबलपुर दर्शनीय स्थल
मध्य प्रदेश के शहर
जबलपुर ज़िले के नगर |
भारत की अर्थव्यवस्था विश्व की पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है। क्षेत्रफल की दृष्टि से भारत विश्व में सातवें स्थान पर है, जनसंख्या में भारत का स्थान दूसरा था, किंतु वर्ष २०२३ के मध्य से प्रथम स्थान पर है और केवल २.४% क्षेत्रफल के साथ भारत विश्व की जनसंख्या के १७.७६% भाग को शरण प्रदान करता है।
१९९१ से भारत में बहुत तेज आर्थिक प्रगति हुई है जब से उदारीकरण और आर्थिक सुधार की नीति लागू की गयी है और भारत विश्व की एक आर्थिक महाशक्ति के रूप में उभरकर आया है। सुधारों से पूर्व मुख्य रूप से भारतीय उद्योगों और व्यापार पर सरकारी नियन्त्रण का बोलबाला था और सुधार लागू करने से पूर्व इसका जोरदार विरोध भी हुआ परन्तु आर्थिक सुधारों के अच्छे परिणाम सामने आने से विरोध काफी हद तक कम हुआ है। हालाँकि मूलभूत ढाँचे में तेज प्रगति न होने से एक बड़ा तबका अब भी नाखुश है और एक बड़ा हिस्सा इन सुधारों से अभी भी लाभान्वित नहीं हुआ हैं।
पाँचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था
२०१७ में भारतीय अर्थव्यवस्था मानक मूल्यों (सांकेतिक) के आधार पर विश्व की पांचवी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है। अप्रैल २०१४ में जारी रिपोर्ट में वर्ष २०११ के विश्लेषण में विश्व बैंक ने "क्रयशक्ति समानता" (परचेज़िंग पावर पैरिटी) के आधार पर भारत को विश्व की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था घोषित किया। बैंक के इंटरनैशनल कंपेरिजन प्रोग्राम (आईसीपी) के २०११ राउंड में अमेरिका और चीन के बाद भारत को स्थान दिया गया है। २००५ में यह १०वें स्थान पर थी। २००३-२००४ में भारत विश्व में १२वीं सबसे बडी अर्थव्यवस्था थी। संयुक्त राष्ट्र सांख्यिकी प्रभाग (यूएनएसडी) के राष्ट्रीय लेखों के प्रमुख समाहार डाटाबेस, दिसम्बर २०१३ के आधार पर की गई देशों की रैंकिंग के अनुसार वर्तमान मूल्यों पर सकल घरेलू उत्पाद के अनुसार भारत की रैंकिंग १० और प्रति व्यक्ति सकल आय के अनुसार भारत विश्व में १६१वें स्थान पर है।सन २००३ में प्रति व्यक्ति आय के लिहाज से विश्व बैंक के अनुसार भारत का १४३ वाँ स्थान था।
आर्थिक इतिहासकार एंगस मैडिसन के अनुसार, भारत की अर्थव्यवस्था पहली शताब्दी से दसवीं शताब्दी तक दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था थी। पहली सदी में भारत का सकल घरेलू उत्पाद (गप) दुनिया की कुल जीडीपी का ३२.९% था; १००० में यह २८.९% था; और १७०० में २४.४% लेकिन उस दौरान आर्थिक प्रगति जनसंख्या वृद्धि से जुड़ी हुई थी क्योंकि वे कोई मशीन या तकनीकी नवाचार नहीं थे।
ब्रिटिश काल में भारत की अर्थव्यवस्था का जमकर शोषण व दोहन हुआ जिसके फलस्वरूप १९४७ में आज़ादी के समय में भारतीय अर्थव्यवस्था अपने सुनहरी इतिहास का एक खंडहर मात्र रह गई।
आज़ादी के बाद से भारत का झुकाव समाजवादी प्रणाली की ओर रहा। सार्वजनिक उद्योगों तथा केंद्रीय आयोजन को बढ़ावा दिया गया। बीसवीं शताब्दी में सोवियत संघ के साथ साथ भारत में भी इस प्रणाली का अंत हो गया। १९९१ में भारत को भीषण आर्थिक संकट का सामना करना पड़ा जिसके फलस्वरूप भारत को अपना सोना तक गिरवी रखना पड़ा। उसके बाद नरसिंह राव की सरकार ने वित्तमंत्री मनमोहन सिंह के निर्देशन में आर्थिक सुधारों की लंबी कवायद शुरु की जिसके बाद धीरे धीरे भारत विदेशी पूँजी निवेश का आकर्षण बना और संराअमेरिका, भारत का सबसे बड़ा व्यापारिक सहयोगी बना। १९९१ के बाद से भारतीय अर्थव्यवस्था में सुदृढ़ता का दौर आरम्भ हुआ। इसके बाद से भारत ने प्रतिवर्ष लगभग ८% से अधिक की वृद्धि दर्ज की। अप्रत्याशित रूप से वर्ष २००३ में भारत ने ८.४ प्रतिशत की विकास दर प्राप्त की जो दुनिया की अर्थव्यवस्था में सबसे तेजी से उभरती अर्थव्यवस्था का एक संकेत समझा गया। यही नहीं २००५-०६ और २००७-0८ के बीच लगातार तीन वर्षों तक ९ प्रतिशत से अधिक की अभूतपूर्व विकास दर प्राप्त की। कुल मिलाकर २००४-०५ से २०११-१२ के दौरान भारत की वार्षिक विकास दर औसतन ८.३ प्रतिशत रही किंतु वैश्विक मंदी की मार के चलते 20१२-1३ और 201३-१४ में ४.६ प्रतिशत की औसत पर पहुंच गई। लगातार दो वर्षों तक ५ प्रतिशत से कम की स.घ.उ. विकास दर, अंतिम बार 2५ वर्ष पहले 1९८६-८7 और 1९८7-८८ में देखी गई थी।
सकल घरेलू उत्पाद
२०१३-१४ में भारत का सकल घरेलू उत्पाद भारतीय रूपयों में - ११३५५०.७३ अरब रुपये था।
विभिन्न क्षेत्रों का योगदान
किसी समय में भारत कृषि प्रधान देश था किंतु नए आँकड़े बताते हैं कि यह देश अपनी विकास की यात्रा में काफी आगे निकल गया है तथा विकसित देशों के इतिहास को दोहराते हुए द्वितीयक एवं तृतीयक क्षेत्रों का योगदान जीडीपी में बढ़ोतरी का रुझान दर्शा रहा है।
भारत बहुत से उत्पादों के सबसे बड़े उत्पादको में से है। इनमें प्राथमिक और विनिर्मित दोनों ही आते हैं। भारत दूध का सबसे बडा उत्पादक है ओर गेह, चावल, चाय चीनी, और मसालों के उत्पादन में अग्रणियों मे से एक है यह लौह अयस्क, वाक्साईट, कोयला और टाईटेनियम के समृद्ध भंडार हैं।
यहाँ प्रतिभाशाली जनशक्ति का सबसे बडा पूल है। लगभग २ करोड भारतीय विदेशों में काम कर रहे है। और वे विश्व अर्थव्यवस्था में योगदान दे रहे हैं। भारत विश्व में साफ्टवेयर इंजीनियरों के सबसे बडे आपूर्ति कर्त्ताओं में से एक है और सिलिकॉन वैली में सयुंक्त राज्य अमेरिका में लगभग ३० % उद्यमी पूंजीपति भारतीय मूल के है।
भारत में सूचीबद्ध कंपनियों की संख्या अमेरिका के पश्चात दूसरे नम्बर पर है। लघु पैमाने का उद्योग क्षेत्र, जोकि प्रसार शील भारतीय उद्योग की रीड की हड्डी है, के अन्तर्गत लगभग ९५% औद्योगिक इकाईयां आती है। विनिर्माण क्षेत्र के उत्पादन का ४०% और निर्यात का ३६% ३२ लाख पंजीकृत लघु उद्योग इकाईयों में लगभग एक करोड ८० लाख लोगों को सीधे रोजगार प्रदान करता है।
वर्ष २००३-२००४ में भारत का कुल व्यापार १४०.८६ अरब अमरीकी डालर था जो कि सकल घरेलु उत्पाद का २५.६% है। भारत का निर्यात ६३.६२% अरब अमरीकी डालर था और आयात ७७.२४ अरब डालर। निर्यात के मुख्य घटक थे विनिर्मित सामान (७५.०३%) कृषि उत्पाद (११.६७%) तथा लौह अयस्क एवं खनिज (३.६९%)।
वर्ष २००३-२००४ में साफ्टवेयर निर्यात, प्रवासी द्वारा भेजी राशि तथा पर्यटन के फलस्वरूप बाह्य अर्जन २२.१ अरब अमेरिकी डॉलर का हो गया।
विदेशी मुद्रा भंडार
जून २०२१ तक भारतीय विदेशी मुद्रा भंडार ६०५.८ बिलियन अमेरिकी डॉलर का हो गया। अमेरिकी डॉलर की कीमत ७५ रुपए के स्तर पर जा पहुँची
वैश्विक निर्यातों और आयातों में भारत का हिस्सा वर्ष २००० में क्रमशः ०.७ प्रतिशत और ०.८ प्रतिशत से बढ़ता हुआ वर्ष २०१3 में क्रमशः १.७ प्रतिशत और २.५ प्रतिशत हो गया। भारत के कुल वस्तु व्यापार में भी उल्लेखनीय सुधार हुआ है जिसका सकल घरेलू उत्पाद में हिस्सा २०००-०१ के २१.८ प्रतिशत से बढ़कर २०१3-१4 में ४४.१ प्रतिशत हो गया।
भारत का वस्तु निर्यात २०१३-१४ में ३१२.६ बिलियन अमरीकी डॉलर (सीमा शुल्क आधार पर) तक जा पहुंचा। इसने २०१२-१३ के दौरान की १.८ प्रतिशत के संकुचन की तुलना में ४.१ प्रतिशत की वृद्धि दर्ज की।
२०१२-१३ की तुलना में 20१३-१४ में आयातों के मूल्य में ८.३ प्रतिशत की गिरावट हुई जिसकी वजह तेल-भिन्न आयातों में १२.८
प्रतिशत की गिरावट रही। सरकार द्वारा किए गए अनेक उपायों के कारण सोने का आयात २०११-१२ के १०७८ टन से कम होकर 20१२-१३ में १०३७ टन तथा और कम होकर 20१३-१४ में ६६४ टन रह गया। मूल्य के संदर्भ में, सोने और चांदी के आयात में 20१३-१४ में ४०.१ प्रतिशत की गिरावट हुई और वह ३३.४ बिलियन अमरीकी डॉलर के स्तर पर आ गया। 20१३-१४ में आयातों में हुई जबरस्त गिरावट और साधारण निर्यात वृद्धि के परिणामस्वरूप भारत का व्यापार घाटा 20१२-१३ के १90.३ बिलियन अमरीकी डॉलर से कम होकर १३7.५ बिलियन अमरीकी डॉलर के स्तर पर आ गया जिससे चालू व्यापार घाटे में कमी आई।
चालू खाता घाटा
२०१२-१३ में कैड में भारी वृद्धि हुई और यह २०११-१२ के ७८.२ बिलियन अमरीकी डॉलर से कहीं अधिक ८८.२ बिलियन अमरीकी डॉलर (स.घ.उ. का ४.७ प्रतिशत) के रिकार्ड स्तर पर जा पहुंचा। सरकार द्वारा शीघ्रतापूर्वक किए गए कई उपायों जैसे सोने के आयात पर प्रतिबंध आदि के परिणामस्वरूप, व्यापार घाटा २०१२-१३ के १०.५ प्रतिशत से घटकर २0१३-1४ में सकल घरेलू उत्पाद का ७.९ प्रतिशत रह गया।
भारत का विदेशी ऋण स्टॉक मार्चांत २०१२ के ३६०.८ बिलियन अमरीकी डॉलर के मुकाबले मार्चांत २०१३ में ४०४.९ बिलियन अमरीकी डॉलर था। दिसम्बर २०१३ के अंत तक यह बढ़कर ४२६.० बिलियन अमरीकी डॉलर हो गया।
चूंकि एक बिलियन डॉलर = एक अरब डॉलर
इसलिए ४२६ बिलियन डॉलर = ४२६अरब डॉलर
अब चूंकि एक डाॅलर= ६० रुपये
इसलिए ४२६ अरब डॉलर = ४२६*६० अरब रुपये
अर्थात २५५६० अरब रुपये अर्थात २५५६०*१०० करोड़ रुपये =२५५६०00 करोड़ रुपये =पच्चीस लाख छप्पन हजार करोड़ रुपये।
भारत में रोजगार देने में विभिन्न क्षेत्रों का प्रतिशत योगदान :
भारत के केन्द्र सरकार द्वारा अर्जित आय :
आँकड़े करोड़ रुपयों में
नोट: १ करोड़ = १० मिलियन
भारत में राजसहायता प्राप्त प्रमुख मदों की सूची तथा २०१३-१४ के आँकड़े व 20१४-१५ के बजट प्रावधान इस प्रकार हैं:
२००८-०९ के बाद से केन्द्रीय राजस्व घाटे में बढ़त कराने वाले प्रधान कारणों में से एक कारण सब्सिडियों का उत्तरोत्तर बढ़ते जाना रहा है। लेखा महानियंत्रक (सीजीए) के अनंतिम वास्तविक आंकड़ों के अनुसार, २०१३-१४ में प्रधान सब्सिडियों का योग २,४७,५९६ करोड़ रुपए था। सब्सिडियों में तीव्र वृद्धि हुई है जो २007-०८ में स.घ.उ. के १.4२ प्रतिशत से बढ़ती हुई २0१२-१3 में स.घ.उ. के २.५६ प्रतिशत हो गई, २०१३-१४ (संशोधित अनुमान) के अनुसार यह स.घ.उ. का २.२6 प्रतिशत थी। उर्वरक सब्सिडी का अंशतः विनियंत्रण हुआ है, इसी प्रकार पेट्रोल की कीमतें विनियंत्रित कर दी गई हैं तथा डीजल की कीमतों में ५० पैसे प्रति लीटर की मासिक बढ़ोतरी करायी जा रही है।
लॉकडाउन अथर्व्यवस्था प्रभाव
अप्रैल-दिसम्बर २०२१ तक की अवधि में भारत से वस्तुओं एवं सेवाओं के हुए निर्यात के वास्तविक आंकड़ों को देखते हुए अब यह कहा जा सकता है कि वित्तीय वर्ष २०२१-२२ में भारत से वस्तुओं एवं सेवाओं का निर्यात ६५,००० करोड़ अमेरिकी डॉलर के पार हो जाने की प्रबल सम्भावना है। जिस गति से वित्तीय वर्ष २०२१-२२ में भारत से वस्तुओं एवं सेवाओं के निर्यात बढ़ रहे हैं उससे अब यह माना जा रहा है कि वित्तीय वर्ष 20२२-२३ में भारत से वस्तुओं एवं सेवाओं का निर्यात १००,००० करोड़ अमेरिकी डॉलर के आंकड़े को पार कर सकता है, जो कि अपने आप में एक इतिहास रच देगा।
इन्हें भी देखें
भारत का आर्थिक इतिहास
भारतीय अर्थव्यवस्था की समयरेखा
ब्रिटिश काल में भारत की अर्थव्यवस्था
भारत का आर्थिक विकास
भारत का विदेश व्यापार
दस खरब डॉलर क्लब
भारत के वित्त मंत्रालय का आधिकारिक जालस्थल
ब्रिटिश शासन का भारतीय अर्थव्यवस्था पर प्रभाव
भारतीय अर्थव्यवस्था (स्टेट ट्रेडिंग कारपोरेशन)
भारत दुनिया की पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था वाला देश बना (फरवरी २०२०)
आईएचएस मार्किट का दावा: भारत २०३० तक एशिया की दूसरी बड़ी अर्थव्यवस्था बन जाएगा, ब्रिटेन और जर्मनी को भी छोड़ देगा पीछे (८ जनवरी, २०२२)
विश्व बैंक ने कहा कि भारतीय अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर चालू वित्त वर्ष में ८.३ प्रतिशत और अगले वित्त वर्ष में ८.७ प्रतिशत रहेगी (१२ जनवरी, २०२२)
मोदी राज में अर्थव्यवस्था मजबूत: सबसे तेज रहेगी भारत की विकास दर (१४ जनवरी २०२२)
उन ने लगाया अनुमान, सबसे तेजी से बढ़ेगी भारतीय अर्थव्यवस्था (मई, २०२२)
२०२७ तक जापान और जर्मनी को पछाड़कर दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी इकॉनमी बनेगा भारत (अगस्त २०२३)
एशिया की अर्थव्यवस्थाएँ
भारत की अर्थव्यवस्था |
इतिहासकारों के मत से १२०६ से १५२६ तक भारत पर शासन करने वाले पाँच वंश के सुल्तानों के शासनकाल को दिल्ली सल्तनत () या सल्तनत-ए-हिन्द/सल्तनत-ए-दिल्ली कहा जाता है। ये पाँच वंश थे- गुलाम वंश (१२०६ - १२९०), ख़िलजी वंश (१२९०- १३२०), तुग़लक़ वंश (१३२० - १४१४), सैयद वंश (१४१४ - १४५१), तथा लोदी वंश (१४५१ - १५२६)। इनमें से पहले चार वंश मूल रूप से तुर्क थे और आखरी अफगान था।
मुहम्मद ग़ौरी का गुलाम क़ुतुबुद्दीन ऐबक, गुलाम वंश का पहला सुल्तान था। ऐबक का साम्राज्य पूरे उत्तर भारत तक फैला था। इसके बाद ख़िलजी वंश ने मध्य भारत पर कब्ज़ा किया लेकिन भारतीय उपमहाद्वीप को संगठित करने में नाकाम रहा।
, पर इसने भारतीय-इस्लामिक वास्तुकला के उदय में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। दिल्ली सल्तनत मुस्लिम इतिहास के कुछ कालखंडों में है जहां किसी महिला ने सत्ता संभाली। १५२६ में मुगल सल्तनत द्वारा इस साम्राज्य का अंत हुआ।
९६२ ईस्वी में दक्षिण एशिया के हिन्दू और बौद्ध साम्राज्यों के ऊपर सेना द्वारा, जो कि फारस और मध्य एशिया से आए थे, व्यापक स्तर पर हमलें होने लगे।
इनमें से महमूद गज़नवी ने सिंधु नदी के पूर्व में तथा यमुना नदी के पश्चिम में बसे साम्राज्यों को ९९७ इस्वी से १०३० इस्वी तक १७ बार लूटा। महमूद गज़नवी अपने साम्राज्य को पश्चिम पंजाब तक ही बढ़ा सका।
परंतु वो भारत में स्थायी इस्लामिक शासन स्थापित न कर सके। इसके बाद गोर वंश के सुल्तान मोहम्मद ग़ौरी ने उत्तर भारत पर योजनाबद्ध तरीके से हमले करना आरम्भ किया। उसने अपने उद्देश्य के तहत इस्लामिक शासन को बढ़ाना शुरू किया। गोरी एक सुन्नी मुसलमान था, जिसने अपने साम्राज्य को पूर्वी सिंधु नदी तक बढ़ाया और सल्तनत काल की नीव डाली। कुछ ऐतेहासिक ग्रंथों में सल्तनत काल को ११९२-१५२६ (३३४ वर्ष) तक बताया गया है।
१२०६ में गोरी की हत्या कर दी गई। गोरी की हत्या के बाद उसके एक तुर्क गुलाम (या ममलूक, अरबी: ) कुतुब-उद-दीन ऐबक ने सत्ता संभाली और दिल्ली का पहला सुल्तान बना।
ममलूक या गुलाम (१२०६ - १२९०)
कुतुब-उद-दीन ऐबक एक गुलाम था, जिसने दिल्ली सल्तनत की स्थापना की। वह मूल रूप से तुर्क था। उसके गुलाम होने के कारण ही इस वंश का नाम गुलाम वंश पड़ा।
ऐबक चार साल तक दिल्ली का सुल्तान बना रहा। उसकी मृत्यु के बाद १२१० इस्वी में आरामशाह ने सत्ता संभाली परन्तु उसकी हत्या इल्तुतमिश ने १२११ इस्वी में कर दी। इल्तुतमिश की सत्ता अस्थायी थी और बहुत से मुस्लिम अमीरों ने उसकी सत्ता को चुनौती दी। कुछ कुतुबी अमीरों ने उसका साथ भी दिया। उसने बहुत से अपने विरोधियों का क्रूरता से दमन करके अपनी सत्ता को मजबूत किया। इल्तुतमिश ने मुस्लिम शासकों से युद्ध करके मुल्तान और बंगाल पर नियंत्रण स्थापित किया, जबकि रणथम्भौर और शिवालिक की पहाड़ियों को हिन्दू शासकों से प्राप्त किया। इल्तुतमिश ने १२३६ इस्वी तक शासन किया। इल्तुतमिश की मृत्यु के बाद दिल्ली सल्तनत के बहुत से कमजोर शासक रहे जिसमे उसकी पुत्री रजिया सुल्ताना भी शामिल है। यह क्रम गयासुद्दीन बलबन, जिसने १२६६ से १२८७ इस्वी तक शासन किया था, के सत्ता सँभालने तक जारी रहा। बलबन के बाद कैकूबाद ने सत्ता संभाली। उसने जलाल-उद-दीन फिरोज शाह खिलजी को अपना सेनापति बनाया। खिलजी ने कैकुबाद की हत्या कर सत्ता संभाली, जिससे गुलाम वंश का अंत हो गया।
गुलाम वंश के दौरान, कुतुब-उद-दीन ऐबक ने क़ुतुब मीनार और कुवत्त-ए-इस्लाम (जिसका अर्थ है इस्लाम की शक्ति) मस्जिद का निर्माण शुरू कराया, जो कि आज यूनेस्को द्वारा घोषित
विश्व विरासत स्थल है। क़ुतुब मीनार का निर्माण कार्य इल्तुतमिश द्वारा आगे बढ़ाया और पूर्ण कराया गया। गुलाम वंश के शासन के दौरान बहुत से अफगान और फारस के अमीरों ने भारत में शरण ली और बस गए।
खिलजी (१२९० -१३२०)
इस वंश का पहला शासक जलालुद्दीन खिलजी था। उसने १२९० इस्वी में गुलाम वंश के अंतिम शासक शम्सुद्दीन कैमुर्स की हत्या कर सत्ता प्राप्त की। उसने कैकुबाद को तुर्क, अफगान और फारस के अमीरों के इशारे पर हत्या की।
जलालुद्दीन खिलजी मूल रूप से अफगान-तुर्क मूल का था। उसने ६ वर्ष तक शासन किया। उसकी हत्या उसके भतीजे और दामाद जूना खान ने कर दी। जूना खान ही बाद में अलाउद्दीन खिलजी नाम से जाना गया। अलाउद्दीन खिलजी ने अपने सैन्य अभियान का आरम्भ कारा जागीर के सूबेदार के रूप में की, जहां से उसने मालवा (१२९२) और देवगिरी (१२९४) पर छापा मारा और भारी लूटपाट की। अपनी सत्ता पाने के बाद उसने अपने सैन्य अभियान दक्षिण भारत में भी चलाए। उसने गुजरात, मालवा, रणथम्बौर और चित्तौड़ को अपने राज्य में शामिल कर लिया। उसके इस जीत का जश्न थोड़े समय तक रहा क्योंकि मंगोलों ने उत्तर-पश्चिमी सीमा से लूटमार का सिलसिला शुरू कर दिया। मंगोलों लूटमार के पश्चात वापस लौट गए और छापे मारने भी बंद कर दिए।
मंगोलों के वापस लौटने के पश्चात अलाउद्दीन ने अपने सेनापति मलिक काफूर और खुसरों खान की मदद से दक्षिण भारत की ओर साम्राज्य का विस्तार प्रारंभ कर दिया और भारी मात्रा में लूट का सामान एकत्र किया। उसके सेनापतियों ने लूट के सामान एकत्र किये और उस पर घनिमा (, युद्ध की लूट पर कर) चुकाया, जिससे खिलजी साम्राज्य को मजबूती मिली। इन लूटों में उसे वारंगल की लूट में अब तक के मानव इतिहास का सबसे बड़ा हीरा कोहिनूर भी मिला।
अलाउद्दीन ने कर प्रणाली में बदलाव किए, उसने अनाज और कृषि उत्पादों पर कृषि कर २०% से बढ़ाकर ५०% कर दिया। स्थानीय आधिकारी द्वारा एकत्र करों पर दलाली को खत्म किया। उसने आधिकारियों, कवियों और विद्वानों के वेतन भी काटने शुरू कर दिए। उसकी इस कर नीति ने खजाने को भर दिया, जिसका उपयोग उसने अपनी सेना को मजबूत करने में किया। उसने सभी कृषि उत्पादों और माल की कीमतों के निर्धारण के लिए एक योजना भी पेश की। कौन सा माल बेचना, कौन सा नहीं उसपर भी उसका नियंत्रण था। उसने सहाना-ए-मंडी नाम से कई मंडियां भी बनवाई। मुस्लिम व्यापारियों को इस मंडी का विशेष परमिट दिया जाता था और उनका इन मंडियों पर एकाधिकार भी था। जो इन मंडियों में तनाव फैलाते थे उन्हें मांस काटने जैसी कड़ी सजा मिलती थी। फसलों पर लिया जाने वाला कर सीधे राजकोष में जाता था। इसके कारण अकाल के समय उसके सैनिकों की रसद में कटौती नहीं होती थी।
अलाउद्दीन अपने जीते हुए साम्राज्यों के लोगों पर क्रूरता करने के लिए भी मशहूर है। इतिहासकारों ने उसे तानाशाह तक कहा है। अलाउद्दीन को यदि उसके खिलाफ किए जाने वाले षडयंत्र का पता लग जाता था तो वह उस व्यक्ति को पूरे परिवार सहित मार डालता था। १२९८ में, उसके डर के कारण दिल्ली के आसपास एक दिन में १५,००० से ३०,००० लोगों ने इस्लाम स्वीकार कर लिया।
अलाउद्दीन की मृत्यु के पश्चात १३१६ में, उसके सेनापति मलिक काफूर जिसका जन्म हिन्दू परिवार में हुआ था और बाद में इस्लाम स्वीकार किया था, ने सत्ता हथियाने का प्रयास किया परन्तु उसे अफगान और फारस के अमीरों का समर्थन नहीं मिला। मलिक काफूर मारा गया। खिलजी वंश का अंतिम शासक अलाउद्दीन का १८ वर्षीय पुत्र कुतुबुद्दीन मुबारक शाह था। उसने ४ वर्ष तक शासन किया और खुसरों शाह द्वारा मारा गया। खुसरों शाह का शासन कुछ महीनों में समाप्त हो गया, जब गाज़ी मलिक जो कि बाद में गयासुद्दीन तुगलक कहलाया, ने उसकी १३२० इस्वी में हत्या और गद्दी पर बैठा और इस तरह खिलजी वंश का अंत तुगलक वंश का आरम्भ हुआ।
तुगलक वंश ने दिल्ली पर १३२० से १४१४ तक राज किया। तुगलक वंश का पहला शासक गाज़ी मलिक जिसने अपने को गयासुद्दीन तुगलक के रूप में पेश किया। वह मूल रूप तुर्क-भारतीय था, जिसके पिता तुर्क और मां हिन्दू थी। गयासुद्दीन तुगलक ने पाँच वर्षों तक शासन किया और दिल्ली के समीप एक नया नगर तुगलकाबाद बसाया। कुछ इतिहासकारों जैसे विन्सेंट स्मिथ के अनुसार, वह अपने पुत्र जूना खान द्वारा मारा गया, जिसने १३२५ इस्वी में दिल्ली की गद्दी प्राप्त की। जूना खान ने स्वयं को मुहम्मद बिन तुगलक के पेश किया और २६ वर्षों तक दिल्ली पर शासन किया। उसके शासन के दौरान दिल्ली सल्तनत का सबसे अधिक भौगोलिक क्षेत्रफल रहा, जिसमे लगभग पूरा भारतीय उपमहाद्वीप शामिल था।
मुहम्मद बिन तुगलक एक विद्वान था और उसे कुरान की कुरान, फिक, कविताओं और अन्य क्षेत्रों की व्यापक जानकारियाँ थी। वह अपनें नाते-रिश्तेदारों, वजीरों पर हमेशा संदेह करता था, अपने हर शत्रु को गंभीरता से लेता था तथा कई ऐसे निर्णय लिए जिससे आर्थिक क्षेत्र में उथल-पुथल हो गया। उदाहरण के लिए, उसने चांदी के सिक्कों के स्थान पर ताम्बे के सिक्कों को ढलवाने का आदेश दिया। यह निर्णय असफल साबित हुआ क्योकि लोगों ने अपने घरों में जाली सिक्कों को ढालना शुरू कर दिया और उससे अपना जजिया कर चुकाने लगे।
एक अन्य निर्णय के तहत उसने अपनी राजधानी दिल्ली से महाराष्ट्र के देवगिरी (इसका नाम बदलकर उसने दौलताबाद कर दिया) स्थानान्तरित कर दिया तथा दिल्ली के लोगों को दौलताबाद स्थानान्तरित होने के लिए जबरन दबाव डाला। जो स्थानांतरित हुए उनकी मार्ग में ही मृत्यु हो गई। राजधानी स्थानांतरित करने का निर्णय गलत साबित हुआ क्योंकि दौलताबाद एक शुष्क स्थान था जिसके कारण वहाँ पर जनसंख्या के अनुसार पीने का पानी बहुत कम उपलब्ध था। राजधानी को फिर से दिल्ली स्थानांतरित किया गया। फिर भी, मुहम्मद बिन तुगलक के इस आदेश के कारण बड़ी संख्या में आये दिल्ली के मुसलमान दिल्ली वापस नहीं लौटे। मुस्लिमों के दिल्ली छोड़कर दक्कन जाने के कारण भारत के मध्य और दक्षिणी भागों में मुस्लिम जनसंख्या काफी बढ़ गई। मुहम्मद बिन तुगलक के इस फैसले के कारण दक्कन क्षेत्र के कई हिन्दू और जैन मंदिर तोड़ दिए गए, या उन्हें अपवित्र किया गया; उदाहरण के लिए स्वंयभू शिव मंदिर तथा हजार खम्भा मंदिर।
मुहम्मद बिन तुगलक के खिलाफ १३२७ इस्वी से विद्रोह प्रारंभ हो गए। यह लगातार जारी रहे, जिसके कारण उसके सल्तनत का भौगोलिक क्षेत्रफल सिकुड़ता गया। दक्षिण में विजयनगर साम्राज्य का उदय हुआ जो कि दिल्ली सल्तनत द्वारा होने वाले आक्रमणों का मजबूती से प्रतिकार करने लगा। १३३७ में, मुहम्मद बिन तुगलक ने चीन पर आक्रमण करने का आदेश दिया और अपनी सेनाओं को हिमालय पर्वत से गुजरने का आदेश दिया। इस यात्रा में कुछ ही सैनिक जीवित बच पाए। जीवित बच कर लौटने वाले असफल होकर लौटे। उसके राज में १३२९-३२ के दौरान, उसके द्वारा ताम्बे के सिक्के चलाए जाने के निर्णय के कारण राजस्व को भारी क्षति हुई। उसने इस क्षति को पूर्ण करने के लिए करों में भारी वृद्धि की। १३३८ में, उसके अपने भतीजे ने मालवा में बगावत कर दी, जिस पर उसने हमला किया और उसकी खाल उतार दी। १३३९ से, पूर्वी भागों में मुस्लिम सूबेदारों ने और दक्षिणी भागों से हिन्दू राजाओं ने बगावत का झंडा बुलंद किया और दिल्ली सल्तनत से अपने को स्वतंत्र घोषित कर दिया। मुहम्मद बिन तुगलक के पास इन बगावतों से निपटने के लिए आवश्यक संसाधन नहीं थे, जिससे उसका सम्राज्य सिकुड़ता गया। इतिहासकार वॉलफोर्ड ने लिखा है कि मुहम्मद बिन तुगलक के शासन के दौरान, भारत को सर्वाधिक अकाल झेलने पड़े, जब उसने ताम्र धातुओं के सिक्के का परिक्षण किया। १३४७ में, बहमनी साम्राज्य सल्तनत से स्वतंत्र हो गया और सल्तनत के मुकाबले दक्षिण एशिया में एक नया मुस्लिम साम्राज्य बन गया।
मुहम्मद बिन तुगलक की मृत्यु १३५१ में गुजरात के उन लोगों को पकड़ने के दौरान हो गई, जिन्होंने दिल्ली सल्तनत के खिलाफ बगावत की थी। उसका उत्तराधिकारी फिरोज शाह तुगलक (१३५१-१३८८) था, जिसने अपने सम्राज्य की पुरानी क्षेत्र को पाने के लिए १३५९ में बंगाल के खिलाफ ११ महीनें का युद्ध आरम्भ किया। परन्तु फिर भी बंगाल दिल्ली सल्तनत में शामिल न हो पाया। फिरोज शाह तुगलक ने ३७ वर्षों तक शासन किया। उसने अपने राज्य में खाद्य पदार्थ की आपूर्ति के लिए व अकालों को रोकने के लिए यमुना नदी से एक सिंचाई हेतु नहर बनवाई। एक शिक्षित सुल्तान के रूप में, उसने अपना एक संस्मरण लिखा। इस संस्मरण में उसने लिखा कि उसने अपने पूर्ववर्तियों के उलट, अपने राज में यातना देना बंद कर दिया है। यातना जैसे कि अंग-विच्छेदन, आँखे निकाल लेना, जिन्दा व्यक्ति का शरीर चीर देना, रीढ़ की हड्डी तोड़ देना, गले में पिघला हुआ सीसा डालना, व्यक्ति को जिन्दा फूँक देना आदि शामिल था। इस सुन्नी सुल्तान यह भी लिखा है कि वह सुन्नी समुदाय का धर्मान्तरण को सहन नहीं करता था, न ही उसे वह प्रयास सहन थे जिसमे हिन्दू अपने ध्वस्त मंदिरों को पुनः बनाये। उसने लिखा है कि दंड के तौर पर बहुत से शिया, महदी और हिंदुओं को मृत्युदंड सुनाया। अपने संस्मरण में, उसने अपनी उपलब्धि के रूप में लिखा है कि उसने बहुत से हिंदुओं को सुन्नी इस्लाम धर्म में दीक्षित किया और उन्हें जजिया कर व अन्य करों से मुक्ति प्रदान की, जिन्होंने इस्लाम स्वीकार किया उनका उसने भव्य स्वागत किया। इसके साथ ही, उसने सभी तीनों स्तरों पर करों व जजिया को बढ़ाकर अपने पूर्ववर्तियों के उस फैसले पर रोक लगा दिया जिन्होंने हिन्दू ब्राह्मणों को जजिया कर से मुक्ति दी थी। उसने व्यापक स्तर पर अपने अमीरों व गुलामों की भर्ती की। फिरोज शाह के राज के यातना में कमी तथा समाज के कुछ वर्गों के साथ किए जा रहे पक्षपात के खत्म करने के रूप में देखा गया, परन्तु समाज के कुछ वर्गों के प्रति असहिष्णुता और उत्पीड़न में बढ़ोत्तरी भी हुई।
फिरोज शाह के मृत्यु ने अराजकता और विघटन को जन्म दिया। इस राज के दो अंतिम शासक थे, दोनों ने अपने सुल्तान घोषित किया और १३९४-१३९७ तक शासन किया। जिनमे से एक महमूद तुगलक था जो कि फिरोज शाह तुगलक का बड़ा पुत्र था, उसने दिल्ली से शासन किया। दूसरा नुसरत शाह था, जो कि फिरोज शाह तुगलक का ही रिश्तेदार था, ने फिरोजाबाद पर शासन किया। दोनों सम्बन्धियों के बीच युद्ध तब तक चलता रहा जब तक तैमूर लंग का १३९८ में भारत पर आक्रमण नहीं हुआ। तैमूर, जिसे पश्चिमी साहित्य में तैम्बुरलेन भी कहा जाता है, समरकंद का एक तुर्क सम्राट था। उसे दिल्ली में सुल्तानों के बीच चल रही जंग के बारे में जानकारी थी। इसलिए उसने एक सुनियोजित ढंग से दिल्ली की ओर कूच किया। उसके कूच के दौरान १ लाख से २ लाख के बीच हिन्दू मारे गए। तैमूर का भारत पर शासन करने का उद्देश्य नहीं था। उसने दिल्ली को जमकर लूटा और पूरे शहर को में आग के हवाले कर दिया। पाँच दिनों तक, उसकी सेना ने भयंकर नरसंहार किया। इस दौरान उसने भारी मात्रा में सम्पति, गुलाम व औरतों को एकत्र किया और समरकंद वापस लौट गया। पूरे दिल्ली सल्तनत में अराजकता और महामारी फैल गई। सुल्तान महमूद तुगलक तैमूर के आक्रमण के समय गुजरात भाग गया। आक्रमण के बाद वह फिर से वापस आया तुगलक वंश का अंतिम शासक हुआ और कई गुटों के हाथों की कठपुतली बना रहा।
शासन काल १४१४ से १४५१ तक (३६ वर्ष) सैयद वंश एक तुर्क राजवंश था [७०] जिसने दिल्ली सल्तनत पर १४१५ से १४५१ तक शासन किया। [२२] टमुरुद पर आक्रमण और लूटने दिल्ली सल्तनत को बदमाशों में छोड़ दिया था, और सैयद वंश के शासन के बारे में बहुत कम जानकारी है। एन्निमरी शिममेल, राजवंश के पहले शासक को खज़्र खान के रूप में नोट करता है, जिन्होंने टिमूर का प्रतिनिधित्व करने का दावा करके शक्ति ग्रहण की थी दिल्ली के पास के लोगों ने भी उनके अधिकार पर सवाल उठाए थे उनका उत्तराधिकारी मुबारक खान था, जिन्होंने खुद को मुबारक शाह के रूप में नाम दिया और पंजाब के खो राज्यों को फिर से हासिल करने की कोशिश की, असफल। [६९]
सईद वंश की शक्ति के साथ, भारतीय उपमहाद्वीप पर इस्लाम के इतिहास में गहरा परिवर्तन हुआ, शमीमल के अनुसार। [६ ९] इस्लाम का पहले प्रमुख सुन्नी संप्रदाय पतला था, शिया गुलाब जैसे वैकल्पिक मुस्लिम संप्रदायों, और इस्लामी संस्कृति के नए प्रतिस्पर्धा केन्द्रों ने दिल्ली से परे जड़ें निकालीं।
सैयद वंश को १४५१ में लोदी राजवंश द्वारा विस्थापित किया गया था।
शासन काल १४५१ से १५२६ तक (७६ वर्ष)
लोदी वंश अफगान लोदी जनजाति का था। [७०] बहलोल खान लोदी ने लोदी वंश को शुरू किया और दिल्ली सल्तनत पर शासन करने वाला पहला पश्तून था। [७१] बहलोल लोदी ने अपना शासन शुरू किया कि दिल्ली सल्तनत के प्रभाव का विस्तार करने के लिए मुस्लिम जौनपुर सल्तनत पर हमला करके, और एक संधि के द्वारा आंशिक रूप से सफल हुए। इसके बाद, दिल्ली से वाराणसी (फिर बंगाल प्रांत की सीमा पर) का क्षेत्र वापस दिल्ली सल्तनत के प्रभाव में था।
बहलुल लोदी की मृत्यु के बाद, उनके बेटे निजाम खान ने सत्ता संभाली, खुद को सिकंदर लोदी के रूप में पुनः नामित किया और १४ ९ ८ से १५१७ तक शासन किया। [७२] राजवंश के बेहतर ज्ञात शासकों में से एक, सिकंदर लोदी ने अपने भाई बारबक शाह को जौनपुर से निष्कासित कर दिया, अपने बेटे जलाल खान को शासक के रूप में स्थापित किया, फिर पूर्व में बिहार पर दावा करने के लिए चलाया। बिहार के मुस्लिम गवर्नर्स ने श्रद्धांजलि और करों का भुगतान करने पर सहमति व्यक्त की, लेकिन दिल्ली सल्तनत से स्वतंत्र संचालित। सिकंदर लोदी ने मंदिरों का विनाश करने का अभियान चलाया, विशेषकर मथुरा के आसपास। उन्होंने अपनी राजधानी और अदालत को दिल्ली से आगरा तक ले जाया, [७३] [उद्धरण वांछित] एक प्राचीन हिंदू शहर जिसे लुप्त और दिल्ली सल्तनत काल की शुरुआत के दौरान हमला किया गया था। इस प्रकार सिकंदर ने अपने शासन के दौरान आगरा में भारत-इस्लामी वास्तुकला के साथ इमारतों की स्थापना की, और दिल्ली सल्तनत के अंत के बाद, आगरा का विकास मुगल साम्राज्य के दौरान जारी रहा। [७१] [७४]
सिकंदर लोदी की मृत्यु १५१७ में एक प्राकृतिक मौत हुई, और उनके दूसरे पुत्र इब्राहिम लोदी ने सत्ता ग्रहण की। इब्राहिम को अफगान और फारसी प्रतिष्ठित या क्षेत्रीय प्रमुखों का समर्थन नहीं मिला। [७५] इब्राहिम ने अपने बड़े भाई जलाल खान पर हमला किया और उनकी हत्या कर दी, जिन्हें उनके पिता ने जौनपुर के गवर्नर के रूप में स्थापित किया था और अमीरों और प्रमुखों का समर्थन किया था। [७१] इब्राहिम लोदी अपनी शक्ति को मजबूत करने में असमर्थ थे, और जलाल खान की मृत्यु के बाद, पंजाब के राज्यपाल, दौलत खान लोदी, मुगल बाबर तक पहुंच गए और उन्हें दिल्ली सल्तनत पर हमला करने के लिए आमंत्रित किया। [७३] १५२६ में बाबर ने पानीपत की लड़ाई में इब्राहिम लोदी को हराया और मार डाला। इब्राहिम लोदी की मृत्यु ने दिल्ली सल्तनत को समाप्त कर दिया और मुगल साम्राज्य ने इसे जगह दी।
यह भी देखें
मुस्लीम आक्रमण का राजपूत विरोध
भारत का इतिहास
भारत की सल्तनत
भारत के साम्राज्य |
सुमित सरकार भारत के एक सुप्रसिद्ध इतिहासविद हैं और दिल्ली विश्वविद्यालय में अध्यापन करते हैं। इन्होंनें आधुनिक भारत के इतिहास पर कई महत्वपूर्ण पुस्तकों की रचना की है और बहुत से शोध प्रबंधों का निर्देशन किया है।
आधुनिक भारत-सुमित सरकाऱ
सामाजिक इतिहासलेखन की चुनौती
१९३९ में जन्मे लोग |
जामिया मिल्लिया इस्लामिया (अनुवाद : राष्ट्रीय इस्लामी विश्वविद्यालय) दिल्ली में स्थित भारत का एक प्रमुख सार्वजनिक विश्वविद्यालय है। इसे केन्द्रीय विश्वविद्यालय का स्तर हासिल है। यह नई दिल्ली के दक्षिणी क्षेत्र कें ओखला में यमुना के किनारे स्थित हैं| यह १९२० में ब्रिटिश शासन के दौरान स्थापित किया गया था। यह १९८८ में भारतीय संसद के एक अधिनियम द्वारा केंद्रीय विश्वविद्यालय बनाया गया। दिल्ली के सर सरवर जंग ने विश्वविद्यालय का डिजाइन किया। इसके नजदीकी मेट्रो स्टेशन का नाम जामिया मिल्लिया इस्लामिया है जो दिल्ली मेट्रो की मजेंटा लाइन पर स्थित है ।
भारतीय स्वतंत्रता से पहले, १९२० में मुस्लिम नेताओं और स्वतंत्रता सेनानियों द्वारा विश्वविद्यालय की स्थापना की गई थी। संस्थापक नेताओं में से मुख्य, अली ब्रदर्स के नाम से मशहूर मुहम्मद अली जौहर और शौकत अली थे ।
इंडियन नेशनल कांग्रेस के राष्ट्रवादी नेता अबुल कलाम आज़ाद अपने मुख्य प्रारंभिक संरक्षकों में से एक थे।
मोहम्मद अली जौहर जामिया के पहले कुलगुरू बने।
डाक्टर ज़ाकिर हुसैन ने १९२७ में अपने अशांत समय में विश्वविद्यालय को संभाला और सभी कठिनाइयों के माध्यम से इसे निर्देशित किया। उनकी मृत्यु के बाद, उन्हें विश्वविद्यालय के परिसर में दफनाया गया जहां उनका मकबरा जनता के लिए खुला है।
बाद में मुख्तार अहमद अंसारी कुलपति बन गए। विश्वविद्यालय के मुख्य सभागार और स्वास्थ्य केंद्र का नाम उनके नाम पर रखा गया है।
अब्दुल मजीद ख्वाजा
हकीम अजमल ख़ान
मोहम्मद मुजीब , जिनके नेतृत्व में जामिया एक डीम्ड विश्वविद्यालय बन गया
दिसंबर १९८८ में जामिया को जामिया मिलिया इस्लामिया अधिनियम १९८८ (१९८८ का संख्या ५९) के तहत संसद द्वारा केंद्रीय विश्वविद्यालय की स्थिति दी गई थी।
२००६ में सऊदी अरब के सुल्तान अब्दुल्ला बिन अल सऊद ने विश्वविद्यालय की यात्रा की और पुस्तकालय के निर्माण के लिए ३० मिलियन डॉलर का दान दिया। अब, वह पुस्तकालय डॉ। जाकिर हुसैन लाइब्रेरी (सेंट्रल लाइब्रेरी) के रूप में जाना जाता है।
परिसर एक बड़े क्षेत्र में वितरित किया गया है। इसकी कई इमारतों का आधुनिकीकरण किया जा रहा है। हरियाली और वनों का समर्थन किया जाता है।
विश्वविद्यालय के सुंदर क्रिकेट मैदान (जिसे भोपाल ग्राउंड के नाम से जाना जाता है) ने रंजी ट्रॉफी मैचों और महिलाओं के क्रिकेट टेस्ट मैच की मेजबानी की है। अपने सात फैकल्टीज के अलावा, जामिया में अनवर जमाल किदवाई मास कम्युनिकेशन रिसर्च सेंटर (एमसीआरसी), इंजीनियरिंग और टेक्नोलॉजी फैकल्टी, ललित कला फैकल्टी, सैद्धांतिक भौतिकी केंद्र और मौलाना मोहम्मद अली जौहर अकादमी जैसे सीखने और शोध के केंद्र हैं। थर्ड वर्ल्ड स्टडीज (एटीडब्ल्यूएस) भी है। जामिया स्नातक और स्नातकोत्तर सूचना और प्रौद्योगिकी पाठ्यक्रम प्रदान करता है।
जामिया मिलिया इस्लामिया में नौ संकाय हैं जिसके तहत यह अकादमिक और विस्तार कार्यक्रम प्रदान करता है:
यह संकाय निम्नलिखित कार्यक्रमों के माध्यम से उभरते वकीलों को गुणवत्ता प्रशिक्षण और शिक्षा में माहिर हैं:
बी ए । एलएलबी (ऑनर्स)
सीनियर सेकेंडरी।एलएलएम (डिग्री)
इंजीनियरिंग और प्रौद्योगिकी संकाय
यह संकाय १९८५ में सिविल, मैकेनिकल और इलेक्ट्रिकल इंजीनियरिंग विभागों के साथ स्थापित किया गया था। इसमें इलेक्ट्रॉनिक्स और संचार इंजीनियरिंग विभाग, एप्लाइड साइंस एंड ह्यूमैनिटीज विभाग (१९९६) के विभागों को जोड़ा है और इसमें छह इंजीनियरिंग विभाग हैं: एप्लाइड साइंसेज एंड ह्यूमैनिटीज, सिविल इंजीनियरिंग, इलेक्ट्रिकल इंजीनियरिंग, इलेक्ट्रॉनिक्स एंड कम्युनिकेशंस, मैकेनिकल इंजीनियरिंग, कंप्यूटर इंजीनियरिंग और एक विश्वविद्यालय पॉलिटेक्निक। ये विभाग एजेंसियों द्वारा प्रायोजित कई परियोजनाओं का संचालन करते हैं। संकाय नियमित पाठ्यक्रम और सतत कार्यक्रम प्रदान करता है।
इस फैकल्टी के सात विभाग हैं
इलेक्ट्रॉनिक्स और संचार इंजीनियरिंग
एप्लाइड साइंसेज और हयूमैनिटिज़
वास्तुकला और एकता के संकाय
इस संकाय में वास्तुकला विभाग है और यह निम्नलिखित कार्यक्रम प्रदान करता है:
बी आर्क (नियमित और आत्म-वित्तपोषण)
हुमनिटीज़ और भाषाओं के फैकल्टी
इस फैकल्टी में नौ विभाग हैं जो पीएचडी, एम फिल (प्री-पीएचडी), स्नातकोत्तर, स्नातक, डिप्लोमा और प्रमाणपत्र पाठ्यक्रम में कार्यक्रम पेश करते हैं।
अंग्रेजी और आधुनिक यूरोपीय भाषाएं
पर्यटन और आतिथ्य
इतिहास और संस्कृति
१९२० में अलीगढ़ में अपनी स्थापना के बाद इस्लामी अध्ययन जामिया के पाठ्यक्रम का हिस्सा रहा है। इस्लाम के प्रमुख विद्वानों ने जामिया में इस्लामिक स्टडीज को वैकल्पिक और एक अनिवार्य विषय के रूप में पढ़ाया है, कुछ नाम: मौलाना मोहम्मद अली जोहर, मौलाना असलम जयराजपुरी, मौलाना मोहम्मद अब्दुस सलाम किडवाई नादवी, मौलाना काजी जैनुल अबदीन सजद मेरुति, मोहम्मद मुजीब, एस अबीद हुसैन, ज़ियाल हसन फारुकी, मुशिरुल हक, मजीद अली खान और आईएच आज़ाद फरुकी। १९७५ में इस्लामिक और अरब-ईरानी अध्ययनों का एक अलग बहु अनुशासनात्मक विभाग स्थापित किया गया था। एक ट्राइफुरेशन के बाद, १९८८ में इस्लामिक स्टडीज का एक पूर्ण विभाग स्थापित किया गया। विभाग सालाना पत्रिका, "सदा ए जौहर" प्रकाशित करता है।
तुर्की भाषा और साहित्य
फ्रेंच भाषा और साहित्य
ललित कला संकाय
इस संकाय में छः विभाग हैं जो पीएचडी, ललित कला के मास्टर (एमएफए), बैचलर ऑफ फाइन आर्ट्स (बीएफए), डिप्लोमा और सर्टिफिकेट कोर्स में कार्यक्रम पेश करते हैं।
कला इतिहास और कला प्रशंसा
कैंपस में भारतीय चित्रकार एमएफ हुसैन के नाम पर एक कला गैलरी है।
सामाजिक विज्ञान के फैकल्टी
इस संकाय में सात विभाग हैं
वयस्क और निरंतर शिक्षा
वाणिज्य और व्यापार अध्ययन
सोशल साइंस का संकाय गुलिस्तान-ए-गालिब के आसपास स्थित है और इसे आमतौर पर मुख्य परिसर के रूप में जाना जाता है।
प्राकृतिक विज्ञान के संकाय
इस फैकल्टी में आठ विभाग हैं:
जैव सूचना विज्ञान
यूनानी फार्मेसी में डिप्लोमा
यह संकाय दो विभागों के माध्यम से उभरते शिक्षकों को गुणवत्ता प्रशिक्षण और शिक्षा में माहिर हैं:
शिक्षा में उन्नत अध्ययन संस्थान (पूर्व में शिक्षक प्रशिक्षण विभाग और गैर औपचारिक शिक्षा)
दंत चिकित्सा के संकाय
यह संकाय पांच साल के बीडीएस कार्यक्रम के माध्यम से उभरते दंत चिकित्सकों को गुणवत्ता प्रशिक्षण और शिक्षा में माहिर हैं।
ए जे के मॉस कम्युनिकेशन सेंटर
मास कम्युनिकेशन रिसर्च सेंटर की स्थापना १९८२ में जामिया मिलिया इस्लामिया के तत्कालीन कुलगुरू (बाद के चांसलर) अनवर जमाल किडवाई ने की थी। जामिया आज मुख्य रूप से इन जन संचार पाठ्यक्रमों के लिए अपनी साइट के अनुसार जाना जाता है।
सेंटर फॉर नैनोसाइंस एंड नैनोटेक्नोलॉजी (सीएनएन)
इस केंद्र का मिशन राष्ट्रीय रणनीतिक जरूरतों को पूरा करने के लिए संभावित अनुप्रयोगों के साथ, नैनोसाइंस और नैनो टेक्नोलॉजी के क्षेत्र में अग्रणी बुनियादी और व्यावहारिक अनुसंधान को बढ़ावा देना है। केंद्र के मुख्य शोध फोकस में नैनो-फैब्रिकेशन और नैनो-डिवाइस, नैनो-सामग्री और नैनो-स्ट्रक्चर, नैनो-जैव प्रौद्योगिकी और नैनो-दवा, नैनो-संरचना विशेषता और माप शामिल हैं।
प्रबंधन अध्ययन केंद्र
प्रबंधन अध्ययन केंद्र वर्तमान में तीन कार्यक्रम प्रदान करता है: पीएच.डी. प्रबंधन में, एमबीए (पूर्णकालिक) कार्यक्रम और एमबीए (अंतर्राष्ट्रीय व्यापार) कार्यक्रम।
एमबीए (पूर्णकालिक) कार्यक्रम
एमबीए (इंटरनेशनल बिजनेस) प्रोग्राम
इन संकायों के अलावा, सीखने और शोध के २० केंद्र हैं। इनमें से उल्लेखनीय है एजेके मास कम्युनिकेशन एंड रिसर्च सेंटर द्वारा पेश मास कम्युनिकेशन में एमए:
सूचना प्रौद्योगिकी के लिए एफटीके-केंद्र संकाय सदस्यों, कर्मचारियों, शोध विद्वानों और छात्रों के लिए एक इंटरनेट सुविधा उपलब्ध है।
डॉ। जाकिर हुसैन इंस्टीट्यूट ऑफ इस्लामिक स्टडीज़
मौलाना मोहम्मद अली जौहर अकादमी ऑफ थर्ड वर्ल्ड स्टडीज़
अर्जुन सिंह सेंटर फॉर डिस्टेंस एंड ओपन लर्निंग
नेल्सन मंडेला सेंटर फॉर पीस एंड कॉन्फ्लिक्ट रेज़ोल्यूशन
जवाहर लाल नेहरू अध्ययन केंद्र
तुलनात्मक धर्मों और सभ्यताओं के अध्ययन के लिए केंद्र
पश्चिम एशियाई अध्ययन केंद्र
दलित और अल्पसंख्यक अध्ययन के लिए डॉ केआर नारायणन सेंटर
स्पेनिश और लैटिन अमेरिकी अध्ययन केंद्र
फिजियोथेरेपी और पुनर्वास विज्ञान केंद्र
उर्दू माध्यम शिक्षकों के व्यावसायिक विकास अकादमी
अकादमिक स्टाफ कॉलेज
बरकत अली फिराक राज्य संसाधन केंद्र
कोचिंग और करियर योजना केंद्र
संस्कृति मीडिया और शासन केंद्र
गांधीवादी अध्ययन केंद्र
बेसिक साइंसेज में अंतःविषय अनुसंधान केंद्र
सैद्धांतिक भौतिकी के लिए केंद्र
बाल मार्गदर्शन केंद्र
भारत - अरब सांस्कृतिक केंद्र
जामिया के प्रेमचंद अभिलेखागार और साहित्यिक केंद्र
महिला अध्ययन के लिए सरोजिनी नायड सेंटर
विश्वविद्यालय परामर्श और मार्गदर्शन केंद्र
प्रारंभिक बचपन के विकास और अनुसंधान केंद्र
जामिया मिलिया इस्लामिया भी नर्सरी से वरिष्ठ माध्यमिक स्तर तक शिक्षा प्रदान करता है।
बालक माता केंद्र
गेरडा फिलिप्सबोर्न डे केयर सेंटर
मुशिर फात्मा जामिया नर्सरी स्कूल
जामिया मिडिल स्कूल
जामिया सीनियर सेकेंडरी स्कूल
सय्यद आबिद हुसैन सीनियर सेकेंडरी स्कूल
जामिया गर्ल्स सीनियर सेकेंडरी स्कूल
डॉ। जाकिर हुसैन लाइब्रेरी
विश्वविद्यालय की मुख्य केंद्रीय पुस्तकालय डॉ। जाकिर हुसैन लाइब्रेरी के रूप में जाना जाता है, जिसमें ४००,००० कलाकृतियों के संग्रह के साथ-साथ किताबें, माइक्रोफिल्म्स, आवधिक खंड, पांडुलिपियों और दुर्लभ किताबें शामिल हैं। कुछ हॉल उन्हें समर्पित हैं। पुस्तकालय जामिया के सभी सशक्त छात्रों के लिए खुला है। इसके अलावा, कुछ संकाय और केंद्रों के पुस्तकालयों में विषय संग्रह हैं।
२०१८ वर्ष में एशिया में २०१-२५० और दुनिया में ८०१-१००० रैंकिंग टाइम्स हायर एजुकेशन वर्ल्ड यूनिवर्सिटी रैंकिंग द्वारा स्थान दिया गया है। २०१८ की क्यूएस वर्ल्ड यूनिवर्सिटी रैंकिंग ने इसे एशिया में २०० स्थान दिया। २०१८ में राष्ट्रीय संस्थागत रैंकिंग फ्रेमवर्क (एनआईआरएफ) द्वारा भारत में १९ स्थान पर था, १२ विश्वविद्यालयों में, इंजीनियरिंग रैंकिंग में ३२ और प्रबंधन रैंकिंग में ३४।
कानून के संकाय को आउटलुक इंडिया के "२०१७ में शीर्ष २५ कानून कॉलेजों" और भारत में २० वें सप्ताह के "शीर्ष कानून कॉलेज २०१७" द्वारा भारत में छठा स्थान दिया गया था।
हाकिम अजमल खान (१९२० - १९२७)
मुख्तार अहमद अंसारी (१९२८ - १९३६)
अब्दुल मजीद ख्वाजा (१९३६ - १९६२)
जाकिर हुसैन (१९६३ - १९६९)
मोहम्मद हिदातुल्लाह (१९६९ - १९८५)
खुर्शेद आलम खान (१९८५ - १९९०)
एसएमएच बर्नी (१९९० - १९९५)
खुर्शेद आलम खान (१९९५ -२००१)
फखरुद्दीन टी खोराकीवाला (२००२ - २०११)
लेफ्टिनेंट जनरल मोहम्मद अहमद जाकी (२०१२ - २०१७)
नज्मा हेपतुल्ला (२०१७ -२०२२)
डॉ. सैयदना मुफद्दल सैफुद्दीन (२०२३- आज तक)
मोहम्मद अली जौहर जौहर (१९२० - १९२३)
अब्दुल मजीद ख्वाजा (१९२३ - १९२५)
डॉ. ज़ाकिर हुसैन (१९२६ - १९४८)
मुहम्मद मुजीब (१९४८ - १९७३)
मसूद हुसैन खा़न (१९७३ - १९७८)
अनवर जमाल किदवाई (१९७८ - १९८३)
अली अशरफ (१९८३ - १९८९)
सय्यद ज़हूर क़ासिम (१९८९ - १९९१)
बशीरुद्दीन अहमद (१९९१ - १९९६)
लेफ्टिनेंट जनरल मोहम्मद अहमद ज़की (१९९७ -२०००)
सैयद शाहिद महदी , सेवानिवृत्त आईएएस (२००० - २००४)
मुशिरुल हसन (२००४ - २००९)
नजीब जंग, आईएएस (२००९ -२०१४)
तलत अहमद, एफएनए (२०१४ - २०१९)
यह भी देखें
भारत में विश्वविद्यालयों की सूची
भारत में शिक्षा
जामिया मिलिया इस्लामिया का आधिकारिक जालक्षेत्र
जामिया मिलिया इस्लामिया: एक परिचय (भाग १) युतुबे.कॉम पर
जामिया मिलिया इस्लामिया: एक परिचय (भाग २) युतुबे.कॉम पर
दिल्ली के विश्वविद्यालय |
विश्व व्यापार संगठन (व्टो) एक अन्तर्राष्ट्रीय संगठन है, जिसका ध्येय अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार का उदारीकरण है। यह व्यापार से सम्बन्धित नियमों को निर्धारित और प्रतिष्ठित करने के लिए विकसित देशों की पहल पर आरम्भ किया गया था। इसने आधिकारिक रूप से १ जनवरी १995 को, १994 के मराकेश सहमति के अनुसार संचालन शुरू किया, इस प्रकार १948 में स्थापित प्रशुल्क और व्यापार पर सामान्य सहमति (गैट) की जगह ली। विश्व व्यापार संगठन दुनिया का सबसे बड़ा अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक संगठन है, जिसमें १64 सदस्य देशों का प्रतिनिधित्व है। यह वैश्विक व्यापार और वैश्विक सकल घरेलू उत्पाद का ९८% से अधिक है।
विश्व व्यापार संगठन व्यापार सहमतियों पर आलोचना के लिए एक ढाँचा प्रदान करके भाग लेने वाले देशों के बीच वस्तुओं, सेवाओं और बौद्धिक सम्पदा में व्यापार की सुविधा प्रदान करता है, जिसका उद्देश्य साधारणतः प्रशुल्क, कोटा और अन्य प्रतिबंधों को कम करना या समाप्त करना है; इन समझौतों पर सदस्य सरकारों के प्रतिनिधियों द्वारा हस्ताक्षर किए जाते हैं और उनकी विधायिकाओं द्वारा इसकी पुष्टि की जाती है। विश्व व्यापार संगठन व्यापार सहमतियों के लिए प्रतिभागियों के पालन को लागू करने और व्यापार से सम्बन्धित विवादों को हल करने के लिए स्वतंत्र विवाद समाधान का प्रबंधन करता है। संगठन व्यापारिक भागीदारों के बीच भेदभाव को प्रतिबन्धित करता है, लेकिन पर्यावरण संरक्षण, राष्ट्रीय सुरक्षा और अन्य महत्वपूर्ण लक्ष्यों के लिए अपवाद प्रदान करता है।
व्टो का मुख्यालय जिनेवा, स्वित्सरलैंड में स्थित है। इसका शीर्ष निर्णय लेने वाला निकाय मंत्रिस्तरीय सम्मेलन है, जो सभी सदस्य राज्यों से बना है और साधारणतः द्विवार्षिक रूप से आयोजित किया जाता है; सभी निर्णयों में सामान्य सहमति पर महत्व दिया जाता है। दिन-प्रतिदिन के कार्यों को सामान्य परिषद द्वारा नियंत्रित किया जाता है, जिसमें सभी सदस्यों के प्रतिनिधि शामिल होते हैं। महानिदेशक और चार डिप्टी के नेतृत्व में ६०० से अधिक कर्मियों का एक सचिवालय, प्रशासनिक, पेशेवर और तकनीकी सेवाएँ प्रदान करता है। विश्व व्यापार संगठन का वार्षिक आय-व्ययक लगभग २२० मिलियन अमेरिकी डॉलर है, जो सदस्यों द्वारा उनके अंतर्राष्ट्रीय व्यापार के अनुपात के आधार पर योगदान दिया जाता है।
डब्ल्यूटीओ की मूल संरचना में निम्नलिखित निकाय हैं
मंत्रिस्तरीय सम्मेलन (मिनिस्टेरियल काउंसिल) : यह डब्ल्यूटीओ का शासी निकाय हैई यह संगठन की रणनीतिक दिशा तय करने और अपने अधिकार क्षेत्र के तहत समझौतों पर सभी अंतिम निर्णय लेने के लिए जिम्मेदार होता है। इसमें सभी सदस्य देशों के अंतरराष्ट्रीय व्यापार मंत्री होते हैं।
सामान्य काउंसिल (जनरल काउंसिल) : व्यवहार में, ज्यादातर मामलों के लिए यह डब्ल्यूटीओ का फैसला करने वाला प्रमुख अंग है। इसमें सभी सदस्य देशों के वरिष्ठ प्रतिनिधि (सामान्यतः पर राजदूत स्तर के) होते हैं। यह डब्ल्यूटीओ के प्रतिदिन के कारोबार और प्रबंधन की देखरेख के लिए जिम्मेदार होता है। नीचे वर्णित निकायों में से कई सीधे सामान्य काउंसिल को रिपोर्ट करते हैं।
व्यापार नीति समीक्षा निकाय (थे ट्रेड पॉलिसी रेवीव बॉडी): यह उरुग्वे राउंड के बाद बने व्यापार नीति समीक्षा तंत्र की देखरख करता है। यह सभी सदस्य देशों की व्यापार नीतियों की आवधिक समीक्षा करता है। इसमें भी डब्ल्यूटीओ के सभी सदस्य होते हैं।
विवाद निपटान निकाय (दिसपुते सेटलीमेंट बॉडी): जिन देशों के बीच व्यापार सम्बन्धी कोई विवाद होता है तो वे इसी निकाय के सामने अपील कर न्याय मांगते हैं ई यह सभी डब्ल्यूटीओ समझौतों के लिए विवाद समाधान प्रक्रिया के कार्यान्वयन और प्रभावशीलता एवं डब्ल्यूटीओ विवादों पर दिए गए फैसलों के कार्यान्वयन की देखरेख करता है। इसमें भी डब्ल्यूडीओ के सभी सदस्य होते हैं।
वस्तुओं एवं सेवाओं में व्यापार पर परिषद (थे काउन्सिल्स ऑन ट्रेड इन गुड्स एंड ट्रेड इन सर्विसेस) : यह वस्तुओं ( कपड़ा और कृषि जैसे) और सेवाओं में व्यापार पर हुए आम एवं विशेष समझौतों के विवरणों की समीक्षा के लिए तंत्र प्रदान करते हैं। यह जनरल काउंसिल के जनादेश के तहत काम करती है। इसमें सभी सदस्य देश शामिल रहते हैं।
विश्व व्यापार संगठन के उद्देश्य
विश्व व्यापार संगठन के समझौते लंबे और जटिल होते हैं क्योंकि इनका पाठ कानूनी होता है और यह गतिविधियों की व्यापक रेंज को कवर करते हैं। लेकिन कई सरल, मौलिक सिद्धान्त भी इन सभी दस्तावेजों में होते हैं। ये सिद्धान्त बहुपक्षीय व्यापार प्रणाली के आधार हैं।
किसी देश को अपने व्यापार भागीदारों के बीच भेदभाव नहीं करना चाहिए और इसे अपने और विदेशी उत्पादों, सेवाओं और नागरिकों के बीच भी भेदभाव नहीं करना चाहिए।
व्यापार को प्रोत्साहित करने के सबसे स्पष्ट तरीकों में से एक है व्यापार बाधाओं को कम करना। सीमा शुल्क ( या टैरिफ) और आयात प्रतिबंध या कोटा, एंटी डंपिंग शुल्क आदि इन बाधाओं में शामिल हैं।
यह सुनिश्चित करना चाहिए कि विदेशी कंपनियों, निवेशकों और सरकारों के लिए व्यापार बाधाओं को मनमाने ढंग से नहीं बढाया जाय। स्थिरता एवं पूर्वानुमेयता के साथ निवेश प्रोत्साहित होता है, रोजगार के अवसर बनते हैं और उपभोक्ता प्रतिस्पर्धा का पूरी तरह से लाभ पसंद और कम कीमत, उठा सकते हैं।
'अनुचित' प्रथाओं को हतोत्साहित करना ; जैसे बाजार में अपनी हिस्सेदारी बढ़ाने के लिए निर्यात सब्सिडियों और डंपिंग उत्पादों की लागत कम कर देना।
डब्ल्यूटीओ के समझौते सदस्यों को न सिर्फ पर्यावरण बल्कि जन स्वास्थ्य, पशु स्वास्थ्य एवं ग्रह के स्वास्थ्य के सरंक्षण के उपाय करने की अनुमति देते हैं। हालांकि, ये उपाय राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय व्यापार दोनों ही पर एक ही तरीके से लागू किए जाने चाहिए।
डब्ल्यूटीओ अपने सदस्य देशों द्वारा संचालित है। अपनी गतिविधियों को समन्वित करने के लिए यह बिना अपने सचिवालय द्वारा काम नहीं कर सकता। सचिवालय में ६०० से अधिक कर्मचारी काम करते हैं और इनमें वकील, अर्थशास्त्री, सांख्यिकीविद् औऱ संचार विशेषज्ञ होते हैं जो डब्ल्यूटीओ के सदस्यों को अन्य बातों के अलावा दैनिक आधार पर, वार्तालाप प्रक्रिया के सुचारू होने और अंतरराष्ट्रीय व्यापार के नियमों को सही तरह से लागू करना सुनिश्चित करता है। सभी प्रमुख फैसले पूर्ण सदस्यों द्वारा, चाहे वह मंत्रियों ( जो आम तौर पर दो वर्षों में कम से कम एक बार बैठक करते हैं) या उनके राजदूत या प्रतिनिधियों द्वारा ( जो जेनेवा में नियमित रूप से बैठक करते हैं) किया जाता है।
व्यापार वार्ता : डब्ल्यूटीओ समझौते वस्तुओं, सेवाओं और बौद्धिक संपदा को कवर करते हैं। यह उदारीकरण के सिद्धान्तों और अनुमित अपवादों की व्याख्या करते हैं। इसमें व्यक्तिगत देशों की कम सीमा शुल्क टैरिफ और अन्य व्यापार बाधाओं के प्रति प्रतिबद्धता एवं सेवा बाजार को खोलने एवं उसे खुला रखना शामिल है। विवादों के निपटान के लिए ये प्रक्रियाओं का निर्धारण करते हैं। ये समझौते स्थायी नहीं होते, समयसमय पर इन पर फिर से बातचीत की जाती है औऱ पैकेज में नए समझौते जोड़े जा सकते हैं। नवंबर २००१ में दोहा (कतर) में डब्ल्यूटीओ के व्यापार मंत्रियों द्वारा शुरु किए गए दोहा विकास एजेंडा, के तहत अब कई समझौते किए जा चुके हैं ।
कार्यान्वयन और निगरानी : डब्ल्यूटीओ समझौते के तहत सरकारों को लागू कानूनों एवं अपनाए गए उपायों के बारे में डब्ल्यूटीओ को सूचित कर अपनी व्यापार नीतियों को पारदर्शी बनाने की आवश्यकता होती है। डब्ल्यूटीओ के कई परिषद और समितियां इस बात को सुनिश्चित करती हैं कि नियमों का पालन किया जा रहा है या नहीं और डब्ल्यूटीओ के समझौतों का कार्यान्वयन उचित तरीके से हो रहा है या नहीं। समयसमय पर डब्ल्यूटीओ के सभी सदस्यों की व्यापार नीतियों और प्रथाओं की समीक्षा की जाती है। प्रत्येक समीक्षा में संबंधित देश और डब्ल्यूटीओ सचिवालय द्वारा दी गई रिपोर्ट होती है।
विवादों का निपटारा : यदि किसी देश या किन्हीं देशों को लगता है कि समझौते के तहत उनके अधिकारों का उल्लंघन किया जा रहा है तो वे उस विवाद को डब्ल्यूटीओ में ले जाते हैं। विशेष रूप से नियुक्त किए गए स्वतंत्र विशेषज्ञों द्वारा किए गए फैसले, समझौते की व्याख्याएं, और अलगअलग देशों की प्रतिबद्धताओं पर आधारित होते हैं।
व्यापार क्षमता का निर्माण : डब्ल्यूटीओ के समझौतों में विकासशील देशों के लिए विशेष प्रावधान हैं। इसमें समझौतों और प्रतिबद्धताओं को लागू करने के लिए अधिक समय, उनके व्यापार अवसरों को बढ़ाने के लिए उपाय और उनके व्यापार क्षमता के निर्माण, विवादों से निपटने और तकनीकी मानकों को लागू करने में मदद करने के लिए समर्थन देना शामिल हैं। डब्ल्यूटीओ प्रतिवर्ष विकासशील देशों के लिए तकनीकी सहायता मिशनों का आयोजन करता है। साथ ही यह सरकारी अधिकारियों के लिए जेनेवा में हर वर्ष कई पाठ्यक्रम भी आयोजित करता है। विकासशील देशों को उनके व्यापार में विस्तार के लिए जरूरी कौशल एवं संरचनात्मक ढांचे के विकास हेतु व्यापार के लिए सहायता (एड फॉर ट्रेड) प्रदान करता है।
आउटरीच : डब्ल्यूटीओ सहयोग को बढ़ाने एवं संस्था की गतिविधियों के प्रति जागरुकता फैलाने के लिए गैरसरकारी संगठनों, सांसदों, अन्य अंतरराष्ट्रीय संगठनों, मीडिया और आम जनता से डब्ल्यूटीओ के अलगअलग पहलुओं एवं चालू दोहा वार्ता पर नियमित तौर पर बातचीत करता है।
सदस्य और पर्यवेक्षक
२९ जुलाई २०१६ तक विश्व व्यापार संगठन में १६४ सदस्य हैं। विश्व व्यापार संगठन की सदस्यता के तारीखों के साथ कुछ सदस्य ये हैं:
अफगानिस्तान २९ जुलाई २०१६ नम
अल्बानिया ८ सितंबर २००९
अंगोला २३ नवंबर १९९६ (गैट: ८ अप्रैल १९९४)
एंटीगुआ और बारबुडा १ जनवरी १९९५ (गैट: ३० मार्च १९८७)
अर्जेंटीना १ जनवरी १९९५ (गैट: ११ अक्टूबर १९६७)
आर्मीनिया ५ फरवरी २००३
ऑस्ट्रेलिया १ जनवरी १९९५ (गैट: १ जनवरी १९४८)
क्यूबा २० अप्रैल १९९५ (गैट: १ जनवरी १९४८)
साइप्रस ३० जुलाई १९९५ (गैट: १५ जुलाई १९६३)
चेक गणराज्य १ जनवरी १९९५ (गैट: १५ अप्रैल १९९३)
यमन २६ जून २०१४
जाम्बिया १ जनवरी १९९५ (गैट: १० फरवरी १९८२)
जिम्बाब्वे ५ मार्च १९९५ (गैट: ११ जुलाई १९४८)
बोस्निया और हर्जेगोविना
पवित्र देखो (वैटिकन)
साओ टोमे और प्रिंसिपे
सीरिया अरब गणतंत्र
लागत में कटोती और जीवन स्तर में सुधार
विवादो को निपटाने और व्यापार तनाव में कमी
आर्थिक विकास और रोजगार को प्रोत्साहित
अंतरराष्ट्रीय स्तर पर व्यापार कर की लागत में कटौती
मदद के देशों का विकास
कमजोर को एक मजबूत आवाज देना
पर्यावरण और स्वास्थ्य का समर्थन
शांति और स्थिरता के लिए योगदान
सुर्खियों से टकराने के बिना प्रभावी हो।
विश्व व्यापार संगठन के २० साल
भारत एवं विश्व व्यापार संगठन |
हुडको झील जमशेदपुर में छोटा गोविंदपुर और टेल्को कालोनी के बीच स्थित टाटा मोटर्स द्वारा निर्मित एक कृत्रिम झील है। कंपनी द्वारा इस क्षेत्र को एक पिकनिक स्पाट के रूप में विकसित किया गया है।
भारत की झीलें |
टाटा स्टील (पूर्व में टाटा आयरन ऐंड स्टील कंपनी लिमिटड) अर्थात टिस्को के नाम से जाने जाने वाली यह भारत की प्रमुख इस्पात कंपनी है। जमशेदपुर स्थित इस कारखाने की स्थापना १९०७ में की गयी थी। यह दुनिया की पांचवी सबसे बडी इस्पात कंपनी है जिसकी वार्षिक उत्पादन क्षमता २८ मिलियन टन है। यह फार्च्यून ५०० कंपनियों में भी शुमार है जिसमें इसका स्थान ३१५ वां है। कम्पनी का मुख्यालय मुंबई में स्थित है। यह बृहतर टाटा समूह की एक अग्रणी कंपनी है। टाटा स्टील भारत की सबसे ज्यादा मुनाफा कमाने वाली नीजि क्षेत्र की दूसरी बडी कंपनी भी है जिसकी सकल वार्षिक आय १,३२,११० करोड रुपये है जिसमें ३१ मार्च २००८ को समाप्त हुए वर्ष में शुद्ध लाभ १२,३५० करोड रुपये दर्ज किया गया था।
कंपनी का मुख्य प्लांट जमशेदपुर, झारखंड में स्थित है हलाकि हाल के अधिग्रहणो के बाद इसने बहुराष्ट्रीय कम्पनी का रूप हासिल कर लिया है जिसका काम कई देशों में होता है। वर्ष २००० में इसे दुनिया में सबसे कम लागत में इस्पात बनाने वाली कंपनी का खिताब भी हासिल हुआ। २००५ में इसे दुनिया में सर्वश्रेष्ट इस्पात बनाने का खिताब भी मिला था वर्ल्ड स्टील डायनेमिक्स। कंपनी मुंबई स्टॉक एक्सचेंज के साथ साथ नेशनल स्टाक एक्सचेंज में भी सूचित है एवं वर्ष २००७ के आंकडो के अनुसार इसमें लगभग ८२,७०० कर्मचारी कार्यरत हैं।
टाटा लौह इस्पात मुम्बई, कोलकाता, रेल्वे मागॆ के बहुत निकट स्थित है। सयंत्र को प्रयाप्त जल सुवणॆ रेखा,खार, कोई नदियो से, लोहा नोआमण्ङी और बादाम पहाड से मिल जाता है। कोयला झारिया व रानीगंज, बोकारो से प्राप्त होता है।
२४० किलोमीटर दूर कोलकाता बन्दरगाह है, जँहा से मशीनो का आयात एवं इस्पात के निर्यात कि सुविघा रहती है।
यह भारत का पहला कारखाना है जँहा भारत का २०% इस्पात तैयार होता है।
टाटा स्टील का हिन्दी जालघर
झारखंड की अर्थव्यवस्था |
वायुदूत भारत के सार्वजनिक क्षेत्र की एक विमान सेवा कंपनी है जो दूर दराज के इलाकों के लिये हेलीकाप्टर सेवा मुहैया कराती है। |
सोनारी हवाई अड्डा झारखंड प्रान्त में स्थित जमशेदपुर स्थित घरेलू हवाई-अड्डा। इसका इकाओ कोड है: वेजस , और इयाता कोड है: इक्स । यह जमशेदपुर स्थित एक स्थानीय हवाई अड्डा है। पहले यह वायुदूत की सेवाओं द्वारा कोलकाता जैसे नगरों से जुड़ा था। परंतु अभी यहाँ कोई सार्वजनिक विमान नहीं आता। आमतौर पर इस हवाई अड्डे का उपयोग कुछ विमान चालन प्रशिक्षण क्लबों और टिस्को के अधिकारियों द्वारा किया जाता है।
झारखंड के विमानक्षेत्र
झारखंड में स्थापत्य |
खड़कई नदी झारखंड के दक्षिण पश्चिम हिस्से में बहने वाली एक पहाड़ी नदी है।
नदी की लम्बाई (किलोमीटर मे)
मुहाना स्वर्णरेखा नदी
भारत की नदियाँ |
राँची विश्वविद्यालय () भारत के झारखण्ड राज्य में राँची जिले में एक सार्वजनिक राज्य विश्वविद्यालय है। यह राँची जिले के राँची शहर में स्थित है। इसकी स्थापना १९६० में बिहार विधानसभा के एक अधिनियम द्वारा की गई थी।
राँची विश्वविद्यालय की स्थापना से पहले, वर्तमान झारखण्ड के सभी डिग्री कॉलेजों (संथाल परगना को छोड़कर) पटना विश्वविद्यालय से संबद्ध थे। राँची विश्वविद्यालय की स्थापना १२ जुलाई १९६० को एक शिक्षण सह संबद्धता विश्वविद्यालय के रूप में की गई थी। जब पहली बार राँची विश्वविद्यालय की स्थापना हुई, तो वर्तमान झारखण्ड के सभी डिग्री कॉलेज इसके अधिकार क्षेत्र में आ गए। बिष्णुदेव नारायण सिंह को इस विश्वविद्यालय का पहला कुलपति नियुक्त किया गया था।
१९९२ में, राँची विश्वविद्यालय को विभाजित करके विनोबा भावे विश्वविद्यालय बनाया गया, जिसके अधिकार क्षेत्र को लगभग आधा कर दिया गया। २००९ में, विश्वविद्यालय को दो और विश्वविद्यालय बनाने के लिए विभाजित किया गया - जनवरी २००९ में नीलाम्बर पीताम्बर विश्वविद्यालय, मेदिनीनगर और अगस्त २००९ में कोल्हान विश्वविद्यालय, चाईबासा। २०१९ में इसे डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी विश्वविद्यालय, राँची में विभाजित कर दिया गया। वर्तमान में, राँची विश्वविद्यालय का अधिकार क्षेत्र केवल झारखण्ड के पांच जिलों- राँची, गुमला, खूंटी, सिमडेगा और लोहरदगा के कॉलेजों पर है।
संगठन एवं प्रशासन
भारत के अधिकांश राज्य विश्वविद्यालयों की तरह, विश्वविद्यालय के कुलाधिपति राज्य के राज्यपाल होते हैं - १५ नवंबर २००० को झारखण्ड की स्थापना तक बिहार के राज्यपाल और तब से झारखण्ड के राज्यपाल। विश्वविद्यालय का मुख्य कार्यकारी कुलपति होता है।
संकाय और विभाग
रांची विश्वविद्यालय के विभिन्न विभागों को तीन संकायों में संगठित किया गया था।
इस संकाय में गणित, भौतिकी, रसायन विज्ञान, भूविज्ञान, वनस्पति विज्ञान और प्राणीशास्त्र विभाग शामिल हैं।
इस संकाय में बंगाली, अंग्रेजी, हिंदी, संस्कृत, जनजातीय और क्षेत्रीय भाषा, उर्दू और दर्शनशास्त्र विभाग शामिल हैं।
सामाजिक विज्ञान और वाणिज्य संकाय
इस संकाय में इतिहास, भूगोल, मानव विज्ञान, राजनीति विज्ञान, अर्थशास्त्र, गृह विज्ञान, मनोविज्ञान, समाजशास्त्र और वाणिज्य विभाग शामिल हैं।
राँची विश्वविद्यालय एक संबद्ध विश्वविद्यालय है और इसका अधिकार क्षेत्र झारखण्ड के पांच जिलों: राँची जिला, गुमला जिला, खूंटी जिला, सिमडेगा जिला और लोहरदगा जिला के उच्च शिक्षण संस्थानों पर है। इस विश्वविद्यालय के अधिकार क्षेत्र में १५ घटक कॉलेज और २९ संबद्ध कॉलेज हैं। इन कॉलेजों में मेडिकल कॉलेज, नर्सिंग कॉलेज, इंजीनियरिंग कॉलेज, लॉ कॉलेज, प्रबंधन संस्थान, मनोचिकित्सा संस्थान आदि शामिल हैं।
पारंपरिक एवं दूरस्थ शिक्षा
विश्वविद्यालय और उसके संबद्ध कॉलेज और संस्थान चिकित्सा, नर्सिंग, इंजीनियरिंग, उदार कला आदि जैसे विभिन्न क्षेत्रों में स्नातक और स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम प्रदान करते हैं। राँची विश्वविद्यालय आम तौर पर अपने परिसर में उदार कला में स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम प्रदान करता है; जबकि व्यावसायिक और उदार स्नातक डिग्री पाठ्यक्रम संबद्ध कॉलेजों और संस्थानों के माध्यम से पेश किए जाते हैं। व्यावसायिक स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम (जैसे एम.टेक., एमडी, एमएस) भी संबद्ध संस्थानों के माध्यम से पेश किए जाते हैं। स्नातक उदार कला डिग्री पाठ्यक्रमों में प्रवेश मुख्य रूप से उच्च माध्यमिक (१०+२) परीक्षा के परिणाम पर आधारित होता है। हालाँकि, चिकित्सा और इंजीनियरिंग जैसे व्यावसायिक विषयों के स्नातक पाठ्यक्रमों में प्रवेश के लिए, राष्ट्रीय एजेंसियों द्वारा आयोजित प्रवेश परीक्षा (नीट यूजी या जेईई) देनी होगी। स्नातकोत्तर पाठ्यक्रमों में प्रवेश स्नातक डिग्री परिणामों और विश्वविद्यालय या राष्ट्रीय एजेंसी द्वारा आयोजित प्रवेश परीक्षा के प्रदर्शन पर आधारित होता है। अनुसंधान-स्तरीय कार्यक्रमों के लिए इच्छुक उम्मीदवारों को एक प्रवेश परीक्षा देनी होगी और उसके बाद साक्षात्कार देना होगा। राँची विश्वविद्यालय का एक निदेशालय भी हैदूरस्थ शिक्षा में स्नातकोत्तर अध्ययन संचालित करने के लिए दूरस्थ शिक्षा।
राँची विश्वविद्यालय में एक केंद्रीय पुस्तकालय है जिसमें १,००,००0 से अधिक पुस्तकों का संग्रह है।
राँची विश्वविद्यालय संग्रहालय
राँची विश्वविद्यालय के मानवविज्ञान विभाग में एक संग्रहालय है जो मध्य भारतीय राज्यों और अंडमान और निकोबार द्वीप समूह के नृवंशविज्ञान संग्रह सहित विभिन्न प्रकार के प्रदर्शन प्रदर्शित करता है।
रैंकिंग और मान्यताएँ
राँची विश्वविद्यालय को यूजीसी अधिनियम की धारा १२बी के तहत मान्यता प्राप्त है। २०१७ में, राष्ट्रीय मूल्यांकन एवं प्रत्यायन परिषद (एनएएसी) ने राँची विश्वविद्यालय को 'बी+' ग्रेड से सम्मानित किया।
प्रमुख अंगीभूत कालेज
जमशेदपुर को-आपरेटिव कालेज
जमशेदपुर महिला महाविद्यालय
जेवियर प्रबंधन संस्थान। एक्स एल आर आई
करीम सिटी कालेज
ग्रैजुएट कालेज फार वीमेन
जमशेदपुर वर्कस कालेज
अब्दुल बारी मेमोरियल कालेज
जनता पारिख कालेज
लाल बहादुर शास्त्री मेमोरियल कालेज
श्यामाप्रसाद मुखर्जी कालेज
केएमपीएम इंटर कालेज
सेंट जेवियर्स कालेज, राँची
राँची महिला महाविद्यालय
अंगीभूत संस्थानों की सूची
अब्दुल बारी स्मारक महाविद्यालय, जमशेदपुर
बी एन कॉलेज डाल्टेनगंज
बीडीएसटी महिला महाविद्यालय, घाटशिला
छोटानागपुर विधि महाविद्यालय, जैन मंदिर रोड, रांची
गोसनर महाविद्यालय, क्लब रोडा, रांची
जमशेदपुर कोआपरेटिव महाविद्यालय, जमशेदपुर
जवाहरलाल नेहरू महाविद्यालय, चक्रधरपुर
जमशेदपुर महिला महाविद्यालय, जमशेदपुर
जेकेएस महाविद्यालय, जमशेदपुर
केओ महाविद्यालय, रातू रोड, राँची
करीम सिटी महाविद्यालय, जमशेदपुर
कर्पूरी ठाकुर महाविद्यालय, रांची
लोहिया महाविद्यालय, रांची
लालबहादुर शास्त्री महाविद्यालय, जमशेदपुर
महात्मा गांधी चिकित्सा महाविद्यालय, जमशेदपुर
महेन्द्र प्रसाद महिला महाविद्यालय, घाटशिला
मौलाना आजाद महाविद्यालय, जैन मंदिर रोड, रांची
निर्मला महाविद्यालय, डोरंडा, राँची
पीवीई स्मारक महाविद्यालय, चैनपुर
राजेन्द्र चिकित्सा महाविद्यालय, रांची
राममनोहर लोहिया महाविद्यालय, रांची
बीएनजे महाविद्यालय, सिसाई
राष्ट्रीय प्रौधोगिकी संस्थान, जमशेदपुर
एस के बागे महाविद्यालय, कोलबीरा
एस एन सिन्हा प्रबंधन संस्थान, ध्रुर्वा, रांची
एस पी महाविद्यालय, गढवा
श्यामाप्रसाद मुखर्जी महाविद्यालय, जमशेदपुर
संजय गांधी महाविद्यालय, रांची
सिल्ली महाविद्यालय, सिल्ली
संत अगस्तीन महाविद्यालय, मनोहरपुर
संत जोसफ महाविद्यालय तोरपा
संत पाल महाविद्यालय, बहू बाजारा, रांची
संत जेवियर महाविद्यालय, पुरुलिया रोड [[राँची]
ताना भगत महाविद्यालय, घाघरा
टाटा कालेज, चाईबासा
वर्कर्स कालेज, जमशेदपुर
[[वाई एस महाविद्यालय], रांची
शिवा कालेज आफे एड्यूकेशन, झारखंड
मास्टर इंस्टीट्यूट ऑफ मैनेजमेंट ऐंड टेक्नालाजी
उल्लेखनीय पूर्व छात्र
बाबूलाल मरांडी, राजनीतिज्ञ
करिया मुंडा, राजनीतिज्ञ
राधा चरण गुप्त, गणितज्ञ
दिगंबर हांसदा, साहित्यकार
नरेन्द्र कोहली, साहित्यकार
लुईस मरांडी, राजनितिज्ञ
दिनेश उरांव, राजनितिज्ञ
नीरा यादव, राजनितिज्ञ
रांची विश्वविद्यालय का आधिकारिक जालस्थल
झारखंड के विश्वविद्यालय
राँची की इमारतें |
चाकुलिया (चाकुलिया) भारत के झारखण्ड राज्य के पूर्वी सिंहभूम ज़िले में स्थित एक शहर है। यह पश्चिम बंगाल और झारखंड की सीमा पर स्थित है और हावड़ा टाटानगर मुख्य रेलमार्ग पर स्थित है।
इन्हें भी देखें
पूर्वी सिंहभूम ज़िला
पूर्वी सिंहभूम ज़िला
झारखंड के शहर
पूर्वी सिंहभूम ज़िले के नगर |
जादूगोड़ा (जादुगोरा) भारत के झारखण्ड राज्य के पूर्वी सिंहभूम ज़िले में स्थित एक शहर है।
जादूगोड़ा अपने यूरेनियम की खानों के लिये मशहूर है। जादूगोड़ा का पुराना नाम जारागोरा हुआ करता था। जादूगोड़ा में एक छोटी सी कॉलोनी है जिसमें यूरेनियम खान को नियंत्रित करने वाली कंपनी यूरेनियम कॉर्पोरेशन ऑफ इंडिया लिमिटेड में काम करने वाले लोग रहते हैं। कॉलोनी के आसपास अन्य लोग भी रहते हैं और इन छोटे छोटे गांवों के अलग अलग नाम हैं।
इन्हें भी देखें
पूर्वी सिंहभूम ज़िला
पूर्वी सिंहभूम ज़िला
झारखंड के शहर
पूर्वी सिंहभूम ज़िले के नगर |
समाजशास्त्र मानव समाज का अध्ययन है। यह सामाजिक विज्ञान की एक शाखा है, जो मानवीय सामाजिक संरचना और गतिविधियों से सम्बन्धित जानकारी को परिष्कृत करने और उनका विकास करने के लिए, अनुभवजन्य विवेचन और समालोचनात्मक विश्लेषण की विभिन्न पद्धतियों का उपयोग करता है, अक्सर जिसका ध्येय सामाजिक कल्याण के अनुसरण में ऐसे ज्ञान को लागू करना होता है। समाजशास्त्र की विषयवस्तु के विस्तार, आमने-सामने होने वाले सम्पर्क के सूक्ष्म स्तर से लेकर व्यापक तौर पर समाज के बृहद स्तर तक है।
समाजशास्त्र, पद्धति और विषय वस्तु, दोनों के मामले में एक विस्तृत विषय है। परम्परागत रूप से इसकी केन्द्रियता सामाजिक स्तर-विन्यास (या "वर्ग"), सामाजिक संबंध, सामाजिक संपर्क, धर्म, संस्कृति और विचलन पर रही है, तथा इसके दृष्टिकोण में गुणात्मक और मात्रात्मक शोध तकनीक, दोनों का समावेश है। चूँकि अधिकांशतः मनुष्य जो कुछ भी करता है वह सामाजिक संरचना या सामाजिक गतिविधि की श्रेणी के अर्न्तगत सटीक बैठता है, समाजशास्त्र ने अपना ध्यान धीरे-धीरे अन्य विषयों जैसे- चिकित्सा, सैन्य और दंड संगठन, जन-संपर्क और यहाँ तक कि वैज्ञानिक ज्ञान के निर्माण में सामाजिक गतिविधियों की भूमिका पर केन्द्रित किया है। सामाजिक वैज्ञानिक पद्धतियों की सीमा का भी व्यापक रूप से विस्तार हुआ है। २०वीं शताब्दी के मध्य के भाषाई और सांस्कृतिक परिवर्तनों ने तेज़ी से सामाज के अध्ययन में भाष्य विषयक और व्याख्यात्मक दृष्टिकोण को उत्पन्न किया। इसके विपरीत, हाल के दशकों ने नये गणितीय रूप से कठोर पद्धतियों का उदय देखा है, जैसे सामाजिक नेटवर्क विश्लेषण।
समाजशास्त्रीय तर्क इस शब्द की उत्पत्ति की तिथि उचित समय से पूर्व की बताते हैं। आर्थिक, राजनैतिक और सांस्कृतिक प्रणालीयों सहित समाजशास्त्र की उत्पत्ति, पश्चिमी ज्ञान और दर्शन के संयुक्त भण्डार में आद्य-समाजशास्त्रीय है। प्लेटो के समय से ही सामाजिक विश्लेषण किया जाना शुरू हो गया। यह कहा जा सकता है कि पहला समाजशास्त्री १४वीं सदी का उत्तर अफ्रीकी अरब विद्वान, इब्न खल्दून था, जिसकी मुक़द्दीमा, सामाजिक एकता और सामाजिक संघर्ष के सामाजिक-वैज्ञानिक सिद्धांतों को आगे लाने वाली पहली कृति थी।
शब्द "सोशओलॉजी " पहली बार १७८० में फ़्रांसीसी निबंधकार इमेनुअल जोसफ सीयस (१७४८-१८३६) द्वारा एक अप्रकाशित पांडुलिपि में गढ़ा गया। यह बाद में ऑगस्ट कॉम्ट(१७९८-१८५७) द्वारा १८३८ में स्थापित किया गया। इससे पहले कॉम्ट ने "सामाजिक भौतिकी" शब्द का इस्तेमाल किया था, लेकिन बाद में वह दूसरों द्वारा अपनाया गया, विशेष रूप से बेल्जियम के सांख्यिकीविद् एडॉल्फ क्योटेलेट. कॉम्ट ने सामाजिक क्षेत्रों की वैज्ञानिक समझ के माध्यम से इतिहास, मनोविज्ञान और अर्थशास्त्र को एकजुट करने का प्रयास किया। फ्रांसीसी क्रांति की व्याकुलता के शीघ्र बाद ही लिखते हुए, उन्होंने प्रस्थापित किया कि सामाजिक निश्चयात्मकता के माध्यम से सामाजिक बुराइयों को दूर किया जा सकता है, यह द कोर्स इन पोसिटिव फिलोसफी (१८३०-१८४२) और ए जनरल व्यू ऑफ़ पॉसिटिविस्म (१८४४) में उल्लिखित एक दर्शनशास्त्रीय दृष्टिकोण है। कॉम्ट को विश्वास था कि एक 'प्रत्यक्षवादी स्तर' मानवीय समझ के क्रम में, धार्मिक अटकलों और आध्यात्मिक चरणों के बाद अंतिम दौर को चिह्नित करेगा। यद्यपि कॉम्ट को अक्सर "समाजशास्त्र का पिता" माना जाता है, तथापि यह विषय औपचारिक रूप से एक अन्य संरचनात्मक व्यावहारिक विचारक एमिल दुर्खीम(१८५८-१९१७) द्वारा स्थापित किया गया था, जिसने प्रथम यूरोपीय अकादमिक विभाग की स्थापना की और आगे चलकर प्रत्यक्षवाद का विकास किया। तब से, सामाजिक ज्ञानवाद, कार्य पद्धतियां और पूछताछ का दायरा, महत्त्वपूर्ण रूप से विस्तृत और प्रसारित हुआ
समाजशास्त्र का विकास १९वी सदी में उभरती आधुनिकता की चुनौतियों, जैसे औद्योगिकीकरण, शहरीकरण और वैज्ञानिक पुनर्गठन की शैक्षणिक अनुक्रिया, के रूप में हुआ। यूरोपीय महाद्वीप में इस विषय ने अपना प्रभुत्व जमाया और वहीं ब्रिटिश मानव-शास्त्र ने सामान्यतया एक अलग पथ का अनुसरण किया। २०वीं सदी के समाप्त होने तक, कई प्रमुख समाजशास्त्रियों ने एंग्लो अमेरिकन दुनिया में रह कर काम किया। शास्त्रीय सामाजिक सिद्धांतकारों में शामिल हैं एलेक्सिस डी टोकविले, विल्फ्रेडो परेटो, कार्ल मार्क्स, फ्रेडरिक एंगेल्स, लुडविग गम्प्लोविज़, फर्डिनेंड टोंनीज़, फ्लोरियन जेनिके, थोर्स्तेइन वेब्लेन, हरबर्ट स्पेन्सर, जॉर्ज सिमेल, जार्ज हर्बर्ट मीड,, चार्ल्स कूले, वर्नर सोम्बर्ट, मैक्स वेबर, अंतोनियो ग्राम्शी, गार्गी ल्यूकास, वाल्टर बेंजामिन, थियोडोर डब्ल्यू. एडोर्नो, मैक्स होर्खेइमेर, रॉबर्ट के. मेर्टोंन और टेल्कोट पार्सन्स.विभिन्न शैक्षणिक विषयों में अपनाए गए सिद्धांतों सहित उनकी कृतियां अर्थशास्त्र, न्यायशास्त्र, मनोविज्ञान और दर्शन को प्रभावित करती हैं।
२०वीं सदी के उत्तरार्ध के और समकालीन व्यक्तियों में पियरे बौर्डिए सी.राइट मिल्स, उल्रीश बैक, हावर्ड एस. बेकर, जरगेन हैबरमास डैनियल बेल, पितिरिम सोरोकिन सेमोर मार्टिन लिप्सेट मॉइसे ओस्ट्रोगोर्स्की लुई अलतूसर, निकोस पौलान्त्ज़स, राल्फ मिलिबैंड, सिमोन डे बौवार, पीटर बर्गर, हर्बर्ट मार्कुस, मिशेल फूकाल्ट, अल्फ्रेड शुट्ज़, मार्सेल मौस, जॉर्ज रित्ज़र, गाइ देबोर्ड, जीन बौद्रिलार्ड, बार्नी ग्लासेर, एनसेल्म स्ट्रॉस, डोरोथी स्मिथ, इरविंग गोफमैन, गिल्बर्टो फ्रेयर, जूलिया क्रिस्तेवा, राल्फ डहरेनडोर्फ़, हर्बर्ट गन्स, माइकल बुरावॉय, निकलस लुह्मन, लूसी इरिगरे, अर्नेस्ट गेलनेर, रिचर्ड होगार्ट, स्टुअर्ट हॉल, रेमंड विलियम्स, फ्रेडरिक जेमसन, एंटोनियो नेग्री, अर्नेस्ट बर्गेस, गेर्हार्ड लेंस्की, रॉबर्ट बेलाह, पॉल गिलरॉय, जॉन रेक्स, जिग्मंट बॉमन, जुडिथ बटलर, टेरी ईगलटन, स्टीव फुलर, ब्रूनो लेटर, बैरी वेलमैन, जॉन थॉम्पसन, एडवर्ड सेड, हर्बर्ट ब्लुमेर, बेल हुक्स, मैनुअल कैसल्स और एंथोनी गिडन्स .
प्रत्येक महत्त्वपूर्ण व्यक्ति एक विशेष सैद्धांतिक दृष्टिकोण और अनुस्थापन से सम्बद्ध है। दुर्खीम, मार्क्स और वेबर को आम तौर पर समाजशास्त्र के तीन प्रमुख संस्थापकों के रूप में उद्धृत किया जाता है; उनके कार्यों को क्रमशः प्रकार्यवाद, द्वंद सिद्धांत और गैर-प्रत्यक्षवाद के उपदेशों में आरोपित किया जा सकता है। सिमेलऔर पार्सन्स को कभी-कभार चौथे "प्रमुख व्यक्ति" के रूप में शिक्षा पाठ्यक्रम में शामिल किया जाता है।
एक अकादमिक विषय के रूप में समाजशास्त्र का संस्थानिकरण
१८९० में पहली बार इस विषय को इसके अपने नाम के तहत अमेरिका केकन्सास विश्वविद्यालय, लॉरेंस में पढ़ाया गया। इस पाठ्यक्रम को जिसका शीर्षक समाजशास्त्र के तत्व था, पहली बार फ्रैंक ब्लैकमर द्वारा पढ़ाया गया। अमेरिका में जारी रहने वाला यह सबसे पुराना समाजशास्त्र पाठ्यक्रम है। अमेरिका के प्रथम विकसित स्वतंत्र विश्वविद्यालय, कन्सास विश्वविद्यालय में १८९१ में इतिहास और समाजशास्त्र विभाग की स्थापना की गयी। शिकागो विश्वविद्यालय में समाजशास्त्र विभाग की स्थापना १८९२ में एल्बिओन डबल्यू. स्माल द्वारा की गयी, जिन्होंने १८९५ में अमेरिकन जर्नल ऑफ़ सोशिऑलजी की स्थापना की।
प्रथम यूरोपीय समाजशास्त्र विभाग की स्थापना १८९५ में, ल'एन्ने सोशओलोजीक(१८९६) के संस्थापक एमिल दुर्खीम द्वारा बोर्डिऑक्स विश्वविद्यालय में की गयी। १९०४ में यूनाइटेड किंगडम में स्थापित होने वाला प्रथम समाजशास्त्र विभाग, लंदन स्कूल ऑफ़ इकोनोमिक्स एंड पोलिटिकल साइन्स (ब्रिटिश जर्नल ऑफ़ सोशिऑलजी की जन्मभूमि) में हुआ। १९१९ में, जर्मनी में एक समाजशास्त्र विभाग की स्थापना लुडविग मैक्सीमीलियन्स यूनिवर्सिटी ऑफ़ म्यूनिख में मैक्स वेबर द्वारा और १९२० में पोलैंड में फ्लोरियन जेनेक द्वारा की गई।
समाजशास्त्र में अंतर्राष्ट्रीय सहयोग १८९३ में शुरू हुआ, जब रेने वोर्म्स ने स्थापना की , जो १९४९ में स्थापित अपेक्षाकृत अधिक विशाल अंतर्राष्ट्रीय सामाजिक संघ(ऐसा) द्वारा प्रभावहीन कर दिया गया। १९०५ में, विश्व के सबसे विशाल पेशेवर समाजशास्त्रियों का संगठन, अमेरिकी सामाजिक संगठन की स्थापना हुई और १९०९ में फर्डिनेंड टोनीज़, जॉर्ज सिमेल और मैक्स वेबर सहित अन्य लोगों द्वारा डेच गेसेल्स्चफ्ट फ्र सोजियोलॉजी (समाजशास्त्र के लिए जर्मन समिति) की स्थापना हुई |
प्रत्यक्षवाद और गैर-प्रत्यक्षवाद
आरंभिक सिद्धांतकारों का समाजशास्त्र की ओर क्रमबद्ध दृष्टिकोण, इस विषय के साथ प्रकृति विज्ञान के समान ही व्यापक तौर पर व्यवहार करना था। किसी भी सामाजिक दावे या निष्कर्ष को एक निर्विवाद आधार प्रदान करने हेतु और अपेक्षाकृत कम अनुभवजन्य क्षेत्रों से जैसे दर्शन से समाजशास्त्र को पृथक करने के लिए अनुभववाद और वैज्ञानिक विधि को महत्व देने की तलाश की गई। प्रत्यक्षवाद कहा जाने वाला यह दृष्टिकोण इस धारणा पर आधारित है कि केवल प्रामाणिक ज्ञान ही वैज्ञानिक ज्ञान है और यह कि इस तरह का ज्ञान केवल कठोर वैज्ञानिक और मात्रात्मक पद्धतियों के माध्यम से, सिद्धांतों की सकारात्मक पुष्टि से आ सकता है। एमिल दुर्खीम सैद्धांतिक रूप से आधारित अनुभवजन्य अनुसंधान के एक बड़े समर्थक थे, जो संरचनात्मक नियमों को दर्शाने के लिए "सामाजिक तथ्यों" के बीच संबंधो को तलाश रहे थे। उनकी स्थिति "एनोमी" को खारिज करने और सामाजिक सुधार के लिए सामाजिक निष्कर्षों में उनकी रूचि से अनुप्राणित होती थी। आज, दुर्खीम का विद्वता भरा प्रत्यक्षवाद का विवरण, अतिशयोक्ति और अति सरलीकरण के प्रति असुरक्षित हो सकता है: कॉम्ट ही एकमात्र ऐसा प्रमुख सामाजिक विचारक था जिसने दावा किया कि सामाजिक विभाग भी कुलीन विज्ञान के समान वैज्ञानिक विश्लेषण के अन्तर्गत आ सकता है, जबकि दुर्खीम ने अधिक विस्तार से मौलिक ज्ञानशास्त्रीय सीमाओं को स्वीकृति दी।
प्रत्यक्षवाद के विरोध में प्रतिक्रियाएं तब शुरू हुईं जब जर्मन दार्शनिक जॉर्ज फ्रेडरिक विल्हेम हेगेल ने दोनों अनुभववाद के खिलाफ आवाज उठाई, जिसे उसने गैर-विवेचनात्मक और नियतिवाद के रूप में खारिज कर दिया और जिसे उसने अति यंत्रवत के रूप में देखा. कार्ल मार्क्स की पद्धति, न केवल हेगेल के प्रांतीय भाषावाद से ली गयी थी, बल्कि, भ्रमों को मिटाते हुए "तथ्यों" के अनुभवजन्य अधिग्रहण को पूर्ण करने की तलाश में, विवेचनात्मक विश्लेषण के पक्ष में प्रत्यक्षवाद का बहिष्कार भी है। उसका मानना रहा कि अनुमानों को सिर्फ लिखने की बजाय उनकी समीक्षा होनी चाहिए। इसके बावजूद मार्क्स ने ऐतिहासिक भौतिकवाद के आर्थिक नियतिवाद पर आधारित साइंस ऑफ़ सोसाइटी प्रकाशित करने का प्रयास किया। हेनरिक रिकेर्ट और विल्हेम डिल्थे सहित अन्य दार्शनिकों ने तर्क दिया कि प्राकृतिक दुनिया, मानव समाज के उन विशिष्ट पहलुओं (अर्थ, संकेत और अन्य) के कारण सामाजिक संसारसामाजिक वास्तविकता से भिन्न है, जो मानव संस्कृति को अनुप्राणित करती है।
२०वीं सदी के अंत में जर्मन समाजशास्त्रियों की पहली पीढ़ी ने औपचारिक तौर पर प्रक्रियात्मक गैर-प्रत्यक्षवाद को पेश किया, इस प्रस्ताव के साथ कि अनुसंधान को मानव संस्कृति के मानकों, मूल्यों, प्रतीकों और सामाजिक प्रक्रियाओं पर व्यक्तिपरक दृष्टिकोण से केन्द्रित होना चाहिए। मैक्स वेबर ने तर्क दिया कि समाजशास्त्र की व्याख्या हल्के तौर पर एक 'विज्ञान' के रूप में की जा सकती है, क्योंकि यह खास कर जटिल सामाजिक घटना के आदर्श वर्ग अथवा काल्पनिक सरलीकरण के बीच - कारण-संबंधों को पहचानने में सक्षम है। बहरहाल, प्राकृतिक वैज्ञानिकों द्वारा खोजे जाने वाले संबंधों के विपरीत एक गैर प्रत्यक्षवादी के रूप में, एक व्यक्ति संबंधों की तलाश करता है जो "अनैतिहासिक, अपरिवर्तनीय, अथवा सामान्य है".फर्डिनेंड टोनीज़ ने मानवीय संगठनों के दो सामान्य प्रकारों के रूप में गेमाइनशाफ्ट और गेसेल्शाफ्ट(साहित्य, समुदाय और समाज) को प्रस्तुत किया। टोंनीज़ ने अवधारणा और सामाजिक क्रिया की वास्तविकता के क्षेत्रों के बीच एक स्पष्ट रेखा खींची: पहले वाले के साथ हमें स्वतःसिद्ध और निगमनात्मक तरीके से व्यवहार करना चाहिए ('सैद्धान्तिक' समाजशास्त्र), जबकि दूसरे से प्रयोगसिद्ध और एक आगमनात्मक तरीके से ('व्यावहारिक' समाजशास्त्र).
वेबर और जॉर्ज सिमेल, दोनों, समाज विज्ञान के क्षेत्र में फस्टेहेन अभिगम (अथवा 'व्याख्यात्मक') के अगुआ रहे; एक व्यवस्थित प्रक्रिया, जिसमें एक बाहरी पर्यवेक्षक एक विशेष सांकृतिक समूह, अथवा स्वदेशी लोगो के साथ उनकी शर्तों पर और उनके अपने दृष्टिकोण के हिसाब से जुड़ने की कोशिश करता है। विशेष रूप से, सिमेल के कार्यों के माध्यम से, समाजशास्त्र ने प्रत्यक्ष डाटा संग्रह या भव्य, संरचनात्मक कानून की नियतिवाद प्रणाली से परे, प्रत्यक्ष स्वरूप प्राप्त किया। जीवन भर सामाजिक अकादमी से अपेक्षाकृत पृथक रहे, सिमेल ने कॉम्ट या दुर्खीम की अपेक्षा घटना-क्रिया-विज्ञान और अस्तित्ववादी लेखकों का स्मरण दिलाते हुए आधुनिकता का स्वभावगत विश्लेषण प्रस्तुत किया, जिन्होंने सामाजिक वैयक्तिकता के लिए संभावनाओं और स्वरूपों पर विशेष तौर पर ध्यान केन्द्रित किया। उसका समाजशास्त्र अनुभूति की सीमा के नियो-कांटीयन आलोचना में व्यस्त रहा, जिसमें पूछा जाता है 'समाज क्या है?'जो कांट के सवाल 'प्रकृति क्या है?', का सीधा संकेत है।
बीसवीं सदी के विकास
२०वीं सदी के प्रारंभिक वर्षों में समाजशास्त्र का विस्तार अमेरिका में हुआ जिसके तहत समाज के विकास से संबंधित स्थूल समाजशास्त्र और मानव के दैनंदिन सामाजिक संपर्कों से संबंधित, सूक्ष्म समाजशास्त्र, दोनों का विकास शामिल है। जार्ज हर्बर्ट मीड, हर्बर्ट ब्लूमर और बाद में शिकागो स्कूल के व्यावहारिक सामाजिक मनोविज्ञान के आधार पर समाजशास्त्रियों ने प्रतीकात्मक परस्पारिकता विकसित की। १९३० के दशक में, टेल्कोट पार्सन्स ने, चर्चा को व्यवस्था सिद्धांत और साइबरवाद के एक उच्च व्याख्यात्मक संदर्भ के अन्दर रखते हुए, सामाजिक व्यवस्था के अध्ययन को स्थूल और सूक्ष्म घटकों के संरचनात्मक और स्वैच्छिक पहलू के साथ एकीकृत करते हुए क्रिया सिद्धांत विकसित किया। ऑस्ट्रिया और तदनंतर अमेरिका में, अल्फ्रेड शुट्ज़ ने सामाजिक घटना-क्रिया-विज्ञान का विकास किया, जिसने बाद में सामाजिक निर्माणवाद के बारे में जानकारी दी। उसी अवधि के दौरान फ्रैंकफर्ट स्कूल के सदस्यों ने, सिद्धांत में - वेबर, फ्रायड और ग्रैम्स्की की अंतर्दृष्टि सहित मार्क्सवाद के ऐतिहासिक भौतिकवादी तत्वों को एकीकृत कर विवेचनात्मक सिद्धांत का विकास किया, यदि हमेशा नाम में ना रहा हो, तब भी अक्सर ज्ञान के केन्द्रीय सिद्धांतों से दूर होने के क्रम में पूंजीवादी आधुनिकता की विशेषता बताता है।
यूरोप में, विशेष रूप से आतंरिक युद्ध की अवधि के दौरान, अधिनायकवादी सरकारों द्वारा और पश्चिम में रूढ़िवादी विश्वविद्यालयों द्वारा भी प्रत्यक्ष राजनीतिक नियंत्रण के कारणों से समाजशास्त्र को कमज़ोर किया गया। आंशिक रूप से, इसका कारण था, उदार या वामपंथी विचारों की ओर अपने स्वयं के लक्ष्यों और परिहारों के माध्यम से इस विषय में प्रतीत होने वाली अंतर्निहित प्रवृत्ति.यह देखते हुए कि यह विषय संरचनात्मक क्रियावादियों द्वारा गठित किया गया था: जैविक सम्बद्धता और सामाजिक एकता से संबंधित यह अवलोकन कही न कहीं निराधार था (हालांकि यह पार्सन्स ही था जिसने दुर्खीमियन सिद्धांत को अमेरिकी दर्शकों से परिचय कराया और अव्यक्त रूढ़िवादिता के लिए उसकी विवेचना की आलोचना, इरादे से कहीं ज़्यादा की गयी). उस दौरान क्रिया सिद्धांत और अन्य व्यवस्था सिद्धांत अभिगमों के प्रभाव के कारण २०वीं शताब्दी के मध्य में उ.स-अमेरिकी समाजशास्त्र के, अधिक वैज्ञानिक होने की एक सामान्य लेकिन असार्वभौमिक प्रवृति थी।
२०वीं सदी के उत्तरार्ध में, सामाजिक अनुसंधान तेजी से सरकारों और उद्यमों द्वारा उपकरण के रूप में अपनाया जाने लगा। समाजशास्त्रियों ने नए प्रकार के मात्रात्मक और गुणात्मक शोध विधियों का विकास किया। १९६० के दशक में विभिन्न सामाजिक आंदोलनों के उदय के समानान्तर, विशेष रूप से ब्रिटेन में, सांस्कृतिक परिवर्तन ने सामाजिक संघर्ष (जैसे नव-मार्क्सवाद, नारीवाद की दूसरी लहर और जातीय सम्बन्ध) पर जोर देते विरोधी सिद्धांत का उदय देखा, जिसने क्रियावादी दृष्टिकोण का सामना किया। धर्म के समाजशास्त्र ने उस दशक में, धर्मनिरपेक्षीकरण लेखों, भूमंडलीकरण के साथ धर्म की अन्योन्य-क्रिया और धार्मिक अभ्यास की परिभाषा पर नयी बहस के साथ पुनर्जागरण देखा.लेंस्की और यिन्गेर जैसे सिद्धान्तकारों ने धर्म की 'वृत्तिमूलक' परिभाषा की रचना की; इस बात की पड़ताल करते हुए कि धर्म क्या करता है, बजाय आम परिप्रेक्ष्य में कि, यह क्या है .इस प्रकार, विभिन्न नए सामाजिक संस्थानों और आंदोलनों को उनकी धार्मिक भूमिका के लिए निरीक्षित किया जा सकता है। ल्युकस और ग्राम्स्की की परम्परा में मार्क्सवादी सिद्धांतकारों ने उपभोक्तावाद का परीक्षण समरूपी शर्तों पर करना जारी रखा।
१९६० और १९७० के दशक में तथाकथित उत्तर-सरंचनावादी और उत्तर-आधुनिकतावादी सिद्धांत ने, नीत्शे और घटना-क्रिया विज्ञानियों के साथ-साथ शास्त्रीय सामाजिक वैज्ञानिकों को आधारित करते हुए, सामाजिक जांच के सांचे पर काफी प्रभाव डाला। अक्सर, अंतरपाठ-सम्बन्ध, मिश्रण और व्यंग्य, द्वारा चिह्नित और सामान्य तौर पर सांस्कृतिक शैली 'उत्तर आधुनिकता' के रूप में समझे जाने वाले उत्तरआधुनिकता के सामाजिक विश्लेषण ने एक पृथक युग पेश किया जो सबंधित है (१) मेटानरेटिव्स[अधिवर्णन] के विघटन से (विशेष रूप से ल्योटार्ड के कार्यों में) और (२) वस्तु पूजा और पूंजीवादी समाज के उत्तरार्ध में खपत के साथ प्रतिबिंबित होती पहचान से (डेबोर्ड; बौड्रीलार्ड; जेम्सन). उत्तर आधुनिकता का सम्बन्ध मानव इकाई की ज्ञानोदय धारणाओं की कुछ विचारकों द्वारा अस्वीकृति से भी जुड़ा हुआ है, जैसे मिशेल फूको, क्लाड लेवी-स्ट्रॉस और कुछ हद तक लुईस आल्तुसेर द्वारा मार्क्सवाद को गैर-मानवतावाद के साथ मिलाने का प्रयास. इन आन्दोलनों से जुड़े अधिकतर सिद्धांतकारों ने उत्तरआधुनिकता को किसी तरह की विवेचनात्मक पद्धति के बजाय एक ऐतिहासिक घटना के रूप में स्वीकार करने को महत्ता देते हुए, सक्रिय रूप से इस लेबल को नकार दिया। फिर भी, सचेत उत्तरआधुनिकता के अंश सामान्य रूप में सामाजिक और राजनीतिक विज्ञान में उभरते रहे। एंग्लो-सैक्सन दुनिया में काम कर रहे समाजशास्त्री, जैसे एन्थोनी गिडेंस और जिग्मंट बाऊमन, ने एक विशिष्ट "नए" स्वाभाविक युग का प्रस्ताव रखने के बजाय संचार, वैश्विकरण और आधुनिकता के 'उच्च चरण' के मामले में अड़तिया पुनरावृति के सिद्धांतों पर ध्यान दिया।
प्रत्यक्षवादी परंपरा समाजशास्त्र में सर्वत्र है, विशेष रूप से संयुक्त राज्य अमेरिका में. इस विषय की दो सबसे व्यापक रूप से उद्धृत अमेरिकी पत्रिकाएं, अमेरिकन जर्नल ऑफ सोशिऑलोजी और अमेरिकन सोशिऑलोजिकल रिव्यू, मुख्य रूप से प्रत्यक्षवादी परंपरा में अनुसंधान प्रकाशित करती हैं, जिसमें अस्र अधिक विविधता को दर्शाती है (दूसरी ओर ब्रिटिश जर्नल ऑफ़ सोशिऑलोजी मुख्यतया गैर-प्रत्यक्षवादी लेख प्रकाशित करती है). बीसवीं सदी ने समाजशास्त्र में मात्रात्मक पद्धतियों के प्रयोग में सुधार देखा.अनुदैर्घ्य अध्ययन के विकास ने, जो कई वर्षों अथवा दशकों के दौरान एक ही जनसंख्या का अनुसरण करती है, शोधकर्ताओं को लंबी अवधि की घटनाओं के अध्ययन में सक्षम बनाया और कारण-कार्य-सिद्धान्त का निष्कर्ष निकालने के लिए शोधकर्ताओं की क्षमता में वृद्धि की। नए सर्वेक्षण तरीकों द्वारा उत्पन्न समुच्चय डाटा के आकार में वृद्धि का अनुगमन इस डाटा के विश्लेषण के लिए नई सांख्यिकीय तकनीकों के आविष्कार से हुआ। इस प्रकार के विश्लेषण आम तौर पर सांख्यिकी सॉफ्टवेयर संकुल जैसे सास, स्टाटा, या स्पस की सहायता से किए जाते हैं। सामाजिक नेटवर्क विश्लेषण, प्रत्यक्षवाद परंपरा में एक नए प्रतिमान का उदाहरण है। सामाजिक नेटवर्क विश्लेषण का प्रभाव कई सामाजिक उपभागों में व्याप्त है जैसे आर्थिक समाजशास्त्र (उदाहरण के लिए, जे. क्लाइड मिशेल, हैरिसन व्हाइट या मार्क ग्रानोवेटर का कार्य देखें), संगठनात्मक व्यवहार, ऐतिहासिक समाजशास्त्र, राजनीतिक समाजशास्त्र, अथवा शिक्षा का समाजशास्त्र.स्टेनली अरोनोवित्ज़ के अनुसार, संयुक्त राज्य अमेरिका में सी.राइट मिल्स की प्रवृत्ति और उनके पॉवर एलीट के अध्ययन में उनके मुताबिक अधिक स्वतंत्र अनुभवजन्य समाजशास्त्र का एक सूक्ष्म पुनुरुत्थान दिखाई देता है।
ज्ञान मीमांसा और प्रकृति दर्शनशास्त्र
विषय का किस हद तक विज्ञान के रूप में चित्रण किया जा सकता है यह बुनियादी प्रकृति दर्शनशास्त्र और ज्ञान मीमांसा के प्रश्नों के सन्दर्भ में एक प्रमुख मुद्दा रहा है। सिद्धांत और अनुसंधान के आचरण में किस प्रकार आत्मीयता, निष्पक्षता, अंतर-आत्मीयता और व्यावहारिकता को एकीकृत करें और महत्व दें, इस बात पर विवाद उठते रहते हैं। हालांकि अनिवार्य रूप से १९वीं सदी के बाद से सभी प्रमुख सिद्धांतकारों ने स्वीकार किया है कि समाजशास्त्र, शब्द के पारंपरिक अर्थ में एक विज्ञान नहीं है, करणीय संबंधों को मजबूत करने की क्षमता ही विज्ञान परा-सिद्धांत में किये गए सामान मौलिक दार्शनिक विचार विमर्श का
आह्वान करती है। कभी-कभी नए अनुभववाद की एक नस्ल के रूप में प्रत्यक्षवाद का हास्य चित्रण हुआ है, इस शब्द का कॉम्ते के समय से वियना सर्कल और उससे आगे के तार्किक वस्तुनिष्ठवाद के लिए अनुप्रयोगों का एक समृद्ध इतिहास है। एक ही तरीके से, प्रत्यक्षवाद कार्ल पॉपर द्वारा प्रस्तुत महत्वपूर्ण बुद्धिवादी गैर-न्यायवाद के सामने आया है, जो स्वयं थॉमस कुह्न के ज्ञान मीमांसा के प्रतिमान विचलन की अवधारणा के ज़रिए विवादित है। मध्य २०वीं शताब्दी के भाषाई और सांस्कृतिक बदलावों ने समाजशास्त्र में तेजी से अमूर्त दार्शनिक और व्याख्यात्मक सामग्री में वृद्धि और साथ ही तथाकथित ज्ञान के सामाजिक अधिग्रहण पर "उत्तरआधुनिक" दृष्टिकोण को अंकित करता है। सामाजिक विज्ञान के दर्शन पर साहित्य के सिद्धांत में उल्लेखनीय आलोचना पीटर विंच के द आइडिया ऑफ़ सोशल साइन्स एंड इट्स रिलेशन टू फ़िलासफ़ी (१९५८) में पाया जाता है। हाल के वर्षों में विट्टजेनस्टीन और रिचर्ड रोर्टी जैसी हस्तियों के साथ अक्सर समाजशास्त्री भिड़ गए हैं, जैसे कि सामाजिक दर्शन अक्सर सामाजिक सिद्धांत का खंडन करता है।
संरचना एवं साधन सामाजिक सिद्धांत में एक स्थायी बहस का मुद्दा है: "क्या सामाजिक संरचनाएं अथवा मानव साधन किसी व्यक्ति के व्यवहार का निर्धारण करता है?" इस संदर्भ में 'साधन', व्यक्तियों के स्वतंत्र रूप से कार्य करने और मुक्त चुनाव करने की क्षमता इंगित करता है, जबकि 'संरचना' व्यक्तियों की पसंद और कार्यों को सीमित अथवा प्रभावित करने वाले कारकों को निर्दिष्ट करती है (जैसे सामाजिक वर्ग, धर्म, लिंग, जातीयता इत्यादि). संरचना अथवा साधन की प्रधानता पर चर्चा, सामाजिक सत्ता-मीमांसा के मूल मर्म से संबंधित हैं ("सामाजिक दुनिया किससे बनी है?", "सामाजिक दुनिया में कारक क्या है और प्रभाव क्या है?"). उत्तर आधुनिक कालीन आलोचकों का सामाजिक विज्ञान की व्यापक परियोजना के साथ मेल-मिलाप का एक प्रयास, खास कर ब्रिटेन में, विवेचनात्मक यथार्थवाद का विकास रहा है। राय भास्कर जैसे विवेचनात्मक यथार्थवादियों के लिए, पारंपरिक प्रत्यक्षवाद, विज्ञान को यानि कि खुद संरचना और साधन को ही संभव करने वाले, सत्तामूलक हालातों के समाधान में नाकामी की वजह से 'ज्ञान तर्कदोष' करता है। अत्यधिक संरचनात्मक या साधनपरक विचार के प्रति अविश्वास का एक और सामान्य परिणाम बहुआयामी सिद्धांत, विशेष रूप से टैलकॉट पार्सन्स का क्रिया सिद्धांत और एंथोनी गिड्डेन्स का संरचनात्मकता का सिद्धांत का विकास रहा है। अन्य साकल्यवादी सिद्धांतों में शामिल हैं, पियरे बौर्डियो की गठन की अवधारणा और अल्फ्रेड शुट्ज़ के काम में भी जीवन-प्रपंच का दृश्यप्रपंचवाद का विचार.
सामाजिक प्रत्यक्षवाद के परा-सैद्धांतिक आलोचनाओं के बावजूद, सांख्यिकीय मात्रात्मक तरीके बहुत ही ज़्यादा व्यवहार में रहते हैं। माइकल बुरावॉय ने सार्वजनिक समाजशास्त्र की तुलना, कठोर आचार-व्यवहार पर जोर देते हुए, शैक्षणिक या व्यावसायिक समाजशास्त्र के साथ की है, जो व्यापक रूप से अन्य सामाजिक/राजनैतिक वैज्ञानिकों और दार्शनिकों के बीच संलाप से संबंध रखता है।
समाजशास्त्र का कार्य-क्षेत्र और विषय
सांस्कृतिक समाजशास्त्र में शब्दों, कलाकृतियों और प्रतीको का विवेचनात्मक विश्लेषण शामिल है, जो सामाजिक जीवन के रूपों के साथ अन्योन्य क्रिया करता है, चाहे उप संस्कृति के अंतर्गत हो अथवा बड़े पैमाने पर समाजों के साथ.सिमेल के लिए, संस्कृति का तात्पर्य है "बाह्य साधनों के माध्यम से व्यक्तियों का संवर्धन करना, जो इतिहास के क्रम में वस्तुनिष्ठ बनाए गए हैं। थियोडोर एडोर्नो और वाल्टर बेंजामिन जैसे फ्रैंकफर्ट स्कूल के सिद्धांतकारों के लिए स्वयं संस्कृति, एक ऐतिहासिक भौतिकतावादीविश्लेषण का प्रचलित विषय था। सांस्कृतिक शिक्षा के शिक्षण में सामाजिक जांच-पड़ताल के एक सामान्य विषय के रूप में, १९६४ में इंग्लैंड के बर्मिन्घम विश्वविद्यालय में स्थापित एक अनुसंधान केंद्र, समकालीन सांस्कृतिक अध्ययन केंद्र(क्स) में शुरू हुआ। रिचर्ड होगार्ट, स्टुअर्ट हॉल और रेमंड विलियम्स जैसे बर्मिंघम स्कूल के विद्वानों ने विगत नव-मार्क्सवादी सिद्धांत में परिलक्षित 'उत्पादक' और उपभोक्ताओं' के बीच निर्भीक विभाजन पर प्रश्न करते हुए, सांस्कृतिक ग्रंथों और जनोत्पादित उत्पादों का किस प्रकार इस्तेमाल होता है, इसकी पारस्परिकता पर जोर दिया। सांस्कृतिक शिक्षा, अपनी विषय-वस्तु को सांस्कृतिक प्रथाओं और सत्ता के साथ उनके संबंधों के संदर्भ में जांच करती है। उदाहरण के लिए, उप-संस्कृति का एक अध्ययन (जैसे लन्दन के कामगार वर्ग के गोरे युवा), युवाओं की सामाजिक प्रथाओं पर विचार करेगा, क्योंकि वे शासक वर्ग से संबंधित हैं।विक़ास वैष्णव
अपराध और विचलन
'विचलन' क्रिया या व्यवहार का वर्णन करती है, जो सांस्कृतिक आदर्शों सहित औपचारिक रूप से लागू-नियमों (उदा.,जुर्म) तथा सामाजिक मानदंडों का अनौपचारिक उल्लंघन करती है। समाजशास्त्रियों को यह अध्ययन करने की ढील दी गई है कि कैसे ये मानदंड निर्मित हुए; कैसे वे समय के साथ बदलते हैं; और कैसे वे लागू होते हैं। विचलन के समाजशास्त्र में अनेक प्रमेय शामिल हैं, जो सामाजिक व्यवहार के उचित रूप से समझने में मदद देने के लिए, सामाजिक विचलन के अंतर्गत निहित प्रवृत्तियों और स्वरूप को सटीक तौर पर वर्णित करना चाहते हैं। विपथगामी व्यवहार को वर्णित करने वाले तीन स्पष्ट सामाजिक श्रेणियां हैं: संरचनात्मक क्रियावाद; प्रतीकात्मक अन्योन्यक्रियावाद; और विरोधी सिद्धांत
आर्थिक समाजशास्त्र, आर्थिक दृश्य प्रपंच का समाजशास्त्रीय विश्लेषण है; समाज में आर्थिक संरचनाओं तथा संस्थाओं की भूमिका, तथा आर्थिक संरचनाओं और संस्थाओं के स्वरूप पर समाज का प्रभाव.पूंजीवाद और आधुनिकता के बीच संबंध एक प्रमुख मुद्दा है। मार्क्स के ऐतिहासिक भौतिकवाद ने यह दर्शाने की कोशिश की कि किस प्रकार आर्थिक बलों का समाज के ढांचे पर मौलिक प्रभाव है। मैक्स वेबर ने भी, हालांकि कुछ कम निर्धारक तौर पर, सामाजिक समझ के लिए आर्थिक प्रक्रियाओँ को महत्वपूर्ण माना.जॉर्ज सिमेल, विशेष रूप से अपने फ़िलासफ़ी ऑफ़ मनी में, आर्थिक समाजशास्त्र के प्रारंभिक विकास में महत्वपूर्ण रहे, जिस प्रकार एमिले दर्खिम अपनी द डिवीज़न ऑफ़ लेबर इन सोसाइटी जैसी रचनाओं से.आर्थिक समाजशास्त्र अक्सर सामाजिक-आर्थिकी का पर्याय होता है। तथापि, कई मामलों में, सामाजिक-अर्थशास्त्री, विशिष्ट आर्थिक परिवर्तनों के सामाजिक प्रभाव पर ध्यान केन्द्रित करते हैं, जैसे कि फैक्ट्री का बंद होना, बाज़ार में हेराफेरी, अंतर्राष्ट्रीय व्यापार संधियों पर हस्ताक्षर, नए प्राकृतिक गैस विनियमन इत्यादि.(इन्हें भी देखें: औद्योगिक समाजशास्त्र)
पर्यावरण संबंधी समाजशास्त्र, सामाजिक-पर्यावरणीय पारस्परिक संबंधों का सामाजिक अध्ययन है, जो पर्यावरण संबंधी समस्याओं के सामाजिक कारकों, उन समस्याओं का समाज पर प्रभाव, तथा उनके समाधान के प्रयास पर ज़ोर देता है। इसके अलावा, सामाजिक प्रक्रियाओं पर यथेष्ट ध्यान दिया जाता है, जिनकी वजह से कतिपय परिवेशगत परिस्थितियां, सामाजिक तौर पर परिभाषित समस्याएं बन जाती हैं। (इन्हें भी देखें: आपदा का समाजशास्त्र)
शिक्षा का समाजशास्त्र, शिक्षण संस्थानों द्वारा सामाजिक ढांचों, अनुभवों और अन्य परिणामों को निर्धारित करने के तौर-तरीक़ों का अध्ययन है। यह विशेष रूप से उच्च, अग्रणी, वयस्क और सतत शिक्षा सहित आधुनिक औद्योगिक समाज की स्कूली शिक्षा प्रणाली से संबंधित है।
परिवार और बचपन
परिवार का समाजशास्त्र, विभिन्न सैद्धांतिक दृष्टिकोणों के ज़रिए परिवार एकक, विशेष रूप से मूल परिवार और उसकी अपनी अलग लैंगिक भूमिकाओं के आधुनिक ऐतिहासिक उत्थान की जांच करता है। परिवार, प्रारंभिक और पूर्व-विश्वविद्यालयीन शैक्षिक पाठ्यक्रमों का एक लोकप्रिय विषय है।
लिंग और लिंग-भेद
लिंग और लिंग-भेद का समाजशास्त्रीय विश्लेषण, छोटे पैमाने पर पारस्परिक प्रतिक्रिया औरर व्यापक सामाजिक संरचना, दोनों स्तरों पर, विशिष्टतः सामर्थ्य और असमानता के संदर्भ में इन श्रेणियों का अवलोकन और आलोचना करता है। इस प्रकार के कार्य का ऐतिहासिक मर्म, नारीवाद सिद्धांत और पितृसत्ता के मामले से जुड़ा है: जो अधिकांश समाजों में यथाक्रम महिलाओं के दमन को स्पष्ट करता है। यद्यपि नारीवादी विचार को तीन 'लहरों', यथा (१)१9वीं सदी के उत्तरार्ध में प्रारंभिक लोकतांत्रिक मताधिकार आंदोलन, (२)१960 की नारीवाद की दूसरी लहर और जटिल शैक्षणिक सिद्धांत का विकास, तथा (३) वर्तमान 'तीसरी लहर', जो सेक्स और लिंग के विषय में सभी सामान्यीकरणों से दूर होती प्रतीत होती है, एवं उत्तरआधुनिकता, गैर-मानवतावादी, पश्चमानवतावादी, समलैंगिक सिद्धांत से नज़दीक से जुड़ी हुई है। मार्क्सवादी नारीवाद और स्याह नारीवाद भी महत्वपूर्ण स्वरूप हैं। लिंग और लिंग-भेद के अध्ययन, समाजशास्त्र के अंतर्गत होने की बजाय, उसके साथ-साथ विकसित हुए हैं। हालांकि अधिकांश विश्वविद्यालयों के पास इस क्षेत्र में अध्ययन के लिए पृथक प्रक्रिया नहीं है, तथापि इसे सामान्य तौर पर सामाजिक विभागों में पढ़ाया जाता है।
इंटरनेट समाजशास्त्रियों के लिए विभिन्न तरीकों से रुचिकर है। इंटरनेट अनुसंधान के लिए एक उपकरण (उदाहरणार्थ, ऑनलाइन प्रश्नावली का संचालन) और चर्चा-मंच तथा एक शोध विषय के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है। व्यापक अर्थों में इंटरनेट के समाजशास्त्र में ऑनलाइन समुदायों (उदाहरणार्थ, समाचार समूह, सामाजिक नेटवर्किंग साइट) और आभासी दुनिया का विश्लेषण भी शामिल है। संगठनात्मक परिवर्तन इंटरनेट जैसी नई मीडिया से उत्प्रेरित होती हैं और तद्द्वारा विशाल स्तर पर सामाजिक बदलाव को प्रभावित करते हैं। यह एक औद्योगिक से एक सूचनात्मक समाज में बदलाव के लिए रूपरेखा तैयार करता है (देखें मैनुअल कैस्टेल्स तथा विशेष रूप से उनके "द इंटरनेट गैलेक्सी" में सदी के काया-पलट का वर्णन).ऑनलाइन समुदायों का सांख्यिकीय तौर पर अध्ययन नेटवर्क विश्लेषण के माध्यम से किया जा सकता है और साथ ही, आभासी मानव-जाति-वर्णन के माध्यम से उसकी गुणात्मक व्याख्या की जा सकती है। सामाजिक बदलाव का अध्ययन, सांख्यिकीय जनसांख्यिकी या ऑनलाइन मीडिया अध्ययनों में बदलते संदेशों और प्रतीकों की व्याख्या के माध्यम से किया जा सकता है।
ज्ञान का समाजशास्त्र, मानवीय विचारों और सामाजिक संदर्भ के बीच संबंधों का, जिसमें उसका उदय हुआ है और समाजों में प्रचलित विचारों के प्रभाव का अध्ययन करता है। यह शब्द पहली बार १९२० के दशक में व्यापक रूप से प्रयुक्त हुआ, जब कई जर्मन-भाषी सिद्धांतकारों ने बड़े पैमाने पर इस बारे में लिखा, इनमें सबसे उल्लेखनीय मैक्स शेलर और कार्ल मैन्हेम हैं। २०वीं सदी के मध्य के वर्षों में प्रकार्यवाद के प्रभुत्व के साथ, ज्ञान का समाजशास्त्र, समाजशास्त्रीय विचारों की मुख्यधारा की परिधि पर ही बना रहा। १९६० के दशक में इसे व्यापक रूप से पुनः परिकल्पित किया गया तथा पीटर एल.बर्गर एवं थामस लकमैन द्वारा द सोशल कंस्ट्रक्शन ऑफ़ रियाल्टी (१९६६) में विशेष तौर पर रोज़मर्रा की ज़िंदगी पर और भी निकट से लागू किया गया, तथा और यह अभी भी मानव समाज से गुणात्मक समझ के साथ निपटने वाले तरीकों के केंद्र में है (सामाजिक तौर पर निर्मित यथार्थ से तुलना करें).मिशेल फोकाल्ट के "पुरातात्विक" और "वंशावली" अध्ययन काफी समकालीन प्रभाव के हैं।
क़ानून और दंड
क़ानून का समाजशास्त्र, समाजशास्त्र की उप-शाखा और क़ानूनी शिक्षा के क्षेत्रांतर्गत अभिगम, दोनों को संदर्भित करता है। क़ानून का समाजशास्त्रीय अध्ययन विविधतापूर्ण है, जो समाज के अन्य पहलुओं जैसे कि क़ानूनी संस्थाएं, सिद्धांत और अन्य सामाजिक घटनाएं और इनके विपरीत प्रभावों का क़ानून के साथ पारस्परिक संपर्क का परीक्षण करता है। उसके अनुसंधान के कतिपय क्षेत्रों में क़ानूनी संस्थाओं के सामाजिक विकास, क़ानूनी मुद्दों के सामाजिक निर्माण और सामाजिक परिवर्तन के साथ क़ानून से संबंध शामिल हैं। क़ानून का समाजशास्त्र न्यायशास्त्र, क़ानून का आर्थिक विश्लेषण, अपराध विज्ञान जैसे अधिक विशिष्ट विषय क्षेत्रों के आर-पार जाता है। क़ानून औपचारिक है और इसलिए 'मानक' के समान नहीं है। इसके विपरीत, विचलन का समाजशास्त्र, सामान्य से औपचारिक और अनौपचारिक दोनों विचलनों, यथा अपराध और विचलन के सांस्कृतिक रूपों, दोनों का परीक्षण करता है।
सांस्कृतिक अध्ययन के समान ही, मीडिया अध्ययन एक अलग विषय है, जो समाजशास्त्र और अन्य सामाजिक-विज्ञान तथा मानविकी, विशेष रूप से साहित्यिक आलोचना और विवेचनात्मक सिद्धांत का सम्मिलन चाहता है। हालांकि उत्पादन प्रक्रिया या सुरूचिपूर्ण स्वरूपों की आलोचना की छूट समाजशास्त्रियों को नहीं है, अर्थात् सामाजिक घटकों का विश्लेषण, जैसे कि वैचारिक प्रभाव और दर्शकों की प्रतिक्रिया, सामाजिक सिद्धांत और पद्धति से ही पनपे हैं। इस प्रकार 'मीडिया का समाजशास्त्र' स्वतः एक उप-विषय नहीं है, बल्कि मीडिया एक सामान्य और अक्सर अति-आवश्यक विषय है।
सैन्य समाजशास्त्र का लक्ष्य, सैन्य का एक संगठन के बजाय सामाजिक समूह के रूप में व्यवस्थित अध्ययन करना है। यह एक बहुत ही विशिष्ट उप-क्षेत्र है, जो सैनिकों से संबंधित मामलों की एक अलग समूह के रूप में, आजीविका और युद्ध में जीवित रहने से जुड़े साझा हितों पर आधारित, बाध्यकारी सामूहिक कार्यों की, नागरिक समाज के अंतर्गत अधिक निश्चित और परिमित उद्देश्यों और मूल्यों सहित जांच करता है।
सैन्य समाजशास्त्र, नागरिक-सैन्य संबंधों और अन्य समूहों या सरकारी एजेंसियों के बीच पारस्परिक क्रियाओं से भी संबंधित है। इन्हें भी देखें: आतंकवाद का समाजशास्त्र. शामिल विषय हैं:
सैन्य द्वारा धारित प्रबल धारणाएं,
सेना के सदस्यों की लड़ने की इच्छा में परिवर्तन,
महिलाओं का वर्धित उपयोग,
सैन्य औद्योगिक-शैक्षणिक परिसर,
सैन्य की अनुसंधान निर्भरता और
सेना की संस्थागत और संगठनात्मक संरचना.
राजनीतिक समाजशास्त्र, सत्ता और व्यक्तित्व के प्रतिच्छेदन, सामाजिक संरचना और राजनीति का अध्ययन है। यह अंतःविषय है, जहां राजनीति विज्ञान और समाजशास्त्र एक दूसरे के विपरीत रहते हैं। यहां विषय समाजों के राजनीतिक माहौल को समझने के लिए, सरकारी और आर्थिक संगठनों की प्रणाली के विश्लेषण हेतु, तुलनात्मक इतिहास का उपयोग करता है। इतिहास और सामाजिक आंकड़ों की तुलना और विश्लेषण के बाद, राजनीतिक रुझान और स्वरूप उभर कर सामने आते हैं। राजनीतिक समाजशास्त्र के संस्थापक मैक्स वेबर, मोइसे ऑस्ट्रोगोर्स्की और रॉबर्ट मिशेल्स थे।
समकालीन राजनीतिक समाजशास्त्र के अनुसंधान का ध्यान चार मुख्य क्षेत्रों में केंद्रित है:रजनीती
आधुनिक राष्ट्र का सामाजिक-राजनैतिक गठन.
"किसका शासन है?" समूहों के बीच सामाजिक असमानता (वर्ग, जाति, लिंग, आदि) कैसे राजनीति को प्रभावित करती है।
राजनीतिक सत्ता के औपचारिक संस्थानों के बाहर किस प्रकार सार्वजनिक हस्तियां, सामाजिक आंदोलन और प्रवृतियां राजनीति को प्रभावित करती हैं।
सामाजिक समूहों (उदाहरणार्थ, परिवार, कार्यस्थल, नौकरशाही, मीडिया, आदि) के भीतर और परस्पर सत्ता संबंध
वर्ग एवं जातीय संबंध
वर्ग एवं जातीय संबंध समाजशास्त्र के क्षेत्र हैं, जो समाज के सभी स्तरों पर मानव जाति के बीच सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक संबंधो का अध्ययन करते हैं। यह जाति और नस्लवाद तथा विभिन्न समूहों के सदस्यों के बीच जटिल राजनीतिक पारस्परिक क्रियाओं के अध्ययन को आवृत करता है। राजनैतिक नीति के स्तर पर, इस मुद्दे की आम तौर पर चर्चा या तो समीकरणवाद या बहुसंस्कृतिवाद के संदर्भ में की जाती है। नस्लवाद-विरोधी और उत्तर-औपनिवेशिकता भी अभिन्न अवधारणाएं हैं। प्रमुख सिद्धांतकारों में पॉल गिलरॉय, स्टुअर्ट हॉल, जॉन रेक्स और तारिक मदूद शामिल हैं।
धर्म का समाजशास्त्र, धार्मिक प्रथाओं, सामाजिक ढांचों, ऐतिहासिक पृष्ठभूमि, विकास, सार्वभौमिक विषयों और समाज में धर्म की भूमिका से संबंधित है। सभी समाजों और पूरे अभिलिखित ऐतिहासिक काल में, धर्म की पुनरावर्ती भूमिका पर विशिष्ट ज़ोर दिया जाता रहा है। निर्णायक तौर पर धर्म के समाजशास्त्र में किसी विशिष्ट धर्म से जुड़े सच्चाई के दावों का मूल्यांकन शामिल नहीं है, यद्यपि कई विरोधी सिद्धांतों की तुलना के लिए, पीटर एल.बर्गर द्वारा वर्णित, अन्तर्निहित 'विधिक नास्तिकता' की आवश्यकता हो सकती है। धर्म के समाजशास्त्रियों ने धर्म पर समाज के प्रभाव और समाज पर धर्म के प्रभाव को, दूसरे शब्दों में उनके द्वंदात्मक संबंध को स्पष्ट करने का प्रयास किया है। यह कहा जा सकता है कि समाजशास्त्र विषय दुर्खिम के १८९७ में किए गए कैथोलिक और प्रोटेस्टेंट लोगों के आत्महत्या अध्ययन दरों में धर्म विश्लेषण से आरंभ हुआ।
वैज्ञानिक ज्ञान एवं संस्थाएं
विज्ञान के समाजशास्त्र में विज्ञान का अध्ययन, एक सामाजिक गतिविधि के रूप में शामिल है, विशेषतः जो "वैज्ञानिक गतिविधियों की सामाजिक संरचना और प्रक्रियाओं सहित, विज्ञान की सामाजिक परिस्थितियां और प्रभावों" से वास्ता रखता है। सिद्धांतकारों में गेस्टन बेकेलार्ड, कार्ल पॉपर, पॉल फेयरबेंड, थॉमस कुन, मार्टिन कश, ब्रूनो लेटर, मिशेल फाउकाल्ट, एन्सेल्म स्ट्रॉस लूसी सचमैन, सैल रिस्टिवो, केरिन नॉर-सेटिना, रैनडॉल कॉलिन्स, बैरी बार्नेस, डेविड ब्लूर,हैरी कॉलिन्स और स्टीव फुलरशामिल हैं।
सामाजिक स्तर-विन्यास, समाज में व्यक्तियों के सामाजिक वर्ग, जाति और विभाग की पदानुक्रमित व्यवस्था है। आधुनिक पश्चिमी समाज में स्तर-विन्यास, पारंपरिक रूप से सांस्कृतिक और आर्थिक वर्ग के तीन मुख्य स्तरों से संबंधित हैं : उच्च वर्ग, मध्यम वर्ग और निम्न वर्ग, लेकिन हर एक वर्ग आगे जाकर और छोटे वर्गों में उप-विभाजित हो सकता है (उदाहरणार्थ, व्यावसायिक).सामाजिक स्तर-विन्यास समाजशास्त्र में बिल्कुल भिन्न प्रकार से उल्लिखित है। संरचनात्मक क्रियावाद के समर्थकों का सुझाव है कि, सामाजिक स्तर-विन्यास अधिकांश राष्ट्र समाजों में मौजूद होने की वजह से, उनके अस्तित्व को स्थिर करने हेतु मदद देने में पदानुक्रम लाभकारी होना चाहिए। इसके विपरीत, विवादित सिद्धांतकारों ने विभजित समाज में संसाधनों के अभाव और सामाजिक गतिशीलता के अभाव की आलोचना की। कार्ल मार्क्स ने पूंजीवादी व्यवस्था में सामाजिक वर्गों को उनकी उत्पादकता के आधार पर विभाजित किया: पूंजीपति-वर्ग का ही दबदबा है, लेकिन यह स्वयं ही दरिद्रतम श्रमिक वर्ग को शामिल करता है, चूंकि कार्यकर्ता केवल अपनी श्रम शक्ति को बेच सकते हैं (ठोस भवन के ढांचे की नींव तैयार करते हुए). अन्य विचारक जैसे कि मैक्स वेबर ने मार्क्सवादी आर्थिक नियतत्ववाद की आलोचना की और इस बात पर ध्यान दिया कि सामाजिक स्तर-विन्यास विशुद्ध रूप से आर्थिक असमानताओं पर निर्भर नहीं है, बल्कि स्थिति और शक्ति में भिन्नता पर भी निर्भर है। (उदाहरण के लिए पितृसत्ता पर). राल्फ़ दह्रेंदोर्फ़ जैसे सिद्धांतकारों ने आधुनिक पश्चिमी समाज में विशेष रूप से तकनीकी अथवा सेवा आधारित अर्थव्यवस्थाओं में एक शिक्षित कार्य बल की जरूरत के लिए एक विस्तृत मध्यम वर्ग की ओर झुकाव को उल्लिखित किया। भूमंडलीकरण से जुड़े दृष्टिकोण, जैसे कि निर्भरता सिद्धांत सुझाव देते हैं कि यह प्रभाव तीसरी दुनिया में कामगारों के बदलाव के कारण है।
शहरी और ग्रामीण स्थल
शहरी समाजशास्त्र में सामाजिक जीवन और महानगरीय क्षेत्र में मानवीय संबंधों का विश्लेषण भी शामिल है। यह एक मानक का अध्ययन है, जिसमें संरचनाओं, प्रक्रियायों, परिवर्तन और शहरी क्षेत्र की समस्याओं की जानकारी देने का प्रयास किया जाता है और ऐसा कर आयोजना और नीति निर्माण के लिए शक्ति प्रदान की जाती है। समाजशास्त्र के अधिकांश क्षेत्रों की तरह, शहरी समाजशास्त्री सांख्यिकी विश्लेषण, निरीक्षण, सामाजिक सिद्धांत, साक्षात्कार और अन्य तरीकों का उपयोग, कई विषयों जैसे पलायन और जनसांख्यिकी प्रवृत्तियों, अर्थशास्त्र, गरीबी, वंशानुगत संबंध, आर्थिक रुझान इत्यादि के अध्ययन के लिए किया जाता है। औद्योगिक क्रांति के बाद जॉर्ज सिमेल जैसे सिद्धांतकारों ने द मेट्रोपोलिस एंड मेंटल लाइफ (१९०३) में शहरीकरण की प्रक्रिया और प्रभावित सामाजिक अलगाव और गुमनामी पर ध्यान केन्द्रित किया। १९२० और १९३० के दशक में शिकागो स्कूल ने शहरी समाजशास्त्र में प्रतीकात्मक पारस्परिक सम्बद्धता को क्षेत्र में अनुसंधान की एक विधि के रूप में उपयोग में लाकर एक विशेष काम किया है। ग्रामीण समाजशास्त्र, इसके विपरीत, गैर सामाजिक जीवन महानगरीय क्षेत्रों के अध्ययन से जुड़े समाजशास्त्र का एक क्षेत्र है।
सामाजिक शोध विधियों को दो व्यापक श्रेणियों में विभाजित किया जा सकता है:
मात्रात्मक डिजाइन, कई मामलों के मध्य छोटी मात्रा के लक्षणों के बीच संबंधो पर प्रकाश डालते हुए, सामाजिक घटना की मात्रा निर्धारित करने और संख्यात्मक आंकड़ों के विश्लेषण के प्रयास से सम्बद्ध है।
गुणात्मक डिजाइन, मात्रात्मकता की बजाय व्यक्तिगत अनुभवों और विश्लेषण पर जोर देता है और सामाजिक घटना के प्रयोजन को समझने से जुड़ा हुआ है और अपेक्षाकृत चंद मामलों के मध्य कई लक्षणों के बीच संबंधों पर केन्द्रित है।
जबकि कई पहलुओं में काफी हद तक भिन्न होते हुए, गुणात्मक और मात्रात्मक, दोनों दृष्टिकोणों में सिद्धांत और आंकडों के बीच व्यवस्थित अन्योन्य-क्रिया शामिल है। विधि का चुनाव काफी हद तक इस बात पर निर्भर करता है कि शोधकर्ता क्या खोज रहा है। उदाहरण के लिए, एक पूरी आबादी के सांख्यिकीय सामान्यीकरण का खाका खींचने से जुड़ा शोधकर्ता, एक प्रतिनिधि नमूना जनसंख्या को एक सर्वेक्षण प्रश्नावली वितरित कर सकता है। इसके विपरीत, एक शोधकर्ता, जो किसी व्यक्ति के सामाजिक कार्यों के पूर्ण प्रसंग को समझना चाहता है, नृवंशविज्ञान आधारित प्रतिभागी अवलोकन या मुक्त साक्षात्कार चुन सकता है। आम तौर पर अध्ययन एक 'बहु-रणनीति' डिजाइन के हिस्से के रूप में मात्रात्मक और गुणात्मक विधियों को मिला देते हैं। उदाहरण के लिए, एक सांख्यिकीय स्वरूप या एक लक्षित नमूना हासिल करने के लिए मात्रात्मक अध्ययन किया जा सकता है और फिर एक साधन की अपनी प्रतिक्रिया को निर्धारित करने के लिए गुणात्मक साक्षात्कार के साथ संयुक्त किया जा सकता है।
जैसा कि अधिकांश विषयों के मामलों में है, अक्सर समाजशास्त्री विशेष अनुसंधान तकनीकों के समर्थन शिविरों में विभाजित किये गए हैं। ये विवाद सामाजिक सिद्धांत के ऐतिहासिक कोर से संबंधित हैं (प्रत्यक्षवाद और गैर-प्रत्यक्षवाद, तथा संरचना और साधन).
पद्धतियों के प्रकार
शोध विधियों की निम्नलिखित सूची न तो अनन्य है और ना ही विस्तृत है :
अभिलेखीय अनुसंधान: कभी-कभी "ऐतिहासिक विधि" के रूप में संबोधित.यह शोध जानकारी के लिए विभिन्न ऐतिहासिक अभिलेखों का उपयोग करता है जैसे आत्मकथाएं, संस्मरण और समाचार विज्ञप्ति.
सामग्री विश्लेषण: साक्षात्कार और प्रश्नावली की सामग्री का विश्लेषण, व्यवस्थित अभिगम के उपयोग से किया जाता है। इस प्रकार की अनुसंधान प्रणाली का एक उदाहरण "प्रतिपादित सिद्धांत" के रूप में जाना जाता है। पुस्तकों और पत्र-पत्रिकाओं का भी विश्लेषण यह जानने के लिए किया जाता है कि लोग कैसे संवाद करते हैं और वे संदेश, जिनके बारे में लोग बातें करते हैं या लिखते हैं।
प्रयोगात्मक अनुसंधान: शोधकर्ता एक एकल सामाजिक प्रक्रिया या सामाजिक घटना को पृथक करता है और डाटा का उपयोग सामाजिक सिद्धांत की या तो पुष्टि अथवा निर्माण के लिए करता है। प्रतिभागियों ("विषय" के रूप में भी उद्धृत) को विभिन्न स्थितियों या "उपचार" के लिए बेतरतीब ढंग से नियत किया जाता है और फिर समूहों के बीच विश्लेषण किया जाता है। यादृच्छिकता शोधकर्ता को यह सुनिश्चित कराती है कि यह व्यवहार समूह की भिन्नताओं पर प्रभाव डालता है न कि अन्य बाहरी कारकों पर.
सर्वेक्षण शोध: शोधकर्ता साक्षात्कार, प्रश्नावली, या एक विशेष आबादी का प्रतिनिधित्व करने के लिए चुने गए लोगों के एक समूह से (यादृच्छिक चयन सहित) समान पुनर्निवेश प्राप्त करता है। एक साक्षात्कार या प्रश्नावली से प्राप्त सर्वेक्षण वस्तुएं, खुले-अंत वाली अथवा बंद-अंत वाली हो सकती हैं।
जीवन इतिहास: यह व्यक्तिगत जीवन प्रक्षेप पथ का अध्ययन है। साक्षात्कार की एक श्रृंखला के माध्यम से, शोधकर्ता उनके जीवन के निर्णायक पलों या विभिन्न प्रभावों को परख सकते हैं।
अनुदैर्ध्य अध्ययन: यह एक विशिष्ट व्यक्ति या समूह का एक लंबी अवधि में किया गया व्यापक विश्लेषण है।
अवलोकन: इन्द्रियजन्य डाटा का उपयोग करते हुए, कोई व्यक्ति सामाजिक घटना या व्यवहार के बारे में जानकारी रिकॉर्ड करता है। अवलोकन तकनीक या तो प्रतिभागी अवलोकन अथवा गैर-प्रतिभागी अवलोकन हो सकती है। प्रतिभागी अवलोकन में, शोधकर्ता क्षेत्र में जाता है (जैसे एक समुदाय या काम की जगह पर) और उसे गहराई से समझने हेतु एक लम्बी अवधि के लिए क्षेत्र की गतिविधियों में भागीदारी करता है। इन तकनीकों के माध्यम से प्राप्त डाटा का मात्रात्मक या गुणात्मक तरीकों से विश्लेषण किया जा सकता है।
सामाजिक अनुसंधान, अर्थशास्त्रियों,राजनेता|शिक्षाविदों, योजनाकारों, क़ानून निर्माताओं, प्रशासकों, विकासकों, धनाढ्य व्यवसायियों, प्रबंधकों, गैर-सरकारी संगठनों और लाभ निरपेक्ष संगठनों, सामाजिक कार्यकर्ताओं, सार्वजनिक नीतियों के निर्माण तथा सामान्य रूप से सामाजिक मुद्दों को हल करने में रुचि रखने वाले लोगों को जानकारी देता है।
माइकल ब्रावो ने सार्वजनिक समाजशास्त्र, व्यावहारिक अनुप्रयोगों से स्पष्ट रूप से जुड़े पहलू और अकादमिक समाजशास्त्र, जो पेशेवर और छात्रों के बीच सैद्धांतिक बहस के लिए मोटे तौर पर संबंधित है, के बीच अंतर को दर्शाया है।
समाजशास्त्र और अन्य सामाजिक विज्ञान
समाजशास्त्र विभिन्न विषयों के साथ अतिच्छादन करता है, जो समाज का अध्ययन करते हैं; "समाजशास्त्र" और "सामाजिक विज्ञान" अनौपचारिक रूप से पर्यायवाची हैं। नृविज्ञान, अर्थशास्त्र, दर्शनशास्त्र, राजनीति विज्ञान और मनोविज्ञान ने समाजशास्त्र को प्रभावित किया है और इससे प्रभावित भी हुए हैं; चूंकि ये क्षेत्र एक ही इतिहास और सामयिक रूचि को साझा करते हैं।
सामाजिक मनोविज्ञान का विशिष्ट क्षेत्र सामाजिक और मनोवैज्ञानिक हितों के कई रास्तों से उभर कर आया है; यह क्षेत्र आगे चल कर सामाजिक या मनोवैज्ञानिक बल के आधार पर पहचाना गया है। विवेचनात्मक सिद्धांत, समाजशास्त्र और साहित्यिक सिद्धांतों की संसृति से प्रभावित है।
सामाजिक जैविकी, इस बात का अध्ययन है कि कैसे सामाजिक व्यवहार और संगठन, विकास और अन्य जैविक प्रक्रियाओं द्वारा प्रभावित हुए हैं। यह क्षेत्र समाजशास्त्र को अन्य कई विज्ञान से मिश्रित करता है जैसे नृविज्ञान, जीव विज्ञान, प्राणी शास्त्र व अन्य. सामाजिक जैविकी ने, समाजीकरण और पर्यावरणीय कारकों के बजाय जीन अभिव्यक्ति पर बहुत अधिक ध्यान देने के कारण, सामाजिक अकादमी के भीतर विवाद को उत्पन्न किया है ('प्रकृति अथवा पोषण' देखें).
इन्हें भी देखें
समाजशास्त्रियों की सूची
समाजशास्त्र में वैज्ञानिक पत्रिकाओं की सूची
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संरचना और साधन
समाजशास्त्र के उप-क्षेत्र
समाजशास्त्र की समय-रेखा
संबंधित सिद्धांत, तरीके और जांच के क्षेत्र
परजीवी जीव विज्ञान
सामाजिक जीवन विद्या
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- सामाजिक और स्थानिक असमानताएं
अफ्रीकी सामाजिक संघ (अफ़सा)
अमेरिकी सामाजिक संघ (आसा)
ऑस्ट्रेलियाई सामाजिक संघ (तसा)
ब्रिटिश सामाजिक संघ (ब्स)
कैनेडियन सामाजिक संघ (क्सा)
यूरोपीय सामाजिक संघ (एसा)
जर्मन सामाजिक संघ (दग्स)
अंतर्राष्ट्रीय सामाजिक संघ (ऐसा)
भारतीय सामाजिक संस्था (इंसोसो)
आयरलैंड का सामाजिक संघटन (साई)
दक्षिण अफ्रीकी सामाजिक संघ (ससा)
नोट्रे डैम विश्वविद्यालय से समाजशास्त्र ओपनकोर्सवेअर
इंटरनेट समाजशास्त्री, समाजशास्त्र के छात्रों को इन्टरनेट शोध कौशल सिखाने के लिए एक शुल्क मुक्त ऑनलाइन शिक्षण
सोशियोलॉग समाजशास्त्र संसाधनों की एक निर्देशिका
सोशियोसाईट, समाजशास्त्र संसाधनों की निर्देशिका
सोशिऑलोजी, समाजशास्त्र के छात्रों और पेशेवरों पर एक ई-फोरम
सामाजिक विज्ञान और मानविकी
अंतर्राष्ट्रीय इंटरनेट समाजशास्त्रीय समूह, एक इंटरनेट आधारित सामाजिक व्यवहार अध्ययन समूह
अंतर्राष्ट्रीय सामाजिक विज्ञान के अध्ययन के लिए समूह
लंदन पूर्व अनुसंधान समूह |
भारतीय धर्मों (सनातन धर्म, जैन धर्म, बौद्ध धर्म, सिख धर्म आदि) हिन्दुओं के उपासनास्थल को मन्दिर कहते हैं। यह अराधना और पूजा-अर्चना के लिए निश्चित की हुई जगह या देवस्थान है। यानी जिस जगह किसी आराध्य देव के प्रति ध्यान या चिन्तन किया जाए या वहां मूर्ति इत्यादि रखकर पूजा-अर्चना की जाए उसे मन्दिर कहते हैं। मन्दिर का शाब्दिक अर्थ 'घर' है। वस्तुतः सही शब्द 'देवमन्दिर', 'शिवमन्दिर', 'कालीमन्दिर' आदि हैं।
और मठ वह स्थान है, जहां किसी सम्प्रदाय, धर्म या परम्परा विशेष में आस्था रखने वाले शिष्य आचार्य या धर्मगुरु अपने सम्प्रदाय के संरक्षण और संवर्द्धन के उद्देश्य से धर्म ग्रन्थों पर विचार विमर्श करते हैं या उनकी व्याख्या करते हैं, जिससे उस सम्प्रदाय के मानने वालों का हित हो और उन्हें पता चल सके कि, उनके धर्म में क्या है। उदाहरण के लिए बौद्ध विहारों की तुलना हिन्दू मठों या ईसाई मोनेस्ट्रीज़ से की जा सकती है। लेकिन 'मठ' शब्द का प्रयोग शंकराचार्य के काल यानी सातवीं या आठवीं शताब्दी से शुरु हुआ माना जाता है।
[ हिन्दी]] में मन्दिर को कोईल या कोविल () कहते हैं।
मन्दिर निर्माण का इतिहास
गुप्तकाल (चौथी से छठी शताब्दी) में मन्दिरों के निर्माण का उत्तरोत्तर विकास दृष्टि गोचर होता है। पहले लकड़ी के मन्दिर बनते थे या बनते होंगे लेकिन जल्दी ही भारत के अनेक स्थानों पर पत्थर और ईंट से मन्दिर बनने लगे। ७वीं शताब्दी तक देश के आर्य संस्कृति वाले भागों में पत्थरों से बने मंदिरों का निर्माण होना पाया गया है। चौथी से छठी शताब्दी में गुप्तकाल में मन्दिरों का निर्माण बहुत द्रुत गति से हुआ। मूल रूप से हिन्दू मन्दिरों की शैली बौद्ध मन्दिरों से ली गयी होगी जैसा- कि उस समय के पुराने मन्दिरो में मूर्तियों को मन्दिर के मध्य में रखा होना पाया गया है और जिनमें बौद्ध स्तूपों की भांति परिक्रमा मार्ग हुआ करता था। गुप्तकालीन बचे हुए लगभग सभी मन्दिर अपेक्षाकृत छोटे हैं,जिनमें काफी मोटा और मजबूत कारीगरी किया हुआ एक छोटा केन्द्रीय कक्ष है, जो या तो मुख्य द्वार पर या भवन के चारों ओर बरामदे से युक्त है। गुप्तकालीन आरम्भिक मन्दिर, उदाहरणार्थ सांची के बौद्ध मन्दिरों की छत सपाट है; तथापि मन्दिरों की उत्तर भारतीय शिखर शैली भी इस काल में ही विकसित हुयी और शनै: शनै: इस शिखर की ऊंचाई बढती रही। ७वीं शताब्दी में बोध गया में निर्मित बौद्ध मन्दिर की बनावट और ऊंचा शिखर गुप्तकालीन भवन निर्माण शैली के चरमोत्कर्ष का प्रतिनिधित्व करता है। भारत के प्रसिद्ध मन्दिर एवम मठ जैसे-उज्जैन का महाकालेश्वर,ओमकारेश्वर,जगन्नाथ पुरी एवम महाभारत काल से जुड़ी मान्यताओं में खाटू श्याम जी का मन्दिर आज ख्याति प्राप्त मन्दिर हैं।
बौद्ध और जैन पन्थियों द्वारा धार्मिक उद्देश्यों के निमित्त कृत्रिम गुफाओं का प्रयोग किया जाता था और हिन्दू धर्मावलम्बियों द्वारा भी इसे आत्मसात कर लिया गया था। फिर भी हिन्दुओं द्वारा गुफाओं में निर्मित मन्दिर तुलनात्मक रूप से बहुत कम हैं और गुप्तकाल से पूर्व का तो कोई भी साक्ष्य(प्रमाण) इस सम्बन्ध में नहीं पाया जाता है। गुफा मन्दिरों और शिलाओं को काटकर बनाये गये मन्दिरों के सम्बन्ध में अधिकतम जानकारी जुटाने का प्रयास करते हुए हैं हम जितने स्थानों का पता लगा सके वो पृथक सूची में सलंग्न की है। मद्रास (वर्तमान 'चेन्नई') के दक्षिण में पल्लवों के स्थान महाबलिपुरम् में, ७वीं शताब्दी में निर्मित अनेक छोटे मन्दिर हैं, जो चट्टानों को काटकर बनाये गये हैं और जो तमिल क्षेत्र में तत्कालीन धार्मिक भवनों का प्रतिनिधित्व करते हैं।
मन्दिरों का अस्तित्व और उनकी भव्यता गुप्त राजवंश के समय से देखने को मिलती है। यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा कि गुप्त काल से हिन्दू मन्दिरों का महत्त्व और उनके आकार में उल्लेखनीय विस्तार हुआ तथा उनकी बनावट पर स्थानीय वास्तुकला का विशेष प्रभाव पड़ा। उत्तरी भारत में हिन्दू मन्दिरों की उत्कृष्टता उड़ीसा तथा उत्तरी मध्यप्रदेश के खजुराहो में देखने को मिलती है। उड़ीसा के भुवनेश्वर में सिथत लगभग १००० वर्ष पुराना लिंगराजा का मन्दिर वास्तुकला का सर्वोत्कृष्ट उदाहरण है। हालांकि, १३वीं शताब्दी में निर्मित कोणार्क का सूर्य मन्दिर इस क्षेत्र का सबसे बड़ा और विश्वविख्यात मन्दिर है। इसका शिखर इसके आरम्भिक दिनों में ही टूट गया था और आज केवल प्रार्थना स्थल ही शेष बचा है। काल और वास्तु के दृष्टिकोण से खजुराहो के सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण मन्दिर ११वीं शताब्दी में बनाये गये थे। गुजरात और राजस्थान में भी वास्तु के स्वतन्त्र शैली वाले अच्छे मन्दिरों का निर्माण हुआ किन्तु उनके अवशेष उड़ीसा और खजुराहो की अपेक्षा कम आकर्षक हैं। प्रथम दशाब्दी के अन्त में वास्तु की दक्षिण भारतीय शैली तंजौर (प्राचीन नाम तंजावुर) के राजराजेश्वर मन्दिर के निर्माण के समय अपने चरम पर पहुंच गयी थी।
हर मन्दिर मे के प्रारम्भ मे कछुआ क्यो होता है ?
प्रत्येक देवता के ध्वज पर उनको सूचित करने वाला चिह्न (वाहन) होता है।
विष्णु विष्णुजी की ध्वजा का दण्ड सोने का व ध्वज पीले रंग का होता है। उस पर गरुड़ का चिह्न अंकित होता है।
शिव शिवजी की ध्वजा का दण्ड चांदी का व ध्वज सफेद रंग का होता है। उस पर वृषभ का चिह्न अंकित होता है।
ब्रह्माजी ब्रह्माजी की ध्वजा का दण्ड तांबे का व ध्वज पद्मवर्ण का होता है । उस पर कमल (पद्म) का चिह्न अंकित होता है।
गणपति गणपति की ध्वजा का दण्ड तांबे या हाथीदांत का व ध्वज सफेद रंग का होता है । उस पर मूषक का चिह्न अंकित होता है।
सूर्यनारायण सूर्यनारायण की ध्वजा का दण्ड सोने का व ध्वज पचरंगी होता है। उस पर व्योम का चिह्न अंकित होता है।
गौरी गौरी की ध्वजा का दण्ड तांबे का व ध्वज बीरबहूटी के समान अत्यन्त रक्त वर्ण का होता है । उस पर गोधा का चिह्न होता है ।
भगवतीदेवी की ध्वजा का दण्ड सर्वधातु का व ध्वज लाल रंग का होता है। उस पर सिंह का चिह्न अंकित होता है।
चामुण्डा चामुण्डा की ध्वजा का दण्ड लोहे का व ध्वज नीले रंग का होता है । उस पर मुण्डमाला का चिह्न अंकित होता है।
कार्तिकेय कार्तिकेय की ध्वजा का दण्ड त्रिलौह का व ध्वज चित्रवर्ण का होता है। उस पर मयूर का चिह्न अंकित होता है।
बलदेवजी बलदेवजी की ध्वजा का दण्ड चांदी का व ध्वज सफेद रंग का होता है। उस पर हल का चिह्न अंकित होता है।
कामदेव कामदेव की ध्वजा का दण्ड त्रिलौह का (सोना, चांदी, तांबा मिश्रित) व ध्वज लाल रंग का होता है। उस पर मकर का चिह्न अंकित होता है।
यम यमराज की ध्वजा का दण्ड लोहे का व ध्वज कृष्ण वर्ण का होता है। उस पर महिष (भैंसे) का चिह्न अंकित होता है।
इन्हें भी देखें
हिन्दू मन्दिर स्थापत्य
अक्षरधाम मन्दिर, दिल्ली
शाकम्भरी देवी मन्दिर
भारत के प्रसिद्ध मंदिरों की हिन्दी में जानकारी
प्रसिद्ध नगरों के मन्दिर |
भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान () भारत के २३ तकनीकी शिक्षा संस्थान हैं। ये संस्थान भारत सरकार द्वारा स्थापित किये गये "राष्ट्रीय महत्व के संस्थान" हैं। २०१८ तक, सभी २३ आईआईटी में स्नातक कार्यक्रमों के लिए सीटों की कुल संख्या ११,२७९ है।
संस्थानों का एक विवरण :
भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थानों की स्थापना का इतिहास ईसवी सन १९४६ को जाता है जब जोगेंद्र सिंह नें भारत में उच्च शिक्षा के संस्थानों की स्थापना के लिए एक समिति का गठन किया। नलिनी रंजन सरकार की अध्यक्षता में गठित समिति नें भारत भर में ऐसे संस्थानों के गठन की सिफ़ारिश की। इन सिफ़ारिशों को ध्यान में रखते हुए पहले भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान की स्थापना कलकत्ता के पास स्थित खड़गपुर में १९५० में हुई। शुरुआत में यह संस्थान हिजली कारावास में स्थित था। १५ सितंबर १९५६ को भारत की संसद नें "भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान अधिनियम" को मंज़ूरी देते हुए इसे "राष्ट्रीय महत्व के संस्थान" घोषित कर दिया।
इसी तर्ज़ पर अन्य संस्थानों की स्थापना बंबई (१९५८), मद्रास (१९५९), कानपुर (१९५९), तथा नई दिल्ली (१९६१) में हुई। असम में छात्र आंदोलन के चलते तत्कालीन भारतीय प्रधानमंत्री राजीव गान्धी नें असम में भी एक भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान की स्थापना का वचन दिया जिसके परिणामस्वरूप १९९४ में गुवाहाटी में आई आई टी की स्थापना हुई। सन २००१ में रुड़की स्थित रुड़की विश्वविद्यालय को भी भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान का दर्जा दिया गया।
भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थानों की महत्ता
भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थानों में शिक्षित अभियंताओं तथा शोधार्थियों की पहचान भारत में ही नहीं पुरे विश्व में है। यद्यपि, यह पहचान मुख्यतः उन अभियंताओं से है, जिन्होने यहाँ से स्नातक की उपाधि प्राप्त की है।इन संस्थानों की प्रसिद्धी के कारण, भारत में अभियांत्रिकी की पढाई करने का इच्छुक प्रत्येक विद्यार्थी इन संस्थानों में प्रवेश पाने की 'महत्वाकांक्षा' रखता है।इन संस्थानों में स्नातक स्तर की पढाई में प्रवेश एक संयुक्त प्रवेश परीक्षा (जी) के आधार पर होता है। यह परीक्षा बहुत ही कठिन मानी जाती है और सिर्फ इस परीक्षा की तयारी के लिए देश भर में हजारों शिक्षण संस्थाए चलाये जा रहे हैं। इन संस्थानों की कभी कभी आलोचना की जाती है कि भारत की जनता के मेहनत की कमाई के पैसों से पढकर निकलने वाले पैसा कमाने के लालच में स्वदेश छोडकर किसी अन्य देश में चले जाते हैं, जिसके कारण इससे भारत को अपेक्षित लाभ नहीं मिल पाता है।
इन्हें भी देखें
राष्ट्रीय प्रौद्योगिकी संस्थान
अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान
भारतीय प्रबन्धन संस्थान
आईआईटी संयुक्त प्रवेश परीक्षा
प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में केंद्रीय संस्थाएं : भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थाएं (ईतस)
आई आई टी कानपुर
आई आई टी दिल्ली
आई आई टी रुड़की
आई आई टी मुंबई
आई आई टी गुवाहाटी
आई आई टी खड़गपुर
आई आई टी चेन्नई
आई आई टी हैदराबाद
आई आई टी रोपड़
आई आई टी (काशी हिन्दू विश्वविद्यालय) वाराणसी
आईआईटी-आईआईएम की फैकल्टी में दम नहीं, छात्रों के बूते है इनका नाम : जयराम रमेश
आईआईएम और आईआईटी ने भारत को बर्बाद किया है
संस्थान, भारतीय प्रौद्योगिकी |
सोमालिया (; ), या आधिकारिक तौर पर संघीय गणराज्य सोमालिया, जिसे पूर्व में सोमाली लोकतांत्रिक गणराज्य के रूप में जाना जाता था, अफ़्रीका के पूर्वी किनारे पर स्थित एक देश है। इसके उत्तरपश्चिम में जिबूती, दक्षिण पश्चिम में केन्या, उत्तर में अदन की खाड़ी, पूर्व में हिन्द महासागर और पश्चिम में इथियोपिया स्थित हैं। अफ्रीका पर सोमालिया का सबसे लंबा समुद्र तट है, और यह मुख्यतः पठार, मैदानी इलाकों और हाइलैंड्स आदि से मिलकर बना हैं। मौसम की दृष्टि से, आवधिक मानसून हवाओं और अनियमित वर्षा के साथ गर्म मौसम, वर्ष भर में रहती है।
सोमालिया की अनुमानित जनसंख्या लगभग १ करोड़ ४३ लाख है। इसके लगभग ८५% निवासियों में सोमालीस जाति के लोग हैं, जो ऐतिहासिक रूप से देश के उत्तरी भाग में निवास करते हैं। वहीं अल्पसंख्यक जाति के लोग मुख्य तौर पर दक्षिणी क्षेत्रों में रहते हैं। सोमालिया की आधिकारिक भाषा सोमाली भाषा और अरबी भाषा हैं, जो दोनों अफ्रोसिआटिक परिवार से संबंधित हैं। देश में ज्यादातर लोग सुन्नी मुस्लिम हैं।
प्राचीन काल में सोमालिया बाकी दुनिया के साथ वाणिज्य के लिए एक महत्वपूर्ण केंद्र था। इसके नाविक और व्यापारी लोबान, मसाले और उन तमाम वस्तुओं के मुख्य आपूर्तिकर्ता थे, जिन्हें प्राचीन मिस्री, फोनिशियाई, मेसेनिशियाई और बेबिलोन निवासियों द्वारा मूल्यवान माना जाता था। विद्वानों के अनुसार, सोमालिया वह स्थान भी था, जहां पुन्त का प्राचीन राज्य स्थित था। प्राचीन पुन्तितेस ऐसे लोगों का देश था, जिनका प्राचीन मिस्र के साथ राजा फारोह सहुरे और रानी हत्शेपसट के दौर में घनिष्ठ संबंध था। सोमालिया के आसपास बिछी हुई पिरामिड संरचनाएं, मंदिर और तराशी हए पत्थर के प्राचीन घर इस अवधि के माने जाते हैं।
अफ़्रीका के देश |
सूडान, आधिकारिक तौर पर सूडान गणराज्य, उत्तरी पूर्व अफ्रीका में स्थित एक देश है। इसके उत्तर में मिस्र, उत्तर पूर्व में लाल सागर, पूर्व में इरिट्रिया और इथियोपिया, दक्षिणपूर्व में युगांडा और केन्या, दक्षिण पश्चिम में कांगो लोकतान्त्रिक गणराज्य और मध्य अफ़्रीकी गणराज्य, पश्चिम में चाड और पश्चिमोत्तर में लीबिया स्थित है। २०२२ मे इस देश की आबादी ४.५७ करोड़ है। जो १,८८६,०६८ वर्ग किलोमीटर में फैला हुआ है। क्षेत्रफल के आधार पर यह अफ्रीका का तीसरा सबसे बड़ा देश है। इसकी राजधानी खार्तूम है।
सितंबर २०२० में, सूडान की संक्रमणकालीन सरकार ने राज्य से अलग धर्म को स्वीकार करने के बाद सूडान संवैधानिक रूप से एक धर्मनिरपेक्ष राज्य बन गया, जिसने ३० साल के इस्लामी शासन और इस्लाम को उत्तरी अफ्रीकी राष्ट्र में आधिकारिक राज्य धर्म के रूप में समाप्त कर दिया। इसने धर्मत्यागी कानून और सार्वजनिक झड़पों को भी खत्म कर दिया।
सूडान दुनिया के उन गिने-चुने देशों में शामिल है, जहां आज भी ३००० ईपू बसी बस्तियां अपना वजूद बचाए हुए हैं। यूनाइटेड किंगडम से १९५६ में स्वतंत्रता प्राप्त करने के बाद सूडान को १७ साल तक चले लंबे गृह युद्ध का सामना करना पड़ा, जिसके बाद अरबी और न्यूबियन मूल की बहुतायत वाले उत्तरी सूडान और ईसाई और एनिमिस्ट निलोट्स बहुल वाले दक्षिणी सूडान के बीच जातीय, धार्मिक और आर्थिक युद्ध छिड़ गया, जिसकी वजह से १९८३ में दूसरा गृहयुद्ध शुरू हुआ। इन लड़ाइयों के बीच कर्नल उमर अल बाशिर ने १९८९ में रक्तविहिन तख्तापटल कर सत्ता हथिया ली।
सूडान ने व्यापक आर्थिक सुधारों को लागू कर वृहदतर आर्थिक विकास दर हासिल की और २००५ में एक नया संविधान के माध्यम से दक्षिण के विद्रोही गुटों को सीमित स्वायत्तता प्रदान करने और २०११ में स्वतंत्रता के मुद्दे पर जनमत संग्रह कराने की बात सहमति बनने के बाद गृहयुद्ध समाप्त किया। प्राकृतिक संसाधन के रूप में पेट्रोलियम और कच्चे तेल से भरे-पूरे सूडान की अर्थव्यवस्था वर्तमान में विश्व की सबसे तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्थाओं में से एक है। जनवादी गणराज्य चीन और रूस सूडान के सबसे बड़े व्यापार भागीदार हैं।
अफ़्रीका के देश
अरब लीग के देश
अरबी-भाषी देश व क्षेत्र |
'सिन्ध' संस्कृत के शब्द 'सिन्धु' से बना है जिसका अर्थ है समुद्र। सिंधु नाम से एक नदी भी है जो इस प्रदेश के लगभग बीचोंबीच बहती है। फ़ारसी "स" को "ह" की तरह उच्चारण करते थे। उदाहरणार्थ दस को दहा या सप्ताह को हफ़्ता (यहां कहने का अर्थ ये नहीं कि ये संस्कृत शब्दों के फ़ारसी रूप थे पर उनका मूल एक ही हुआ होगा)। अतः वे इसे हिंद कहते थे। असीरियाई स्रोतों में सातवीं सदी ईसा पूर्व में इसे सिंदा नाम से द्योतित किया गया है यहां ।
ईसा के ३३०० साल पहसे से ईसापूर्व १९०० तक यहां सिंधु घाटी सभ्यता फली-फूली। सिंधु घाटी सभ्यता अपने समकालीन मिस्र और मेसोपोटामिया के साथ व्यापार करती थी। मिस्र में कपास के लिए 'सिन्ध' शब्द का प्रयोग होता था जिससे अनुमान लगता है कि वहां कपास यहीं से आयात किया जाता था। ईसा के १९०० साल पहसे सिंधु घाटी सभ्यता अनिर्णीत कारणों से समाप्त हो गई। इसकी लिपि को भी अब तक पढ़ा नहीं जा सका जिससे इसके मूल निवासियों के बारे में अधिक पता नहीं चल पाया है।
सिन्ध का नाम 'सप्त सैन्धव' था जहां सिन्धु सहित शतद्रु, विपाशा, चन्द्रभागा, वितस्ता, परुष्णी और सरस्वती बहती थीं। सिन्धु के तीन अर्थ हैं- सिन्धु नदी, समुद्र और सामान्य नदियां। ऋग्वेद कहता है मधुवाता ऋतायते मधु क्षरन्ति सिन्धवः। कालान्तर में इस भूभाग से सप्त सिन्धव लुप्त होकर सिन्ध रह गया है, जो खण्डित भारत यानी पाकिस्तान का सिन्ध प्रदेश है।
ईसा के १५०० साल पहले भारतीय (तथा ईरानी) क्षेत्रों में आर्यों का अगमन आरंभ हुआ। आर्य भारत के कई भागों में बस गए। ईरान में भी आर्यों की बस्तियां फैलने लगीं। भारतीय स्रोतों में सिन्ध का नाम सिंध, सिंधु, सिंधुदेश तथा सिंधुस्थान जैसे शब्दों के रूप में हुआ है।
७०० ईस्वी में हिन्दू ब्रााहृण राजा दाहिर सैन सिन्ध के शासक थे। उनके स्वर्णयुग राजा दाहिर ने समुद्र से व्यापार करने वाले अरबियों को लूटा और सिन्ध में अन्य लोगों से लूट करते थे। खलीफा की ओर से मुहम्मद बिन कासिम के नेतृत्व में सिन्ध में अरबी सैनिकों ने आक्रमण किया और विजय प्राप्त की। उनसे युद्ध करते हुए राजा दाहिर को खत्म किया और अपने फंसे कैदियों को छुड़ाया । सिन्ध में अरब घुस आया। दाहिर की रानी वीर बाला ने अधूरे युद्ध को हवा दी। युद्ध छिड़ गया। रानी ने अरबों के खिलाफ प्रक्षेपास्त्र का प्रयोग किया। रानी जीत गई। इसके बाद सिन्ध में इस्लाम की घुसपैठ शुरू हो गई। अधिसंख्यक हिन्दू इस्लामी तौर तरीकों के चलते मुसलमान हुए। उस समय सिन्ध के दलित वर्ग के लोग छुआछूत, भेदभाव और सामाजिक अवमानना से खिन्न होकर इस्लाम में आ गए क्योंकि यहां के बड़े लोग अपने से कम वर्ग के लोगों से छुआछूत करते थे इसलिए इस्लामी तरीके को देखते देखते ब्राह्मण दाहिर के पुत्र जयसिंह भी मुसलमान हो गए। यदि हिन्दू राजाओं ने जयसिंह की सहायता की होती तो वे मतान्तरित न होते। भयाक्रांतता के चलते हिन्दू इस्लाम को मानने के बारे में जानकर हुए या कुछ लोग कहते हैं मजबूर हुए। राजनीतिक अलगाववादी नीति के चलते मतान्तरित मुसलमान मुख्यधारा से आज तक जुट न पाए। ब्राह्मणवाद इस्लामवाद हो गया। अरबी बहुत दिनों तक सिन्ध में रहे और अपने अलग रवैये और व्यवहार के जरिए हिन्दुओं को इस्लाम में लाते रहे। मतान्तरित मुसलमान नारियां भी हिन्दुओं के इस्लामीकरण का काम करने लगी थीं। सिन्ध से लेकर ब्लूचिस्तान तक जितने कबीले, जनजातियां, शोषित, पीड़ित और दलित वर्ग के लोग थे, उनके पुरखे हिन्दू थे। उनकी निर्धनता, अशिक्षा पिछड़ापन और मजबूरी को ध्यान में रखकर अरबों ने उन्हें लगा के मुसलमानो में बराबरी छुआ छूत कम है और वो मुसलमान बन गए। इस प्रकार सिन्ध के हिन्दुओं में फूट, आपसी कलह और भेदभाव के चलते अन्तत: वे मतान्तरित हुए। धीरे-धीरे सिन्ध में मुसलमान अधिसंख्यक हो गए और बचे खुचे हिन्दू अल्पसंख्यक हो गए। अब अल्पसंख्यक हिन्दू सिन्ध प्रान्त में इस्लाम की ओर झुक रहे हैं।
सिन्ध में अनेक गरीब जाट वर्ग के लोगों ने भी इस्लाम को मान लिया था। देश के हिन्दू राजाओं में आपसी मनमुटाव, प्रतिद्वन्द्विता और शत्रुत्रा थी। वे हिन्दुओं को क्या बचा पाते? आज भी देश में अधिसंख्यक हिन्दुओं में पारस्परिक एकता का अभाव है। देश में जात-पांत का बोलबाला है। अनेक जातिवादी घटक हैं। दलगत नीतियों का वर्चस्व है। ऐसी ही भयावह स्थिति ७०० ईस्वी में सिन्ध में थी। देश की इन दुर्बलताओं से अरबी लुटेरों और आक्रान्ताओं ने लाभ उठाया। उन दिनों सिन्ध में इस्लामीकरण का अभियान था। "इस्लाम के तरीकों को देखकर हताश जनता ने इस्लाम ही कबूल लिया और उन्हें सहानुभूति मिली। ऐसा ही मुगलकाल में भी हुआ था।
सिन्ध से हम हिन्दू हुए हैं। वरुण देवता झूलेलाल के अनुयायी हिन्दू अपने को सिन्धी कहते हैं। दाहिर सिन्धी थे। पाक अधिकृत सिन्ध प्रान्त के वर्तमान मुसलमानों के पुरखे हिन्दू थे, यानी सिन्धी।
सिन्ध की संस्कृति सिन्धु संस्कृति के नाम से जानी जाती है। सप्त सैन्धव संस्कृति आर्य संस्कृति है वह वैदिक ललित पुष्प है। उसकी गन्ध सनातन और शाश्वत है।
ईसा के ५०० साल पहले यहां ईरान के हख़ामनी शासकों का अधिकार हो गया। यह घटना इस्लाम के आगमन से कोई १००० साल पहले की है। फ़ारस, यानि आज का ईरान, पर यूनान के सिकंदर का अधिकार हो जान के बाद सन् ३२८ ईसापूर्व में यह यवनों के शासन में आया। ईसापूर्व ३०५ में मौर्य साम्राज्य के अंग बनने के बाद यह ईसापूर्व १८५ से करीब सौ सालों तक ग्रेको-बैक्टि्रयन शासन में रहा। इसके बाद गुप्त और फिर अरबों के शासन में आ गया। मुगलों का अधिकार सोलहवीं सदी में हुआ। यह ब्रिटिश भारत का भी अंग था।
सिन्ध के जिले
कराँची -- जमशोरो -- थट्टा -- बादिन -- थारपारकर -- उमरकोट -- मीरपुर ख़ास -- टंडो अल्लहयार -- नौशहरो फ़िरोज़ -- टंडो मुहम्मद ख़ान -- हैदराबाद -- संगहार -- खैरपुर -- नवाबशाह -- दादु -- क़म्बर शहदाकोट -- लरकाना -- [[मटियारी== सिन्ध के जिले ==
कराँची -- जमशोरो -- थट्टा -- बादिन -- थारपारकर -- उमरकोट -- मीरपुर ख़ास -- टंडो अल्लहयार -- नौशहरो फ़िरोज़ -- टंडो मुहम्मद ख़ान -- हैदराबाद -- संगहार -- खैरपुर -- नवाबशाह -- दादु -- क़म्बर शहदाकोट -- लरकाना -- मटियारी -- घोटकी -- शिकारपुर -- जैकोबाबाद -- सुक्कुर -- काशमोरे
पाकिस्तान के प्रान्त जिला|मटियारी]] -- घोटकी -- शिकारपुर -- जैकोबाबाद -- सुक्कुर -- काशमोरे
पाकिस्तान के प्रान्त |
यह पाकिस्तान के बडे़ शहरों की सूची है।
उत्तर पश्चिमी सीमा प्रान्त - :एन:नॉफप
बन्दा दाऊद शाह
डेरा इस्माइल खान
डेरा गाज़ी खान
रहीम यार खान
तोबा टेक सिंह |
माता सीता रामायण और रामकथा पर आधारित अन्य ग्रंथ, जैसे रामचरितमानस, कंब रामायण की मुख्य नायिका हैं । सीता मिथिला (जनकपुर, धनुषा ज़िला, मधेश प्रदेश, नेपाल) में जन्मी थी । देवी सीता मिथिला के नरेश राजा जनक की ज्येष्ठ पुत्री थीं । इनका विवाह अयोध्या के नरेश राजा दशरथ के ज्येष्ठ पुत्र श्री राम से स्वयंवर में शिवधनुष को भंग करने के उपरांत हुआ था। इन्होंने स्त्री व पतिव्रता धर्म का पूर्ण रूप से पालन किया था जिसके कारण इनका नाम बहुत आदर से लिया जाता है। त्रेतायुग में इन्हें सौभाग्य की देवी लक्ष्मी का अवतार कहा गया है।
जन्म व नाम
रामायण के अनुसार मिथिला के राजा जनक के खेतों में हल जोतते समय एक पेटी से अटका। इन्हें उस पेटी में पाया था। राजा जनक और रानी सुनयना के गर्भ में इनके कलाओं एवं आत्मा की दिव्यता को महर्षि याज्ञवल्क्य द्वारा स्थापित किया गया तत्पश्चात सुनयना ने अपनी मातृत्व को स्वीकार किया और पालन किया। उर्मिला उनकी छोटी बहन थीं।
राजा जनक की पुत्री होने के कारण इन्हे जानकी, जनकात्मजा अथवा जनकसुता भी कहते थे। मिथिला की राजकुमारी होने के कारण यें मैथिली नाम से भी प्रसिद्ध है। भूमि में पाये जाने के कारण इन्हे भूमिपुत्री या भूसुता भी कहा जाता है।
सीता जी का जन्म वैशाख मास के शुक्ल पक्ष में नवमी तिथि को मिथिला (मधेश प्रदेश, नेपाल) में हुआ था।
ऋषि विश्वामित्र का यज्ञ राम व लक्ष्मण की रक्षा में सफलतापूर्वक संपन्न हुआ। इसके उपरांत महाराज जनक ने सीता स्वयंवर की घोषणा किया और ऋषि विश्वामित्र की उपस्थिति हेतु निमंत्रण भेजा। आश्रम में राम व लक्ष्मण उपस्थित के कारण वे उन्हें भी मिथिपलपुरी साथ ले गये। महाराज जनक ने उपस्थित ऋषिमुनियों के आशिर्वाद से स्वयंवर के लिये शिवधनुष उठाने के नियम की घोषणा की। सभा में उपस्थित कोइ राजकुमार, राजा व महाराजा धनुष उठानेमें विफल रहे। श्रीरामजी ने धनुष को उठाया और उसका भंग किया। इस तरह सीता का विवाह श्रीरामजी से निश्चय हुआ।
इसी के साथ उर्मिला का विवाह लक्ष्मण से, मांडवी का भरत से तथा श्रुतकीर्ति का शत्रुघ्न से निश्चय हुआ। कन्यादान के समय राजा जनक ने श्रीरामजी से कहा "हे कौशल्यानंदन राम! ये मेरी पुत्री सीता है। इसका पाणीग्रहण कर अपनी पत्नी के रूप मे स्वीकर करो। यह सदा तुम्हारे साथ रहेगी।" इस तरह सीता व रामजी का विवाह अत्यंत वैभवपूर्ण संपन्न हुआ। विवाहोपरांत सीता अयोध्या आई और उनका दांपत्य जीवन सुखमय था।
राजा दशरथ अपनी पत्नी कैकेयी को दिये वचन के कारण श्रीरामजी को चौदह वर्ष का वनवास हुआ। श्रीरामजी व अन्य बडों की सलाह न मानकर अपने पति से कहा "मेरे पिता के वचन के अनुसार मुझे आप के साथ ही रहना होगा। मुझे आप के साथ वनगमन इस राजमहल के सभी सुखों से अधिक प्रिय हैं।" इस प्रकार राम व लक्ष्मण के साथ वनवास चली गयी।
वे चित्रकूट पर्वत स्थित मंदाकिनी तट पर अपना वनवास किया। इसी समय भरत अपने बड़े भाई श्रीरामजी को मनाकर अयोध्या ले जाने आये। अंतमे वे श्रीरामजी की पादुका लेकर लौट गये। इसके बाद वे सभी ऋषि अत्री के आश्रम गये। सीता ने देवी अनसूया की पूजा की। देवी अनसूया ने सीता को पतिव्रता धर्म का विस्तारपूर्वक उपदेश के साथ चंदन, वस्त्र, आभूषणादि प्रदान किया। इसके बाद कई ऋषि व मुनि के आश्रम गये, दर्शन व आशिर्वाद पाकर वे पवित्र नदी गोदावरी तट पर पंचवटी में वास किया।
पंचवटी में लक्ष्मण से अपमानित शूर्पणखा ने अपने भाई रावण से अपनी व्यथा सुनाई और उसके कान भरते कहा "सीता अत्यंत सुंदर है और वह तुम्हारी पत्नी बनने के सर्वथा योग्य है।" रावण ने अपने मामा मारीच के साथ मिलकर सीता अपहरण की योजना रची। इसके अनुसार मारीच सोने के हिरण का रूप धर राम व लक्ष्मण को वन में ले जायेगा और उनकी अनुपस्थिति में रावण सीता का अपहरण करेगा। आकाश मार्ग से जाते समय पक्षीराज जटायु के रोकने पर रावण ने उसके पंख काट दिये।
जब कोई सहायता नहीं मिली तो माता सीताजी ने अपने पल्लू से एक भाग निकालकर उसमें अपने आभूषणों को बांधकर नीचे डाल दिया। नीचे वनमे कुछ वानरों ने इसे अपने साथ ले गये। रावण ने सीता को लंकानगरी के अशोकवाटिका में रखा और त्रिजटा के नेतृत्व में कुछ राक्षसियों को उसकी देख-रेख का भार दिया।
हनुमानजी की भेंट
सीताजी से बिछड़कर रामजी दु:खी हुए और लक्ष्मण सहित उनकी वन-वन खोज करते जटायु तक पहुंचे। जटायु ने उन्हें सीताजी को रावण दक्षिण दिशा की ओर लिये जाने की सूचना देकर प्राण त्याग दिया। राम जटायु का अंतिम संस्कार कर लक्ष्मण सहित दक्षिण दिशा में चले। आगे चलते वे दोनों हनुमानजी से मिले जो उन्हें ऋष्यमूक पर्वत पर स्थित अपने राजा सुग्रीव से मिलाया। रामजी संग मैत्री के बाद सुग्रीव ने सीताजी के खोजमें चारों ओर वानरसेना की टुकडियाँ भेजीं। वानर राजकुमार अंगद की नेतृत्व में दक्षिण की ओर गई टुकड़ी में हनुमान, नील, जामवंत प्रमुख थे और वे दक्षिण स्थित सागर तट पहुंचे। तटपर उन्हें जटायु का भाई सम्पाति मिला जिसने उन्हें सूचना दी कि सीता लंका स्थित एक वाटिका में है।
हनुमानजी समुद्र लाँघकर लंका पहुँचे, लंकिनी को परास्त कर नगर में प्रवेश किया। वहाँ सभी भवन और अंतःपुर में सीता माता को न पाकर वे अत्यंत दुःखी हुए। अपने प्रभु श्रीरामजी को स्मरण व नमन कर अशोकवाटिका पहुंचे। वहाँ 'धुएँ के बीच चिंगारी' की तरह राक्षसियों के बीच एक तेजस्विनी स्वरूपा को देख सीताजी को पहचाना और हर्षित हुए।
उसी समय रावण वहाँ पहुँचा और सीता से विवाह का प्रस्ताव किया। सीता ने घास के एक टुकड़े को अपने और रावण के बीच रखा और कहा "हे रावण! सूरज और किरण की तरह राम-सीता अभिन्न है। राम व लक्ष्मण की अनुपस्थिति मे मेरा अपहरण कर तुमने अपनी कायरता का परिचय और राक्षस जाति के विनाश को आमंत्रण दिया है। रघुवंशीयों की वीरता से अपरचित होकर तुमने ऐसा दुस्साहस किया है। तुम्हारे श्रीरामजी की शरण में जाना इस विनाश से बचने का एक मात्र उपाय है। अन्यथा लंका का विनाश निश्चित है।" इससे निराश रावण ने राम को लंका आकर सीता को मुक्त करने को दो माह की अवधि दी। इसके उपरांत रावण व सीता का विवाह निश्चिय है। रावण के लौटने पर सीताजी बहुत दु:खी हुई। त्रिजटा राक्षसी ने अपने सपने के बारे में बताते हुए धीरज दिया की श्रीरामजी रावण पर विजय पाकर उन्हें अवश्य मुक्त करेंगे।
उसके जाने के बाद हनुमान सीताजी के दर्शन कर अपने लंका आने का कारण बताते हैं। सीताजी राम व लक्ष्मण की कुशलता पर विचारण करती है। श्रीरामजी की मुद्रिका देकर हनुमान कहते हैं कि वे माता सीता को अपने साथ श्रीरामजी के पास लिये चलते हैं। सीताजी हनुमान को समझाती है कि यह अनुचित है। रावण ने उनका हरण कर रघुकुल का अपमान किया है। अत: लंका से उन्हें मुक्त करना श्रीरामजी का कर्तव्य है। विशेषतः रावण के दो माह की अवधी का श्रीरामजी को स्मरण कराने की विनती करती हैं।
हनुमानजी ने रावण को अपनी दुस्साहस के परिणाम की चेतावनी दी और लंका जलाया। माता सीता से चूड़ामणि व अपनी यात्रा की अनुमति लिए चले। सागरतट स्थित अंगद व वानरसेना लिए श्रीरामजी के पास पहुँचे। माता सीता की चूड़ामणि दिया और अपनी लंका यात्रा की सारी कहानी सुनाई। इसके बाद राम व लक्ष्मण सहित सारी वानरसेना युद्ध के लिए तैयार हुई।
रामायण के पात्र |
म्हार मणिपुर और असम के पहाड़ी जिलों में रहने वाली एक जनजाति है।
इन्हें भी देखें |
तिब्बत तिब्बत एक देश था। जिसकी सीमा भारतऔर चीनी जनवादी गणराज्य अफगानिस्तानवबर्मा से लगती है। दलाई लामा यहां के प्रसिद्ध धार्मिक नेता हैं।
यह १९५० में चीन की साम्राज्यवादी नीति का शिकार हो गया। अब यह चीन का राष्ट्रीय स्वायत्त क्षेत्र है, और इसकी भूमि मुख्य रूप से पठारी है। इसे पारंपरिक रूप से बोड या भोट भी कहा जाता है। चीन द्वारा तिब्बती लोगों पर काफी अत्याचार किए गए व अब भी किये जा रहें हैं।
स्थिति व भूगोल
३२ अंश ३० मिनट उत्तर अक्षांश (लैटीट्यूड) तथा ८६ अंश ० मिनट पूर्वी देशान्तर (लॉन्गीट्यूड)। तिब्बत मध्य एशिया की उच्च पर्वत श्रेंणियों के मध्य कुनलुन एवं हिमालय के मध्य स्थित है। इसकी ऊँचाई १६,००० फुट तक है। यहाँ का क्षेत्रफल ४७,००० वर्ग मील है। तिब्बत का पठार पूर्व में शीकांग से, पशिचम में कश्मीर से दक्षिण में हिमालय पर्वत से तथा उत्तर में कुनलुन पर्वत से घिरा हुआ है। यह पठार पूर्वी एशिया की बृहत्तर नदियों हवांगहो, मेकांग आदि का उद्गम स्थल है, जो पूर्वी क्षेत्र से निकलती हैं। पूर्वी क्षेत्र में कुछ वर्षा होती है एवं ३६५.७६ मी॰ (१२०० फुट) की ऊँचाई तक वन पाए जाते है। यहाँ कुछ घाटियाँ १५२४ मी॰(५,००० फुट) ऊँची हैं, जहाँ किसान कृषि करते हैं। जलवायु की शुष्कता उत्तर की ओर बढ़ती जाती है एवं जंगलों के स्थान पर घास के मैदान अधिक पाए जाते है। जनसंख्या का घनत्व धीरे-धीरे कम होता जाता है। कृषि के स्थान पर पशुपालन बढ़ता जाता है। साइदान घाटी एवें कीकोनीर जनपद पशुपालन के लिये विशेष प्रसिद्ध है।
बाह्य तिब्बत की ऊबड़-खाबड़ भूमि की मुख्य नदी यरलुंग त्संगपो (ब्रह्मपुत्र) है, जो मानसरोवर झील से निकल कर पूर्व दिशा की ओर प्रवाहित होती है और फिर दक्षिण की ओर मुड़कर भारत एवं बांग्लादेश में होती हुई बंगाल की खाड़ी में गिर जाती है। इसकी घाटी के उत्तर में खारे पानी की छोटी - छोटी अनेक झीलें हैं, जिनमें नम त्सो (उर्फ़ तेन्ग्री नोर) मुख्य है। इस अल्प वर्षा एवं स्वल्प कृषि योग्य है। त्संगपो की घाटी में वहाँ के प्रमुख नगर ल्हासा, ग्यान्त्से एवं शिगात्से आदि स्थित है। बाह्य तिब्बत का अधिकांश भाग शुष्क जलवायु के कारण केवल पशुचारण के योग्य है और यही यहाँ के निवासियों का मुख्य व्यवसाय हो गया है। कठोर शीत सहन करनेवाले पशुओं में याक(यक: आ वूल्य अनिमल) मुख्य है जो दूध देने के साथ बोझा ढोने का भी कार्य करता है। इसके अतिरिक्त भेड़, बकरियाँ भी पाली जाती है। इस विशाल भूखंड में नमक के अतिरिक्त स्वर्ण एवं रेडियमधर्मी खनिजों के संचित भंडार प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हैं। ऊबड़ खाबड़ पठार में रेलमार्ग बनाना अत्यंत दुष्कर और व्ययसाध्य है अत: पर्वतीय रास्ते एवं कुछ राजमार्ग (सड़कें) ही आवागमन के मुख्य साधन है, हालांकि चिंगहई-तिब्बत रेलमार्ग तैयार हो चुका है। सड़के त्संगपो नदी की घाटी में स्थित नगरों को आपस में मिलाती है। पीकिंग-ल्हासा राजमार्ग एवं ल्हासा काठमांडू राजमार्ग का निर्माण कार्य पूर्ण होने की अवस्था में है। इनके पूर्ण हो जोने पर इसका सीधा संबंध पड़ोसी देशों से हो जायेगा। चीन और भारत ही तिब्बत के साथ व्यापार में रत देश पहले थे। यहाँ के निवासी नमक, चमड़े तथा ऊन आदि के बदले में चीन से चाय एवं भारत से वस्त्र तथा खाद्य सामग्री प्राप्त करते थे। तिब्बत एवं शिंजियांग को मिलानेवाले तिब्बत-शिंजियांग राजमार्ग का निर्माण जो लद्दाख़ के अक्साई चिन इलाक़े से होकर जाती है पूर्ण हो चुका है। ल्हासा - पीकिंग वायुसेवा भी प्रारंभ हो गई है।
मध्य एशिया की उच्च पर्वत श्रेणियों, कुनलुन एवं हिमालय के मध्य स्थित १६००० फुट की ऊँचाई पर स्थित इस राज्य का ऐतिहासिक वृतांत लगभग ७वी शताब्दी से मिलता है। ८वीं शताब्दी से ही यहाँ बौद्ध धर्म का प्रचार प्रांरभ हुआ। १०१३ ई॰ में नेपाल से धर्मपाल तथा अन्य बौद्ध विद्वान् तिब्बत गए। १०४२ ई॰ में दीपंकर श्रीज्ञान अतिशा तिब्बत पहुँचे और बौद्ध धर्म का प्रचार किया। शाक्यवंशियों का शासनकाल १२०७ ई॰ में प्रांरभ हुआ। मंगोलों का अंत १७२० ई॰ में चीन के माँछु प्रशासन द्वारा हुआ। तत्कालीन साम्राज्यवादी अंग्रेंजों ने, जो दक्षिण पूर्व एशिया में अपना प्रभुत्व स्थापित करने में सफलता प्राप्त करते जा रहे थे, यहाँ भी अपनी सत्ता स्थापित करनी चाही, पर १७८८-१७९२ ई॰ के गुरखों के युद्ध के कारण उनके पैर यहाँ नहीं जम सके। परिणाम स्वरूप १९वीं शताब्दी तक तिब्बत ने अपनी स्वतंत्र सत्ता स्थिर रखी यद्यपि इसी बीच लद्दाख़ पर कश्मीर के शासक ने तथा सिक्किम पर अंग्रेंजों ने आधिपत्य जमा लिया। अंग्रेंजों ने अपनी व्यापारिक चौकियों की स्थापना के लिये कई असफल प्रयत्न किया। इतिहास के मुताबिक तिब्बत को दक्षिण में नेपाल से भी कई बार युद्ध करना पड़ा और नेपाल ने इसको हराया। नेपाल और तिब्बत की सन्धि के मुताबिक तिब्बत को हर साल नेपाल को ५००० नेपाली रुपये हरज़ाना भरना पड़ा। इससे आजित होकर नेपाल से युद्ध करने के लिये चीन से मदद माँगी चीन के मदद से उसने नेपाल से छुटकारा तो पा लिया लेकिन इसके बाद १९०६-१९०७ ई॰ में तिब्बत पर चीन ने अपना अधिकार कर लिया और याटुंग ग्याड्से एवं गरटोक में अपनी चौकियाँ स्थापित की। १९१२ ई॰ में चीन से [[चिंग राजवंश
|मान्छु शासन]] अंत होने के साथ तिब्बत ने अपने को पुन: स्वतंत्र राष्ट्र घोषित कर दिया। सन् १९१३-१९१४ में चीन, भारत एवं तिब्बत के प्रतिनिधियों की बैठक शिमला में हुई जिसमें इस विशाल पठारी राज्य को भी भागों में विभाजित कर दिया गया:
(१) पूर्वी भाग जिसमें वर्तमान चीन के चिंगहई एवं सिचुआन प्रांत हैं। इसे 'अंतर्वर्ती तिब्बत' (इनर तिब्बत) कहा गया।
(२) पश्चिमी भाग जो बौद्ध धर्मानुयायी शासक लामा के हाथ में रहा। इसे 'बाह्य तिब्बत' (आउटर तिब्बत) कहा गया।
सन् १९३३ ई॰ में १३वें दलाई लामा की मृत्यु के बाद से बाह्य तिब्बत भी धीरे-धीरे चीनी घेरे में आने लगा। चीनी भूमि पर लालित पालित १४वें दलाई लामा ने १९४० ई॰ में शासन भार सँभाला। १९५० ई॰ में जब ये सार्वभौम सत्ता में आए तो पंछेण लामा के चुनाव में दोनों देशों में शक्तिप्रदर्शन की नौबत तक आ गई एवं चीन को आक्रमण करने का बहाना मिल गया। १९५१ की संधि के अनुसार यह साम्यवादी चीन के प्रशासन में एक स्वतंत्र राज्य घोषित कर दिया गया। इसी समय से भूमिसुधार कानून एवं दलाई लामा के अधिकारों में हस्तक्षेप एवं कटौती होने के कारण असंतोष की आग सुलगने लगी जो क्रमश: १९५६ एवं १९५९ ई॰ में जोरों से भड़क उठी। परतुं बलप्रयोग द्वारा चीन ने इसे दबा दिया। अत्याचारों, हत्याओं आदि से किसी प्रकार बचकर दलाई लामा नेपाल पहुँच सके। अभी वे भारत में बैठकर चीन से तिब्बत को अलग करने की कोशिश कर रहे हैं। अब सर्वतोभावेन चीन के अनुगत पंछेण लामा यहाँ के नाममात्र के प्रशासक हैं।
इन्हें भी देखें
तिब्बत २०५० तक आजादी प्राप्त कर लेगा।
तिब्बत का इतिहास
तिब्बत का पठार
तिब्बती बौद्ध धर्म
तिब्बत की आजादी का संघर्ष (राजकिशोर)
मानसरोवर की भूमि तिब्बत (जागरण)
तिब्बत पर चीन के खूनी अत्याचारों के पचास वर्ष (डा. सतीश चन्द्र मित्तल)
जनवादी गणराज्य चीन के स्वायत्त क्षेत्र |
मद्रिद, स्पेन की राजधानी और सबसे अधिक जनसंख्या वाला शहर है। शहर में लगभग ३.४ मिलियन निवासी हैं और महानगरीय क्षेत्र की आबादी लगभग ६.७ मिलियन है। यह यूरोपीय संघ का दूसरा सबसे बड़ा शहर है, और इसका महानगरीय क्षेत्र यूरोपीय संघ में दूसरा सबसे बड़ा शहर है। नगरपालिका में ६0४.३ क्म भौगोलिक क्षेत्र शामिल है।
मद्रिद नाम के पीछे बहुत से कहानियां तथा सिद्धांत छुपे हुए है। मद्रिद की खोज ओच्नो बिअनोर ने की थी और इसे "मिट्रगिरता" (मेत्राग्रिता) या "मंतुआ कारपेटना" (मंतुआ कार्पेताना) नाम दिया गया था। कई लोगो का विश्वास है कि इसका मूल नाम "उर्सरिया" था। किन्तु अब ये माना जाता है कि इस शहर नाम ब्क कि दूसरी शताब्दी से आया है। रोमन साम्राज्य ने मंज़नारेस नदी के तट पर बसने के बाद इसे मत्रिस नाम दिया था। सातवी शताब्दी में इस्लामिक ताकतों ने इबेरियन पेनिन्सुला पर विजय प्राप्त करने के बाद इसका नाम बदल कर मेरिट रख दिया था, जो कि अरबी भाषा के शब्द मायरा से लिया गया था।
इस शहर का मूल नवी शताब्दी से आया जब मोहम्मद-ई ने एक छोटे से महल को बनाने का आदेश जारी किया। ये महल उसी जगह स्थित था जहा आज पलासियो रियल स्थित है।
मैड्रिड उन स्पेनिश शहरों में से एक है जिन्हें दिन और रात का आनंद लेना चाहिए। दिन के दौरान आप इसकी आकर्षक सड़कों और चौराहों पर टहल सकते हैं, इसके प्रसिद्ध संग्रहालयों और महलों की यात्रा कर सकते हैं, इसके ऐतिहासिक स्मारकों का दौरा कर सकते हैं, इसके बाजारों में खरीदारी कर सकते हैं या रेटिरो पार्क में टहल सकते हैं। और जब रात आती है, तो आप रात को कुछ फैशनेबल जगह पर रात खत्म करने के लिए लैटिना, चुचे या मलसाना के पड़ोस में एक तपस और कैन मार्ग बनाना बंद कर सकते हैं और चुरोस के साथ एक अच्छा गर्म चॉकलेट रख सकते हैं।
विश्व के प्रमुख नगर
यूरोप में राजधानियाँ |
यह लेख इटली की राजधानी एवं प्राचीन नगर 'रोम' के बारे में है। इसी नाम के अन्य नगर संयुक्त राज्य अमरीका में भी है। स्तनधारियों की त्वचा पर पाए जाने वाले कोमल बाल (:एन:हैर) के लिये बाल देखें। इसका पर्यायवाची शब्द रोयाँ या रोआँ (बहुवचन - रोएँ) है। इसे सात पहाड़ियों का नगर, पोप का शहर रक्त वर्ण महिला, प्राचीन विश्व की सामग्री, इटरनल सिटि ( होली सिटी ) के उपनामों से भी जाना जाता है।
रोम ( (रोमा); ) इटली देश की राजधानी है।
स्थिति : ४१५५' उ.अ. तथा १२२८' पू.दे.। वैटिकन नगर को मिलाकर यह रोमन कैथोलिक धर्म का केंद्र भी है। नगर की स्थिति इटली प्रायद्वीप के मध्य में, पश्चिमी तट पर, टाइबर नदी के किनारे, नदी के मुहाने से १७ मील उत्तर-पूर्व में है।
ऐसा विश्वास किया जाता है कि रोम नगर की नींव 'वर्गाकार रोम' के रूप में पैलेटाइन (पलेटीन) पहाड़ी पर रॉमुलस (रोमुलस) के द्वारा डाली गई थी। इसका विस्तार अन्य पहाड़ियों पर, एवं नदी के दोनों ओर, बाद में हुआ। रोम की एक विशेषता पहाड़ी ढालों पर इसके चित्ताकर्षक उद्यानों एवं गिरजाघरों की उपस्थिति है, जिनका दृश्य बड़ा ही रमणीक है। नगर में लगभग ३०० गिरजाघर कई पुस्तकालय, अजायबघर आदि हैं। विश्वविद्यालय भवन, यूरोप का सुंदरतम अस्पताल, पैलेस ऑव जस्टिस, आदि अन्य प्रसिद्ध भवन हैं। रेल के डिब्बे, ट्रामकार, कृषियंत्र, शल्यचिकित्सा संबंधी यंत्र, कागज, रासायनिक पदार्थ, नकली रेशम, साबुन, कलाप्रदर्शन के सामान, जैसे फर्नीचर, काँच, गहना एवं चमड़े के समान आदि तैयार करने के कारखाने वहाँ हैं। नगर पर्यटन का केंद्र एवं कृषि उपजों और ऊन का बाजार भी है।
इन्हें भी देखें
रोम का रोमांच
यूरोप में राजधानियाँ |
मदीना या अल-मदीना (अरबी: ) जिसे सम्मानपूर्वक 'अल-मदीना अल-मुनव्वरा' (/ म्दीन/ ; अरबी : , अल-मदीना अल-मुनव्वरा, " चमकदार शहर"; या , अल-मदीना (हेजाज़ी उच्चारण: [अलमदिना] ), "शहर"), मदीना के रूप में भी लिप्यंतरित, अरब प्रायद्वीप के हेजाज़ क्षेत्र में एक शहर है और सऊदी अरब के अल-मदीना क्षेत्र के प्रशासनिक मुख्यालय है। ग्रान्धिक रूप से अरबी शब्द मदीना का अर्थ 'शहर' या 'नगर' है। मदीनतुन-नबी का अर्थ नबी का शहर है। शहर के दिल में अल-मस्जिद अन-नबवी ("पैगंबर की मस्जिद") है,मक्का के बाद इस्लाम का दूसरा सबसे पवित्र शहर है।
मुहम्मद ने मक्का से मदीना को अपनी हिजरत (प्रवासन) की। मुहम्मद के नेतृत्व में, तेजी से बढ़ रहे मुस्लिम साम्राज्य की राजधानी मदीना बन गई। यह पहली शताब्दी में इस्लाम के पावर बेस के रूप में कार्य करता था जहां प्रारंभिक मुस्लिम समुदाय विकसित हुआ था। मदीना तीन सबसे पुरानी मस्जिदों का घर है, अर्थात् मस्जिद ए क़ुबा, मस्जिद ए नबवी, और मस्जिद अल-क़िब्लातैन ("दो क़िब्लों की मस्जिद")। मुसलमानों का मानना है कि कुरान के कालानुक्रमिक रूप से अंतिम सूरह मदीना में मुहम्मद को प्रकट हुआ था, और उन्हें पहले मक्कन सूरह के विपरीत मेदीनन सूरह कहा जाता है।
यह इस्लाम में पवित्रतम दूसरा शहर है और इस्लामी पैगंबर मुहम्मद की दफ़नगाह है और यह उनकी हिजरह (विस्थापित होने) के बाद उनके घर आने के कारण ऐतिहासिक रूप से महत्वपूर्ण है। इस्लाम के आगमन से पहले, मदीना शहर 'यसरिब' नाम से जाना जाता था, लेकिन व्यक्तिगत रूप से पैगंबर मुहम्मद द्वारा नाम दिया गया। मदीना में इस्लाम के तीन सबसे पुराने मस्जिद मस्जिद अल नबवी (पैगंबर की मस्जिद), मस्जिद ए क़ुबा (इस्लाम के इतिहास में पहली मस्जिद) और मस्जिद अल क़िब्लतैन (वह मस्जिद जिस में दो क़िब्लओं की तरफ़ मुंह करके नमाज़ पढी गयी) उपस्थित है।
मक्का की तरह, मदीना का शहर केंद्र किसी भी व्यक्ति के लिए बंद है जिसे गैर-मुसलमान माना जाता है, जिसमें राष्ट्रीय सरकार द्वारा अहमदीय आंदोलन के सदस्य भी शामिल हैं; हालांकि, शहर के अन्य हिस्सों को बंद नहीं किया गया है।
अरबी शब्द अल-मदीना () का अर्थ "शहर" है। इस्लाम के आगमन से पहले, शहर यथ्रिब (यस्रिब - ) के रूप में जाना जाता था । यथ्रिब शब्द का ज़िक्र कुरान के सूरत अल-अहज़ाब में मिलता है। [कुरान ३३:१३]
इसे तैबा भी कहा जाता है ( )। एक वैकल्पिक नाम अल-मदीना एन-नाबावियाह ( ) या मदिनत एन-नबी ( , "पैगंबर का शहर") है।
२०१० तक, मदीना शहर की जनसंख्या १,१83,२०५ है। पूर्व इस्लामी युग यथ्रिब के दौरान निवासियों ने यहूदी जनजातियों को भी शामिल किया था। बाद में शहर का नाम अल-मदीन-तु एन-नबी या अल-मदीनातु 'अल-मुनव्वारह ( "रोशन शहर" या " चमकदार शहर" में बदल दिया गया था)। मदीना अल-मस्जिद अन-नबवी और शहर के रूप में भी माना जाता है, वह शहर जिसने नबी और उनके अनुयायियों को शरण दी, और इसलिए मक्का के बाद इस्लाम के दूसरे सबसे पवित्र शहर के रूप में रैंक किया गया। मुहम्मद को सब्ज़ गुंबद के नीचे मदीना में दफनाया गया था, जैसा कि पहले दो रशीदुन खलीफा, अबू बकर और उमर भी दफ़न थे।
मदीना मक्का के उत्तर में २१० मील (३४० किमी) और लाल सागर तट से लगभग १२० मील (१९० किमी) दूरी पर है। यह सभी हेजाज क्षेत्र के सबसे उपजाऊ हिस्से में स्थित है, इस इलाके में अभिसरण करने के आसपास के आसपास की धाराएं। एक विशाल मैदान दक्षिण में फैला हुआ है; हर दिशा में दृश्य पहाड़ियों और पहाड़ों से घिरा हुआ है।
इस ऐतिहासिक शहर ने १२ वीं शताब्दी ई से, एक मजबूत दीवार से घिरा एक अंडाकार रूप में बनाया गाया था, ३० से ४० फीट (९.१ से १२.२ मीटर) ऊंचा, और टावरों के साथ घिरा हुआ था, जबकि एक चट्टान पर एक महल खड़ा था। इसके चार द्वारों में से, बाब-अल-सलाम, या मिस्र के द्वार, इसकी सुंदरता के लिए उल्लेखनीय था। शहर, पश्चिम और दक्षिण की दीवारों से परे उपनगर थे जिनमें कम घर, गज, बगीचे और वृक्षारोपण शामिल थे। इन उपनगरों में दीवारें और द्वार भी थे। सऊदी युग में लगभग सभी ऐतिहासिक शहर को ध्वस्त कर दिया गया है। पुनर्निर्मित शहर बड़े पैमाने पर विस्तारित अल-मस्जिद एन-नाबावी पर केंद्रित है।
फ़ातिमा (मुहम्मद की बेटी) और हसन (मुहम्मद के पोते) की कब्र, जन्नत अल-बक़ी में दफ़न हैं, और अबू बकर (पहले खलीफ़ा और मुहम्मद की पत्नी, आइशा सिद्दीक़ा के पिता), और उमर (उमर इब्न अल-ख़त्ताब) ), दूसरे खलीफ़ा, यहां दफ़न हैं। मस्जिद मुहम्मद के समय बनाई गयी थी, लेकिन इसे दो बार पुनर्निर्मित किया गया है।
इस्लाम में धार्मिक महत्व
एक धार्मिक स्थल के रूप में मदीना का महत्व अल-मस्जिद एन-नाबावी की उपस्थिति से निकला है। मस्जिद उमायाद खलीफ अल-वालिद प्रथम द्वारा विस्तारित किया गया था। माउंट उहूद मदीना के उत्तर में एक पहाड़ है जो मुस्लिम और मक्का सेनाओं के बीच दूसरी लड़ाई का स्थल था।
मुहम्मद के समय के दौरान निर्मित पहली मस्जिद मदीना में स्थित है और इसे क़ुबा मस्जिद के नाम से जाना जाता है। यह बिजली से नष्ट हो गई थी, शायद लगभग ८५० ई, और कब्र लगभग भूल गए थे। ८९२ में, जगह को मंजूरी दे दी गई थी, कब्रें स्थित थीं और एक अच्छी मस्जिद बनाई गई थी, जिसे १२५७ सीई में आग से नष्ट होगयी थी और उसे तुरंत पुनर्निर्मित किया गया था। इसे १४८७ में मिस्र के शासक क ऐतबे ने बहाल कर दिया था।
मस्जिद अल-क़िबलतेन मुसलमानों के लिए ऐतिहासिक रूप से एक और मस्जिद महत्वपूर्ण है। हदीस के अनुसार यह वह जगह है जहां मुहम्मद को आदेश हुआ कि अपने किबले को यरूशलेम से मक्का की तरफ दिशा बदलें।
मक्का की तरह, मदीना शहर केवल मुसलमानों को प्रवेश करने की इजाजत देता है, हालांकि मदीना के हरम (गैर-मुसलमानों के लिए बंद) मक्का की तुलना में बहुत छोटा है, जिसके परिणामस्वरूप मदीना के बाहरी इलाके में कई सुविधाएं गैर- मुस्लिम, जबकि मक्का में गैर-मुसलमानों के लिए बंद क्षेत्र बिल्ट-अप क्षेत्र की सीमा से परे फैला हुआ है। दोनों शहरों की कई मस्जिद उनके उमर (हज के बाद दूसरी तीर्थ यात्रा) पर बड़ी संख्या में मुस्लिमों के लिए गंतव्य हैं। तीर्थयात्रा हज प्रदर्शन करते समय सैकड़ों हजार मुसलमान मदीना सालाना आते हैं। अल-बक़ी' मदीना में एक महत्वपूर्ण कब्रिस्तान है जहां मुहम्मद, खलीफ़ा और विद्वानों के कई परिवार के सदस्यों को दफनाया जाता है।
इस्लामी शास्त्र मदीना की पवित्रता पर जोर देते हैं। मदीना को कुरान में पवित्र होने के रूप में कई बार उल्लेख किया गया है, उदाहरण के लिए आयत ; ९: १०१, ९: १२ ९, ५ ९: ९, और अय्या ६३:७ मदनी सूरा आमतौर पर अपने मक्का समकक्षों से अधिक लंबे हैं। बुखारी के हदीस में 'मदीना के गुण' नामक एक किताब भी है।
सही बुख़ारी में उल्लेख है;
यह भी देखें: मदीना की समयरेखा
इस्लाम से पहले
चौथी शताब्दी तक, अरब जनजातियों ने यमन से अतिक्रमण करना शुरू कर दिया, और वहां तीन प्रमुख यहूदी जनजातियां थीं जो ७ वीं शताब्दी ईस्वी में शहर में बसे थे: बानू कयनुका , बानू कुरैजा और बानू नादिर । इब्न खोर्डदाबे ने बाद में बताया कि हेजाज़ में फारसी साम्राज्य के प्रभुत्व के दौरान, बानू कुरैया ने फारसी शाह के लिए कर संग्रहकर्ता के रूप में कार्य किया था।
बनू औस (या बानू 'अवस) और बनू खजराज नामक दो नई अरब जनजातियों के यमन से आने के बाद स्थिति बदल गई। सबसे पहले, इन जनजातियों को यहूदी शासकों के साथ संबद्ध किया गया था, लेकिन बाद में वे विद्रोह कर गए और स्वतंत्र हो गए। ५ वीं शताब्दी के अंत में, यहूदी शासकों ने शहर के नियंत्रण को बनू औस और बानू खजराज में खो दिया। यहूदी विश्वकोष में कहा गया है कि "बाहरी सहायता में बुलाकर और भरोसेमंद यहूदी भोज में मुख्य यहूदी", बानू औस और बानू खजराज ने अंततः मदीना में ऊपरी हाथ प्राप्त किया।
अधिकांश आधुनिक इतिहासकार मुस्लिम स्रोतों के दावे को स्वीकार करते हैं कि विद्रोह के बाद, यहूदी जनजातियां औस और खजराज के ग्राहक बन गईं। हालांकि, इस्लाम के विद्वान विलियम मोंटगोमेरी वाट के विद्वान के अनुसार, यहूदी जनजातियों की ग्राहकता ६२७ से पहले की अवधि के ऐतिहासिक खातों से नहीं उभरी है, और उन्होंने कहा कि यहूदी जनसंख्या ने राजनीतिक स्वतंत्रता को माप लिया है।
प्रारंभिक मुस्लिम इतिहासकार इब्न इशाक हिमालय साम्राज्य के अंतिम यमेनाइट राजा और याथ्रिब के निवासियों के बीच पूर्व इस्लामी संघर्ष के बारे में बताते हैं । जब राजा ओएसिस से गुज़र रहा था, तो निवासियों ने अपने बेटे को मार डाला, और यमेनाइट शासक ने लोगों को खत्म करने और हथेलियों को काटने की धमकी दी। इब्न इशाक के मुताबिक, उन्हें बानू कुरैजा जनजाति के दो खरगोशों ने ऐसा करने से रोक दिया था, जिन्होंने राजा को ओएसिस छोड़ने के लिए आग्रह किया क्योंकि यह वह स्थान था जहां " कुरैशी का एक भविष्यवक्ता आने के समय में माइग्रेट करेगा, और यह उसका घर और विश्राम स्थान होगा। " यमन के राजा ने इस प्रकार शहर को नष्ट नहीं किया और यहूदी धर्म में परिवर्तित कर दिया। उसने रब्बी को उसके साथ ले लिया, और मक्का में , उन्होंने कबा को इब्राहीम द्वारा निर्मित मंदिर के रूप में पहचाना और राजा को सलाह दी कि "मक्का के लोगों ने क्या किया: मंदिर को घेरने, सम्मान करने और सम्मान करने के लिए अपने सिर को दाढ़ी दें और सभी नम्रता से व्यवहार करें जब तक कि वह अपनी परिसर छोड़ नहीं लेता। " यमन के पास, इब्न इशाक को बताते हुए, खरगोशों ने स्थानीय लोगों को बिना आग से बाहर निकलने के चमत्कार से चमत्कार किया और यमनियों ने यहूदी धर्म को स्वीकार कर लिया।
आखिर में बानू औस और बानू खजराज एक दूसरे के प्रति शत्रु हो गए और मुहम्मद के हिजरा (प्रवासन) के समय ६२२ ईस्वी / १ एएच में मदीना के समय तक, वे १20 साल से लड़ रहे थे और एक दूसरे के शपथ ग्रहण कर रहे थे। बानू नादिर और बानू कुरैजा को औस के साथ सहयोग किया गया था, जबकि बानू कयणुका खजराज के साथ थे। उन्होंने कुल चार युद्ध लड़े। </रेफ> ते फॉट आ टोटल ऑफ फोर वार.
उनकी आखिरी और खूनी लड़ाई बुआथ की लड़ाई थी जो मुहम्मद के आगमन से कुछ साल पहले लड़ी गई थी। युद्ध का नतीजा अनिश्चित था, और विवाद जारी रहा। एक खजराज प्रमुख अब्द-अल्लाह इब्न उबायी ने युद्ध में भाग लेने से इंकार कर दिया था, जिसने उन्हें इक्विटी और शांति के लिए प्रतिष्ठा अर्जित की थी। मुहम्मद के आगमन तक, वह याथ्रिब का सबसे सम्मानित निवास स्थान था। चल रहे विवाद को हल करने के लिए, शहर के संबंधित निवासी अल-अकाबा में मुहम्मद के साथ गुप्त रूप से मिले, मक्का और मीना के बीच एक जगह, उन्हें और उनके छोटे समूह विश्वासियों को याथ्रिब आने के लिए आमंत्रित किया, जहां मुहम्मद गुटों के बीच अनिच्छुक मध्यस्थ के रूप में सेवा कर सकते थे और उसका समुदाय स्वतंत्र रूप से अपने विश्वास का अभ्यास कर सकता था।
मुहम्मद का आगमन
६२२ ईस्वी / १ हिजरी में, मुहम्मद और लगभग ७० मक्का मुहजीरुन विश्वासियों ने यस्रिब में अभय दिया गया शहर के लिए मक्का छोड़ा, एक घटना जिसने शहर के धार्मिक और राजनीतिक परिदृश्य को पूरी तरह बदल दिया; औस और खजराज जनजातियों के बीच लंबी शत्रुता को दो अरब जनजातियों में से कई के रूप में डूब गया था और कुछ स्थानीय यहूदियों ने इस्लाम को गले लगा लिया था। मुहम्मद, खजराज से उनकी दादी के माध्यम से जुड़े, नागरिक नेता के रूप में सहमत हुए थे। मुसलमान मूल रूप से याथ्रिब को जो भी पृष्ठभूमि-मूर्तिपूजक अरब या यहूदी कहते हैं, उन्हें अंसार ("संरक्षक" या "सहायक") कहा जाता है, जबकि मुसलमान जकात कर का भुगतान करेंगे।
इब्न इशाक के अनुसार, स्थानीय मूर्तिपूजक अरब जनजातियों, मक्का से मुस्लिम मुहजीरीन, स्थानीय मुस्लिम (अंसार), और क्षेत्र की यहूदी आबादी ने एक समझौते पर हस्ताक्षर किए, मदीना का संविधान, जिसने सभी पार्टियों को पारस्परिक सहयोग के लिए प्रतिबद्ध किया मुहम्मद का नेतृत्व इस दस्तावेज की प्रकृति इब्न इशाक द्वारा दर्ज की गई है और इब्न हिशाम द्वारा प्रेषित आधुनिक पश्चिमी इतिहासकारों के बीच विवाद का विषय है, जिनमें से कई यह मानते हैं कि यह "संधि" संभवतः अलग-अलग तिथियों के लिखित रूप से अलग-अलग समझौतों का एक महाविद्यालय है, और यह स्पष्ट नहीं है कि उन्हें कब बनाया गया था। हालांकि, अन्य विद्वान पश्चिमी और मुस्लिम दोनों तर्क देते हैं कि समझौते का पाठ-चाहे मूल रूप से या कई दस्तावेज संभवतः हमारे सबसे पुराने इस्लामिक ग्रंथों में से एक है। यमन के यहूदी स्रोतों में, हिजरा (६३८ सीई) के १७ वें वर्ष में लिखित मुहम्मद और उनके यहूदी विषयों के बीच एक और संधि तैयार की गई, जिसे किताब इममत अल-नबी के नाम से जाना जाता है, और जिसने अरब में रहने वाले यहूदियों को व्यक्त स्वतंत्रता दी सब्त का पालन करने और अपने साइड-लॉक को बढ़ाने के लिए, लेकिन अपने संरक्षकों द्वारा उनकी सुरक्षा के लिए सालाना जिज्या (मतदान कर) का भुगतान करना आवश्यक था।
बदर की लड़ाई
इस्लाम के शुरुआती दिनों में बद्र की लड़ाई एक महत्वपूर्ण लड़ाई थी और मक्का में कुरैशी के बीच मुहम्मद के विरोधियों के साथ संघर्ष में एक महत्वपूर्ण मोड़ था।
६२४ के वसंत में, मुहम्मद को अपने खुफिया स्रोतों से शब्द प्राप्त हुआ कि अबू सूफान इब्न हरब द्वारा आदेश दिया गया एक व्यापार कारवां और तीस से चालीस पुरुषों की रक्षा करता है, सीरिया से वापस मक्का तक यात्रा कर रहा था। मुहम्मद ने ३१३ पुरुषों की एक सेना इकट्ठी की, मुसलमानों ने अब तक की सबसे बड़ी सेना को मैदान में रखा था। हालांकि, कुरान समेत कई प्रारंभिक मुस्लिम स्रोतों से संकेत मिलता है कि कोई गंभीर लड़ाई की उम्मीद नहीं थी, और भविष्य में खलीफ उथमान इब्न अफ़ान अपनी बीमार पत्नी की देखभाल करने के लिए पीछे रहे।
जैसा कि कारवां ने मदीना से संपर्क किया, अबू सूफान ने मुहम्मद के नियोजित हमले के बारे में यात्रियों और सवारों से सुनना शुरू कर दिया। उन्होंने कुरैश को चेतावनी देने और सुदृढीकरण प्राप्त करने के लिए दमडम नामक मक्का नामक एक संदेशवाहक भेजा। अलार्म, कुरैशी ने कारवां को बचाने के लिए ९००-१,००० पुरुषों की एक सेना को इकट्ठा किया। अमृत इब्न हिशाम, वालिद इब्न उट्टा, शाबा और उमायाह इब्न खलाफ समेत कई कुरैशी महारानी सेना में शामिल हो गए। हालांकि, कुछ सेना बाद में युद्ध से पहले मक्का लौट आई थी।
युद्ध में शामिल होने के लिए उभर रहे दोनों सेनाओं के चैंपियनों के साथ लड़ाई शुरू हुई। मुसलमानों ने अली , उबायदा इब्न अल-हरिथ ( ओबेदा ), और हमज़ा इब्न 'अब्द अल- मुतालिब को भेजा। मुस्लिमों ने मक्का चैंपियनों को तीन-तीन-तीन मैली में भेज दिया, हमजा ने पहली बार हड़ताल के साथ अपने प्रतिद्वंद्वी को मार डाला, हालांकि उबायदाह घायल हो गए थे।
अब दोनों सेनाओं ने एक दूसरे पर फायरिंग तीर शुरू कर दिया। दो मुस्लिम और अज्ञात संख्या में कुरैश मारे गए थे। युद्ध शुरू होने से पहले, मुहम्मद ने मुसलमानों को अपने हथियारों के साथ हमला करने का आदेश दिया था, और जब वे उन्नत होते थे तो केवल कुरैशी को मेली हथियारों से जोड़ते थे। अब उन्होंने चाकतों को चार्ज करने का आदेश दिया, मक्का में मुट्ठी भर मुंह फेंकने के लिए शायद पारंपरिक अरब इशारा क्या था, "उन चेहरों को रोक दिया!" मुस्लिम फौज ने कहा "या मंसूर अमित!" मुस्लिम सेना ने चिल्लाया "या मनु अमित!" और कुरैशी लाइनों पर पहुंचे। मक्का, हालांकि मुस्लिमों की तुलना में काफी हद तक, तुरंत तोड़ दिया और भाग गया। लड़ाई केवल कुछ घंटों तक चली और शुरुआती दोपहर तक खत्म हो गई। कुरान कई छंदों में मुस्लिम हमले की शक्ति का वर्णन करता है, जिसमें बद्र में स्वर्ग से उतरने वाले हजारों स्वर्गदूतों को कुरैशी को मारने का उल्लेख किया गया है। प्रारंभिक मुस्लिम स्रोत इस खाते को शाब्दिक रूप से लेते हैं, और कई हदीस हैं जहां मुहम्मद एंजेल जिब्रियल और युद्ध में खेले गए भूमिका पर चर्चा करते हैं।
उबायदा इब्न अल-हरिथ (ओबेदा) को "इस्लाम के लिए पहला तीर मारने वाले" का सम्मान दिया गया था क्योंकि अबू सूफान इब्न हार्ब ने हमले से भागने के लिए पाठ्यक्रम बदल दिया था। इस हमले के बदले में अबू सूफान इब्न हरब ने मक्का से एक सशस्त्र बल का अनुरोध किया।
सर्दियों और वसंत के दौरान ६२३ अन्य हमलावर पार्टियों को मुथान ने मदीना से भेजा था।
उहूद की लड़ाई
६२५ में, मक्का के क़ुरैश के प्रधान अबू सुफ़ियान इब्न हर्ब ने नियमित रूप से बाईजान्टिन साम्राज्य को कर चुकाया, एक बार फिर मदीना के खिलाफ एक मक्का बल का नेतृत्व किया। मुहम्मद के ख़िलाफ़ बल से मिलने के लिए बाहर निकल गए लेकिन युद्ध तक पहुंचने से पहले, अब्द-अल्लाह इब्न उबाय के तहत सेनाओं में से एक तिहाई वापस ले गए। एक छोटी सेना के साथ, मुस्लिम सेना को ऊपरी हाथ हासिल करने की रणनीति मिलनी पड़ी। तीरंदाजों के एक समूह को मक्का की घुड़सवारी बलों पर नजर रखने और मुस्लिम सेना के पीछे सुरक्षा प्रदान करने के लिए पहाड़ी पर रहने का आदेश दिया गया था। जैसे ही युद्ध गर्म हो गया, मक्का को कुछ हद तक पीछे हटने के लिए मजबूर होना पड़ा। युद्ध के मोर्चे को तीरंदाजों से आगे और आगे धकेल दिया गया था, जिन्हें युद्ध की शुरुआत से, वास्तव में करने के लिए कुछ भी नहीं था लेकिन देखो। युद्ध के हिस्से बनने के लिए उनकी बढ़ती अधीरता में, और यह देखते हुए कि वे कुछ हद तक काफ़िरों (अविश्वासी) पर लाभ प्राप्त कर रहे थे, इन तीरंदाजों ने पीछे हटने वाले मक्का का पीछा करने के लिए अपनी पद छोड़ने का फैसला किया। हालांकि, एक छोटी पार्टी पीछे रह गई; अपने कमांडरों के आदेशों का उल्लंघन न करने के लिए सभी के साथ सभी को दलील देना। लेकिन उनके शब्द उनके साथियों के उत्साही योद्धाओं में खो गए थे।
हालांकि, मक्का की वापसी वास्तव में एक निर्मित चालक था जो भुगतान किया गया था। पहाड़ी की स्थिति मुस्लिम बलों के लिए एक बड़ा फायदा रहा है, और उन्हें टेबल को चालू करने के लिए मक्का के लिए अपनी पदों को लुभाना पड़ा। यह देखते हुए कि उनकी रणनीति वास्तव में काम कर चुकी थी, मक्का कैवलरी बलों पहाड़ी के चारों ओर चली गई और पीछा करने वाले तीरंदाजों के पीछे फिर से दिखाई दी। इस प्रकार, पहाड़ी और सामने की रेखा के बीच मैदान में हमला किया गया, तीरंदाजों को व्यवस्थित रूप से कत्ल कर दिया गया, पहाड़ में पीछे रहने वाले अपने हताश कामरेडों ने देखा, हमलावरों को विफल करने के लिए तीर शूटिंग, लेकिन थोड़ा प्रभाव पड़ा।
हालांकि, मदीना पर हमला करके मक्का ने अपने लाभ पर पूंजीकरण नहीं किया और मक्का लौट आया। मदीना वासियों को भारी नुकसान का सामना करना पड़ा, और मुहम्मद घायल हो गये थे।
खंदक की लड़ाई
६२७ में, अबू सूफान इब्न हरब ने मदीना के खिलाफ मक्का सेना का नेतृत्व किया। क्योंकि मदीना के लोगों ने शहर की रक्षा करने के लिए एक खाई खोद ली थी, इस घटना को खाई की लड़ाई के रूप में जाना जाने लगा। एक लंबी घेराबंदी और विभिन्न झड़पों के बाद, मक्का फिर से वापस ले लिया। घेराबंदी के दौरान, अबू सूफान इब्न हरब ने बानू कुरैजा के शेष यहूदी जनजाति से संपर्क किया था और रक्षकों पर लाइनों के पीछे से हमला करने के लिए उनके साथ एक समझौता किया था। हालांकि यह मुस्लिमों द्वारा खोजा गया था और विफल हो गया था। यह मदीना के संविधान का उल्लंघन था और मक्का वापसी के बाद, मुहम्मद ने तुरंत कुरैजा के खिलाफ मार्च किया और अपने गढ़ों पर घेराबंदी की। यहूदी सेनाओं ने अंततः आत्मसमर्पण कर दिया। बनू औस के कुछ सदस्य अब अपने पुराने सहयोगियों की तरफ से हस्तक्षेप कर चुके थे और मुहम्मद न्यायाधीश के रूप में अपने प्रमुखों में से एक, साद इब्न मुआदाह की नियुक्ति पर सहमत हुए। साद ने यहूदी कानून द्वारा निर्णय लिया कि जनजाति के सभी पुरुष सदस्यों को मार डाला जाना चाहिए और महिलाओं और बच्चों को राजद्रोह (डेउटोरोनोमी) के लिए पुराने नियम में कहा गया कानून था। यह कार्रवाई सुनिश्चित करने के लिए एक रक्षात्मक उपाय के रूप में कल्पना की गई थी कि मुस्लिम समुदाय मदीना में अपने निरंतर अस्तित्व के प्रति आश्वस्त हो सकता है। इतिहासकार रॉबर्ट मंतरन का तर्क है कि इस दृष्टिकोण से यह सफल रहा - इस बिंदु से, मुस्लिम अब मुख्य रूप से अस्तित्व के साथ चिंतित नहीं थे बल्कि विस्तार और विजय के साथ थे।
प्रारंभिक इस्लाम का राजधानी शहर और ख़िलाफ़त
हिजरा के दस वर्षों बाद, मदीना ने उस आधार का गठन किया जहां से मुहम्मद और मुस्लिम सेना पर हमला किया गया था और हमला किया गया था, और यह यहां से था कि वह मक्का पर चढ़ गया , ६२९ ईस्वी / ८ एएच में युद्ध के बिना प्रवेश कर रहा था, सभी पार्टियां उनका नेतृत्व बाद में, हालांकि, मुक्का के मुहम्मद के आदिवासी संबंध और इस्लामी तीर्थयात्रा ( हज ) के लिए मक्का काबा के निरंतर महत्व के बावजूद, मुहम्मद मदीना लौट आए, जो कुछ वर्षों तक इस्लाम का सबसे महत्वपूर्ण शहर और प्रारंभिक खलीफा की राजधानी बना रहा।
मोहम्मद की भविष्यवाणी और मृत्यु के सम्मान में याथ्रिब का नाम मदीना अल-नबी (" अरबी में पैगंबर शहर") से मदीना रखा गया था। (वैकल्पिक रूप से, लुसीन गुब्बे ने सुझाव दिया कि मदीना अरामाईक शब्द मेडिंटा से व्युत्पन्न भी हो सकती है, जिसे यहूदी निवासियों ने शहर के लिए उपयोग किया होगा। )
पहले तीन खलीफा अबू बकर , उमर और उथमान के तहत, मदीना तेजी से बढ़ रहे मुस्लिम साम्राज्य की राजधानी थीं। उथमान की अवधि के दौरान, तीसरे खलीफ, मिस्र से अरबों की एक पार्टी, अपने राजनीतिक निर्णयों से असंतुष्ट, ६५६ ईस्वी / ३५ एएच में मदीना पर हमला किया और उसे अपने घर में हत्या कर दी। चौथी खलीफा अली ने मदीना से खलीफा की राजधानी इराक में कुफा में बदल दी । उसके बाद, मदीना का महत्व घट गया, राजनीतिक शक्ति की तुलना में धार्मिक महत्व का एक और स्थान बन गया।
१२५६ ईस्वी में मदीना को हररत राहत ज्वालामुखीय क्षेत्र से लावा प्रवाह से धमकी दी गई थी।
खलीफा के विखंडन के बाद, शहर १३ वीं शताब्दी में काहिरा के मामलुक और आखिरकार, १५१७ में, तुर्क साम्राज्य सहित विभिन्न शासकों के अधीन हो गया।
सऊदी नियंत्रण के लिए प्रथम विश्व युद्ध
२० वीं शताब्दी की शुरुआत में, प्रथम विश्व युद्ध के दौरान, मदीना ने इतिहास में सबसे लंबी घेराबंदी में से एक देखा। मदीना तुर्की तुर्क साम्राज्य का एक शहर था । स्थानीय नियम हस्मिथ वंश के हाथों में शरीफ या मक्का के एमिर के रूप में था। फखरी पाशा मदीना के तुर्क गवर्नर थे। मक्का के शरीफ अली हस हुसैन और हस्मिथ वंश के नेता, कॉन्स्टेंटिनोपल ( इस्तांबुल ) में खलीफ के खिलाफ विद्रोह कर रहे थे और ग्रेट ब्रिटेन के साथ थे । मदीना शहर शरीफ की सेनाओं से घिरा हुआ था, और फखरी पाशा ने १९१६ से १० जनवरी १९१९ तक मदीना के घेराबंदी के दौरान दृढ़ता से आयोजित किया था। उन्होंने आत्मसमर्पण करने से इंकार कर दिया और मॉर्ड्रोस के युद्ध के ७२ दिनों बाद उसे गिरफ्तार कर दिया, जब तक कि उसे गिरफ्तार नहीं किया गया अपने ही पुरुष लूट और विनाश की प्रत्याशा की प्रत्याशा में, फखरी पाशा ने गुप्त रूप से इस्तांबुल के मदीना के पवित्र अवशेषों को भेजा।
१९२० तक, अंग्रेजों ने मदीना को "मक्का से अधिक आत्म-समर्थन" के रूप में वर्णित किया। प्रथम विश्व युद्ध के बाद, हस्मिथ साईंद हुसैन बिन अली को एक स्वतंत्र हेजाज का राजा घोषित किया गया था। इसके तुरंत बाद, १९२४ में, उन्हें इब्न सौद ने पराजित किया, जिन्होंने मदीना और पूरे हेजाज़ को सऊदी अरब के आधुनिक साम्राज्य में एकीकृत किया।
आज, मदीना ("मदीना" आधिकारिक तौर पर सऊदी दस्तावेजों में), मक्का के बाद दूसरा सबसे महत्वपूर्ण इस्लामी तीर्थ स्थल होने के अलावा, अल मदीना के पश्चिमी सऊदी अरब प्रांत की एक महत्वपूर्ण क्षेत्रीय राजधानी है। यद्यपि पुराने शहर का शहर का पवित्र केंद्र गैर-मुस्लिमों के लिए सीमा से बाहर है, मदीना अन्य अरब राष्ट्रीयताओं (मिस्र के लोग, जॉर्डनियों, लेबनानी, आदि) के मुस्लिम और गैर-मुस्लिम प्रवासी श्रमिकों की बढ़ती संख्या में निवास कर रही है, दक्षिण एशियाई ( बांग्लादेशियों, भारतीयों, पाकिस्तानियों, आदि) और फिलिपिनो।
मदीना के आस-पास की मिट्टी में ज्यादातर बेसाल्ट है, जबकि पहाड़ियों, विशेष रूप से शहर के दक्षिण में ध्यान देने योग्य, ज्वालामुखीय राख हैं जो पैलेज़ोइक युग की पहली भूगर्भीय अवधि की तारीखें को बताती है।
अल मदीना अल मुनव्वरा सऊदी अरब के राज्य में अल हिजाज़ क्षेत्र के पूर्वी भाग में स्थित है, जो ३९ ३६ 'पूर्व और अक्षांश २४ २८' उत्तर पर है।
मदीना राज्य के उत्तर-पश्चिमी हिस्से में लाल सागर स्थित है, जो इससे केवल २५० किलोमीटर (१६० मील) दूरी पर है। यह कई पहाड़ों से घिरा हुआ है: अल-हुजाज, या पश्चिम में तीर्थयात्रियों का पर्वत, उत्तर-पश्चिम में सला, अल-ईर या दक्षिण में कारवां पर्वत और उत्तर में उहद। मदीना अल-अकल, अल-अकिक और अल-हिमह के तीन घाटियों के जंक्शन पर एक फ्लैट पर्वत पठार पर स्थित है। इस कारण से, शुष्क पहाड़ी क्षेत्र के बीच बड़े हरे रंग के क्षेत्र हैं। शहर समुद्र तल से ६२० मीटर (२,०३० फीट) ऊपर है । इसके पश्चिमी और दक्षिणपश्चिम हिस्सों में कई ज्वालामुखीय चट्टान हैं। मदीना ३९३६ 'पूर्व और अक्षांश २4२8' उत्तर की बैठक के बिंदु पर स्थित है। इसमें लगभग ५० वर्ग किलोमीटर (१९ वर्ग मील ) का क्षेत्र शामिल है।
अल मदीना अल मुनवावरह एक रेगिस्तान ओएसिस है जो पहाड़ों और पत्थरों के इलाकों से घिरा हुआ है। इसका उल्लेख कई संदर्भों और स्रोतों में किया गया था। इसे प्राचीन मैनेन्द के लेखन में यथ्रिब के नाम से जाना जाता था, यह स्पष्ट सबूत है कि इस रेगिस्तान ओएसिस की जनसंख्या संरचना उत्तर अरबों और दक्षिण अरबों का एक संयोजन है, जो वहां बस गए और मसीह से हजारों वर्षों के दौरान अपनी सभ्यता का निर्माण किया।
मदीना एक गर्म रेगिस्तानी जलवायु है ( कोपेन जलवायु वर्गीकरण बह )। गर्मियों में तापमान लगभग ४३ डिग्री सेल्सियस (१०९ डिग्री फ़ारेनहाइट) के साथ लगभग २९ डिग्री सेल्सियस (८४ डिग्री फारेनहाइट) के साथ तापमान गर्म रहता है। ४५ डिग्री सेल्सियस (११३ डिग्री फ़ारेनहाइट) से ऊपर तापमान जून और सितंबर के बीच असामान्य नहीं है। सर्दियों में हल्के होते हैं, दिन में १२ डिग्री सेल्सियस (५४ डिग्री फारेनहाइट) से तापमान २५ डिग्री सेल्सियस (७७ डिग्री फारेनहाइट) तक रहता है। बहुत कम वर्षा होती है, जो नवंबर और मई के बीच लगभग पूरी तरह से गिरती है।
मदीना के लिए जलवायु डेटा (१९८५-२०१०)
सऊदी अरब के अधिकांश शहरों के साथ, मदीना की अधिकांश आबादी भी इस्लाम धर्म का पालन करता है। विभिन्न विद्यालय (हनफी, मालिकी, शाफ़ई और हम्बली) सुन्नी बहुमत का गठन हैं, जबकि नखविला जैसे मदीना के आसपास और आसपास शिया अल्पसंख्यक महत्वपूर्ण है। शहर के केंद्र (केवल मुस्लिमों के लिए आरक्षित) के बाहर, गैर-मुस्लिम प्रवासी श्रमिकों और विदेशियों की बड़ी संख्या बसी हुई है।
मदीना के मस्जिद का प्रतिनिधित्व पैनल। १८ वीं शताब्दी में तुर्की, इज़्निक में मिला। समग्र शरीर, सिलिकेट कोट, पारदर्शी शीशा लगाना, चित्रित अंडरग्लज़।
ऐतिहासिक रूप से, मदीना बढ़ती तिथियों के लिए जाना जाता है । १९२० तक, क्षेत्र में १३९ प्रकार की तिथियां उगाई जा रही थीं। मदीना भी कई प्रकार की सब्जियों को बढ़ाने के लिए जाना जाता था।
मदीना नॉलेज इकोनॉमिक सिटी प्रोजेक्ट, ज्ञान आधारित उद्योगों पर केंद्रित एक शहर की योजना बनाई गई है और उम्मीद है कि विकास को बढ़ावा मिलेगा और मदीना में नौकरियों की संख्या में वृद्धि होगी। .
यह शहर प्रिंस मोहम्मद बिन अब्दुलजाइज़ हवाई अड्डे द्वारा १९७४ में खोला गया था। यह दिन में औसतन २०-२५ उड़ानों को संभाला जाता है, हालांकि यह संख्या हज सीजन और स्कूल की छुट्टियों के दौरान तीन गुना है।
प्रत्येक वर्ष तीर्थयात्रियों की बढ़ती संख्या के साथ, कई होटल बनाए जा रहे हैं।
विश्वविद्यालयों में शामिल हैं:
मदीना के इस्लामी विश्वविद्यालय
मदीना को राजकुमार मोहम्मद बिन अब्दुलजाज हवाई अड्डे ( आईएटीए : एमईडी , आईसीएओ : ओएमा ) द्वारा शहर के केंद्र से करीब १५ किलोमीटर (९.३ मील) की दूरी पर परोसा जाता है। यह हवाई अड्डा ज्यादातर घरेलू गंतव्यों को संभालता है और इसने काइरो, बहरीन, दोहा, दुबई, इस्तांबुल और कुवैत जैसे क्षेत्रीय स्थलों तक अंतर्राष्ट्रीय सेवाएं सीमित कर दी हैं।
हाई स्पीड इंटर-सिटी रेल लाइन ( हरमन हाई स्पीड रेल प्रोजेक्ट जिसे "वेस्टर्न रेलवे" भी कहा जाता है) सऊदी अरब में निर्माणाधीन है। यह ४४४ किलोमीटर (२७६ मील), मुस्लिम पवित्र शहर मदीना और मक्का राजा अब्दुल्ला इकोनॉमिक सिटी, रबीघ , जेद्दाह और राजा अब्दुलजाइज़ अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे के माध्यम से लिंक करेगा। एक तीन-पंक्ति मेट्रो भी योजनाबद्ध है।
मेडिना शहर से कनेक्ट होने वाली प्रमुख सड़कों देश के अन्य हिस्सों में हैं:
राजमार्ग १५ (सऊदी अरब) - मदीना को मक्का , आभा , खमिस मुशैत और तबुक से जोड़ता है।
राजमार्ग ६० (सऊदी अरब) - मदीना को बुरीदाह से जोड़ता है
मदीना बस परिवहन निकटतम बस स्टेशन / स्टॉप और अल-मस्जिद एन-नाबावी के मार्ग का पता लगाता है अब मदीना में मदीना और उसके ऐतिहासिक स्थानों ("पैगंबर की मस्जिद") के आसपास भ्रमण करने के लिए "पर्यटक बस" नामक नई बस है।
विरासत का विनाश
यह भी देखें: सऊदी अरब में प्रारंभिक इस्लामी विरासत स्थलों का विनाश
सऊदी अरब डर के महत्व के ऐतिहासिक या धार्मिक स्थानों को दिए गए किसी भी सम्मान के प्रति शत्रुतापूर्ण है कि यह शर्करा (मूर्तिपूजा) को जन्म दे सकता है। नतीजतन, सऊदी शासन के तहत, मदीना को अपनी भौतिक विरासत के काफी विनाश से पीड़ित होना पड़ा जिसमें हजारों साल से अधिक की इमारतों के नुकसान शामिल थे। आलोचकों ने इसे "सऊदी बर्बरता" के रूप में वर्णित किया है और दावा किया है कि पिछले ५० वर्षों में मदीना और मक्का में , मुहम्मद, उनके परिवार या साथी से जुड़ी ३०० ऐतिहासिक साइटें खो गई हैं। मदीना में, ऐतिहासिक स्थलों के उदाहरणों को नष्ट कर दिया गया है जिनमें सलमान अल-फारसी मस्जिद, राजत राख-शम्स मस्जिद, जन्नतुल बाकी कब्रिस्तान और मोहम्मद का घर शामिल है।
यह भी देखें
सऊदी अरब पोर्टल
हरमैन हाई स्पीड रेल प्रोजेक्ट
मदीना का घेराबंदी
मदीना में मुहम्मद के अभियान की सूची
सउदी अरब के शहर
इस्लामी तीर्थ स्थल |
भ्रष्टाचार एक प्रकार की बेईमानी या अपराध है जो किसी व्यक्ति या संगठन द्वारा किया जाता है जिसे अधिकार के पद पर सौंपा जाता है, ताकि किसी के व्यक्तिगत लाभ के लिए अवैध लाभ या शक्ति का दुरुपयोग किया जा सके। भ्रष्टाचार में कई गतिविधियाँ शामिल हो सकती हैं जिनमें उत्कोच ग्रहण, प्रभावित करना और गबन शामिल है और इसमें ऐसी प्रथाएँ भी शामिल हो सकती हैं जो कई देशों में कानूनी हैं। राजनैतिक भ्रष्टाचार तब होता है जब कोई अधिकारी या अन्य सरकारी कर्मचारी व्यक्तिगत लाभ के लिए आधिकारिक क्षमता के साथ कार्य करता है। भ्रष्टाचार चोरतन्त्रों, अल्पतन्त्रों, और माफ़िया राज्यों में सबसे सामान्य हैं।
भ्रष्टाचार और अपराध स्थानिक सामाजिक घटनाएँ हैं जो वैश्विक स्तर पर लगभग सभी देशों में अलग-अलग डिग्री और अनुपात में नियमित आवृत्ति के साथ दिखाई देती हैं। सद्य के आंकड़े बताते हैं कि भ्रष्टाचार बढ़ रहा है। प्रत्येक व्यक्तिगत राष्ट्र भ्रष्टाचार के नियंत्रण और नियमन और अपराध के निवारण के लिए घरेलू संसाधनों का आवंटन करता है। भ्रष्टाचार को प्रतिरोध करने के लिए जो रणनीतियाँ अपनाई जाती हैं, उन्हें अक्सर भ्रष्टाचार विरोध छत्र शब्द के तहत संक्षेपित किया जाता है। इसके अतिरिक्त, संयुक्त राष्ट्र संधारणीय विकास लक्ष्य १६ जैसी वैश्विक पहलों का भी एक लक्षित उद्देश्य है जो भ्रष्टाचार को उसके सभी रूपों में काफी हद तक कम करने वाला है।
विभिन्न प्रकार के भ्रष्टाचार
भ्रष्टाचार के विभिन्न क्षेत्र
सरकारी/सार्वजनिक क्षेत्र में
पुलिस द्वारा भ्रष्टाचार
शिक्षा प्रणाली में भ्रष्टाचार
श्रमिक संघों का भ्रष्टाचार
धर्म में भ्रष्टाचार
दर्शन में भ्रष्टाचार
भ्रष्टाचार की विधियाँ
चुनाव में धांधली
सेक्स के बदले पक्षपात
जबरन चन्दा लेना
अपने विरोधियों को दबाने के लिये सरकारी मशीनरी का दुरुपयोग
भ्रष्ट विधान बनाना
न्यायाधीशों द्वारा गलत या पक्षपातपूर्ण निर्णय
चार्टर्ड एकाउन्टेन्टों द्वारा किसी बिजनेस के वित्तीय कथनों पर सही और निर्भीक राय न लिखना या उनके गलत आर्थिक कार्यों को ढकना।
विविध : वंशवाद, ब्लैकमेल करना, टैक्स चोरी, झूठी गवाही, झूठा मुकदमा, परीक्षा में नकल, परीक्षाथी का गलत मूल्यांकन - सही उत्तर पर अंक न देना और गलत/अलिखित उत्तरों पर भी अंक दे देना, पैसे लेकर संसद में प्रश्न पूछना, पैसे लेकर वोट देना, वोट के लिये पैसा और शराब आदि बाँटना, पैसे लेकर रिपोर्ट छापना, विभिन्न पुरस्कारों के लिये चयनित लोगों में पक्षपात करना, आदि।
आम तौर पर सरकारी सत्ता और संसाधनों के निजी फ़ायदे के लिए किये जाने वाले बेजा इस्तेमाल को भ्रष्टाचार की संज्ञा दी जाती है। एक दूसरी और अधिक व्यापक परिभाषा यह है कि निजी या सार्वजनिक जीवन के किसी भी स्थापित और स्वीकार्य मानक का चोरी-छिपे उल्लंघन भ्रष्टाचार है। विभिन्न मानकों और देशकाल के हिसाब से भी इसमें तब्दीलियाँ होती रहती हैं। मसलन, भारत में रक्षा सौदों में कमीशन ख़ाना अवैध है इसलिए इसे भ्रष्टाचार और राष्ट्र- विरोधी कृत्य मान कर घोटाले की संज्ञा दी जाती है। लेकिन दुनिया के कई विकसित देशों में यह एक जायज़ व्यापारिक कार्रवाई है। संस्कृतियों के बीच अंतर ने भी भ्रष्टाचार के प्रश्न को पेचीदा बनाया है। उन्नीसवीं सदी के दौरान भारत पर औपनिवेशिक शासन थोपने वाले अंग्रेज़ अपनी विक्टोरियाई नैतिकता के आईने में भारतीय यौन-व्यवहार को दुराचरण के रूप में देखते थे। जबकि बीसवीं सदी के उत्तरार्ध का भारत किसी भी यूरोपवासी की निगाह में यौनिक-शुद्धतावाद का शिकार माना जा सकता है।
भ्रष्टाचार का मुद्दा एक ऐसा राजनीतिक प्रश्न है जिसके कारण कई बार न केवल सरकारें बदल जाती हैं। बल्कि यह बहुत बड़े-बड़े ऐतिहासिक परिवर्तनों का वाहक भी रहा है। रोमन कैथलिक चर्च द्वारा अनुग्रह के बदले शुल्क लेने की प्रथा को मार्टिन लूथर द्वारा भ्रष्टाचार की संज्ञा दी गयी थी। इसके ख़िलाफ़ किये गये धार्मिक संघर्ष से ईसाई धर्म- सुधार निकले। परिणामस्वरूप प्रोटेस्टेंट मत का जन्म हुआ। इस ऐतिहासिक परिवर्तन से सेकुलरवाद के सूत्रीकरण का आधार तैयार हुआ।
समाज-वैज्ञानिक विमर्श में भ्रष्टाचार से संबंधित समझ के बारे में कोई एकता नहीं है। पूँजीवाद विरोधी नज़रिया रखने वाले विद्वानों की मान्यता है कि बाज़ार आधारित व्यवस्थाएँ ग्रीड इज़ गुड के उसूल पर चलती हैं, इसलिए उनके तहत भ्रष्टाचार में बढ़ोतरी होनी लाज़मी है। दूसरी तरफ़ खुले समाज की वकालत करने वाले और मार्क्सवाद विरोधी बुद्धिजीवी सर्वहारा की तानाशाही वाली व्यवस्थाओं में कम्युनिस्ट पार्टी के अधिकारियों द्वारा बड़े पैमाने पर राज्य के संसाधनों के दुरुपयोग और आम जनता के साधारण जीवन की कीमत पर ख़ुद के लिए आरामतलब ज़िंदगी की गारंटी करने की तरफ़ इशारा करते हैं। भ्रष्टाचार की दूसरी समझ राज्य की संस्था द्वारा लोगों की आर्थिक गतिविधियों में हस्तक्षेप की मात्रा और दायरे पर निर्भर करती है। बहुत अधिक टैक्स वसूलने वाले निज़ाम के तहत कर-चोरी को सामाजिक जीवन की एक मजबूरी की तरह लिया जाता है। इससे एक सिद्धांत यह निकलता है कि जितने कम कानून और नियंत्रण होंगे, भ्रष्टाचार की ज़रूरत उतनी ही कम होगी। इस दृष्टिकोण के पक्ष पूर्व सोवियत संघ और चीन समते समाजवादी देशों का उदाहरण दिया जाता है जहाँ राज्य की संस्था के सर्वव्यापी होने के बावजूद बहुत बड़ी मात्रा में भ्रष्टाचार की मौजूदगी रहती है। ज़्यादा नियंत्रण- ज़्यादा भ्रष्टाचार के समीकरण को सही ठहराने के लिए तीस के दशक के अमेरिका में की गयी शराब-बंदी का उदाहरण भी दिया जाता है जिसके कारण संगठित और आर्थिक भ्रष्टाचार में अभूतपूर्व उछाल आ गया था।
साठऔर सत्तर के दशक में कुछ विद्वानों ने अविकिसित देशों के आर्थिक विकास के लिए एक सीमा तक भ्रष्टाचार और काले धन की मौजूदगी को उचित करार दिया था। अर्नोल्ड जे. हीदनहाइमर जैसे सिद्धांतकारों का कहना था कि परम्पराबद्ध और सामाजिक रूप से स्थिर समाजों को भ्रष्टाचार की समस्या का कम ही सामना करना पड़ता है। लेकिन तेज़ रक्रतार से होने वाले उद्योगीकरण और आबादी की आवाज़ाही के कारण समाज स्थापित मानकों और मूल्यों को छोड़ते चले जाते हैं। परिणामस्वरूप बड़े पैमाने पर भ्रष्टाचार की परिघटना पैदा होती है। सत्तर के दशक में हीदनहाइमर की यह सिद्धांत ख़ासा प्रचलित था। भ्रष्टाचार विरोधी नीतियों और कार्यक्रमों की वकालत करने के बजाय हीदनहाइमर ने निष्कर्ष निकाला था कि जैसे-जैसे समाज में समृद्धि बढ़ती जाएगी, मध्यवर्ग की प्रतिष्ठा में वृद्धि होगी और शहरी सभ्यता व जीवन-शैली का विकास होगा, इस समस्या पर अपने आप काबू होता चला जाएगा। लेकिन सत्तर के दशक में ही युरोप और अमेरिका में बड़े-बड़े राजनीतिक और आर्थिक घोटालों का पर्दाफ़ाश हुआ। इनमें अमेरिका का वाटरगेट स्केंडल और ब्रिटेन का पौलसन एफ़ेयर प्रमुख था। इन घोटालों ने मध्यवर्गीय नागरिक गुणों के विकास में यकीन रखने वाले हीदनहाइमर के इस सिद्धांत के अतिआशावाद की हवा निकाल दी।
साठ के दशक के दौरान ही कुछ अन्य विद्वानों ने भी हीदनहाइमर की तर्ज़ पर तर्क दिया था कि भ्रष्टाचार की समस्या की नैतिक व्याख्याएँ करने से कुछ हासिल होने वाला नहीं है। इनमें सेमुअल हंटिंग्टन प्रमुख थे। इन समाज-वैज्ञानिकों की मान्यता थी कि भ्रष्टाचार हर परिस्थिति में नुकसानदेह नहीं होता। विकासशील देशों में वह मशीन में तेल की भूमिका निभाता है और लोगों के हाथ में ख़र्च करने लायक पैसा आने से उपभोक्ता क्रांति को गति मिलती है। लेकिन अफ़्रीका में भ्रष्टाचार के ऊपर विश्व बैंक द्वारा १९६९ में जारी रपट ने इस धारणा को धक्का पहुँचाया। इस रपट के बाद भ्रष्टाचार को एक अनिवार्य बुराई और आर्थिक विकास में बाधक के तौर पर देखा जाने लगा। विश्व बैंक भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ मुहिम चलाने में जुट गया। इस विमर्श का एक परिणाम यह भी निकला कि समाज-वैज्ञानिक अपेक्षाकृत कम विकसित देशों में भ्रष्टाचार की समस्या के प्रति ज़्यादा दिलचस्पी दिखाने लगे। विकसित देशों में भ्रष्टाचार की समस्या काफ़ी-कुछ नज़रअंदाज़ की जाने लगी।
यह दृष्टिकोण भूमण्डलीकरण के दौर में और प्रबल हुआ। उधार देने वाली अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्थाओं, उन पर हावी विकसित देशों और बड़े-बड़े कॉरपोरेशनों ने यह गारंटी करने की कोशिश की कि उनके द्वारा दी जाने वाली मदद का सही-सही इस्तेमाल हो। इसका परिणाम १९९३ में ट्रांसपेरेंसी इंटरनैशनल की स्थापना में निकला जिसमें विश्व बैंक के कई पूर्व अधिकारी सक्रिय थे। इसके बाद सर्वेक्षण और आँकड़ों के ज़रिये भ्रष्टाचार का तुलनात्मक अध्ययन शुरू हो गया। लेकिन इन प्रयासों के परिणाम किसी भी तरह से संतोषजनक नहीं माने जा सकते। २००७ में डेनियल ट्रीज़मैन ने व्हाट हैव वी लर्न्ड अबाउट द काज़िज़ ऑफ़ करप्शन फ़्रॉम टेन इयर्स ऑफ़ क्रॉस नैशनल इम्पिरिकल रिसर्च? लिख कर नतीजा निकला है कि परिपक्व उदारतावादी लोकतंत्र और बाज़ारोन्मुख समाज अपेक्षाकृत कम भ्रष्ट हैं। उनके उलट तेल निर्यात करने वाले देश, अधिक नियंत्रणकारी कानून बनाने वाले और मुद्रास्फीति को काबू में न करने वाले देश कहीं अधिक भ्रष्ट हैं।
ज़ाहिर है कि ये निष्कर्ष किसी भी कोण से नये नहीं हैं। हाल ही में जिन देशों में आर्थिक घोटालों का पर्दाफ़ाश हुआ है उनमें छोटे-बड़े और विकसित-अविकसित यानी हर तरह के देश (चीन, जापान, स्पेन, मैक्सिको, भारत, चीन, ब्रिटेन, ब्राज़ील, सूरीनाम, दक्षिण कोरिया, वेनेज़ुएला, पाकिस्तान, एंटीगा, बरमूडा, क्रोएशिया, इक्वेडोर, चेक गणराज्य, वग़ैरह) हैं। भ्रष्टाचार को सुविधाजनक और हानिकारक मानने के इन परस्पर विरोधी नज़रियों से परे हट कर अगर देखा जाए तो अभी तक आर्थिक वृद्धि के साथ उसके किसी सीधे संबंध का सूत्रीकरण नहीं हो पाया है। उदाहरणार्थ, एशिया के दो देशों, दक्षिण कोरिया और फ़िलीपींस, में भ्रष्टाचार के सूचकांक बहुत ऊँचे हैं। लेकिन, कोरिया में आर्थिक वृद्धि की दर ख़ासी है, जबकि फ़िलीपींस में नीची।
भ्रष्टाचार एवं आर्थिक विकास
भ्रष्टाचार के कारण आर्थिक विकास में मन्दी आती है क्योंकि भ्रष्टाचार बढने पर निजी निवेश घटने लगता है।
भ्रष्टाचार के कारण उत्पादक क्रियाओं से मिलने वाला लाभ (रिटर्न) कम हो जाता है।
भ्रष्टाचार के कारण असमानता में वृद्धि होती है।
१. प्रणव वर्धन (१997), करप्शन ऐंड डिवेलपमेंट : अ रिव्यू ऑफ़ इशूज़, जरनल ऑफ़ इकॉनॉमिक लिटरेचर ३५ .
२. एम. रोबिंसन (सम्पा.) (१९९८), करप्शन ऐंड डिवेलपमेंट, फ्रैंक कैस, एबिंग्डन, यूके.
३. ए.जे. हीदनहाइमर (सम्पा.) (१९७०), पॉलिटिकल करप्शन : रीडिंग्ज़ इन कम्परेटिव एनालैसिस, ट्रांज़ेक्शन, न्यू ब्रंसविक, एनजे.
४. माइकल जांस्टन (२००५), सिड्रॉम्स ऑफ़ करप्शन : वेल्थ, पॉवर, ऐंड डेमोक्रैसी, केम्ब्रिज युनिवर्सिटी प्रेस, केम्ब्रिज.
५. डैनियल ट्रीज़मान (२००७), व्हाट हैव वी लर्न्ड अबाउट द काज़िज़ ऑफ़ करप्शन फ़्रॉम टेन इयर्स ऑफ़ क्रॉस-नैशनल इम्पिरिकल रिसर्च?, एनुअल रिव्यू ऑफ़ पॉलिटिकल साइंस १० .
इन्हें भी देखें
भारत में भ्रष्टाचार
भारत में भ्रष्टाचार का इतिहास
भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, १९८८
केन्द्रीय सतर्कता आयोग
सूचना का अधिकार अधिनियम, २००५
भारत के प्रमुख घोटाले
इंडिया अगेंस्ट करप्शन
अन्तरराष्ट्रीय भ्रष्टाचार निरोध दिवस
भ्रष्टाचार से मुकाबला
कौन दे रहा है पार्टियों को इतना चंदा?
विकास के लिए भ्रष्टाचार का उन्मूलन आवश्यक (उदय इण्डिया)
सीबीआई और अपराध के बारे में अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (एफक्यू)
१८०० इयास अधिकारियों ने नहीं दिया अपनी सम्पत्ति का डिटेल, सबसे ज्यादा २५५ उत्तर प्रदेश के (मई २०१७)
भ्रष्टाचार के खिलाफ मोदी सरकार का अहम कदम, सरकारी कर्मचारियों के खिलाफ ६ महीने में पूरी होगी जांच
भ्रष्टाचार की शब्दावली (अंग्रेजी में) |
अष्टाध्यायी (अष्टाध्यायी = आठ अध्यायों वाली) महर्षि पाणिनि द्वारा रचित संस्कृत व्याकरण का एक अत्यंत प्राचीन ग्रंथ (८वी ई पू) है। इसमें आठ अध्याय हैं; प्रत्येक अध्याय में चार पद हैं; प्रत्येक पद में 3८ से २२० तक सूत्र हैं। इस प्रकार अष्टाध्यायी में आठ अध्याय, बत्तीस पद और सब मिलाकर लगभग ४००० सूत्र हैं। अष्टाध्यायी पर महामुनि कात्यायन का विस्तृत वार्तिक ग्रन्थ है और सूत्र तथा वार्तिकों पर भगवान पतंजलि का विशद विवरणात्मक ग्रन्थ महाभाष्य है। संक्षेप में सूत्र, वार्तिक एवं महाभाष्य तीनों सम्मिलित रूप में 'पाणिनीय व्याकरण' कहलाता है और सूत्रकार पाणिनी, वार्तिककार कात्यायन एवं भाष्यकार पतंजलि - तीनों व्याकरण के 'त्रिमुनि' कहलाते हैं।
अष्टाध्यायी छह वेदांगों में मुख्य माना जाता है। अष्टाध्यायी में ३१५५ सूत्र और आरंभ में वर्णसमाम्नाय के १४ प्रत्याहार सूत्र हैं। अष्टाध्यायी का परिमाण एक सहस्र अनुष्टुप श्लोक के बराबर है। महाभाष्य में अष्टाध्यायी को "सर्ववेद-परिषद्-शास्त्र" कहा गया है। अर्थात् अष्टाध्यायी का संबंध किसी वेदविशेष तक सीमित न होकर सभी वैदिक संहिताओं से था और सभी के प्रातिशरूय अभिमतों का पाणिनि ने समादर किया था। अष्टाध्यायी में अनेक पूर्वाचार्यों के मतों और सूत्रों का संनिवेश किया गया। उनमें से शाकटायन, शाकल्य, अभिशाली, गार्ग्य, गालव, भारद्वाज, कश्यप, शौनक, स्फोटायन, चाक्रवर्मण का उल्लेख पाणिनि ने किया है।
अष्टाध्यायी का समय
अष्टाध्यायी के कर्ता पाणिनि कब हुए, इस विषय में कई मत हैं। भंडारकर और गोल्डस्टकर इनका समय ७वीं शताब्दी ई.पू. मानते हैं। मैकडानेल, कीथ आदि कितने ही विद्वानों ने इन्हें चौथी शताब्दी ई.पू. माना है। भारतीय अनुश्रुति के अनुसार पाणिनि नंदों के समकालीन थे और यह समय ५वीं शताब्दी ई.पू. होना चाहिए। पाणिनि में शतमान, विंशतिक और कार्षापण आदि जिन मुद्राओं का एक साथ उल्लेख है उनके आधार पर एवं अन्य कई कारणों से हमें पाणिनि का काल यही समीचीन जान पड़ता है।
अष्टाध्यायी में आठ अध्याय हैं और प्रत्येक अध्याय में चार पद हैं। पहले दूसरे अध्यायों में संज्ञा और परिभाषा संबंधी सूत्र हैं एवं वाक्य में आए हुए क्रिया और संज्ञा शब्दों के पारस्परिक संबंध के नियामक प्रकरण भी हैं, जैसे क्रिया के लिए आत्मनेपद-परस्मैपद-प्रकरण, एवं संज्ञाओं के लिए विभक्ति, समास आदि। तीसरे, चौथे और पाँचवें अध्यायों में सब प्रकार के प्रत्ययों का विधान है। तीसरे अध्याय में धातुओं में प्रत्यय लगाकर कृदंत शब्दों का निर्वचन है और चौथे तथा पाँचवे अध्यायों में संज्ञा शब्दों में प्रत्यय जोड़कर बने नए संज्ञा शब्दों का विस्तृत निर्वचन बताया गया है। ये प्रत्यय जिन अर्थविषयों को प्रकट करते हैं उन्हें व्याकरण की परिभाषा में वृत्ति कहते हैं, जैसे वर्षा में होनेवाले इंद्रधनु को वार्षिक इंद्रधनु कहेंगे। वर्षा में होनेवाले इस विशेष अर्थ को प्रकट करनेवाला "इक" प्रत्यय तद्धित प्रत्यय है। तद्धित प्रकरण में १,१90 सूत्र हैं और कृदंत प्रकरण में 63१। इस प्रकार कृदंत, तद्धित प्रत्ययों के विधान के लिए अष्टाध्यायी के १,82१ अर्थात् आधे से कुछ ही कम सूत्र विनियुक्त हुए हैं। छठे, सातवें और आठवें अध्यायों में उन परिवर्तनों का उल्लेख है जो शब्द के अक्षरों में होते हैं। ये परिवर्तन या तो मूल शब्द में जुड़नेवाले प्रत्ययों के कारण या संधि के कारण होते हैं। द्वित्व, संप्रसारण, संधि, स्वर, आगम, लोप, दीर्घ आदि के विधायक सूत्र छठे अध्याय में आए हैं। छठे अध्याय के चौथे पद से सातवें अध्याय के अंत तक अंगाधिकार नामक एक विशिष्ट प्रकरण है जिसमें उन परिवर्तनों का वर्णन है जो प्रत्यय के कारण मूल शब्दों में या मूल शब्द के कारण प्रत्यय में होते हैं। ये परिवर्तन भी दीर्घ, ह्रस्व, लोप, आगम, आदेश, गुण, वृद्धि आदि के विधान के रूप में ही देखे जाते हैं। अष्टम अध्याय में, वाक्यगत शब्दों के द्वित्वविधान, प्लुतविधान एवं षत्व और णत्वविधान का विशेषत: उपदेश है।
अष्टाध्यायी के अतिरिक्त उसी से संबंधित गणपाठ और धातुपाठ नामक दो प्रकरण भी निश्चित रूप से पाणिनि निर्मित थे। उनकी परंपरा आज तक अक्षुण्ण चली आती है, यद्यपि गणपाठ में कुछ नए शब्द भी पुरानी सूचियों में कालान्तर में जोड़ दिए गए हैं। वर्तमान उणादि सूत्रों के पाणिनिकृत होने में संदेह है और उन्हें अष्टाध्यायी के गणपाठ के समान अभिन्न अंग नहीं माना जा सकता। वर्तमान उणादि सूत्र शाकटायन-व्याकरण के ज्ञात हाते हैं।
पाणिनि ने संस्कृत भाषा के तत्कालीन स्वरूप को परिष्कृत एवं नियमित करने के उद्देश्य से भाषा के विभिन्न अवयवों एवं घटकों यथा ध्वनि-विभाग (अक्षरसमाम्नाय), नाम (संज्ञा, सर्वनाम, विशेषण), पद, क्रिया, वाक्य, लिंग इत्यादि तथा उनके अन्तर्सम्बन्धों का समावेश अष्टाध्यायी के ३२ पदों में, जो आठ अध्यायों में समान रूप से विभक्त हैं, किया है।
व्याकरण के इस महनीय ग्रन्थ में पाणिनि ने विभक्ति-प्रधान संस्कृत भाषा के विशाल कलेवर का समग्र एवं सम्पूर्ण विवेचन लगभग ४००० सूत्रों में किया है, जो आठ अध्यायों में संख्या की दृष्टि से असमान रूप से विभाजित हैं। तत्कालीन समाज में लेखन सामग्री की दुष्प्राप्यता को ध्यान में रखकर पाणिनि ने व्याकरण को स्मृतिगम्य बनाने के लिए सूत्र शैली की सहायता ली है। पुनः, विवेचन को अतिशय संक्षिप्त बनाने हेतु पाणिनि ने अपने पूर्ववर्ती वैयाकरणों से प्राप्त उपकरणों के साथ-साथ स्वयं भी अनेक उपकरणों का प्रयोग किया है जिनमे शिवसूत्र या माहेश्वर सूत्र सबसे महत्वपूर्ण हैं। प्रसिद्ध है कि महर्षि पाणिनि ने इन सूत्रों को देवाधिदेव शिव से प्राप्त किया था।
नृत्तावसाने नटराजराजो ननाद ढक्कां नवपंचवारम्।
उद्धर्त्तुकामो सनकादिसिद्धादिनेतद्विमर्शे शिवसूत्रजालम्॥
पाणिनि ने संस्कृत भाषा के सभी शब्दों के निर्वचन के लिए करीब ४००० सूत्रों की रचना की जो अष्टाध्यायी के आठ अध्यायों में वैज्ञानिक ढंग से संगृहीत हैं। ये सूत्र वास्तव में गणित के सूत्रों की भाँति हैं। जिस तरह से जटिल एवं विस्तृत गणितीय धारणाओं अथवा सिद्धान्तों को सूत्रों (फार्मुला/फार्मुलाए) द्वारा सरलता से व्यक्त किया जाता है, उसी तरह पाणिनि ने सूत्रों द्वारा अत्यन्त संक्षेप में ही व्याकरण के जटिल नियमों को स्पष्ट कर दिया है। भाषा के समस्त पहलुओं के विवेचन हेतु ही उन्हें ४००० सूत्रों की रचना करनी पड़ी।
पाणिनि ने अष्टाध्यायी में प्रकरणों तथा तद्सम्बन्धित सूत्रों का विभाजन वैज्ञानिक रीति से किया है। पाणिनि ने अष्टाध्यायी को दो भागों में बाँटा है: प्रथम अध्याय से लेकर आठवें अध्याय के प्रथम पद तक को सपाद सप्ताध्यायी एवं शेष तीन पदों को त्रिपादी कहा जाता है। पाणिनि ने पूर्वत्राऽसिद्धम् (८-२-१) सूत्र बनाकर निर्देश दिया है कि सपाद सप्ताध्यायी में विवेचित नियमों (सूत्रों) की तुलना में त्रिपादी में वर्णित नियम असिद्ध हैं। अर्थात्, यदि दोनो भागों में वर्णित नियमों के मध्य यदि कभी विरोध हो जाए तो पूर्व भाग का नियम ही मान्य होगा। इसी तरह, सपादसप्ताध्यायी के अन्तर्गत आने वाले सूत्रों (नियमों) में भी विरोध दृष्टिगोचर होने पर क्रमानुसार परवर्ती (बाद में आने वाले) सूत्र का प्राधान्य रहेगा विप्रतिषेधे परं कार्यम्। इन सिद्धान्तों को स्थापित करने के बाद, पाणिनि ने सर्वप्रथम संज्ञा पदों को परिभाषित किया है और बाद में उन संज्ञा पदों पर आधारित विषय का विवेचन।
संक्षिप्तता बनाए रखने के लिए पाणिनि ने अनेक उपाय किए हैं। इसमें सबसे महत्वपूर्ण है विशिष्ट संज्ञाओं (टेक्निकल टर्म्स) का निर्माण। व्याकरण के नियमों को बताने में भाषा के जिन शब्दों / अक्षरों समूहों की बारम्बार आवश्यकता पड़ती थी, उन्हें पाणिनि ने एकत्र कर विभिन्न विशिष्ट नाम दे दिया जो संज्ञाओं के रूप में अष्टाध्यायी में आवश्यकतानुसार विभिन्न प्रसंगों में प्रयुक्त किए गए हैं। नियमों को बताने के पहले ही पाणिनि वैसी संज्ञाओं को परिभाषित कर देते हैं, यथा माहेश्वर सूत्र 'प्रत्याहार, इत्, टि, नदी, घु, पद, धातु, प्रत्यय, अंग, निष्ठा इत्यादि। इनमें से कुछ को पाणिनि ने अपने पूर्ववर्ती वैयाकरणों से उधार लिया है। लेकिन अधिकांश स्वयं उनके द्वारा बनाए गए हैं। इन संज्ञाओं का विवरण आगे दिया गया है।
व्याकरण के कुछ अवयवों यथा धातु, प्रत्यय, उपसर्ग के विवेचन मे, पाणिनि को अनेक नियमों (सूत्र) की आवश्यकता पड़ी। ऐसे नियमों के निर्माण के पहले, प्रारंभ में ही पाणिनि उन सम्बन्धित अवयवों का उल्लेख कर बता देते हैं कि आगे एक निश्चित सूत्र तक इन अवयवों का अधिकार रहेगा। इन अवयवों को वे पूर्व में ही संज्ञा रूप में परिभाषित कर चुके हैं। दूसरे शब्दों में पाणिनि प्रकरण विशेष का निर्वचन उस प्रकरण की मूलभूत संज्ञा यथा धातु, प्रत्यय इत्यादि के अधिकार (कोवराज) में करते हैं जिससे उन्हे प्रत्येक सूत्र में सम्बन्धित संज्ञा को बारबार दुहराना नहीं पड़ता है। संक्षिप्तता लाने में यह उपकरण बहुत सहायक है।
अनुवृत्ति : सूत्र-शैली में लिखे गए ग्रन्थों की एक महत्वपूर्ण विशेषता है, 'अनुवृत्ति'। प्रायः एक उपविषय से सम्बन्धित सभी सूत्रों को एकत्र लिखा जाता है। दोहराव न हो, इसके लिए सभी सर्वनिष्ट (कॉमन) शब्दों को सावधानीपूर्वक निकाल लिया जाता था और उनको सही जगह पर सही क्रम में रखा जाता था। अनुवृत्ति के अनुसार, किसी सूत्र में कही गयी बात आगे आने वाले एक या अधिक सूत्रों पर भी लागू हो सकती है। एक उदाहरण देखिए।
अष्टाध्यायी का सूत्र ( १-१-९) " तुल्यास्यप्रयत्नं सवर्णम् " है। इसके बाद सूत्र (१-१-१०) "नाज्झलौ (= न अच्-हलौ)" है। जब हम (१-१-१०) नाज्झलौ (न अच्-हलौ) का अर्थ निकालते हैं तो यह ध्यान में रखना होगा कि इसका अकेले मतलब न निकाला जाय बल्कि इसका पूरा मतलब यह है कि "'इसके पूर्व सूत्र में कही गयी 'सवर्ण' से सम्बन्धित बात अच्-हलौ (अच् और हल्) पर लागू नहीं (न) होती है।" अर्थात् , सूत्र (१-१-१०) को केवल "नाज्झलौ" न पढ़ा जाय बल्कि "अच्-हलौ सवर्णौ न" पढ़ा जाय।
शब्दों/पदों के निर्वचन के लिए, प्रकृति के आधार पर पाणिनि ने छः प्रकार के सूत्रों की रचना की है:
संज्ञा च परिभाषा च विधिर्नियम एव च।
अतिदेशोऽधिकारश्च षड्विधम् सूत्रं मतम् ॥
संज्ञा सूत्र :
नामकरणं संज्ञा - तकनीकी शब्दों का नामकरण।
परिभाषा सूत्र :
अनियमे नियमकारिणी परिभाषा।
विधि सूत्र :
विषय का विधान।
नियम सूत्र :
बहुत्र प्राप्तो संकोचनं हेतु।
अतिदेश सूत्र :
जो अपने गुणधर्म को दूसरे सूत्रों पर लागू करते हैं।
अधिकार सूत्र :
एकत्र उपात्तस्य अन्यत्र व्यापारः अधिकारः।
पाणिनीय व्याकरण के चार भाग
अष्टाध्यायी - इसमें व्याकरण के लगभग ४००० सूत्र हैं।
शिवसूत्र या माहेश्वर सूत्र - यह प्रत्याहार बनाने में सहायक होता है। प्रत्याहार के प्रयोग से व्याकरण के नियम संक्षिप्त रूप में पूरी स्पष्टता से कहे गये हैं।
धातुपाठ - इस भाग में लगभग २००० धातुओं (क्रिया-मूलों) की सूची दी गयी है। इन धातुओं को विभिन्न वर्गों में रखा गया है।
गणपाठ - यह २६१ गणों में पदों का संग्रह है।
पाणिनीय व्याकरण के अध्ययन के लिये आवश्यक बातें
प्रत्याहार, इत्संज्ञक, अधिकार, अनुवृत्ति, अपकर्ष, सन्धिविषयक शब्द (एकादेश, पररूप, पूर्वरूप, प्रकृतिभाव आदि), कुछ ज्ञातव्य संज्ञाएँ - (अङग, प्रतिपदिक, पद, भ संज्ञा, विभाषा, उपधा, टी, संयोग, संप्रसारण, गुण, वृद्धि, लोप, आदेश, आगम) , शब्द-सिद्धि में सहायक कुछ अन्य उपाय।
पाणिनीय व्याकरण की प्रमुख विशेषताएँ
पाणिनि का व्याकरण संस्कृत भाषा का अत्यन्त सूक्ष्म विश्लेषण करता है। यह उस समय की बोलचाल की मानक भाषा का तो वर्णन करता ही है, इसके साथ ही वैदिक संस्कृत और संस्कृत के क्षेत्रीय प्रयोगों का भी वर्णन करता है। यहाँ तक कि पाणिनि ने भाषा के सामाजिक-भाषिक (सोशओलींगिस्टिक) प्रयोग पर भी प्रकाश डाला है।
पाणिनि का व्याकरण सम्पूर्ण होने के साथ ही इतना छोटा है कि लोग इसे याद करते आये हैं।
यद्यपि पाणिनि ने अपना व्याकरण संस्कृत के लिये रचा, किन्तु इसकी युक्तियाँ और उपकरण सभी भाषाओं के व्याकरण के विश्लेषण में प्रयुक्त की जा सकती हैं।
वाक्य को भाषा की मूल इकाई मानना,
ध्वनि-उत्पादन-प्रक्रिया का वर्णन एवं ध्वनियों का वर्गीकरण,
सुबन्त एवं तिङन्त के रूप में सरल और सटीक पद-विभाग,
व्युत्पत्ति - प्रकृति और प्रत्यय के आधार पर शब्दों का विवेचन।
अष्टाध्यायी में वैदिक संस्कृत और पाणिनि की समकालीन शिष्ट भाषा में प्रयुक्त संस्कृत का सर्वांगपूर्ण विचार किया गया है। वैदिक भाषा का व्याकरण अपेक्षाकृत और भी परिपूर्ण हो सकता था। पाणिनि ने अपनी समकालीन संस्कृत भाषा का बहुत अच्छा सर्वेक्षण किया था। इनके शब्दसंग्रह में तीन प्रकार की विशेष सूचियाँ आई हैं :
जनपद और ग्रामों के नाम,
गोत्रों के नाम,
वैदिक शाखाओं और चरणों के नाम।
इतिहास की दृष्टि से और भी अनेक प्रकार की सांस्कृतिक सामग्री, शब्दों और संस्थाओं का सन्निवेश सूत्रों में हो गया है।
अष्टाध्यायी के बाद
अष्टाध्यायी के साथ आरंभ से ही अर्थों की व्याख्यापूरक कोई वृत्ति भी थी जिसके कारण अष्टाध्यायी का एक नाम, जैसा पतंजलि ने लिखा है, वृत्तिसूत्र भी था। और भी, माथुरीवृत्ति, पुण्यवृत्ति आदि वृत्तियाँ थीं जिनकी परंपरा में वर्तमान काशिकावृत्ति है। अष्टाध्यायी की रचना के लगभग दो शताब्दी के भीतर कात्यायन ने सूत्रों की बहुमुखी समीक्षा करते हुए लगभग चार सहस्र वार्तिकों की रचना की जो सूत्रशैली में ही हैं। वार्तिकसूत्र और कुछ वृत्तिसूत्रों को लेकर पतंजलि ने महाभाष्य का निर्माण किया जो पाणिनीय सूत्रों पर अर्थ, उदाहरण और प्रक्रिया की दृष्टि से सर्वोपरि ग्रंथ है। "अथ शब्दानुशासनम्"- यह माहाभाष्य का प्रथम वाक्य है। पाणिनि, कात्यायन और पतंजलि - ये तीन व्याकरणशास्त्र के प्रमुख आचार्य हैं जिन्हें 'मुनित्रय' कहा जाता है। पाणिनि के सूत्रों के आधार पर भट्टोजिदीक्षित ने सिद्धान्तकौमुदी की रचना की, और उनके शिष्य वरदराज ने सिद्धान्तकौमुदी के आधार पर लघुसिद्धान्तकौमुदी की रचना की ।
पाणिनीय व्याकरण की महत्ता पर विद्वानों के विचार
पाणिनीय व्याकरण मानवीय मष्तिष्क की सबसे बड़ी रचनाओं में से एक है। (लेनिनग्राड के प्रोफेसर टी. शेरवात्सकी)
पाणिनीय व्याकरण की शैली अतिशय-प्रतिभापूर्ण है और इसके नियम अत्यन्त सतर्कता से बनाये गये हैं। (कोल ब्रुक)
संसार के व्याकरणों में पाणिनीय व्याकरण सर्वशिरोमणि है।.. यह मानवीय मष्तिष्क का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण अविष्कार है। (सर डब्ल्यू. डब्ल्यू. हण्डर)
पाणिनीय व्याकरण उस मानव-मष्तिष्क की प्रतिभा का आश्चर्यतम नमूना है जिसे किसी दूसरे देश ने आज तक सामने नहीं रखा। (प्रो॰ मोनियर विलियम्स)
इन्हें भी देखें
पतंजलि कृत महाभाष्य
भर्तृहरि रचित वाक्यपदीय
अष्टाध्यायी (संस्कृत विकिस्रोत)
अष्टाध्यायी (हिन्दी व्याख्या सहित)
अष्टाध्यायीसूत्रपाठः (हिन्दी व्याख्या सहित)
पाणिनीय व्याकरण का मुखदर्शन और आज के समय में प्रासंगिकता (निखिल नाईक)
व्याकरण के मूल-ग्रन्थ अष्टाध्यायी में व्याकरण से अलग भी विषय
गणकाष्टाध्यायी - पाणिनि के सूत्रों पर आधारित संस्कृत व्याकरण का साफ्टवेयर (विन९८/२०००/ज़्प)
पाणिनि की अष्टाध्यायी का मेण्डलीव की आवर्त सारणी पर प्रभाव - यह पेपर :एन:अर्क्सीव.ऑर्ग ए-प्रिंट आर्चिव में है।
लघुसिद्धान्तकौमुदी ; तिंगन्त प्रकरण (गूगल पुस्तक ; डॉ के के आनन्द)
अष्टाध्यायी में दर्शन
अष्टाध्यायी कण्ठस्थ कैसे करें? (नारायण प्रसाद) |
मरुस्थल एक अनुर्वर क्षेत्र का भूदृश्य है जहाँ कम वर्षण होती है और इसके परिणाम स्वरूप, रहने की स्थिति पौधे और पशु जीवन के लिए प्रतिकूल होती है। वनस्पति की कमी के कारण भूमि की असुरक्षित सतह अनाच्छादन की स्थिति में आ जाती है। पृथ्वी की सतह का लगभग एक तिहाई भाग शुष्क या अर्ध-शुष्क है। इसमें अधिकांश पृथ्वी के ध्रुवीय क्षेत्र शामिल हैं, जहां कम वर्षा होती है, और जिन्हें कभी-कभी ध्रुवीय मरुस्थल या "शीतल मरुस्थल" कहा जाता है। मरुस्थलों को गिरने वाली वर्षा की मात्रा, प्रचलित तापमान, मरुस्थलीकरण के कारणों या उनकी भौगोलिक स्थिति के आधार पर वर्गीकृत किया जा सकता है।
मरुस्थल का निर्माण अपक्षय प्रक्रियाओं द्वारा किया जाता है क्योंकि दिन और रात के बीच तापमान में बड़े बदलाव चट्टानों पर तनाव डालते हैं, जिसके परिणामस्वरूप टुकड़े-टुकड़े हो जाते हैं। यद्यपि मरुस्थल में प्रायः ही कभी वर्षा होती है, कभी-कभी मूसलाधार वर्षा होती है जिसके परिणामस्वरूप अचानक बाढ़ आ सकती है। गर्म चट्टानों पर गिरने वाली वर्षा उन्हें चकनाचूर कर सकती है, और परिणामी टुकड़े और मलबे जो मरुस्थल पर बिखरे हुए हैं, हवा से और अधिक नष्ट हो जाते हैं। यह रेत और धूल के कणों को उठाता है, जो लंबे समय तक हवा में रह सकते हैं - कभी-कभी रेत के तूफ़ान या धूल के तूफान का कारण बनते हैं। हवा में उड़ने वाले रेत के दाने अपने रास्ते में किसी भी ठोस वस्तु से टकराकर सतह को तोड़ सकते हैं। चट्टानों को चिकना कर दिया जाता है, और हवा रेत को एक समान जमा में बदल देती है। दाने रेत की समतल चादर के रूप में समाप्त हो जाते हैं या लहराते रेत के टीलों में ऊंचे ढेर हो जाते हैं। अन्य मरुस्थल समतल, पथरीले मैदान हैं जहाँ सभी महीन सामग्री को उड़ा दिया गया है और सतह में चिकने पत्थरों की मोज़ेक है। इन क्षेत्रों को मरुस्थलीय पथ के रूप में जाना जाता है, और थोड़ा और क्षरण होता है। अन्य मरुस्थलीय विशेषताओं में उजागर बेडरॉक और एक बार बहते पानी द्वारा जमा की गई मिट्टी शामिल हैं। अस्थायी झीलें बन सकती हैं और पानी के वाष्पित होने पर नमक के मैदान छोड़े जा सकते हैं। जल के भूमिगत स्रोत, झरनों के रूप में और जलभृतों से रिसने के रूप में हो सकते हैं। जहाँ ये पाए जाते हैं, वहाँ मरूद्यान हो सकते हैं।
मरुस्थलों को वर्षा, औसत तापमान, साल में बिना वर्षा (या हिमपात) के दिनों की संख्या इत्यादि के आधार पर बांटा जा सकता है। भारत का थार मरुस्थल एक ऊष्ण कटिबंधीय मरुस्थल है जिसके कारण ही यह रेतीला भी है।
जलपात की दृष्टि से
वर्षा तथा हिमपात के कुल को जलपात कहते हैं। यदि किसी क्षेत्र का जलपात २०० मिलिमीटर से भी कम हो तो वह एक प्रकार का प्रदेश है। इसी प्रकार २५०-५०० मिलिमीटर तक के क्षेत्र को अलग वर्ग में रखा जा सकता है। इसी प्रकार अन्य क्षेत्र भी वर्गीकृत किए जा सकते हैं।
तापमान की दृष्टि से
इन क्षेत्रों को तापमान की दृष्टि से भी वर्गीकृत किया जा सकता है।
उष्ण कटिबंधीय मरुस्थल
उपोष्ण कटिबेधीय मरुस्थल
शीत कटिबंधीय मरुस्थल
जब एक विशाल पर्वत वर्षा के बादलों को आगे की दिशा में बढ़ने में बाधा उत्पन्न करता है तब उसके आगे का प्रदेश वृष्टिहीन हो जाता है और इसे वृष्टिछाया क्षेत्र कहते हैं।
अधिक ऊंचे पर्वतों (जैसे कि हिमालय) पर वर्षा नहीं होती इसलिए इन्हें भी मरुस्थल का श्रेणी में रखा जाता है।
मरुस्थल का सामान्य गुण तो यह है कि इसमें वर्षा कम होती है। ये क्षेत्र प्रायः विरल आबादी, नगण्य वनस्पति, पतो की जगह काटें, जल के स्त्रोतों की कमी, जलापूर्ति से अधिक वाष्पीकरण हैं। विश्व के केवल २०% मरुस्थल रेतीले हैं। रेत प्रायः परतों में बिछी होती है। रेतीले क्षेत्रों के दैनिक तापमान में बहुत विविधता होती है। लगभग सभी मरुस्थल समतल हैं।
कुछ में टीले भी बनते है परंतु रेत के होने के साथ वो बनते व नष्ट होते रहते है ।
मुख्य लेख - विश्व के मरुस्थल
कोलेरेडो मरुस्थल उस
थार मरुस्थल भारत
सहारा मरुस्थल अफ्रीका
गोबी मरुस्थल मंगोलिया
हमादा मरुस्थल चट्टान युक्त मरुस्थल
रेग मरूस्थल कंकड़ पत्थर युक्त भाग
अर्ग मरुस्थल बालू मिट्टी युक्त भाग |
डायबिटीज मेलेटस (डीएम), जिसे सामान्यतः मधुमेह कहा जाता है, चयापचय संबंधी बीमारियों का एक समूह है जिसमें लंबे समय तक रक्त में शर्करा का स्तर उच्च होता है। उच्च रक्त शर्करा के लक्षणों में अक्सर पेशाब आना होता है, प्यास की बढ़ोतरी होती है, और भूख में वृद्धि होती है।यदि अनुपचारित छोड़ दिया जाता है, मधुमेह कई जटिलताओं का कारण बन सकता है।तीव्र जटिलताओं में मधुमेह केटोएसिडोसिस, नॉनकेटोटिक हाइपरोस्मोलर कोमा, या मौत शामिल हो सकती है।
गंभीर दीर्घकालिक जटिलताओं में हृदय रोग, स्ट्रोक, क्रोनिक किडनी की विफलता, पैर अल्सर और आंखों को नुकसान शामिल है।
मधुमेह के कारण है या तो अग्न्याशय पर्याप्त इंसुलिनका उत्पादन नहीं करता या शरीर की कोशिकायें इंसुलिन को ठीक से जवाब नहीं करती। मधुमेह के चार मुख्य प्रकार हैं:
टाइप १ डीएम पर्याप्त इंसुलिन का उत्पादन करने के लिए अग्न्याशय की विफलता का परिणाम है।इस रूप को पहले "इंसुलिन-आश्रित मधुमेह मेलाईटस" (आईडीडीएम) या "किशोर मधुमेह" के रूप में जाना जाता था। इसका कारण अज्ञात है
टाइप २ डीएम इंसुलिन प्रतिरोध से शुरू होता है, एक हालत जिसमें कोशिका इंसुलिन को ठीक से जवाब देने में विफल होती है। जैसे-जैसे रोग की प्रगति होती है, इंसुलिन की कमी भी विकसित हो सकती है। इस फॉर्म को पहले "गैर इंसुलिन-आश्रित मधुमेह मेलेतुस" (एनआईडीडीएम) या "वयस्क-शुरुआत मधुमेह" के रूप में जाना जाता था। इसकासबसे आम कारण अत्यधिक शरीर का वजन होना और पर्याप्त व्यायाम न करना है।
गर्भावधि मधुमेह इसका तीसरा मुख्य रूप है और तब होता है जब मधुमेह के पिछले इतिहास के बिना गर्भवती महिलाओं को उच्च रक्त शर्करा के स्तर का विकास होता है।
सेकेंडरी डायबिटीज इस प्रकार की डायबिटीज इलाज करने मात्र से ही सही हो सकती है।
संकेत और लक्षण
मधुमेह के लक्षण
मधुमेह के सबसे आम संकेतो में शामिल है :
बहुत ज्यादा और बार बार प्यास लगना
बार बार पेशाब आना
लगातार भूख लगना
दृष्टी धुंधली होना
प्यास में वृद्धि
अनायास वजन कम होना
चिड़चिड़ापन और अन्य मनोदशा कमजोरी और थकान को बदलते हैं
अकारण थकावट महसूस होना
अकारण वजन कम होना
घाव ठीक न होना या देर से घाव ठीक होना
बार बार पेशाब या रक्त में संक्रमण होना
खुजली या त्वचा रोग
कृपया ध्यान दे :
लिपी १ डायबिटिस में लक्षणों का विकास काफी तेजी से (हफ्तों या महीनो) हो सकता है। मधुमेह के प्रकार
इस मधुमेह को नवजात मधुमेह ऐसी संज्ञा दी गई है। पहला प्रकार है टाइप १ डायबिटीज़ जो बचपन से होती है जबकि दूसरा प्रकार है टाइप २ डायबिटीज़ जो अधिकतर वयस्कों में पाया जाता है।टाइप १ डायबिटीज़ में इन्सुलिन शरीर में अत्यंत कम तैयार होता है या बिल्कुल भी तैयार नहीं होता है।नवजात मधुमेह उत्तर युरोप में फिनलंड, स्कॉटलंड, स्कॅन्डेनेव्हिया, मध्य पूर्व के देश और एशिया में बडे़ पैमाने पर है। इस मधुमेह को'इन्शुलिन आवश्यक मधुमेह' एेसा भी कहा जाता है कारण इन मरीजों को हररोज इन्सुलिन के इंजेक्शन लेना पडता है।पहले प्रकार के मधुमेह की और एक आवृत्ती है। इन मरीजों में शक्कर का औसत लगभग औसत के अधिक और कम होता रहता है। ऐसे मरीजों को एक या दो प्रकार के इन्सुलिन इक्कठा करके उनकी रक्तशर्करा नियंत्रित करनी पड़ती है।
लिपी २ डायबिटिस में लक्षणों का विकास बहुत धीरे-धीरे होता है और लक्षण काफी कम हो सकते है। |
आचेह दक्षिणपूर्व एशिया के इण्डोनेशिया देश के सुमात्रा द्वीप पर स्थित एक प्रान्त है। यह सुमात्रा के उत्तरतम भाग में स्थित है और इसका उत्तरी छोर भारत के अण्डमान व निकोबार द्वीपसमूह के दक्षिणी छोर से अंडमान सागर के पार केवल १५० किमी दूर है। आचेह में दस स्थानीय समुदाय रहते हैं, जिनमें आचेही लोग सबसे विशाल गुट है और स्थानीय जनसंख्या का ८०% से अधिक है। समझा जाता है कि इण्डोनेशिया में इस्लाम सबसे पहले आचेह में आया और यह एक रूढ़िवादी इलाक़ा है जहाँ इस्लामी शरिया क़ानून लगाने के प्रयास होते रहे हैं। आचेह में अलगाववाद के आंदोलन भी अग्रसर रहे हैं। दिसंबर २००४ में आये महाभूकम्प का उपरिकेंद्र आचेह के पास ही था और उससे उत्पन्न सूनामी लहरों की विनाश लीला में सबसे अधिक इसी प्रांत के लोग प्रभावित हुए और विश्व के मीडिया का ध्यान यहाँ सबसे ज्यादा केन्द्रित हुआ।
इन्हें भी देखें
इंडोनेशिया के प्रांत
इंडोनेशिया के प्रांत |
जॉर्डन (अरबी: हिंदी:उर्दुन), आधिकारिक तौर पर इस हेशमाइट किंगडम ऑफ जॉर्डन, दक्षिण पश्चिम एशिया में अकाबा खाड़ी के दक्षिण में, सीरियाई मरुस्थल के दक्षिणी भाग में अवस्थित एक अरब देश है। देश के उत्तर में सीरिया, उत्तर-पूर्व में इराक, पश्चिम में पश्चिमी तट और इज़रायल और पूर्व और दक्षिण में सउदी अरब स्थित हैं। जॉर्डन, इज़रायल के साथ मृत सागर और अकाबा खाड़ी की तट रेखा इज़रायल, सउदी अरब और मिस्र के साथ नियंत्रण करता है। जॉर्डन का ज्यादातर हिस्सा रेगिस्तान से घिरा हुआ है, विशेष रूप से अरब मरुस्थल; हालाँकी, उत्तर पश्चिमी क्षेत्र, जॉर्डन नदी के साथ, उपजाऊ चापाकार का हिस्सा माना जाता है। देश की राजधानी अम्मान उत्तर पश्चिम में स्थित है।
मेसोपोटामिया के काल से यहाँ नबाती साम्राज्य का शासन था। उन्होंने ही अरबी लिपि का विकास किया जिससे आधुनिक अरबी का लेखन आरंभ हुआ। दक्षिण में अदोम का साम्राज्य था। रोमन काल में कई स्वायत्त राज्य हुए। यहूदी विद्रोहों को दबाने के बाद इसको सीरिया फिलेस्तीना प्रांत का अंग बनाया गया। इसके बाद जॉर्डन नदी के पूर्वी तट पर पार्थियाई और बाद में तीसरी सदी में ईरानी सासानी साम्राज्य का अधिकार बना।
अरबों के साम्राज्य निर्माण काल में यह राशिदुन काल में ही अधिकृत हो गया था। इसके बाद यहाँ इस्लाम का प्रचार हुआ। कई सदियों तक इस पर इस्लामी खिलाफत जो दमिश्क और फिर बग़दाद में केन्द्रित था, का शासन रहा। मंगोल (१२५९), क्रूसेडर (१०२०), अय्यूबी (११७०) तथा मामलुक शासन के बाद इस पर १५१६ में उस्मानी तुर्कों का अधिकार बना। अन्य अरबी राष्ट्रों का साथ इसने भी उस्मानी तुर्को के ख़िलाफ प्रथम विश्व युद्ध में भाग लिया। युद्ध में तुर्की की हार हुई और यह ब्रिटिश सासन का अंग बना। १९४६ में यह स्वतंत्र हुआ। जेरुशलम को लेकर इजरायल के साथ संघर्ष होता रहा। १९६७ के छः दिनो के युध्द में भी जॉर्डन को अपने प्रदेश हारने पड़े।
यह भी देखिए
एशिया के देश
अरब लीग के देश
अरबी-भाषी देश व क्षेत्र |
ज़्युरिक या ज़्यूरिख़ (जर्मन: ज़्रीच त्सूरिख़्~त्सीरिख़्) स्विट्ज़रलैंड का सबसे बड़ा शहर है। साथ ही यह शहर स्विट्ज़रलैंड की राजधानी भी है। यह शहर स्विट्ज़रलैंड का व्यवसाय एवं संस्कृति का मुख्य केन्द्र है और इसे दुनिया के ग्लोबल शहरों में से एक माना जाता है। २००६ एवं २००७ में हुए कईं सर्वे के अनुसार इसे बेहतरीन जीवन गुणवत्ता का शहर माना गया है।
यह स्विट्सरलैंड के ज़ूरिक उपमंडल की राजधानी तथा इस देश का सर्वप्रमुख औद्योगिक, व्यापारिक, शैल्पिक और बैंकों के व्यापार का नगर है। यह स्विट्सरलैंड का सबसे घना और रमणीक नगर है। इसका अधिकांश भाग झील को सुखाकर बनाया गया है। प्राचीन भाग अब भी सघन है, लेकिन नए भाग में चौड़ी सड़कें तथा सुंदर भवन हैं। लिम्मत नदी इस नगर को दो भागों में बाँटती है, लघु नगर एवं बृहत् नगर। ये दोनों भाग ११ पुलों द्वारा एक दूसरे से संबद्ध हैं। झील के समीप असंख्य बल्ली आवासगृह हैं।
यहाँ कई प्राचीन भवन दर्शनीय हैं, जिनमें सबसे सुंदर ग्रास मूंस्टर या प्रापस्ती गिरजाघर लिम्मत नदी के दाएँ किनारे पर है। इस गिरजाघर की दीवारों पर २४ लौकिक धर्मनियम लिखे हैं। इसके समीप ही बालिकाओं का विद्यालय है, जहाँ १२वीं और १३वीं शताब्दी के रोमन वास्तुकला के अवशेष हैं। लिम्मत के बाएँ किनारे पर ज़ूरिक का दूसरा बड़ा गिरजाघर फ्राऊ मूस्टर (आब्ती) १२वीं शताब्दी का है। सेंट पीटर गिरजाघर सबसे पुराना है। इनके अतिरिक्त और कई गिरजाघर हैं। सेंट्रल पुस्तकालय में १९१६ ईओ में सात लाख पुस्तकें थीं, जहाँ प्रसिद्ध समाजसुधारक तथा उपदेशक ज्विंगली, बुर्लिगर, लेडी जेन और शीलर आदि के पत्र भी सुरक्षित हैं। यहाँ प्राचीन अभिलेखों का भंडार है तथा यहाँ सन् १८८५ में स्थापित ज्विंगली की प्रतिमा है। नवीन भवनों में राष्ट्रीय संग्रहालय सबसे भव्य है, जिसमें स्विट्सरलैंड के सभी कालों एवं कलाओं का अद्भूत संग्रह है। ज़ूरिक शिक्षा का प्रसिद्ध केंद्र है। यहाँ विश्वविद्यालय, प्राविधिक संस्थान तथा अन्य विद्यालय हैं। यहाँ का वानस्पतिक बाग संसार के प्रसिद्ध वानस्पतिक बागों में से एक है। इस नगर में रेशमी एवं सूती वस्त्र, मशीनों के पुर्जे, मोमबत्ती, साबुन, सुर्ती, छींट का कपड़ा (कैलीको), कागज तथा चमड़े की वस्तुएँ बनाने के उद्योग हैं।
स्विट्ज़रलैंड के शहर |
दुबई संयुक्त अरब अमीरात (यूएई) की सात अमीरातों में से एक है। यह फारस की खाड़ी के दक्षिण में अरब प्रायद्वीप पर स्थित है। दुबई नगर पालिका को अमीरात से अलग बताने के लिए कभी कभी दुबई राज्य बुलाया जाता है। दुबई, मध्य पूर्व के एक वैश्विक नगर तथा व्यापार केन्द्र के रूप में उभर कर सामने आया है। लिखित दस्तावेजों में इस शहर का अस्तित्व संयुक्त अरब अमीरात के गठन से १५० साल पहले होने का जिक्र है।
दुबई अन्य अमीरातों के साथ कानून, राजनीति, सैनिक और आर्थिक कार्य एक संघीय ढांचे के भीतर साझा करता है। हालांकि प्रत्येक अमीरात में नागरिक कानून लागू करने और व्यवस्था और स्थानीय सुविधाओं के रखरखाव जैसे कुछ कार्यों पर क्षेत्राधिकार है। दुबई की आबादी सबसे ज्यादा है और यह क्षेत्रफल में अबू धाबी के बाद दूसरी सबसे बड़ी अमीरात है। दुबई और अबू धाबी ही सिर्फ दो अमीरात है जिनके पास देश की विधायिका अनुसार राष्ट्रीय महत्व के महत्वपूर्ण मामलों पर प्रत्यादेश शक्ति का अधिकार है। दुबई पर १८३३ से अल माकतौम वंश ने शासन किया है। इसके मौजूदा शासक मोहम्मद बिन रशीद अल माकतौम संयुक्त अरब अमीरात के प्रधानमंत्री और उप राष्ट्रपति भी है।
अमीरात का मुख्य राजस्व पर्यटन, जायदाद और वित्तीय सेवाओं से आता है। दुबई की अर्थव्यवस्था मूलतः तेल उद्योग पर निर्मित है, वर्तमान में ८० अरब अमेरिकी डॉलर (२००९) की अमीराती अर्थव्यवस्था में पेट्रोल तथा प्राकृतिक गैस का राजस्व योगदान ६% (200६) से कम है। संपत्ति और निर्माण ने २००५ में अर्थव्यवस्था में वर्तमान के बड़े पैमाने पर निर्माण कार्य में तेजी से पहले २२.६% का योगदान दिया .
दुबई ने कई अभिनव बड़ी निर्माण परियोजनाओं और खेल आयोजनों के माध्यम से दुनिया का ध्यान आकर्षित किया है। सबका ध्यान आकर्षित होने के साथ ही एक वैश्विक शहर और व्यापार केन्द्र के रूप में उभरने की वजह से दुबई में श्रम और मानव अधिकारों से जुड़े कर्मचारियों मुख्यतः दक्षिण एशियाई कर्मचारियों से संबंधित मुद्दे प्रकाश में आये हैं .
१८२० में, दुबई को ब्रिटिश इतिहासकारों द्वारा अल वस्ल (अल वस्ल) के रूप में उल्लिखित किया गया था। संयुक्त अरब अमीरात या उसके घटक अमीरात के सांस्कृतिक इतिहास से संबंधित कुछ अभिलेख क्षेत्र की मौखिक परंपरा के दर्ज होने और लोककथाओं व मिथको के आगे बढ़ने की वजह से मौजूद हैं . शब्द दुबई की मूल भाषा के बारे में भी विवाद रहे हैं, कुछ लोगों का मानना है कि यह फारसी भाषा से उत्पन्न हुआ है, जबकि कुछ का मानना है कि अरबी इस शब्द की मूल भाषा है। फेडेल हन्धाल (फेडेल हंधल) जो सयुंक्त अरब अमीरात के इतिहास और संस्कृति के शोधकर्ता है, के अनुसार शब्द दुबई का मूल शब्द दाबा (दबा) (यादुब ((यदुब) का एक व्युत्पन्न) से आया हो सकता है, जिसका मतलब रेंगना होता है। यह शब्द हो सकता है कि दुबई खाड़ी के भीतरी प्रवाह के संदर्भ में हो सकता है जबकि कवि और विद्वान अहमद मोहम्मद ओबैद भी इसी शब्द को माध्यम बताते हैं, लेकिन उनके अनुसार इसका अर्थ टिड्डी है।
दक्षिण- पूर्वी अरब प्रायद्वीप की इस्लाम से पूर्व की संस्कृति के बारे में काफी कम जानकारी है सिवा इसके कि कई प्राचीन नगरों के क्षेत्र पूर्वी और पश्चिमी दुनिया के बीच के व्यापार केंद्र थे। एक प्राचीन सदाबहार दलदल के अवशेष जो ७,००० साल पुराने है, दुबई इंटरनेट सिटी (दुबई इंटरनेट सिटी) की सीवर लाइन के निर्माण के दौरान पाये गए . यह क्षेत्र ५,००० साल पहले समुद्र तट पीछे हट जाने से रेत से ढका हुआ था और शहर के वर्तमान समुद्र तट का एक हिस्सा बन गया था।
इस्लाम के पहले यहाँ के लोग बजीर (बाजीर) (या बजर) की उपासना करते थे। बैज़न्तिन (बिज़ांटीन) और सासानियन (सस्सानियन) (फारसी) साम्राज्य ने अवधि की महान शक्तियों का गठन किया और ज्यादा क्षेत्र को सासानियन नियंत्रित करने लगे . इस क्षेत्र में इस्लाम के प्रसार के बाद, उमय्यद कालिफ (उमय्याद खलीपा), पूर्वी इस्लामी दुनिया के, ने दक्षिण-पूर्वी अरब पर हमला कर दिया और सासानियन को बाहर कर दिया . अल-जुमायरा (जुमेरह) के क्षेत्र में दुबई संग्रहालय की खुदाई में उमय्यद अवधि की कई कलाकृतियाँ पायीं गई है।
दुबई का सबसे पहले का उल्लेख १०९५ में दर्ज़ है, एन्डालुसियन - अरब (अंदलूसियन-अरब) भूगोलिक अबु अब्दुल्ला अल-बकरी की "बुक ऑफ जियोग्राफी" में दर्ज है. वेनिस के मोती व्यापारी गस्पेरो बल्बी (गैस्पेरो बल्बी) ने १५८० में इस इलाके का दौरा किया और दुबई (डिबई) का उल्लेख इसके मोती उद्योग के लिए किया। दुबई के शहर के दस्तावेज अभिलेख केवल १७९९ के बाद से ही मौजूद हैं .
१९ वीं सदी के शुरू में, बनी यास (बनी यास) वंश के अल अबू फालसा परिवार (हाउस अल-फालासी) ने दुबई की स्थापना की है, जो १८३३ तक अबू धाबी पर निर्भर था। ८ जनवरी 1८20 को, दुबई और इस क्षेत्र में अन्य शेखों ने ब्रिटिश सर्कार के साथ "जनरल समुद्री शांति संधि" (जनरल मैरिटाइम पीस ट्रीटी) पर हस्ताक्षर किये . १८३३ में बनी यास जनजाति के अल मकतौम वंश (हाउस अल-फालासी के वंशज) ने अबू धाबी का समझौता छोड़ दिया और बिना विरोध के अबू फासला वंश से दुबई को ले लिया .
दुबई १८९२ के 'विशेष समझौते" द्वारा यूनाइटेड किंगडम के संरक्षण के अंतर्गत आ गया जिसमे ब्रिटेन ने दुबई की ओटोमन साम्राज्य से रक्षा की सहमति दी . १८०० के दौरान शहर में दो बार प्रलय आई . पहला, १८४१ में बुर दुबई इलाके में चेचक महामारी जिसने इसके निवासियों को डिरा के पूर्व में शरण लेने को मजबूर कर दिया . और फिर, १८९४ में, डिरा में एक आग लगी जिसमे कई घर जल गए . हालांकि, शहर की भौगोलिक स्थिति ने इस क्षेत्र के आसपास से व्यापारियों और सौदागरों को आकर्षित करना जारी रखा . दुबई के अमीर ने विदेशी व्यापारियों को आकर्षित करने के लिए उत्सुक था और उसने व्यापार कर को कम कर दिया जिसने व्यापारियों को शारजाह (शर्जह) और बन्दर लेंगेह (बंदर लेंगेह) से खीच लिया जो उस समय इस क्षेत्र के मुख्य व्यापार केन्द्र थे।
२० वीं सदी
दुबई की ईरान से भौगोलिक निकटता ने इसे एक महत्वपूर्ण स्थान बनाया है। दुबई का शहर विदेशी व्यापारियों के लिए एक महत्वपूर्ण बंदरगाह था, मुख्यतः ईरान के व्यापारियों के लिए, जिसमे कई अंततः इसी शहर में बस गए . दुबई १९३० के दशक तक अपने मोती निर्यात के लिए जाना जाता था पर विश्व युद्घ १ से यह उद्योग क्षतिग्रस्त हो गया था और बाद में १९३० के दशक में विश्व्यापी मंदी से यह फिर से क्षतिग्रस्त हो गया . मोती व्यापार के पतन के साथ कई निवासी फारस की खाड़ी के अन्य भागों में चले गए .
अपनी स्थापना के बाद से ही दुबई अबु धाबी के अनुपात पर था। १९४७ में, दुबई और अबु धाबी के उत्तरी क्षेत्र की साझा सीमा का विवाद युद्ध में बदल गया . ब्रिटेन की मध्यस्तता और एक मध्यवर्ती सीमा जो रस हसियन (रस हसियन) तट से दक्षिण पूर्व की ओर थी के परिणामस्वरूप दोनों से बीच एक अस्थायी युद्धस्तिथि विराम आ गया था।
अमीरात के बीच सीमा विवाद संयुक्त अरब अमीरात के गठन के बाद भी जारी रहा और १९७९ में ही एक औपचारिक समझौते के बाद युद्ध समाप्त हुआ . बिजली, टेलीफोन सेवाओं और एक हवाई अड्डे दुबई में १९५० के दशक में स्थापित हुए जब ब्रिटिश अपने स्थानीय प्रशासनिक कार्यालयों शारजाह से दुबई ले गए . १९६६ में शहर ने कतर के नव स्वतंत्र देश के साथ फारस की खाड़ी रुपए के अवमूल्यन के बाद नै मौद्रिक इकाई कतर/दुबई रियाल की स्थापना की . उसी साल दुबई में तेल का पता चला जिसके बाद शहर ने अंतरराष्ट्रीय तेल कंपनियों को रियायतें दी . तेल की खोज से विदेशी कर्मचारियों की एक बाढ़ सी आ गई जिसमे मुख्यतः भारतीय और पाकिस्तानी लोग थे। कुछ अनुमानों के अनुसार शहर की जनसँख्या १९६८ से १९७५ ३००% तक बढ़ गई थी।
पूर्व रक्षक ब्रिटेन के १९७१ में फारस की खाड़ी छोड़ने के बाद २ दिसम्बर १९७१ को दुबई ने अबु धाबी और पांच अन्य अमीरात के साथ मिलकर संयुक्त अरब अमीरात की स्थापना की . १९७३ में, दुबई ने अन्य अमीरातों के साथ मिलकर एक समान मुद्रा : संयुक्त अरब अमीरात दिरहम अपनाई . १९७० के दशक में, दुबई में तेल और व्यापार से उत्पन्न राजस्व में निरंतर बढोत्तरी होती रही, जबकि शहर में लेबनान के गृह युद्ध से भागे हुए आप्रवासियों की बाढ़ आ गयी थी। जेबेल अली बंदरगाह (दुनिया का सबसे बड़ा मानव निर्मित बंदरगाह) १९७९ में स्थापित किया गया था। जफ्ज़ा (जफ़्ज़ा)(जेबेल अली नि:शुल्क जोन) का बंदरगाह के आसपास निर्माण १९८५ में विदेशी कंपनियों को अप्रतिबंधित श्रम आयात और पूंजी निर्यात प्रदान करने के लिए किया गया था।
फारस की खाड़ी के १९९० के युद्ध का शहर पर बड़ा प्रभाव पड़ा . जमाकर्ताओं ने क्षेत्र में अनिश्चित राजनीतिक परिस्थितियों के कारण दुबई के बैंकों से भारी मात्रा में पूँजी वापस ले ली . बाद में १९९० के दशक में कई विदेशी व्यापारिक समुदाय - पहली बार कुवैत से फारस की खाड़ी युद्ध के दौरान और बाद में बहरीन से शिया अशांति के दौरान - ने अपने व्यापार को दुबई में स्थानांतरित कर दिया . दुबई ने फारस की खाड़ी युद्ध के दौरान और बाद में २००३ इराक आक्रमण के दौरान सेना संबद्ध को जेबेल अली फ्री ज़ोन को ईंधन आधार के लिए इस्तेमाल करने दिया . फारस की खाड़ी के युद्ध के बाद बढ़ी हुई तेल की कीमतों ने दुबई को मुक्त व्यापार और पर्यटन पर ध्यान देना जारी रखने के लिए प्रोत्साहित किया।
जेबेल अली मुक्त क्षेत्र की सफलता ने शहर को इस मॉडल की नकल कर नए मुक्त क्षेत्र के समूहों के विकास की अनुमति दी जिसमे दुबई इंटरनेट सिटी, दुबई मीडिया सिटी और दुबई मैरीटाइम सिटी भी शामिल है। बुर्ज अल अरब, दुनिया के सबसे बड़ा प्रथक होटल के निर्माण और साथ ही नये आवासीय गतिविधियों के निर्माण को पर्यटन के लिए दुबई के प्रचार के लिए इस्तेमाल किया गया . २००२ के बाद से निजी संपत्ति के विकास में वृद्धि ने दुबई के क्षितिज का विशाल परियोजनाओं, द पाल्म आइलैंड, द वर्ल्ड आइलैंड और द बुर्ज खलीफा के साथ पुनः निर्माण किया। हाल ही के मजबूत आर्थिक विकास ने उच्च मुद्रास्फीति को भी बढ़ावा मिला (११.२%, २007 में जब उपभोक्ता मूल्य सूचकांक के खिलाफ मापा गया) जिसका एक कारण वाणिज्यिक और आवासीय किराए का दोहरीकरण भी माना जाता है।
दुबई संयुक्त अरब अमीरात के फारस की खाड़ी के तट पर स्थित है और मोटे तौर पर समुद्र स्तर (ऊपर) है। दुबई के अमीरात दक्षिण में अबु धाबी के साथ, पूर्वोत्तर में शारजाह के साथ और दक्षिण पूर्व में ओमान सल्तनत के साथ सीमा बाँटता हैं . हट्टा, अमीरात की एक छोटी सी भूमि है जो तीन तरफ से ओमान और अजमान के अमीरात (पश्चिम में) और रास अल खैमाह (उत्तर में) द्वारा घिरी हुई है। फारस की खाड़ी की सीमाएं अमीरात के पश्चिमी तट से जुड़ी है। दुबई की स्तिथि है और ४,११४ किमी (१,५८८ मील ) के क्षेत्र में विस्तृत है, यह अपने आरंभिक १,५०० मील के क्षेत्र से परे है जो समुद्र से उद्धार के कारण हुआ हैं .
दुबई अरेबियन रेगिस्तान के भीतर है। लेकिन दुबई की स्थलाकृति संयुक्त अरब अमीरात के दक्षिणी भाग से काफी अलग है, दुबई के परिदृश्य की विशिष्टता रेतीले रेगिस्तान के रूप में है, जबकि दक्षिणी क्षेत्र में बजरी रेगिस्तान की अधिकता है। रेत में मुख्यतः टूटी हुई सीप और प्रवाल हैं और यह अच्छी, साफ और सफेद है। शहर का पूर्व जो नमक की परत का तटीय मैदान है जिसे सब्खा (सबखा) के नाम से जाना जाता है, एक उत्तर- दक्षिणी रेतीय रेखा को रास्ता देता है। दूर पूर्व की ओर, रेतीय टीले बड़े हो गए और लोहे के आक्साइड से लाल हो गए .
सपाट रेतीला रेगिस्तान पश्चिमी हज़र पर्वत को रास्ता देता है, जो हट्टा पर दुबई ओमान की सीमा के साथ चलता है। पश्चिमी हज़ार श्रृंखला का एक शुष्क, कटीला और उजड़ा परिदृश्य है, जिसके पहाड़ कुछ स्थानों पर लगभग १,३०० मीटर तक ऊँचे है। दुबई में कोई प्राकृतिक नदी या मरू उद्यान नहीं है, तथापि, दुबई में एक प्राकृतिक प्रवेश है, दुबई की खाड़ी, जिसको जाल से बाँध कर गहरा कर बड़े जहाजों के जाने के योग्य बना दिया गया है। दुबई में कई पहाड़ों के बीच संकरें पथ और जलछिद्र भी है जिनका आधार पश्चिमी अल हज़र पहाड़ियां है। रेतीय टीलों का एक विशाल समुद्र दक्षिणी दुबई में फैला है जो अंततः एक द एम्प्टी क्वार्टर (थे एम्प्टी क्वार्टर) रेगिस्तान को जाता है। भूकंप के हिसाब से, दुबई एक बहुत ही स्थिर क्षेत्र है - सबसे पास की भूकंपीय रेखा, ज़ार्गोस फॉल्ट (जार्गोस फॉल्ट) संयुक्त अरब अमीरात से १20 किमी दूर है और इसकी दुबई पर कोई भूकंप प्रभाव की संभावना नहीं है। विशेषज्ञों का यह भी अनुमान है कि इस क्षेत्र में सुनामी की संभावना बहुत कम है क्योंकि फारस की खाड़ी के पानी की गहराई एक सुनामी को शुरू करने के लिए काफी कम है।
शहर के आसपास के रेतीले रेगिस्तान जंगली घास और कभी कभी खजूर को सहारा देते है। रेगिस्तानी फूल सब्खा मैदानों में शहर के पूर्वी इलाकों में उगते है जबकि बबूल और खेजड़ी के पेड़ पश्चिमी अल हज़र पहाड़ियों के निकट सपाट मैदानों में होते हैं . कई देशी पेड़ जैसे खजूर और नीम और कई आयातित पेड़ जैसे सफेदा दुबई के प्राकृतिक पार्क में उगाए जाते है। हौबरा तुगदर, धारीदार लकड़बग्घा, स्याहगोश, रेगिस्तानी लोमड़ी, बाज़ और अरबी ओरिक्स जैसे जानवर दुबई के रेगिस्तान में आम है। दुबई यूरोप, एशिया और अफ्रीका के बीच प्रवास के रास्ते पर है और ३२० से अधिक प्रवासी पक्षी प्रजातियाँ बसंत और पतझड़ में अमीरात से होकर गुजरती हैं . दुबई के जल में हैमौर सहित मछलियों की ३०० से अधिक प्रजातियाँ पाई जाती है।
दुबई की खाड़ी शहर के पूर्वोत्तर-दक्षिण पश्चिमी तरफ है। शहर का पूर्वी भाग डिरा के इलाके बनाता है और पूर्व में शारजाह के अमीरात और दक्षिण में अल अवीर के शहर से जुड़ा है। दुबई अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डा डिरा के दक्षिण में स्थित है जबकि पाम डिरा, डिरा के उत्तर में फारस की खाड़ी में स्थित है। दुबई की अचल संपत्ति का उछाल ज्यादातर दुबई की खाड़ी के पश्चिम में, जुमेरह तटीय क्षेत्र पर केन्द्रित है। पोर्ट राशिद, जेबेल अली, बुर्ज अल अरब, पाम जुमेरह और विषय आधारित मुक्त-क्षेत्र जैसे बिजनेस बेय सब इसी भाग में स्थित है। पांच मुख्य मार्ग - ई ११ (शेख जायद रोड), ई 3११ (अमीरात रोड), ई ४४ (दुबई-हट्टा राजमार्ग), ई ७७ (दुबई अल हबाब रोड) और ई ६६ (ओउद मेथा रोड) - दुबई से जाते है और शहर को अन्य शहरों और अमीरातों से जोड़ते है। इसके अतिरिक्त, कई महत्वपूर्ण अंतर शहरी मार्ग जैसे ड ८९ (अल मकतौम रोड/हवाई अड्डा रोड), ड ८५ (बनियास रोड), ड ७५ (शेख राशिद रोड), ड ७३ (अल धियाफा रोड), ड ९४ (जुमेरह रोड) और ड ९२ (अल ख़लीज/अल वस्ल रोड) शहर में विभिन्न इलाकों को जोड़ते हैं . शहर के पूर्वी और पश्चिमी वर्गों अल मकतौम ब्रिज, अल गरहौद ब्रिज, अल शिनदाघा सुरंग, बिजनेस बेय क्रोसिंग और फ्लोटिंग ब्रिज से जुड़े हुए हैं .
दुबई की जलवायु गर्म और शुष्क है। दुबई में गर्मियां बेहद गर्म, तूफानी और शुष्क होती है और औसत उच्च लगभग और रात भर निम्न लगभग होता है। साल भर गर्म दिनों की उम्मीद की जा सकती है। सर्दियां गर्म और छोटी होती है और औसत उच्च और रात भर निम्न होता है। वर्षा, पिछले कुछ दशकों में बढ़ रही है और संचित वर्षा प्रति वर्ष है। यह इस क्षेत्र की शुष्कता को प्रभावित नहीं करता है यद्यपि इससे रेगिस्तानी झाड़ियों की संख्या में वृद्धि हुई है।
सरकार और राजनीति
दुबई सरकार एक संवैधानिक राजशाही ढांचे के भीतर संचालित होती है और अल मकतौम परिवार द्वारा १८३३ के बाद से शासित है। मौजूदा शासक मोहम्मद बिन रशीद अल मकतौम संयुक्त अरब अमीरात के प्रधानमंत्री और सुप्रीम संघ परिषद् (स्कु) के सदस्य भी है। दुबई २ सत्र विधि के लिए ८ सदस्यों की संयुक्त अरब अमीरात की संघीय राष्ट्रीय परिषद (फ़ेडेरल नेशनल काउंसिल - फँक) जो सर्वोच्च संघीय वैधानिक संस्था है, में नियुक्ति करती है। दुबई नगर पालिका (डीएम) की स्थापना तत्कालीन शासक राशिद बिन सईद अल मकतौम ने १९५४ में नगर नियोजन, नागरिक सेवाओं और स्थानीय सुविधाओं के रखरखाव के प्रयोजनों के लिए की थी।
डीएम की अध्यक्षता हमदान बिन राशिद अल मकतौम, दुबई के उप शासक द्वारा की जाती है और इसमें अनेक विभाग जैसे सड़क विभाग, योजना और सर्वेक्षण विभाग, पर्यावरण एवं जन स्वास्थ्य विभाग और वित्तीय मामलों के विभाग शामिल हैं . सन् २००१ में दुबई नगर पालिका ने अपने वेब पोर्टल (दुबई.एई) द्वारा अपनी ४० शहरी सेवाएं उपलब्ध कराने के लिए एक ई- सरकार परियोजना शुरू की . ऐसी १३ सेवाएँ अक्टूबर २००१ से शुरू की गई, जबकि कई अन्य सेवाएं भविष्य में चालू होने की आशा है।
दुबई और रास अल खैमाह ही केवल अमीरात है जो संयुक्त अरब अमीरात की संघीय न्यायिक प्रणाली के अनुरूप नहीं हैं . अमीरात की न्यायिक अदालत हैं द कोर्ट ऑफ़ फर्स्ट इंस्टैंस, द कोर्ट ऑफ़ अपील और द कोर्ट ऑफ़ कैसशन . द कोर्ट ऑफ़ फिस्र्ट इंस्टैंस में सिविल कोर्ट होते हैं जो सभी नागरिकों के दावे सुनते है, अपराध न्यायालय, जो पुलिस की शिकायतों से जुड़े दावे सुनते है और शरिया कोर्ट जो मुसलमानों के बीच मामलों के लिए जिम्मेदार है। गैर मुसलमान शरिया कोर्ट के सामने प्रकट नहीं होते हैं . द कोर्ट ऑफ़ कैसशन अमीरात का सुप्रीम कोर्ट है और कानून के मामलों पर विवाद सुनता है।
दुबई पुलिस बल की स्थापना नैफ इलाके में १९५६ में हुई और इसका कानून प्रवर्तन अधिकार क्षेत्र अमीरात है। यह बल मोहम्मद बिन रशीद अल मकतौम, दुबई के शासक की प्रत्यक्ष कमान के अधीन है। दुबई नगर पालिका शहर की स्वच्छता और मलजल बुनियादी सुविधाओं के प्रभारी भी हैं . शहर के तेज विकास ने इसके सीमित सीवेज उपचार के बुनियादी ढांचे को उसकी चरम सीमा तक खीच दिया है।
संयुक्त अरब अमीरात के संविधान का अनुच्छेद २५ जाति, राष्ट्रीयता, धार्मिक विश्वासों या सामाजिक स्थिति के आधार पर सभी को सामान आचरण प्रदान करता है। हालाँकि, दुबई के २५0,००० में से अनेक विदेशी मज़दूरों की स्तिथि को मानव अधिकार वॉच द्वारा "मानवीय से कम " वर्णित किया गया है। नप्र अनुसार श्रमिक "आम तौर पर एक कमरे में आठ रहते है और अपने वेतन का एक हिस्सा वे अपने परिवारों को, जिन्हें वे सालों नहीं देख पाते है, को भेजते है।" २१ मार्च २००६ को बुर्ज खलीफा निर्माण स्थल के श्रमिक जो बस के समय और काम की परिस्थितियों से परेशान थे, ने आन्दोलन कर दिया था जिससे कारों, कार्यालयों, कंप्यूटरों और निर्माण उपकरणों को हानि हुई थी। वैश्विक वित्तीय संकट ने दुबई के श्रमिक वर्ग को नुक्सान पहुँचाया है, कई श्रमिकों को भुगतान नहीं किया जा रहा है और वे देश छोड़ने में भी असमर्थ है।
दुबई में विदेशी नागरिकों के जुड़े न्यायिक सिद्धांतों को २००७ में रौशनी में लाया गया जब एलेक्जेंडर रॉबर्ट नामक एक १५ वर्षीय फ़्रांसिसी- स्विस नागरिक के साथ तीन स्थानीय लोगों द्वारा बलात्कार, जिसमे से एक एचआइवी पोसिटिव था और हाल में ही प्रवासी मजदूर जिनमे से अधिकांश भारतीय थे जो बुरी मजदूरी और जीवन स्थितियों के खिलाफ प्रदर्शन कर रहे थे, के कैद जैसी घटनाओं को कथित रूप से छुपाने की कोशिश की गयी थी। वेश्यावृत्ति, जो कानून द्वारा अवैध है, सुस्पष्ट रूप से अमीरात में मौजूद है क्योंकि इसकी अर्थव्यवस्था बड़े पैमाने पर पर्यटन और व्यापार पर आधारित है। अमेरिकन सेन्टर फॉर इंटरनेशनल पॉलिसी स्टडीज (अम्क.प्स) द्वारा किए गए एक शोध में पाया गया कि रूसी और इथियोपिया की महिलायें सबसे आम वेश्याओं हैं, साथ ही कुछ अफ्रीकी देशों की भी महिलाएं है, जबकि भारतीय वेश्याएं एक अच्छी तरह से आयोजित ट्रांस ओशियानिक वेश्यावृत्ति नेटवर्क का हिस्सा हैं . एक २००७ की पब्स की दुबई : रात के राज़ नामक वृत्तचित्र के अनुसार क्लब में अधिकारियों द्वारा वैश्यावृत्ति को सहन किया जाता है और कई विदेशी महिलाओं वहां बिना मजबूरी के पैसे से आकर्षित होकर काम करती हैं .
दुबई के सांख्यिकी केंद्र द्वारा आयोजित की गई जनगणना के अनुसार, अमीरात की २००६ में आबादी १,४२२,००० थी जिसमे १,०७३,००० पुरुष और ३४९,००० महिलाएं शामिल थी।
क्षेत्र ४९७.१ वर्ग मील (१,२८७.४ क्म२) तक फैला हुआ हैं . जनसंख्या घनत्व ४08.१8/क्म२ है जो पूरे देश से आठ गुना अधिक हैं .
दुबई क्षेत्र में दूसरा सबसे महंगा शहर है और दुनिया में २० वां सबसे महंगा शहर हैं .
१९९८ के रूप में, अमीरात की जनसंख्या का १७% भाग संयुक्त अरब अमीरात के नागरिकों का था। लगभग प्रवासियों की जनसँख्या (और अमीरात की कुल आबादी का ७१% भाग) का ८५% भाग एशियाई था, मुख्यतः (५१%) भारतीय, पाकिस्तानी (१५%) और बांग्लादेशी (१०%) . लेकिन जनसंख्या का एक चौथाई भाग कथित तौर पर ईरानी मूल का है। इसके अतिरिक्त, जनसंख्या का १६% भाग (या २८८,००० लोग) सामूहिक श्रम आवास में रहने वाले लोगों की जातीयता या राष्ट्रीयता की पहचान नहीं है लेकिन यह मुख्यतः एशियाई सोचा गया है। अमीरात में औसत उम्र २७ साल थी। अपक्व जन्म दर २००५ में १३.६% थी जबकि अपक्व मृत्यु दर १% थी।
हालांकि दुबई की अधिकारिक भाषा अरबी है पर उर्दू, फारसी, हिंदी, मलयालम, बंगाली, तमिल, टैगलोग, चीनी और अन्य कई भाषाएँ भी दुबई में बोली जाती हैं . अंग्रेजी शहर की सामान्य भाषा है और निवासियों द्वारा बहुत ही व्यापक रूप से बोली जाती है।
संयुक्त अरब अमीरात अनंतिम संविधान के अनुच्छेद ७ के अनुसार इस्लाम संयुक्त अरब अमीरात शासकीय राज्य धर्म है। सरकार लगभग ९५% मस्जिदों को सहायता देती है और सभी इमामों को रोज़गार देती है ; लगभग ५% मस्जिद पूरी तरह से निजी हैं और कई बड़ी मस्जिदों के बड़े निजी वृत्तिदान है।
दुबई में बड़ी संख्या में हिंदू, ईसाई, सिख, बौद्ध और अन्य धार्मिक समुदाय के लोग शहर में रहते हैं . गैर मुस्लिम समूहों के लोग अपने स्वयं के पूजा घर बना सकते है जहां वे मुक्त रूप से अपने धर्म का अभ्यास कर सकते हैं इसके लिए उन्हें भूमि अनुदान का अनुरोध और एक परिसर के निर्माण की अनुमति लेने की ज़रुरत होती है। जिन समुदायों के खुद के धार्मिक इमारतें नहीं होती वे अन्य धार्मिक संगठनों की सुविधाओं का प्रयोग कर सकते है या निजी घरों में पूजा कर सकते हैं . गैर मुस्लिम धार्मिक समूहों को खुले तौर पर समूह के कार्यों की विज्ञापित की अनुमति है लेकिन शुद्धिकरण या धार्मिक साहित्य का वितरण जो इस्लाम का अपमान माना जाता है, आपराधिक मुकदमा चलाने, कारावास और निर्वासन के दंड के अंतर्गत आता है।
दुबई की अर्थव्यवस्था २०२२ तक प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद ४६,६६५ अमेरिकी डॉलर का प्रतिनिधित्व करती है। विदेश व्यापार राज्य मंत्री डॉ थानी बिन अहमद अल जायौदी ने घोषणा की कि १० वर्षों में यूएई का गैर-तेल व्यापार कुल १६.१४ ट्रिलियन (४,४ ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर) है। यूएई की जीडीपी २०२१ में ४07 अरब डॉलर से बढ़कर २०२२ में ४४0 अरब डॉलर और अगले साल ४६7 अरब डॉलर हो गई। इसी तरह, प्रति व्यक्ति जीडीपी भी पिछले साल ४3,८६८ डॉलर से बढ़कर इस साल ४६,६६५ डॉलर और २०२३ में ४8,८२२ डॉलर हो जाएगी।
दुबई का २००५ में सकल घरेलू उत्पाद ३७ बिलियन अमरीकी डालर था। हालांकि दुबई की अर्थव्यवस्था तेल उद्योग के ऊपर बनी थी,<रेफ नामी="तेलगास२">[1२5] ^ "दुबई - अवलोकन:", युएसएटुडे.कॉम . २२ जुलाई २007 लिया गया .</रेफ> वर्त्तमान में तेल और प्राकृतिक गैस का भाग अमीरात के राजस्व का ६% से भी कम है। यह अनुमान है कि दुबई २40,००० {बैरल तेल का दैनिक और अपतटीय क्षेत्र से पर्याप्त मात्र में गैस का उत्पादन करता है। संयुक्त अरब अमीरात के गैस के राजस्व में अमीरात का २% का हिस्सा है। दुबई के तेल भंडार काफी कम हो गए है और इनके २0 साल में खत्म होने की उम्मीद हैं . संपत्ति और निर्माण (२२.६%), व्यापर (1६%), माल आगार (१५%) और वित्तीय सेवाएं (११%) दुबई की अर्थव्यवस्था में सबसे बड़ा योगदान देते है।
एक सिटी मेयर के सर्वेक्षण में दुबई को दुनिया के बेहतरीन वित्तीय शहरों में ४४ वें स्थान पर रखा गया था और सिटी मेयर की दूसरी रिपोर्ट में संकेत दिया गया था कि खरीद की क्षमता में दुबई दुनिया के सबसे अमीर शहरों में ३३ वें स्थान पर था। दुबई एक अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय केंद्र भी है और मास्टरकार्ड वर्ल्डवाइड सेंटर्स ऑफ़ कॉमर्स इंडेक्स (मास्टरकार्ड वर्ल्डवाइड सेंटर्स ऑफ कमर्स इंडेक्स) (२००७) के सवेक्षण में शीर्ष ५० वैश्विक वित्तीय शहरों में ३७ वें और मध्य पूर्व में पहले स्थान पर था।
दुबई के पुनः निर्यात स्थलों में ईरान (७९० मिलियन अमेरिकी डॉलर), भारत (२०४ मिलियन अमेरिकी डॉलर) और सऊदी अमेरिका (१९४ मिलियन अमेरिकी डॉलर) शामिल है। अमीरात के शीर्ष आयात स्रोतों में जापान (१.५ अरब अमेरिकी डॉलर), चीन (१.४ अमेरिकी डॉलर) और संयुक्त राज्य अमेरिका (१.४ अरब अमेरिकी डॉलर) शामिल है। 200५ से २००९ तक दुबई और ईरान के बीच व्यापार तीन गुआ होकर १2 अरब अमेरिकी डॉलर हो गया है।
ऐतिहासिक रूप से दुबई और दुबई की खाड़ी के पार इसकी अनुलिपि, डिरा (उस समय दुबई शहर से स्वतंत्र), पश्चिमी निर्माताओं के अवसरों के लिए महत्वपूर्ण बंदरगाह बन गए थे। नए शहर के ज्यादातर बैंकिंग और वित्तीय केंद्रों के मुख्यालय बंदरगाह क्षेत्र में थे। दुबई ने १९७० और १९८० के दशक में एक व्यापार मार्ग के रूप अपने महत्व को बनाए रखा . दुबई में सोने का मुक्त व्यापार होता है और १९९० के दशक तक भारत में सोने के खंड की "तेज तस्करी व्यापार" का केंद्र था जहां सोने का आयात प्रतिबंधित था।
दुबई के जेबेल अली बंदरगाह का निर्माण १९७० के दशक में हुआ दुनिया का सबसे बड़ा मानव निर्मित बंदरगाह है और यह कंटेनर यातायात की मात्रा के इसके समर्थन के लिए दुनिया भर में आठवें स्थान पर था। उद्योग की स्थापना के लिए शहर भर में विशेष मुक्त क्षेत्रों के साथ दुबई साथ ही आईटी और सेवा उद्योग जैसे उद्योगों के एक केन्द्र के रूप में विकसित हो रहा है। दुबई इंटरनेट सिटी, दुबई मीडिया सिटी के साथ टेकॉम का हिस्सा (दुबई प्रौद्योगिकी, वाणिज्य और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया नि: शुल्क जोन प्राधिकरण) के रूप में दुबई मीडिया सिटी के साथ मिलकर एक ऐसी एन्क्लेव जिसके सदस्य ऐसे एमू निगम, ओरैकल कोर्पोरेशन , माइक्रोसॉफ्ट , और आईबीएम , और मीडिया संगठनों के रूप में आईटी कंपनियों में शामिल है जैसे अति पिछड़े वर्गों, सीएनएन, बीबीसी, रॉयटर्स, स्काई समाचार और एपी.
दुबई वित्तीय बाजार (दम) की स्थापना मार्च २००० द्वितीयक बाज़ार के रूप में स्थानीय और विदेशी व्यापारिक प्रतिभूतियों और बांड के व्यापार के लिए हुई थी। २००६ की चौथी तिमाही में, इसका व्यापार लगभग ४०० बिलियन शेयरों का था जिनका कुल मूल्य ९५ अरब अमेरिकी डॉलर था। डीऍफ़एम् (दम) का बाज़ार पूंजीकरण ८७ अरब अमेरिकी डॉलर था।
सरकार के व्यापार आधारित लेकिन तेल निर्भर अर्थव्यवस्था से एक सेवा और पर्यटन उन्मुख अर्थव्यवस्था बनने के निश्चय ने संपत्ति को और अधिक मूल्यवान बना दिया है, जिससे २००४-२००६ से संपत्ति अधिक मूल्यवान हो गई है। दुबई संपत्ति बाजार का लम्बी अवधि के आकलन में मूल्यह्रास दिखा और कुछ संपत्तियों के मूल्य में नवम्बर २००८ में २००१ से ६४ % की गिरावट दिखी . बड़े पैमाने पर अचल संपत्ति विकास परियोजनाओं से दुनिया की सबसे बड़ी गगनचुंबी इमारतों और विश्व की सबसे बड़ी परियोजनाओं जैसे अमीरात टावर, बुर्ज खलीफा, पाम द्वीप समूह और दुनिया का दूसरा सबसे लम्बे और सबसे महंगे होटल, बुर्ज अल अरब का निर्माण हुआ .
आर्थिक मंदी के कारण दुबई के संपत्ति बाजार ने २००८/२००९ में बड़ी गिरावट का अनुभव किया। मोहम्मद अल अब्बर, एमार (एमार) के मुख्य कार्यकारी अधिकारी ने दिसम्बर २००८ में अंतरराष्ट्रीय प्रेस को बताया कि एमार पर ७० बिलियन अमरीकी डालर और दुबई राज्य का अतिरिक्त १० बिलियन अमरीकी डालर का ऋण है जबकि उनकी अचल संपत्ति लगभग ३५० बिलियन अमेरिकी डालर है। २००९ की शुरुआत तक वैश्विक आर्थिक स्तिथि और भी ख़राब हो गई थी जिससे संपत्ति मूल्यों, निर्माण और रोजगार पर भारी संकट पड़ा . २००९ फ़रवरी को दुबई का अनुमानित विदेशी ऋण लगभग १०0 बिलियन अमरीकी डालर है जिससे अमीरात के २५०,००० संयुक्त अरब अमीराती नागरिक ४००,००० अमरीकी डालर के विदेश क़र्ज़ के जिम्मेदार है। तथापि, यह ध्यान दिया जाना चाहिए कि इसमें थोड़ा अधिपति कर्ज भी है।
आज, दुबई ने होटल बनाकर और रियल एस्टेट विकसित करके अपनी अर्थव्यवस्था को पर्यटन पर केंद्रित किया है। पोर्ट जेबेल अली, १९७० के दशक में निर्मित, दुनिया में सबसे बड़ा मानव निर्मित बंदरगाह है, लेकिन नए दुबई इंटरनेशनल फाइनेंशियल सेंटर (डीआईएफसी) के साथ आईटी और वित्त जैसे सेवा उद्योगों के लिए एक केंद्र के रूप में भी तेजी से विकसित हो रहा है। एमिरेट्स एयरलाइन की स्थापना १९८५ में सरकार द्वारा की गई थी और यह अभी भी सरकारी स्वामित्व में है; दुबई अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे पर आधारित, इसने २०१५ में ४९.७ मिलियन से अधिक यात्रियों को ढोया।
दुबई में पर्यटन दुबई सरकार के अमीरात में विदेशी पैसे के प्रवाह को बनाए रखने की रणनीति का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। दुबई में पर्यटकों के आकर्षण का आधार मुख्यतः खरीदारी और इसके प्राचीन और आधुनिक आकर्षण हैं .
दुबई दुनिया के प्रमुख पर्यटन स्थलों में से एक है और दुबई में पर्यटन राजस्व का एक प्रमुख स्रोत है। शहर ने २०१६ में रात भर में १४.९ मिलियन आगंतुकों की मेजबानी की। २०१८ में, अंतरराष्ट्रीय आगंतुकों की संख्या के आधार पर दुबई दुनिया का चौथा सबसे अधिक देखा जाने वाला शहर था।
दुबई संयुक्त अरब अमीरात के सात अमीरात में सबसे अधिक आबादी वाला अमीरात है। यह संयुक्त अरब अमीरात के अन्य सदस्यों से अलग है क्योंकि पेट्रोलियम और प्राकृतिक गैस से इसे सकल घरेलू उत्पाद का केवल ६% राजस्व ही मिलता है। अमीरात के राजस्व का बहुमत जेबेल अली मुक्त क्षेत्र (जाफ़्ज़) और अब बढ़ते हुए पर्यटन से आता है .
दुबई में एक महत्वपूर्ण पर्यटक आकर्षण बुर्ज खलीफा है, जो वर्तमान में पृथ्वी की सबसे ऊंची इमारत है। हालांकि, सऊदी अरब के जेद्दा में जेद्दा टॉवर लंबा होने का लक्ष्य लेकर चल रहा है। दुबई को "मध्य पूर्व की खरीदारी राजधानी" कहा गया है। क्यूँकि अकेले दुबई में ७० से अधिक शॉपिंग सेंटर हैं, जिसमें दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा शॉपिंग सेंटर, दुबई मॉल भी शामिल है। दुबई अपनी खाड़ी के दोनों ओर स्थित ऐतिहासिक सूक जिलों के लिए भी जाना जाता है।
दुबई क्रीक में दुबई क्रीक पार्क भी दुबई पर्यटन में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है क्योंकि यह दुबई के कुछ सबसे प्रसिद्ध पर्यटक आकर्षणों जैसे डॉल्फिनारियम, केबल कार, कैमल राइड, हॉर्स कैरिज और एक्सोटिक बर्ड शो को प्रदर्शित करता है।
दुबई में सफा पार्क, मुश्रीफ पार्क, हमरिया पार्क आदि जैसे पार्कों की एक विस्तृत श्रृंखला है। प्रत्येक पार्क दूसरे से विशिष्ट रूप से अलग है। मुशरिफ पार्क दुनिया भर के विभिन्न घरों को प्रदर्शित करता है। एक आगंतुक प्रत्येक घर के बाहर और साथ ही अंदर की स्थापत्य सुविधाओं की जांच कर सकता है।
दुबई में सबसे लोकप्रिय समुद्र तटों में से कुछ उम्म सुकीम बीच, अल ममज़ार बीच पार्क, जेबीआर ओपन बीच, काइट बीच, ब्लैक पैलेस बीच और रॉयल आइलैंड बीच क्लब हैं। मास्टरकार्ड के ग्लोबल डेस्टिनेशन सिटीज इंडेक्स २०१९ में पाया गया कि पर्यटक दुबई में किसी भी अन्य देश की तुलना में अधिक खर्च करते हैं। २०१८ में, देश ३०.८२ बिलियन डॉलर के कुल खर्च के साथ लगातार चौथे वर्ष सूची में शीर्ष पर रहा। प्रति दिन औसत खर्च $५५३ पाया गया।
दुबई में घूमने लायक प्रमुख जगहें
यह शहर अपने बंदरगाहों, समुद्र तटों, गगनचुंबी इमारतों के लिए जाना जाता है और यह दुनिया का लोकप्रिय पर्यटन स्थल बन गया है। दुबई पर्यटन जीवंत नाइटलाइफ़, सुंदर परिदृश्य, गगनचुंबी इमारतों और रेगिस्तानी सफारी के बारे में है। दुबई में घूमने के लिए शीर्ष स्थान दुबई मॉल, दुबई फाउंटेन, बुर्ज खलीफा, दुबई फ्रेम, डेजर्ट सफारी, पाम आइलैंड्स, ग्लोबल विलेज, मिरेकल गार्डन और कई अन्य हैं।
दुबई को मध्य पूर्व की 'खरीदारी की राजधानी" और साथ ही दुनिया की खरीदारी स्वर्ग का स्वर्ग बुलाया गया है। अकेले दुबई में ७० से अधिक शॉपिंग मॉल है और दुनिया का सबसे बड़ा शॉपिंग मॉल दुबई मॉल भी यहीं है। यह शहर इस क्षेत्र के देशों से में खरीदारी करने वाले पर्यटकों को बड़ी संख्या में आकर्षित करता है और साथ ही दूर के देशों पूर्वी यूरोप, अफ्रीका और भारतीय उपमहाद्वीप के खरीदारों को भी आकर्षित करता है। दुबई अपनी सूक (सूक) जिलों के लिए जाना जाता है। सूक एक अरबी शब्द है जिसका मतलब बाज़ार या ऐसी जगह है जहां पर माल लाया या लेन देन किया जाता है। परंपरागत रूप से, सुदूर पूर्व, चीन, श्रीलंका और भारत से आये जहाज अपने माल का सौदा निकट के सूक (बाज़ार) में करते थे। दुबई की सबसे वातावरण खरीदारी सूक में होती है जो खाड़ी के दोनों ओर है और वहां काफी सौदेबाजी होती है।
आधुनिक शॉपिंग मॉल और बुटीक भी शहर में पाए जाते हैं . दुबई ड्यूटी मुक्त जो दुबई अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे में है नि:शुल्क बहुराष्ट्रीय यात्री जो दुबई अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे का इस्तेमाल करते है, उनको अनेक उत्पाद प्रदान करता है।
हालाँकि बुटीक, कुछ इलेक्ट्रॉनिक सामान की दुकानें, डिपार्टमेंट स्टोर और सुपरमार्केट एक निश्चित मूल्य के आधार पर काम करते हैं, अधिकांश अन्य दुकानें दोस्ताना मोल भाव को जीवन का एक तरीका मानती हैं .
दुबई के अनेक शॉपिंग केन्द्रों हर उपभोक्ता की जरूरत को पूरा करते है। कार, कपड़े, गहने, इलेक्ट्रॉनिक्स, सजाने का सामान, खेल के उपकरण और अन्य सामान सभी एक ही छत के नीचे होने की संभावना है।
दुबई में विभिन्न स्थापत्य शैली के अनेक भवन और संरचाएं है।
आधुनिक इस्लामी स्थापत्य को हाल ही में एक नए स्तर पर ले जाया गया है जिसमे ऐसी इमारतों जैसे बुर्ज खलीफा के रूप में वर्तमान में दुनिया का सबसे बड़ा निर्माण . बुर्ज खलीफा का डिजाइन इस्लामी स्थापत्य कला में सन्निहित आकृति प्रणाली से बनाया गया है। बिल्डिंग के तीन भाग पदचिन्ह एक रेगिस्तानी फूल हय्मानोकालिस जो दुबई क्षेत्र में होता है, के सार पर आधारित है। अरब समाज में वास्तुकला वृद्धि से कई इस्लामी स्थापत्य की आधुनिक व्याख्या दुबई में देखी जा सकती है।
दुबई में अनेक मनोरंजन पार्क और उद्यान है। दुबई में मशहूर मनोरंजन पार्क के कुछ हैं जुमेरह बीच पार्क, दुबई क्रीकसाइड पार्क, मुशरिफ पार्क, अल ममज़र पार्क और सफा पार्क . इसके अलावा अनेक छोटे पार्क और विरासत के गांव भी हैं दुबई में .
दुबई की नगर पालिका की सामरिक योजना २००७-२०११, २०११ तक प्रति व्यक्ति हरित क्षेत्र २३.४ वर्ग मीटर तक और दुबई के शहरी क्षेत्रों में खेती ३.१५% तक बढ़ाना चाहती है। नगर पालिका ने एक हरियाली परियोजना शुरू की है जो चार चरणों में पूरी की जाएगी जिसमे प्रत्येक चरण में १०,००० पौधे लगाये जायेंगे .
प्रसिद्ध उद्यानों में शामिल हैं:
दुबई क्रीक पार्क
क्रीकसाइड पार्क, बुर दुबई
सफा पार्क, शेख जायद रोड
जुमेरह बीच पार्क, जुमेरह बीच रोड
वाइल्ड वाडी वाटर पार्क, जुमेरह बीच रोड
ज़बील पार्क, शेख जायद रोड
चिल्ड्रेन्स सिटी, बुर दुबई
जुमेरह बीच ओपन पार्क, जुमेरह बीच
अल मुम्ज़र बीच पार्क, डिरा, दुबई
वंडरलैंड पार्क, वंडरलैंड पार्क
मुशरिफ पार्क, डिरा, दुबई
दुबई में परिवहन सड़क और परिवहन प्राधिकरण द्वारा नियंत्रित है। सार्वजनिक परिवहन नेटवर्क में भारी भीड़ और विश्वसनीयता की मुश्किलें हैं जिनको एक बड़े निवेश कार्यक्रम द्वारा सुधारने के प्रयास किये जा रहे है जिसमे एड७० अरब का सुधार योजना २०२० तक पूरा होने की उम्मीद है जब शहर की जनसँख्या ३५ लाख से अधिक होने का अनुमान है। २००९ में, दुबई नगर पालिका आँकड़ों के अनुसार, दुबई में अनुमानित कारों की संख्या १,02१,८८० थी। 20१0 जनवरी में, दुबई में सार्वजनिक परिवहन प्रयोग ६% निवासियों ने किया था। .
सरकार ने दुबई की सड़क अवसंरचना में भारी निवेश किया है, हालांकि यह वाहनों की संख्या में वृद्धि के साथ प्रगति नहीं का सका है। इसने प्रेरित यातायात रूप के साथ मिलकर भीड़ की समस्याओं को बढ़ाया है।
दुबई में दो प्रमुख वाणिज्यिक बंदरगाह, पोर्ट रशीद और पोर्ट जेबेल अली हैं . पोर्ट जेबेल अली दुनिया में ७ वां सबसे व्यस्त बंदरगाह है। जेबेल अली दुनिया का सबसे बड़ा मानव निर्मित बंदरगाह और मध्य पूर्व का सबसे बड़ा बंदरगाह है।
दुबई अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डा (इयाता: द्क्स्ब), अमीरात एयरलाइन का केंद्र, दुबई और देश के अन्य अमीरात को सेवा प्रदान करता है। २००८ में हवाई अड्डे को ३.७ करोड़ यात्रियों ने उपयोग किया और १.८ मिलियन टन से अधिक माल को संभाला . २००८ में दुबई अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डा दुनिया का २० वां सबसे व्यस्त हवाई अड्डा था और ३5 मिलियन से अधिक अंतरराष्ट्रीय यात्रियों के साथ, दुनिया का छठा व्यस्ततम अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डा है, अंतर्राष्ट्रीय यात्री यातायात के मामले में . एक महत्वपूर्ण यात्री यातायात केंद्र होने के अलावा, यह हवाई अड्डा दुनिया में सबसे व्यस्त माल हवाई अड्डे में से एक है, २००८ में १.८2४ करोड़ टन माल का प्रबंध किया और यह दुनिया में सबसे व्यस्त हवाई अड्डों की सूची में ११ वें स्थान पर था, २०0७ से माल यातायात में ९.४% की वृद्धि रही . अमीरात एयरलाइन दुबई की राष्ट्रीय विमान सेवा है और छह महाद्वीपों के 6१ देशों में १0१ स्थानों के लिए अंतरराष्ट्रीय स्तर पर चलती है।
अल मकतौम अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे का विकास, जो अभी जेबेल अली में निर्माण के अंतर्गत है, की घोषणा २००४ में की गई थी। पहले चरण का कार्य २०१० तक पूरा होने की उम्मीद है और एक बार परिचालन के बाद नए हवाई अड्डे पर अनेक विदेशी एयरलाइंस और अमीरात के एक विशेष टर्मिनल की मेजबानी करेगा .
दुबई में सार्वजनिक बस परिवहन प्रणाली सड़क और परिवहन प्राधिकरण (रता) द्वारा चलाई जाती है। २००८ में बस प्रणाली ने १४० मार्गों पर १०९.५ लाख लोगों को सेवा प्रदान की . २०१० के अंत तक, वहाँ २,१०० बसें शहर भर में सेवा प्रदान करेंगी . परिवहन प्राधिकरण ने ५00 वातानुकूलित ए / सी) यात्री बस स्टॉपों के निर्माण की घोषणा की है और पूरे संयुक्त अरब अमीरात में १,००० और ऐसे बस स्टॉपों को बनाने की योजना है जिससे सार्वजनिक बसों के प्रयोग को बढ़ावा मिलेगा .
एक ३.८९ अरब डॉलर दुबई मेट्रो परियोजना अमीरात के लिए निर्मित की जा रही . मेट्रो प्रणाली २००९ सितम्बर से आंशिक रूप से लागू की गई थी और २०१२ तक पूरी तरह से लागू हो गई थी . ब्रिटेन आधारित अंतरराष्ट्रीय सेवा कंपनी सरको मेट्रो संचालन के लिए जिम्मेदार है। मेट्रो में चार लाइनें होंगी: ग्रीन लाइन अल रशीदिया से मुख्या नगर केद्र तक और रेड लाइन हवाई अड्डे से जेबेल अली तक . इसमें ब्लू लाइन और पर्पल लाइन भी है। दुबई मेट्रो (ग्रीन और ब्लू लाइन) का ७० किलोमीटर का ट्रैक होगा और 4३ स्टेशन होंगे जिनमे, ३7 जमीन के ऊपर और १० स्टेशन जमीन के नीचे होंगे . दुबई मेट्रो अरब प्रायद्वीप में पहली शहरी रेल नेटवर्क है। सभी ट्रेन और स्टेशन वातानुकूलित होंगे जिनमे मंच बढ़त दरवाजे लगे होंगे जिससे यह संभव होगा .
पाम जुमेरह मोनोरेल
पाम जुमेरह पर एक मोनोरेल २००९ में खोला गया . यह क्षेत्र में बनाई गई पहली मोनोरेल है।
दुबई में दो ट्राम सिस्टम २०११ तक निर्मित होने की उम्मीद है। पहली व्यावसायिक बुर्ज खलीफा ट्राम प्रणाली और दूसरी अल सुफौह ट्राम है। व्यावसायिक बुर्ज खलीफा ट्राम प्रणाली एक ४.६क्म की ट्राम सेवा है जो बुर्ज खलीफा के आसपास के क्षेत्र में सेवा प्रदान करेगी और दूसरी ट्राम अल सुफौह रोड के साथ दुबई मरीना से बुर्ज अल अरब और अमीरात के मॉल तक 1४.५क्म चलेगी .
नाव और टैक्सियाँ
बर दुबई से डिरा जाने के लिए परंपरागत तरीकों में से एक है अब्रास के माध्यम से जाना, छोटी नावें जो यात्रियों को दुबई क्रीक, अब्रास स्टेशन बस्ताकिया और बनियास रोड के बीच ले जाती है। समुद्री परिवहन एजेंसी, दुबई जल बस प्रणाली को लागू करने की प्रक्रिया में है। परिवहन की यह विधा पुरानी पड़ चुकी है।
दुबई में एक व्यापक टैक्सी प्रणाली भी है, अमीरात में सार्वजनिक परिवहन का सबसे ज्यादा इस्तेमाल किये जाने वाला माध्यम है। इसमें सरकार चालित और निजी टैक्सी कम्पनियां दोनों शामिल है। लगभग ७,५०० टैक्सियाँ अमीरात के अन्दर चलती है।
दुबई की स्वच्छता में अपशिष्ट और मल प्रबंधन की संरचना की योजना और प्रबंधन शामिल है। दुबई की तेजी से वृद्धि का मतलब है कि वह अपने सीमित सीवेज उपचार संरचना को उसकी परम सीमा तक खींच रहा है। वर्तमान में दुबई में १३ लाख निवासियों से रोज़ मानव अपशिष्ट शहर भर में उपस्थित हजारों सेप्टिक टैंक से एकत्र किया जाता है और टैंकरों द्वारा शहर के एकमात्र सीवेज उपचार संयंत्र जो अल-अवीर में है, ले जाया जाता है। लंबी कतारों और देरी की वजह से, कुछ टैंकर चालक अवैध रूप से इसे तूफान के प्रवाह में या रेगिस्तान में टीले के पीछे फेक देते है। सीवेज के तूफ़ान में फेके जाने से यह सीधे फारस की खाड़ी में चला जाता है जो शहर के मुख्य तैरने वाला समुद्र तट के पास है। डॉक्टरों ने चेतावनी दी है कि समुद्र तट का उपयोग पर्यटकों को टाइफाइड और हेपेटाइटिस जैसी गंभीर बीमारियाँ हो सकती हैं .
दुबई की नगरपालिका का कहना है कि वह अपराधियों को पकड़ने की कोशिश करने के लिए प्रतिबद्ध है और जुर्माने के रूप में २५,००० डॉलर और डंपिंग टैंकर को जब्त करने के कदम का प्रयोग करेगी . नगरपालिका का कहना है कि पानी के नमूने के परिक्षण अनुसार पानी 'मानक' के भीतर है।
२००५ में, महानगरीय दुबई की जनसंख्या का ८४% लोग विदेशी जन्म के थे जिसमे लगभग आधे भारत से थे। शहर का छोटा, समजातीय मोती समुदाय अन्य जातीय समूहों और नागरिकों के आगमन के साथ बदल गया था - पहले १९०० के शुरू में ईरानियों के आगमन से और बाद में भारतीयों और पाकिस्तानियों के १९६० के दशक में आगमन से . दुबई में वर्ग पर आधारित समाज को बनाए रखने के लिए आलोचना की गई है जहां प्रवासी श्रमिक निचले वर्ग में हैं .
दुबई में मुख्य छुट्टियों इद अल फ़ित्र, जो रमजान के अंत को संकेत करता है और राष्ट्रीय दिवस (दिसम्बर २) है, जो संयुक्त अरब अमीरात के गठन को संकेत करता हैं . वार्षिक मनोरंजन कार्यक्रम ऐसे दुबई शॉपिंग फेस्टिवल (डस्फ) और दुबई ग्रीष्मकालीन आश्चर्य (दस) के रूप में विभिन्न क्षेत्र ों से ४ मिलियन से अधिक पर्यटकों को आकर्षित करने और एक अरब अमेरिकी डॉलर का राजस्व उत्पन्न करते हैं . शहर के बड़े शॉपिंग मॉल जैसे डिरा सिटी सेंटर, बुरजुमन, माल ऑफ़ अमीरात, दुबई मॉल और इब्न बतूता मॉल साथ ही पारंपरिक बाज़ार क्षेत्र से ग्राहकों को आकर्षित करते है।
अरबी खाना बहुत लोकप्रिय है और शहर में हर जगह उपलब्ध है, डिरा और अल करमा के छोटे शावार्मा से लेकर दुबई के होटलों के रेस्तरां तक . फास्ट फूड, दक्षिण एशियाई, चीनी व्यंजन भी बहुत लोकप्रिय हैं और व्यापक रूप से उपलब्ध है। सुअर का मांस की बिक्री और खपत हालांकि गैर कानूनी नहीं है, नियंत्रित है और केवल गैर मुस्लिमों को निर्दिष्ट क्षेत्रों में बेचा जाता है। इसी प्रकार, मादक पेय पदार्थों की बिक्री को भी नियंत्रित किया जाता है। शराब खरीदने के लिए अनुमति (शराब परिमट) की आवश्यकता होती है, हालांकि, शराब होटल के भीतर बार और रेस्तरां में उपलब्ध है। शीशा और काहवा बुटीक भी दुबई में लोकप्रिय हैं .
हॉलीवुड और बॉलीवुड फिल्में दुबई में लोकप्रिय हैं . शहर वार्षिक दुबई अंतर्राष्ट्रीय फिल्म समारोह का आयोजन करता है, जो अरब और अंतरराष्ट्रीय सिनेमा से मशहूर हस्तियों को आकर्षित करता है। संगीतकार, डायना हद्दाद, तरकन, एरोस्मिथ, संताना, मार्क क्नोप्फ्लेर, एल्टन जॉन, पिंक, शकीरा, सेलिं डायोन, कोल्ड प्ले, कीन और फिल कोलिन्स ने शहर में प्रदर्शन किया है। कायली मिनोग से ४.४ मिलियन डॉलर के भुगतान पर २० नवम्बर २०08 को अटलांटिस रिसॉर्ट के उद्घाटन के अवसर पर प्रदह्शन कराया गया था। द दुबई डेजर्ट रॉक समारोह भी एक बड़ा कार्यक्रम है जिसमे हेवी मेटल और रॉक कलाकारों शामिल होते है।
फुटबॉल और क्रिकेट दुबई में सबसे लोकप्रिय खेल है। पांच टीमों - अल वस्ल, अल शबाब, अल अहली, अल नस्र और हट्टा - संयुक्त अरब अमीरात लीग फुटबाल में दुबई का प्रतिनिधित्व करती है। मौजूदा चैंपियन अल वस्ल की संयुक्त अरब अमीरात लीग में चैंपियनशिप के दूसरे सबसे अधिक संख्या है, अल ऐन के बाद . अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट परिषद (आईसीसी) क्रिकेट दुबई बड़ी दक्षिण एशियाई समुदाय और २००५ में की गई है, दुबई के लिए लंदन से अपने मुख्यालय भेजा गया है। शहर में कई भारत का आयोजन किया गया है - पाकिस्तान मैच और दो नई घास के मैदान दुबई स्पोर्ट्स सिटी में विकसित किया जा रहा है। दुबई में भी मेजबान दोनों वार्षिक दुबई टेनिस चैंपियनशिप और महापुरूष रॉक दुबई टेनिस टूर्नामेंट, साथ ही साथ दुबई डेजर्ट क्लासिक गोल्फ टूर्नामेंट, जिनमें से सब दुनिया भर से खेल सितारों को आकर्षित. दुबई विश्व कप, एक कुलीन घुड़ दौड़, सालाना नाद अल शबा रेस कोर्स में आयोजित की जाती है।
दुबई दिखावटी छवि के बावजूद, सेंसरशिप दुबई में आम है और सरकार द्वारा उपयोग के लिए सामग्री है कि यह एमिरातीस के सांस्कृतिक और राजनीतिक संवेदनशीलता का मानना है कि नियंत्रण का उल्लंघन करती है। समलैंगिकता, ड्रग्स और विकास के सिद्धांत को आम तौर पर वर्जित माना जाता हैं .[९६]
दुबई की रात्री जीवन के लिए जाना जाता है। क्लब और बार ज्यादातर शराब कानूनों की वजह से होटल में पाए जाते हैं . द न्यूयॉर्क टाइम्स ने २००८ में अपनी पार्टी के लिए यात्रा के विकल्प की सूची में दुबई को सूचीबद्ध किया था .
दुबई में स्कूल प्रणाली संयुक्त अरब अमीरात की प्रणाली से अलग नहीं है। २००६ में, वहाँ ८८ सार्वजनिक स्कूल है जो शिक्षा मंत्रालय द्वारा संचालित है जो अमीराती लोगों और प्रवासी लोगों को सेवा प्रदान करते है और साथ ही १३२ निजी स्कूल भी है। सार्वजानिक स्कूलों में शिक्षा का माध्यम अरबी भाषा है और दूसरी भाषा के रूप में अंग्रेजी पर जोर है जबकि अधिकांश निजी स्कूलों में अंग्रेजी को शिक्षा के माध्यम के रूप में प्रयोग किया जाता है। अधिकांश निजी स्कूलों में एक या उससे अधिक प्रवासी समुदायों को प्रदान करती हैं . द न्यू इंडियन मॉडल स्कूल, दुबई (न.म्स), डेल्ही प्राइवेट स्कूल, अवर ओन इंग्लिश हाई स्कूल, द दुबई मॉडर्न हाई स्कूल और द इंडियन हाई स्कूल, दुबई या तो सीबीएसई (क्बसे) या आईसीएसई (.कसे) भारतीय पाठ्यक्रम प्रदान करते है। इसी तरह, वहाँ कई सम्मानित पाकिस्तानी स्कूल भी है जो प्रवासी बच्चों को फ़्ब.से पाठ्यक्रम प्रदान करते है। दुबई इंग्लिश स्पीकिंग स्कूल, जुमेरह प्राइमरी स्कूल, जेबेल अली प्राइमरी स्कूल, कैम्ब्रिज हाई स्कूल (या कैम्ब्रिज इंटरनेशनल स्कूल), जुमेरह इंग्लिश स्पीकिंग स्कूल, किंग्स स्कूल और द होराइज़न स्कूल सब ग्यारह वर्ष की आयु तक ब्रिटिश प्राथमिक शिक्षा प्रदान करते हैं . दुबई ब्रिटिश स्कूल, दुबई कॉलेज, इंग्लिश कॉलेज दुबई ब्रिटिश स्कूल, इंग्लिश कॉलेज दुबई, जुमेरह इंग्लिश स्पीकिंग स्कूल, जुमेरह कॉलेज और सेंट मैरीज़ कैथोलिक हाई स्कूल सभी ब्रिटिश ग्यारह से अठारह माध्यमिक विद्यालय हैं जो जीसीएसई (गैसे) और ए-लेवलस (आ-लेवल्स) प्रदान करते है। अमीरात इंटरनेशनल स्कूल, कैम्ब्रिज हाई स्कूल के साथ, १८ साल की उम्र तक पूर्ण शिक्षा प्रदान करता है और आईजीसीएसई (इगसे) और ए-लेवेल्स प्रदान करता है। वेलिंगटन इंटरनेशनल स्कूल, जो ४ से १८ के आयु वर्ग के छात्रों को शिखा प्रदान करता है, इगसे और ए लेवेल्स एक स्तर प्रदान करता है। [डिरा इंटरनेशनल स्कूल और दुबई इंटरनेशनल अकादमी भी इगसे कार्यक्रम सहित आईबी प्रदान करते हैं . जुमेरह इंग्लिश स्पीकिंग स्कूल ४ से १८ तक के विद्यार्थी देखते है और १६ तक ब्रिटिश पाठ्यक्रम (जीसीएसई) और अंतरराष्ट्रीय स्तर (आईबी) पाठ्यक्रम प्रदान करते है।
दुबई में कई स्कूल है जो अमेरिकी पाठ्यक्रम प्रदान करते है जैसे दुबई अमेरिकन अकादमी, अमेरिकन स्कूल ऑफ़ दुबई और द यूनिवर्सल अमेरिकन स्कूल ऑफ़ दुबई .
संयुक्त अरब अमीरात का शिक्षा मंत्रालय स्कूल की मान्यता के लिए जिम्मेदार है। दुबई शिक्षा परिषद की स्थापना जुलाई २००५ में दुबई में शिक्षा के क्षेत्र का विकास करने के लिए हुई थी। ज्ञान और मानव विकास प्राधिकरण (खड़ा) की स्थापना २००६ में दुबई का शिक्षा और मानव संसाधन के क्षेत्र में और लाइसेंस शैक्षिक संस्थानों का विकास करने के लिए की गई थी।
जनसंख्या के लगभग १०% भाग के पास विश्वविद्यालय डिग्री या स्नातकोत्तर डिग्री है। कई प्रवासी अपने बच्चों को विश्वविद्यालय की शिक्षा के लिए अपने देश वापस या पश्चिमी देश भेज देते है और प्रौद्योगिकी के अध्ययन के लिए भारत भेज देते है। हालांकि, पिछले १० सालों में एक बड़ी संख्या में शहर में विदेशी मान्यता प्राप्त विश्वविद्यालयों की स्थापना की गई है। इन विश्वविद्यालयों के कुछ हैं मैनचेस्टर बिजनेस स्कूल, मिशीगन स्टेट यूनिवर्सिटी दुबई (म्सू डूबा.) , रोचेस्टर प्रौद्योगिकी दुबई[१०2], बिरला प्रौद्योगिकी एवं विज्ञान संस्थान, पिलानी - दुबई (बिट्स पिलानी), हेरिओट -वाट विश्वविद्यालय दुबई, अमेरिकन यूनिवर्सिटी दुबई (औद), अमेरिकन कॉलेज ऑफ़ दुबई, महात्मा गांधी विश्वविद्यालय (परिसर से दूर सेंटर), इंस्टीट्यूट ऑफ़ मैनेजमेंट टेकनोलोजी -दुबई परिसर, स्प जैन सेण्टर ऑफ़ मैनेजमेंट, यूनिवर्सिटी ऑफ़ वॉलोन्गॉन्ग और एम्एएचई मणिपाल शामिल हैं . २००४ में दुबई स्कूल ऑफ़ गवेर्न्मेंट ने हार्वर्ड यूनिवर्सिटी के सहयोग से जॉन ऍफ़ केनेडी स्कूल ऑफ़ गवेर्मेंट और हार्वर्ड मेडिकल स्कूल दुबई सेण्टर (हम्सक) की दुबई में स्थापना की .
दुबई सार्वजनिक पुस्तकालय दुबई का सार्वजनिक पुस्तकालय है।
दुबई में सुस्थापित प्रिंट, रेडियो, टीवी और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया है जो शहर की सेवा करता है। दुबई अरब रेडियो नेटवर्क का आवास है, जो आठ ऍफ़ एम् रेडियो स्टेशनों का प्रसारण करता है जिसमे मध्य पूर्व में पहला बात करने वाला रेडियो स्टेशन भी शामिल है, दुबई आई १०३.८ | कई अंतरराष्ट्रीय चैनेल केबल के माध्यम से उपलब्ध है, जबकि उपग्रह, रेडियो और स्थानीय चैनल अरेबियन रेडियो नेटवर्क और दुबई मीडिया इन्कोर्पोरेटेड सिस्टम द्वारा प्रदान किये जाते है। कई अंतरराष्ट्रीय समाचार एजेंसियां जैसे रॉयटर्स, एपीटीएन, ब्लूमबर्ग एल.पी. और मिडिल ईस्ट ब्रॉडकास्टिंग सेंटर (एमबीसी) दुबई मीडिया सिटी और दुबई इंटरनेट सिटी में काम करती हैं। इसके अतिरिक्त, कई स्थानीय नेटवर्क टेलीविजन चैनेल जैसे दुबई वन (पूर्व चैनल ३३) और दुबई टीवी (पूर्व ईडीटीवी) अंग्रेजी और अरबी में क्रमशः कार्यक्रम प्रदान करते हैं . दुबई आधारित एफ़एम स्टेशन जैसे दुबई एफएम (९३.९), (९2.०) डूबा.९2, अल खालीजिया (1००.९) और हिट एफएम (९6.७) एफएम अंग्रेजी, अरबी और दक्षिण एशियाई भाषाओं में कार्यक्रम प्रदान करते हैं . दुबई कई प्रिंट मीडिया केंद्र का मुख्यालय भी है। दार अल खलीज, अल बयान और अल इत्तिहाद शहर के सबसे बड़े अरबी भाषा के संचारी समाचार पत्र हैं, जबकि गल्फ न्यूज और खलीज टाइम्स सबसे बड़े अंग्रेजी संचारी समाचार पत्र हैं . दुबई ऑनलाइन गतिविधियों और दुनिया में सबसे तेजी से बढ़ रही इंटरनेट समुदाय का बड़ा केंद्र है। फेसबुक और यू ट्यूब दुबई में सबसे लोकप्रिय अंतरराष्ट्रीय वेबसाइट हैं और दुबई में सबसे लोकप्रिय स्थानीय वेबसाइटों में से डुबीजल.कॉम एक है। तोप्फिक्स सभी प्रमुख रखरखाव कंपनियों के बीच वर्तमान में दुबई में सबसे अच्छा रखरखाव कंपनी में से एक है।
२००६ में एटीसलत, सरकारी स्वामित्व वाली दूरसंचार प्रदाता, की दुबई में अन्य दूरसंचार सेवाओं की स्थापना से पहले, छोटी दूरसंचार कंपनियों जैसे अमीरात इंटीग्रेटेड टेलिकम्युनिकेशंस कम्पनी (ए.त्क - डू (दू) नाम से लोकप्रिय) का स्वामित्व था। इंटरनेट को संयुक्त अरब अमीरात (इसलिए दुबई) में १९९५ में पेश किया गया था। मौजूदा नेटवर्क ६ गब की बैंडविड्थ साथ में ५०,००० डायलअप और १५०,००० ब्रॉडबैंड पोर्ट से समर्थित है। दुबई में देश के चार में से दो डीएनएस डेटा सेंटर (द्क्स्ब्न.च१, द्क्स्ब्न.च२) हैं .
इंटरनेट सामग्री दुबई में विनियमित है। एटीसलत इंटरनेट की सामग्री को एक प्रॉक्सी सर्वर के उपयोग से छानता है जिसको देश के मूल्यों के साथ असंगत समझा जाता है, जिसमे प्रॉक्सी को दरकिनार करने, डेटिंग, समलैंगिक नेटवर्क, अश्लील साहित्य, बहाई विश्वास की वेबसाइट, इज़राइल की वेबसाइट और यहां तक संयुक्त अरब अमीरात की आलोचना करने वाली वेबसाइट शामिल है। अमीरात मीडिया और इंटरनेट (एटीसलत की एक इकाई) ने यह देखा कि २००२ में इंटरनेट उपयोगकर्ताओं में ७६% लोग पुरुष थे। इंटरनेट उपयोगकर्ता में ६०% एशियाई और २५% अरब थे। दुबई ने २००२ में एक इलेक्ट्रॉनिक ट्रांजेक्शन और कॉमर्स विधि बने जो डिजिटल हस्ताक्षर और इलेक्ट्रॉनिक रजिस्टर के बारे में था। यह इंटरनेट सेवा प्रदाता (इस्प्स) को सेवा प्रदान करने में मिली जानकारी बताने से प्रतिबंधित करता है। दंड संहिता में भी कुछ प्रावधान हैं, तथापि, साइबर अपराध या डेटा संरक्षण को संबोधित नहीं करता .
अनुलिपि शहर - भगिनी शहर
दुबई के ३२ भगिनी शहर है और ज्यादातर ट्विनिंग समझौते २००२ के बाद किये गए है।
मॉन्टेरी, नुएवो लेओन, मेक्सिको
गोल्ड कोस्ट, क्वींसलैंड, ऑस्ट्रेलिया
हांगकांग, चीनी जनवादी गणराज्य
सान जुआन, पुओर्तो रीको
गुआंगज़ौ, चीनी जनवादी गणराज्य
शंघाई, चीनी जनवादी गणराज्य
कुआला लम्पुर, मलेशिया
कीश द्वीप, ईरान
चेब, चेक गणराज्य
वैंकूवर, ब्रिटिश कोलंबिया, कनाडा
न्यूकैसल अपॉन टाइन, इंग्लैंड, यूनाइटेड किंगडम
डेट्रायट, मिशिगन, संयुक्त राज्य अमेरिका
लॉस एंजिल्स, कैलिफोर्निया, संयुक्त राज्य अमेरिका
न्यूयॉर्क शहर, न्यूयॉर्क, संयुक्त राज्य अमेरिका
फिनिक्स, अरिजोना, संयुक्त राज्य अमेरिका
बुसान, दक्षिण कोरिया
कुवैत सिटी, कुवैत
डंडी, स्कॉटलैंड, यूनाइटेड किंगडम
इन्हें भी देखें
दुबई के मानचित्र
दुबई यात्रा संकुल
दुबई में सबसे बड़ी इमारतों की सूची
हेइको स्च्मिद : सम्मोहन की अर्थव्यवस्था: दुबई और लास वेगास थीम्ड शहरी परिदृश्य, बर्लिन के रूप में, २००९ स्टुटगार्ट, ९७८-३-44३-३7014-५ .सन
जॉन एम. स्मिथ: दुबई द मकतौम स्टोरी, २००७ नोर्देर्स्तेद्त नॉर्डरस्टेड, ३८३३४४६६०९ .सन
वॉ.डूबा..आए - दुबई सरकार की आधिकारिक वेबसाइट
वॉ.डूबा.टूर.स्म.आए - दुबई पर्यटन और वाणिज्य विपणन (डीटीसीएम्) सरकारी वेबसाइट
बुर्ज दुबई - बुर्ज दुबई "एक जीवित अदभुत "
दुबई में संपत्ति खरीदने और बेचने की गाइड - दुबई में संपत्ति खरीदने और बेचने की गाइड (सरकारी वेबसाइट)
फारस की खाड़ी
संयुक्त अरब अमीरात में तटीय बस्तियां
संयुक्त अरब अमीरात के शहर, कस्बे और गाँव
संयुक्त अरब अमीरात के अमीरात |
सेंट्रल इंस्टीटयूट ऑफ साइकियेट्री झारखंड प्रान्त के राँची में काँके स्थित एक प्रमुख मानसिक आरोग्यशाला और शोध संस्थान है। |
लेगोस (लेगॉस, योरुबा: क, एको) पश्चिमी अफ़्रीका के नाइजीरिया देश का सबसे बड़ा शहर है। लेगोस राज्य की सरकार के अनुसार सन् २०१३ में इस शहर की आबादी १ करोड़ ७५ लाख थी। लेकिन लेगोस की केन्द्रीय सरकार और राष्ट्रीय जन्संख्या आयोग के अनुसार ये आंकड़े विवादित हैं। ताज़े आकलन अनुमानित करते हैं कि जनसंख्या २ करोड १ लाख से कम नहीं। इसीलिए लेगोस को अफ़्रीका महाद्वीप का सबसे बड़ा शहर कहा जाता है।
नामार्थ व उच्चारण
"लेगोस" शब्द पुर्तगाली भाषा से उत्पन्न हुआ है और उसका अर्थ "झीलें" है। ध्यान दें कि शहर के नाम का सही उच्चारण "लेगोस" है और "लागोस" ग़लत है।
लेगोस क्षेत्र में सबसे पहले बसने वाला समुदाय आवोरी लोगों का था जो योरुबा समुदाय का एक उपसमूह है। ओलोये ओलोफ़िन के नेतृत्व में आवोरी लोग एक द्वीप पर चले गये जिसे अब इड्डो कहा जाता है। पंद्रहवीं शताब्दी में आवोरी लोगों पर बेनिन साम्राज्य द्वारा वार किया गया, जिसकी वजह से यह द्वीप बेनिन का एक युद्ध-शिविर बन गया था जिसे एको नाम से कहा जाता था। यह ओबा ओर्होग्बा के अधिराज्य में था, जो उस समय के ओबा ऑफ बेनिन था। योरुबा भाषा में आज भी लेगोस को एको ही कहते हैं। "लेगोस" नाम का मतलब है "तालाब" (बहुवचन) है। यह नाम पुर्तगालियों ने दिया था। आज का लेगोस राज्य में आवोरियों की बड़ी बस्ती है। १५वीं शताब्दी में लेगोस राज्य पहली बार पुर्तगालियों के ध्यान में आया। १८६१ में लेगोस ब्रिटेन के कब्ज़े में आ गया और उसे लेगोस कॉलोनी (यानि लेगोस उपनिवेश) कहा जाता था। ब्रिटिश राज से यहाँ का दास-व्यवसाय भंग हो गया और अंग्रेज़ ताड़ तथा दूसरे व्यापार पर भी कब्ज़ा कर पाए। १९१४ में लेगोस नाइजीरिया की राजधनी बना दी गई। अंग्रेज़ों से आज़दी पाने के बाद भी यह राजधानी बना रहा। १९९१ में लेगोस से राजधानी का पद छीन लिया गया। उसी समय अबुजा शहर में संघीय राजधानी क्षेत्र स्थापित किया गया था। १४ नवम्बर १९९१ को राष्ट्रपती पद और दूसरे संघीय सरकारी कार्य नई राजधानी अबुजा में स्थानांतरित किये गए थे।
लेगोस मुख्य भूमि
ज़्यादातर आबादी मुख्य भूमि पर ही रहते हैं। यहाँ के ज़्यादतर उद्योग भी यहीं पर स्थित हैं। लेगोस अपने संगीत और नाइट्लाइफ के लिये प्रसिद्ध है, जो ज़्यादतर याबा तथा सुरुलेरे में बसा हुआ करता था। हाल ही में द्वीप पर काफी नाइटक्लब् आ गए हैं। इस्से द्वीप, खासकर विक्टोरिय द्वीप, मुख्य नाइट्लाइफ आकर्षण बन गए हैं। लेगोस के मुख्य भूमी के जिलें हैं एबूटे-मेटा, सुरुलेरे, याबा (लेगोस बिश्वविद्यालय का स्थान) और इकेजा (मुर्तला मुहम्मद अन्तर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे का स्थान और लेगोस राज्य की राजधानी)।
ग्रेटर लेगोस के जगहें हैं मुशिन, मेरीलैन्ड, सोमोलू, ओशोदी, ओवोरोंसोकी, इसोलो, इकोतुन, अगेगे, इजू एशागा, एग्बेदा, केतू, बरिगा, इपाजा, अजाह तथा एजिग्बो।
लेगोस शहर दक्षिण-पश्चिमी नाइजीरिया का मुख्य शहर है। यहाँ के दो प्रमुख शहरी द्वीप लेगोस द्वीप तथा विक्टोरिया द्वीप हैं।
लेगोस के द्वीप
लेगोस द्वीप में एक केंद्रीय व्यापार ज़िला है। यहाँ लेगोस की सबसे बडी गगनचुंबी इमारतें तथा बाज़ार हैं। इस द्वीप के अन्य आकर्षण हैं नाइजीरिया का राष्ट्रीय संग्रहालय, केंद्रीय मस्जिद, ग्लोवर मेमोरियल हॉल, मसीह च्रर्च कथेड्रल और ओबा महल।
इकोयी लेगोस द्वीप के पूर्वी आधे पर है और एक गढगे के द्वारा उससे जोड दिया गया है। इकोयी एक पुल द्वारा विक्टोरिया द्वीप से भी जुडा है। यह पुल फाइव कौरी क्रीक पार करती है।
विक्टोरिया द्वीप लेगोस द्वीप के ठीक दक्षिण में स्थित है। यहाँ के समुद्र तट पर प्रसिद्ध बार बीच है।
ईको अतलान्तिक एक नियोजित जिला है।
इड्डो एक रेल टर्मिनस है जो अब एक प्रायद्वीप की तरह मुख्य भूमि से जोड़ा गया है।
अफ़्रीका की बंदरगाहें
नाइजीरिया के शहर
अफ़्रीका के आबाद स्थान
अफ़्रीका में बंदरगाह नगर |
दिल्ली मेट्रो भारत की राजधानी दिल्ली- एनसीआर की मेट्रो परिवहन व्यवस्था है जो दिल्ली मेट्रो रेल निगम लिमिटेड द्वारा संचालित है। इसका शुभारंभ २४ दिसंबर, २००२ को शहादरा तीस हजारी लाईन से हुई। इस परिवहन व्यवस्था की अधिकतम गति ८०किमी/घंटा (५०मील/घंटा) रखी गयी है और यह हर स्टेशन पर लगभग २० सेकेंड रुकती है। सभी ट्रेनों का निर्माण दक्षिण कोरिया की कंपनी रोटेम (रोटेम) द्वारा किया गया है। दिल्ली की परिवहन व्यवस्था में मेट्रो एक महत्वपूर्ण कड़ी है। इससे पहले परिवहन का ज्यादतर बोझ सड़क पर था। प्रारंभिक अवस्था में इसकी योजना छह मार्गों पर चलने की थी जो दिल्ली के ज्यादातर हिस्से को जोड़ते थे। इस प्रारंभिक चरण को २००६ में पूरा किय़ा गया। बाद में इसका विस्तार राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र से सटे शहरों गाजियाबाद, फरीदाबाद, गुड़गाँव और नोएडा तक किया गया। इस परिवहन व्यवस्था की सफलता से प्रभावित होकर भारत के दूसरे राज्यों जैसे उत्तर प्रदेश, राजस्थान, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश एवं महाराष्ट्र में भी इसे चलाने की योजनाएं बन रही हैं। दिल्ली मेट्रो व्यव्स्था अपने शुरुआती दौर से ही इसो १४००१ प्रमाण-पत्र अर्जित करने में सफल रही है जो सुरक्षा और पर्यावरण की दृष्टि से काफी महत्वपूर्ण है।
दिल्ली मेट्रो भारत में सबसे बड़ा और व्यस्ततम मेट्रो है, और दुनिया की ९वीं सबसे लंबी मेट्रो प्रणाली लंबी अवधि में और १६ वीं सबसे बड़ी सवारी में है। कॉमेट के एक सदस्य, नेटवर्क में आठ रंग-कोडित नियमित रेखाएं होती हैं, जिसमें कुल लंबाई है जो २२९ स्टेशनों (६ स्टेशन सहित एयरपोर्ट एक्सप्रेस लाइन और इंटरचेंज स्टेशनों ) की सेवा करती है। इस प्रणाली में ब्रॉड-गेज और मानक-गेज दोनों का उपयोग करके भूमिगत, एट-ग्रेड और उन्नत स्टेशनों का मिश्रण है। पावर आउटपुट २५ किलोवाल्ट, ५०-हर्ट्ज वैकल्पिक ओवरहेड कैटेनरी के माध्यम से वैकल्पिक रूप से आपूर्ति की जाती है। ट्रेन आमतौर पर छह और आठ कोच लंबाई होती है। डीएमआरसी प्रतिदिन २,७०० से अधिक यात्राएं संचालित करती है, पहली ट्रेनें लगभग ०५:०० बजे शुरू होती हैं और आखिरी बार २3:३० बजे होती हैं। २०१६-१७ के वित्तीय वर्ष में, दिल्ली मेट्रो में २.7६ मिलियन यात्रियों की औसत दैनिक सवारता थी और वर्ष के दौरान कुल मिलाकर १०० करोड़ (१.० अरब) सवार थे।
सितंबर २०११ में संयुक्त राष्ट्र ने "स्वच्छ विकास तंत्र" योजना के तहत हरित गृह गैसों में कमी लाने के लिए दिल्ली मेट्रो को दुनिया का पहला "कार्बन क्रेडिट" दिया जिसके अंतर्गत उसे सात सालों के लिए ९५ लाख डॉलर मिलेंगे।
भारत सरकार और दिल्ली सरकार ने संयुक्त रूप से ३ मई १९९५ को दिल्ली मेट्रो रेल कॉर्पोरेशन (डमर्क) नामक एक कंपनी की स्थापना की, जिसमें ई श्रीधरन को प्रबंध निदेशक के रूप में रखा गया था। डॉ. ई श्रीधरन ने ३1 दिसंबर २०११ को मंगू सिंह को डमर्क के प्रबंध निदेशक के रूप में कार्यभार सौंपा। इस रेल व्यवस्था के प्रमच रण (फेज ई) में मार्ग की कुल लंबाई लगभग ६५.११ किमी है जिसमे १३ किमी भूमिगत एवं ५२ किलोमीटर एलीवेटेड मार्ग है।
द्वितीय चरण (फेज ई) के अंतर्गत पूरे मार्ग की लंबाई १२८ किमी होगी एवं इसमें ७९ स्टेशन होंगे जो अभी निर्माणाधीन हैं, इस चरण के २०१० तक पूरा करने का लक्ष्य रखा गया है।
तृतीय चरण (फेज ई) (११२ किमी) एवं इव (१०८.५ किमी) लंबाई की बनाये जाने का प्रस्ताव है जिसे क्रमश: २०१५ एवं २०२० तक पूरा किये जाने की योजना है। इन चारों चरणो का निर्माण कार्य पूरा हो जाने के पश्चात दिल्ली मेट्रो के मार्ग की कुल लंबाई ४१३.८ किलोमीटर की हो जाएगी जो लंदन के मेट्रो (४०८ किमी) से भी बडा बना देगी। दिल्ली के २०२१ मास्टर प्लान के अनुसार बाद में मेट्रो को दिल्ली के उपनगरों तक ले जाए जाने की भी योजना है।
वर्तमान मार्ग (फ़ेज़-ई)
जनवरी २०१८ तक की स्थिति के अनुसार जिसमें फेज तीन के एक्स्टेंशन भी शामिल हैं:
कुल लंबाई = २०९ किमी
फेज ई के मार्ग
द्वितीय चरण (फेज ई) के अंतर्गत पूरे मार्ग की लंबाई १२८ किमी होगी एवं इसमें ७९ स्टेशन होंगे जो अभी निर्माणाधीन हैं, इस चरण के २०१० तक पूरा करने का लक्ष्य रखा गया है।
इस फेज के २०१५ में पूरा होने का लक्ष्य रखा गया है जिसमे कई लाईनों के विस्तार शामिल हैं :-
१. मुकुंदपुर - आजादपुर - राजौरी गार्डन - एम्स - सराय काले खां = ३१ किमी
२. केन्द्रीय सचिवालय - मंडी हाउस - दरियागंज - वेल्कम - गोकुलपुरी - नवादा (गाजियाबाद) = १८ किमी
३. रिठाला - बरावला = ६ किमी
४. दिलशाद गार्डन - गाजियाबाद इसप्ट = ९.५ किमी
५. एयरपोर्ट लिंक - सुशांत लोक (गुडगांव) = १६.५ किमी
६. मुंडका - दिल्ली बार्डर - बहादुरगढ = ११ किमी
७. बदरपुर - वाईएमसीए चौक, फरीदाबाद = १४ किमी
८. सुशांत लोक (गुडगांव) - टी जंक्शन सेक्टर ४७ एवं ४८, गुडगांव = ६.५ किमी
कुल लंबाई = ११२ किमी
इसके पूरा होने का लक्ष्य २०२० में रखा गया है। जिनमें निम्नांकित नये मार्ग या पुराने मार्गों के विस्तार होंगे :-
१. सराय काले खां - आनंद विहार - दिलशाद गार्डन - यमुना विहार - सोनिया विहार = २२ किमी
२. सराय काले खां - नेहरू प्लेस - पालम - रेवला खानपुर = २८ किमी
३. मुकुंदपुर - जीटीके बाईपास - पीतमपुरा - पीरागढी - जनकपुरी - पालम = २० किमी
४. बरावला - मुंडका - नजफगढ - द्वारका = २० किमी
५. गाजीपुर - नोएडा सेक्टर ६२ = ७ किमी
६. द्वारका सेक्टर २१ - छावला = ६ किमी
७. अजरौंदा - खेरी = ५.५ किमी
कुल लंबाई = १०८.५ किमी
कुल लंबाई सभी चरणों को मिलाकर = ४१३ किमी
रेलगाड़ी चोटी और ऑफ-पीक घंटों के आधार पर, ०५:०० और ००:०० के बीच एक से दो मिनट की अवधि में पांच से दस मिनट तक चलती है। नेटवर्क के भीतर चलने वाली ट्रेन आमतौर पर ५० किमी / घंटा (३१ मील प्रति घंटे) तक की रफ्तार से यात्रा करती है और प्रत्येक स्टेशन पर लगभग २० सेकंड तक रुक जाती है। स्वचालित स्टेशन घोषणाएं हिंदी और अंग्रेजी में दर्ज की जाती हैं। कई स्टेशनों में एटीएम, खाद्य आउटलेट, कैफे, सुविधा स्टोर और मोबाइल रिचार्ज जैसी सेवाएं हैं। पूरे सिस्टम में भोजन, पीने, धूम्रपान और च्यूइंग गम प्रतिबंधित हैं। आपातकाल में अग्रिम चेतावनी के लिए मेट्रो में एक परिष्कृत अग्नि अलार्म सिस्टम भी है, और ट्रेनों के साथ-साथ स्टेशनों के परिसर में अग्निरोधी सामग्री का उपयोग किया जाता है। गूगल ट्रांज़िट पर नेविगेशन जानकारी उपलब्ध है। अक्टूबर २०10 से, हर ट्रेन का पहला कोच महिलाओं के लिए आरक्षित है। हालांकि, जब ट्रेन लाल, हरे और वायलेट लाइनों में टर्मिनल स्टेशनों पर ट्रैक बदलती है तो अंतिम कोच भी आरक्षित होते हैं। मेट्रो द्वारा एक आसान अनुभव करने के लिए, दिल्ली मेट्रो ने अपने स्वयं के आधिकारिक मोबाइल ऐप को स्मार्टफोन उपयोगकर्ताओं, (आईफोन और एंड्रॉइड) के लिए दिल्ली मेट्रो लॉन्च किया है जो निकटतम मेट्रो स्टेशन, किराया के स्थान जैसी विभिन्न सुविधाओं पर जानकारी प्रदान करेगा। , पार्किंग उपलब्धता, मेट्रो स्टेशनों के पास पर्यटन स्थलों, सुरक्षा और आपातकालीन हेल्पलाइन संख्याएं।
२०१४ में, दिल्ली मेट्रो ने गैर-किराया राजस्व उत्पन्न करने के लिए, एक खुली ई-टेंडरिंग प्रक्रिया के माध्यम से, मेट्रो स्टेशनों की अर्ध-नामकरण नीति शुरू की।
एयरपोर्ट एक्सप्रेस लाइन
दिल्ली मेट्रो रेल निगम सितंबर २०१८ से एयरपोर्ट एक्सप्रेस लाइन पर यात्रा के लिए क्यूआर कोड-आधारित टिकट सुविधा पेश करेगा। यह प्रणाली यात्रियों को मेट्रो स्टेशन पर भौतिक रूप से आने के बिना 'रिडलर मोबाइल ऐप' का उपयोग करके टिकट खरीदने में सक्षम करेगी। एयरपोर्ट लाइन स्टेशनों में यात्रियों के लिए क्यूआर-सक्षम प्रवेश और निकास द्वार भी हैं।
दिल्ली मेट्रो रेल कॉर्पोरेशन ने गोल्डन पीकॉक एनवायरनमेंट मैनेजमेंट अवार्ड २००५ जीता।
दिल्ली मेट्रो रेल कॉरपोरेशन "इंडस्ट्री लीडरशिप इन सस्टेनेबिलिटी" के प्रदर्शन के लिए वर्ल्ड ग्रीन बिल्डिंग काउंसिल अवार्ड पाने वाली पहली भारतीय कंपनी बन गई।
दिल्ली मेट्रो रेल कॉरपोरेशन ने ऑल इंडिया मैनेजमेंट एसोसिएशन (एआईएमए), २०१६ द्वारा पीएसयू ऑफ द ईयर अवार्ड जीता।
दिल्ली मेट्रो रेल कॉर्पोरेशन ने जापान इंटरनेशनल कोऑपरेशन एजेंसी (जेआईसीए) का राष्ट्रपति पुरस्कार २०१२ जीता।
लोकप्रिय संस्कृति में
दिल्ली मेट्रो में कई फिल्मों की शूटिंग की गई है। नवंबर २००३ में दिल्ली मेट्रो में शूट की जाने वाली पहली फिल्म बेवफा थी। बाद में, दिल्ली ६, लव आज कल, पा कुछ लोकप्रिय फिल्में थीं, जिनके सीक्वेंस दिल्ली मेट्रो ट्रेनों और स्टेशन परिसर के अंदर शूट किए गए थे। मार्च २०१४ में ऋतिक रोशन और कैटरीना कैफ स्टारर फिल्म बैंग बैंग की शूटिंग मयूर विहार एक्सटेंशन मेट्रो स्टेशन के पास की गई थी। २०१९ में, ऋतिक रोशन और टाइगर श्रॉफ स्टारर फिल्म वॉर दिल्ली मेट्रो में शूट होने वाली आखिरी फिल्मों में से एक थी।
इन्हें भी देखें
दिल्ली उपनगरीय रेल
हैदराबाद मेट्रो रेल
लाहौर मेट्रो (पाकिस्तान)
दिल्ली मेट्रो रेल मोबाइल ऐप
हिन्दी विकि डीवीडी परियोजना
भारत में मेट्रो रेल |
नोएडा भारत में दिल्ली से सटा एक उपनगरीय क्षेत्र है जो उत्तर प्रदेश में स्थित है।
इसकी जनसंख्या करीब ५ लाख है और यह २०३ वर्ग कि॰मी॰ में फ़ैला है। इसका नाम अंग्रेज़ी के नव ओखला इंडस्ट्रियल डेवलमेंट औथोरिटी न्यू ओखला इंडस्ट्रियल डवेलपमंट अथॉरिटी के संक्षिप्तीकरण से बना है (नवीन ओखला औद्योगिक विकास प्राधिकरण )। इसका आधिकारिक नाम गौतम बुद्ध नगर है। ये विभिन्न सेक्टरों में बसा हुआ है। न्यू ओखला औद्योगिक विकास प्राधिकरण (हिंदी: 'नई ओखला औद्योगिक विकास प्राधिकरण') के लिए लघु, नोएडा, नई ओखला औद्योगिक विकास प्राधिकरण (जिसे नोएडा भी कहा जाता है) के प्रबंधन के तहत एक व्यवस्थित योजनाबद्ध भारतीय शहर है। यह भारत के राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र का हिस्सा है।
नोएडा १७ अप्रैल १९७६ को प्रशासनिक अस्तित्व में आया इसलिए १७ अप्रैल को "नोएडा दिवस" के रूप में मनाया जाता है। नोएडा विवादास्पद आपातकाल (१९७५-१९७७) के दौरान शहरीकरण पर जोर के तहत स्थापित किया गया था, जिसे तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के पुत्र और कांग्रेस नेता संजय गांधी की पहल से यूपी औद्योगिक क्षेत्र विकास अधिनियम के तहत बनाया गया था।
पूरे राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में इस शहर में प्रति व्यक्ति आय सबसे अधिक है। नोएडा प्राधिकरण देश के सबसे अमीर नागरिक निकायों में से एक है। जनगणना भारत की अनंतिम रिपोर्ट २०११ के मुताबिक नोएडा की आबादी ६,३७,२७२ है; जिनमें से पुरुष और महिला आबादी क्रमशः ३,४९,३97 और २,८७,८७5 हैं। नोएडा में सड़कें पेड़ों से आच्छादित हैं और इसे भारत का सबसे ज्यादा हरियाली से युक्त शहर माना जाता है, जिसका लगभग पचास फीसदी हिस्सा हरियाली आच्छादित है, जो कि भारत के किसी भी शहर के मुकाबले सबसे अधिक है।
नोएडा उत्तर प्रदेश राज्य के गौतम बुद्ध नगर जिले में स्थित है। जिले के प्रशासनिक मुख्यालय पास के ग्रेटर नोएडा शहर में हैं। हालांकि इस जिले के जिलाधिकारी का आधिकारिक छावनी कार्यालय
और निवास सेक्टर-२७ में है। शहर विधानसभा निर्वाचन क्षेत्र गौतमबुद्ध नगर लोकसभा निर्वाचन क्षेत्र का एक हिस्सा है। वर्तमान में महेश शर्मा नोएडा के सांसद हैं। भारतीय जनता पार्टी के नेता पंकज सिंह यहां के स्थानीय विधायक हैं।
नोएडा को एपीपी समाचार द्वारा वर्ष २०१५ में उत्तर प्रदेश के सर्वश्रेष्ठ शहर का खिताब दिया गया। नोएडा में कई बड़ी कंपनियों ने अपने कारोबार की स्थापना की है। यह आईटी, आईटीईएस, बीपीओ, बीटीओ और केपीओ सेवाओं की पेशकश करने वाले बैंकिंग, वित्तीय सेवाओं, बीमा, फार्मा, ऑटो, फास्ट-मूविंग उपभोक्ता वस्तुओं और विनिर्माण जैसे विभिन्न उद्योगों में कंपनियों की पसंदीदा जगह बन रही है। एसोचैम के एक अध्ययन के मुताबिक यह शहर बेहतर बिजली-आपूर्ति, सूचना प्रौद्योगिकी उद्योग के लिए उपयुक्त वातावरण और कुशल मानव संसाधन क्षमता से लैस शहर है।
इस शहर के सेक्टर ६२ में नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ बायोलॉजिकल्स, इंडियन एकेडमी ऑफ हाइवे इंजीनियरिंग, आईसीएआई, आईएमएस, आईआईएम लखनऊ का नोएडा कैंपस, जेपी इंस्टीट्यूट ऑफ इंफॉर्मेशन टेक्नोलॉजी और कई और अधिक प्रतिष्ठित स्थानीय विश्वविद्यालय हैं। यह उच्च शिक्षा के क्षेत्र में कई प्रतिष्ठित संस्थानों का केंद्र है, जिनमें एमएएफ एकेडमी, सिंबायोसिस लॉ स्कूल शामिल है। बैंक ऑफ इंडिया का स्टाफ प्रशिक्षण कॉलेज के साथ-साथ फादर एग्नेल और कार्ल ह्यूबर जैसे कुछ प्रसिद्ध स्कूल भी इस शहर में मौजूद हैं।
नोएडा आईटी सेवाओं को आउटसोर्स करने वाली बहुराष्ट्रीय कंपनियों के लिए एक प्रमुख केंद्र है। पाइनलैब्स, सैमसंग, बार्कलेज शेयर्ड सर्विसेज, सीआरएमएनएक्सटी, हेडस्ट्रॉन्ग, आईबीएम, मिर्चकल, स्टेलर आईटी पार्क, यूनिटेक इंफोस्पेस और बहुत सारी कंपनियों के दफ्तर इस शहर के सेक्टर ६२ में हैं। कई बड़ी सॉफ़्टवेयर और बिजनेस प्रोसेस आउटसोर्सिंग कंपनियां के भी इस शहर में अपने कार्यालय हैं। इस शहर में लगभग सभी प्रमुख भारतीय बैंकों की शाखाएं मौजूद हैं।
१९८५ में स्थापित नोएडा विशेष आर्थिक क्षेत्र ३१० एकड़ भूमि पर फैला हुआ है। यह रत्न और आभूषण और इलेक्ट्रॉनिक्स / सॉफ्टवेयर जैसे निर्यात के जोर क्षेत्रों के लिए उत्कृष्ट बुनियादी ढाँचा, सहायक सेवाएँ और क्षेत्र विशेष सुविधाएँ प्रदान करता है।
सूचना और सेवाओं का समर्थन
एनएसईजेड में अलग-अलग आकार के २०२ भूखंड हैं, इसके अलावा १३ मानक डिजाइन फैक्ट्री (एसडीएफ) ब्लॉक हैं, जिनमें २०८ यूनिट्स हैं, जिसमें ट्रेडिंग सेवा इकाइयों के लिए एक विशेष ब्लॉक भी शामिल है। भावी उद्यमियों को समायोजित करने के लिए १६ इकाइयों का एक और एसडीएफ ब्लॉक निर्माणाधीन है।
एनएसईजेड वैश्विक दूरसंचार नेटवर्क, निर्बाध बिजली आपूर्ति और कुशल स्थानीय परिवहन प्रणाली तक पहुंच प्रदान करता है। जोन में ब्सल द्वारा एक उच्च क्षमता वाला टेलीफोन एक्सचेंज स्थापित किया गया है। भारती, एयरटेल, रिलायंस, वीएसएनएल आदि जैसे प्रमुख दूरसंचार खिलाड़ी भी क्षेत्र में डेटा संचार सुविधा जैसी सेवाएं प्रदान कर रहे हैं। निर्बाध बिजली आपूर्ति के लिए एक स्वतंत्र फीडर लाइन प्रदान की गई है। सीमा शुल्क विंग शीघ्र और निर्यात / आयात खेपों की स्पष्टता सुनिश्चित करता है। इसके अलावा, इन-हाउस पोस्ट और टेलीग्राफ कार्यालय, उप-विदेशी डाकघर, एटीएम सुविधा, कूरियर सेवा सुविधाएं, औद्योगिक कैंटीन और कार्यकारी रेस्तरां और यात्रा / सीमा शुल्क अग्रेषण एजेंसियों सहित बीमा और बैंकिंग प्रदान किए गए हैं। केंद्रीय उत्पाद शुल्क और सीमा शुल्क जमा करने के लिए पंजाब नेशनल बैंक का एक विस्तार काउंटर भी चालू है। निर्यातकों की जरूरतों को पूरा करने के लिए प्रसंस्करण क्षेत्र में एक अपतटीय बैंकिंग इकाई भी स्थापित की गई है। उपरोक्त के अलावा, बैंक, सीएचएएस, ईटरीज, कम्युनिकेशन सर्विस प्रोवाइडर आदि जैसे विभिन्न सुविधाकर्ता जो न्सेज़ इकाइयों की आवश्यकताओं के लिए सफलतापूर्वक खानपान कर रहे हैं, को न्सेज़ के भीतर सुविधा केंद्र में समायोजित किया गया है।
सॉफ्टवेयर और रत्न और आभूषण इकाइयों के लिए सेक्टर विशिष्ट इन्फ्रास्ट्रक्चर विकसित किया गया है। सॉफ्टवेयर निर्यात के लिए आवश्यक सैटेलाइट डेटा लिंक सुविधा उपलब्ध है। सॉफ्टवेयर विकास के लिए उच्च प्रशिक्षित और योग्य जनशक्ति दिल्ली और उसके आसपास उपलब्ध है।
आभूषण इकाइयों के लिए दो विशेष परिसर विकसित किए गए हैं। मैटक के पास सोने की आपूर्ति के लिए न्सेज़ में एक पूर्ण-कार्यालय है, जो पैकिंग क्रेडिट सुविधा भी प्रदान करता है। सेंट्रल वेयरहाउसिंग कॉरपोरेशन आभूषण निर्यात और सेवाओं की निर्यात औपचारिकताओं जैसे मूल्यांकन, हवाई अड्डों के बिलों के प्रसंस्करण और हवाई अड्डे तक परिवहन के लिए भंडारण की सुविधा प्रदान करता है। कार्गो के आवक / जावक आंदोलन को सुविधाजनक बनाने के लिए न्सेज़ को सीमा शुल्क अधिनियम, १९६२ के तहत अंतर्देशीय कंटेनर डिपो (इक) के रूप में घोषित किया गया है।
दिल्ली एनसीआर - उभरते आईटी हब
दिल्ली एनसीआर में नई दिल्ली के राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र और इसके आसपास के हरियाणा, उत्तर प्रदेश और राजस्थान के कई जिले शामिल हैं। इन जिलों में प्रमुख हैं नोएडा (उत्तर प्रदेश राज्य में) और गुरुग्राम (तत्कालीन गुड़गांव, हरियाणा राज्य में)।
दिल्ली एनसीआर भारत के सबसे तेजी से बढ़ते आर्थिक क्षेत्रों में से एक बन गया है, जो देश की कुल जीडीपी का सात से आठ प्रतिशत हिस्सा है। सरकारी संस्थानों के साथ इसकी निकटता, एक व्यापार के अनुकूल बुनियादी ढाँचे की उपस्थिति, और एक उद्यमशीलता की संस्कृति संस्कृति शहर को एक व्यवहार्य आईटी हब बनाती है।
नतीजतन, कई कंपनियों ने उच्च गुणवत्ता के बुनियादी ढांचे, जनशक्ति, अचल संपत्ति और सहायक सरकारी नीतियों का लाभ उठाने के लिए नोएडा, दिल्ली और गुरुग्राम में अपने वितरण केंद्र और संपर्क कार्यालय स्थापित किए हैं।
इन प्रमुख लाभों में से कुछ नीचे सूचीबद्ध हैं:
दिल्ली एनसीआर एक बहुत अच्छी तरह से जुड़ा हुआ क्षेत्र है। यहाँ दुनिया के सबसे व्यस्त अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डों में से एक है - इंदिरा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डा। अब यहा ३०००० करोण की लागत से दुनिया का चौथा और भारत का विशालतम हवाई अड्डे का निर्माण हो रहा है जिसके २०२४ तक शुरु होने की संभावना है। इसके अतिरिक्त, दिल्ली अपने उपग्रह शहरों - गुरुग्राम और नोएडा से दिल्ली गुरुग्राम एक्सप्रेसवे और डीएनडी फ्लाईओवर के माध्यम से क्रमशः जुड़ा हुआ है। बढ़ी हुई अंतर-राज्य सम्पर्क अपने पड़ोसी राज्यों से विविध श्रम पूल और बाजार तक आसान पहुंच को सक्षम बनाती है।
भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (ईत), दिल्ली जैसे प्रमुख शैक्षिक संस्थानों की उपस्थिति; जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (ज्नू), दिल्ली टेक्नोलॉजिकल यूनिवर्सिटी (द्तू), और दिल्ली विश्वविद्यालय (दू), अन्य लोगों के बीच, कुशल कार्यबल की निरंतर आपूर्ति सुनिश्चित की है, जो आईटी उद्योग के विकास के लिए आवश्यक है।
एक प्रमुख स्टार्टअप डेस्टिनेशन
नैसकॉम के अनुसार, भारत दुनिया में तकनीकी स्टार्टअप का तीसरा सबसे बड़ा आधार है। वर्तमान में भारत में ४,१०० से अधिक स्टार्टअप उद्यम हैं, और उद्योग के विशेषज्ञ बताते हैं कि २०२० तक स्टार्टअप्स की संख्या बढ़कर ११,५०० होने की उम्मीद है। २०१६ में भारतीय स्टार्टअप द्वारा उठाए गए कुल उस $ १.८ बिलियन में से आधे से अधिक का निवेश किया गया था। दिल्ली एनसीआर क्षेत्र में।
व्यावसायिक-सेवा_आईबी-आइकॉन-२०१७ प्री-इनवेस्टमेंट, मार्केट एंट्री स्ट्रैटेजी
दिल्ली एनसीआर एक पसंदीदा स्टार्टअप डेस्टिनेशन है क्योंकि यह विदेशी निवेशकों, सरकारी एजेंसियों, और शुरुआती चरणों के वित्तपोषण के लिए आसान पहुँच प्रदान करता है जो किसी भी नए उद्यम की सफलता के लिए महत्वपूर्ण हैं। सरकार, शैक्षणिक संस्थानों और उद्यम पूंजीपतियों से जुड़े क्षेत्र में कई स्टार्टअप इन्क्यूबेटर और एक्सेलेरेटर हैं। वर्तमान में, यह भारत के लगभग २३ प्रतिशत स्टार्टअप्स का घर है, जिसमें ग्रोफर्स, पेटीएम और स्नैपडील शामिल हैं।
आईटी में निवेश - दिल्ली राज्य प्रोत्साहन, संघीय नीति
भारत सरकार और राज्य सरकारों ने भारत में आईटी उद्योग के विकास को बढ़ावा देने के लिए कई महत्वपूर्ण कदम उठाए हैं। उनमें से कुछ नीचे दी गई तालिका में उल्लिखित हैं।
आगे आने वाले समय को चुनौती देना
तेजी से विकसित हो रही प्रौद्योगिकी, व्यापार और सेवा मॉडल, उपभोक्ता वरीयताओं को स्थानांतरित करना, और व्यापक आर्थिक अनिश्चितता, संगठन अक्सर इन चुनौतियों के अधिक विघटनकारी को पूरा करने के लिए संघर्ष करते हैं। वर्तमान में, भारत का आईटी उद्योग इस तरह की कई चुनौतियों का सामना कर रहा है:
वैश्विक आईटी उद्योग में स्वचालन, रोबोटाइजेशन और मशीन लर्निंग पर बदलाव: इसका मतलब है कि आईटी काम अब श्रम-गहन नहीं होगा, जिससे यह भारत जैसे श्रम अधिशेष बाजार के लिए विशेष रूप से चुनौतीपूर्ण हो जाएगा। क्षेत्र
आईटी में निवेश - दिल्ली राज्य प्रोत्साहन, संघीय नीति
भारत सरकार और राज्य सरकारों ने भारत में आईटी उद्योग के विकास को बढ़ावा देने के लिए कई महत्वपूर्ण कदम उठाए हैं। उनमें से कुछ नीचे दी गई तालिका में उल्लिखित हैं।
आगे आने वाले समय को चुनौती देना
तेजी से विकसित हो रही प्रौद्योगिकी, व्यापार और सेवा मॉडल, उपभोक्ता वरीयताओं को स्थानांतरित करना, और व्यापक आर्थिक अनिश्चितता, संगठन अक्सर इन चुनौतियों के अधिक विघटनकारी को पूरा करने के लिए संघर्ष करते हैं। वर्तमान में, भारत का आईटी उद्योग इस तरह की कई चुनौतियों का सामना कर रहा है:
वैश्विक आईटी उद्योग में स्वचालन, रोबोटाइजेशन और मशीन लर्निंग पर बदलाव: इसका मतलब है कि आईटी काम अब श्रम-गहन नहीं होगा, जिससे यह भारत जैसे श्रम अधिशेष बाजार के लिए विशेष रूप से चुनौतीपूर्ण हो जाएगा। सोशल मीडिया, मोबिलिटी, डेटा एनालिटिक्स और क्लाउड कम्प्यूटिंग (स्मैक) जैसे नए उभरते रुझानों पर अधिक ध्यान केंद्रित करने के लिए इस क्षेत्र की आवश्यकता है।
प्रमुख बाजारों में बढ़ता संरक्षणवाद: अमेरिका भारत के साफ्टवेयर निर्यात में ६० प्रतिशत से अधिक का योगदान देता है और अत्यधिक संरक्षणवादी कानूनों का मसौदा तैयार कर रहा है।
चीन और फिलिपींस से बढ़ती प्रतिस्पर्धा: फिलीपींस अपनी उच्च चीना आवाज के साथ राजस्व और चीन, अपनी लागत और बुनियादी ढांचे के लाभों के साथ, भारत के आउटसोर्सिंग उद्योग के लिए मजबूत चुनौती साबित हो रहा है।
आईटी-बीपीओ सेगमेंट में उच्च अट्रैक्शन रेट: नैसकॉम के अनुसार, बिजनेस प्रोसेस आउटसोर्सिंग (बीपीओ) सेगमेंट में भारत में २५-४० प्रतिशत के बीच उच्च एट्रिशन रेट्स हैं। औसतन, एक भारतीय बीपीओ कर्मचारी ११ महीनों के लिए काम करता है, जबकि एक औसत यूके कॉल सेंटर कर्मचारी एक कंपनी में तीन साल तक रहता है। कौशल के नुकसान के अलावा, भर्ती और प्रशिक्षण की लागत भारतीय आईटी-बीपीओ फर्मों के लिए एक अतिरिक्त खर्च पेश करती है।
दिल्ली एनसीआर - बढ़ती संभावनाएं लाजिमी हैं
भारत में आईटी क्षेत्र के सामने आने वाली संरचनात्मक चुनौतियों के बावजूद, दिल्ली एनसीआर एक गतिशील और उच्च-कार्यशील पारिस्थितिकी तंत्र प्रदान करता है जो निवेशकों, सरकारी नीति निर्माताओं, कुशल पेशेवरों और उद्यमियों और स्टार्टअप इनक्यूबेटर्स और एक्सीलेटर को देखता है। ये सकारात्मक क्षेत्र अपने विस्तारित क्षेत्र और उत्कृष्ट कनेक्टिविटी और बुनियादी ढांचे के साथ मिलकर भारत के शीर्ष आईटी हब बनने की दिशा में अपनी निरंतर वृद्धि सुनिश्चित करते हैं।
उत्तर प्रदेश के नगर |
ग्रहण एक खगोलीय घटना है जो तब होती है जब कोई खगोलीय पिण्ड या अंतरिक्ष यान अस्थायी रूप से किसी अन्य पिंड की छाया में आता है या उसके और दर्शक के बीच कोई अन्य पिंड आ जाता है । तीन आकाशीय पिंडों का यह एक सीध में आना युति वियुति रूप में जाना जाता है। युति वियुति के अलावा, ग्रहण शब्द का उपयोग तब भी किया जाता है जब कोई अंतरिक्ष यान एक ऐसी स्थिति में पहुँच जाता है जहाँ वह दो खगोलीय पिंडों की सीध में इस प्रकार से ही आ जाए। ग्रहण पूर्ण होता है या आंशिक हो सकता है ।
ग्रहण शब्द का प्रयोग अक्सर सूर्य ग्रहण का वर्णन करने के लिए किया जाता है, जब चंद्रमा की छाया पृथ्वी की सतह को पार करती है, या चंद्र ग्रहण, जब चंद्रमा पृथ्वी की छाया में चला जाता है। हालांकि, ग्रहण का अर्थ केवल पृथ्वी-चंद्रमा प्रणाली तक सीमित नहीं है : उदाहरण के लिए, एक अन्य ग्रह अपने चंद्रमाओं में से एक की छाया में जा रहा है, या किसी ग्रह का चंद्रमा अपने ग्रह की छाया से गुजर रहा है, या एक चंद्रमा दूसरे चंद्रमा की छाया से गुजर रहा है । एक द्वितारा प्रणाली भी ग्रहण उत्पन्न कर सकती है यदि उसके तारों की कक्षा का तल दर्शक की सीध में आता है ।
सूर्य या चन्द्र ग्रहण तभी हो सकता है , जब सूर्य, पृथ्वी और चंद्रमा लगभग एक सीधी रेखा में हों । चूँकि चंद्रमा का कक्षा का तल पृथ्वी की कक्षा के तल से झुका हुआ है, इस लिए हर पूर्णिमा और अमावस्या को ग्रहण नहीं होते। ये दोनों कक्षाएँ जिन बिंदुओं पर मिलती हैं उन्हें चन्द्रपात कहते हैं। पृथ्वी के अपनी कक्षा में घूमने के प्रभाव को सूर्य के आभासी मार्ग द्वारा भी समझा जा सकता है , इसको सूर्यपथ या क्रांतिवृत्त कहते है।
ग्रहण तभी हो सकता है जब सूर्य और चन्द्रमा चन्द्रपातों के निकट हों । ऐसा वर्ष में दो बार होता है । एक कैलेंडर वर्ष में चार से सात ग्रहण हो सकते हैं , एक ग्रहण वर्ष या ग्रहण युग में ग्रहणों की पुनरावृत्ति होती है।
१९०१ और २१०० के बीच में एक वर्ष में अधिकतम सात ग्रहण हैं:
चार चंद्र (उपछाया ग्रहण) और तीन सूर्य ग्रहण: १९०८, २०३८ ।
चार सूर्य और तीन चंद्र ग्रहण: १९१८, १९७३, २०९४।
पांच सौर और दो चंद्र ग्रहण: १९३४।
उपछाया चंद्र ग्रहणों को छोड़कर, इसमें अधिकतम सात ग्रहण होते हैं:
१५९१, १६५६, १७८७, १८०५, १९१८, १९३५, १९८२ और २०९४।
सूर्य ग्रहण तब होता है जब पृथ्वी के दर्शक के लिए चंद्रमा सूर्य के सामने से गुजरता है। सूर्य ग्रहण का पूर्ण या आंशिक या वलयाकार होना घटना के दौरान चन्द्रपात के सापेक्ष सूर्य और चन्द्रमा की स्थिति, और पृथ्वी से चंद्रमा की दूरी पर और इस पर भी निर्भर करता है कि दर्शक पृथ्वी पर कहाँ खडा है । अलग अलग स्थान से दर्शक को अलग अलग प्रकार के ग्रहण दिखाई दे सकते हैं।
यदि सूर्य और चन्द्रमा बिलकुल सटीक चन्द्रपात पर हैं तो या तो पूर्ण सूर्य या वलयाकार सूर्य ग्रहण होंगे। चन्द्रमा के पृथ्वी के निकट होने पर पूर्ण और दूर होने पर वलयकार सूर्य ग्रहण होगा। चन्द्रमा में बहुत अधिक बदलाव नहीं होता इसलिए वलयकार सूर्य ग्रहण भी लगभग पूर्ण सूर्य ग्रहण जैसा ही दिखाई देता है , बस इसमें पूर्णता से समय हल्का का सूर्य का किनारा दिखाई देता है जिसे अग्नि कुण्डल ( रिंग ऑफ़ फायर) कहते है। पूर्ण सूर्य ग्रहण तब दिखाई देता है दर्शक चन्द्रमा की छाया के गर्भ अर्थात प्रच्छाया में हो । उपछाया से देख रहे दर्शकों को आंशिक सूर्य ग्रहण ही दिखाई देता है। कभी कभी सूर्य ग्रहण के समय पृथ्वी के किसी भी भाग पर प्रच्छाया नहीं पड़ती , उस समय कहीं से भी पूर्ण सूर्य ग्रहण दिखाई नहीं देता।
ग्रहण परिमाण सूर्य के व्यास का वह अंश है जो चंद्रमा द्वारा ढका हुआ है। पूर्ण ग्रहण के लिए, यह मान हमेशा एक से अधिक या उसके बराबर होता है। आंशिक और पूर्ण दोनों ग्रहणों में ही ग्रहण परिमाण चंद्रमा के और सूर्य के कोणीय आकार का अनुपात है।
सूर्य ग्रहण अपेक्षाकृत संक्षिप्त घटनाएँ हैं जिन्हें केवल अपेक्षाकृत संकीर्ण पथ के साथ पूर्णता में देखा जा सकता है। सबसे अनुकूल परिस्थितियों में, पूर्ण सूर्य ग्रहण ७ मिनट , ३१ सेकंड तक रह सकता है और २५० किलोमीटर तक के ट्रैक के साथ देखा जा सकता है किमी चौड़ा। हालाँकि, वह क्षेत्र जहाँ आंशिक ग्रहण देखा जा सकता है, बहुत बड़ा है। चंद्रमा की छाया का केंद्र पूर्व की ओर १,७00 किमी/घंटा की दर से आगे बढ़ेगा, जब तक कि यह पृथ्वी की सतह से दूर नहीं निकल जाता।
सूर्य ग्रहण के दौरान, चंद्रमा कभी-कभी सूर्य को पूरी तरह से ढक सकता है क्योंकि इसका आकार पृथ्वी से देखने पर सूर्य के आकार के लगभग समान होता है।
जब पृथ्वी की सतह के अलावा अंतरिक्ष में अन्य बिंदुओं पर देखा जाता है, तो सूर्य को चंद्रमा के अलावा अन्य पिंडों द्वारा ग्रहण किया जा सकता है। दो उदाहरणों में एक बार अपोलो १२ के चालक दल ने १९६९ में सूर्य को ग्रहण करते हुए पृथ्वी को देखा और जब कैसिनी शोध यान ने २००६ में शनि को सूर्य ग्रहण करने के लिए देखा।
चंद्र ग्रहण तब होता है जब चंद्रमा पृथ्वी की छाया से होकर गुजरता है। यह केवल पूर्णिमा के दौरान होता है, जब चंद्रमा सूर्य से पृथ्वी के सबसे दूर होता है। सूर्य ग्रहण के विपरीत, चंद्रमा का ग्रहण लगभग पूरे गोलार्ध से देखा जा सकता है। इस कारण से किसी स्थान से चंद्र ग्रहण दिखाई देना अधिक आम बात है। एक चंद्र ग्रहण लंबे समय तक चलता है, पूरा होने में कई घंटे लगते हैं, पूर्णता के साथ आमतौर पर लगभग ३० मिनट से लेकर एक घंटे तक भी औसत होता है।
चंद्र ग्रहण तीन प्रकार के होते हैं: उपछाया ग्रहण , जब चंद्रमा केवल पृथ्वी के उपछाया को पार करता है; आंशिक ग्रहण , जब चंद्रमा आंशिक रूप से पृथ्वी की छाया की प्रच्छाया (छाया का गर्भ या केंद्र ) में आ जाता है ; और पूर्ण ग्रहण , जब चंद्रमा पूरी तरह से पृथ्वी की छाया की प्रच्छाया में आ जाता है। पूर्ण चंद्र ग्रहण तीनों चरणों से होकर गुजरता है। हालांकि, पूर्ण चंद्र ग्रहण के दौरान भी, चंद्रमा पूरी तरह से प्रकाशहीन नहीं होता है। पृथ्वी के वायुमंडल के माध्यम से अपवर्तित सूर्य का प्रकाश प्रच्छाया में प्रवेश करता है और एक फीकी रोशनी प्रदान करता है। सूर्यास्त के समय की तरह ही , वायुमंडल कम तरंग दैर्ध्य के प्रकाश को का प्रकीर्णन अधिक करता है, इसलिए शेष बचे अपवर्तित प्रकाश से चंद्रमा में एक लाल आभा होती है, पश्चिमी समाज के प्राचीन वर्णनों में 'ब्लड मून' वाक्यांश के प्रयोग अक्सर ऐसे ही चाँद के विषय में है।
अन्य ग्रह और बौने ग्रह
दैत्याकार गैसीय ग्रह
गैस के विशाल ग्रहों के कई चंद्रमा हैं और इस प्रकार अक्सर ग्रहण प्रदर्शित होते हैं। सबसे उल्लेखनीय बृहस्पति है, जिसमें चार बड़े चंद्रमा हैं और इनका अक्षीय झुकाव कम है , जिससे ग्रहण अधिक बार बनते हैं जब भी ये पिंड बड़े ग्रह की छाया से गुजरते हैं तभी ग्रहण होता है । पारगमन भी इतनी ही आवृत्ति के साथ होते हैं। बड़े चंद्रमाओं को बृहस्पति के बादलों पर गोलाकार छाया डालते हुए देखना आम बात है।
सूर्य - चंद्रमा - पृथ्वी: सूर्य ग्रहण | वलयाकार ग्रहण | संकर ग्रहण | आंशिक ग्रहण
सूर्य-पृथ्वी-चंद्रमा: चंद्र ग्रहण | उपच्छाया ग्रहण | आंशिक चंद्र ग्रहण | केंद्रीय चंद्र ग्रहण
अन्य प्रकार: बृहस्पति पर सूर्य ग्रहण | शनि पर सूर्य ग्रहण | यूरेनस पर सूर्य ग्रहण | नेपच्यून पर सूर्य ग्रहण | प्लूटो पर सूर्य ग्रहण |
लिस्बन युरोप में पुर्तगाल देश की राजधानी है।
विश्व के प्रमुख नगर
यूरोप में राजधानियाँ |
भोजपुरी एक पूर्वी हिंद-आर्य भाषा है जो भोजपुर-पूर्वांचल क्षेत्र में बोली जाती है। यह मुख्य रूप से पश्चिमी बिहार, पूर्वी उत्तर प्रदेश, पश्चिमी झारखंड, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ के उत्तर-पूर्वी भाग और नेपाल के तराई क्षेत्र में बोली जाती है। भोजपुरी एक स्वतंत्र भाषा है जिसकी उत्पत्ती मगधी प्राकृत से हुई है। बंगाली, ओड़िया, असमिया, मैथिली, मगही, आदि भोजपुरी की बहन भाषाएँ हैं। नेपाल, फिजी और मॉरिशस में भोजपुरी को संविधानिक मान्यता प्राप्त है। भारत के झारखंड राज्य में भोजपुरी दूसरी राजकीय भाषा है। भोजपुरी जानने-समझने वालों का विस्तार विश्व के सभी महाद्वीपों पर है जिसका कारण ब्रिटिश राज के दौरान उत्तर और पूर्वी भारत से अंग्रेजों द्वारा ले जाये गये मजदूर हैं जिनके वंशज अब जहाँ उनके पूर्वज गये थे वहीं बस गये हैं। इनमे सूरिनाम, गुयाना, त्रिनिदाद और टोबैगो, फिजी आदि देश प्रमुख है। भारत के जनगणना (२०११) आंकड़ों के अनुसार भारत में लगभग ६ करोड़ लोग भोजपुरी बोलते हैं। पूरे विश्व में भोजपुरी जानने वालों की संख्या लगभग २० करोड़ है. वक्ताओं के संख्या के आंकड़ों में ऐसे अंतर का संभावित कारण ये हो सकता है कि जनगणना के समय लोगों द्वारा भोजपुरी को अपनी मातृ भाषा नहीं बताई जाती है। भोजपुरी प्राचीन समय में कैथी लिपि मे लिखी जाती थी।भोजपुरी के विकास के लिए तमाम लेखक/कवि अपने लेखनी से योगदान दे रहे हैं। पूर्वी उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड और नेपाल के तमाम कवि अपनी रचना से भोजपुरी साहित्य को मजबूत कर रहे हैं। यह भाषा पुरानी संस्कृति को जीवंत बनाती है। और परम्परा से आगे बढ़ रही है। भोजपुरी सिनेमा के क्षेत्र ने भी इसके विकास में काफी योगदान दिया है। भोजपुरी की मिठास और इसकी समृद्ध शब्दावली
किसी को भी आकर्षित कर लेती है।
डॉ॰ ग्रियर्सन ने भारतीय भाषाओं को अन्तरंग ओर बहिरंग इन दो श्रेणियों में विभक्त किया है जिसमें बहिरंग के अन्तर्गत उन्होंने तीन प्रधान शाखाएँ स्वीकार की हैं -
(१) उत्तर पश्चिमी शाखा
(२) दक्षिणी शाखा और
(३) पूर्वी शाखा।
इस अन्तिम शाखा के अन्तर्गत भोजपुरी, उड़िया, असमी, बँग्ला, मैथिली और मगही भाषाएँ आती हैं। क्षेत्रविस्तार और भाषाभाषियों की संख्या के आधार पर भोजपुरी अपनी बहनों मैथिली और मगही में सबसे बड़ी है।
भोजपुरी भाषा का नामकरण बिहार राज्य के आरा (शाहाबाद) जिले में स्थित भोजपुर नामक गाँव के नाम पर हुआ है। पूर्ववर्ती आरा जिले के बक्सर सब-डिविजन (अब बक्सर अलग जिला है) में भोजपुर नाम का एक बड़ा परगना है जिसमें "नवका भोजपुर" और "पुरनका भोजपुर" दो गाँव हैं। मध्य काल में इस स्थान को मध्य प्रदेश के उज्जैन से आए भोजवंशी परमार राजाओं ने बसाया था। उन्होंने अपनी इस राजधानी को अपने पूर्वज राजा भोज के नाम पर भोजपुर रखा था। इसी कारण इसके पास बोली जाने वाली भाषा का नाम "भोजपुरी" पड़ गया।
भोजपुरी भाषा का इतिहास ७वीं सदी से शुरू होता है | संत कबीर दास (129७) का जन्मदिवस भोजपुरी दिवस के रूप में भारत में स्वीकार किया गया है और विश्व भोजपुरी दिवस के रूप में मनाया जाता है।
भोजपुरी भाषा प्रधानतया पश्चिमी बिहार, पूर्वी उत्तर प्रदेश तथा उत्तरी झारखण्ड के क्षेत्रों में बोली जाती है। इन क्षेत्रों के अलावा भोजपुरी विदेशों में भी बोली जाती है। भोजपुरी भाषा फिजी और नेपाल की संवैधानिक भाषाओं में से एक है। इसे मॉरीशस, फिजी, गयाना, सूरीनाम, सिंगापुर, उत्तर अमरीका और लैटिन अमेरिका में भी बोला जाता है।
मुख्यरुप से भोजपुरी बोले जाने वाले जिले-
बिहार : बक्सर जिला, सारण जिला, सिवान, गोपालगंज जिला, पूर्वी चम्पारण जिला, पश्चिम चम्पारण जिला, वैशाली जिला, भोजपुर जिला, रोहतास जिला, बक्सर जिला, भभुआ जिला
उत्तर प्रदेश : बलिया जिला, वाराणसी जिला,चन्दौली जिला, गोरखपुर जिला, महाराजगंज जिला, गाजीपुर जिला, मिर्जापुर जिला, मऊ जिला, जौनपुर जिला, बस्ती जिला, संत कबीर नगर जिला, सिद्धार्थ नगर,आजमगढ़ जिला
झारखण्ड : पलामु जिला, गढ़वा जिला,
नेपाल : रौतहट जिला, बारा जिला, बीरगंज, चितवन जिला, नवलपरासी जिला, रुपन्देही जिला, कपिलवस्तु जिला, पर्सा जिला
गयाना : जार्जटाउन
फिजी : सुवा
भोजपुरी भाषा की प्रधान बोलियाँ
(१) आदर्श भोजपुरी,
(२) पश्चिमी भोजपुरी
जिसे डॉ॰ ग्रियर्सन ने स्टैंडर्ड भोजपुरी कहा है वह प्रधानतया बिहार राज्य के आरा जिला और उत्तर प्रदेश के देवरिया, बलिया, गाजीपुर जिले के पूर्वी भाग और घाघरा (सरयू) एवं गंडक के दोआब में बोली जाती है। यह एक लंबें भूभाग में फैली हुई है। इसमें अनेक स्थानीय विशेताएँ पाई जाती है। जहाँ शाहाबाद, बलिया और गाजीपुर आदि दक्षिणी जिलों में "ड़" का प्रयोग किया जाता है वहाँ उत्तरी जिलों में "ट" का प्रयोग होता है। इस प्रकार उत्तरी आदर्श भोजपुरी में जहाँ "बाटे" का प्रयोग किया जाता है वहाँ दक्षिणी आदर्श भोजपुरी में "बाड़े" प्रयुक्त होता है। गोरखपुर की भोजपुरी में "मोहन घर में बाटें" कहते परंतु बलिया में "मोहन घर में बाड़ें" बोला जाता है।
पूर्वी गोरखपुर की भाषा को 'गोरखपुरी' कहा जाता है परंतु पश्चिमी गोरखपुर और बस्ती जिले की भाषा को "सरवरिया" नाम दिया गया है। "सरवरिया" शब्द "सरुआर" से निकला हुआ है जो "सरयूपार" का अपभ्रंश रूप है। "सरवरिया" और गोरखपुरी के शब्दों - विशेषत: संज्ञा शब्दों- के प्रयोग में भिन्नता पाई जाती है।
बलिया (उत्तर प्रदेश) और सारन (बिहार) इन दोनों जिलों में 'आदर्श भोजपुरी' बोली जाती है। परंतु कुछ शब्दों के उच्चारण में थोड़ा अन्तर है। सारन के लोग "ड" का उच्चारण "र" करते हैं। जहाँ बलिया निवासी "घोड़ागाड़ी आवत बा" कहता है, वहाँ छपरा या सारन का निवासी "घोरा गारी आवत बा" बोलता है। आदर्श भोजपुरी का नितांत निखरा रूप बलिया, रोहतास, बक्सर तथा भोजपुर जिले में बोला जाता है।
जौनपुर, आजमगढ़, बनारस, गाजीपुर के पश्चिमी भाग और मिर्जापुर में बोली जाती है। आदर्श भोजपुरी और पश्चिमी भोजपुरी में बहुत अधिक अन्तर है। पश्चिमी भोजपुरी में आदर सूचक के लिये "तुँह" का प्रयोग दीख पड़ता है परंतु आदर्श भोजपुरी में इसके लिये "रउरा" प्रयुक्त होता है। संप्रदान कारक का परसर्ग (प्रत्यय) इन दोनों बोलियों में भिन्न-भिन्न पाया जाता है। आदर्श भोजपुरी में संप्रदान कारक का प्रत्यय "लागि" है परंतु वाराणसी की पश्चिमी भोजपुरी में इसके लिये "बदे" या "वास्ते" का प्रयोग होता है। उदाहरणार्थ :
पश्चिमी भोजपुरी -
हम खरमिटाव कइली हा रहिला चबाय के।
भेंवल धरल बा दूध में खाजा तोरे बदे।।
जानीला आजकल में झनाझन चली रजा।
लाठी, लोहाँगी, खंजर और बिछुआ तोरे बदे।। (तेग अली-बदमाश दपर्ण)
मधेसी शब्द संस्कृत के "मध्य प्रदेश" से निकला है जिसका अर्थ है बीच का देश। चूँकि यह बोली तिरहुत की मैथिली भाषा और गोरखपुर की भोजपुरी के बीचवाले स्थानों में बोली जाती है, अत: इसका नाम मधेसी (अर्थात वह बोली जो इन दोनो के बीच में बोली जाये) पड़ गया है। यह बोली चंपारण जिले में बोली जाती और प्राय: "कैथी लिपि" में लिखी जाती है।
"थारू" लोग नेपाल की तराई में रहते हैं। ये बहराइच से चंपारण जिले तक पाए जाते हैं और भोजपुरी बोलते हैं। यह विशेष उल्लेखनीय बात है कि गोंडा और बहराइच जिले के थारू लोग भोजपुरी बोलते हैं जबकि वहाँ की भाषा पूर्वी हिन्दी (अवधी) है। हॉग्सन ने इस भाषा के ऊपर प्रचुर प्रकाश डाला है।
भोजपुरी जन एवं साहित्य
भोजपुरी बहुत ही सुंदर, सरस, तथा मधुर भाषा है। भोजपुरी भाषाभाषियों की संख्या भारत की समृद्ध भाषाओं- बँगला, गुजराती और मराठी आदि बोलनेवालों से कम नहीं है। इन दृष्टियों से इस भाषा का महत्व बहुत अधिक है और इसका भविष्य उज्जवल तथा गौरवशाली प्रतीत होता है।
भोजपुरी भाषा में निबद्ध साहित्य यद्यपि अभी प्रचुर परिमाण में नहीं है तथापि अनेक सरस कवि और अधिकारी लेखक इसके भंडार को भरने में संलग्न हैं। भोजपुरिया-भोजपुरी प्रदेश के निवासी लोगों को अपनी भाषा से बड़ा प्रेम है। अनेक पत्रपत्रिकाएँ तथा ग्रन्थ इसमें प्रकाशित हो रहे हैं तथा भोजपुरी सांस्कृतिक सम्मेलन, वाराणसी इसके प्रचार में संलग्न है। विश्व भोजपुरी सम्मेलन समय-समय पर आंदोलनात्म, रचनात्मक और बैद्धिक तीन स्तरों पर भोजपुरी भाषा, साहित्य और संस्कृति के विकास में निरंतर जुटा हुआ है। विश्व भोजपुरी सम्मेलन से ग्रन्थ के साथ-साथ त्रैमासिक 'समकालीन भोजपुरी साहित्य' पत्रिका का प्रकाशन हो रहे हैं। विश्व भोजपुरी सम्मेलन, भारत ही नहीं ग्लोबल स्तर पर भी भोजपुरी भाषा और साहित्य को सहेजने और इसके प्रचार-प्रसार में लगा हुआ है। देवरिया (यूपी), दिल्ली, मुंबई, कोलकभोजपुता, पोर्ट लुईस (मारीशस), सूरीनाम, दक्षिण अफ्रीका, इंग्लैंड और अमेरिका में इसकी शाखाएं खोली जा चुकी हैं।
भोजपुरी साहित्य में भिखारी ठाकुर योगदान अत्यधिक महत्वपूर्ण है। उन्हें भोजपुरी का शेक्सपीयर भी कहा जाता है। उनके लिखे हुए नाटक तत्कालीन स्त्रियों के मार्मिक दृश्य को दर्शाते हैं, अपने लेखों के द्वारा उन्होंने सामाजिक कुरीतियों पर प्रहार किया है। उनके प्रमुख ग्रंथ है:-बिदेशिया,बेटीबेचवा,भाई बिरोध,कलजुग प्रेम,विधवा बिलाप इतियादी।
महेंदर मिसिर भी भोजपुरी के एक मूर्धन्य साहित्यकार हैं. एक स्वतंत्रता सेनानी होने के साथ साथ महेंदर मिसिर भोजपुरी के महान कवि भी थे. उन्हें पुरबी सम्राट के नाम से भी जाना जाता है.
भोजपुरी में मानवाधिकारों का सार्वभौम घोषणा
संयुक्त राष्ट्र संघ ने मानवाधिकारों का सार्वभौम घोषणा को विश्व के १५४ भाषाओं में प्रकाशित किया है जिसमें भोजपुरी तथा सूरीनामी हिन्दुस्तानी भी उपस्थित है, सूरीनामी हिन्दुस्तानी भोजपुरी के तरह हीं बोली जाती है केवल इसे रोमन लिपि में लिखा जाता है। मानवाधिकारों के घोषणा का प्रथम अनुच्छेद भोजपुरी, हिंदी, सूरीनामी तथा अंग्रेजी में निम्नलिखित है -
अनुच्छेद १: सबहि लोकानि आजादे जन्मेला आउर ओखिनियो के बराबर सम्मान आओर अधिकार प्राप्त हवे। ओखिनियो के पास समझ-बूझ आउर अंत:करण के आवाज होखता आओर हुनको के दोसरा के साथ भाईचारे के बेवहार करे के होखला।
अनुच्छेद १: सभी मनुष्यों को गौरव और अधिकारों के मामले में जन्मजात स्वतन्त्रता और समानता प्राप्त हैं। उन्हें बुद्धि और अन्तरात्मा की देन प्राप्त है और परस्पर उन्हें भाईचारे के भाव से बर्ताव करना चाहिये।
संस्कृत से ही निकली भोजपुरी
आचार्य हवलदार त्रिपाठी "सह्मदय" लम्बे समय तक अन्वेषण कार्य करके इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि भोजपुरी संस्कृत से ही निकली है। उनके कोश-ग्रन्थ ('व्युत्पत्ति मूलक भोजपुरी की धातु और क्रियाएं') में मात्र ७६१ धातुओं की खोज उन्होंने की है, जिनका विस्तार "ढ़" वर्ण तक हुआ है। इस प्रबन्ध के अध्ययन से ज्ञात होता है कि ७६१ पदों की मूल धातु की वैज्ञानिक निर्माण प्रक्रिया में पाणिनि सूत्र का अक्षरश: अनुपालन हुआ है।
इस कोश-ग्रन्थ में वर्णित विषय पर एक नजर डालने से भोजपुरी तथा संस्कृत भाषा के मध्य समानता स्पष्ट परिलक्षित होती है। भोजपुरी-भाषा के धातुओं और क्रियाओं का वाक्य-प्रयोग विषय को और अधिक स्पष्ट कर देता है। प्रामाणिकता हेतु संस्कृत व्याकरण को भी साथ-साथ प्रस्तुत कर दिया गया है। इस ग्रन्थ की विशेषता यह है कि इसमें भोजपुरी-भाषा के धातुओं और क्रियाओं की व्युत्पत्ति को स्रोत संस्कृत-भाषा एवं उसके मानक व्याकरण से लिया गया है।
इन्हें भी देखें
हिन्दी की बोलियाँ
झारखंड की भाषाएँ
बिहार की भाषाएँ
उत्तर प्रदेश की भाषाएँ |
आशा गणपतराव भोसले (जन्म: ८ सितम्बर १९३३) हिन्दी फ़िल्मों की मशहूर पार्श्वगायिका हैं। लता मंगेशकर की छोटी बहन और दिनानाथ मंगेशकर की पुत्री आशा ने फिल्मी और गैर फिल्मी लगभग १६ हजार गाने गाये हैं और इनकी आवाज़ के प्रशंसक पूरी दुनिया में फैले हुए हैं। हिंदी के अलावा उन्होंने मराठी, बंगाली, गुजराती, पंजाबी, भोजपुरी, तमिल, मलयालम, अंग्रेजी और रूसी भाषा के भी अनेक गीत गाए हैं। आशा भोंसले ने अपना पहला गीत वर्ष 194८ में सावन आया फिल्म चुनरिया में गाया।
आशा की विशेषता है कि इन्होंने शास्त्रीय संगीत, गजल और पॉप संगीत हर क्षेत्र में अपनी आवाज़ का जादू बिखेरा है और एक समान सफलता पाई है। उन्होने आर॰ डी॰ बर्मन से दूसरा विवाह किया था।
आशा भोसले का जन्म ०८ सितम्बर १९३३ को महाराष्ट्र के सांगली जिले एक मराठी परिवार में हुआ। इनके पिता दिनानाथ मंगेशकर प्रसिद्ध गायक एवं नायक थे। जिन्होंने शास्त्रीय संगीत की शिक्षा काफी छोटी उम्र में ही आशा जी को दी। आशा जी जब केवल ९ वर्ष की थीं, इनके पिता का स्वर्गवास हो गया । पिता के मरणोपरांत, इनका परिवार पुणे से कोल्हापुर और उसके बाद मुंबई आ गया। परिवार की सहायता के लिए आशा और इनकी बड़ी बहन लता मंगेशकर ने गाना और फिल्मों में अभिनय शुरू कर दिया। 1९43 में इन्होंने अपनी पहली मराठी फिल्म माझा बाळ में गीत गाया। यह गीत चला चला नव बाळा... दत्ता डावजेकर के द्वारा संगीतबद्ध किया गया था। 1९48 में हिन्दी फिल्म चुनरिया का गीत सावन आया।.. हंसराज बहल के लिए गाया। दक्षिण एशिया की प्रसिद्ध गायिका के रूप में आशा जी ने गीत गाए। फिल्म संगीत, पॉप, गज़ल, भजन, भारतीय शास्त्रीय संगीत, क्षेत्रीय गीत, कव्वाली, रवीन्द्र संगीत और नजरूल गीत इनके गीतों में सम्मिलित है। इन्होंने १४ से ज्यादा भाषाओं में गीत गाए यथा मराठी, आसामी, हिन्दी, उर्दू, तेलगू, मराठी, बंगाली, गुजराती, पंजाबी, भोजपुरी, तमिल, अंग्रेजी, रशियन, जाइच, नेपाली, मलय और मलयालम। १२००० से अधिक गीतों को आशा जी ने आवाज दी।महान गायक किशोर कुमार आशा जी के सबसे मनपसंद गायक थे।
विवाह एवं व्यक्तिगत जीवन
१६ वर्ष की उम्र में अपने ३१ वर्षीय प्रेमी गणपतराव भोसले (19१६-१९६६) के साथ घर से पलायन कर पारिवारिक इच्छा के विरूद्ध विवाह किया। इस वजह से उनके रीश्तो में दरार आई । गणपत राव लता जी के निजी सचिव थे। यह विवाह असफल रहा। पति एवं उनके भाइयों के बुरे वर्ताव के कारण इस विवाह का दु:खान्त हो गया। १९६० के आसपास विवाह विच्छेद के बाद आशा जी अपनी माँ के घर दो बच्चों और तीसरे गर्भस्थ शिशु (आनन्द) के साथ लौट आईं। १९८० ई. में आशा जी ने सचिन देव बर्मण के बेटे राहुल देव बर्मन(पंचम) से विवाह किया। यह विवाह आशा जी ने राहुल देव वर्मन के अंतिम सांसो तक सफलतापूर्वक निभाया।
आशा जी का घर दक्षिण मुम्बई, पेडर रोड क्षेत्र में प्रभुकुंज अपार्टमेंट में स्थित है। इनके तीन बच्चे हैं। साथ ही पाँच पौत्र भी है। इनका सबसे बड़ा लड़का हेमंत भोसले है। हेमंत ने पायलट के रूप में अधिकांश समय बिताया। आशाजी की बेटी जो हेमंत से छोटी है वर्षा। वर्षा ने द सनडे ऑबजरवर और रेडिफ के लिए कॉलम लिखने का काम किया। आशाजी का सबसे छोटा पुत्र आनन्द भोसले है। आनन्द ने बिजनेस और फिल्म निर्देशन की पढाई की। आनन्द भोसले ही आशा के करियर की इन दिनों देखभाल कर रहे हैं। हेमंत भोसले के सबसे बड़े पुत्र चैतन्या (चिंटु) बॉय बैण्ड के सफल सदस्य के रूप में विश्व संगीत से जुड़े हुए है। अनिका भोसले (हेमंत भोसले की पुत्री) सफल फोटोग्राफर के रूप में कार्य कर रही है। आशा जी की बहनें लता मंगेसकर और उषा मंगेसकर गायिका है। इनकी अन्य दो सहोदर बहन मीना मंगेसकर और भाई हृदयनाथ मंगेसकर संगीत निर्देशक है। आशाजी गायिका के अलावा बहुत अच्छी कुक (रसोईया) है। कुकिंग इनका पसंदीदा शौक है। बॉलीवुड के बहुत सारे लोग आशा जी के हाथों से बनें कढाई गोस्त एवं बिरयानी के लिए अनुरोध करते हैं। आशा जी भी इनकार नहीं करती है। बॉलीवुड के कपुर खानदान में आशा जी द्वारा बनाए गये पाया करी, गोझन फिश करी और दाल काफी प्रसिद्ध है। एक बार जब द टाइम्स ऑफ इंडिया के एक साक्षात्कार में पुछा गया कि यदि आप गायिका न होती तो क्या करती? आशा जी ने जबाब दिया कि मैं एक अच्छी रसोईया (कुक) बनती। आशा जी एक सफल रेस्तरॉ संचालिका है। इनके रेस्तरॉ दुबई और कुवैत में आशा नाम से प्रसिद्ध है।वाफी ग्रुप द्वारा संचालित रेस्तरॉ में आशा जी के २०% भागीदारी है। वाफी सीटी दुबई और दो रेस्तरॉ कुवैत में पारम्परिक उत्तर भारतीय व्यंजन के लिए प्रसिद्ध है। आशा जी ने कैफ्स को स्वंय ६ महीनो का ट्रेंनिग दिया है। दिसम्बर २०04 मेनु मैगजीन के रिपोर्ट के अनुसार रसेल स्कॉट जो हैरी रामसदेन के प्रमुख है आने वाले पाँच सालो में आशा जी के ब्रैण्ड के अंतर्गत ४० रेस्तरॉ पूरे यू॰के॰ के अन्दर खोलने की घोषणा की है। इसी क्रम में आशा जी की की रेस्तरॉ बरमिंगम यू॰के॰ में खोला गया है। आशा जी की फैशन और पहनावे में सफेद साड़ी चमकदार किनारो वाली, गले में मोतियों के हार और हीरा प्रसिद्ध है। आशा जी एक अच्छी मिमिक्री अदाकारा भी है।
गायिकी के क्षेत्र में संघर्ष
एक समय जब प्रसिद्ध गायिका यथा- गीता दत्त, शमशाद बेगम और लता मंगेशकर का जमाना था। चारों ओर इन्ही का प्रभुत्व था। आशा जी गाना चाहती थी पर इन्हे गाने का मौका तक नहीं दिया जाता था। आशा जी सिर्फ दुसरे दर्जे की फिल्मों के लिए ही गा पाती थी। १९५० के दशक में बॉलीवुड के अन्य गायिकाओं की तुलना में आशा जी ने कम बजट की बी और सी ग्रेड फिल्मों के लिए बहुत से गीत गाए। इनके गीतो के संगीतकार ए. आर. कुरैशी (अल्ला रख्खा खान), सज्जाद हुसैन और गुलाम मोहम्मद थे। जो काफी असफल रहे। १९५२ ई. में दिलीप कुमार अभिनीत फिल्म संगदिल जिसके संगीतकार सज्जाद हुसैन थे, ने प्रसिद्धि दिलाई। परिणाम स्वरूप बिमल राय ने एक मौका आशा जी को अपनी फिल्म परिणीता (१९५३) के लिए दिया। राज कपूर ने गीत नन्हे मुन्ने बच्चे।... के लिए मोहम्मद रफी के साथ फिल्म बुट पॉलिश्(१९५४) के लिए अनुबंधित किया जिसने काफी प्रसिद्धि आशा जी को दिलाई। ओ.पी. नैयर ने आशा जी को बहुत बड़ा अवसर सी. आई. डी.(१९५६) के गीत गाने के लिए दिया। इस प्रकार १९५७ की फिल्म नया दौर बी आर. चोपड़ा ने नैयर साहब के संगीतकार रूप में आशा जी को बी. आर. चोपड़ा से पहली सफलता प्राप्त हुई। इस साझेदारी ने कई प्रसिद्ध गीतो को जनमानस के बीच लाने में महत्वपूर्ण योगदान दिया। फिर सचिन देव बर्मन और रवि जैसे संगीतकारो ने भी आशा जी को मौका दिया। १९६६ ई. में संगीतकार आर. डी. वर्मन की सफलतम फिल्म तीसरी मंजिल में आशा जी ने आर. डी. वर्मन के साथ काफी प्रसिद्धि बटोरी। १९६० से १९७० के बीच प्रसिद्ध डॉसर हेलन की आवाज बनी। ऐसा कहा जाता है कि जब भी आशा जी गाती थी तो हेलन रिकाडिंग के समय मौजुद रहती थी ताकि गाने को अच्छी तरह समझ सके और अच्छी तरह नृत्य उस गाने पर कर सके। आशा जी और हेलन के प्रसिद्ध गीतों में पिया तु अब तो आजा...(कारवॉ), ओ हसीना जुल्फो वाली...(तीसरी मंजिल) और ये मेरा दिल...(डॉन) शामिल है। १९८१ में उमराव जान और इजाजत (१९८७) में पारम्परिक गज़ल गाकर आशा जी ने आलोचकों को करारा जबाब दिया। अपनी गायन प्रतिभा का लोहा मनवाया। इन्ही दिनो इन्हे उपर्युक्त दोनों फिल्म के लिए राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार बेस्ट फिमेल प्लेबैक सिंगर मिला। आशा जी १९९० तक लगातार गाती रही। १९९५ की हिट फिल्म रंगीला से एक बार पुन: अपनी दुसरी पारी का आरंभ किया। २००५ में ७२ वर्षीय आशा जी ने तमिल फिल्म चन्द्रमुखी और पॉप संगीत लक्की लिप्स... सलमान खान अभिनित के लिए गाया जो चार्ट बस्टर में प्रसिद्ध रहा। अक्टूबर २००४,द वेरी बेस्ट ऑफ आशा भोसले, द क्वीन ऑफ बॉलीवुड आशा जी के द्वारा गाए गीतो का एलबम (१९६६-२००३) रिलिज किया गया।
फिल्म जो मिल का पत्थर साबित हुई
आशा भोसले जी के गायिकी के कैरियर में चार फिल्मे मिल का पत्थर, साबित हुई नया दौर (१९५७), तीसरी मंजिल (१९६६), उमरॉव जान (१९८१) और रंगीला (१९९५)। नया दौर (१९५७): आशा भोसले जी की पहली बड़ी सफल फिल्म बी. आर. चोपड़ा की नया दौर(१९५७) थी। मो. रफी के साथ गाए उनके गीत यथा माँग के हाथ तुम्हारा...., साथी हाथ बढ़ाना... और उड़े जब जब जुल्फे तेरी... शाहिर लुधियानवी के द्वारा लिखित और ओ. पी. नैयर द्वरा संगीतबद्ध एक खास पहचान दी। आशा जी ने ओ.पी. नैयर के साथ पहले भी काम किया था पर यह पहली फिल्म थी जिसके सारे गीत आशा जी प्रमुख अभिनेत्री के लिए गाई थी। प्रोड्यूसर बी. आर. चोपडा ने नया दौर में उनकी प्रतिभा की पहचान कर आने वाली बाद की फिल्मों में पुन: मौका दिया। उनमे प्रमुख फिल्म वक्त, गुमराह, हमराज, आदमी और इंसान और धुंध आदि है। तीसरी मंजिल (१९६६):- आशा भोसले ने राहुल देव वर्मन की तीसरी मंजिल(१९६६) से काफी प्रसिद्ध हुई। जब पहले उन्होने गाने की धुन सुनी तो गीत आजा आजा... इस गीत को गाने से इनकार कर दिया था, जो वेस्टर्न डांस नम्बर पर आधारित थी। तब आर. डी. वर्मन ने संगीत को बदलने का प्रस्ताव आशा जी को दिया किंतु आशा जी ने यह चैलेंज स्वीकार करते हुए गीत गाए। १० दिन के अभ्यास के बाद जब अंतिम तौर पर यह खास गीत आशा जी ने गाए तो खुशी के कायल आर. डी. वर्मन ने १०0 रूपये के नोट आशा जी के हाथ में रख दिए। आजा आजा.... और इस फिल्म के अन्य गीत ओ हसीना जुल्फो वाली... और ओ मेरे सोना रे.... ये सभी गीत रफी जी के साथ तहलका मचा दिया। शम्मी कपूर इस फिल्म के नायक ने एक बार कहा था यदि में पास मो. रफी इस फिल्म के गीतो को गाने के लिए नहीं होते तो मै आशा भोसले को यह कार्य देता। उमराव जान (१९८१):- रेखा अभिनित उमराव जान(१९८१) आशा जी ने गज़ल गाया यथा- दिल चीज क्या है।..., इन आँखों की मस्ती के..., ये क्या जगह है दोस्तों... और जुस्त जु जिसकी थी।..। इन गज़लों के संगीतकार खय्याम थे जिन्होने आशा जी से सफलतापूर्वक गज़लो को गाने के लिए स्वरों के उतार चढाव को समझाया। आशा जी स्वयं आश्चर्यचकित थी कि वह इन गज़लो को सफलतापूर्वक गाई है। इन गज़लों ने आशा जी को प्रथम राष्ट्रीय पुरस्कार दिलाया और उनकी बहुमुखी प्रतिभा साबित हुई। रंगीला (१९९५):- सन १९९५ में ६२ वर्षीय आशा जी ने युवा अभिनेत्री उर्मिला मातोंडकर के लिए फिल्म रंगीला में गाई। इन्होंने फिर अपने चाहनेवालों को आश्चर्यचकित कर दिया। सुपर हिट गीत यथा- तन्हा तन्हा... और रंगीला रे... गीत ए. आर. रहमान के संगीत निर्देशन में गाई जो काफी प्रसिद्ध हुआ। बाद में कई अन्य गीतों को ए. आर. रहमान के निर्देशन में गाई। तन्हा तन्हा... गीत काफी प्रसिद्ध हुआ और आज भी लोग गुनगुनाते हैं।
संगीत निर्देशको के साथ साझेदारी
संगीतकार ओ.पी. नैयर की साझेदारी ने आशा भोसले जी को एक खास पहचान दिलाया। कई लोगों ने इनकी आपसी संबंध को प्रेम संबंध मान लिया। नैयर जी पहली बार १९५२ में आशा जी से एक गीत छम क्षमा छम... के संगीत रिकार्डिग के समय मिलें। पहली बार इन्होंने फिल्म माँगू (१९५४) के लिए आशा जी को बुलाया। फिर इन्होंने एक बहुत बड़ा मौका फिल्म सी.आई.डी. (१९५६) में आशा जी को दिया। इस प्रकार नया दौर (१९५७) की सफलता ने इन दोनों की प्रसिद्धी को बढ़ाया। १९५९ के बाद भावानात्मक और व्यावसायिक तौर पर आशा जी नैयर जी के साथ जुड़ी रहीं।
ओ.पी.नैयर और आशा भोसले की यादगार फिल्मे यथा- मधुबाला पर फिल्मांकित गीत आईये मेहरबाँ... (हावड़ा ब्रिज-१९५८) और मुमताज पर फिल्मांकित गीत ये है रेशमी जुल्फो का अंधेरा...(मेरे सनम-१९६५) आदि है। ओ.पी. नैयर ने कई हिट गीतों को आशा जी के साथ रिकार्ड किया यथा- नया दौर (१९५७), तुमसा नहीं देखा (१९५७), हावड़ा ब्रिज (१९५८), एक मुसाफिर एक हसीना (१९६२), कशमीर की कली (१९६४) आदि। इनकी साझेदारी की कुछ प्रसिद्ध गीत- आओ हुजुर तुमको...(किस्मत), जाईये आप कहाँ जाएगे...(मेरे सनम) आदि है। ओ.पी.नैयर की मो. रफी एवं आशा जी के साथ युगल गीत काफी प्रसिद्ध हुए। इनके द्वारा गाए कुछ प्रमुख युगल गीत उडे जब जब जुल्फे तेरी...(नया दौर), मै प्यार का राही हूँ...(एक मुसाफिर एक हसीना), दीवाना हुआ बादल..., इशारो इशारो मे...(काश्मीर की कली) आदि। ५ अगस्त १९७२ को दोनों में अलगाव हो गया। यह स्पष्ट नहीं हो पाया कि किन कारणो से दोनों में अलगाव हुआ।
दूसरे संगीतकार जिन्होने आशा जी के प्रतिभा को पहचाना और इनकी साझेदारी में आशा जी ने इनकी पहली फिल्म बीबी (१९४८) के लिए गाई। १९५० में खय्याम ने कई अच्छे अनुबंध आशा जी के साथ किए यथाफिल्म- दर्द, फिर सुबह होगी आदि। किंतु उन दोनों की साझेदारी की सबसे यादगार फिल्म- उमराव जान के गीत रहे।
रवि: संगीत निर्देशक रवि, आशा भोसले जी को अपनी पसंदीदा गायिका में एक मानते थे। आशा जी इनकी पहली फिल्म वचन (१९५५) में गीत गाई। चन्दा मामा दूर के.... गीत रातो रात भारतीय माँ के बीच प्रसिद्ध हो गया। जब अधिकांश संगीतकार आशा जी को बी-ग्रेड गीत गाने के लिए जानते थे उन दिनो रवि ने आशा जी से भजन गाने को कहा जिनमें घराना, गृहस्थी काजल और फुल और पत्थर फिल्में प्रमुख है। रवि और आशा जी ने कई प्रसिद्ध गीतो का रिकार्ड किया जिनमे किशोर कुमार के साथ गाए उनके मजेदार गीत सी ए टी..कैट माने बिल्ली...(दिल्ली का ठग) आदि है। रवि द्वारा संगीतबद्ध आशा जी के प्रसिद्ध भजन तोरा मन दर्पण कहलाए...(काजल) आदि है। इनकी साझेदारी में कई प्रसिद्ध फिल्मों के गीत रिकार्ड हुए यथा- वक्त, चौदहवी का चाँद, गुमराह, बहु-बेटी, चायना टाउन, आदमी और इंसान, धुंध, हमराज और काजल आदि है। चौदहवीं के चाँद में रवि गीता दत्त (प्रोड्यूसर गुरु दत्त की पत्नी) से गीत गवाना चाहते थे किंतु गुरु दत के जिद के कारण आशा जी ने गीत गाए जो काफी प्रसिद्ध हुए।
सचिन देव बर्मन
प्रसिद्ध संगीत निर्देशक सचिन देव वर्मन की पसंदीदा गायिका लता मंगेस्कर से १९५७ से १९६२ के बीच अच्छे संबंध नहीं थे। उन दिनो सचिन देव वर्मन ने आशा भोसले जी का उपयोग किया। इन दोनों की साझेदारी ने कई हिट गीत दिए यथा फिल्म काला पानी, काला बाजार, इंसान जाग उठा, लाजवंति, सुजाता और तीन देविया (१९६५) आदि है। १९६२ के बाद भी दोनों ने कई गीतों को रिकार्ड किया। मो. रफी और किशोर कुमार के साथ गाए युगल गीत आशा जी के काफी प्रसिद्ध रहे। अब के बरस... गीत बिमल राय की फिल्म बंदनी (१९६३) ने आशा जी को प्रमुख गायिका के रूप में स्थापित किया। अभिनेत्री तनुजा पर फिल्मांकित गीत रात अकेली है।..(ज्वेल थीफ,१९६७) काफी प्रसिद्ध हुआ।
राहुल देव बर्मन
आशा भोसले राहुल देव वर्मन जी से उस समय पहली बार मिली जब वह दो बच्चों की माँ थी और संगीतकार राहुल देव वर्मन (पंचम) की साझेदारी में फिल्म तीसरी मंजिल (१९६६) में पहली बार लोगों का ध्यान आकर्षित कर पाई। आशा जी ने आर. डी. वर्मन के साथ कैबरे, रॉक, डिस्को, गज़ल, भारतीय शास्त्रीय संगीत और भी बहुत गीत गाए। १९७० में आशा भोसले जी ने पंचम के साथ कई युवा गीत गाए यथा- पिया तू अब तो आ जा.....(कारवॉ-१९७१) हेलन पर फिल्मांकित, दम मारो दम...(हरे रामा हरे कृष्णा-१९७१), दुनिया में...(अपना देश-१९७२) चुरा लिया है तुमने...(यादों की बारात-१९७३) आदि है। इसके आलावा पंचम के संगीत निर्देशन में आशा जी ने किशोर कुमार के साथ कए प्रसिद्ध युगल गीत गाए यथा जाने जाँ ढूंढ़ता फिर रहा। ..(जवानी दीवानी), भली भली-सी एक सूरत...(बुढा मिल गया) आदि। १९८० में पंचम और आशा जी कई प्रसिद्ध गीतो को रिकार्ड किया। फिल्म इजाजत (१९८७)- मेरा कुछ सामान..., खाली हाथ शाम आयी है।.., कतरा कतरा... आदि प्रसिद्ध प्रमुख प्रसिद्ध गीतो को रिकार्ड किया। ओ मारिया...(सागर) के गीतो को भी रिकार्ड किया। गुलजार की इजाजत को आर. डी. वर्मन के संगीत निर्देशन में आशा जी को राष्ट्रीय पुरस्कार बेस्ट सिंगर प्राप्त हुआ। आर. डी. वर्मन जी ने कई हिन्दी प्रसिद्ध गीतो को बंगाली भाषा में आशा जी के आवाज को रिकार्ड किया यथा मोहुए झुमेछे आज माऊ गो, चोखे चोखे कोथा बोले चोखे नामे बृष्टि (बंगाली रूपांतरण गीत जाने क्या बात है।..) बंसी सुने की घोरे टाका जाए, संध्या बेले तुमी आमी..., आज गुन गुन जे आमर (बंगाली रूपांतरण गीत प्यार दीवाना होता है) आदि। यह प्रसिद्ध साझेदारी विवाह में परिणीत हुई। पंचम जी के अंतिम सांसो तक यह साझेदारी चली।
संगीत निर्देशक जयदेव, एस. डी. वर्मन के सहायक के तौर पर पहले काम करते थे बाद में इन्होंने स्वतंत्र रूप से संगीत निर्देशन करना शुरू किया। संगीतकार जयदेव ने आशा जी के साथ कई फिल्मों के गीत रिकार्ड किए, यथा- हम दोनों (१९६१), मुझे जीने दो (१९६३), दो बुँद पानी (१९७१) आदि। जयदेव और आशा जी ने फिल्मी गीतों के अलावा ८ गीतों का एक खास संग्रह जिनमे गज़ल एवं कुछ अन्य गीत शामिल थे को एन अनफॉर्गेटेबल ट्रिट के नाम से निकला। आशा जी, जयदेव की अच्छी मित्र मानी जाती थी। 19८7 में जयदेव जी के मरणोपरांत आशा जी ने कम प्रसिद्ध गीत जो जयदेव के द्वारा संगीतबद्ध था,सुरांजली नाम से निकाला।
शंकर जयकिशन ने आशा जी के साथ कम काम किया, फिर भी कुछ हिट गीत रिकार्ड किए यथा परदे में रहने दो। ..(शिखर१९६८) इस गीत के लिए आशा जी को द्वितीय फिल्म फेयर अवार्ड मिला। आशा जी ने एक प्रसिद्ध गीत शंकर जयकिशन के लिए गाए जो किशोर कुमार के आवाज में ज्यादा प्रसिद्ध था यथा जिन्दगी का सफर है सुहाना...(अंदाज)। जब राज कपुर का लता मंगेसकर के साथ बातचीत बंद था, तब आशा जी ने शंकर जयकिशन के संगीत निर्देशन में फिल्म मेरा नाम जोकर (१९७०) के गीत गाए।
दक्षिण भारतीय संगीत निर्देशक इलैयाराजा १९८० के दौरान आशा जी के आवाज को रिकार्ड करना शुरू किया। इन दोनों की साझेदारी में फिल्म मुन्दरम पइराई (१९८२)(या सदमा, इसकी हिन्दी रीमेक १९८३में) बनी। १९८० से १९९० के बीच इन दोनों की साझेदारी बनी रही। इस खास साझेदारी की प्रसिद्ध गीत सीनबागमाइ(इनगा ओरू पट्टुकारन१९८७, तमिल फिल्म) आदि है। २००० ई. में आशा जी ने इलैयाराजा के संगीतनिर्देशन में कमल हसन की फिल्म हे राम के मूल गीत गाई। जन्मों की ज्वाला....(या अपर्णा की थीम गीत) को गज़ल गायक हरिहरन के साथ युगल गीत गाई।
अनु मलिक और आशा जी ने कई हिट गीत रिकार्ड किए। जिनमे इनकी संगीतबद्ध पहली फिल्म सोनीमहीवाल(१९८४) शामिल है। अनु मलिक के संगीत निर्देशन में बहुत प्रसिद्ध गीतो में फिलहाल...(फिलहाल), किताबें बहुत से...(बाजीगर) आदि शामिल है। अनु मलिक के संगीत निर्देशन में आशा जी ने चार पंक्ति जब दिल मिले...(यादें) सुखबिन्दर सिह, उदित नारायण और सुनिधि चौहान के साथ गाए। आशा जी ने अनु मलिक के पिता सरदार मलिक के लिए १९५० ई. से १९६० ई. में गाई जिनमे प्रसिद्ध फिल्म सारंगा (१९६०) शामिल है।
ए. आर. रहमान
१९९५ फिल्म रंगीला से आशा जी ने ए. आर. रहमान संगीत निर्देशक के साथ अपनी दुसरी पारी के शुरुआत की। इसका श्रेय ए. आर. रहमान को जाता है। चार्टबस्टर के हिट गीत तन्हा तन्हा... और रंगीला रे... से आशा जी को पुन: प्रसिद्धि मिली। रहमान और आशा जी की साझेदारी में कई गीत रिकार्ड हुए जिनमे हिट गीत मुझे रंग दे...(त्क्षक), राधा कैसे न जले...(लगान, युगल गीत उदित नारायण के साथ), कही आग लगे। ..(ताल), ओ भवरें...(दौड, युगल गीत के.जे.यशुदास), वीनीला वीनीला...(अरूवर-१९९९) प्रमुख है। रहमान ने एक बार कहा-मै सोचता हूँ आशा और लता जी के कद में जो संगीत फिट बैठ्ता है वैसा मैने तैयार किया।
अन्य संगीत निर्देशक
मदन मोहन ने झुमका गिरा रे...(मेरा साया१९६६) के प्रसिद्ध गीत को आशा जी की आवाज में रिकार्ड किया। सलिल चौधरी ने फिल्म छोटी सी बात (१९७५) में जानेमन जानेमन... युगल गीत के.जे.यशुदास के साथ रिकार्ड किया। सलिल चौधरी की फिल्म जागते रहो (१९५६) गीत ठंडी ठंडी सावन की फुहार... आशा जी की आवाज में रिकार्ड किया। संगीतकार संदीप चौटा के साथ आशा जी ने कमबख्त इश्क ..(एक युगल गीत सोनू निगम के साथ) फिल्म प्यार तुने क्या किया (२००१) के लिए गाई जो युवाओं में काफी लोकप्रिय हुआ। आशा जी ने लक्षमीकांत-प्यारेलाल, नौशाद, रवीन्द्र् जैन, एन. दता, हेमंत कुमार के लिए गाए और साथ काम किया। बॉलीवुड के अन्य प्रसिद्ध संगीतकार के साथ भी आशा जी ने काम किया जिनमे जतिन ललित, बप्पी लाहिरी, कल्याण जी आन्नद जी, उषा खन्ना, चित्रगुप्त एवं रौशन शामिल है।
लता मंगेसकर के साथ आशा जी मराठी संगीत की सिरमौर रही है (क्योंकि मराठी उनकी मातृभाषा है)। आशा जी मराठी भाषा की अनेको गीत गा चुकी है जिनमे प्रसिद्ध कविओं की कविता है, जो भाव गीत के रूप में प्रसिद्ध है। यथा प्रसिद्ध एलबन रूतु हिरावा(ग्रीन सीजन) जो श्रीधर पाडके द्वारा रचित है। अपने भाई हृदयनाथ मंगेसकर द्वारा संगीतबद्ध आशा जी के कई प्रसिद्ध गीत है। आशा जी द्वारा गाए मराठी भजन काफी प्रचलित और प्रसिद्ध है।
८ सितम्बर 19८7 आशा जी के जन्म दिवस पर दिल पड़ोसी है नामक एलबम, गुलजार द्वारा रचित और आर.डी.वर्मन द्वारा संगीतबद्ध जारी किया गया। आशा जी उस्ताद अली अकबर खान से १९९५ में विशेष रूप से मिली, बाद में आशा जी ने उस्ताद अली अकबर खान के साथ ग्यारह बंदिसे रिकार्ड की कैलीफिर्निया मे। जो ग्रेमी अवार्ड के लिए नामांकित हुआ। १९९० में आर.डी.वर्मन द्वारा संगीतबद्ध गीतो को आशा जी ने रिमिक्स कर प्रयोगात्मक अनुभव किया जो कई लोगों द्वारा आलोचना का विषय बना। संगीतकार खय्याम ने भी इसकी आलोचना की। किंतु राहुल और मै नामक एलबम काफी प्रसिद्ध रही। इंडोपॉप एलबम जानम समझा करो लेस्ली लुईस के साथ काफी प्रसिद्ध रहा। कई पुरस्कारो सहित १९९७ एम.टी.वी. एवार्ड इस खास एलबम को मिला। २००२ ई. में अपनी एलबम आप की आशा जो आठ गीतों वाला वीडियो एलबम था, खुद आशा जी ने संगीत तैयार किया। इसके गीत मुजरूह सुल्तांनपुरी द्वारा रचित (अंतिम रचना सुलतान पुरी द्वारा) था। २१ मई २००१ को सचिन तेन्दुलकर द्वारा मुम्बई में एक खास पार्टी में यह एलबम जारी किया गया।
जब पाकिस्तानी गायक अदनान सामी सिर्फ १० वर्ष के थे तब आशा जी ने उनकी प्रतिभा को पहचाना। आशा जी ने अदनान सामी को गायन प्रतिभा विकसित कर आगे बढने के लिए प्रेरित किया। जब अदनान बड़े हुए तब आशा जी के साथकभी तो नज़र मिलाओ एलबम में गीत गाए जो काफी प्रसिद्ध रहा। फिर बरसे बादल नामक एलबम में भी अदनान सामी के साथ गाई। आशा जी ने कई एलबमों के लिए गज़ल गाई यथा-मीराज-ए-गज़ल, अबशहर-ए-गज़ल और कशीश। २००५ में आशा जी ने एलबम आशा जो चार गज़ल गायको को समर्पित था- मेंहदी हसन, गुलाम अली, फरीदा खानम और जगजीत सिंह जारी किया। इस एलबम में आशा जी के आठ पसंदीदा गजल यथा- फरीदा खानम की आज जाने की जिद ना करो..., गुलाम अली की चुपके चुपके..., आवारगी... और दिल में एक लहर... जगजीत सिह की आहिस्ता आहिस्ता..., मेहदी हसन की रंजीश है सही...,रफ्ता रफ्ता... और मुझे तुम नज़र से... शामिल था। इसके संगीतकार पंडित सोमेश माथुर थे जिन्होने युवाओ के ध्यान में रखते हुए संगीत दिए। आशाजी के ६०वें जन्मदिवस पर इ.एम.आई. इंडिया ने तीन कैसेट जारी किए- बाबा मै बैरागन होंगी (भक्ति गीत), द गोलडेन कलैक्सन-गज़ल (संगीतकार गुलाम अली, आर.डी.वर्मन और नज़र हुसैन) और द गोलडेन कलेक्शन- द एवर भरसाटाइल आशा भोसले जो ४४ प्रसिद्ध गीतो का संग्रह था। २००६ में आशा जी ने आशा एण्ड फ्रैण्डस नामक एलबम रिकार्ड किया जिनमे युगल गीत संजय दत्त और उर्मिला मातोंडकर के साथ गाए साथ ही प्रसिद्ध क्रिकेटर ब्रेट ली के साथ आशा जी ने यू आर द वन फॉर मी (हाँ मै तुम्हारी हूँ) गीत गाए। इन गीतो के संगीतकार समीर टण्डन थे। इसका विडियो निर्माण एस. रामचन्द्रन ने किया (जो पत्रकार से निर्देशक् बने थे)।
पुरस्कार और सम्मान
फिल्म फेयर बेस्ट फिमेल प्लेबैक अवार्ड
१९६८-गरीबो की सुनो...(दस लाख - १९६६)
१९६९-परदे में रहने दो...(शिकार - १९६८)
१९७२- पिया तु अब तो आजा...(कारवाँ - १९७१)
१९७३-दम मारो दम...(हरे रामा हरे कृष्णा - १९७२)
१९७४-होने लगी है रात...(नैना - १९७३)
१९७५-चैन से हमको कभी...(प्राण जाये पर वचन ना जाये - १९७४)
१९७९-ये मेरा दिल...(डॉन - १९७८)
१९९६-स्पेशल अवार्ड (रंगीला-* १९९५)
२००१-फिल्म फेयर लाइफटाइम एचीवमेंट अवार्ड
राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार
१९८१- दिल चीज क्या है।..(उमरॉव जान)
१९८६ मेरा कुछ सामान...(इजाजत)
अन्य यादगार पुरस्कार
१९८७- नाइटीनेंगल ऑफ एशिया अवार्ड (इंडो पाक एशोशिएशन यु.के.)
१९८९- लता मंगेस्कर अवार्ड (मध्य प्रदेश सरकार) * १९९७- स्क्रीन वीडियोकॉन अवार्ड (जानम समझा
करो- एलबम के लिए)
१९९७- एम.टी.वी. अवार्ड (जानम समझा करो- एलबम के लिए)
१९९७- चैनल वी अवार्ड (जानम समझा करो- एलबम के लिए)
१९९८- दयावती मोदी अवार्ड
१९९९- लता मंगेस्कर अवार्ड (महाराष्ट्र सरकार)
२०००- सिंगर ऑफ द मिलेनियम (दुबई) २०००- जी गोल्ड बॉलीवुड अवार्ड (मुझे रंग दे- फिल्म तक्षक के लिए)
२००१- एम.टी.वी. अवार्ड (कमबख्त इशक के लिए) २००२- बी.बी.सी. लाइफटाइम एचीवमेंट अवार्ड (यू॰के॰ प्रधानमंत्री टोनी ब्लेयर के द्वारा प्रदत) २००२- जी सीने अवार्ड फॉर बेस्ट प्लेबैक सिंगर - फिमेल (राधा कैसे न जले..-फिल्म लगान के लिए)
२००२- जी सीने स्पेशल अवार्ड फॉर हॉल ऑफ फेम २००२- स्क्रीन वीडियोकॉन अवार्ड (राधा कैसे न जले..-फिल्म लगान के लिए)
२००२-सैनसुई मुवी अवार्ड (राधा कैसे न जले..-फिल्म लगान के लिए)
२००३- सवराल्या येशुदास अवार्ड (भारतीय संगीत में उत्कृष्ट योगदान के लिए) २००४- लाईविग लीजेंड अवार्ड (फेडरेशन ऑफ इंडियन चेम्बर ऑग कामर्स एण्ड इंडस्ट्रीज के द्वारा)
२००५- एम.टी.वी. ईमीज, बेस्ट फीमेल पॉप ऐक्ट (आज जाने की जिद न करो। .) २००५- मोस्ट स्टाइलिश पीपुल इन म्यूजिक
सम्मान एवं विशेष पहचान
१९९७ मई आशा जी पहली भारतीय गायिका बनी जो ग्रेमी अवार्ड के लिए नामांकित की गई (उस्ताद अली अकबर खान के साथ एक विशेष एलबम के लिए)
आशा जी सत्तरहवी महाराष्ट्र स्टेट अवार्ड प्राप्त की।
भारतीय सिनेमा में उत्कृष्ट योगदान के लिए सन २००० में दादा साहेब फाल्के अवार्ड से सम्मानित की गई।
आशा जी को साहित्य में डॉक्टरेट की उपाधि से अमरावती विश्वविद्यालय एवं जलगाँव विश्वविद्यालय द्वारा सम्मानित किया गया।
द फ्रिडी मरकरी अवार्ड कला के क्षेत्र में उत्कृष्ट उपलब्धियों के लिए आशा जी को इस खास पुरस्कार से सममानित किया गया।
नवम्बर २००२ में आशा जी को बर्मिंघम फिल्म फेस्टिवल विशेष रूप से समर्पित किया गया।
पद्मविभूषण के द्वारा राष्टपति प्रतिभा देवी सिंह पाटिल ने ५ मई २००८ को आशा जी को सम्मानित किया। यह सम्मान भारत सरकार के महत्वपूर्ण सम्मानो में है।
आशा भोसलेजी के गाए हुए हिन्दी गीत
आशा भोसलेजी के गाए हुए मराठी गीत
आशा भोसले ने गाए हुए हिन्दी गाने
आशा भोसलेजी के कुछ मराठी गीत |
साड़ी (कुछ इलाकों में सारी कहा जाता है) भारतीय स्त्री का मुख्य परिधान है। यह शायद विश्व की सबसे लंबी और पुराने परिधानों में से गिना जाता है। यह लगभग ५ से ६ गज लम्बी बिना सिली हुए कपड़े का टुकड़ा होता है जो ब्लाउज या चोली और साया के ऊपर लपेटकर पहना जाता है।
तरह-तरह की साड़ियाँ
साड़ी पहनने के कई तरीके हैं जो भौगोलिक स्थिति और पारंपरिक मूल्यों और रुचियों पर निर्भर करता है। अलग-अलग शैली की साड़ियों में कांजीवरम साड़ी, बनारसी साड़ी, पटोला साड़ी और हकोबा मुख्य हैं। मध्य प्रदेश की चंदेरी, महेश्वरी, मधुबनी छपाई, असम की मूंगा रशम, उड़ीसा की बोमकई, राजस्थान की बंधेज, गुजरात की गठोडा, पटौला, बिहार की तसर, काथा, छत्तीसगढ़ी कोसा रशम, दिल्ली की रशमी साड़ियाँ, झारखंडी कोसा रशम, महाराष्ट्र की पैथानी, तमिलनाडु की कांजीवरम, बनारसी साड़ियाँ, उत्तर प्रदेश की तांची, जामदानी, जामवर एवं पश्चिम बंगाल की बालूछरी एवं कांथा टंगैल आदि प्रसिद्ध साड़ियाँ हैं।
उदभव और इतिहास
साड़ी का इतिहास
१ साड़ी का उल्लेख वासस् व अधिवासस् के रूप में वेदों में मिलता है। यजुर्वेद में साड़ी शब्द का सबसे पहले उल्लेख मिलता है। दुसरी तरफ ऋग्वेद की संहिता के अनुसार यज्ञ या हवन के समय स्त्री को साड़ी पहनने का विधान भी है।
२ साड़ी विश्व की सबसे लंबी और पुराने परिधानों में एक है। इसकी लंबाई सभी परिधानों से अधिक है।
इन्हें भी देखें
बदली-बदली सी नजर आती है साड़ी
साड़ी पहनने के दिशा निर्देश
साड़ी कैसे पहनें (दक्षिण भारतीय शैली)
स्त्रियों के वस्त्र |
कुर्ता या कुरता एक पारंपरिक भारतीय पोशाक है। यह एक लम्बी कमीज की तरह होता है जो घुटनों तक लंबा होता है और पजामा के साथ पहना जाता है जो या तो कुर्ते के रँग से मिलता जुलता होता है या सफेद होता है। कुरते को आम प्रयोग और खास मौकों दोनो के लिये इस्तेमाल किया जाता है हालांंकि खा़स मौकों पर पहने जाने वाला कुर्ता आम तौर से ज्यादा फैशनेबल होते हैं। कुर्ते सूती, ऊनी और रेशमी सभी तरह के सामग्रियों में मिलते हैं। भारत और पड़ोसी देशों बांग्लादेश और पाकिस्तान में भी कुर्ते की परंपरा रही है। कुर्ते के कई परिवर्धित रूप हैं जिनमें शेरवानी, पठानी सूट इत्यादि प्रमुख। औरतें भी कुर्तों का इस्तेमाल करती हैं किन्तु इन्हें आमतौर पर कुर्ती और अन्य नामों से पुकारा जाता है।
इन्हें भी देखें |
पोखरण (पोखरान) भारत के राजस्थान राज्य के जैसलमेर ज़िले में स्थित एक नगर है।
पोकरण या पोखरण जैसलमेर से ११० किलोमीटर दूर जैसलमेर-जोधपुर मार्ग पर पोकरण प्रमुख कस्बा हैं। पोकरण में लाल पत्थरों से निर्मित सुन्दर दुर्ग है। इसका निर्माण सन १५५० में राव मालदेव(राव जोधा के वंशज राव गांगा का पुत्र व राव चन्द्रसेन का पिता था) ने कराया था। यह स्थल बाबा रामदेव के गुरूकुल के रूप में विख्यात हैं। पोखरण के पास आशापूर्णा मंदिर, खींवज माता का मंदिर, कैलाश टेकरी दर्शनीय हैं। पोखरण से तीन किलोमीटर दूर स्थित सातलमेर को पोखरण की प्राचीन राजधानी होने का गौरव प्राप्त हैं। भारत का पहला भूमिगत परमाणु परीक्षण १८ मई, १९७४ को यहाँ किया गया। पुनः ११ और १३ मई १९९८ को यह स्थान इन्हीं परीक्षणों के लिए चर्चित रहा।
भारतीय परमाणु आयोग ने यहाँ अपना पहला भूमिगत परिक्षण १८ मई १९७४ को किया था। हालांकि उस समय भारत सरकार ने घोषणा की थी कि भारत का परमाणु कार्यक्रम शांतिपूर्ण कार्यो के लिये होगा और यह परीक्षण भारत को उर्जा के क्षेत्र में आत्मनिर्भर बनाने के लिये किया गया है। बाद में ११ और १३ मई १९९८ को पाँच और भूमिगत परमाणु परीक्षण किये और भारत ने स्वयं को परमाणु शक्ति संपन्न देश घोषित कर दिया।
इन्हें भी देखें
राजस्थान के शहर
जैसलमेर ज़िले के नगर |
संथाल भारत का मुंडा जातीय समूह की एक प्रमुख जनजाति है। वे मुख्य रूप से भारतीय राज्यों झारखंड, पश्चिम बंगाल, ओडिशा, बिहार और असम में रहते हैं, यह अल्पसंख्या में नेपाल, भूटान, म्यांमार और बांग्लादेश में भी पाये जाते हैं। ये मूल रूप से संथाली भाषा बोलते हैं।
अन्य जाति द्वारा शब्द 'संताड़ी' को अपने-अपने क्षेत्रीय भाषाओं के उच्चारण स्वरूप संथाल, संताल, संवतल, संवतर आदि के नाम से संबोधित किए। जबकि संथाल, संताल, संवतल, संवतर आदि ऐसा कोई शब्द ही नहीं है। शब्द केवल "संथाली" है, जिसे उच्चारण के अभाव में देवनागरी में "संथाली" और रोमन में संताली लिखा जाता है।
संथाली भाषा बोलने वाले वक्ता मुंडा जातीय समूह की खेरवाड़ समुदाय से आते हैं, जो अपने को "होड़" (मनुष्य) अथवा "होड़ होपोन" (मनुष्य की सन्तान) भी कहते हैं। इस समुदाय में मुंडा, भूमिज, हो, उरांव आदि जनजातियां भी आती है। मुंडा, भूमिज और हो जनजाति एक ही नस्ल के हैं, जबकि संथाल थोड़ी भिन्न है। मुंडारी, भूमिज, हो और संथाली भाषा में थोड़ी समानताएं थीं देखी जा सकती है। संथाल लोग भारत की प्राचीनतम जनजातियों में से एक है, किन्तु वर्तमान में इन्हे झारखंडी (जाहेर खोंडी) के रूप में जाना जाता है। झारखंडी का अर्थ झारखंड में निवास करने वाले से नहीं है बल्कि "जाहेर" (सारना स्थल) के "खोंड" (वेदी) में पूजा करने वाले लोग से है, जो प्रकृति को विधाता मानता है। अर्थात् प्रकृति के पुजारी - जल, जंगल और जमीन से जुड़े हुए लोग। ये "मारांग बुरु" और "जाहेर आयो" (माता प्रकृति) की उपासना करतें है।
वस्तुत: संथाली भाषा भाषी के लोग मूल रूप से खेरवाड़ समुदाय से आते हैं, किन्तु मानवशास्त्रियों ने इन्हें प्रोटो आस्ट्रेलायड से संबन्ध रखने वाला समूह माना है। अपितु इसका कोई प्रमाण अबतक प्रस्तुत नहीं किया गया है। अत: खेरवाड़ समुदाय (संथाली, हो, मुंडा, भूमिज, कुरुख, बिरहोड़, खड़िया, असुर, लोहरा, सावरा, महली रेमो, बेधिया आदि) में भारत सरकार को पुनः शोध करना चाहिए।
संथाल लोग भारत में अधिकांश झारखंड, पश्चिम बंगाल, उड़ीसा, बिहार, असम, त्रिपुरा, मेघालय, मणिपुर, सिक्किम, मिजोरम राज्यों तथा विदेशों में अल्पसंख्या में चीन, न्यूजीलैंड, नेपाल, भूटान, बंगलादेश, जवा, सुमात्रा आदि देशों में रहते हैं।
संथाल समाज अद्वितीय विरासत की परंपरा और आश्चर्यजनक परिष्कृत जीवन शैली है। सबसे उल्लेखनीय हैं उनके लोकसंगीत, गीत, संगीत, नृत्य और भाषा हैं। दान करने की संरचना प्रचुर मात्रा में है। उनकी स्वयं की मान्यता प्राप्त लिपि 'ओल-चिकी' है, जो खेरवाड़ समुदाय के लिए अद्वितीय है। इनकी सांस्कृतिक शोध दैनिक कार्य में परिलक्षित होते है- जैसे डिजाइन, निर्माण, रंग संयोजन और अपने घर की सफाई व्यवस्था में है। दीवारों पर आरेखण, चित्र और अपने आंगन की स्वच्छता कई आधुनिक शहरी घर के लिए शर्म की बात होगी। अन्य विषेशता इनके सुन्दर ढंग के मकान हैं जिनमें खिड़कियां नहीं होती हैं। इनके सहज परिष्कार भी स्पष्ट रूप से उनके परिवार के माता पिता, पति पत्नी, भाई बहन के साथ मजबूत संबंधों को दर्शाता है। सामाजिक कार्य सामूहिक होता है। अत: पूजा, त्योहार, उत्सव, विवाह, जन्म, मृत्यु आदि में पूरा समाज शामिल होता है। हालांकि, संताल समाज पुरुष प्रधान होता है किन्तु सभी को बराबरी का दर्जा दिया गया है। स्त्री-पुरुष में लिंग भेद नहीं है, इसलिए इनके घर लड़का और लड़की का जन्म आनंद का अवसर हैं। इनके समाज में स्त्री पुरुष दोनों को विशेष अधिकार प्रदान किया गया है। वे शिक्षा ग्रहण कर सकते है; वे नाच गा सकते है; वे हाट बाजार घूम सकते है; वे इच्छित खान पान का सेवन कर सकते है; वे इच्छित परिधान पहन सकते हैं; वे इच्छित रूप से अपने को सज संवर सकते हैं; वे नौकरी, मेहनत, मजदूरी कर सकते हैं; वे प्रेम विवाह कर सकते हैं। इनके समाज में पर्दा प्रथा, सती प्रथा, कन्या भ्रूण हत्या, दहेज प्रथा नहीं है बल्कि विधवा विवाह; अनाथ बच्चों; नजायज बच्चों को नाम, गोत्र देना और पंचायतों द्वारा उनके पालन का जिम्मेदारी उठाने जैसे श्रेष्ठ परम्परा है। संताल समाज मृत्यु के शोक अन्त्येष्टि संस्कार को अति गंभीरता से मनाया जाता है।
इनके चौदह मूल गोत्र हैं- हासंदा, मुर्मू, किस्कु, सोरेन, टुडू, मार्डी, हेंब्रोम, बास्के, बेसरा, चोणे, बेधिया, गेंडवार, डोंडका और पौरिया। इनके विवाह को 'बापला' कहा जाता है। संताड़ी समाज में कुल २३ प्रकार की विवाह प्रथायें है, जो निम्न प्रकार है -
तुनकी दिपिल बापला: इस पद्धति से शादी बहुत ही निर्धन परिवार द्वारा की जाती है । इसमें लड़का दो बारातियों के साथ लड़की के घर जाता है तथा लड़की अपने सिर पर टोकरी रखकर उसके साथ आ जाती है। सिन्दूर की रस्म लड़के के घर पर पूरी की जाती है।
हिरोम चेतान बापला
दाग़ बोलो बापला
घरदी जवाई बापला: ऐसे विवाह में लड़का अपने ससुराल में घर जमाई बनकर रहता है । वह लड़की के घर ५ वर्ष रहकर काम करता है। तत्पश्चात एक जोड़ी बैल,खेती के उपकरण तथा चावल आदि सामान लेकर अलग घर बसा लेता है।
कोंडेल ञापाम बापला
इतुत बापला: ऐसा विवाह तब होता है जब कोई लड़का बलपूर्वक किसी सार्वजनिक स्थान पर लड़की के मांग में सिन्दूर भर देता है । इस स्थिति में वर पक्ष को दुगुना वधू मूल्य चुकाना पड़ता है। यदि लड़की उसे अपना पति मानने से इन्कार कर देती है तो उसे विधिवत तलाक़ देना पड़ता है।
ओर आदेर बापला
ञीर नापाम बापला
दुवर सिंदूर बापला
टिका सिंदूर बापला
किरिञ बापला: जब लड़की किसी लड़के से गर्भवती हो जाती है तो जोग मांझी अपने हस्तक्षेप से सम्बंधित व्यक्ति के विवाह न स्वीकार करने पर लड़की के पिता को कन्या मूल्य दिलवाता है ताकि लड़की का पिता उचित रकम से दूसरा विवाह तय कर सके।
गुर लोटोम बापला
संगे बरयात बापला
धर्म और त्योहार
इनके धार्मिक विश्वासों और अभ्यास किसी भी अन्य समुदाय या धर्म से मेल नहीं खाता है। इनमें प्रमुख देवता हैं- 'सिञ बोंगा', 'मारांग बुरु' (लिटा गोसांय), 'जाहेर एरा, गोसांय एरा, मोणे को, तुरूय को, माझी पाट, आतु पाट, बुरू पाट, सेंदरा बोंगा, आबगे बोंगा, ओड़ा बोंगा, जोमसिम बोंगा, परगना बोंगा, सीमा बोंगा (सीमा साड़े), हापड़ाम बोंगा आदि। पूजा अनुष्ठान में बलिदानों का इस्तेमाल किया जाता है। चूंकि, संताल समाज में सामाजिक कार्य सामूहिक होता है। अत: इस कार्य का निर्वहन के लिए समाज में मुख्य लोग "माझी, जोग माझी, परनिक, जोग परनिक, गोडेत, नायके और परगना" होते हैं, जो सामाजिक व्यवस्था, न्याय व्यवस्था, जैसे - त्योहार, उत्सव, समारोह, झगड़े, विवाद, शादी, जन्म, मृत्यु, शिकार आदि का निर्वहन में अलग - अलग भूमिका निभाते है। संताल समाज मुख्यतः बाहा, सोहराय, माग, ऐरोक, माक मोंड़े, जानताड़, हरियाड़ सीम, पाता, सेंदरा, सकरात, राजा साला: त्योहार और पूजा मनाते हैं।
लुगुबुरु पहाड़ी स्थित 'लुगुबुरु घंटाबाड़ी' संथाल समाज की एक प्रमुख धार्मिक स्थल है, जहां हजारों की संख्या में देश-विदेश से संथाल समाज के लोग पूजा करने पहुंचते हैं।
द्रौपदी मुर्मू, भारत की राष्ट्रपति
शिबू सोरेन, राजनेता और पूर्व मुख्यमंत्री
हेमंत सोरेन, राजनेता और मुख्यमंत्री
बाबूलाल मरांडी, राजनेता और पूर्व मुख्यमंत्री
रघुनाथ मुर्मू, ओल चिकि लिपि आविष्कारक, साहित्यकार
सिद्धू-कान्हू मुर्मू, चांद भैरो, फूलो झानो , स्वतंत्रता सेनानी
तिलका मांझी, स्वतंत्रता सेनानी
खेरवाल सोरेन, साहित्यकार
भोगला सोरेन, साहित्यकार
रामचंद्र मुर्मू, साहित्यकार
जोबा मुर्मु, साहित्यकार
रबिलाल टुडू, साहित्यकार
मैना टुडू, लेखिका
चम्पई सोरेन, राजनेता
सालखन मुर्मू, राजनेता
लक्ष्मण टुडू, राजनेता
बसेन मुर्मू, गायक
गिरीश चन्द्र मुर्मू, पूर्व लेफ्टिनेंट गवर्नर
चंद्राणी मुर्मू, राजनेता
बिरबाहा हाँसदा, फिल्म कलाकार और राजनेता
लक्ष्मीरानी माझी, तिरंदाज
दिगंबर हांसदा, साहित्यकार
इन्हें भी देखें
मिटने के कगार पर गौरवशाली परम्परा (भारतीय पक्ष) |
हिरोशिमा (जापानी: ) जापान का एक नगर है जहाँ द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान १९४५ में संयुक्त राज्य अमेरिका द्वारा परमाणु बम गिराया गया था जिससे पूरा का पूरा नगर बरबाद हो गया था। इस विभिषका के परिणाम आज भी इस नगर के लोग भुगत रहे हैं। जापान के एक दूसरे नगर नागासाकी पर भी परमाणु बम से हमला किया गया था। इसी का परिणाम है कि जापान ने परमाणु हथियार कभी निर्माण न करने की नीति स्थापित की है।
आज हिरोशिमा जापान का एक बड़ा नगर है। हिरोशिमा में ११,९६,२७४ लोग रहते हैं। बराक ओबामा हिरोशिमा गया २०१७ में और काग़ज़ के सारस बनाये हिरोशिमा पीस मेमोरियल पार्क में। हिरोशिमा में बहुत लोग काग़ज़ के सारस बनाते हैं, शांति के लिए। यह है क्योंकि जब हिरोशिमा पे बम गिरा एक लड़की, जिसका नाम सडाको ससाकी था, को ल्यूकेमिया हुई। उसने हज़ार सारस बनाने की कोशिश की क्योंकि जापान में कहते हैं कि अगर आप हज़ार सारस बनाये, आपकी एक ख़्वाहिश सच होगी। सडाको ने हज़ार सारस बनाये मगर बेहतर नहीं हुई और मरी। सडाको के लिए आज भी लोग सारस बनाते हैं हिरोशिमा में।
जापान के नगर |
आकाशवाणी (इसो १५९१९: कव ) भारत के सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय के अधीन संचालित सार्वजनिक क्षेत्र की रेडियो प्रसारण सेवा है।
भारत में रेडियो प्रसारण की शुरुआत मुम्बई और कोलकाता में सन १९२७ में दो निजी ट्रांसमीटरों से हुई। १९३० में इसका राष्ट्रीयकरण हुआ और तब इसका नाम भारतीय प्रसारण सेवा (इण्डियन ब्राडकास्टिंग कॉरपोरेशन) रखा गया। बाद में १९५७ में इसका नाम बदल कर आकाशवाणी रखा गया।
आकाशवाणी एक संस्कृत शब्द है जिसका अर्थ है 'आकाशीय / आकाश से आवाज' या 'आकाशीय आवाज'। हिन्दू पन्थ, जैन पन्थ और बौद्ध पन्थ में, आकाशवाणी को अक्सर स्वर्ग से मानव जाति से संचार के माध्यम के रूप में कहानियों में चित्रित किया जाता है।
आकाशवाणी शब्द का उपयोग पहली बार १९३६ में एम॰ वी॰ गोपालस्वामी ने अपने निवास स्थान, विट्ठल विहार (आकाशवाणी के वर्तमान मैसूर रेडियो स्टेशन से लगभग दो सौ गज की दूरी) में भारत के पहले निजी रेडियो स्टेशन की स्थापना के बाद किया था। आकाशवाणी को बाद में १९५७ में ऑल इण्डिया रेडियो के ऑन-एयर नाम के रूप में दिया गया; संस्कृत में इसके शाब्दिक अर्थ को देखते हुए, यह एक प्रसारक के लिए उपयुक्त नाम से अधिक माना जाता था।
बॉम्बे प्रेसिडेंसी रेडियो क्लब और अन्य रेडियो क्लबों के कार्यक्रमों के साथ ब्रिटिश राज के दौरान जून १९२३ में प्रसारण आरम्भ हुआ। २३ जुलाई १९२७ को एक समझौते के अनुसार, प्राइवेट इण्डियन ब्रॉडकास्टिंग कम्पनी लिमिटेड (इब्क) को दो रेडियो स्टेशन संचालित करने के लिए अधिकृत किया गया था: बॉम्बे स्टेशन जो २३ जुलाई १९२७ को आरम्भ हुआ था, और कलकत्ता स्टेशन जो २६ अगस्त १९२७ को आरम्भ हुआ था। कम्पनी चली गई। १ मार्च १930 को परिसमापन में सरकार ने प्रसारण सुविधाओं को संभाला और १ अप्रैल १930 को दो वर्ष के लिए प्रायोगिक आधार पर भारतीय स्टेट ब्रॉडकास्टिंग सर्विस (इसब्स) की शुरुआत की और मई १932 में स्थायी रूप से ऑल इण्डिया रेडियो बन गया।
आकाशवाणी की बहुत भाषाओं में विभिन्न सेवाएँ हैं जो प्रत्येक देश भर के विभिन्न क्षेत्रों में कार्यरत हैं।
विविध भरती आकाशवाणी की सबसे लोकप्रिय-ज्ञात सेवा है। इसे विज्ञापन प्रसारण सेवा भी कहा जाता है।
इन्हें भी देखें
आकाशवाणी का हिंदी जालपृष्ठ |
नक्सलवाद साम्यवादी क्रान्तिकारियों के उस आन्दोलन का अनौपचारिक नाम है जो भारतीय कम्युनिस्ट आन्दोलन के फलस्वरूप उत्पन्न हुआ। नक्सल शब्द की उत्पत्ति पश्चिम बंगाल के छोटे से गाँव नक्सलबाड़ी से हुई है जहाँ भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टी के नेता चारू मजूमदार और कानू सान्याल ने १९६७ मे सत्ता के विरुद्ध एक सशस्त्र आन्दोलन का आरम्भ किया । मजूमदार चीन के कम्यूनिस्ट नेता माओत्से तुंग के बहुत बड़े प्रशंसकों में से थे और उनका मानना था कि भारतीय श्रमिकों एवं किसानों की दुर्दशा के लिये सरकारी नीतियाँ उत्तरदायी हैं जिसके कारण उच्च वर्गों का शासन तन्त्र और फलस्वरुप कृषितन्त्र पर वर्चस्व स्थापित हो गया है। इस न्यायहीन दमनकारी वर्चस्व को केवल सशस्त्र क्रान्ति से ही समाप्त किया जा सकता है। १९६७ में "नक्सलवादियों" ने कम्युनिस्ट क्रान्तिकारियों की एक अखिल भारतीय समन्वय समिति बनाई। इन विद्रोहियों ने औपचारिक रूप से स्वयं को भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी से अलग कर लिया और सरकार के विरुद्ध भूमिगत होकर सशस्त्र लड़ाई छेड़ दी। १९७१ के आंतरिक विद्रोह (जिसके अगुआ सत्यनारायण सिंह थे) और मजूमदार की मृत्यु के बाद यह आंदोलन एकाधिक शाखाओं में विभक्त होकर कदाचित अपने लक्ष्य और विचारधारा से विचलित हो गया। फरवरी २०१९ तक, ११ राज्यों के ९० जिले वामपंथी उग्रवाद से प्रभावित हैं।
आज कई नक्सली संगठन वैधानिक रूप से स्वीकृत राजनीतिक पार्टी बन गये हैं और संसदीय चुनावों में भाग भी लेते है। परन्तु बहुत से संगठन अब भी छद्म लड़ाई में लगे हुए हैं। नक्सलवाद के विचारधारात्मक विचलन की सबसे बड़ी मार आन्ध्र प्रदेश, छत्तीसगढ, उड़ीसा, झारखंड और बिहार को झेलनी पड़ रही है।
नक्सलवाद शब्द की उत्पत्ति पश्चिम बंगाल के नक्सलवाड़ी गाँव से हुई थी। भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टी के नेता चारु माजूमदार और कानू सान्याल ने १९६७ में सत्ता के खिलाफ एक सशस्त्र आंदोलन शुरु किया। माजूमदार चीन के कम्यूनिस्ट नेता माओत्से तुंग के बड़े प्रशसंक थे। इसी कारण नक्सलवाद को 'माओवाद' भी कहा जाता है। १९६८ में कम्यूनिस्ट पार्टी ऑफ मार्क्ससिज्म एंड लेनिनिज्म (कमल) का गठन किया गया जिनके मुखिया दीपेन्द्र भट्टाचार्य थे। यह लोग मार्क्स और लेनिन के सिद्धांतों पर काम करने लगे, क्योंकि वे उन्हीं से ही प्रभावित थे। वर्ष १९६९ में पहली बार चारु माजूमदार और कानू सान्याल ने भूमि अधिग्रहण को लेकर पूरे देश में सत्ता के खिलाफ एक व्यापक लड़ाई शुरू कर दी। भूमि अधिग्रहण को लेकर देश में सबसे पहले आवाज नक्सलवाड़ी से ही उठी थी। आंदोलनकारी नेताओं का मानना था कि जमीन उसी को जो उस पर खेती करें। नक्सलवाड़ी से शुरु हुआ इस आंदोलन का प्रभाव पहली बार तब देखा गया जब पश्चिम बंगाल से काँग्रेस को सत्ता से बाहर होना पड़ा। इस आंदोलन का ही प्रभाव था कि १९७७ में पहली बार पश्चिम बंगाल में कम्यूनिस्ट पार्टी सरकार के रूप में आयी और ज्योति बसु मुख्यमंत्री बने।
सामाजिक जागृति के लिए आरंभित इस आंदोलन पर कुछ वर्षो पश्चात राजनीति का वर्चस्व बढ़ने लगा और आंदोलन शीघ्र ही अपने मुद्दों और मार्गो से भटक गया। जब यह आंदोलन फैलता हुआ बिहार पहुँचा तब यह अपने मुद्दों से पूर्णतः भटक चुका था। अब यह लड़ाई भूमि की लड़ाई न रहकर जातीय वर्ग की लड़ाई बन चुकी थी। यहां से प्रारम्भ होता है उच्च वर्ग और मध्यम वर्ग के बीच का उग्र संघर्ष जिससे नक्सल आन्दोलन ने देश में नया रूप धारण किया। श्रीराम सेना जो माओवादियों की सबसे बड़ी सेना थी, उसने उच्च वर्ग के विरुद्ध सबसे पहले हिंसक प्रदर्शन करना प्रारम्भ किया।
इससे पहले १९७२ में आंदोलन के हिंसक होने के कारण चारु माजूमदार को धरपकड़ कर लिया गया और १० दिन के लिए कारावास के समय ही उनकी कारागृह में ही मृत्यु हो गयी। नक्सलवादी आंदोलन के प्रणेता कानू सान्याल ने आंदोलन के राजनीति का शिकार होने के कारण और अपने मुद्दों से भटकने के कारण तंग आकर २३ मार्च, २०१० को आत्महत्या कर ली।
भारत में नक्सलवाद की बड़ी घटनाएँ
२००७ छत्तीसगढ़ के बस्तर में ३०० से ज्यादा विद्रोहियों ने ५५ पुलिसकर्मियों को मौत के घाट पर उतार दिया था।
२००८ ओडिसा के नयागढ़ में नक्सलवादियों ने १४ पुलिसकर्मियों और एक नागरिक की हत्या कर दी।
२००९ महाराष्ट्र के गढ़चिरोली में हुए एक बड़े नक्सली हमले में १५ सीआरपीएफ जवान शहीद हो गये।
२०१० नक्सलवादियों ने कोलकाता-मुंबई ट्रेन में १५० यात्रियों की हत्या कर दी।
२०१० पश्चिम बंगाल के सिल्दा केंप में घुसकर नक्सलियों ने हमला कर दिया जिसमें अर्द्धसैनिक के २४ जवान शहीद हो गए।
२०११ छत्तीसगढ के दंतेवाड़ा में हुए एक बड़े नक्सलवादी हमले में कुल ७६ जवान शहीद हो गए जिसमें सीआरपीएफ के जवान समेत पुलिसकर्मी भी शामिल थे।
२०१२ झारखंड के गढ़वा जिले के पास बरिगंवा जंगल में १३ पुलिसकर्मीयों की हत्या कर दी|
२०१३ छत्तीसगढ़ के सुकमा जिले में नक्सलियों ने कांग्रेस के नेता समेत २७ व्यक्तियों की हत्या कर दी।
२०२१ में छत्तीसगढ़ के बीजापुर में सुरक्षा बलों के २३ जवान शहीद हो गए और ३१ जवान घायल हुए।
भर्ती और वित्तपोषण
नये लोगों को अपने पक्ष में लाने के लिए नक्सली कई तरीके अपनाते हैं। इसमें से एक प्रमुख तरीका है किसी 'क्रांतिकारी व्यक्तित्व' का नाम लेकर या उसके व्यक्तित्व और कृतित्व की बारबार चर्चा करना। भर्ती करने के नक्सली नौजवानों और विद्यार्थियों को मुख्यतः लक्ष्य करते हैं।
नक्सलवाद के वित्तपोषण के भी कई स्रोत हैं। इसमें से सबसे बड़ा स्रोत खनन उद्योग है। नक्सली, अपने प्रभाव-क्षेत्र के सभी खनन कम्पनियों से उनके लाभ का ३% वसूलते हैंऔर डर के मारे सभी कम्पनियाँ बिना ना-नुकर किए देती हैं। नक्सली संगठन मादक दवाओं (ड्रग्स) का भी व्यापार करते हैं। नक्सलियों को मिलने वाला लगभग ४०% फण्ड नशे के व्यापार से ही आता है।
नक्सलियों के विरुद्ध चलाएँ गए प्रमुख अभियान
यह अभियान वर्ष १९७१ में चलाया गया। इस अभियान में भारतीय सेना तथा राज्य पुलिस ने भाग लिया था। अभियान के दौरान लगभग २०,००० नक्सली मारे गए थे।
यह अभियान वर्ष २००९ में चलाया गया। नक्सल विरोधी अभियान को यह नाम मीडिया द्वारा प्रदान किया गया था। इस अभियान में पैरामिलेट्री बल तथा राष्ट्र पुलिस ने भाग लिया।
यह अभियान छत्तीसगढ़, झारखंड, आंध्र प्रदेश तथा महाराष्ट्र में चलाया गया।
३ जून, २०१७ को छत्तीसगढ़ राज्य के सुकमा जिले में सुरक्षा बलों द्वारा अब तक के सबसे बड़े नक्सल विरोधी अभियान प्रहार को प्रारंभ किया गया। सुरक्षा बलों द्वारा नक्सलियों के चिंतागुफा में छिपे होने की सूचना मिलने के पश्चात इस अभियान को चलाया गया था। इस अभियान में केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल के कोबरा कमांडो, छत्तीसगढ़ पुलिस, डिस्ट्रिक्ट रिजर्व गार्ड तथा इंडियन एयरफोर्स के एंटी नक्सल टास्क फोर्स ने भाग लिया। यह अभियान चिंतागुफा पुलिस स्टेशन के क्षेत्र के अंदर स्थित चिंतागुफा जंगल में चलाया गया जिसे नक्सलियों का गढ़ माना जाता है। इस अभियान में ३ जवान शहीद हो गए तथा कई अन्य घायल हुए। अभियान के दौरान १५ से २० नक्सलियों के मारे जाने की सूचना सुरक्षा बल के अधिकारी द्वारा दी गई। खराब मौसम के कारण २५ जून, २०१७ को इस अभियान को समाप्त किया गया।
इन्हें भी देखें
भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी
नक्सलवाद की खबरें नक्सलवाद का सच पढ़ें सिर्फ सच पर
नक्सलवाद पर आलेख सरकार को चुनौती देते नक्सली
बस्तर में नक्सली हिंसा
नक्सलवाद के निदान का तरीका ठीक नहीं
नक्सलवाद का विकृत चेहराः एक आलेख
नक्सलवाद - नक्सलवाद पर लेखों का संग्रह |
पर्दा एक इस्लामी शब्द है जो अरबी भाषा में फारसी भाषा से आया। इसका अर्थ होता है "ढकना" या "अलग करना"। पर्दा प्रथा का एक पहलू है बुर्क़ा का चलन। बुर्का एक तरह का घूँघट है जो मुस्लिम समुदाय की महिलाएँ और लड़कियाँ कुछ खास जगहों पर खुद को पुरुषों की निगाह से अलग/दूर रखने के लिये इस्तेमाल करती हैं।
कुछ मुस्लिम समुदायों में प्रचलित महिला अलगाव की एक धार्मिक और सामाजिक प्रथा है। यह दो रूप लेता है: लिंगों का शारीरिक अलगाव और आवश्यकता यह है कि महिलाएं अपने शरीर को ढकती हैं ताकि उनकी त्वचा को ढंका जा सके और उनके रूप को छुपाया जा सके। पर्दा प्रथा करने वाली महिला को परदानाशीन या पर्दानिशन कहा जा सकता है। पर्दा शब्द कभी-कभी दुनिया के अन्य हिस्सों में इसी तरह की प्रथाओं पर लागू होता है।
प्राचीन काल से मुस्लिम देशों में महिलाओं की गतिशीलता और व्यवहार को प्रतिबंधित करने वाली प्रथाएं मौजूद थीं और इस्लाम के आगमन के साथ तेज हो गईं। १९वीं शताब्दी तक हिंदू अभिजात वर्ग के बीच पर्दा प्रथा बन गई। पर्दा पारंपरिक रूप से निम्न वर्ग की महिलाओं द्वारा नहीं किया जाता था।
दीवारों, पर्दों और पर्दों के विवेकपूर्ण उपयोग से इमारतों के भीतर भौतिक अलगाव प्राप्त किया जाता है। एक महिला के परदे में वापसी आमतौर पर उसके घर के बाहर उसकी व्यक्तिगत, सामाजिक और आर्थिक गतिविधियों को प्रतिबंधित करती है। पहना जाने वाला सामान्य पर्दा वस्त्र बुर्का होता है, जिसमें चेहरे को छुपाने के लिए यशमक, घूंघट शामिल हो भी सकता है और नहीं भी। आंखें उजागर हो भी सकती हैं और नहीं भी।
अफगानिस्तान में तालिबान के तहत पर्दा सख्ती से किया जाता था, जहां महिलाओं को सार्वजनिक रूप से हर समय पूर्ण पर्दा का पालन करना पड़ता था। केवल करीबी पुरुष परिवार के सदस्यों और अन्य महिलाओं को उन्हें पर्दे से बाहर देखने की अनुमति थी। अन्य समाजों में, पर्दा अक्सर केवल धार्मिक महत्व के निश्चित समय के दौरान ही प्रचलित होता है। उत्तरी भारत के कुछ हिस्सों में विवाहित हिंदू महिलाएं पर्दा का पालन करती हैं, कुछ महिलाएं अपने पति की ओर से बड़े पुरुष संबंधों की उपस्थिति में घूंघट पहनती है। कुछ मुस्लिम महिलाएं बुर्का पहनकर पर्दा करती हैं। दुपट्टा मुस्लिम और हिंदू दोनों महिलाओं द्वारा इस्तेमाल किया जाने वाला घूंघट होता है, जो अक्सर धार्मिक घर में प्रवेश करते समय होता है। भारत में पहले भी हिंदू महिलाओं द्वारा इस प्रथा का पालन कम किया जाता है।
प्राचीन भारतीय समाज में, दुनिया भर में अन्य जगहों की तरह, "महिलाओं की सामाजिक गतिशीलता और व्यवहार को प्रतिबंधित करने वाली प्रथाएं" मौजूद थीं, लेकिन भारत में इस्लाम के आगमन ने "इन हिंदू प्रथाओं को तेज कर दिया, और १९ वीं शताब्दी तक पर्दा पूरे भारत में कुलीन समुदाय और उच्च जाति के हिंदुओं की प्रथा थी।
हालांकि पर्दा आमतौर पर इस्लाम के साथ जुड़ा हुआ है, कई विद्वानों का तर्क है कि महिलाओं को पर्दा करना और एकांत में रहना इस्लाम से पहले का है; ये प्रथाएं आमतौर पर मध्य पूर्व में विभिन्न समूहों जैसे ड्रूज़, ईसाई और यहूदी समुदायों में पाई जाती थीं। उदाहरण के लिए, बुर्का इस्लाम से पहले अरब में मौजूद था, और उच्च वर्ग की महिलाओं की गतिशीलता बेबीलोनिया, फ़ारसी में प्रतिबंधित थी। इतिहासकारों का मानना है कि ७वीं शताब्दी ई. में अरब साम्राज्य के आधुनिक इराक में विस्तार के दौरान मुसलमानों द्वारा पर्दा का अधिग्रहण किया गया था और इस्लाम ने उस समय की पहले से मौजूद स्थानीय प्रथाओं में केवल धार्मिक महत्व जोड़ा।
बाद का इतिहास
मुगल साम्राज्य के दौरान उत्तरी भारत के मुस्लिम शासन ने हिंदू धर्म की प्रथा को प्रभावित किया और पर्दा उत्तरी भारत के हिंदू उच्च वर्गों में फैल गया। मुस्लिम समुदाय के बाहर परदे के प्रसार का श्रेय संपन्न वर्गों की कुलीनता की सामाजिक प्रथाओं को प्रतिबिंबित करने की प्रवृत्ति को दिया जा सकता है; गरीब महिलाओं ने पर्दा नहीं किया। छोटे गांवों में निम्न वर्ग की महिलाएं अक्सर खेतों में काम करती थीं, और इसलिए एकांत में रहने के लिए अपने काम को छोड़ने का जोखिम नहीं उठा सकती थीं। भारत में ब्रिटिश उपनिवेशवाद की अवधि के दौरान, पर्दा प्रथा व्यापक थी और मुस्लिम अल्पसंख्यकों के बीच इसका कड़ाई से पालन किया जाता था।
आधुनिक समय में, मुख्य रूप से इस्लामी देशों, समुदायों और दक्षिण एशियाई देशों में महिलाओं को घूंघट करने और एकांत में रखने की प्रथा अभी भी मौजूद है। परदा क्षेत्र, समय, सामाजिक आर्थिक स्थिति और स्थानीय संस्कृति के आधार पर अलग-अलग रूप और महत्व रखता है। यह आमतौर पर सऊदी अरब के साथ अफगानिस्तान और पाकिस्तान में कुछ मुस्लिम समुदायों के साथ जुड़ा हुआ है। परदा को हाल ही में उत्तरी नाइजीरिया में अपनाया गया है, विशेष रूप से बोको हरामूप्रिंग से प्रभावित क्षेत्रों में। इसे भारत और पाकिस्तान के राजपूत कुलों द्वारा धर्म की परवाह किए बिना एक सामाजिक प्रथा के रूप में भी देखा जाता है।
संरक्षण और अधीनता
कुछ विद्वानों का तर्क है कि पर्दा शुरू में महिलाओं को उत्पीड़न से बचाने के लिए बनाया गया था, लेकिन बाद में ये प्रथाएं महिलाओं को अपने अधीन करने और उनकी गतिशीलता और स्वतंत्रता को सीमित करने के प्रयासों को सही ठहराने का एक तरीका बन गईं। हालांकि, दूसरों का तर्क है कि ये प्रथाएं हमेशा स्थानीय रिवाज के रूप में मौजूद थीं, लेकिन बाद में महिला व्यवहार को नियंत्रित करने के लिए धार्मिक बयानबाजी द्वारा अपनाया गया।
समर्थक पर्दा को सम्मान और गरिमा के प्रतीक के रूप में देखते हैं। इसे एक अभ्यास के रूप में देखा जाता है जो महिलाओं को शारीरिक सुंदरता के बजाय उनकी आंतरिक सुंदरता से आंकने की अनुमति देता है।
कई समाजों में, घरेलू क्षेत्र में महिलाओं का एकांत उच्च सामाजिक आर्थिक स्थिति और प्रतिष्ठा का प्रदर्शन है क्योंकि घर के बाहर शारीरिक श्रम के लिए महिलाओं की आवश्यकता नहीं होती है।
पर्दा रखने के लिए अलग-अलग महिलाओं के तर्क जटिल हैं और स्वतंत्र रूप से चुने गए या सामाजिक दबाव या जबरदस्ती के जवाब में प्रेरणाओं का एक संयोजन हो सकता है: धार्मिक, सांस्कृतिक (प्रामाणिक सांस्कृतिक पोशाक की इच्छा), राजनीतिक (समाज का इस्लामीकरण), आर्थिक ( स्थिति का प्रतीक, सार्वजनिक निगाहों से सुरक्षा), मनोवैज्ञानिक (सार्वजनिक क्षेत्र से सम्मान पाने के लिए अलगाव), फैशन और सजावटी उद्देश्य, और सशक्तिकरण (सार्वजनिक स्थान पर जाने के लिए पर्दा पहनना)।
भारत में हिन्दुओं में पर्दा प्रथा इस्लाम की देन है। यह प्रथा मुग़ल शासकों के दौरान अपनी जड़े काफी मज़बूत की। वैसे इस प्रथा की शुरुआत भारत में१२वीँ सदी में मानी जाती है। इसका ज्यादातर विस्तार राजस्थान के राजपुत जाति में था। २०वीँ सदी के उतरार्द्ध में इस प्रथा के विरोध के फलस्वरुप इसमें कमी आई है। यह प्रथा स्त्री की मूल चेतना को अवरुद्ध करती है। वह उसे गुलामों जैसा अहसास कराती है। जो स्त्रियां इस प्रथा से बंध जाती है। वे कई बार इतना संकोच करने लगती हैं कि बीमारी में भी अपनी सही से जांच कराने में असफल रहती हैं। इस प्रथा को समाज मे रखने के नुकसान बहुत हैं।
भारत के संदर्भ में ईसा से ५०० वर्ष पूर्व रचित 'निरुक्त' में इस तरह की प्रथा का वर्णन कहीं नहीं मिलता। निरुक्तों में संपत्ति संबंधी मामले निपटाने के लिए न्यायालयों में स्त्रियों के आने जाने का उल्लेख मिलता है। न्यायालयों में उनकी उपस्थिति के लिए किसी पर्दा व्यवस्था का विवरण ईसा से २०० वर्ष पूर्व तक नहीं मिलता। इस काल के पूर्व के प्राचीन वेदों तथा संहिताओं में पर्दा प्रथा का विवरण नहीं मिलता। प्राचीन ऋग्वेद काल में लोगों को विवाह के समय कन्या की ओर देखने को कहा है- इसके लिए ऋग्वेद में मंत्र भी है जिसका सार है कि "यह कन्या मंगलमय है, एकत्र हो और इसे देखो, इसे आशीष देकर ही तुम लोग अपने घर जा सकते हो।" वहीं 'आश्वलायनगृह्यसूत्र' के अनुसार दुल्हन को अपने घर ले आते समय दूल्हे को चाहिए कि वह प्रत्येक निवेश स्थान (रुकने के स्थान) पर दर्शकों को दिखाए और उसे बड़ों का आशीर्वाद प्राप्त हो तथा छोटों का स्नेह। इससे स्पष्ट है कि उन दिनों वधुओं द्वारा पर्दा धारण नहीं किया जाता था, बल्कि वे सभी के समक्ष खुले सिर से ही आती थीं। पर्दा प्रथा का उल्लेख सबसे पहले मुगलों के भारत में आक्रमण के समय से होता हुआ दिखाई देता है।
इस संबंध में कुछ विद्वानों के मतानुसार 'रामायण' और 'महाभारत' कालीन स्त्रियां किसी भी स्थान पर पर्दा अथवा घूंघट का प्रयोग नहीं करती थीं। अजन्ता और सांची की कलाकृतियों में भी स्त्रियों को बिना घूंघट दिखाया गया है। मनु और याज्ञवल्क्य ने स्त्रियों की जीवन शैली के सम्बन्ध में कई नियम बनाए हुए हैं, परन्तु कहीं भी यह नहीं कहा है कि स्त्रियों को पर्दे में रहना चाहिए। संस्कृत नाटकों में भी पर्दे का उल्लेख नहीं है। यहां तक कि १०वीं शताब्दी के प्रारम्भ काल के समय तक भी भारतीय राज परिवारों की स्त्रियां बिना पर्दे के सभा में तथा घर से बाहर भ्रमण करती थीं, यह वर्णन स्वयं एक अरब यात्री अबू जैद ने अपने लेखन के जरिए किया है। स्पष्ट है कि भारत में प्राचीन समय में कोई पर्दाप्रथा जैसी बिमार रूढ़ी प्रचलन में नहीं थी।
पर्दा प्रथा पर प्रभाव
पर्दा प्रथा पर सरकार की नीतियां
ट्यूनीशिया और पूर्व में तुर्की में, राजनीतिक इस्लाम या कट्टरवाद के प्रदर्शन को हतोत्साहित करने के उपाय के रूप में सार्वजनिक स्कूलों, विश्वविद्यालयों और सरकारी भवनों में धार्मिक पर्दा पर प्रतिबंध लगा दिया गया है। पाकिस्तान, भारत और बांग्लादेश में जहां मुख्य रूप से पर्दा शब्द का प्रयोग किया जाता है, सरकार के पास न तो पर्दा करने के लिए और न ही इसके खिलाफ कोई नीति है। २००४ के बाद से फ्रांस ने स्कूल में मुस्लिम हेडस्कार्फ़ सहित सभी खुले धार्मिक प्रतीकों पर प्रतिबंध लगा दिया है।
पाकिस्तान जैसे राष्ट्र अधिक रूढ़िवादी कानूनों और नीतियों के लिए झूल रहे हैं जो इस्लामी कानून का पालन करने के बयानबाजी का उपयोग करते हैं, जिसे कभी-कभी इस्लामीकरण कहा जाता है।
महिलाओं का आंदोलन
पाकिस्तान में महिलाओं ने ट्रेड यूनियनों का आयोजन किया है और मतदान के अपने अधिकार का प्रयोग करने और निर्णय लेने को प्रभावित करने का प्रयास किया है। हालाँकि, उनके विरोधी इन महिलाओं पर पश्चिमीकरण के हानिकारक प्रभाव के लिए गिरने और परंपरा से मुंह मोड़ने का आरोप लगाते हैं।
बंगाल में, नारीवादी सक्रियता १९वीं शताब्दी की है। उदाहरण के लिए, बेगम रुक़य्या और फैजुन्नेसा चौधुरानी ने परदे से बंगाली मुस्लिम महिलाओं को मुक्ति दिलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
हरियाणा (भारत के सबसे रूढ़िवादी राज्य) में महिला ग्राम प्रधान ने महिलाओं को घूंघट से मुक्त करने का संकल्प लिया। इस आंदोलन के समर्थन में कई मुस्लिम ग्राम प्रधान आगे आए। चूंकि हरियाणा की महिलाएं खेल आयोजनों में बहुत अधिक भाग ले रही हैं, इसलिए उन्होंने अन्य महिलाओं को घूंघट छोड़ने के लिए प्रोत्साहित करना शुरू कर दिया है।
हरियाणा में महिलाओं को पारंपरिक कपड़े पहनने के लिए मजबूर किया जाता है और अक्सर आधुनिक पोशाक पहनने के लिए शर्मिंदा किया जाता है। हरियाणा में कई प्रगतिशील महिलाओं ने सार्वजनिक रूप से जींस, मिनी स्कर्ट, क्रॉप टॉप, स्लीवलेस टीशर्ट, स्पोर्ट्स ब्रा जैसे पश्चिमी कपड़े पहनकर घूंघट के खिलाफ अपना विरोध जताया है।
महिलाओं के अधिकारों का विवाद
कुछ विद्वानों का तर्क है कि पर्दा मूल रूप से महिलाओं को उत्पीड़न से बचाने और यौन वस्तुओं के रूप में देखे जाने के लिए बनाया गया था।
हालांकि, आलोचकों का कहना है कि यह दृष्टिकोण पीड़ित-दोष को शामिल करता है और स्वयं अपराधियों के बजाय महिलाओं पर यौन हमले को रोकने का दायित्व रखता है।
बुर्का और नकाब पर प्रतिबन्ध लगे - डैनियल पाइप्स |
गुरुत्वाकर्षण (ग्रविटेशन) पदार्थो द्वारा एक दूसरे की ओर आकर्षित होने की प्रवृति है। गुरुत्वाकर्षण के बारे में पहली बार कोई गणितीय सूत्र देने की कोशिश आइजक न्यूटन द्वारा की गयी जो आश्चर्यजनक रूप से सही था। उन्होंने गुरुत्वाकर्षण सिद्धांत का प्रतिपादन किया। न्यूटन के सिद्धान्त को बाद में अलबर्ट आइंस्टाइन द्वारा सापेक्षता सिद्धांत से बदला गया। बहुत कम ही लोग जानते है कि इससे पूर्व भारतीय और ग्रीक महान पंडित अरस्तु, ब्रह्मगुप्त और भास्कराचार्य ने कहा था कि किसी प्रकार की शक्ति ही वस्तुओं को पृथ्वी पर चिपकाए रखती है।
गुरुत्वाकर्षण के कारण त्वरण, जिसे अक्सर "जी" के रूप में दर्शाया जाता है, एक वस्तु द्वारा अनुभव किया जाने वाला त्वरण है क्योंकि यह पृथ्वी के केंद्र की ओर गिरता है। पृथ्वी की सतह पर ग का मान लगभग ९.८ म/स^२ या १ ग (जहाँ १ ग = ९.८ म/स^२) होता है। यह ऊंचाई और पृथ्वीहै।गुरुत्वाकर्षण के कारण त्वरण भौतिकी में एक मौलिक अवधारणा है और किसी वस्तु पर गुरुत्वाकर्षण बल के कार्य से संबंधित है। गुरुत्वाकर्षण बल वह है जो वस्तुओं को पृथ्वी के केंद्र की ओर गिरने का कारण बनता है, और गुरुत्वाकर्षण के कारण त्वरण वह दर है जिस पर इस बल के परिणामस्वरूप वस्तु का वेग बदल जाता है। गुरुत्वाकर्षण के कारण त्वरण किसी वस्तु के वजन के लिए भी जिम्मेदार होता है, जो गुरुत्वाकर्षण के कारण वस्तु पर लगाया गया बल है। किसी वस्तु का वजन उसके द्रव्यमान के गुरुत्वाकर्षण के कारण त्वरण के गुणनफल के बराबर होता है।
सतह पर स्थान के आधार पर थोड़ा भिन्न हो सकता ह
गुरुत्वाकर्षण के कारण त्वरण भौतिकी में एक मौलिक अवधारणा है और किसी वस्तु पर गुरुत्वाकर्षण बल के कार्य से संबंधित है। गुरुत्वाकर्षण बल वह है जो वस्तुओं को पृथ्वी के केंद्र की ओर गिरने का कारण बनता है, और गुरुत्वाकर्षण के कारण त्वरण वह दर है जिस पर इस बल के परिणामस्वरूप वस्तु का वेग बदल जाता है। गुरुत्वाकर्षण के कारण त्वरण किसी वस्तु के वजन के लिए भी जिम्मेदार होता है, जो गुरुत्वाकर्षण के कारण वस्तु पर लगाया गया बल है। किसी वस्तु का वजन उसके द्रव्यमान के गुरुत्वाकर्षण के कारण त्वरण के गुणनफल के बराबर होता है।
गुरुत्वाकर्षण सिद्धांत का इतिहास
चौथी शताब्दी ईसा पूर्व में ग्रीक दार्शनिक अरस्तू ने गुरुत्वाकर्षण को एक भारी वस्तु की गति के रूप में वर्णित किया जो पृथ्वी के केंद्र की ओर बढ़ती है।ग्रीक दार्शनिक, प्लूटार्क ने सुझाव दिया कि गुरुत्वाकर्षण का आकर्षण पृथ्वी के लिए अद्वितीय नहीं था|रोमन इंजीनियर और वास्तुकार विटरुवियस ने अपने डी आर्किटेक्चर में तर्क दिया कि गुरुत्वाकर्षण किसी पदार्थ के वजन पर निर्भर नहीं है बल्कि इसकी 'प्रकृति' पर निर्भर करता है।भारतीय गणितज्ञ/खगोलविद ब्रह्मगुप्त ( ५९८ - सी। ६६८ स) ने "गुरुत्वाकर्षणम् (गुरुत्वाकर्षणम्)" शब्द का उपयोग करते हुए गुरुत्वाकर्षण को एक आकर्षक बल के रूप में वर्णित किया। भारतीय गणितज्ञ और खगोलशास्त्री भास्कराचार्य द्वितीय (च. १११४ - च. ११८५) अपने ग्रंथ सिद्धांत शिरोमणि के गोलाध्याय (गोलाकार पर) खंड में गुरुत्वाकर्षण को पृथ्वी की एक अंतर्निहित आकर्षक संपत्ति के रूप में वर्णित करते हैं||
११वीं सदी के फ़ारसी बहुश्रुत, अल-बिरूनी ने प्रस्तावित किया कि आकाशीय पिंडों में पृथ्वी की तरह ही द्रव्यमान, भार और गुरुत्वाकर्षण होता है।१२वीं सदी के वैज्ञानिक अल-खज़िनी ने सुझाव दिया कि किसी वस्तु में गुरुत्वाकर्षण ब्रह्मांड के केंद्र से उसकी दूरी के आधार पर भिन्न होता है।
लियोनार्डो दा विंची
लियोनार्डो दा विंची ने गिरने वाली वस्तुओं के त्वरण को रिकॉर्ड करते हुए चित्र बनाए। उन्होंने गुरुत्वाकर्षण और त्वरण के बीच की कड़ी को भी नोट किया। उन्होंने कहा कि यदि एक पानी डालने वाला फूलदान अनुप्रस्थ रूप से (बग़ल में) चलता है, तो एक लंबवत गिरने वाली वस्तु के प्रक्षेपवक्र का अनुकरण करता है, यह एक सही पैदा करता है। पैर की लंबाई के बराबर त्रिकोण, गिरने वाली सामग्री से बना है जो कर्ण बनाता है और फूलदान प्रक्षेपवक्र पैरों में से एक बनाता है।
गुरुत्वाकर्षण सिद्धांत पर आधुनिक काम १६ वीं शताब्दी के अंत में और १७ वीं शताब्दी की शुरुआत में गैलीलियो गैलीलि के काम से शुरू हुआ। अपने मशहूर (यद्यपि संभवतः अपोक्य्रीफल [४]) प्रयोगों में पीसा के टॉवर से गेंदों को छोड़ने का प्रयोग किया गया, और बाद में गेंदों के सावधानीपूर्वक माप के साथ इनक्लीइन को घुमाया गया, गैलीलियो ने दिखाया कि गुरुत्वाकर्षण त्वरण सभी वस्तुओं के लिए समान है। यह अरस्तू के विश्वास से एक बड़ा प्रस्थान था कि भारी वस्तुओं में उच्च गुरुत्वाकर्षण त्वरण होता है। [५] गैलीलियो ने हवा के प्रतिरोध को इस कारण के रूप में बताया कि कम द्रव्यमान वाली वस्तुएं वातावरण में धीमी गति से गिर सकती हैं। गैलीलियो के काम ने न्यूटन के गुरुत्व के सिद्धांत के निर्माण के लिए मंच तैयार किया।
कोई भी वस्तु ऊपर से गिरने पर सीधी पृथ्वी की ओर आती है। ऐसा प्रतीत होता है, मानो कोई अलक्ष्य और अज्ञात शक्ति उसे पृथ्वी की ओर खींच रही है। इटली के वैज्ञानिक, गैलिलीयो गैलिलीआई ने सर्वप्रथम इस तथ्य पर प्रकाश डाला था कि कोई भी पिंड जब ऊपर से गिरता है तब वह एक नियत त्वरण (कॉन्सटेंट एक्सेलरेशन) से पृथ्वी की ओर आता है। त्वरण का यह मान सभी वस्तुओं के लिए एक सा रहता है। अपने इस निष्कर्ष की पुष्टि उसने प्रयोगों और गणितीय विवेचनों द्वारा की
केप्लर की ग्रहीय गति के नियम
केप्लर की ग्रहीय गति के नियम देखिये
जर्मन खगोलविद केप्लर ने ग्रहों की गति का अध्ययन करके तीन नियम दिये।
केप्लर का प्रथम नियम: (कक्षाओं का नियम) -सभी ग्रह सूर्य के चारों ओर दीर्घवृत्ताकार कक्षाओं मे चक्कर लगाते हैं तथा सूर्य उन कक्षाओं के फोकस पर होता है।
द्वितीय नियम - किसी भी ग्रह को सूर्य से मिलाने वाली रेखा समान समय मे समान क्षेत्रफल पार करती है। अर्थात प्रत्येक ग्रह की क्षेत्रीय चाल (एरियल वेलासिटी) नियत रहती है। अर्थात जब ग्रह सूर्य से दूर होता है तो उसकी चाल कम हो जाती है।
तृतीय नियम : (परिक्रमण काल का नियम)- प्रत्येक ग्रह का सूर्य का परिक्रमण काल का वर्ग उसकी दीर्घ वृत्ताकार कक्षा की अर्ध-दीर्घ अक्ष की तृतीय घात के समानुपाती होता है।
न्यूटन का सार्वत्रिक गुरुत्वाकर्षण का नियम
इसके बाद आइज़क न्यूटन ने अपनी मौलिक खोजों के आधार पर बताया कि केवल पृथ्वी ही नहीं, अपितु विश्व का प्रत्येक कण प्रत्येक दूसरे कण को अपनी ओर आकर्षित करता रहता है। दो कणों के बीच कार्य करनेवाला आकर्षण बल उन कणों की संहतियों के गुणनफल का (प्रत्यक्ष) समानुपाती तथा उनके बीच की दूरी के वर्ग का व्युत्क्रमानुपाती होता है। कणों के बीच कार्य करनेवाले पारस्परिक आकर्षण को गुरुत्वाकर्षण (ग्रविटेशन) तथा उससे उत्पन्न बल को गुरुत्वाकर्षण बल (फ़ोर्स ऑफ ग्रविटेशन) कहते है। न्यूटन द्वारा प्रतिपादित उपर्युक्त नियम को न्यूटन का गुरुत्वाकर्षण नियम (लॉ ऑफ ग्रविटेशन) कहते हैं। कभी-कभी इस नियम को गुरुत्वाकर्षण का प्रतिलोम वर्ग नियम (इनवेर्स स्क्वेअर लॉ) भी कहा जाता है।
उपर्युक्त नियम को सूत्र रूप में इस प्रकार व्यक्त किया जा सकता है : मान लिया म१ और संहति वाले म२ दो पिंड परस्पर ड दूरी पर स्थित हैं। उनके बीच कार्य करनेवाले बल फ का संबंध होगा :
यहाँ ग एक समानुपाती नियतांक है जिसका मान सभी पदार्थों के लिए एक जैसा रहता है। इसे गुरुत्व नियतांक (ग्रविटेशनल कॉन्सटेंट) कहते हैं। इस नियतांक की विमा (डिमेन्स्न) है और आंकिक मान प्रयुक्त इकाई पर निर्भर करता है। सूत्र (१) द्वारा किसी पिंड पर पृथ्वी के कारण लगनेवाले आकर्षण बल की गणना की जा सकती है।
इन्हें भी देखें
न्यूटन का सार्वत्रिक गुरुत्वाकर्षण का सिद्धान्त
गुरुत्वजनित त्वरण ( ग )
न्यूटन से पहले भास्कराचार्य ने बताया था-गुरुत्वाकर्षण का सिद्धान्त
भौतिकी के सिद्धांत |
विमान'' का आधुनिक अर्थ अर्थ होत है वायुयान''' अर्थात हवाई जहाज
विमान - बांग्लादेश की राष्ट्रीय विमानन सेवा
विमान शब्द भारतीय साहित्य और मिथकों में बहुत पाया जाता है।
दक्षिण भारतीय मंदिरों के पिरैमिड आकार की टावरनुमा छत - विमानम् |
अमृतसर (अमृतसर), जिसका ऐतिहासिक नाम रामदासपुर (रामदासपुर) और जिसे आम बोलचाल में अम्बरसर (अंबरसर) कहा जाता है, भारत के पंजाब राज्य का (लुधियाना के बाद) दूसरा सबसे बड़ा नगर है और अमृतसर ज़िले का मुख्यालय है। यह पंजाब के माझा क्षेत्र में है और एक महत्वपूर्ण सांस्कृतिक, धार्मिक, यातायात और आर्थिक केन्द्र है। यह सिख धर्म का सबसे पवित्र नगर है और यहाँ सबसे बड़ा गुरद्वारा, स्वर्ण मंदिर, स्थित है। स्वर्ण मंदिर अमृतसर का हृदय माना जाता है। यह गुरू रामदास का डेरा हुआ करता था। अमृतसर चण्डीगढ़ से २१७किमी (१३५मील) पश्चिमोत्तर, नई दिल्ली से ४५५किमी (२८३ मील) पश्चिमोत्तर, पाकिस्तान के लाहौर नगर से ४७किमी (२९.२ मील) पूर्वोत्तर और अटारी-वाहगा की भारत-पाक सीमा बिन्दु से २8किमी (१७.४मील) दूर स्थित है।
अमृतसर का इतिहास गौरवमयी है। यह अपनी संस्कृति और लड़ाइयों के लिए बहुत प्रसिद्ध रहा है। अमृतसर अनेक त्रासदियों और दर्दनाक घटनाओं का गवाह रहा है। भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का सबसे बड़ा नरसंहार अमृतसर के जलियांवाला बाग में ही हुआ था। इसके बाद भारत पाकिस्तान के बीच जो बंटवारा हुआ उस समय भी अमृतसर में बड़ा हत्याकांड हुआ। यहीं नहीं अफगान और मुगल शासकों ने इसके ऊपर अनेक आक्रमण किए और इसको बर्बाद कर दिया। इसके बावजूद सिक्खों ने अपने दृढ संकल्प और मजबूत इच्छाशक्ति से दोबारा इसको बसाया। हालांकि अमृतसर में समय के साथ काफी बदलाव आए हैं लेकिन आज भी अमृतसर की गरिमा बरकरार है।
अमृतसर लगभग साढ़े चार सौ वर्ष से अस्तित्व में है। सबसे पहले गुरु रामदास ने १५७७ में ५०० बीघा में गुरूद्वारे की नींव रखी थी। यह गुरूद्वारा एक सरोवर के बीच में बना हुआ है। यहां का बना तंदूर बड़ा लजीज होता है। यहां पर सुन्दर कृपाण, आम पापड, आम का आचार और सिक्खों की दस गुरूओं की खूबसूरत तस्वीरें मिलती हैं। अमृतसर में पहले जैसा आकर्षण नहीं रहा। अमृतसर के पास उसके गौरवमयी इतिहास के अलावा कुछ भी नहीं है। अमृतसर में स्वर्ण मंदिर के अलावा देखने लायक कुछ है तो वह है अमृतसर का पुराना शहर। इसके चारों तरफ दीवार बनी हुई है। इसमें बारह प्रवेश द्वार है। यह बारह द्वार अमृतसर की कहानी बयान करते हैं। अमृतसर दर्शन के लिए सबसे अच्छा साधन साईकिल रिक्शा और ऑटो हैं। इसी प्रचालन को आगे बढ़ाने और विरासत को सँभालने के उद्देश से पंजाब पर्यटन विभाग ने फाजिल्का की एक गैर सरकारी संस्था ग्रेजुएट वेलफेयर एसोसिएशन फाजिल्का से मिलकर, फाजिल्का से शुरू हुए इकोफ्रेंडली रिक्शा ने नए रूप, "ईको- कैब" को अमृतसर में भी शुरू कर दिया है। अब अमृतसर में रिक्शा की सवारी करते समय ना केवल पर्यटकों की जानकारी के लिए ईको- कैब में शहर का पर्यटन मानचित्र है, बल्कि पीने के लिए पानी की बोतल, पढ़ने के लिए अख़बार और सुनने के लिए एफ्फ़ एम्म रेडियो जैसे सुविधाएं भी है।
अमृतसर का स्वर्ण मंदिर
स्वर्ण मंदिर अमृतसर का सबसे बड़ा आकर्षण है। इसका पूरा नाम हरमंदिर साहब है लेकिन यह स्वर्ण मंदिर के नाम से प्रसिद्ध है। पूरा अमृतसर शहर स्वर्ण मंदिर के चारों तरफ बसा हुआ है। स्वर्ण मंदिर में प्रतिदिन हजारों पर्यटक आते हैं। अमृतसर का नाम वास्वत में उस तालाब के नाम पर रखा गया है जिसका निर्माण गुरु रामदास ने अपने हाथों से कराया था।
सिक्ख केवळ भगवान में विश्वास करते। उनके लिए गुरु ही सब कुछ हैं। स्वर्ण मंदिर में प्रवेश करने से पहले वह मंदिर के सामने सर झुकाते हैं, फिर पैर धोने के बाद सीढ़ियों से मुख्य मंदिर तक जाते हैं। सीढ़ियों के साथ-साथ स्वर्णमंदिर से जुड़ी हुई सारी घटनाएं और इसका पूरा इतिहास लिखा हुआ है। स्वर्ण मंदिर बहुत ही खूबसूरत है। इसमें रोशनी की सुन्दर व्यवस्था की गई है। सिक्खों के लिए स्वर्ण मंदिर बहुत ही महत्वपुर्ण है। सिक्खों के अलावा भी बहुत से श्रद्धालु यहां आते हैं। उनकी स्वर्ण मंदिर और सिक्ख धर्म में अटूट आस्था है।
हरमंदिर साहब परिसर में दो बडे़ और कई छोटे-छोटे तीर्थस्थल हैं। ये सारे तीर्थस्थल जलाशय के चारों तरफ फैले हुए हैं। इस जलाशय को अमृतसर और अमृत झील के नाम से जाना जाता है। पूरा स्वर्ण मंदिर सफेद पत्थरों से बना हुआ है और इसकी दिवारों पर सोने की पत्तियों से नक्काशी की गई है। हरमंदिर साहब में पूरे दिन गुरु बानी की स्वर लहरियां गुंजती रहती हैं। मंदिर परिसर में पत्थर का स्मारक लगा हुआ है। यह पत्थर जांबाज सिक्ख सैनिकों को श्रद्धाजंलि देने के लिए लगा हुआ है।
१३ अप्रैल १९१९ को इस बाग में एक सभा का आयोजन किया गया था। यह सभा ब्रिटिश सरकार के विरूद्ध थी। इस सभा को बीच में ही रोकने के लिए जनरल डायर ने बाग के एकमात्र रास्ते को अपने सैनिकों के साथ घेर लिया और भीड़ पर अंधाधुंध गोली बारी शुरू कर दी। इस गोलीबारी में बच्चों, बुढ़ों और महिलाओं समेत लगभग ३०० लोगों की जान गई और १००० से ज्यादा घायल हुए। यह घटना को इतिहास की सबसे दर्दनाक घटनाओं में से एक माना जाता है।
जलियां वाला बाग हत्याकांड इतना भयंकर था कि उस बाग में स्थित कुआं शवों से पूरा भर गया था। अब इसे एक सुन्दर पार्क में बदल दिया गया है और इसमें एक संग्राहलय का निर्माण भी कर दिया गया है। इसकी देखभाल और सुरक्षा की जिम्मेदारी जलियांवाला बाग ट्रस्ट की है। यहां पर सुन्दर पेड लगाए गए हैं और बाड़ बनाई गई है। इसमें दो स्मारक भी बनाए गए हैं। जिसमें एक स्मारक रोती हुई मूर्ति का है और दूसरा स्मारक अमर ज्योति है। बाग में घुमने का समय गर्मियों में सुबह ९ बजे से शाम ६ बजे तक और सर्दियों में सुबह १० बजे से शाम ५ तक रखा गया है।
अन्य दर्शनीय स्थल
अमृतसर की दक्षिण दिशा में संतोखसर साहब और बिबेसर साहब गुरूद्वार है। इनमें से संतोखसर गुरूद्वारा स्वर्ण मंदिर से भी बड़ा है। महाराजा रणजीत सिंह ने रामबाग पार्क में एक समर पैलेस बनवाया था। इसकी अच्छी देखरेख की गई जिससे यह आज भी सही स्थिति में हैं। इस महल की बाहरी दीवारों पर लाल पत्थर लगे हुए हैं। इस महल को अब महाराजा रणजीत सिंह संग्राहलय में बदल दिया गया है। इस संग्राहलय में अनेक चित्रों और फर्नीचर को प्रदर्शित किया गया है। यह एक पार्क के बीच में बना हुआ है। इस पार्क को बहुत सुन्दर बनाया गया है। इस पार्क को लाहौर के शालीमार बाग जैसा बनाया गया है। संग्राहलय में घूमने का समय सुबह १० बजे से शाम ५ बजे तक रखा गया है। यह सोमवार को बंद रहता है।
प्राचीन हिन्दू मंदिर हाथी गेट क्षेत्र में स्थित हैं। यहां पर दुर्गीयाना मंदिर है। इस मंदिर को हरमंदिर की तरह बनाया गया है। इस मंदिर के जलाशय के मध्य में सोने की परत चढा गर्भ गृह बना हुआ है। दुर्गीयाना मंदिर के बिल्कुल पीछे हनुमान मंदिर है। दंत कथाओं के अनुसार यही वह स्थान है जहां हनुमान अश्वमेध यज्ञ के घोडे को लव-कुश से वापस लेने आए थे और उन दोनों ने हनुमान को परास्त कर दिया था।
यह मस्जिद गांधी गेट के नजदीक हॉल बाजार में स्थित है। नमाज के समय यहां बहुत भीड़ होती है। इस समय इसका पूरा प्रागंण नमाजियों से भरा होता है। उचित देखभाल के कारण भारी भीड के बावजूद इसकी सुन्दरता में कोई कमी नहीं आई है। यह मस्जिद इस्लामी भवन निर्माण कला की जीती जागती तस्वीर पेश करती है मुख्य रूप से इसकी दीवारों पर लिखी आयतें। यह बात ध्यान देने योग्य है कि जलियांवाला बाग सभा के मुख्य वक्ता डॉ सैफउद्दीन किचलू और डॉ सत्यपाल इसी मस्जिद से ही सभा को संबोधित कर रहे थे।
बाबा अटल राय स्तंभ
यह गुरु हरगोविंदसिंह के नौ वर्षीय पुत्र का शहादत स्थल है।
आसपास के दर्शनीय स्थल
वागाह बोर्डर पर हर शाम भारत की सीमा सुरक्षा बल और पाकिस्तान रेंजर्स की सैनिक टुकडियां इकट्ठी होती है। विशेष मौकों पर मुख्य रूप से १४ अगस्त के दिन जब पाकिस्तान का स्वतंत्रता दिवस समाप्त होता है और भारत के स्वतंत्रता दिवस की सुबह होती है उस शाम वहां पर शांति के लिए रात्रि जागरण किया जाता है। उस रात वहां लोगों को एक-दुसरे से मिलने की अनुमति भी दी जाती है। इसके अलावा वहां पर पूरे साल कंटिली तारें, सुरक्षाकर्मी और मुख्य द्वार के अलावा कुछ दिखाई नहीं देता।
अमृतसर से करीब २२ किलोमीटर दूर इस स्थान पर एक तालाब है। ऐसी मान्यता है कि इसके पानी में बीमारियों को दूर करने की ताकत है। यह तालाब बिमारियों को अपने अंदर घोल लेता है।
अमृतसर के व्यंजन पूरे विश्व में प्रसिद्ध हैं। यहां का बना चिकन, मक्के की रोटी, सरसों का साग और लस्सी बहुत प्रसिद्ध है। खाने-पीने वाले शौकीन लोगों के लिए पंजाब स्वर्ग माना जाता है। दरबार साहिब के दर्शन करने के बाद अधिकतर श्रद्धालु भीजे भठुर, रसीली जलेबी और अन्य व्यंजनों का आनंद लेने के लिए भरावन के ढाबे पर जाते हैं। यहां की स्पेशल थाली भी बहुत प्रसिद्ध है। इसके अलावा लारेंस रोड की टिक्की, आलू-पूरी और आलू परांठे बहुत प्रसिद्ध हैं। अमृतसर के अमृतसरी कुल्चे बहुत प्रसिद्ध है। अमृतसरी कुल्चों के लिए सबसे बेहतर जगह मकबूल रोड के ढा़बे हैं, यहां केवल २ बजे तक ही कुल्चे मिलते हैं। पपडी़ चाट और टिक्की के लिए बृजवासी की दूकान प्रसिद्ध है। यह दूकान कूपर रोड पर स्थित है। लारेंस रोड पर बी.बी.डी.ए.वी. गर्ल्स कॉलेज के पास शहर के सबसे अच्छे आम पापड़ मिलते हैं।
खाने के साथ-साथ अमृतसर अपने मांसाहारी व्यंजनों के लिए भी प्रसिद्ध है। मासंहारी व्यंजनों में अमृतसरी मछी बहुत प्रसिद्ध है। इस व्यंजन को चालीस साल पहले चिमन लाल ने तैयार किया था। अब यह व्यंजन अमृतसर के मांसाहारी व्यंजनों की पहचान है। लारेंस रोड पर ६. सूरजीत चिकन हाऊस अपने भूने हुए चिकन के लिए और कटरा शेर सिंह अपनी अमृतसरी मछी के लिए पूरे अमृतसर में प्रसिद्ध है।
अमृतसर का बाजार काफी अच्छा है। यहां हर तरह के देशी और विदेशी कपडे़ मिलते हैं। यह बाजार काफी कुछ लाजपत नगर जैसा है। अमृतसर के पुराने शहर के हॉल बाजार के आस-पास के क्षेत्र मुख्यत: कोतवाली क्षेत्र के पास परंपरागत बाजार हैं। इन बाजारों के अलावा यहां पर अनेक कटरे भी हैं। यहां पर आभूषणों से लेकर रसोई तक का सभी सामान मिलता है। यह अपने अचारों और पापडों के लिए बहुत प्रसिद्ध है। पंजाबी पहनावा भी पूरे विश्व में बहुत प्रसिद्ध है। खासकर लड़कियों में पंजाबी सूट के प्रति बहुत चाव रहता है। सूटों के अलावा यहां पर पगडी़, सलवार-कमीज, रूमाल और पंजाबी जूतियों की बहुत मांग हैं। दरबार साहब के बाहर जो बाजार लगता है। वहां पर स्टील के उच्च गुणवत्ता वाले बर्तन और कृपाण मिलते हैं। कृपाण को सिक्खों में बहुत पवित्र माना जाता है। इन सब के अलावा यहां पर सिक्ख धर्म से जुड़ी किताबें और साहित्य भी प्रचुर मात्रा में मिलता है।
यह भारत के बिल्कुल पश्चिम छोर पर स्थित है। यहां से पाकिस्तान केवल २५ किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। राष्ट्रीय राजमार्ग १ द्वारा करनाल, अम्बाला, खन्ना,जलंधर और लुधियाना होते हुए अमृतसर पहुंचा जा सकता है।
दूरी: यह दिल्ली से उत्तर पूर्व में ४४७ किलोमीटर की दूरी पर स्थित है।
अमृतसर जाने के लिए सबसे अच्छा समय अक्टूबर से मार्च है
दिल्ली से यात्रा में लगने वाला समय: रेलमार्ग और सडक मार्ग से ९ घंटे, वायुमार्ग से १ घंटा।
श्री गुरु रामदास जी अन्तर्राष्ट्रीय विमानक्षेत्र अमृतसर से करीब ११ किलोमीटर की दूरी पर राजासांसी में स्थित है, जिसे तय करने में १५ मिनट का समय लगता है। यह हवाई अड्डा दिल्ली से अच्छी तरह जुडा हुआ है।
दिल्ली से शताब्दी, व कई एक्सप्रैस और मेल ट्रेनों द्वारा आसानी से अमृतसर रेलवे स्टेशन पहुंचा जा सकता है।
हिसार-अमृतसर१४६५३ में लगने वाला समय १२:०५ आम - ०७:२० आम किराया १२5 रोजाना का
अपनी कार से भी ग्रैंड ट्रंक रोड द्वारा आसानी से अमृतसर पहुंचा जा सकता है। बीच में विश्राम करने के लिए रास्ते में सागर रत्ना, लक्की ढाबा और हवेली अच्छे रस्तरां है। यहां पर रूककर कुछ देर आराम किया जा सकता है और खाने का आनंद भी लिया जा सकता है। इसके अलावा दिल्ली के कश्मीरी गेट बस अड्डे से भी अमृतसर के लिए बसें जाती हैं।
बख्शी राम अरोड़ा इस शहर के महापौर हैं। कांग्रेस के गुरूजीत सिंह औंजला यहाँ से साँसद हैं। अमृतसर शहर में पाँच विधान सभा निर्वाचनक्षेत्र हैं, तथा यहाँ के विधायक हैं-अनिल जोशी, नवजोत कौर सिद्धू, ओमप्रकाश सोनी, राज कुमार, इंदरबीर सिंह। अमृतसर जिले में कुल ११ विधान सभा निर्वाचनक्षेत्र आते हैं।
इन्हें भी देखें
पंजाब के शहर
अमृतसर ज़िले के नगर |
झाँसी (झांशी) (झांसी) भारत के उत्तर प्रदेश राज्य के झाँसी जनपद में स्थित एक नगर है। यह जनपद का मुख्यालय भी है। यह नगर भारतभर में झाँसी की रानी की १८५७ के प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में ऐतिहासिक भूमिका के कारण प्रसिद्ध है। शहर से तीन प्रमुख राजमार्ग गुजरते हैं - राष्ट्रीय राजमार्ग २७, राष्ट्रीय राजमार्ग ३९ और राष्ट्रीय राजमार्ग ४४।
यह शहर उत्तर प्रदेश एवं मध्य प्रदेश की सीमा पर स्थित है और बुन्देलखण्ड क्षेत्र के अन्तर्गत आता है। झाँसी एक प्रमुख रेल एवं सड़क केन्द्र है और झाँसी जिले का प्रशासनिक केन्द्र भी है। झाँसी शहर पत्थर निर्मित किले के चारो तरफ फैला हुआ है, यह किला शहर के मध्य स्थित बँगरा नामक पहाड़ी पर निर्मित है। उत्तर प्रदेश में २०.७ वर्ग कि॰ मी॰ के क्षेत्र में फैला झाँसी पर प्रारम्भ में चन्देल राजाओं का नियंत्रण था। उस समय इसे बलवन्त नगर के नाम से जाना जाता था। झाँसी का महत्व सत्रहवीं शताब्दी में ओरछा के राजा बीर सिंह देव के शासनकाल में बढ़ा। इस दौरान राजा बीर सिंह और उनके उत्तराधिकारियों ने झाँसी में अनेक ऐतिहासिक इमारतों का निर्माण करवाया।
बुन्देलखंड का गढ़ माने जाने वाले झाँसी का इतिहास संघर्षशील है। १८५७ में झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई ने अंग्रेजों की अधीनता स्वीकार करने के स्थान पर उनके विरूद्ध संघर्ष करना उचित समझा। वे अंग्रेजों से वीरतापूर्वक लड़ी और अन्त में वीरगति को प्राप्त हुईं। झाँसी नगर के घर-घर में रानी लक्ष्मीबाई की वीरता के किस्से सुनाए जाते हैं। हिन्दी कवियित्री सुभद्रा कुमारी चौहान ने इसे अपनी कविता, झाँसी की रानी, में वर्णित करा है:
बुन्देलों हरबोलों के मुख हमने सुनी कहानी थी
खूब लड़ी मर्दानी वो तो झाँसी वाली रानी थी
यह नगर ओरछा का प्रतापी वीर सिंह जू देव बुन्देला ने बसाया था उन्होंने १६०८ ई में बलवंत नगर गाँव के पास की पहाड़ी पर एक विशाल किले का निर्माण कराया व नगर बसाया। झाँसी का नाम झाँसी कैसे पड़ा इसके बारे में कहा जाता है जब वीर सिंह जू देव बुन्देला ओरछा अपने इस नगर को देख रहे थे तो उनको झाइसी (धुँधला) दिखाई दे रही थी तब उन्होंने अपने मंत्री से कहा कि झाइसी क्यों दिख रही है तो उनके मंत्री ने कहा झाइसी नही महाराज ये आपका नया शहर है तब से इसका नाम झाइसी हो गया जो आज झाँसी के नाम से जाना जाता है।
१७वीं शताब्दी बुन्देला राजा छ्त्रसाल ने सन् १७32 में मराठा साम्राज्य से मदद माँगी। मराठा मदद के लिए आगे आए। सन् १७34 में राजा छ्त्रसाल की मौत के बाद बुन्देला क्षेत्र का एक तिहाई हिस्सा मराठो को दे दिया गया। मराठो ने शहर का विकास किया और इसके लिए ओरछा से लोगो को ला कर बसाया गया।
सन् १८०६ मे मराठा शक्ति कमजोर पडने के बाद ब्रितानी राज और मराठा के बीच् समझौता हुआ जिसमे मराठो ने ब्रितानी साम्राज्य का प्रभुत्व स्वीकार कर लिया। सन् १८१७ में मराठो ने पूने में बुन्देल्खन्ड क्षेत्र के सारे अधिकार ब्रितानी ईस्ट इण्डिया कम्पनी को दे दिये। सन् १८५३ में झाँसी के राजा गंगाधर राव की मृत्यु हो गई। तत्कालीन गवर्नल जनरल ने झाँसी को पूरी तरह से अपने अधिकार में ले लिया। राजा गंगाधर राव की विधवा रानी लक्ष्मीबाई ने इसका विरोध किया और कहा कि राजा गंगाधर राव के दत्तक पुत्र को राज्य का उत्त्तराधिकारी माना जाए, परन्तु ब्रितानी राज ने मानने से इन्कार कर दिया। इन्ही परिस्थितियों के चलते झाँसी में सन् १८५७ का संग्राम हुआ। जो कि भारतीय स्वतन्त्र्ता संग्राम के लिये नीव का पत्थर साबित हुआ। जून १८५७ में १२वीं पैदल सेना के सैनिको ने झाँसी के किले पर कब्जा कर लिया और किले में मौजूद ब्रितानी अफसरो को मार दिया गया। ब्रितानी राज से लडाई के दोरान रानी लक्ष्मीबाई ने स्वयं सेना का सन्चालन किया। नवम्बर १८५८ में झाँसी को फिर से ब्रितानी राज में मिला लिया गया और झाँसी के अधिकार ग्वालियर के राजा को दे दिये गये। सन् १८८६ में झाँसी को यूनाइटिड प्रोविन्स में जोडा गया जो स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद १९५६ में उत्तर प्रदेश बना।
रानी झाँसी राज्याभिषेक
४ जून १८५७ को भारतीय सैनिकों ने अंग्रेजों के खिलाडी युद्ध किया। ९ जून को रानी लक्ष्मीबाई को झांसी सौंपी। १० जून १८५७ को दत्तक पुत्र दामोदरराव नेवालकर के नाम पर महारानी लक्ष्मीबाई का राज्याभिषेक हुआ और वह समुचे बुन्देलखण्ड की साम्राज्ञी बनी। राजमाता बनते ही उन्होंने प्रजा के हीत के निर्णय तथा आदेश पारीत किये। बुन्देलखण्ड के किसानों का लगान माफ किया था। महारानी लक्ष्मीबाई का यह स्वर्ण राजकाल पहिला चरण (२१ नवम्बर १८५३ से १० मार्च १८५४) तथा द्वितीय चरण में (४ जून १८५७ से ४ अप्रैल १८५८) तक रहा.
रानी झाँसी का मन्त्रीमण्डल
राज्याभिषेक होने के बाद अधिकारीक रूप से महारानी लक्ष्मीबाई यह झाँसी के साथ पुरे बुंदेलखंड की साम्रज्ञी हो गयी. ११ जून १८५७ को रानी ने पहला राजदरबार लगाया. और अपना मन्त्रीमण्डल तयार किया. इस मन्त्रीमण्डल में २० सदस्य थे. ९ सदस्यों को पद दिया गया तो ११ सदस्यों को मन्त्रीमण्डल में शामिल किया गया.
मुख्य पदाधिकारी :-
महारानी लक्ष्मीबाई - प्रधान शासक
लक्ष्मणराव - प्रधानमंत्री
जवाहर सिंह - प्रधान सेनापती
रघुनाथ सिंह - सरसेनापती
मोरोपंत - प्रधान (कामठाने)
नाना भोपटकर - न्यायाधीश
मोतीबाई - जासूस विभाग प्रधान
तात्या टोपे - गुप्तचर
गुलाम गौस खान - मुख्य तोपची
मन्त्रीमण्डल सदस्य :
भाऊबख्शी, मोतीबाई, रघुनाथ सिंह, खुदाबख्श, मुहम्मद जमाँ खाँ, मुन्दर, सुन्दर, काशीबाई, राव दूल्हाजू, अली बहादुर और पीर अली.
ऐसे २० सदस्यों को मिलाकर झाँसी का मंत्री मंडल तयार किया गया.
झाँसी शहर बुन्देलखन्ड क्षेत्र में अध्ययन का एक प्रमुख केन्द्र है। विद्यालय एवं अध्ययन केन्द्र सरकार तथा निजी क्षेत्र द्वारा चलाये जाते है। बुंदेलखंड विश्वविद्यालय, जिसकी स्थापना सन् १९७५ में की गयी थी, विज्ञान, कला एवं व्यवसायिक शिक्षा की उपाधि देता है। झाँसी शहर और आसपास के अधिकतर विद्यालय बुन्देलखण्ड विश्वविद्यालय से सम्बद्ध है। बुन्देलखण्ड अभियान्त्रिकी एवं तकनिकी संस्थान उत्तरप्रदेश सरकार द्वारा स्थापित तकनिकी संस्थान है जो उत्तर प्रदेश तकनिकी विश्वविद्यालय से सम्बद्ध है। रानी लक्ष्मीबाई चिकित्सा संस्थान चिकित्सा विज्ञान में उपाधि प्रदान करता है। झॉसी में आयुर्वेदिक अध्ययन संस्थान भी है जो कि प्राचीन भारतीय चिकित्सा विज्ञान "आयुर्वेद" की शिक्षा देता है। उच्च शिक्षा के अलावा झॉसी में अनेक प्राथमिक विद्यालय भी है। ये विद्यालय सरकार तथा निजी क्षेत्र द्वारा चलाये जाते है। विध्यालयो में शिक्षा का माध्यम हिन्दी एवं अंग्रेजी भाषा है। विद्यालय उत्तर प्रदेश् माध्यमिक शिक्षा परिषद, केन्द्रिय माध्यमिक शिक्षा परिषद से सम्बद्ध है। झॉसी का पुरुष् साक्षरता अनुपात ८०% महिला साक्षरता अनुपात ५१% है, तथा कुल् साक्षरता अनुपात ६६% है।
प्रमुख शिक्षा संस्थान
बकड (बुन्देलखण्ड महाविद्यालय), झाँसी।
श्री गुरु नानक ख़ालसा इण्टर कॉलेज, झाँसी।
श्री गुरु हर किशन डिग्री कॉलेज, झाँसी।
श्री एम एल पाण्डे एग्लो विदिक जूनियर हाईस्कूल खाती बाबा झाँसी|
भानी देवी गोयल सरस्वती विद्यामन्दिर, झाँसी |
पं. दीनदयाल उपाध्याय विद्यापीठ बालाजी मार्ग, झाँसी।
रघुराज सिन्ह पब्लिक स्कूल, पठोरिया, दतिया गेट
मारग्रेट लीस्क मेमोरिअल इंग्लिश स्कूल एण्ड कॉलेज
राजकीय इण्टर कॉलेज
बिपिन बिहारी इण्टर कॉलेज
क्राइस्ट दि किंग कॉलेज
रानी लक्ष्मीबाई पब्लिक स्कूल
सैण्ट फ्रांसिस कान्वेंट इण्टर कॉलेज
लक्ष्मी व्यायाम मंदिर
आर्य कन्या इण्टर कॉलेज
ज्ञान स्थली पब्लिक स्कूल
हेलेन मेगडोनियल मेमोरियल कन्या इन्टर कोलेज
लोक मान्य तिलक कन्या इन्टर कोलेज
राज्य विद्युत परिषद इण्टर कॉलेज
सरस्वती संस्कार केंद्र सीपरी बाजार
महारानी लक्ष्मीबाई केन्द्रीय कृषि विश्वविद्यालय झाँसी
बुन्देलखण्ड अभियांत्रिकी एवं प्रोद्योगिकी संस्थान
चन्द्रशेखर आज़ाद विज्ञान एवं तकनीकी संस्थान
भारतीय चरागाह एवं चारा अनुसंधान संस्थान
झाँसी का किला उत्तर प्रदेश ही नहीं भारत के सबसे बेहतरीन किलों में एक है। ओरछा के राजा बीर सिंह देव ने यह किला १६१३ ई॰ में बनवाया था। किला बंगरा नामक पहाड़ी पर बना है। किले में प्रवेश के लिए दस दरवाजे हैं। इन दरवाजों को खन्देरो, दतिया, उन्नाव, झरना, लक्ष्मी, सागर, ओरछा, सैनवर और चाँद दरवाजों के नाम से जाना जाता है। किले में रानी झाँसी गार्डन, शिव मन्दिर और गुलाम गौस खान, मोती बाई व खुदा बक्श की मजार देखी जा सकती है। यह किला प्राचीन वैभव और पराक्रम का जीता जागता दस्तावेज है।
रानी लक्ष्मीबाई के इस महल की दीवारों और छतों को अनेक रंगों और चित्रकारियों से सजाया गया है। वर्तमान में किले को संग्रहालय में तब्दील कर दिया गया है। यहाँ नौवीं से बारहवीं शताब्दी की प्राचीन मूर्तियों का विस्तृत संग्रह देखा जा सकता है। महल की देखरख भारतीय पुरातत्व विभाग द्वारा की जाती है।
झाँसी किले में स्थित यह संग्रहालय इतिहास में रूचि रखने वाले पर्यटकों का मनपसन्द स्थान है। यह संग्रहालय केवल झाँसी की ऐतिहासिक धरोहर को ही नहीं अपितु सम्पूर्ण बुन्देलखण्ड की झलक प्रस्तुत करता है। यहाँ चन्देल शासकों के जीवन से संबंधित अनेक जानकारियाँ हासिल की जा सकती हैं। चन्देल काल के अनेक हथियारों, मूर्तियों, वस्त्रों और तस्वीरों को यहाँ देखा जा सकता है।
झाँसी के राजपरिवार के सदस्य पहले श्री गणेश मंदिर जाते थे जहा पर रानी मणिकर्णिका और श्रीमन्त गंगाधर राव नेवालकर की शादी हुई फिर इस महालक्ष्मी मन्दिर जाते थे। १८वीं शताब्दी में बना यह भव्य मन्दिर देवी महालक्ष्मी को समर्पित है। यह मन्दिर लक्ष्मी दरवाजे के निकट स्थित है।यह देवी आज भी झाँसी के लोगो की कुलदेवी है क्योंकि आदी अनादि काल से यह प्रथा रही है कि जो राज परिवार के कुलदेवी और कुलदैवत होते है वही उस नगरवासियों के कुलदैवत होते है तो झाँसी वालो के मुख्य अराध्य देव गणेशजी और आराध्य देवी महालक्ष्मी देवी है। झाँसी के राजपरिवार के ये कुल देवता है।
गंगाधर राव की छतरी
लक्ष्मी ताल में महाराजा गंगाधर राव की समाधि स्थित है। १८५३ में उनकी मृत्यु के बाद महारानी लक्ष्मीबाई ने यहाँ उनकी याद में यह स्मारक बनवाया है।
भगवान गणेश को समर्पित इस मन्दिर में महाराज गंगाधर राव और वीरांगना झांसी की रानी लक्ष्मीबाई के विवाह का एक संस्कार सीमांत पूजन इसी मंदिर में सम्पन्न हुआ था। यह भगवान गणेश का प्राचीन मन्दिर है। जहा हर बुधवार को सैकड़ो भक्त दर्शन का लाभ लेते है। यहाँ पर प्रत्येक माह की गणेश चतुर्थी को प्रातः काल और सायं काल अभिषेक होता है। साधारणतः यहाँ सायं काल के अभिषेक में बहुत भीड़ होती है। ऐसी मान्यता है कि इस गणेश मूर्ति के इक्कीस दिन इक्कीस परिक्रमा लगाने से अप्रत्यक्ष लाभ होता है और मनोकामनाएँ पूर्ण होती है।
झाँसी के नजदीकी पर्यटन स्थलों में ओरछा, बरूआ सागर, शिवपुरी, दतिया, ग्वालियर, खजुराहो, महोबा, टोड़ी फतेहपुर, आदि भी दर्शनीय स्थल हैं।
निकटतम दर्शनीय स्थल
सुकमा-डुकमा बाँध : बेतवा नदी पर बना हुआ यह अत्यन्त सुन्दर बाँध है। इस बाँध कि झाँसी शहर से दूरी करीब ४५ कि॰मी॰ है तथा यह बबीना शहर के पास है।
देवगढ् : झाँसी शहर से १२३ कि॰मी॰ दूर यह शहर ललितपुर के पास है। यहाँ गुप्ता वंश के समय् के विश्नु एवं जैन मन्दिर देखे जा सकते हैं।
ओरछा : झॉसी शहर से १८ कि॰मी॰ दूर यह स्थान अत्यन्त सुन्दर मन्दिरो, महलों एवं किलो के लिये जाना जाता है।
खजुराहो : झाँसी शहर से १७८ कि॰मी॰ दूर यह स्थान १० वी एवं १२ वी शताब्दी में चन्देला वंश के राजाओं द्वारा बनवाए गए अपने शृंगारात्मक मन्दिरो के लिए प्रसिद्ध है।
दतिया : झाँसी शहर से २८ कि॰मी॰ दूर यह राजा बीर सिह द्वारा बनवाये गये सात मन्जिला महल एवं श्री पीतम्बरा देवी के मन्दिर के लिए प्रसिद्ध है।
शिवपुरी : झाँसी से १०१ कि॰मी॰ दूर यह शहर ग्वालियर के सिन्धिया राजाओं की ग्रीष्म्कालीन राजधानी हुआ करता था। यह शहर सिन्धिया द्वारा बनवाए गए संगमरमर के स्मारक के लिये भी प्रसिद्ध है। यहाँ का माधव राष्ट्रिय उद्यान वन्य जीवन से परिपूर्ण है।
झाँसी से १०० किलोमीटर की दूरी पर स्थित ग्वालियर निकटतम एयरपोर्ट है। यह एयरपोर्ट दिल्ली, मुम्बई, वाराणसी, बैंगलोर आदि शहरों से नियमित फ्लाइटों के माध्यम से जुड़ा हुआ है।
झाँसी का रलवे स्टेशन वीरांगना लक्ष्मीबाई झाँसी जंक्शन भारत के तमाम प्रमुख शहरों अनेकों रेलगाड़ियों से जुड़ा है।
झाँसी में राष्ट्रीय राजमार्ग २५ और २६ से अनेक शहरों से पहुँचा जा सकता है। उत्तर प्रदेश राज्य परिवहन निगम की बसें झाँसी पहुँचने के लिए अपनी सुविधा मुहैया कराती हैं।
झाँसी से संबद्ध कुछ प्रतिष्ठित व्यक्तित्व
महा कवि केशवदास
इन्हें भी देखें
झाँसी का क़िला
झाँसी की रानी
झाँसी जिला अधिकारिक वेबसाईट
झाँसी नगर निगम् अधिकारिक वेबसाईट
उत्तर प्रदेश पयर्टन अधिकारिक वेबसाईट
मध्य प्रदेश पयर्टन अधिकारिक वेबसाईट
उत्तर प्रदेश के नगर
झाँसी ज़िले के नगर
भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम |
डोडा (डोडा) भारत के जम्मू और कश्मीर राज्य के डोडा ज़िले में स्थित एक नगर है। यह ज़िले का मुख्यालय है और ज़िले में तहसील का दर्जा भी रखता है।
शहर की जनसंख्या सन् २००१ की भारतीय जनगणना में १३,२४९ थी, जो २०११ की जनगणना तक २१,६०५ हो गई। डोडा के लोग कश्मीरी की सिराजी उपभाषा और डोगरी की भदरवाही उपभाषा बोलते हैं।
डोडा समुद्रतल से १,१07 मीटर की ऊँचाई पर है।
इन्हें भी देखें
जम्मू और कश्मीर के शहर
डोडा ज़िले के नगर |